कृष्ण भक्ति काव्य

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप

  • कृष्ण के मिथकीय व्यक्तित्व के विकास को समझ सकेंगे;
  • भक्ति चिंतन और भक्ति संवेदना के आधार पर कृष्ण काव्य का मूल्यांकन कर सकेंगे;
  • कृष्ण काव्य के संदर्भ में मध्यकालीन समाज के अंतर्द्वन्द्वों की चर्चा कर सकेंगे; और
  • कृष्ण भक्ति के संदर्भ में उपजे सांस्कृतिक आंदोलन को भी आप समझ सकेंगे,
  • जिसने कला के विविध क्षेत्रों को प्रभावित किया।

कृष्ण भक्तिकाव्य एक लंबा समय पार करता है। कृष्ण का व्यक्तित्व प्राचीन है और उसमें परिवर्तन होते रहे हैं। इतिहास, गाथा, पुराण, मिथकीय जगत् सब उसमें सम्मिलित हुए हैं। महाभारत में वे सूत्रधार की भूमिका में हैं और यह उनकी असंदिग्ध स्वीकृति है। मध्यकाल तक आते-आते कृष्ण का अवतारी रूप भारतीय भाषाओं की रचनाशीलता में स्थापित हुआ। भागवत् को भक्ति का प्रस्थान ग्रंथ स्वीकार किया जाता है जहाँ कृष्णलीला के उत्स मौजूद हैं, राधा की अनुपस्थिति अवश्य आश्चर्य में डालती है। लगभग इसी समय छठी-नौंवीं शताब्दी के बीच तमिल आलवार संतों का दिव्यप्रबंधम है जहाँ कृष्णभक्ति को पूरी रागमयता में प्रस्तुत किया गया।

पुराणों में कृष्ण का मानुषीकरण भक्तिकाव्य को नयी दिशाओं में अग्रसर करता है और उसे व्यापकता मिलती है। जयदेव से लेकर अष्टछापी कवियों, सूरदास आदि तक इसकी लीला का प्रसार है।

एक विचारणीय प्रश्न यह उठता है कि कृष्णभक्ति काव्य के विकास में वैष्णवाचार्यों की भूमिका क्या है और कवियों ने इस चिंतन का उपयोग कैसे किया। आलवार संतों की भक्ति भावनामय है, पर भागवत को कृष्ण के अवतारी रूप का बराबर ध्यान है और उसमें ईश्वरत्व के संकेत निरंतर मौजूद हैं। रामानुजाचार्य ने भक्ति का प्रपत्ति दर्शन विकसित किया जिसमें सब सम्मिलित हो सकते हैं। पर जहाँ तक कृष्णभक्ति का संबंध है, निम्बार्क का प्रमुख स्थान है जो कृष्ण अथवा वासुदेव को पर ब्रह्म मानते है – सच्चिदानन्द । यहाँ राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति की स्वीकृति है। आगे चलकर वल्लाभाचार्य ने विशिष्टाद्वैत तथा पुष्टिमार्ग के माध्यम से इसे पूर्णता पर पहुँचाया। आचार्यों ने कृष्ण भक्तिकाव्य को बौद्धिक आधार दिया, पर कवियों ने उसे संवेदन-संसार में विलयित करने का प्रयत्न किया। साथ ही इसको व्यापकत्व भी मिला। हिंदी कृष्ण भक्त कवियों के साथ बंगाल में चैतन्य, चंडीदास आदि हैं और असम में शंकर देव ।

कृष्ण भक्तिकाव्य मध्यकालीन सामंती समाज की उपज है पर उसका वैशिष्ट्य यह है कि वह उसे संवेदना के धरातल पर ललकारता भी है। सामंती देहवाद के स्थान पर वह प्रेममय रागभाव को स्वीकृति देता है, जिसका पर्यवसान भक्ति में होता है। जिस गोकुल-वृन्दावन में कृष्णलीला का सर्वोत्तम रचाया गया, वह बैकुंठ समान है। कृष्ण, जीव के सुख के लिए अवतरित होते हैं और वे निर्विकार हैं। बाल लीलाओं के माध्यम से कृष्ण का निर्मल रूप उभरता है और गोवर्धन लीला जैसे प्रसंगों से कृष्ण के व्यक्तित्व का लोकरक्षक रूप स्थापित होता है क्योंकि वे इन्द्र को चुनौती देते हैं। कृष्ण का व्यक्तित्व खुली भूमि पर है, जिसमें प्रकृति की भी भूमिका है। यहाँ यथार्थ लोकसंस्कृति के माध्यम से आया है, इसलिए उसकी पहचान कठिन है।

एक प्रश्न लोक और शास्त्र अथवा लोकछवि का भी है। भक्ति का शास्त्र निर्मित हुआ और काव्यशास्त्र भी। पर कृष्ण-भक्तिकाव्य शास्त्र के स्थान पर लोक का वरण करता है और कर्मकांड आदि की यहाँ कोई अनिवार्यता नहीं है। उपास्य-उपासक के मध्य सीधा संवाद इसकी विशेषता है। कृष्ण की जो लोकछवि लीलाओं के माध्यम से उभरती है, वही उन्हें पूज्य बनाती है। इसलिए कवियों का आग्रह सगुण भक्ति पर है, जिसका आधार कृष्ण की विभिन्न लीलाएँ हैं – बालजीवन, माखनलीला, वृन्दावन विहार, रास आदि। ये कवि मानते हैं कि निर्गुण कठिन है, इसलिए वे सगुण का वरण करते हैं। भ्रमरगीतसार प्रसंग में गोपिकाएँ ऊधौ द्वारा प्रतिपादित निर्गुण को अस्वीकार कर देती हैं। मर्यादा के स्थान पर यहाँ रागात्मकता का आग्रह है।

कृष्ण भक्तिकाव्य में अष्टछाप के कवियों को विशेष महत्व दिया जाता है, जिनमें सूरदास सर्वोपरि हैं। रागभाव से भक्ति के उच्चतम धरातल पर पहुँचने के प्रयत्न में कवियों ने ब्रजभाषा के लोकभाषा रूप को ग्रहण किया और लोकप्रियता मिली। संगीत से मिलकर वह जनवाणी में प्रवेश कर गया। यह भी विचारणीय पक्ष है कि क्या कृष्ण भक्तिकाव्य को कृष्ण-चरागाही संस्कृति से संबद्ध कर के देखा जा सकता है। इस इकाई में हम इस विषय पर भी विचार करेंगे। एक उल्लेखनीय पक्ष यह है कि कृष्ण भक्तिकाव्य कलाओं के अंतरावलम्बन का साक्ष्य प्रस्तुत करता है। अपनी दृष्टि में वह उदार है कि रसखान जैसे कवि इस ओर आकृष्ट हुए। कृष्णलीला, साहित्य के अतिरिक्त संगीत, चित्र आदि के माध्यम से भी व्यक्त हई और इस प्रकार कृष्ण भक्तिकाव्य का समग्र कला-संसार निर्मित हुआ और उसे व्यापकत्व मिला।

कृष्ण का विकास

भारतीय परंपरा में राम और कृष्ण दो ऐसे विशिष्ट चरित्र हैं, जिन्होंने संपूर्ण रचनाशीलता को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। उन्हें विष्णु के अवतार के रूप में देखा गया और भारतीय समाज में उन्हें व्यापक स्वीकृति मिली। प्राय: माना जाता है कि राम त्रेता के अवतार हैं और कृष्ण द्वापर के। पर विचारणीय तथ्य यह है कि कृष्ण के व्यक्तित्व का विकास कुछ चरणों में हुआ और मध्यकाल तक आते-आते उनमें इतिहास के साथ गाथा का ऐसा संयोजन हो चुका था कि उन्हें “सोलह कला अवतार” कहा गया। भारतीय रचनाशीलता ने कृष्ण के बालरूप से लेकर महाभारत तक के उनके व्यक्तित्व का उपयोग किया और वे ऐसे चरित्र हैं जो केवल साहित्य तक सीमित नहीं हैं, नृत्य, संगीत, चित्र, मूर्ति, लोक समग्र रचना-संसार में उनकी उल्लेखनीय उपस्थिति है। कृष्ण का चरित्र इतिहास के लंबे प्रवाह में रूपांतरित होता रहा है और महाभारत से लेकर पुराण तक उन्होंने जो स्वरूप ग्रहण किया, उससे उनका बहुरंगी व्यक्तित्व निर्मित हुआ। कवियों ने इसे अपने-अपने ढंग से ग्रहण किया।

अवतारवाद और कृष्ण का मानुषीकरण

कृष्ण का नामोल्लेख यद्यपि ऋग्वेद में है और वैदिक युग के देवता इन्द्र के प्रतिद्वंद्वी रूप में उन्हें देखा गया है, पर वास्तविकता यह है कि महाभारत में कृष्ण के मानुषीकरण का जो प्रयत्न हुआ है वह रचनाशीलता की दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है। ध्यान रखना होगा कि देवत्व का अलौकिक और कई बार अविश्वसनीय चमत्कार से भरा रूप कुछ कठिनाइयाँ उपस्थित करता है। उससे भय और आतंक का संचार तो हो सकता है, पर संवाद तथा साधारणीकरण में कठिनाई होती है। अग्रसर होते इतिहास में, भारतीय समाज में कई प्रकार के तत्व संयोजित हुए, जिन्होंने कृष्ण के रूपायित होने में अपने प्रभाव का परिचय दिया। हमारे लिए कृष्ण के व्यक्तित्व-विकास के इतिवृत्त पर विचार करना इतना उपयोगी नहीं, जितना यह कि जब रचना में उन्हें केंद्रीयता मिली, तब उनके चारों ओर एक समग्र गाथा-संसार निर्मित हो चुका था। इतिहास के बिंदु पृष्ठभूमि में चले गए थे और लोकमानस ने उन्हें अपना प्रिय आराध्य स्वीकारते हुए, उनमें कई ऐसे तत्वों का प्रवेश करा दिया था, जिनमें लोक उपादानों और कल्पना की भूमिका होती है। वे इतिहास से चलकर एक गाथा-पुरुष बने और उनके चारों ओर एक मिथकीय संसार निर्मित हुआ।

अवतारवाद के विकास में नर और नारायण के संयोजन की भूमिका महत्वपूर्ण है। परिकल्पित देवत्व की विश्वसनीयता के लिए यह आवश्यक है कि पृथ्वी पर उसका अवतरण हो, नारायण नर रूप में अवतरित हों। इसके लिए तर्क दिया गया कि जब मूल्य-मर्यादाएँ विनष्ट हो जाती हैं, अत्याचार-अनाचार बहुत बढ़ जाते हैं, तब संसार में सत्य की प्रतिष्ठा के लिए देव का मनुष्य रूप में अवतरण होता है। गीता ने इसे कृष्ण से ही कहलवाया : “यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम्।  परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्,, धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे’। महाभारत एक विकसनशील महाकाव्य माना जाता है और ई.पू. समय में उसका रूप स्थिर हुआ। वहाँ कृष्ण सूत्रधार हैं, यथार्थ की भूमि पर। उनका प्रयत्न है कि पांडव-कौरव संघर्ष न हो और वे इसे टालने की भरसक चेष्टा करते हैं। वे युद्ध के विनाशकारी रूप को समझते हैं, पर जब युद्ध आ ही गया है तो वे पांडवों के साथ हैं, जिनकी विजय में उनकी भूमिका असंदिग्ध है। कोई और साधारण चरित्र होता तो उसकी नैतिकता को लेकर प्रश्न उठाए जा सकते हैं कि आखिर कृष्ण ने ऐसा क्यों किया?

शिखंडी की सहायता से भीष्म पर आक्रमण, अश्वत्थामा की मृत्यु की गलत सूचना के सहारे द्रोणाचार्य का अंत और दुर्योधन पर कटि के नीचे भीम का गदा प्रहार आदि कृष्ण को कटघरे में खड़ा करने के लिए पर्याप्त हैं। पर हमारे लिए विचारणीय तथ्य यह है कि कृष्ण यथार्थ और वास्तविकता की भूमि पर उपस्थित हैं, और वही जानते हैं कि कोरे आदर्शवाद के सहारे युद्ध नहीं जीता जा सकता। आखिर शकुनि ने भी तो छल से ही जुआ जीता था और अभिमन्यु को चक्रव्यूह में आठ महारथियों ने घेर लिया था। यदि गीता महाभारत का ही अंश है तो दो कृष्ण हैं – महाभारत के सूत्रधार कृष्ण और गीता के परमज्ञानी कृष्ण।

भागवत और सगुण कृष्ण

अभी जो हमने चर्चा की उस का प्रयोजन यह है कि कृष्ण यथार्थ की भूमि पर उपस्थित नायक हैं, परिवर्तित समय का बोध कराते हुए। कवियों ने रचना में जब उनका उपयोग किया, तब उन्हें पुनर्सर्जित करने का प्रयत्न किया। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि रचना में कृष्ण का सुदर्शन चक्रधारी और महाभारत का सूत्रधार रूप परिपार्श्व में चले गए। यदि कहीं साहित्य में आए भी तो प्राय: वर्णनात्मक ढंग से। इसके स्थान पर उनकी बाललीला, गो-चारण, गोकुल-प्रसंग , वृन्दावन विहार, गोप-गोपी साहचर्य, रास प्रकरण, राधा-प्रेम प्रमुखता पा गए। इस संदर्भ में भागवत को प्रस्तुत किया जा सकता है जिसे ब्रह्मसूत्र, उपनिषद्, गीता के क्रम में चतुर्थ प्रस्थान कहा गया है, भक्ति का प्रस्थान ग्रंथ तो वह है ही।

पुराणों में – कृष्णलीला का वर्णन विस्तार से आया है, पर ब्रह्मवैवर्त का उल्लेख इसलिए जरूरी है कि यहाँ राधा उपस्थित है। भागवत में उनका न होना आश्चर्यजनक है और विद्वानों के समक्ष कठिनाई उपस्थित करता है कि ऐसा क्यों हुआ कि कृष्ण प्रिया राधा यहाँ अनुपस्थित हैं। कई तर्क दिए जाते हैं और उनमें एक यह कि राधा आभीरों की प्रिय देवी है। घूमंतू जाति के रूप में पश्चिम से चलकर वह उत्तर भारत आई। जहाँ भागवत की रचना हुई, वह दक्षिण का भाग उस रूप माधुरी-संपन्न नारी व्यक्तित्व से अछूता रहा गया। पर इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भागवतकार को बराबर यह एहसास है कि जिस कृष्ण का लीला-गान वह कर रहा है वह नर रूप होकर नारायण है और लौकिक होकर भी दिव्य है।

इसी माध्यम से भक्ति-स्थापना का उद्देश्य संपादित होता है। लीला, जीवधारियों के सुख के लिए है और देवरूप कृष्ण उसमें नर रूप में सम्मिलित होकर भी असम्पृक्त हैं। भागवत में रासलीला के मध्य कृष्ण का अंतर्धान हो जाना और गोपिकाओं का विरह-प्रलाप इस दृष्टि से विचारणीय है कि नर-लीला के बावजूद कृष्ण का देवरूप सुरक्षित रहना चाहिए। भागवत में बार-बार कृष्ण के देवत्व का उल्लेख है और एकादश अध्याय में भक्ति का विस्तृत विवेचन है। यहाँ भक्ति समाजीकृत होती है, जातिवाद की सीमाएँ टूटती हैं क्योंकि भक्ति सबके लिए है। 

भक्ति चिंतन

प्राय: कह दिया जाता है कि भागवत भक्ति का प्रस्थान ग्रंथ है और चूंकि वह कृष्णगाथा से संबद्ध है, इसलिए कृष्ण भक्तिकाव्य उसी से प्रेरणा ग्रहण करता है। पर यहाँ कुछ तथ्य विचारणीय हैं जिनमें एक सैद्धांतिक पक्ष यह है कि इतिहास, गाथा अथवा किसी कालखंड विशेष की सामग्री का उपयोग जब रचना में होता है, तब यह प्रक्रिया अनुवाद की नहीं होती। परिवर्तित समय-संदर्भ में उसकी नयी व्याख्या होती है और रचना में एक प्रकार से उसका पुनर्जन्म होता है। महाभारत, भागवत, आलवार संत, जयदेव, विद्यापति, चण्डीदास से लेकर सूरदास तक कृष्णकथा का स्वरूप एक ही नहीं है। समय और कवि की अपनी दृष्टि कृष्ण को रूपायित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कृष्णभक्ति काव्य के संदर्भ में एक प्रासांगिक प्रश्न यह भी उठता है कि कृष्णगाथा के साथ-साथ जो भक्ति चिंतन विकसित हो रहा था, उसने रचनाशीलता को किस रूप में प्रभावित किया।

दर्शन विचारधारा, रचना को किस सीमा तक प्रभावित करते हैं और साथ ही रचनाकार के समक्ष एक बड़ी चुनौती यह भी होती है कि रचना के बृहत्तर संवेदन संसार में उसे किस प्रकार विलयित करें कि वह बाहयारोपण न प्रतीत हो। कृष्णभक्ति काव्य नारायण को नर की भूमिका में प्रस्तुत करता है और देवों के मानुषीकरण की प्रक्रिया को गति देता है। कृष्णभक्त कवि का एहसास है कि वह जिस देव का वर्णन मानव रूप में कर रहा है, वह कहीं न कहीं विशिष्ट भी है। सामान्य के साथ विशिष्ट और साधारण के साथ असाधारण की इस द्वंद्वात्मक स्थिति को पार करते हुए भक्तिकाव्य जिस भक्तिदर्शन का संकेत संवेदन धरातल पर करता है, उसकी प्रेरणा तो उसे वैष्णवाचार्यों से मिली, पर कविता दर्शन शास्त्र, विचारधारा को अतिक्रमित करती हुई अधिक व्यापक विश्वसनीय संवेदन-संसार निर्मित करती है।

कृष्ण भक्तिकाव्य की पीठिका में व्यापक वैष्णव आंदोलन उपस्थित है, जिसने सभी भारतीय भाषाओं की रचनाशीलता को प्रभावित किया। मध्यकालीन कृष्ण भक्ति के संदर्भ में प्राय: एक प्रश्न यह भी उठाया जाता है कि काव्य में प्रस्थान रूप में भागवत को स्वीकारा जाए अथवा आलवारों के दिव्यप्रबंधम को। इतिहास की दृष्टि से ये समकालीन भी कहे जा सकते हैं। अधिकांश विद्वानों का विचार है कि कृष्णकथा के रूप में भागवत मौखिक परंपरा के रूप में प्रचलित था और छठी-नौवीं शताब्दी के मध्य दक्षिण में इसने वर्तमान स्वरूप ग्रहण किया। आलवार संतों का समय भी यही है जिसे तमिल साहित्य का भक्तिकाल कहा जाता है।

आलवार संतों के पदों का संकलन आचार्य नाथमुनि ने नौवीं शताब्दी के अंत में किया, जिसे ‘दिव्यप्रबंधम’ नाम दिया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि भागवत की बौद्धिक दृष्टि जहाँ कृष्ण के देवत्व को सुरक्षित रखने का प्रयत्न है और दिव्यप्रबंधम – जिसमें कृष्ण के प्रति आलवारों की सहज भावनामयता का प्रकाशन है – इन दोनों के संयोजन से परवर्ती कृष्ण भक्तिकाव्य विकसित हुआ। एक ओर कृष्ण का मानव रूप है जो उनकी लीलाओं के माध्यम से व्यक्त हुआ, दूसरी ओर उनके देवत्व के संकेत भी हैं। इतिहास की दृष्टि से यह भी उल्लेखनीय है कि गुप्त साम्राज्य का मुख्य वृत्त चौथी-पाँचवीं शताब्दी है, जिसे भागवत धर्म के पुनरुत्थानकाल के रूप में देखा जाता है।

वैष्णवाचार्यों की भूमिका

जिसे आज विचारधारा अथवा ‘आइडियॉलाजी’ कहा जाता है, उसके लिए मध्यकाल के संदर्भ में ‘दर्शन’शब्द का प्रयोग किया जाता है। संपूर्ण भक्तिकाव्य के संदर्भ में यह प्रश्न कई रूपों में उठाया गया है कि इसके मूल में कौन सी दार्शनिक अवधारणाएँ रही हैं और रचना को उन्होंने किस सीमा तक प्रभावित किया है। बहुत प्राचीन समय में जाने की आवश्यकता नहीं पर भारतीय मध्यकाल में जिसे दक्षिण का आचार्य युग कहा जाता है और जिसमें दिव्यप्रबंधम् के संकलनकर्ता नाथमुनि (नौंवी-दसवीं शती) प्रमुख प्रस्थान के रूप में हैं – इन्होंने भक्ति के द्वार सभी जातियों के लिए खोले।

आगे चलकर चतुष्सम्प्रदाय बने : रामानुज, मध्व, निम्बार्क, विष्णु स्वामी। इन आचार्यों ने शंकराचार्य की अद्वैत वेदान्ती व्याख्या से अपनी असहमति व्यक्त करते हुए, भक्ति का प्रवृत्तिमार्गी दर्शन निर्मित किया। रामानुज ने प्रपत्ति दर्शन अथवा शरणागति भाव का प्रतिपादन किया, जिसे संपूर्ण भक्तिकाव्य में देखा जा सकता है। ग्यारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के मध्य इन वैष्णवाचार्यों ने कई धरातलों पर कार्य किया। वे कल्पनाजीवी, अनुमानवादी भाष्यकार मात्र नहीं हैं, अपितु उन्होंने अपनी लंबी यात्राओं से दक्षिण-उत्तर को सांस्कृतिक स्तर पर जोड़ने का प्रयत्न भी किया। बौद्धिक स्तर पर भक्ति का विवेचन करते हए, उन्होंने शास्त्र के साथ ही लोक को भी अपने सामने रखा और इस प्रकार भक्तिकाव्य के लिए दार्शनिक पृष्ठभूमि निर्मित की।

चार प्रमुख वैष्णवाचार्यों के अलावा रामानन्द और वल्लभाचार्य का सांस्कृतिक प्रदेय सर्वाधिक उल्लेखनीय है। जहाँ तक कृष्ण भक्तिकाव्य का संबंध है, दार्शनिक निष्पत्तियों के लिए निम्बार्क और वल्लाभाचार्य का उल्लेख विशेष रूप से किया जाता है। निम्बार्क (बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी) देव कृष्ण को सर्वोपरि पर ब्रहम मानते हैं – सत् चित आनन्द से सम्पन्न । जो राधा भागवत में अनुपस्थित हैं वे निम्बार्क में महत्वपूर्ण स्थान पर हैं। इससे कृष्ण भक्तिकाव्य को नई गतिशीलता प्राप्त हुई। निम्बार्क संप्रदाय में यद्यपि प्रपत्ति अथवा शरणागति का भाव रामानुजाचार्य से साम्य रखता है, पर यहाँ आग्रह प्रेमभाव पर है। जिस राधा के लिए प्राय: ब्रह्मवैवर्त पुराण को आरंभिक प्रस्थान के रूप में स्वीकार किया जाता है, वह निम्बार्क संप्रदाय में विशिष्ट स्थान पर है। कृष्ण यदि सर्वेश्वर हैं तो राधा सर्वेश्वरी और इस प्रकार दोनों की समान स्थिति है। इससे कृष्ण भक्तिकाव्य के लीला प्रसंग को नई भंगिमा प्राप्त हुई। प्राय: कहा जाता है कि कृष्ण भक्तिकाव्य को नई दिशाओं में अग्रसर करने का श्रेय वल्लभाचार्य (पंद्रहवी-सोलहवीं शती) को है। वल्लभ का दार्शनिक सिद्धांत शुद्धाद्वैत है जो शंकर के मायावाद का खंडन करता है।

उन्होंने माया को ब्रह्म की शक्ति के रूप में निरूपित किया, पर यह भी प्रतिपादित किया कि ब्रह्म उसके आश्रित नहीं हैं। वल्लभ के लिए कृष्ण ही परब्रहम हैं जो परमानन्द रूप हैं – परम आनन्द के दाता। कल्पना की गई कि ब्रहम कृष्ण का जो अविकृत रूप है, वह हर स्थिति में बना रहता है, वह शुद्ध अद्वैत है। रमण की इच्छा से, वे नर रूप ग्रहण करते हैं, जहाँ मुख्य आशय जीव के सुख और कल्याण है। इस प्रकार वल्लभ का भक्ति चिंतन ईश्वर और जीव के मध्य एक घनिष्ठ संबंध स्थापित करता है, जहाँ ब्रहम लीला भूमि में संचरित होकर भी शुद्ध है, और जीव उनसे तदाकार होकर आनन्द की उपलब्धि करता है।

दर्शन में जो शुद्धाद्वैत है, वह व्यवहार अथवा साधना पक्ष में पुष्टि मार्ग कहा जाता है। पुष्टि’ का अर्थ है ईश्वर के अनुग्रह, प्रसाद, अनुकम्पा अथवा कृपा से पुष्ट होने वाली भक्ति। यहाँ ईश्वर की कृपा ही प्राप्य है, वही परम सुख और परम आनन्द है। कृष्णभक्ति में गोपिकाएँ मोक्ष की कामना नहीं करती, कृष्ण का दर्शन ही उनकी लालसा है, वही उनका सुख है। कृष्ण के प्रति निश्छल भाव से संपूर्ण समर्पण पुष्टि मार्ग का आग्रह है। इस प्रकार वल्लभ रामानुज की शास्त्रीय प्रपत्ति और शरणागति भाव को एक नयी दीप्ति प्रदान करते हैं। उन्होंने राधा की कल्पना. कृष्ण की परम आह्लादिनी शक्ति के रूप में की। इस प्रकार इन आचार्यों ने कृष्ण भक्तिकाव्य को पुष्ट वैचारिक आधार दिया, जिसे कवियों ने अपने संवेदन संसार में विलयित करने का प्रयत्न किया।

कृष्णभक्ति के विकास में आचार्यों की भूमिका के कुछ प्रमुख पक्ष हैं, जिन पर हमारा ध्यान जाना चाहिए। निम्बार्क, वल्लभ के साथ चैतन्य का भी उल्लेख करना होगा, जिन्होंने पूर्वांचल में कृष्णभक्ति का प्रचार किया और अपने षट्गोस्वामियों – रूप गोस्वामी, सनातन गोस्वामी आदि को वृन्दावन भेजा। इस प्रकार पूर्वांचल ब्रजभूमि से जुड़ा। चैतन्य के चिंतन का आधार भागवत् है, पर उनके चिन्तन में राधा की। उल्लेखनीय उपस्थिति है जिन्हें राधाभाव, महाभाव आदि के रूप में प्रस्तुत किया गया। इससे प्रेमभक्ति को प्रमुखता मिली, जिसे कीर्तन आदि के माध्यम से व्यक्त किया गया। कीर्तन-भाव के लिए चण्डीदास का स्मरण विशेष रूप से किया जाता है। भक्ति चिंतन के आधार पर चैतन्य के शिष्य रूपगोस्वामी ने भक्ति का एक शास्त्र निर्मित करने का प्रयत्न किया और ‘भक्ति रसामृतसिन्धु’ तथा उज्ज्वलनीलमणि’ ग्रंथ लिखे।

कृष्णभक्ति के आचार्य एक ओर दार्शनिक हैं और भक्ति का शास्त्र भी निर्मित करना चाहते हैं पर दूसरी ओर उन्हें यह एहसास भी है कि चिंतन की सार्थकता जीवन से सबंद होने में है, इसलिए वे इसके व्यवहार रूप अथवा साधना पक्ष की ओर भी ध्यान देते हैं। शास्त्र और लोक के द्वैत को पाटने का उनका यह प्रयत्न विशेष रूप से विचारणीय है क्योंकि इससे कृष्ण भक्तिकाव्य को एक ओर वैचारिक आधार मिला और दूसरी ओर उसकी लोक-सम्पृक्ति में गति आई। भाव-विचार की यह मैत्री उसे इतिहास के लंबे प्रवाह में संचरित करती है। कोरे तर्काश्रित विचार रचना में अधिक उपयोगी नहीं हो पाते और मात्र भावुकता लंबी दूरी नहीं तय कर पाती।

कृष्णभक्ति के आचार्यों ने राधा को प्रमुख स्थान देते हुए कृष्णलीला को नए आयाम दिए और उन्होंने राधा को कृष्ण से अपृथक् रूप में चित्रित किया। आगे चलकर हित हरिवंश (सोलहवीं शती) ने राधा को केंद्र में रखकर राधा-वल्लभ संप्रदाय की स्थापना की जहाँ राधा-कृष्ण की युगल उपासना का आग्रह मिलता है।

कृष्णभक्ति के आचार्यों ने कृष्ण के व्यक्तित्व को सहज मानव भूमि दी और सभी वर्गों, जातियों का प्रवेश यहाँ संभव हो सका। इस संदर्भ में प्राय: निर्गुण मत को यह श्रेय दिया जाता है कि वहाँ सामान्यजन के लिए अधिक अवसर है और कबीर से लेकर नानक तक की परंपरा इसका प्रमाण है। पद्धति का अंतर हो सकता है पर कृष्णभक्ति के आचार्यों के समक्ष भी यह आशय मौजूद है कि कृष्ण के व्यक्तित्व को अधिकाधिक सामान्यीकृत कैसे किया जाए। आचार्यों के साथ कृष्णभक्त कवियों के सामने भी यह प्रश्न बराबर उपस्थित है कि कृष्ण की लीलाओं के माध्यम से उन्हें सामान्यजन का समीपी बनाया जाए। पर वे इस कठिनाई को भी जानते हैं कि जिस प्रेम के माध्यम से भक्ति तक पहुँचने का उपक्रम किया जा रहा है, उसमें उदात्तता का प्रवेश कराना ही होगा, नहीं तो काव्य में साधारण रसिक रेखाएँ उभर कर रह जाएँगी। यह दुर्घटना रीतिकालीन काव्य के साथ हुई, जहाँ राधा-कृष्ण साधारण नायक-नायिका की भूमि पर आ गए।

मध्यकालीन समय और समाज

भक्तिकाव्य एक लम्बा समय पार करता है – चौदहवीं शती के आरंभ से लेकर सत्रहवीं शती के लगभग मध्य भाग तक और इसी दौर में कृष्ण भक्तिकाव्य भी सक्रिय है। इतिहास की दृष्टि से यह सल्तनतकाल और मुगलकाल है, जिसका मूल ढाँचा सामंती है। यहाँ प्रधान शासक हैं, सुल्तान तथा बादशाह, जिनके चारों ओर एक सामंती समाज है – उच्च पदों पर आसीन राजकुल से सबंद्ध अधिकारी, सेनापति, वजीर, अमीर-उमरा . से लेकर हजारी मनसबदार तक। केंद्रीय सत्ता को सुदृढ़ करने के लिए सूबों में विश्वसनीय सूबेदार हैं, जो प्रमुख शासक की तर्ज पर अपना दरबार चलाते हैं। इन सबसे देशी भाषाओं को नई सक्रियता मिली और भक्तिकाव्य की रचनाशीलता को नई दिशाएँ मिलीं। इस सम्पन्न सामंती समाज के विपरीत बहुसंख्यक ग्राम समाज है, अतिवृष्टि-अनावृष्टि से जूझता हुआ। यहाँ देखा जाए तो दो अलग संसार हैं, जैसे एक भोग विलास में मग्न और दूसरा जीवन-संघर्ष में उलझा हुआ। यह राजनीतिक-सामाजिक स्थिति है, जिसमें वर्ग-भेद स्पष्ट है। पर मध्यकालीन इतिहास का एक दूसरा पक्ष है, जिस ओर हमारा ध्यान जाना चाहिए और जो भक्तिकाव्य की सही समझ के लिए आवश्यक है। इसका सबंध उस सांस्कृतिक परिवेश से है जो रचना को व्यापक स्तर पर प्रभावित करता है। आरंभिक टकराहट के बाद दो प्रमुख जातियों से पारस्परिक संवाद की जो प्रक्रिया आरंभ हुई, वह अकबर जैसे उदार शासकों के समय में अपनी पूर्णता पर पहुँची। उसके दीन-ए-इलाही अथवा सुलहकुल को व्यापक जनसमर्थन नहीं मिला, पर इसमें संदेह नहीं कि वह सर्वधर्म समभाव का ईमानदार प्रयत्न था। इस सांस्कृतिक सौमनस्य के उदाहरण के रूप में सूफियों के उदारपंथ को प्रस्तुत किया जाता है।

सामंतवाद का विरोध

कृष्ण भक्तिकाव्य इस मध्यकालीन सामंती समाज की भूमिका पर विकास पाता है। रचना-सामर्थ्य की जानकारी के लिए यह तथ्य उपयोगी है कि महान रचनाशीलता स्वीकृति और निषेध के द्वंद्व से निर्मित होती है। गहरे स्तर पर समाज की जटिलताओं की पहचान उसका प्रस्थान है, और परिवेश से टकराते हुए, बृहत्तर संवेदन-संसार की रचना उसका सही गंतव्य है। इसे ‘विजन’ अथवा कवि-स्वप्न कहा गया और यह जितना विराट होगा, रचना उतनी ही समर्थ होगी। कृष्ण भक्तिकाव्य में समय से टकराहट उस रूप में। मुखर नहीं है, जिसके लिए प्राय: निर्गुणी संतों -कबीर आदि का उल्लेख किया जाता है।

यहाँ तक कि तुलसी के कलिकाल वर्णन को मध्यकालीन यथार्थ के रूप में देखा जाता है – ‘कलि बारहि बार दुकाल परै, बिन्नु अन्न दुखी सब लोग मरै’ आदि। पर कृष्णभक्ति काव्य अपने समय को दूसरे ढंग से देखता-समझता है और यहाँ मूल अंतर ‘कवि-दृष्टि’ का है। एक तो, यहाँ कृष्ण के बाल, किशोर, यौवन की लीलाओं का प्राधान्य है और महाभारत का सुदर्शन चक्रधारी रूप गौण हो गया है। दूसरे ब्रजमंडल की लीलाभूमि में गोकुल, वृन्दावन प्रमुखता प्राप्त करते हैं और सहचर रूप में राधा, गोपी, ग्वालि-बाल हैं। यहाँ प्रेम के माध्यम से भक्ति के सर्वोच्च घरातल पर पहुंचने का जो प्रयत्न है, वह एक प्रकार से सामंती समय के देहवाद के अतिक्रमण से उपजा है। प्रेम स्वयं में शुभ है, यदि उसमें शरीरवाद को पार कर सकने की क्षमता हो ।

कृष्णभक्त कवियों ने सामन्ती समाज के कुछ दृश्य स्वीकारे, महानायक कृष्ण के संदर्भ में कतिपय विरुद भी प्रयुक्त किए, पर उनकी निरंतर अभीप्सा यह है कि वे एक साथ कई सीमाओं का अतिक्रमण कर सकें। सबसे पहले उन्होंने चरितनायक कृष्ण को सहज लोकभूमि पर अवतरित किया ताकि वे सामान्यजन से समरस हो सकें। यहाँ देवत्व पृष्ठभूमि में है, और बीच-बीच में उसके संकेत भी हैं, वह उपदेशक वृत्ति से बाह्यारोपित नहीं है। यहाँ सब कुछ व्यापक संवेदन-संसार का अंश है, जिसमें ब्रज संस्कृति प्रमुखता प्राप्त करती है, जिसका प्रतिनिधित्व सामान्यजन करते हैं जैसे कृषक-चरवाहा आदि।

कृष्ण भक्तिकाव्य पर प्राय: इस ढंग से विचार होता रहा है कि इनमें किसी दर्शन-पंथ विशेष का प्रतिफलन किस रूप में हुआ है। इस संदर्भ में वल्लभ सम्प्रदाय के कृष्ण के बाल-किशोर रसिक रूप, अष्टयाम । पदगायन आदि की परंपरा का उल्लेख किया जाता है। पर हमारा ध्यान इस ओर भी जाना चाहिए कि आखिर कृष्ण के बाल रूप के आग्रह के मूल में कवि का क्या उद्देश्य हो सकता है? इस प्रश्न पर पंथ से थोड़ा हटकर विचार करना होगा। मध्यकाल का जो विलासी सामंती समाज है, उसे देखते हुए कृष्ण का सहज बाल-किशोर रूप इस ओर संकेत करता है कि जिसे हम सौंदर्य कहते हैं वह शरीर-सीमित नहीं है, उसकी कई उच्च इकाइयाँ हैं, जिनमें गुण, मूल्य, कर्म का सौंदर्य है। इसलिए भक्तिकाव्य में रूप, छवि आदि शब्दों का प्रयोग बहुलता से होता है। कृष्ण के बाल रूप पर ग्वाल-समाज का मुग्ध होना, एक प्रकार से । सामाजीकृत होने की प्रक्रिया है। नन्द के घर बेटा जन्मा है तो संपूर्ण ब्रजमंडल उस उत्सव में सम्मिलित है :

आज बन कौउ वै जनि जाइ।

सब गाइन बछरनि समेत, ले आनहु चित्र बनाइ।

ढोटा है रे भयौ महर के, कहत सुनाइ-सुनाइ।

सबहि घोष में भयो कुलाहल, आनंद उरन समाइ।

कृष्ण भक्तिकाव्य में रसिक रेखाओं की कमी नहीं है और कई प्रसंगों में उसमें ऐसा खुलापन भी है कि प्रचलित रूढ़ नैतिकता से उसकी संगति बिठा पाना संभव नहीं है। भागवत बार -बार कृष्ण के देवत्व का संकेत करता चलता है, पर कविता में इस प्रकार के बाह्यारोपण से संवेदनशीलता का क्षरण होता है। कृष्ण भक्तिकाव्य में सामंती सीमाओं का निषेध सर्वाधिक इस रूप में है कि यहाँ सब कुछ प्रकृति के विराट मंच पर घटित होता है। एक प्रकार से वह कृष्ण के व्यक्तित्व को नई दीप्ति देता है। कविता को राजभवन की सामंती सीमाओं से बाहर ले आना, ऐसा प्रयत्न है कि हमारा ध्यान इस ओर जाना चाहिए।

लोक और शास्त्र

कृष्ण भक्तिकाव्य के संदर्भ में प्राय: लोक और शास्त्र का प्रश्न उठाया जाता है, जो दूसरे रूप में अन्य रचनाओं में भी मौजूद है। शास्त्र कई धरातलों पर है, जिनमें प्रमुख है भक्ति चिंतन की वह लंबी परंपरा, जिसका संकेत हम पहले कर चुके हैं। इसके साथ पांडित्य शास्त्र की परंपरा भी है। भागवत प्रस्थान ग्रंथ है, पर रचना दर्शन-विचार का अनुवाद नहीं होती। कवि दृष्टि-विचारधारा के रूप में उसका उपयोग करते हैं, पर वहाँ पुस्तकीय ज्ञान का अतिक्रमण होता है। जीवन से संबद्ध होकर ही रचना विश्वसनीय बनती है मार्मिकता पाती है। इसलिए कबीर ने प्रेम के ढाई आखर का आग्रह किया।

भक्ति का विवेचन भाष्य, टीका के रूप में तो है ही, उसे शांत रस से अलगाकर दशम रस बनाने का प्रयत्न भी किया गया है। नवधा भक्ति की चर्चा प्राय: सभी कवियों ने की है, पर कृष्ण भक्तिकाव्य कृष्ण को अपना बहुत समीपी मानता है। यहाँ जिसे सख्यभाव कहा गया है उसमें विनय-समर्पण का दास्यभाव भी सम्मिलित है। सूर के विनय पद। इसका प्रमाण हैं: “चरन-कमल बंदी हरिराई; स्याम गरीबनि हूँ के गाहक; दयानिधि तेरी गति लखि न परे” आदि। ध्यान दें तो ईश्वर के प्रति यह विनय-रागभाग भ्रमरगीत में अपनी पूर्णता पर पहुँचता है और गोपिकाएँ इसका माध्यम बनती हैं।

उपास्य और उपासक की समीपता से कई मध्यस्थ अप्रासंगिक हो जाते हैं क्योंकि यहाँ दोनों के मध्य सीधा संवाद स्थापित होता है। कृष्ण भक्तिकाव्य में उपास्य का बोध कराने वाला गुरु उतना स्थान भी नहीं प्राप्त करता, जितना कि रामकाव्य में । तुलसी ने रामचरितमानस के आरंभ में ही इसका संकेत किया है: “श्रीगुरु पद नख मनि गन जोती, सुमिरत दिव्य दृष्टि हियं होती”। निर्गुण भक्तिकाव्य में तो गुरु गोविन्द से भी बढ़कर है, वह ज्ञान-माध्यम है, जो चरम सत्य का उद्घाटन करता है। कृष्णभक्ति काव्य में सीधे संवाद से एक ऐसा रागमय वातावरण उपजता है, जहाँ शास्त्र का स्थान लोक को मिलता है। कर्मकांड, पुरोहितवाद की सीमाओं को तोड़ते हुए कृष्ण भक्तिकाव्य नई आचार-संहिता निर्मित करता है। यहाँ रागानुगाभक्ति ही सर्वोपरि है, शेष इसी में समा जाता है। गोपिकाएँ कृष्णार्पित हैं, यही उनका सुख है, यही उनका प्राप्य ।

लोक छवि और दृश्य

काव्य में लोक की उपस्थिति कृष्ण भक्तिकाव्य का सबसे उल्लेखनीय पक्ष है और इसकी चर्चा इसलिए भी आवश्यक है कि प्राय: सगुण की तुलना में निर्गुण काव्य को अधिक प्रगतिशील कहा जाता है, तथा प्रचलित धारणा यह है कि कृष्णकाव्य, अन्य की तुलना में लगभग यथार्थ-विरहित है। पर क्या यह संभव है कि एक ही समय में सक्रिय समर्थ स्वर अपनी प्रकृति में इतने भिन्न हों कि एक में यथार्थ हो और दूसरे में वह पूर्णतया अनुपस्थित? लोक और शास्त्र की चर्चा करते हुए कृष्ण भक्तिकाव्य हमें कुछ ऐसे सूत्र देता है कि हम यह जान सकते हैं कि यथार्थ के प्रति दृष्टि का अंतर तो है ही, उसकी अभिव्यक्ति की विधियाँ भी अलग-अलग हो सकती हैं। तुलसी की प्रबंधात्मकता में कलिकाल के माध्यम से मध्यकालीन यथार्थ वर्णन की सुविधा है। कबीर का स्वर जुझारू है। पर ध्यान दें तो कृष्ण भक्तिकाव्य और सूफी कवि जायसी आदि ने उस लोक की सहज रसमयता को केंद्रीयता दी, जिसमें वे उपस्थित थे।

कृष्ण भक्तिकाव्य का लीला-संसार ब्रजमंडल से अधिक संबद्ध है और लगता है जैसे वहाँ की लोकछवि अपनी पूरा रंगमयता में यहाँ उपस्थित है। गोकुल-वृन्दावन अपनी पूरी शोभा के साथ यहाँ स्थान पाते हैं। यमुना तो जैसे कृष्णलीला का परम साक्ष्य है। कृष्ण का जन्म, दधि-माखन चोरी, वृन्दावन विहार के साथ ब्रज के अनेक और लोकोत्सव यहाँ स्थान पाते हैं। नामकरण, अन्नप्राशन, वर्षगाँठ से लेकर उन सभी सामाजिक उत्सवों तक जिसमें पूरा गोकुल सम्मिलित है। दृश्यों का यह सामाजीकरण ऐसी विशेषता है जिसने अपनी रागमयता से रसखान जैसे कवि को आकृष्ट किया :

‘मानुष हो तो वह रसखानि, बसौं ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।’ उत्सव के क्षणों में ग्वाल-गोपी सब कृष्ण को केंद्र में रखकर उल्लसित होते हैं, जैसे सूर में फाग के दृश्य:

“वृन्दावन खेलत हरि होरी।

बाजत ताल मृदंग झांझ डफ नंदलला वृषभानु किसोरी”

मांगलिक अवसरों पर वंदनवार, चौक, कलश आदि की व्यवस्था भी दृष्टिगत होती है। वसन्त-फागुन के दृश्य कृष्णकाव्य में बहुलता से मिलते हैं क्योंकि यहाँ रागमयता के लिए खुला अवसर है। यहाँ शास्त्र पृष्ठभूमि में चला जाता है और लोक प्रमुखता प्राप्त करता है। यों भी रचना में शास्त्र पूरे संवेदन-संसार में इस प्रकार विलयित हो जाता है कि उसकी तलाश का अधिक अर्थ नहीं रह जाता है। निश्चित है कि रामकाव्य की तुलना में कृष्णकाव्य में शास्त्र की अपेक्षा लोक की स्वीकृति कहीं अधिक है क्योंकि कृष्णकाव्य अधिक उन्मुक्त भूमि पर संचरित होता है। रास, महारास में इसे देखा जा सकता है, जहाँ रागभाव अपने चरम पर पहुँचता है और प्रेम के माध्यम से ही भक्ति का प्रतिपादन होता है।

रंजक और रक्षक रूप

कृष्ण भक्तिकाव्य के संदर्भ में अरसे तक यह कहा जाता रहा है कि राम का जन्म लोकरक्षक का है और कृष्ण का लोकरंजन का। रचना में इस प्रकार का विभाजन एक सीमा तक ही उपयोगी हो सकता है, विशेषतया भक्तिकाव्य के संदर्भ में । कवियों की राग-दृष्टि ने अपना ध्यान गोकुल-वृन्दावन तक केंद्रित रखा और कृष्ण का महाभारत रूप, पृष्ठभूमि में चला गया। कृष्ण भक्तिकाव्य में वर्णनात्मक ढंग से महाभारत के कुछ प्रसंगों का उल्लेख कर दिया गया है, पर कवियों की रुचि उसमें रमती नहीं प्रतीत होती। वास्तविकता यह है कि कृष्ण के बाल-किशोर जीवन की जो चमत्कारी घटनाएँ वर्णित हुई हैं, उनमें भी कवि उस संलग्नता के साथ उपस्थित नहीं है, जिसके लिए बाल-लीलाओं का उल्लेख किया जाता है। लोकरंजन से ही कृष्णभक्त कवि अपनी अभीप्सा की पूर्ति करना चाहते हैं, कृष्ण की भक्ति ही उनका प्रमुख प्रयोजन है। पूतना वध, कालीदह से लेकर मथुरा-प्रसंग तक कृष्ण के वीरत्व के जो कार्य हैं, वे प्रमुखता नहीं प्राप्त करते, जबकि कृष्ण की अन्य लीलाएँ कृष्ण भक्तिकाव्य में विस्तार से आई हैं।

यहाँ कृष्णगाथा के एक प्रसंग का उल्लेख विशेष रूप से करना होगा। सूरसागर के दशम स्कंध में गोवर्धन प्रसंग विस्तार से आया है – लगभग पौने दो सौ पदों में और इसी के अनन्तर रासपंचाध्यायी का आरंभ होता है। भारत मूलत: कृषि-समाज है और इन्द्र-पूजन की परंपरा यहाँ पर्याप्त प्राचीन है। ब्रजमंडल में इन्हें कुलदेव माना गया और इनके पूजन की आदरपूर्ण व्यवस्था थी। पर कृष्ण इस प्रचलित परंपरा को चुनौती देते हैं और कहते हैं कि अगोचर इन्द्र की पूजा व्यर्थ है। वे कहते हैं कि सामने के गोवर्धन पर्वत का पूजन करो और गोकुलवासी पूरी संलग्नता से इसे सम्पन्न करते हैं:

छोड़ि देहु सुरपति की पूजा।।

कान्ह कयो गिरि गोवर्धन तैं और देव नहिं दूजा ।

गोपनि सत्य मानि यह लीन्हीं, बड़ौ देव गिरिराज।

मोहिं छाड़िये परबत पूजत, गरब कियो सुरराज।

पर्वन सहित धोइ ब्रज डारौं, देउं समुद्र बहाइ।

मेरी बलि और हिलै अरपत, इनकी करो सजाइ।

राखो नहीं इन्हें भूतल पर, गोकुल देउं बुड़ाइ।

सूरदास-प्रभु जाको रच्छक, संगहि संग रहाइ।

इन्द्र का क्रोध स्वाभाविक है क्योंकि उनके वर्चस्व को चुनौती दी गई है, उनके स्थान पर गोवर्धन पर्वत को कुलदेव रूप में स्वीकारा गया है। इन्द्र सुरपति हैं – देवेन्द्र, उनका अहंकार आहत होता है और वे गोकुल को जलवृष्टि में डुबो देते हैं। यह कृष्ण के व्यक्तित्व की परीक्षा का क्षण है, जिसमें वे स्वयं को सामाजिक रक्षक के रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। गोकुल को अपने कृष्ण पर विश्वास है कि वे ही उनकी रक्षा कर सकते हैं। यहाँ इन्द्र और कृष्ण आमने-सामने हैं। कृष्ण गोवर्धन पर्वत उठा लेते हैं और गोकुल की रक्षा करते हैं। इन्द्र की पराजय, जिसमें वे कृष्ण के समक्ष शरणागत होते हैं, कई संकेतों से सम्पन्न है। यह प्रकारान्तर से अगोचर इन्द्र की तुलना में सामने विद्यमान गोवर्धन पर्वत के महत्व की स्वीकृति है। इस घटना में चमत्कार ही सही, पर कृष्ण का व्यक्तित्व यहाँ स्थापित होता है :

“घरनि-घरनि ब्रज होत बधाई।

सात बरष को कुंवर कन्हैया, गिरिवर धरि जीत्यो सुरराई।

गर्व सहित आयो ब्रज बोरन, यह कहि मेरी भक्ति घटाई।

सात दिवस जल बरषि सिरान्यौ, तब आयो पाहन तर घाई।

सूर स्याम अब मैं ब्रज राख्यो, ग्वाल करत सब नंद दौहाई।

सगुण भक्ति

कृष्ण भक्तिकाव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों पर विचार करते हुए हमें यह ध्यान रखना होगा कि कवियों की अपनी दृष्टि के अनुसार आग्रहों में आंशिक परिवर्तन देखे जा सकते हैं, पर समानता के सूत्र अधिक हैं । कृष्ण का मानुषीकरण लीलाओं के माध्यम से व्यक्त हुआ है, और वह भी अपनी पूरी रसमयता में। यहाँ आग्रह माधुर्य भाव पर है और कृष्ण अपनी रसिक छवि में अद्वितीय हैं। कृष्णकाव्य एक प्रकार से सगुणोपासना का आग्रह इस सीमा तक करता है कि निर्गुण की अस्वीकृति के उसके अपने तर्क हैं।

व्यापक दृष्टि से विचार करें तो साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण की अपनी धारणाएँ हैं। मध्यकाल में कर्मकांड-पुरोहितवाद जिस ढंग से विकृत हो रहे थे और समाज में आडम्बर, मिथ्याचार आदि का प्रचार था, उससे मुक्ति का उपाय खोजते हुए, विचारक निर्गुण-निराकार का आग्रह करते हैं। मूर्ति को केंद्र में रखकर कर्मकांड उपजता है और कई प्रकार के संघर्ष भी होते हैं। इसलिए निर्गुणियों का आग्रह ज्ञान पर है : संतों भाई आई ज्ञान की आँधी। ज्ञान से विकार का नाश होता है। पर सगुण मतावलम्बियों, विशेषतया कृष्ण भक्तिकाव्य के अपने तर्क हैं। उनका कहना है कि मन यों ही चंचल है, उसे स्थिर एकाग्र करने के लिए कोई आश्रय चाहिए। निर्गुण ज्ञानमार्गियों के लिए तो संभव है, पर सामान्यजन के लिए तो साकार-सगुण ही गम्य है, सहज है। इस विषय में सूरदास का तर्क यही है कि जो वर्णनातीत है, उसका साक्षात्कार कैसे हो। इसके लिए आकार-प्रकार चाहिए :

“अविगत गति कछु कहत न आवै।

ज्यौ गूंगै मीठे फल की रस अंतरगत ही भावै।

परम स्वाद सबही स निरंतर अमित तोष उपजावै।

मन-बानी को अगम-अगोचर, सो जाने जो पावै।

रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति-बिन निरालंब कत धावै ।

सब बिधि अगम बिचार हिं तातै सूर सगुन पद गावै।”

सूर का तर्क यही है कि निराकार को लेकर ध्यानावस्थ कैसे हुआ जाए। इसलिए कृष्ण भक्तकवियों ने कृष्ण का पूरा लीला-संसार रचा, जिसमें उन्होंने मिथकीय संसार और निजधारी कथाओं का भी उपयोग किया। अपनी कल्पनाशीलता से उसे एक ऐसा स्वरूप दिया कि सब समरस हो सकें। कृष्ण की लीलाओं के साथ यात्रा करता हुआ समाज यह भूल जाता है कि कृष्ण अवतारी पुरुष हैं, अलौकिक गुण-सम्पन्न। कई बार हम उनकी चमत्कारी लीलाओं से आश्चर्यचकित तो होते हैं पर भागवत की तरह कृष्ण के देवत्व का स्मरण कराना, कृष्णभक्त कवि आवश्यक नहीं समझते। उनका लक्ष्य है, कृष्ण की लीलाओं के माध्यम से ही उनके बहुरंगी व्यक्तित्व का बोध कराना।

भ्रमरगीत-प्रसंग

कृष्ण भक्तिकाव्य में भ्रमरगीत प्रसंग का विशेष महत्व है, जिसका उल्लेख भागवत में मिलता है और अधिकांश कवियों ने इसका उपयोग किया है। सूरदास ने सूरसागर के दशम स्कंध में विस्तार से इसका वर्णन किया है। परमानन्ददास के परमानन्दसागर में भी इससे संबद्ध पद हैं पर वास्तविकता यह है कि यहाँ भागवत कथा का अनुसरण नहीं किया गया है तथा कृष्ण के मथुरा-गमन से लेकर भ्रमरगीत प्रसंग तक को प्रमुखता मिली है। नन्ददास ने भंवरगीत नाम से भ्रमरगीत प्रसंग को लेकर स्वतंत्र रचना की। यह परंपरा आहे गुनिक समय में जगन्नाथदास रत्नाकर तथा डॉ. रमाशंकर शुक्त रसाल’ के ‘उद्धवशतक’ में देखी जा सकती है।

भ्रमरगीत में कृष्ण भक्तकवियों ने गोपिकाओं के प्रगाढ़ प्रेमभाव को व्यक्त किया है और इसे विप्रलंभ शृंगार के उत्कृष्ट उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ज्ञान-गर्व-परिचालित उद्धव, गोपिकाओं को निर्गुण-निराकार की शिक्षा देकर कृष्ण से उनका ध्यान हटाना चाहते हैं। पर वे अनेक रूपों में कृष्ण का स्मरण करती हुई, उन्हें अपना सर्वस्व मानती हैं ।

निर्गुण को अस्वीकारते हुए वे भावनामय तर्क देती हैं, जिन्हें सही मायने में तर्क भी नहीं कहा जा सकता : निर्गुण कौन देस को वासी, मधुकर हांसि समुझाइ सौंह दे, बूझत बात न हांसी। बहुत विस्तार से वे कृष्ण के प्रति अपनी गहरी रागात्मकता व्यक्त करती हैं:  “हमारे हरि हारिल की लकड़ी।”

कृष्ण का स्मरण करते हुए वे निरंतर अश्रुपूरित हैं : “निसि दिन बरसत नैन हमारे।” जैसे भी हो वे कृष्ण का दर्शन चाहती हैं, उसी रूप में जिसमें वे गोकुल-वृन्दावन में विचरे थे। गोपिकाओं की राजा कृष्ण में कोई रुचि नहीं, उन्हें लीलाधारी कृष्ण चाहिए : उर में माखन चोर गड़े। भ्रमरगीत गोपिकाओं के प्रेमभाव की मार्मिक अभिव्यक्ति है। कृष्ण भक्तिकाव्य ने भावनाश्रित तर्क के सहारे सगुण को प्रतिपादित करने का प्रयत्न किया और इसके लिए भ्रमरगीत प्रसंग का उपयोग किया। आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र इसे ‘सगुण का मंडन और निर्गुण का खंडन’ कहते हैं। पर थोड़ा गहराई से विचार करें तो इस प्रसंग की अन्य ध्वनियाँ भी हैं जो कृष्ण भक्तिकाव्य को वैशिष्ट्य देती हैं। यहाँ नन्द-यशोदा का वात्सल्य भाव भी है, जिनके लिए कृष्ण संपूर्ण आधार हैं।

विचारणीय यह है कि कृष्ण देवकी-वासुदेव का बेटा है, नन्द-यशोदा ने केवल उनका पालन-पोषण किया है। पर वात्सल्य उन्हीं का वर्णित है : “संदेसो देवकी सौं कहियो, हौं तो धाय तिहारे सत की मया करत ही रहियौ।” गोपिकाओं का प्रेम भ्रमरगीत प्रसंग में परीक्षित होता है और वे अडिग हैं। ऊधो से कहती हैं, अच्छा हुआ तुम आ गए, प्रेम की परीक्षा हो गई, वह और प्रगाढ़ हो गया। यहाँ यह भी स्पष्ट है कि भ्रमरगीत के माध्यम से कवि मध्यकाल के ग्राम-नगर द्वंद्व का संकेत भी करते हैं। सूर की गोपिकाएँ मथुरा को काजरि की कोठरी कहती हैं, जो आता है ‘काला मन’ है। कुब्जा को वे नागरी कहकर व्यंग्य करती हैं और स्वयं को । भोली-भाली मानती हैं, जो ठगी गईं। भ्रमरगीत प्रसंग में ऊपर से देखने पर एक पक्षीय प्रेम जैसा प्रतीत होता हैं पर यहाँ गोपिकाओं की अनन्य भावना के साथ कृष्ण के बृहत्तर दायित्व-बोध का संकेत भी मिलता है। भ्रमरगीत के अंत में कृष्ण गोपिकाओं के प्रेमभाव को स्वीकारते हैं :

“उधौ मोहिं ब्रज बिसरत नाहीं।

हंस सुता की सुंदर कगरी, अरु कुंजन की छाहीं।

वे सुरभी वै बच्छ दोहनी, खरिक दुहावन जाहीं।

ग्वाल-बाल मिलि करत कुलाहल नाचत गहि गहि बाहीं।

यह मथुरा कंचन की नगरी, मनि-मुक्ताहल जाहीं।

जबहिं सुरत आवति वा सुख की जिय उमगत तन नाहीं।

अनगन भांति करी बहु लीला, जसुदा नंद निबाहीं।

सूरदास प्रभु रहे कौन ह्वै यह कहि-कहि पछिताहीं।

कृष्ण लीला

कृष्ण भक्तिकाव्य में कृष्ण का लीला रूप प्रधान है जो जीवों के सुख के लिए है और जिसमें कृष्ण स्वयं दहरी-तिहरी भूमिका में हैं। बाहर से देखने पर वे संलग्न लीलाभूमि पर हैं, जिसमें रासलीला का घनिष्ठ प्रकरण भी है। पर किसी बिंदु पर वे तटस्थ भी हैं, इसलिए रस के अवसर पर अंतर्धान हो जाते हैं। कृष्णलीला में माखन-चोरी, वृन्दावनलीला, रास आदि की प्रमुख भूमिका है जहाँ कृष्ण मानुष-रूप में संचरित है। प्रसंग रूप-माधुरी से आरंभ होता है, पर क्रमश: उसमें गुणों का संयोजन होता है। मिथकीय, निजन्धरी कथाओं के चमत्कार एक ओर हैं, पर कृष्ण की मुरली उनके व्यक्तित्व को नई दीप्ति देती है।

कृष्ण-लीला के विस्तार में इसका योगदान सर्वोपरि है। मुरली वशीकरण है, जब कृष्ण वंशी-वादन करते हैं, तब गोपिकाएँ मर्यादाओं का निषेध करती हुई, उन तक पहुंच जाती हैं :

“जब मोहन मुरली अधर धरी, गृह व्योहार थके आरज पथ तजत न संक करी।”

कवियों ने मुरली के व्यापक प्रभाव का वर्णन किया है :

“जब हरि मुरली अधर धरत, थिर चर, चर थिर, पवन थकित रहें, जमुना जल न बहत” आदि। रूप के साथ गुण का यह संयोजन कृष्ण को वैशिष्ट्य देता है। मुरली-प्रसंग के अनेक पद कृष्ण भक्तिकाव्य में आए हैं।

कृष्ण-लीला में स्वकीया-परकीया जैसे प्रश्न उठाए जाते रहे हैं जो आज बहुत प्रासांगिक नहीं हैं। राधा के प्रसंग में यह चर्चा पर्याप्त विवाद उपजाती रही है। राधा विशिष्ट गोपी है उसे रासेश्वरी रूप में चित्रित किया गया है, कृष्ण के समतुल्य । राधा अपरूप रूप है, जिसका बखान जयदेव, विद्यापति आदि ने भी किया है। कृष्णभक्त कवियों को राधा के प्रसंग में एक साथ कई भूमिकाओं का निर्वाह करना है। वल्लभ सम्प्रदाय में राधा कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति है और कृष्ण में संयोजित है। राधा-कृष्ण का प्रेम बालजीवन, किशोरावस्था के निश्छल समय में अंकुरित-विकसित होता है। उसे ‘बालापन की छोरी’ कहा गया जो अपने रूप में अद्वितीय है, रूप की सीमा है, जिससे उपमान पराजित हैं, ‘लोक चतुर्दस नीरस लागत, तू रसरासि रची’ । राधा परम निर्मल नारि है, निश्छल प्रेम की प्रतिमा। सौंदर्य ऐसा कि ‘चुंवतहि चुवत सुधारस मानो रह गई बूंद मंझार’ ।

इसलिए राधा महाभाव है – प्रेम का सर्वोपरि प्रतीक । जब कृष्ण मथुरा चले जाते हैं तो गोपिकाएँ अपनी व्यथा ऊधो से कह देती हैं, उपालम्भ रूप में ही सही। पर राधा प्राय: मौन हैं, कृष्ण के प्रति संपूर्ण भाव से समर्पित। ऊधो कृष्ण से कहते हैं : “तुम्हारे बिरह ब्रजनाथ राधिका नैननि नही। बढ़ी/लीन्हें जात निमेष कूल दोउ एते मान चढ़ी।” भ्रमरगीत प्रसंग में सूर राधा की पीड़ा को गहराई से महसूस करते और व्यक्त करते हैं :

“अति मलीन वृषभानु कुमारी, हरि समजल अन्तरतम भीजै, तेहि लालचि न धुवावति सारी।”

उसकी स्थिति यह है कि ज्यों गथ हारे थकित जुआरी अथवा’ ज्यों नलिनी हिमकर की मारी।’ राधा अपने व्यक्तित्व में कृष्ण की समकक्षता प्राप्त करती है, पूज्य बनती है।

वात्सल्य और शृंगार

कृष्ण भक्तिकाव्य के संवेदन-संसार की निश्चित रेखाएँ हैं और गीत काव्य उसका प्रिय माध्यम है। वात्सल्य और शृंगार उसकी दो प्रमुख भूमियाँ हैं और निर्विवाद है कि जहाँ तक वात्सल्य का प्रश्न है कृष्णकाव्य विश्व की रचनाशीलता में प्रमुख स्थान का अधिकारी है। प्रयोजन है कृष्ण की बाल-लीलाओं के माध्यम से सहज सौंदर्य को उद्घाटित करना, जिससे सब आकृष्ट होते हैं। बाल छवि का निरपेक्ष वर्णन यहाँ कवियों का अभिप्राय नहीं है, इसमें उनकी अनेक लीलाएँ सम्मिलित हैं। नन्द-यशोदा के साथ गोकुल के ग्वाल-बाल, गोपियाँ सब इस सुख में निमग्न हैं। बार-बार कहा गया है कि इस सुख के समक्ष त्रैलोक्य का वैभव व्यर्थ है।

यह गतिशील चित्र है, जहाँ बालक कृष्ण के जन्म से लेकर किशोर होने तक के दृश्य हैं : “घुटुरन चलत रेणु तन मंडित, मुख दधि-लेप किए’ से माखन लीला तक के प्रसंग, कृष्ण के क्रमश: बढ़ते, बड़े होने की सूचना देते हैं। उल्लेखनीय यह है कि कृष्ण की बाल-लीलाएँ सर्वत्र फैल जाती हैं और उन्हें शोभा-सागर कहा गया है : “सोभा सिंधु न अंत रही री, नंद भवन भरि पूरि उमंगि चलि ब्रज की बीथिन फिरत बही री।” माखन-लीला और मुरली-वादन के प्रसंग कृष्ण के मनोहारी रूप को नया विस्तार देते हैं, जिससे प्रेमांकुर विकास पाता है।

शृंगार-भाव को लेकर प्रश्न यह है कि कृष्ण भक्तिकाव्य का प्रयोजन क्या है? रामकाव्य में शील-मर्यादा की रेखाएँ शृंगार-भाव की सीमाएँ निश्चित कर देती हैं, पर कृष्णकाव्य अधिक खुली भूमि पर है। शृंगार से जो रागभाव जन्म लेता और विकास पाता है, वही भक्ति के चरम बिंदु तक जाता है, जिसे भावनामय भक्ति कहा गया, रागानुगा माधुर्य भक्ति। कृष्णभक्तों का कृष्ण के प्रति संपूर्ण समर्पण प्रचलित प्रपत्ति दर्शन का मधुरतम रूप है, जहाँ भक्त अपने उपास्य की रूप-माधुरी को ही अपना प्राप्य मानता है। इस शृंगार में जो जीवन सम्पृक्ति अथवा लोकपक्ष है, वही उच्चतम धरातल पर भक्ति है। इसलिए कृष्ण भक्तिकाव्य के शृंगार भाव की सही पहचान के लिए समझदारी की आवश्यकता है। कृष्ण भक्ति काव्य का अध्ययन करने पर आप पाएँगे कि कई स्थल हैं, जिन्हें कवियों ने उन्मुक्त भाव से व्यक्त किया है, अकंठित भाव से, जिनमें घनिष्ठ मिलन चित्र हैं।

पर मुख्य प्रश्न यह है कि कवि का प्रयोजन क्या है, वह पहुँचना कहाँ चाहता है। यहीं भक्तिकाव्य और परवर्ती रीतिकालीन शृंगार का अंतर स्पष्ट हो जाता है। भक्ति में शृंगार देह का अतिक्रमण करने की सामर्थ्य रखता है, उच्च स्तर पर आता है, पर रीतिकाल में वह देहवाद में बंदी होकर रह जाता है। कहा भी गया है कि वहाँ राधा-कृष्ण स्मरण का बहाना बन गए। उच्चतम भूमि से वे नायक-नायिका में घटित हो गए। पनघट, चीरहरण, दान आदि लीलाओं को लें तो गोपिकाएँ इस समर्पण में सुख मानती है। जिस शृंगार को वे मुग्धभाव से निहारती हैं, जिसके साथ वे संचरित होती हैं, उसी के प्रति संपूर्ण राग-भाव से अर्पित होती हैं।

अष्टछाप

कृष्ण भक्त कवियों में अष्टछाप का विशेष उल्लेख किया जाता है। वल्लभाचार्य ने विशिष्टाद्वैतवादी पुष्टिमार्ग की स्थापना की थी। आगे चलकर बिट्ठलनाथ ने अष्टछाप कवियों की परिकल्पना की, जिन्हें कृष्णसखा भी कहा गया। इनमें चार वल्लभाचार्य के शिष्य हैं : सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास और कृष्णदास । बिट्ठलनाथ के शिष्य हैं : नन्ददास, गोविन्दस्वामी, छीतस्वामी और चतुर्भुजदास। वल्लभ सम्प्रदाय में अष्टछाप कवियों का विशेष स्थान है और कहा जाता है कि जब गोवर्धन में श्रीनाथ की प्रतिष्ठा हो गई, तब ये भक्तकवि अष्टछाप सेवा में संलग्न रहते थे – मंगलाचरण-शृंगार से लेकर सन्ध्या आरती और शयन तक। अष्टछाप के इन कवियों में सरदास सर्वोपरि हैं जिन्हें भक्तिकाव्य में तुलसी के समकक्ष माना जाता है। तुलसीदास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के प्रिय कवि हैं, पर उन्होंने भी स्वीकार किया है कि माधुर्य भाव में ‘सूरसागर’ रससागर है और जहाँ तक वात्सल्य तथा श्रृंगार का प्रश्न है, सूर सर्वोपरि हैं।

अष्टछाप के कवियों में परमानन्ददास ने कृष्ण की बाललीला को लेकर अपना ध्यान केंद्रित किया और माधुर्य गुण को प्रमुखता दी। नन्ददास पंडित कवि हैं और उनके भंवरगीत में शास्त्र ज्ञान का परिचय मिलता है। उन्हें अलंकृत अथवा ‘जड़िया कवि’ कहकर संबोधित किया गया। उनमें काव्य की सहजता अपनी पूर्णता पर नहीं आने पाती, पांडित्य बाधा बनता है। कुंभनदास की उक्ति प्रसिद्ध है:

“संतन को कहा सीकरी सो काम”

आवत जात पन्हैया टूटी बिसरी गयो हरिनाम।”

यह उक्ति कवि के उस विराग भाव की ओर संकेत करती है, जिसमें राजाश्रय का निषेध है।

शिल्प विधान

कृष्ण भक्तिकाव्य का शिल्प विधान इस दृष्टि से विचारणीय है कि प्रमुख पद मंदिरों में गायन-परंपरा का अंग बन गए और इस प्रकार व्यापक प्रचार-प्रसार पा गए। उन्हें राग-रागिनियों में बाँधा गया और एक ओर वे शास्त्रीय गायन में स्वीकृत हुए, दूसरी ओर लोकगायन में प्रचलित हुए। कृष्ण भक्तिकाव्य का यह दुर्लभ पक्ष है कि अपने माधुर्य गुण के कारण उसे व्यापक स्वीकृति मिली। यों तो लगभग सभी भाषाओं के भक्ति-काव्य के भजन-गायन की व्यवस्था रही है – दिव्यप्रबंधम से लेकर मीरा के पदों तक। चैतन्य महाप्रभु, चण्डीदास आदि ने प्रार्थना-कीर्तन भाव से भक्ति को व्यापकता दी और असम में शंकरदेव ने उसे विस्तार दिया।

गुरु नानक के सबद गाए जाते हैं। भक्ति संगीत नाम से मध्यकाल में जिस राग-रागिनीबद्व संगीत की परिकल्पना की गई, वह आधुनिक समय में भी जीवित है। शास्त्र और लोक का ऐसा संयोजन भक्तिकाव्य में प्राप्त होता है, जो अन्यत्र दुर्लभ है। कृष्ण भक्तिकाव्य मूलत: पदगायन-परंपरा पर आधारित है और इसे मुक्तक प्रधान काव्य कहा जाता है। आख्यान काव्य से इसकी परंपरा पृथक है। यहाँ कथा का संकेत तो मिलता है, पर उनमें क्रम-स्थापना का बरबस प्रयत्न नहीं है। यदि हम सूरसागर को ही लें तो देखते हैं कि आगे चलकर शिष्यों ने लीलाओं के आधार पर इसे वर्गीकृत किया जिसका आरंभ विनय के पदों से होता है और बाललीला से अवतार तक जिसकी व्याप्ति है। चित्र, संगीत, नृत्य आदि में इसके शृंगार भाव का उपयोग हुआ।

कृष्ण भक्तिकाव्य मुख्यतया गीत सृष्टि है और गेयता इसका सराहनीय गुण है। गीतिकाव्य की लंबी परंपरा में कृष्ण भक्तिकाव्य को लीला पदों की सुविधा है, जहाँ माधुर्य भाव की प्रधानता की सहायता से भाव-संचार हो सका है। ब्रजभाषा का लालित्य यहाँ पूर्णता पर पहुँचता है और संगीतमयता उसमें सहज भाव से आ जाती है। गीत भावाश्रित माध्यम है, जहाँ भावनामयता प्रधान एवं महत्वपूर्ण है। प्रासंगिक बात यह है कि भ्रमरगीत प्रसंग में गोपिकाओं के भाव-संसार में सूरदास स्वयं भी सम्मिलित हैं, इसलिए पूरे प्रकरण को मार्मिकता मिल सकी है। वियोग के साथ यहाँ भक्तिभावना भी संयोजित है – एकाग्र भाव से ।

कृष्णभक्त कवि की भावप्रवणता गीतसृष्टि का प्रस्थान है और एक पद में एक भाव-विशेष को संग्रंथित किया गया है। भाव बिखरने नहीं पाते और अभिव्यक्ति अपने प्रयोजन में सफलता प्राप्त करती है। विनय पदों से लेकर कृष्ण के लीला पदों तक इस संग्रंथन को देखा जा सकता है। जहाँ प्रसंग वर्णनात्मक ढंग से आए हैं, वहाँ कोई विशेषता कथन में नहीं है, जैसे कथाक्रम स्थापन का औपचारिक प्रयत्न हो। पर जब किसी भाव-प्रसंग को उजागर किया जाता है, तब कवियों की संलग्न तन्मयता उच्चतम धरातल प्राप्त करती है। कवियों ने अपनी गीतमयता की व्याप्ति के लिए लोकधुनों तक का प्रयोग किया और यहाँ लोकगीत मूल काव्यधारा में संयोजित हुए हैं।

भाषा

भक्तिकाव्य के सफल निर्वाह के लिए जिस संवेदन सम्पन्न, मधुर, लयात्मक भाषा की अपेक्षा होती है, उसके लिए ब्रजभाषा समर्थ है और कृष्ण भक्तकवियों ने उसका सक्षम उपयोग किया। यहाँ भाषा का वह रूप है जो लोकप्रचलित है और जिसे कवियों ने काव्योपयोगी बनाया। यह कार्य कठिन है और सर्जनात्मक प्रतिभा की माँग करता है। भाषा एक प्रकार से लोकसम्पत्ति होती है जिसमें लोक स्वयं को अभिव्यक्ति देता है। इस दृष्टि से वह एक संस्कृति की वाहक भी होती है। कृष्ण भक्तिकाव्य ब्रज संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि कृष्ण के व्यक्तित्व का मुख्यांश उससे संबद्ध है और जिन्हें कृष्णभक्ति के अष्टछापी कवि कहा जाता है वे इससे जुड़े हुए हैं। सूर जैसे कवियों ने लोकभाषा ब्रजभाषा को वैसे ही काव्योपयोगी बनाया जैसे जायसी ने अवधी को। तुलसीदास में अवधी का स्वरूप किंचित भिन्न है, क्योंकि उस पर संस्कृत की छाया भी है। पर सूर जैसे कवि भाषा की वर्णनात्मकता को पार करते हैं क्योंकि गीत उनका प्रमुख माध्यम है।

कृष्ण भक्तकवियों ने भाषा के मुहावरे को मुख्य रूप से जीवन संसक्ति से प्राप्त किया, पर ब्रज का परिवेश इस कार्य में उनकी सहायता करता है। इसलिए संस्कार, उत्सव सब यहाँ पूरी रसमयता में आए हैं। उल्लेखनीय यह है कि यहाँ प्रकृति की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं। वास्तविकता तो यह है कि लोकजीवन में प्रकृति भी सम्मिलित है, और जहाँ तक भाषा-सम्पदा का प्रश्न है, वह कविता को विशेष सम्पन्नता प्रदान करती है। इस प्रसंग में माखनलीला, वृन्दावन विहार, रासलीला आदि का उल्लेख विशेष रूप से किया जा सकता है, जहाँ प्रकृति के खुले मंच पर सब कुछ आयोजित होता है। प्रचलित लोकोक्तियों और मुहावरों से कृष्ण भक्तिकाव्य ने स्वयं को लोकसमीपी बनाया है। अभिव्यक्ति की सहजता यहाँ विशेष आकर्षण उत्पन्न करती है। मध्यकाल में प्रचलित फारसी-अरबी शब्द भी यहाँ आए हैं, पर वे काव्यभाषा की मुख्यधारा में प्राय: । अन्तर्मुक्त हो गए हैं, बाहरी प्रतीत नहीं होते।

सूरदास जैसे सिद्ध कवियों ने काव्यभाषा को इस ऊँचाई पर पहुँचा दिया कि वह बिम्ब, रूपक-निर्माण में सफल हो सकी। जिसे सांगरूपक अथवा संपूर्ण चित्र कहा गया, उसका निर्माण इस अर्थगामी भाषा के सहारे ही संभव था। ‘अद्भुत एक अनूपम बाग’ जैसे पद में यमुना के माध्यम से वियोग का संपूर्ण चित्र विचारणीय है। यहाँ प्रकृति के साथ मानव भावों का तादात्म्य है और जो दृश्य उपस्थित किया गया है, वह सामान्यजन का समीपी है :

“दखियत कालिंदी अति कारी।

अहै पथिक रहियो उन हरि सों, भई विरह जुरकारी।

गिरिप्रजंक तें गिरति धरनि धंस, तरंग तरफ तन भारी।

तट बारु उपचार चूर, जल पूर प्रस्वेद पनारी।

बिगलित कच कुस कांस कूल पर, पंक जु काजल सारी।

भौर भ्रमत अति फिरति भ्रमित गति, दिसि दिसि दीन दुखारी।

निसि दिन चकई पिय जु रटति है भई मनौ अनुहारी।

सूरदास प्रभु जो जमुना गति, सो गति भई हमारी।”

कृषि-चरागाही संस्कृति

कृष्ण भक्तिकाव्य को कृषि-चरागाही संस्कृति के संदर्भ में रखकर देखना उपयोगी होगा क्योंकि इससे उसका लोक पक्ष सही ढंग से समझा जा सकता है। विश्व साहित्य में पैस्टोरल साहित्य’ की चर्चा होती है, जिसका सबंध कई बार यायावरी घुमंतू जातियों से भी स्थापित किया जाता है। पर कृष्ण भक्तिकाव्य के मुख्य चरित्र-कृष्ण-राधा, नन्द-यशोदा, गोप-गोपी आदि ब्रजभूमि से संबद्ध हैं और गोकुल-वृन्दावन उसके प्रमुख लीला-स्थल हैं। कृष्ण के जीवन से जुड़ी मुख्य लीलाएँ कृषि-चरागाही संस्कृति का बोध कराती हैं । दूध, दधि, माखन, गो-चारण, वंशी-वादन, गायन-संगीत, उन्मुक्त लीलाएँ, रास आदि सब इसी के परिचायक हैं। तुलसी में कृषक-जीवन को प्रमुखता मिली है और कृष्ण भक्तिकाव्य में चरागाही जीवन की। गो-चारण को यहाँ विस्तार मिला है और उससे जुड़े अधिकांश प्रसंगों का उपयोग कवियों ने किया है। गोकल-वृन्दावन यहाँ जैसे जीवित हो उठे हैं, अपने संस्कार और उत्सवों के साथ।

कृष्ण के चले जाने पर गोपिकाएँ प्रश्न करती हैं : “मधुबन तुम कत रहत हरे, बिरह वियोग स्याम सुंदर के ठाढ़े क्यों न जरे।” मेरा विचार है कि कृष्ण भक्तिकाव्य में उन्मुक्तता का एक कारण यह कृषि चरागाही संस्कृति भी है, जिसका उपयोग बहुलता से हुआ है। ग्राम का सरल, निश्छल जीवन यहाँ चरागाही संस्कृति के माध्यम से उभरता है। गोपियाँ कहती हैं कि ‘हम अजान अति भोरी।’ निर्गुण तो वहाँ खप सकता है जहाँ कुब्जा जैसी चतुर नागरिकाएँ हैं। कृष्ण भक्तिकाव्य में कृषि-चरागाही संस्कृति के माध्यम से उसका एक संपूर्ण लोक उभरा है, जो उसका वैशिष्ट्य है।

माना कि यहाँ रागरंग की छवियाँ अधिक हैं, पर मध्यकालीन दैन्य के संकेत भी हैं, संक्षेप में ही सही। जैसे लंबा पद : “प्रभूजू यो कीन्ही हम खेती, बंजर भूमि गाउं हर जोते, अरु जैती की तैती।’ इसमें संदेह नहीं कि कृष्ण भक्तिकाव्य के संवेदन-संसार में कृषि-चरागाही संस्कृति सक्रिय भूमिका का निर्वाह करती है, यद्यपि उसकी उत्सव-छवियाँ ही अधिक हैं।

ललित कलाएँ

कलाओं का अन्तरावलम्बन रचनाशीलता को गति देता है, इसे मध्यकाल, विशेषतया कृष्ण भक्तिकाव्य के संदर्भ में देखा-समझा जा सकता है। वास्तविकता यह है कि जब विभिन्न कलाएँ एक-दूसरे से संवाद की स्थिति में होती हैं, तब संपूर्ण कला-संसार में एक नई उठान आती है। प्राचीनकाल में दृश्यकाव्य की प्रमुखता थी और साहित्य रंगमंच से जुड़कर अधिक प्रसार पाता था। मध्यकाल का यह विचारणीय पक्ष है कि कविता, संगीत, चित्र एक दूसरे के निकट हैं और इसका आधार कृष्ण का लीला-संसार है, जैसे फारस से प्रभावित मुगल कला में आभिजात्य की प्रमुखता है और उसके विषय उसी के अनुसार हैं। पर इसी के समानान्तर जो राजपूत, पहाड़ी शैलियाँ विकसित हुईं, उनका क्षेत्र राजस्थान से लेकर हिमाचल तथा उत्तराखंड तक है। पहले महाभारत फिर भागवत इसके प्रेरणास्रोत रहे हैं और कृष्ण भक्तिकाव्य इसे नई सक्रियता देता है।

इसका वैशिष्ट्य यह है कि इसका मुख्य आधार कृष्ण की विभिन्न लीलाएँ हैं – यमुना, कुंज, वृन्दावन आदि की प्राकृतिक भूमिका है। लोक की यह उपस्थिति कृष्ण भक्तिकाव्य को व्यापकता देती है और इसका स्वरूप मूलत: लोक कला का है। राधा, कृष्ण, गोपी, गोकुल-वृन्दावन, रासलीला आदि में प्रकृति के खुले परिवेश में इन चित्रों का विन्यास इसे प्रमाणित करता है। कृष्ण भक्त कवियों ने रागमाला के अंतर्गत विभिन्न ऋतुओं का चित्रण किया जहाँ राधा-कृष्ण भी आए हैं। यहाँ चित्र और संगीत में संयोजन है क्योंकि राग-रागिनियों में भी ऋतुराज की भूमिका है। वर्षा, वसंत चित्र की भी प्रेरणा हैं, और संगीत की भी, लेकिन कृष्ण-भाव की उपस्थिति के साथ। इसे संगीत-चित्र कहकर संबोधित किया गया है। राजस्थान में इन कविताओं की भावभूमि पर चित्र बने, कविता-पंक्तियाँ संगीत का आधार बनीं और चित्रों को कविता-शीर्षक भी दिए गए. संगीत से संबद्ध होकर भक्तिकाव्य ने व्यापकत्व प्राप्त किया, वह लोकधुनों का उपयोग कर सका और जनता के कंठ में समा गया, मंदिर-गायन में तो वह था ही।

सारांश

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप कृष्ण के चरित्रगत अन्तर्विरोधों को समझ गए होंगे। वस्तुत: कृष्ण का व्यक्तित्व, कृष्ण भक्ति साहित्य के माध्यम से कई रूपों में हमारे सामने आता है। लीला पुरुषोत्तम से लेकर लोकदेवता के रूप में उनका महत्व जनमानस में व्याप्त है। कृष्ण भक्तिकाव्य के संदर्भ में श्रीमद्भागवत का विशेष महत्व है। भागवत में भक्ति को सर्वजनसुलभ बताया गया है। कृष्ण भक्ति के संदर्भ में दार्शनिक । वाद-विवादों की अपेक्षा उसका लोकरूप अधिक प्रभावशाली होकर उभरा है। सूरदास के काव्य को पशुचारण काव्य की संज्ञा दी गई है। पशुचारण काव्य में जिन आदिम मनोभावों की अभिव्यक्ति होती है, उसी प्रकार की अभिव्यक्ति हमें सूर के काव्य में मिलती है।

कृष्ण काव्य के भक्त कवियों में अनुभूति की तन्मयता थी। अनुभूति की तन्मयता ने कवियों में संगीतात्मक चेतना का प्रसार किया। अधिकतर कृष्ण भक्त कवियों के काव्य में लयात्मक सौंन्दर्य मिलता है। इसी कारण कृष्णभक्त कवि जनता में लोकप्रिय हुए। कृष्णभक्त कवियों के प्रभाव से ब्रजभाषा का विकास अखिल भारतीय स्तर पर हुआ । कृष्णभक्त कवियों ने सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में कृष्ण काव्य को प्रस्तावित किया था।

अभ्यास प्रश्न

  1. भारतीय परम्परा में कृष्ण के विकास की चर्चा कीजिए।
  2. कृष्ण गाथा के साथ-साथ विकसित होते भक्ति चिन्तन ने कृष्ण भक्तिकाव्य को किस रूप में प्रभावित किया? विवेचना कीजिए।
  3. कृष्णभक्ति काव्य में वात्सल्य और शृंगार पर प्रकाश डालिए।
  4. कृष्णभक्ति काव्य के शिल्प विधान की चर्चा कीजिए।

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