निर्गुण प्रेममार्गी (सूफ़ी ) काव्यधारा

इस इकाई के अंतर्गत आप निर्गुण काव्यधारा की प्रेमाश्रयी (सूफी) शाखा का अध्ययन करेंगे। इस इकाई को पढ़ने के बाद आपः 

  • सूफी काव्य की पृष्ठभूमि की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे;
  • सूफी मत और सिद्धांत के विधायक तत्वों को पहचान कर उसके स्वरूप को समझ सकेंगे;
  • सूफी प्रेमाख्यान के स्वरूप, मूल प्रेरणा, काव्य-परंपरा का अध्ययन करने के पश्चात आप सूफी काव्य के मूल तत्वों से परिचित हो सकेंगे;
  • सूफी काव्य की प्रवृत्तियों और उनके वैशिष्ट्य को बता सकेंगे;
  • सूफी रहस्यवाद के स्वरूप एवं प्रदेय का विवेचन कर सकेंगे;
  • सूफी काव्य के वस्तु एवं शिल्प पक्ष की विशेषताओं का परिचय प्राप्त कर सकेंगे;
  • सूफी काव्यधारा के महत्व का प्रतिपादन कर सकेंगे।

इस इकाई के अंतर्गत आप निर्गुण-भक्ति की दूसरी धारा-प्रेममार्गी धारा के विषय में पढ़ेंगे। सूफी काव्यधारा ने अपने उदार मानवीय दर्शन के माध्यम से सिद्ध कर दिया कि “एक ही गुप्त तार मनुष्य मात्र के हृदयों से होता हुआ गया है जिसे छूते ही मनुष्य सारे बाहरी रूपरंग के भेदों की ओर से ध्यान हटा एकात्व का अनुभव करने लगता है।” (रामचंद्र शुक्ल) सूफी कविता का न केवल अंतर्व्यापी-सूत्र वरन् उसकी परंपरा भी इस कथन की पुष्टि करती है। भावुक मुसलमानों द्वारा प्रवर्तित प्रम की पीर’ की यह काव्य-परंपरा अपनी विकास-प्रक्रिया के दौरान हर उदार मानवीय एवं कवि हृदय को अपने में समाती चली गई, बिना संप्रदाय, मत या दर्शन की परवाह किए मानवीय आवेगों ने संकीर्णताओं को बहा दिया और मानवतावादी दृष्टि की स्थापना की। हर स्तर पर व्याप्त बाह्याचार एवं कर्मकांडों की दुनिया में यही उदार दृष्टि इस काव्यधारा का महत्वपूर्ण प्रदेय है जो इसके कालजयी होने का प्रमुख कारण भी है।

सूफ़ी शब्द का अर्थ

सूफी प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा में प्रयुक्त ‘सूफी’ शब्द के विषय में विद्वानों में मतभेद है। इसकी व्युत्पत्ति अनेक शब्दों से मानी गई है। ‘सूफी’ शब्द के मूल अर्थ तक पहुँचने में इन विभिन्न मतों की महत्वपूर्ण भूमिका है। पहला मत ‘सुफ़्फा’ या सुफ’ से इसका संबंध मानता है। जिसका अर्थ है – ‘चबूतरा’ । इस मत के मानने वालों का कहना है कि सऊदी अरब के एक पवित्र नगर मदीना की मस्जिद के सामने के चबूतरे पर एकत्र होकर परमात्मा का चिंतन करने वाले संत ही सूफी कहलाए। ‘सूफी’ शब्द की दूसरी व्युत्पत्ति ‘सफ’ शब्द से कही गई है। इस मत के विचारकों के अनुसार जीवन पर्यन्त सफा अर्थात स्वच्छ एवं पवित्र जीवन व्यतीत करने वाले संत ही सूफी हैं।

सूफी वस्तुत: उन्हें ही कहना चाहिए जो मनसा, वाचा एवं कर्मणा पवित्र कहे जा सकते हैं। एक दूसरे मत के अनुसार सफा’ शब्द यहाँ निष्कपट भाव के लिए व्यवहृत हुआ है, इसलिए ‘सूफी’ ऐसे व्यक्ति को कहना चाहिए, जो न केवल परमात्मा के प्रति निश्छल भाव रखता है बल्कि तदनुसार सारे प्राणियों के साथ भी शुद्ध बर्ताव करता है (सफी काल संग्रह – परशुराम चतुर्वेदी) इस शब्द की एक अन्य व्युत्पत्ति सोफिया’ से भी कही गई है जिसका अर्थ है -ज्ञान। इस ज्ञान का वैशिष्ट्य उसकी निर्मलता में निहित है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार निर्मल प्रतिभा संपन्न व्यक्ति ही सूफी कहलाए। कुछ के अनुसार यह शब्द ‘सफ’ से निकला है जिसका अर्थ है – सबसे आगे की पंक्ति अथवा प्रथम श्रेणी। यहाँ आगे की पंक्ति या प्रथम श्रेणी में रखने से अभिप्राय कयामत के दिन ईश्वर के प्रियपात्र होने के कारण सबसे आगे की पंक्ति में खड़े किए जाने वाले व्यक्ति या व्यक्तियों से है। इसी व्युत्पत्ति क्रम में सूफाह, बनू सूफा शब्द भी आते हैं।

‘सूफाह’ शब्द का अभिप्राय सांसारिकता से विरत हो खुदा की सेवा में निरत रहने वालों से है और बनू सूफा एक घुमक्कड़ जाति विशेष है। अबू नम्र अल सर्राज, थ्राउन आरबेरी तथा वलीउद्दीन के अनुसार ‘सूफी’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘सूफ’ शब्द से हुई है। जिसका अर्थ है – ऊन । इस व्युत्पत्ति के अनुसार मोटे सफेद ऊन के कपड़े पहनकर परमात्मा के प्रेम में मगन रहने वाले फकीर ही सूफी कहलाए। सूफ शब्द के इस सामान्य अर्थ के साथ कतिपय अन्य अर्थ भी संबद्ध कहे गए हैं। परशुराम चतुर्वेदी ने आधुनिक पाश्चात्य विचारकों के मतों एवं शब्द की इस व्युत्पत्ति के आलोक में अपना मत स्थिर करते हुए लिखा है – ‘सफ’ एवं सूफी शब्दों के बीच सीधा शब्द साम्य दीखता है। ऐसे लोग अपने इन वस्त्रों के व्यवहार द्वारा अपना सादा जीवन तथा स्वेच्छा या दारिद्रय भी प्रदर्शित करते थे। ये लोग परमेश्वर की उपलब्धि को ही अपना एकमात्र ध्येय मानते थे। परमेश्वर के साथ निर्बाध मिलन तथा उसके प्रति सच्चे अनुराग में ही कालयापन करना उनके जीवन का सर्वोच्च आदर्श था, और उसके अतिरिक्त सभी बातों को उपेक्षा की दृष्टि से देखा करना उनके लिए स्वाभाविक सा हो गया था।”

‘सूफीमत साधना और साहित्य’ के अन्तर्गत डॉ. रामपूजन तिवारी भी सूफी शब्द को सूफ शब्द से बना हुआ कहते हैं। उनका अभिमत है – “सूफी शब्द की व्युत्पत्ति नाना प्रकार से की गई है। अधिकांश लोग सूफ शब्द से इसका बनना मानते हैं। सूफ’ का अर्थ है ऊन। ईसवीं सन् की आठवीं-नवीं शताब्दी में ऊन का व्यवहार करने वाले संसार-त्यागी साधकों का पता इस्लामी देशों में चलता है। सफा, अल, सुफ्फाह, सफ्फे अव्वल, सोफिस्ता आदि से भी सूफी शब्द के बनने की बात कही जाती है। लेकिन वे अधिकांश लोगों को मान्य नहीं है।”

जायसी ग्रंथावली में सूफी मत का परिचय देते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है – “आरंभ में सूफी एक प्रकार के फकीर या दरवेश थे, जो खुदा की राह पर अपना जीवन ले चलते थे, दीनता और नम्रता के साथ बड़ी फटी हालत में दिन बिताते थे। ऊन के कंबल लपेटे रहते थे। कुछ दिनों तक तो इस्लाम की साधारण धर्म-शिक्षा के पालन में विशेष त्याग और आग्रह के अतिरिक्त इनमें कोई नई बात या विलक्षणता नहीं दिखाई पड़ती थी। पर ज्यों-ज्यों ये साधना के मानसिक पक्ष की ओर अधिक प्रवृत्त होते गए, त्यों-त्यों इस्लाम के बाह्य विधानों से उदासीन होते गए। फिर तो धीरे-धीरे अंत:करण की पवित्रता और हृदय के प्रेम को मुख्य कहने लगे और बाहरी बातों को आडंबर।”

सूफी शब्द की उपर्युक्त विविध व्युत्पत्तियों के आलोक में सूफी’ के निम्नलिखत लक्षण स्वीकार किए जा सकते हैं:

  • बाह्य आडंबरों के स्थान पर भीतरी तत्वों पर बल, जिसका प्रतिपादन वे मनसा, वाचा, कर्मणा करते हैं।
  • व्यक्तिगत साधनारत होते हुए भी लोक की अनदेखी नहीं। परमात्मा के साथ-साथ प्राणीमात्र के प्रति उत्कट-अनुराग।
  • गहरा मानवीय मूल्य-बोध, जो संप्रदाय एवं साधना की सीमाओं में नहीं अटता।  वैचारिक-उदारता उनके चरित्र का वैशिष्ट्य है।
    प्रेम को जीवन के मूल-तत्व के रूप में पहचानना, पर ज्ञान के प्रति द्वंद्वात्मक भाव नहीं रखना।

सूफ़ी मत और सिद्धांत

सूफी मत की संपूर्ण साधना प्रेमाश्रित रही है। व्यक्ति साधना की उच्चभूमि में पहुंचने पर भी इनकी दृष्टि में लोकरक्षा और लोकरंजन के प्रति गहरा सरोकार बना रहा। परम्परा को स्वीकार करते हुए भी रूढ़ एवं . जर्जर तत्वों की जकड़न को इन्होंने स्वीकार नहीं किया। अपने इन्हीं उदार एवं स्वच्छंद विचारों के कारण सूफी कट्टर मुसलमानों के लिए काफिर थे। सूफियों के सिद्धांत एवं दर्शन किसी संप्रदाय विशेष या पूर्वाग्रह से निर्मित न होकर उनकी उदार मानवीय दृष्टि का ही प्रतिफलन थे। उनका मार्ग उदार प्रेममार्ग रहा :

“प्रेम पहार कठिन बिधि गढ़ा। सो पै चढ़े जो सिर सौं चढ़ा।

पंथ सूरि कर उठा अंकूरू। चोर चढ़े की चढ़ मंसूरू।।”

सूफ़ीमत का भारत में आगमन कब हुआ, इस प्रश्न को लेकर विद्वानों में मतैक्य नहीं दिखाई पड़ता। इस प्रश्न को इस रूप में भी उठाया जा सकता है कि भारत में इस्लाम धर्म कब आया? कहना न होगा कि प्रारंभिक सूफी साधक जन्म से इस्लाम धर्म से संबद्ध थे, अत: ये साधक भारत में इस्लाम धर्म के आगमन के उपरांत ही आए होंगे। विद्वानों का मत है कि 1000 ई. के बाद ही सूफी मत भारत में आया। कुछ विद्वान भारत में सूफीमत का प्रवेश ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती से मानते हैं। परशुराम चतुर्वेदी का यह मानना है कि “भारत में सूफीमत के प्रचार का आरंभ वास्तव में, उस समय से होता है जब विक्रम की 12वीं शताब्दी के प्रथम चरण में यहाँ के प्रसिद्ध सूफी अल्-हुज्विरी का आगमन हुआ।’ आचार्य चतुर्वेदी के कथन पर 6 यान देने पर यह प्रतीत होता है कि अल्-हुज्विरी से पूर्व ही भारत में सूफीमत का आगमन हो गया था।

भारत में इस सूफीमत के चार प्रमुख संप्रदाय हैं:

  1. चिश्ती संप्रदाय (बारहवीं शताब्दी) – यह भारत में सर्वाधिक प्रसिद्ध संप्रदाय है। ख्वाजा अबू इसहाक शामी चिश्ती या उनके शिष्य अब अब्दाल चिश्ती का नाम इस संप्रदाय के प्रवर्तक के रूप में लिया जाता है। इस संप्रदाय के माध्यम से सूफी मत का प्रचार भारत वर्ष में करने का श्रेय ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेरी को जाता है। चिश्ती-संप्रदाय में संगीत-तत्व को प्रधानता दी गई है। सुहर्वर्दिया,
  2. सुहरवर्दी या सोहरावर्दी संप्रदाय (बारहवीं शताब्दी) – भारत में इस सूफी संप्रदाय के प्रवर्तक बहाउद्दीन जकारिया कहे गए हैं। ठेठ इस्लाम-धर्म की स्वीकृत बातों के प्रतिकूल चलकर इस संप्रदाय के साधकों ने अपनी उदारतावादी दृष्टि का परिचय दिया।
  3. कादरी या कादिरिया संप्रदाय (पंद्रहवीं शताब्दी)- इस संप्रदाय के प्रवर्तक अब्दुल कादिर अल-जीलानी थे। भारत में इसके प्रचारक सैयद मुहम्मद गौस ‘वाला पीर’ थे। इस संप्रदाय में संगीत का अधिक महत्वपूर्ण स्थान नहीं है।
  4. नक्सबंदी या नक्श बंदिया संप्रदाय (पंद्रहवीं शताब्दी) – इस संप्रदाय को ख्वाजा वहाउद्दीन ‘नक्शबंद’ ने आरंभ किया था। भारत में इसका प्रचार करने वाले ख्वाजा बाकी बिल्ला बेरंग रहे ।

भारत में आकर उदार-धर्मी सूफी मत यहाँ के दार्शनिक मतों एवं उनके सिद्धांतों का प्रभाव ग्रहण कर निरंतर विकासमान रहा है। यही कारण है कि पैगम्बरी एकेश्वरवाद (शुद्ध एकेश्वरवाद) से आरंभ सूफी साधकों की यात्रा सर्वात्मवाद, एकतत्ववाद से होती हुई अद्वैतवाद तक पहुँचती है। सूफी-साधकों की यह निरंतर विकासमान वैचारिक स्थिति जहाँ एक ओर उनके उदारमना होने का परिचय देती है वहीं दूसरी ओर स्थूल दृष्टि वाले पैगम्बरियों के लिए इनकी बातें कुफ्र समझी गईं। कारण – एकेश्वरवाद का मतलब यह है कि एक सर्वशक्तिमान सबसे बड़ा देवता है, जो सृष्टि की रचना, पालन और नाश करता है। अद्वैतवाद का मतलब है कि दृश्य जगत् की तह में उसका आधारस्वरूप एक ही अखंड नित्य-तत्व है और वही सत्य है। उससे स्वतंत्र और कोई अलग सत्ता नहीं है और आत्मा परमात्मा में भेद है।

सूफी, मज़हबी दस्तूर को अपनी व्यापक मानवीय दृष्टि के कारण नहीं स्वीकारते । वे विधि मार्ग विरोधी न थे। उन्हें कुरान के साथ-साथ वेद और पुराण भी लोककल्याण के मार्ग का प्रतिपादन करने वाले प्रतीत हुए :

राघव पूज जाखिनी, दुइजं देखाएसि साँझ।

वेदपंथ जे नहिं चलहिं, ते भूलहि बन माँझ।

झूठ बोल थिर रहै न राँचा।  पंडित सोइ वेदमत साँचा।

सूफियों के अनुसार मानव, सृष्टि का चरमोत्कर्ष है और वही ईश्वर के स्वरूप की पूर्ण अभिव्यक्ति है। मानव का परमलक्ष्य उसकी पूर्णता की प्राप्ति होना चाहिए।

सूफियों ने मनुष्य के चार विभाग स्वीकार किए हैं :

नफ़्स – अर्थात् विषयभोग वृत्ति या इंद्रिय या जड़ तत्व। मनुष्य के शरीर में समाहित यह तत्व उसका जड़ अंश बनाते हैं। अत: साधक का प्रथम लक्ष्य नफ्स के साथ युद्ध होना चाहिए। रूह – अर्थात आत्मा और कल्ब का अर्थ है – हृदय। कल्ब और रूह द्वारा ही साधक अपनी साधना करता है। कल्ब और रूह का भेद सूफियों के यहाँ स्पष्ट नहीं। अक्ल या बुद्धि – यह मनुष्य का चौथा विभाग है। आचार्य परशुराम चतुर्वेदी ने मनुष्य के इन विभागों पर प्रकाश डालते हुए इनका महत्व उद्घाटित किया है –

“नफ्स अथवा जड़ आत्मा, उसे कार्य में बाधा पहुंचाता है और उसे पाप की ओर ले जाने की चेष्टा करता है, किंतु रूह अथवा अजड़ आत्मा की ईश्वरीय शक्ति उसके कल्ब अथवा हृदय के स्वच्छ दर्पण में परमेश्वर को प्रतिबिम्बित कर देती है और उसका अपने प्रियतम के साथ मिलन हो जाता है।”

सूफी चार जगत मानते हैं –

  • आलमे नासूत – भौतिक जगत्,
  • आलमे मलकूत – चित्त जगत् या आत्म जगत्आ
  • लमे जबरूत – आनंदमय जगत् जिसमें सुख-दुख आदि द्वंद्व नहीं और
  • आलमे लाहत – सत्य जगत् या ब्रह्म । कल्ब रूह (आत्मा) और रूपात्मक जगत् के बीच का एक साधन रूप पदार्थ है।

साधना के प्रारंभिक सात सोपानों – अनुताप, आत्म-संयम, वैराग्य, दारिद्र्य, धैर्य, ईश्वर-विश्वास तथा संतोष को पार कर साधक आगे के चतुर्विध सोपानों का अधिकारी हो जाता है।

सूफी, ‘साधक’ की चार अवस्थाएँ कहते हैं –

  1. शरीअत अर्थात धर्मग्रंथ के विधिनिषेध का सम्यक् पालन। इसे हमारे यहाँ के संदर्भ में कर्मकांड कहा जा सकता है।
  2. तरीकत का अर्थ है बाहरी क्रिया-कलाप से परे होकर केवल हृदय की शुद्धता द्वारा भगवान का ध्यान । इसे उपासना कांड के रूप में समझा जा सकता है। 
  3. हकीकत से अभिप्राय भक्ति और उपासना के प्रभाव से सत्य के बोध से है। यह हमारे यहाँ का ज्ञानकांड हुआ। 
  4. मारर्फत अर्थात सिद्धावस्था, जिसमें कठिन उपवास और मौन आदि की साधना द्वारा साधक की आत्मा परमात्मा में लीन हो जाती है।

जायसी ने अखरावट में कहा – “वेद वचन मुख साँच जो कहा। सो जुग जुग अहथिर होइ रहा।”

इतना ही नहीं सूफियों ने भारतीय दर्शन – अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद आदि के मूल तत्व, शांतिपूर्ण एवं अहिंसामय वैष्णव धर्म एवं प्रेम को पूरे आदर के साथ ग्रहण किया। आ. रामचन्द्र शुक्त का इस संबंध में कथन है – दृश्य जगत् के नाना रूपों को उसी अव्यक्त ब्रहम् के व्यक्त आभास मानकर सूफी लोग भावनग्न हुआ करते हैं। यही कारण है कि निराकारोपासक सूफी उपासना के व्यवहार के लिए परमात्मा को अनंत सौंदर्य, अनंत शक्ति और अनंत गुणों का समुद्र मानकर चलते हैं।

ईश्वर और जगत् के संबंध को लेकर सूफ़ियों के पाँच प्रकार के मत उपलब्ध होते हैं :

  • ईश्वर जगत् से परे रहकर उसमें लीन है।
  • ईश्वर और जगत समपरिणामरूप हैं।
  • जगत् की ईश्वर से पृथक् कोई सत्ता नहीं है, दोनों दो भिन्न-भिन्न पदार्थ नहीं।
  • ईश्वर और जगत् पृथक-पृथक वस्तुएँ हैं और ईश्वर जगत् से बाहर है। 
  • ईश्वर न तो जगत में लीन है और न ही जगत से बाहर।

वह एक ही साथ इसके भीतर एवं बाहर दोनों प्रकार से रहता है अथवा उसकी स्थिति इन दोनों के अतिरिक्त किसी मध्यवर्ती ढंग की है। पर अधिकांश सूफी-साधक जगत् को ब्रह्म से अलग नहीं मानते :

“जब चीन्हा तब और न कोई। तन, मन, जिउ, जीवन सब सोई।

हौं हौं कहत धोख इतराहीं। जब भा सिद्ध कहाँ परछाहीं।’ (जायसी)

सृष्टि तत्व पर भी सूफियों ने विचार किया है। इसके अंतर्गत सृष्टि के उद्देश्य एवं उसकी प्रक्रिया तथा सृष्टि के चरम-तत्व का उद्घाटन किया गया है। अधिकांश सूफियों का यह अभिमत रहा है कि परमेश्वर ने सर्वप्रथम अपने नाम के आलोक से नूरुल मुहम्मदिया अर्थात् मुहम्मदीय आलोक की सृष्टि की और वही । आदिभूत बना। फिर नूर संबंधी उपादान कारण से पृथ्वी, जल, वायु एवं अग्नि नाम से चार तत्वों की सृष्टि हुई आगे चलकर इन्हीं से ब्राह्मण का प्रादुर्भाव हुआ।

उन्होंने साधक की इन अवस्थाओं का उल्लेख किया है : 

कही ‘सरीअत’ चिस्ती पीरू। उधरित असरफ औ जहँगीरू ।

राह ‘हकीकत’ परै न चूकी। पैठि ‘मारफत’ मार बुडूकी।।

इन अवस्थाओं पर विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि सूफी साधकों का मूल लक्ष्य-प्रेम है। इसकी प्राप्ति के लिए ही वे नाना मतों, सिद्धांतों एवं अवस्थाओं का आश्रय लेते हैं।

आ. शुक्त का कहना है “अत: मूर्तामूर्त सबको उस ब्रह्म का व्यक्ताव्यक्त रूप मानने वाले सूफी यदि उस ब्रह्म की भावना अनंत सौंदर्य और अनंत गुणों से संपन्न प्रियतम के रूप में करें तो उनके सिद्धांत में कोई विरोध नहीं आ सकता सूफी लोग ब्रह्मानंद का वर्णन लौकिक प्रेमानंद के रूप में करते हैं।”

प्रेमाख्यान का स्वरूप

सूफी काव्य अपनी अंतवर्ती विशेषताओं के कारण प्रेमाश्रयी, प्रेममार्गी, प्रेम-काव्य, प्रेमाख्यानक तथा कथा काव्य के नाम से जाना जाता है। इससे स्पष्ट है कि इस काव्यधारा की मूल चेतना प्रेम रही है। यहाँ प्रेमाख्यानक तथा कथा-काव्य को छोड़ अन्य नामों का अर्थ स्पष्ट है, अत: सूफी काव्य के संदर्भ में इन दो नामों पर विचार अपेक्षित है। यहाँ उल्लेखनीय है कि प्रेमाख्यान का आख्यान तथा कथा-काव्य का कथा शब्द पर्याप्त रूप में प्रयुक्त हुए हैं। हिंदी साहित्य में यह शब्द प्रायः प्राचीन कथानक या वृत्तान्त के ही अर्थ में प्रयुक्त होता है।

इसके अन्य पर्याय रहे हैं – कथा, कथानक, आख्यायिका वृत्तान्त आदि। अपने व्यापक अर्थ में यह कहानी कथा के पर्याय हैं और इसका सीमित अर्थ है : ऐतिहासिक कथानक, पूर्ववृत्त कथन। (हिन्दी साहित्यकोश) जहाँ तक प्रेमाख्यानों के अर्थ एवं स्वरूप का प्रश्न है उसके संबंध में रामपूजन तिवारी जी के शब्दों में कहा जा सकता है कि “लोकप्रचलित कथाएँ ही इन काव्यों का आधार रही हैं। इन कहानियों के नायक ऐतिहासिक पुरुष भी हो सकते थे। वैसे इन कहानियों में ऐतिहासिकता होना जरूरी नहीं था। कल्पना का सहारा लेकर उन प्रेमकहानियों को मांसल बनाया जाता था। इन प्रेम कहानियों में प्रेमी और प्रेमिका के उत्कट प्रेम, उनके मिलन के मार्ग की बाधाएँ, मिलन का वर्णन बड़े रोचक ढंग से होता है।”

भारतीय साहित्य में प्रेमाख्यान की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। ऋग्वेद एवं महाभारत के अनेक आख्यान इस परंपरा के आदि-स्रोत कहे जा सकते हैं। हिंदी साहित्य के मध्यकाल में इस परंपरा ने बल पकड़ा। मध्यकाल में यह परंपरा तीन रूपों में दृष्टिगत होती है।

  • विषय और भाषा के स्तर पर पुरानी परंपरा से चले आते प्रेमाख्यान, जिनमें ऐहिक तत्वों पर अधिक बल दिया गया है।
  • सूफी साधकों द्वारा रचित प्रेमाख्यान ।
  • दक्षिणी हिंदी में रचित लौकिक एवं पारलौकिक प्रेम समन्वित आख्यान ।

सूफी साधकों द्वारा रचित प्रेमाख्यानों पर भारतीय आख्यान परंपरा के साथ-साथ फारसी की मसनवी शैली का भी पर्याप्त प्रभाव रहा है। यह प्रभाव विषय-वस्तु एवं शिल्प दोनों स्तरों पर दिखाई देता है। इनमें भारतीय लोककथाओं एवं भारतीय काव्य की कथानक रूढ़ियों को आधार रूप में ग्रहण किया गया है। फारसी की मसनवी शैली के संयोग से इन प्रेमाख्यानकों में अभिव्यक्त प्रेम का स्वरूप परम्परागत काव्य से भिन्न एवं विशिष्ट हो गया है।

सूफ़ी काव्य की मूल प्रेरणा यह तो आप जानते हैं कि भारत में सूफी संप्रदाय का आगमन एवं विकास मुस्लिम, साधकों द्वारा ही हुआ। इसी को लक्ष्य करके आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने यह कहा कि इस शैली की प्रमुख कहानियाँ मुसलमानों के ही द्वारा लिखी गईं। इन भावुक और उदार मुसलमानों ने इनके द्वारा मानो हिंदू जीवन के साथ अपनी सहानुभूति प्रकट की। यदि मुसलमान हिंदी और हिंदू साहित्य से दूर न भागते, इनके अध्ययन का क्रम जारी रखते, तो उनमें हिंदुओं के प्रति सद्भाव की वह कमी न रह जाती जो कभी-कभी दिखाई पड़ती है।

मुसलमान होने के बावजूद सूफी कवियों की दृष्टि मानवतावादी उदार दृष्टि थी। वे मानुष सत्य का उद्घाटन करना चाहते थे। इस सत्य की अभिव्यक्ति में जो दर्शन उनका सहायक हो सकता था, उसे सूफी प्रेमाख्यानकारों ने बड़े आदर भाव से ग्रहण किया। डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने जायसी की कविता पर विचार करते हुए लिखा है – “जायसी के संदर्भ में यह बात फिर उभर कर आती है कि कविता मात्र सांप्रदायिक नहीं होती। मुसलमान होकर हिंदू शौर्य की गाथा – दिल्ली के सुल्तान के विरुद्ध – एक नाजुक प्रसंग है। पर जायसी ‘पद्मावत’ के चित्रण में एकदम खरे उतरते हैं। यहाँ दोनों पक्षों का पूरे आदर और आत्मीयता से उल्लेख हुआ है – ‘हिंदू तुरक दुवौ रन गाजे’ और अगर आत्मीयता कहीं कुछ अधिक है तो चित्तौड़ के साथ, न कि दिल्ली के।”

स्पष्ट है कि सूफी साधकों की मूल दृष्टि संप्रदाय-सापेक्ष न होकर मूल्य-सापेक्ष रही। ये मूल्य समय सापेक्ष होने के साथ साथ सार्वभौम भी थे। इसी कारण सूफी कविता अपने प्रभाव में कालजयी कविता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने समय संदर्भ में इस कविता के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा है – “मनुष्यता के सामान्य भावों के प्रवाह में मग्न होने और मान करने का समय आ गया था। ऐसे समय में कुछ भावुक मुसलमान प्रम की पीर’ की कहानियाँ लेकर साहित्यक्षेत्र में उतरे। ये कहानियाँ हिंदुओं के घर की थीं। इनकी मधुरता और कोमलता का अनुभव करके इन कवियों ने दिखला दिया कि एक गुप्त तार मनुष्य मात्र के हृदयों से होता हुआ गया है जिसे छूते ही मनुष्य सारे बाहरी रूप रंग के भेदों की ओर से ध्यान हटा एकत्व का अनुभव करने लगता था।”

सूफ़ी प्रेमाख्यानक काव्य-परंपरा

मनुष्यता के सामान्य-स्वरूप को लेकर अग्रसर होने वाली सूफी काव्य परंपरा अत्यंत समृद्ध रही है। मलिक मुहम्मद जायसी’ का पद्मावत इसी परम्परा का उत्कृष्ट ग्रंथ है। जायसी के इस ग्रंथ में सूफी काव्य परंपरा की सभी विशेषताएँ एक साथ दिखाई पड़ती हैं। इस ग्रंथ की उत्कृष्टता एवं विषय तथा शैली इस बात की ओर संकेत करते हैं कि जायसी से पूर्व ही यह परंपरा प्रारंभ हो गई थी। जायसी में इस परंपरा का चरम रूप दिखाई पड़ता है। जायसी के पश्चात् भी सूफी प्रेमाख्यानक काव्य की यह परंपरा निरंतर प्रवहमान रही। इस काव्य परंपरा के सिरमौर कवि जायसी को आधार बनाकर प्रेमाख्यानक काव्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है :

  • जायसी पूर्व प्रेमाख्यानक काव्य 
  • जायसी उत्तर प्रेमाख्यानक काव्य

जायसी पूर्व प्रेमाख्यानक काव्य : जायसी के पूर्व प्रेमाख्यानक काव्यों की पुष्टि जायसी का पद्मावत कर देता है। जिसमें कवि ने स्पष्ट रूप से अपनी पूर्ववर्ती परंपरा का उल्लेख किया है –

“विक्रम फँसा प्रेम के बारा। सपनावति कहँ गएउ पतारा।।

मधूपाछ मुगुधावति लागी। गगनपूर होइगा बैरागी।।

राजकुँवर कंचनपुर गयऊ। मिरगावति कहँ जोगी भयऊ।।

साधु कुँवर खंडरावत जोगू। मधुमालति कर कीन्ह वियोगू।।

प्रेमावति कहँ सुरसरि साधा। ऊषा लगि अनिरुथ वर बाँधा ।।”

इस सूची में गिनायी गई प्रेमाख्यानक रचनाओं में केवल मृगावती और मधुमालती ही प्राप्त हो सकी हैं। जायसी के इस छंद में कुछ नाम छूट गए हैं। इस परंपरा में मुल्ला दाऊद की चंदायन या नूरकंचदा, दामो कवि की लक्ष्मण सेन पद्मावती, शेख रिजकुल्ला मुश्ताकी की रचना प्रेमवनजोब निरंजन, नारायणदास (रतनरंग) की छिताईवार्ता ईश्वरदास विरचित सत्यवती कथा महत्वपूर्ण हैं।

जायसी के उत्तरवर्ती प्रेमाख्यानक काव्य : जायसी के बाद भी प्रेमगाथाओं की यह परंपरा गतिमान रही। इस परंपरा को आगे बढ़ाने वाले कवि, उनकी रचनाएँ  इस प्रकार कहा गया है :

रचयिता                                        रचना

मंझन                                            मधुमालती

उसमान                                        चित्रावली

शेखनवी                                     न्यामत खाँ ‘जान’

सूफी काव्य परंपरा का उद्घाटन करने के उपरांत अब हम इस परंपरा के महत्वपूर्ण कवियों एवं उनकी रचनाओं पर संक्षेप में विचार करेंगे, जिससे परंपरा को समग्र रूप से ग्रहण करने में सुविधा हो।

1.मुल्ला दाऊद – मुल्ला दाऊद या मौलाना दाऊद की रचना ‘चंदायन’ से सूफी प्रेमाख्यानक काव्य परंपरा का आरंभ माना जाता है। यह लोर या लोरिक तथा चन्दा की प्रेमकथा है। विषयवस्तु की दृष्टि से इसमें भारतीय प्रेमाख्यानों की विभिन्न प्रवृत्तियों का निरूपण हुआ है। इसमें भी सूफी रचनाओं के समान लोक प्रचलित विश्वासों के साथ-साथ परमतत्व से प्रेम की व्यंजना की गई है। चंदायन के छंद से एक दोहा उद्धृत है :

“पियर पात जस बन जर, रहेउँ काँप कुँभलाई ।

विरह पवन जो डोलेउ, टूट परेउँ घहराई।।”

2.कुतुबन : चौपाई-दोहे के क्रम में कुतुबन ने ‘मृगावती’ की रचना 909 हिजरी (संवत् 1558) में की। इसमें चंद्रनगर के राजा गणपति देव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारि की कन्या मुगावती की प्रेमकथा का वर्णन है। इस कहानी के माध्यम से कवि ने प्रेममार्गी के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत्प्रेम का स्वरूप दिखाया है। बीच-बीच में सफियों की शैली पर बड़े सुंदर रहस्यमय आध्यात्मिक आभास हैं। ग्रंथ की परिणति शांत रस में दिखाई गई है :

रुकमिनि पुनि वैसहि मरि गई। कुलवंति सत सों सति भई ।।

बाहर वह भीतर वह होई। घर बाहर को रहै न जोई।।

बिधि कर चरित न जानै आनू। जो सिरजा सो जाहि निआनू ।।

3.मंझन : मंझन की रचना का नाम ‘मधुमालती’ (संवत् 1545) है। मधुमालती नाम की अन्य रचनाओं का भी पता चलता है। लेकिन मंझन कृत मधुमालती जायसी के पद्मावत के पाँच वर्ष बाद रची गई। जायसी ने अपने पूर्ववर्ती सूफी प्रेमाख्यानक ग्रंथों का उल्लेख करते हुए जिस मधुमालती का नाम लिया है, वह मंझन की रची हुई नहीं है। इस ग्रंथ में कनेसर नगर के राजा सूरजभान के पुत्र राजकुमार मनोहर का महारस नगर की राजकुमारी मधुमालती के साथ प्रेम और पारस्परिक वियोग की कथा है। इस रचना में विरह-कथा के साथ आध्यात्मिक तथ्यों का निरूपण सुंदर ढंग से किया गया है।

4.मलिक मुहम्मद जायसी’ : जायसी सूफी साधकों एवं कवियों के सिरमौर हैं। प्रेममार्गी कवियों के इस प्रतिनिधि कवि की रचना-पद्मावत सन् 927 हिजरी (सन् 1520 ई.) में मानी गयी है –

“सन् नौ सै सत्ताइस अहा। कथा आरंभ बैन कवि कहा।”

आ. शक्ल ने इस कृति के संबंध में लिखा – “जायसी की अक्षय कीर्ति का आधार है ‘पद्मावत’, जिसके पढ़ने से यह प्रकट हो जाता है कि जायसी का हृदय कैसा कोमल और प्रिम की पीर’ से भरा हुआ था। क्या लोकपक्ष में, क्या अध्यात्म पक्ष में दोनों ओर उसकी गूढता, गंभीरता और सरसता विलक्षण दिखाई देती है।’ इस कृति में राजा रत्नसेन और सिंहलद्वीप की पद्मावती के प्रेम का वर्णन किया गया है। प्रेमगाथा परंपरा की इस प्रौढ़ कृति में इतिहास और कल्पना का सुंदर समन्वय देखते ही बनता है।

5.उसमान : उसमान कवि की चित्रावली’ सन् 1613 ई. में लिखी गई थी। इसका कथानक कल्पनाश्रित है। इसमें नेपाल के राजकुमार सुजान के चित्रावली के साथ विवाह का वर्णन अत्यंत सरस रूप में हुआ है। रचनाकार अपने रचनाविधान में जायसी से प्रभावित रहा है। इसमें सूफी और सूफी प्रेमाख्यानक इतर काव्य की परंपराओं और काव्य-रूढ़ियों का सुंदर प्रयोग हुआ है।

भाव व्यंजना तथा रस निरूपण

साहित्य की प्रत्येक विधा अपने समय और रचनाकार की आपसी टकराहट से विषय-वस्तु ग्रहण करती है। सूफी कविता फिर इसका अपवाद कैसे हो सकती है? सूफी कवियों के आख्यानों में उनकी रचना-दृष्टि और समय की आवश्यकता दोनों मौजूद हैं। इसका परिणाम यह है कि उस युग का जीवन प्रतिनिधि कवियों की रचनाओं में अपने वैविध्य के साथ चित्रित है। रति, शोक, उत्साह, भय, वीभत्स, हास, ईर्ष्या, उत्सुकता, सहानुभूति, विवशता आदि जीवन के प्रमुख भाव, प्रेमाख्यानों में संदर्भ-सापेक्ष होने के कारण जीवंत बन पड़े हैं। पर इस सबंध में मतभेद नहीं हो सकता कि इस कविता का बीज भाव-ऐहिक एवं पारलौकिक प्रेम है। प्रेम की शक्ति जीवन के तमाम भावों में सर्वोपरि है। सूफी कविता का प्रेम-तत्व भी अन्य भावों को ढक लेता है

“प्रीति बेलि जिन अरुझै कोई। अरुझै, मुए न छूटै सोई।

प्रीति बेलि ऐसे तन डाढ़ा। पलुहत सुख, बाढ़त दुख बाढ़ा।।

प्रीति अकेलि बेलि चढ़ि आवा। दूसर बेलि न सँचरै पावा।”

इस काव्य-धारा का अपर नाम प्रमाश्रयी’ या प्रमाख्यानक’ काव्य-परंपरा इस काव्यधारा की मूल विषय-वस्तु प्रम’ की ओर संकेत करता है। काव्यशास्त्र की शब्दावली में इसे श्रृंगार कहा जा सकता है। इनका प्रणय भाव इनकी साधना पद्धति के परिप्रेक्ष्य में ही अभिव्यक्ति पाता है। लोक जीवन की प्रेमकथा को आधार बनाकर ये इश्क हकीकी के सिद्धांत का ही प्रतिपादन करना चाहते थे। ईश्वर, जगत्, ईश्वर और जगत् के पारस्परिक संबंध, मनुष्य तथा साधना की विविध अवस्थाओं के निरूपण द्वारा ये अपने चरम लक्ष्य – ईश्वर प्रेम के विविध सोपानों को ही उजागर करते हैं। प्रेम के संयोग पक्ष की अपेक्षा वियोग पक्ष की प्रधानता । इनके यहाँ दिखाई पड़ती है। इस माध्यम से यह ईश्वर से मिलन-संयोग के विविध सोपानों के वर्णन का मार्ग निकाल लेते हैं। वास्तव में सूफी रचनाकारों की प्रणय भावना साहस संघर्ष की भावना से परिचालित रही है। इनके यहाँ न सामाजिक रूढ़ियों का बंधन स्वीकार्य है न शास्त्र का अनावश्यक हस्तक्षेप।

सूफी कवियों ने नायिका को अलौकिक शक्ति का प्रतीक मानकर उसमें अनुपम सौंदर्य का विधान किया है। सौंदर्य निरूपण में इन्होंने शरीर और मन दोनों के सौंदर्य का चित्रण किया है। नख-शिख, रूप-रंग, हाव-भाव के वर्णन के साथ कला-विशारदता, विदग्धता आदि का भी समावेश किया है। सूफी प्रेमाख्यानों के नायक अनेक बाधाओं को झेलकर भी निरंतर लक्ष्य की ओर बढ़ते चलते हैं। इस प्रणय भावना के स्वरूप को उद्घाटित करते हुए डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त ने लिखा है – “इन आख्यानों के नायकों की प्रणय-भावना, साहस, संघर्ष, शौर्य, आत्मत्याग आदि से युक्त होकर एक ऐसा रूप प्राप्त कर लेती है जिसमें वासना, स्वार्थ, अहंकार का लोप हो जाता है।”

विरह-दशा की प्रधानता के माध्यम से ये जीवन के क्षुद्र-स्वार्थों से उत्पन्न खाई को पाटना चाहते थे। जायसी के यहाँ रानी नागमती का तमाम अहंकार वियोग के दौरान खंड-खंड हो जाता है और कोमल मानवीय भावनाएँ अपने वास्तविक रूप में प्रकट होती दिखाई पड़ती हैं।

सूफी कवियों की इस भाव-निरूपण प्रकृति का अवलोकन करने पर कहा जा सकता है कि इनकी रचनाएँ ‘कथारूपक’ श्रेणी में आती है। सांसारिक व्यक्तियों की प्रेम चर्चा द्वारा इश्क हकीकी के सिद्धांत का प्रतिपादन करना इनका लक्ष्य रहा है। इनमें प्रेम-मार्ग की बाधाओं के निरूपण के माध्यम से साधक के साधना-मार्ग की ओर संकेत किया गया है। सूफियों के यहाँ सौंदर्य को प्रेम के उद्रेक का मूल कारण बताया गया है। प्रेमारंभ का मूल कारण, नायिका का अनुपम रूप-सौंदर्य – ‘खुदा के नूर’ की ओर संकेत करता है। प्रेम के इस विशिष्ट प्रेम-स्वरूप के माध्यम से इन्होंने लौकिक के साथ लोकोत्तर, अलौकिक प्रेम की व्यंजना की है। पद्मावती और नागमती के विवाद में जो ‘असूया’ का भाव प्रकट होता है, वह स्त्री-भाव चित्रण की दृष्टि से चित्रित है। वह प्रेम के लौकिक स्वरूप के अंतर्गत है।

प्रेम-पद्धति

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने दाम्पत्य-प्रेम की चार पद्धतियाँ कही हैं –

  • पहले प्रकार का प्रेम आदिकाव्य रामायण में दिखाया गया है। इसका विकास विवाह संबंध हो जाने के बाद और पूर्ण उत्कर्ष, जीवन की विकट स्थितियों में दिखाई पड़ता है।
  • दूसरे प्रकार का प्रेम विवाह के पूर्व का होता है, विवाह जिसका फल होता है। इसमें नायक-नायिका संसार क्षेत्र में घूमते फिरते हुए कहीं – जैसे उपवन, नदीतट, वीथी इत्यादि में – एक दूसरे को देख मोहित होते हैं और दोनों में प्रीति हो जाती है।
  • तीसरे प्रकार के प्रेम का उदय प्राय: राजाओं के अंत:पुर, उद्यान आदि के भीतर भोगविलास या रंग रहस्य के रूप में दिखाया जाता है जिसमें सपत्नियों के द्वेष, विदूषक आदि के हास, परिहास और राजाओं की स्त्रैणता का दृश्य होता है।
  • चौथे प्रकार का वह प्रेम है जो गुण, श्रवण, चित्र दर्शन, स्वप्न दर्शन आदि से बैठे बिठाए उत्पन्न होता है और नायक या नायिका को संयोग के लिए प्रयत्नवान करता है। सूफियों के यहाँ प्रेम-पद्धति का चौथा रूप दिखाई देता है। फारसी की प्रेम पद्धति से प्रभावित सूफी कवियों का यह प्रेम अभिनव रूप में दिखाई देता है। सूफी प्रेमाख्यानकारों ने भारतीय और विदेशी प्रेम पद्धतियों को मिलाकर प्रेम का आदर्श रूप स्थापित किया है।

फारस के प्रेम में नायक के प्रेम का वेग अधिक तीव्र दिखाई पड़ता है और भारत के प्रेम में नायिका के प्रेम का। जायसी ने आगे चलकर नायक और नायिका दोनों के प्रेम की तीव्रता समान करके दोनों आदर्शों का एक में मेल कर दिया है। इतना ही नहीं फारसी की मसनवियों के ऐकांतिक, लोकबाह्य और आदर्शात्मक प्रेम को इन्होंने भारतीय प्रेम पद्धति के लोकसंबद्ध और व्यवहारात्मक रूप से संबद्ध किया। इनका प्रेम काम, सौंदर्य और प्रणय की भावना से युक्त रहा। प्रेम की परिणति भाव रूप में दिखाई गई है। रूप-लोभी अलाउद्दीन की समझ में यह बात अन्तत: आ ही जाती है कि :

“मानुष पेम भएउ बैकुंठी।

नाहिं तो व्याह छार इक मूठी।।”

चरित्र-चित्रण

सूफी प्रेमाख्यानों में उपलब्ध पात्रों को उनकी प्रकृति के आधार पर विविध भागों में बाँटा जा सकता है:

  • मानवीय पात्र तथा अमानवीय पात्र
  • मुख्य पात्र, गौण पात्र तथा अनावश्यक पात्र ।
  • ऐतिहासिक पात्र तथा काल्पनिक पात्र ।

मानवीय श्रेणी के पात्रों में राजकुमार, राजकुमारी तथा उनसे संबंधित अन्य पात्र आते हैं। मानवीय चरित्र की तमाम विशेषताओं से यह पात्र युक्त दिखाई पड़ते हैं। नागमती और पद्मावती के विवाद में स्त्री सुलभ असूया भाव का, नागमती के विरह में भारत की मध्यकालीन नारी और उसके भावों का प्रकाशन हआ है। प्रेमाख्यानों में कथारूपक के निर्वाह के लिए नायक को नायिका की अपेक्षा अधिक अधीर दिखाया गया है।

पं. परशुराम चतुर्वेदी ने सूफी कवियों के प्रबंधों में चरित्र-चित्रण के विषय में लिखा है – “सूफी-प्रेम गाथा के कवियों को जब अपनी कथा-वस्तु के घटना-प्रवाह में डालकर किसी पात्र को अंत तक निबाह ले जाने की आवश्यकता पड़ती है, तब उन्हें केवल इसी बात की चिंता नहीं रहा करती कि उनका स्वरूप किसी परिस्थिति-विशेष के अनुकूल गढ़ता जा रहा है या नहीं।

उन्हें इस बात को देखते रहने के लिए भी जागरूक बनना पड़ता है कि वह अंड में जाकर हमारे आदर्शों के अनुरूप ही उतर सकेगा।”

परिवेश की संदर्भ-सापेक्षता का बोध सूफी कवियों को था यही कारण है उनके मानवीय-चरित्र भारतीय परिवेश की उपज प्रतीत होते हैं। फारसी प्रेमाख्यानों से भारतीय प्रेमाख्यानों के चरित्र की भिन्नता एवं विशिष्टता को लक्ष्य करते हुए कहा गया है कि फारसी प्रेमाख्यानों में प्राय: नायक एकपत्नीव्रतधारी तथा नायिका प्रेमी के अनन्तर पति को स्वीकार करने वाली दिखाई जाती है। हिंदी प्रेमाख्यानों में नायक के प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रतिनायक का अस्तित्व प्राय: नहीं है – नायक का विरोध प्राय: नायिका के पिता या संरक्षक के द्वारा ही होता है, अत: फारसी-मसनवियों की भाँति इनमें प्रेम का त्रिकोण उपस्थित नहीं होता।

मानवेतर प्राणियों के वर्ग में असुर, राक्षस, बैताल, हंस, तोता, अप्सराएँ, परियाँ आदि आते हैं। ये पात्र स्थिति विशेष को आगे बढ़ाने में सहायक की भूमिका निभाते हैं। ये पात्र एक तरह की प्रतीकात्मक भूमिका लिए रहते हैं। असुर या राक्षस क्रूर, तोता तथा हंस विद्वान और अप्सरा या परी सहृदय रूप में चित्रित हुए हैं।

मुख्य पात्र ऐतिहासिक एवं काल्पनिक दोनों प्रकार के रहे हैं। नायक-नायिकादि यदि ऐतिहासिक पात्र हैं तो कतिपय काल्पनिक पात्रों की योजना भी कथा-विधान के अंतर्गत की गई है। काल्पनिक पात्रों के अंतर्गत देव, परी, परेवा आदि गौण पात्र के रूप में आते हैं। जायसी के पद्मावत का हीरामन तोता ऐतिहासिक पात्र नहीं पर कथा-प्रसंग में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। वह गुरू सूआ जेई पंथ देखावा की भूमिका में आकर पूरे कथा-विधान के संचालक की भूमिका का ग्रहण कर लेता है।

सूफी प्रेमगाथाओं में लोक और शिष्ट, कल्पना और इतिहास का सुंदर समन्वय दिखाई पड़ता है “सूफी प्रेम-गाथा के कवियों को जहाँ ऐतिहासिक घटनाओं का आधार लेना पड़ा है, इसके लिए उन्होंने भरसक ऐतिहासिक पात्रों की ही अवतारणा की है, वहाँ परिस्थिति-विशेष को सँभालने के लिए उन्हें कुछ काल्पनिक पात्रों की भी सृष्टि करनी पड़ी है, जिन्हें उन्होंने प्रसंगानुसार उपस्थित कर अपनी कहानी में खपा दिया है।” (सूफी काव्य-संग्रह – पं. परशुराम चतुर्वेदी)।

पद्मावत में कल्पना और इतिहास की स्थिति और उससे निर्मित पात्रों की स्थिति को उद्घाटित करते हुए डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है – “जायसी ने अपने कथानक का विधान इस तरह किया है कि पर्वार्द्ध लोक-कथा के रूप में काल्पनिक वृत्त है और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक बनावट लिए हुए है। ये दो अलग-अलग संसार हैं और इनकी विश्वसनीयता की अलग-अलग शर्ते हैं। लोक कथा की रंगत लिए पूर्वाद्ध में अनेक अतिप्राकृत चरित्र और घटनाएँ हैं – देवी, देवता, राक्षस, मनुष्य की बोली बोलने वाला तोता, सिद्धि गुटिका आदि। उत्तरार्द्ध में ये अतिप्राकृत तत्व एकदम अनुपस्थित हैं, उनका कहीं कोई उल्लेख नहीं होता।’

स्पष्ट है कि चरित्र चाहे वे किसी भी प्रकृति के रहे हों, संदर्भ की माँग के अनुरूप हैं। सूफी कवियों के पात्रों के चरित्र-चित्रण का अवलोकन करने के उपरान्त कहा जा सकता है कि यहाँ पात्र कथा-रूपक निर्वाह के अनुरोध से स्वरूप ग्रहण करते हैं। वे स्वतंत्र रूप में गतिशील न होकर प्राय: स्थिर और रूढिबद्ध रूप में ही कथानक के अनुरूप प्राय: पूर्वनियत भूमिकाओं का निर्वाह करते दिखाई पड़ते हैं।

सूफ़ी रहस्यवाद

ज्ञान के क्षेत्र का अद्वैतवाद, भावना के क्षेत्र में आकर रहस्यवाद कहलाता है। रहस्यवाद अपनी प्रकृति से दो प्रकार का होता है –

  • साधनात्मक रहस्यवाद,
  • भावनात्मक रहस्यवाद ।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार “हमारे यहाँ का योगमार्ग साधनात्मक रहस्यवाद है। यह अनेक अप्राकृतिक और जटिल अभ्यासों द्वारा मन को अव्यक्त तथ्यों का साक्षात्कार कराने तथा साधक को अनेक अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त कराने की आशा देता है। तंत्र और रसायन भी साधनात्मक रहस्यवाद हैं, पर निम्न कोटि के। भावनात्मक रहस्यवाद की भी कई श्रेणियाँ है, जैसे भूत-प्रेम की सत्ता मानकर चलने वाली भावना स्थूल रहस्यवाद के अंतर्गत होगी। अद्वैतवाद या ब्रह्मवाद को लेकर चलने वाली भावना से सूक्ष्म और उच्च कोटि के रहस्यवाद की प्रतिष्ठा होती है।”

भारतीय भक्ति का सामान्य स्वरूप रहस्यमय नहीं। यही कारण है कि यहाँ भक्ति के क्षेत्र में रहस्यधर्मी माधुर्य भाव का अधिक प्रचार नहीं हुआ। पर सूफियों के यहाँ रहस्यात्मक माधुर्य भाव व्यापक स्तर पर दिखाई पड़ता है। इन्हीं के प्रभाव से सगुण भक्तिधारा की कृष्णाश्रयी शाखा में इस भाव को स्वीकृति मिली। सूफियों के इस रहस्यात्मक भक्ति मार्ग की कतिपय रूढ़ियाँ रही हैं, सूफी प्रेमाख्यानक परंपरा में इन रूढ़ियों का विस्तार दिखाई पड़ता है। हाल की दशा में आकर मूर्छित होना, मद, प्याला, उन्माद तथा प्रियतम ईश्वर के विरह की दूरारूढ़ व्यंजना भी सूफियों की बँधी हुई परंपरा है। सूफियों के इस रहस्यवाद ने निर्गुण संतों को भी व्यापक स्तर पर प्रभावित किया।

जिस प्रकार सूफियों के प्रभाव से भारतीय भक्ति साहित्य के रचनाकार प्रभावित हुए थे, उसी प्रकार सूफी भी यहाँ के साधनात्मक-रहस्यवाद से प्रभावित हुए। आचार्य शुक्ल ने इस प्रभाव को रेखांकित करते हुए लिखा भी है कि “जिस समय सूफी यहाँ आए उस समय उन्हें रहस्य की प्रवृत्ति, हठयोगियों, रसायनियों और तांत्रिकों में ही दिखाई पड़ी। हठयोग की तो अधिकांश बातों का समावेश उन्होंने अपने साधना-पद्धति में कर लिया।”

इस प्रकार रहस्यवाद सूफियों के यहाँ अपने संपूर्ण रूप में दिखाई देता है। इस क्षेत्र में सूफी कवियों के प्रदेय को विशेषत: जायसी के प्रदेय को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने स्वीकार किया है – “हिंदी कवियों में यदि कहीं रमणीय और सुंदर अद्वैती रहस्यवाद है तो जायसी में, जिनकी भावुकता बहुत ही ऊँची कोटि की है। वे सफियों की भक्ति भावना के अनुसार कहीं तो परमात्मा को प्रियतम के रूप में देखकर जगत् के नाना रूपों में उस प्रियतम के रूप माधुर्य की छाया देखते हैं और कहीं सारे प्राकृतिक रूपों और व्यापारों का ‘पुरूष’ के समागम के हेतु प्रकृति के शृंगार, उत्कंठा या विरह विकलता के रूप में अनुभव करते हैं।” (जायसी ग्रंथावली)

काव्य रूप तथा कथानक रूढ़ियाँ

काव्य के दो प्रधान रूपों में से सूफी प्रेमाख्यानों की रचना प्रबंध रूप में की गई है। प्रबंध काव्य के किस रूप के अंतर्गत इन्हें रखा जाए, यह समस्या आलोचकों के सामने आती है। इन्हें कभी फारसी प्रबंध (मसनवियों) के अंतर्गत रखा गया है तो कभी भारतीय कथा-काव्य की परंपरा में। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनका सबंध फारसी की मसनवियों से माना है। उनका अभिमत है – “इन प्रेमगाथाओं में पहली बात ध्यान देने की.यह है कि इनकी रचना भारतीय चरितकाव्यों की सर्गबद्ध शैली पर न होकर फारसी की मसनवियों के ढंग पर हुई है, जिसमें कथा, सर्गों या अध्यायों में विस्तार के हिसाब से विभक्त नहीं होती, बराबर चली चलती है, केवल स्थान-स्थान पर घटनाओं या प्रसंगों का उल्लेख शीर्षक के रूप में रहता है।

मसनवी के लिए साहित्यिक नियम तो केवल इतना ही समझा जाता है कि सारा काव्य एक ही मसनवी छंद में हो पर परंपरा के अनुसार उसमें कथारंभ के पहले ईश्वरस्तुति, पैगंबर की वंदना और उस समय के राजा । (शाहे वक्त) की प्रशंसा होनी चाहिए। ये बातें पद्मावत, इंद्रावत, मृगावती इत्यादि सबमें पाई जाती हैं।” यहाँ उल्लेखनीय है कि भाषाशैली और संस्कृति का आपसी संबंध बड़ा गहरा होता है। उदार सूफी साधक लोक जीवन की कथा को आधार बनाकर अपने मूल विषय – मानवीय प्रेम – को प्रतिपादित करना चाहते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने हिंदू घरानों की कहानियों को फारसी की काव्य शैली में ढाला। सूफी साधकों की उदार-दृष्टि काव्य-रूप के चयन में भी इसी उद्देश्य से परिचालित होती जान पड़ती है। सिद्धांत, मत, कथानक रूढ़ियों के संदर्भ में उन्होंने भारतीय – अभारतीय तत्वों की जो मिलावट की है, वह प्रयोजन-सापेक्ष थी।

आचार्य शुक्ल का उपर्युक्त कथन सूफी प्रेमाख्यानों की विस्तृत परंपरा पर समान रूप से लागू नहीं होता – “कुछ रचनाओं के स्तुति-खंड में ही इस प्रभाव को स्वीकार किया जा सकता है, अन्यथा मसनवी काव्य के अन्य लक्षण जैसे पूरे काव्य का एक ही छंद में लिखा जाना, कथा का सर्गों या खंडों में विभक्त न होना आदि इन प्रेमाख्यानों में नहीं मिलते, अत: इन्हें काव्य-रूप की दृष्टि से ‘मसनवी’ कहना कठिन है।” (हिंदी साहित्य का इतिहास (सं.) डॉ. नगेन्द्र) आचार्य शुक्ल जिस शैली को मसनवी कहते हैं, उस शैली के विषय में डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी का यह अभिमत है “इस शैली के पीछे देसी लोक-गाथाओं का संस्कार भी देखा जा सकता है, जिनमें शास्त्रीय दृष्टि का कोई विभाजन नहीं, कथा लगातार चलती है।”

अब प्रश्न उठता है कि यदि सूफी प्रेमाख्यान मसनवी नहीं है, तो क्या है? मसनवी के अतिरिक्त सूफी प्रेमाख्यानों को महाकाव्य, रोमांचक आख्यान या कथा-काव्य कहा गया है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि “कथा-काव्य एवं महाकाव्य दोनों ही प्रबंधात्मक होते हैं तथा उनके अनेक बाह्य लक्षणों में समानता भी संभव है, किंतु दोनों की आधारभूत चेतना, उनके लक्ष्य व प्रयोजन में इतना गहरा अंतर है कि एक को दूसरे की कसौटी पर परखना अनुचित होगा। महाकाव्य के मूल में प्राय: आदर्शपरक (मर्यादावादी) चेतना होती है, जो किसी महत् पात्र या महान-पुरुष के चरित्र का अवतरण करती हुई उदात्त संदेश की व्यंजना करती है, जबकि कथा-काव्य की मूल चेतना स्वच्छंदतापरक होती है, उसमें आदर्श की स्थापना की अपेक्षा सौंदर्य प्रेम की अभिव्यंजना का तथा लोक-मंगल की अपेक्षा लोक-रंजन का लक्ष्य अधिक रहता है।” (हिंदी साहित्य का इतिहास – (सं.) (डॉ. नगेन्द्र)।

संस्कृत आचार्यों द्वारा कथा-काव्य के जो लक्षण दिए गए हैं, उनके आधार पर सूफी प्रेमाख्यान कथा-काव्य या रोमांस काव्य ही प्रतीत होते हैं – कारण, कथा-काव्य की अधिकांश रूढ़ियाँ इनमें लक्षित होती है। कथा-काव्य की रूढ़ियाँ निम्नलिखित हैं :

  • कथारंभ में देवता गुरु की वन्दना, ग्रंथकार का स्व: परिचय।
  • कथा – प्रयोजन का उल्लेख।
  • रचना का प्रतिपाद्य, प्रेयसी की प्राप्ति।
  • समकालीन शासक का उल्लेख, बीच बीच में धार्मिक नैतिक तत्वों का समायोजन, लोक शैली के अनिवार्य अंगों – लंबे और सिलसिलेवार वस्तु वर्णन का समावेश, कथा का समापन शान्त रस में, चौपाइयों के बीच-बीच में दोहे का प्रयोग तथा कथा को खंड में विभक्त करना।

ये उपर्युक्त रूढ़ियाँ सूफी प्रेमाख्यानों के अंतर्वर्ती तत्व हैं। अत: इस आधार पर कहा जा सकता है कि सूफी-प्रेमाख्यानक अपनी मूल चेतना के आधार से कथा-काव्य या रोमांचक आख्यान हैं।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार कथानक को गति देने के लिए सूफी कवियों ने प्राय: उन सभी कथानक रूढ़ियों का व्यवहार किया है जो परंपरा से भारतीय कथाओं में व्यक्त होती रही हैं, जैसे – चित्र दर्शन, स्वप्न द्वारा अथवा शुक-सारिका आदि द्वारा नायिका का रूप देख या सुनकर उस पर आसक्त होना, पशु पक्षियों की बातचीत से भावी घटना का संकेत पाना, मंदिर या चित्रशाला में प्रिययुगल का मिलन होना, इत्यादि। कुछ नई कथानक-रूढ़ियाँ ईरानी साहित्य से आ गई हैं, जैसे प्रेम व्यापार में परियों और देवों का सहयोग, उड़ने वाली राजकुमारियाँ , राजकुमारी का प्रेमी को गिरफ्तार करा लेना इत्यादि। परंतु इन नई कथानक शैलियों को भी कवियों ने पूर्ण रूप से भारतीय वातावरण के अनुकूल बनाने का प्रयत्न किया है।

काव्य-शैली

सूफी प्रेमाख्यानक कवियों ने विविध काव्य-शैलियों का संदर्भगत और विषयानुरूप प्रयोग किया है। लोक-रंगत के कारण वस्तु-वर्णन प्राय: इतिवृत्तात्मक, अभिधापरक शैली में किए गए हैं। लोक जीवन के विविध रूपों में अत्युक्ति, अतिशयोक्ति आदि का भी यथासंभव सुंदर प्रयोग किया गया है। मुख्यत: प्रकृति, नारी सौंदर्य, विरह-वेदना के प्रसंगों में इस शैली का उपयोग किया गया है।

सूफी काव्य में प्रयुक्त दूसरी शैली प्रतीकात्मक है। लौकिक प्रेम-व्यापारों के माध्यम से अलौकिक प्रेम की व्यंजना करने वाले ये आख्यान काव्य अपनी प्रकृति से कथा-रूपक हैं। सभी आख्यानों के ऐतिहासिक, काल्पनिक पात्र प्रतीकात्मक भूमिका में सामने आते हैं। अलाउद्दीन, रत्नसेन, पद्मावती, हीरामन तोता, नागमती के अपने-अपने प्रतीकार्थ हैं :

“सिंघल दीप पदुमिनी रानी। रतनसेनि चितउर गढ़ आनी।

अलाउद्दीन दिल्ली सुलतान । राधौ चेतन कीन्ह बखान ।।

सुना सहि गढ़ छेका आई। हिंदु तुरकन भई तराई।

आदि अंत जसि कथा अहै। लिखि भाषा चौपाई कहै।।”

सूफी जन-मानस के कवि हैं। अत: जन-मानस की लौकिक-पारलौकिक आकांक्षाएँ उनके साहित्य में यथास्थान अभिव्यक्त हुई हैं। इसलिए उन्होंने अन्योक्ति, समासोक्ति का माध्यम ग्रहण किया। प्रस्तुत के भाध्य.से अप्रस्तुत का संकेत या प्रस्तुत के साथ-साथ अप्रस्तुत का संकेत इनके यहाँ दिखाई पड़ता है – सांसारिक जीवन की क्षण भंगुरता, अत: उसका पूर्ण भोग, (द्वन्द्वों से ऊपर उठकर) जीवन खेल-खेलना और लोकोत्तर ईश्वर तत्व की ओर बढ़ना पद्मावत की इन पंक्तियों में देखा जा सकता है :

“ए रानी मन देखु बिचारी। एहि नैहर रहना दिन चारी।।

जब लगि अहै पिता कर राजू। खेलि लेहु जौ खेलहु आजु ।।

पुनि सासुर हम गौनब कालि। कित हम कित यह सरवर पालि।।”

(पद्मावत – मानसरोदक खंड)

काव्य-भाषा, अलंकार एवं छंद-विधान

अधिकांश सूफी कवि देश के पूर्वी भागों के निवासी थे, अत: इनकी काव्य भाषा अवधी रही। अवधी का लोक-प्रचलित सरल एवं सरस रूप ही इनके यहाँ प्रयोग में लाया गया है पर भाषा पर अधिकार प्रतिनिधि कवियों के यहाँ ही दिखाई देता है। पं. परशुराम चतुर्वेदी के अनुसार – “सूफी प्रेम-गाथा के कवियों का भाषा पर पूरा अधिकार सर्वत्र नहीं लक्षित होता। जायसी, जान कवि, उसमान और नूर मुहम्मद इस विषय में अधिक सफल जान पड़ते हैं। जायसी द्वारा किया गया शुद्ध और मुहावरेदार अवधी का प्रयोग तथा नूर मुहम्मद का संस्कृत शब्द-भंडार पर अधिकार विशेष रूप से उल्लेखनीय है।’ जायसी की भाषा का वैशिष्ट्य परंपरा के अन्य कवियों के लिए अनुकरणीय रहा है।

अवधी का निजी मिजाज इनकी भाषा में हर कदम पर देखा जा सकता है। आ. शुक्ल ने जायसी की भाषा के सबंध में लिखा – “जायसी की भाषा बहुत ही मधुर है, पर उसका माधुर्य निराला है। वह माधुर्य ‘भाषा’ का माधुर्य है, संस्कृत का माधुर्य नहीं। वह संस्कृत की। कोमलकांत पदावली पर अवलंबित नहीं। उसमें अवधी अपनी निज की स्वाभाविक मिठास लिए हुए है, मंजु ‘अमंद’ आदि की चाशनी उसमें नहीं है। जायसी की भाषा और तुलसी की भाषा में यह बड़ा भारी अंतर है। जायसी की पहँच अवध में प्रचलित लोकभाषा के भीतर बहते हुए माधुर्य स्रोत तक ही थी अवधी की खालिस, बेमेल मिठास के लिए ‘पद्मावत’ का नाम बराबर लिया जाएगा।” इस परंपरा में कतिपय आख्यान राजस्थानी एवं ब्रजभाषा में भी लिखे गए। हंसावली, लखनसेन पद्मावती कथा, माधवानलकामकंदला, ढोला मारूरा दूहा, आदि राजस्थानी में तथा नंददास की ‘रूपमंजरी’ और जान कवि के प्रेमाख्यान ब्रजभाषा में रचे गए हैं।

लोकप्रचलित देशज एवं विदेशी शब्द भी इनके यहाँ देखे जा सकते हैं। इनमें अरबी, फारसी. तर्की. तद्भव, भोजपुरी आदि भाषा के शब्द प्रमुख हैं। सूफी आख्यानकारों द्वारा प्रयुक्त मुहावरों एवं लोकोक्तियों में अवधी भाषा की गंध का अनुभव किया जा सकता है। अलंकारों के प्रयोग में परंपरा पालन की प्रवृत्ति ही प्रमुख रही है। विषय की अपेक्षा के अनुरूप अतिशयोक्ति, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, समासोक्ति, अन्योक्ति का सुन्दर प्रयोग देखा जा सकता है। अन्य अलंकार छुट-पुट रूप में इन प्रेमाख्यानों में दिखाई पड़ते हैं।

छंद प्रयोग की दृष्टि से भी इन्होंने फारसी की बहरों को न अपनाकर भाषा के अपने छंद विधान को अपनाया है। इनके द्वारा प्रयुक्त मुख्य छंद चौपाई दोहा छंद है। इन कवियों के छंद प्रयोग पर दृष्टि डालते हुए आ. द्विवेदी ने लिखा – “चौपाई और दोहा में काव्य लिखने की प्रथा पूर्वी प्रदेशों में ही पाई जाती है। पश्चिमी-प्रदेशों की काव्य पद्धति पद्धड़िया बंध प्रथा थी। कभी-कभी दूसरे छंद भी व्यवहृत होते थे, परंतु साधारण प्रथा धत्ता ही की थी। इस प्रकार आठ पद्धड़िया या अलिल्लह छंद के बाद जो धत्ता दिया जाता था उसे अपभ्रंश में ‘कड़वक’ कहते थे।

चौपाई और दोहे का सबसे पुराना प्रयोग सरहपाद की रचनाओं में मिलता है। शुरू-शुरू में पाई जाने वाली सूफी कहानियों में पाँच-पाँच अर्द्धालियों के बाद दोहा देने का नियम था पर मलिक मुहम्मद जायसी ने आठ-आठ अर्धालियों पर दिया है। आगे चलकर यह प्रथा रूढ़ हो गई। किसी-किसी सूफी कवि ने दोहे का धत्ता न देकर अन्य छंदों का भी धत्ता दिया है। कितनी अर्धालियों के बाद धत्ता दिया जाएगा, इसका कोई नियम नहीं है।

किसी ने पाँच, किसी ने छ:, किसी ने सात अर्धालियों पर दोहा लिखा है। कभी कभी नौ अर्धालियों पर भी दोहे का धत्ता मिलता है।’ (हिंदी साहित्य : उद्भव और विकास – हजारी प्रसाद द्विवेदी)

इनके अतिरिक्त सूफी कवियों के यहाँ सोरठा, बरवै, कवित्त, सवैया, कुण्डलिया तथा झूलना का प्रयोग दिखाई पड़ता है।

सारांश

इस इकाई में आपने निर्गुण प्रेममार्गी काव्यधारा का अध्ययन किया। आपने पढ़ा कि सूफी प्रेमाख्यानों का । पल्लवन और विकास जिस क्षेत्र में हुआ वह भक्ति-आंदोलन का मुख्य केंद्र रही। हिंदी की मध्ययुगीन कविता का यह रूप युग के महत्वपूर्ण ध्रुवों – राजाश्रय एवं धर्माश्रय को छोड़ लोकाश्रय में पनपा। लोक भूमि में पल्लवित पोषित होने के कारण ही इसमें लोक मन की साहित्यिक अभिव्यक्ति हुई। मनुष्यता के सामान्य भावों को अपने प्रेमाख्यानों द्वारा चरितार्थ कर इन्होंने एक संवाद-सेतु निर्मित किया, जहाँ व्यक्ति, संप्रदाय, मत, सिद्धांत, वाद की खाइयाँ अपने आप पट जाती हैं। इन्होंने मनुष्य के भीतर छिपे प्रेम की रचनात्मक शक्ति को पहचाना और युगीन-आवश्यकता की जमीन पर उसका प्रतिपादन किया :

“मानुष प्रेम भएउ बैकुंठी।

नाहिं तो काह छार इक मूठी।।”

सूफी कवियों जैसी उदार प्रकृति ही इस जीवन-शक्ति को उद्घाटित करने में समर्थ हो सकती है। वादों से जन्मी द्वैत दृष्टि के लिए यह संभव नहीं। उन्होंने न केवल अपने आख्यानों द्वारा बल्कि अपने मत, सिद्धांत, रहस्यानुभूति, काव्य-रूप, भाषा एवं अभिव्यक्ति के नाना रूपों द्वारा मनुष्य-मात्र के भीतर विद्यमान तार को झंकृत किया। इस लक्ष्य को समन्वय दृष्टि से ही सिद्ध करना संभव था। परंपरा को रूढ़ि समझ कर त्यागने की भूल करने वालों के लिए यह कविता एक चुनौती है। परम्परा और युग धर्म के समन्वय से ही सूफी रचनाकारों की कविता कालजयी एवं कालमयी हो गई। सूफी काव्यधारा अपने प्रेम भाव की सरसता एवं जनधर्मिता के कारण ही व्यापक स्वीकृति पा सकी।

अभ्यास प्रश्न

  1. सूफी शब्द की विभिन्न व्युत्पत्तियों पर विचार करते हुए सूफ़ी शब्द के मूलार्थ को स्पष्ट कीजिए।
  2. सूफी मत एवं सिद्धांत को प्रभावित करने वाले भारतीय तत्वों का उल्लेख कीजिए।
  3. ‘सूफी प्रेमाख्यान’ में प्रयुक्त प्रेमाख्यान का अर्थ स्पष्ट करते हुए सूफी प्रेमाख्यानों के वैशिष्ट्य को रेखांकित कीजिए।
  4. जायसी पूर्व एवं जायसी उत्तर सूफी प्रेमाख्यानक परंपरा पर प्रकाश डालिए।
  5. सूफी प्रेमाख्यानक काव्य की मूल प्रेरणा पर विचार कीजिए।
  6. सूफी प्रेमाख्यानों के संदर्भ में निम्नलिखित विषयों पर विचार कीजिए :
  • भाव व्यंजना तथा रस निरूपण
  • चरित्र चित्रण
  • काव्य-रूप

7.सूफी कवियों के अभिव्यक्ति-विधान पर एक निबंध लिखिए।

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