अज्ञेय के काव्य में आधुनिक भाव-बोध

इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप जान सकेंगे कि :

  • आधुनिक भाव-बोध के कवि के रूप में अज्ञेय की क्या विशेषताएँ हैं
  • अज्ञेय की कविताओं के आधार पर उनके आधुनिक बोध और संवेदना का क्या रूप है
  • प्रमुख कविताओं के आधार पर अज्ञेय का मूल्यांकन कैसे किया जाए।

अज्ञेय जैसे कवि को स्नातकोत्तर स्तर पर पढ़ने का अर्थ है उनके व्यक्तित्व, आधुनिक बोध, रचना प्रक्रिया, नएपन के प्रति आकर्षण – इन सबकी समझ के साथ पढ़ना। यह याद करते हुए पढ़ना कि एक आधुनिक कवि को पढ़ रहे हैं जिसकी दृष्टि में कविता का बहुत सारी चीज़ों के साथ संबंध बदल गया है। उस कवि को पढ़ रहे हैं जिसके व्यक्तित्व को भूल पाना कठिन है। एक ओर कविता में सिद्धांत के तौर पर अज्ञेय व्यक्तित्व से दूरी बनाने की बात करते हैं तो दूसरी ओर कुछ ऐसा करते रहते हैं कि उनके एक अलग व्यक्तित्व की उपस्थिति कविता में बनी रहती है। छायावादी कवि का व्यक्तित्व और तरह से कविता में आता था। वह आत्मानुभूति की कविता थी। अज्ञेय मैं से दूरी बनाकर चलते हैं, लेकिन व्यक्तित्व की स्वतंत्रता का बोध पाठक को कराते रहते हैं। एक स्तर पर उनकी कविता ही व्यक्तित्व की खोज की कविता का रूप ले लेती है। पहले ही ध्यान में रखें कि अज्ञेय प्रयोगवाद नामक काव्य-आंदोलन के प्रवर्तक के रूप में भी जाने जाते हैं। वे कहते रहे हैं कि प्रयोग का कोई वाद नहीं होता। पर प्रयोगशीलता को कविता की प्रमुख समस्या के रूप में बार-बार विश्लेषित भी करते रहे हैं। यह बात ‘ छिपी नहीं रह गई है कि अज्ञेय ने प्रयोगवाद की दिशा निर्धारित की है। उसका काव्यशास्त्र बनाया है। रोमांटिक भाव-बोध में स्वाधीनता का, आत्मचेतना का अनुभव जोड़ दें तो अज्ञेय का आधुनिक भाव-बोध समझ में आने लगेगा। अज्ञेय वस्तु और शिल्प की नवीनता के रूप में कितने सजग हैं, यह उनके आधुनिक अनुभव या भाव-बोध को देखते ही समझ सकते हैं।

अज्ञेय को पढ़ते हुए छायावादोत्तर कविता के परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखना होगा। आरंभिक कविताओं में अज्ञेय छायावाद के प्रभाव से मुक्त नहीं हैं, परंतु वहीं कुछ-कुछ नएपन का आग्रह भी दिख जाता है। छायावाद के अंत के साथ प्रगतिवाद आया। यह 1935-36. का समय है। अज्ञेय प्रगतिशील लेख संघ के आयोजनों में उपस्थित रहे परंतु व्यक्तित्व की स्वतंत्रता शीघ्र ही उनका प्रमुख आग्रह बनी तथा 1943 में तार सप्तक का संपादन भले ही संयोग हो, तार सप्तक में कवि अज्ञेय का अपना वक्तव्य और संपादक अज्ञेय का वक्तव्य प्रयोग और अन्वेषण को कविता का महत्वपूर्ण प्रयोजन बताते हैं। प्रगतिवाद सामाजिक चेतना के साथ अपनी काव्यभूमि का निर्माण करता है। प्रयोगवाद की मुख्य समस्या नए अनुभव, नए मूल्य-बोध और भाषाशिल्प के नए प्रयोग की है।

अज्ञेय को कवि के रूप में पढ़ने के लिए दूसरा सप्तक की भूमिका के इस अंश को ध्यान में रखें। दूसरा सप्तक (1951) की भूमिका के शब्द हैं – वस्तु और शिल्प दोनों के क्षेत्र में प्रयोग फलप्रद होता है। राग वही रहने पर भी रागात्मक संबंधों की प्रणालियाँ बदल गई हैं। कवि नए तथ्यों को उनके साथ नए रागात्मक संबंध जोड़कर नए सत्यों का रूप दे – यही नयी रचना है। यह बात ध्यान में रहे कि तीसरा सप्तक (1959) को नयी कविता के एक प्रतिनिधि चयन के रूप में देखा जाता है जिसकी भूमिका में अज्ञेय कहते हैं – ‘नयी कविता की प्रयोगशीलता का पहला आयाम भाषा से संबंध रखता है।’ अब हम देख सकते हैं कि अज्ञेय की कविता की मुख्य पहचान है – वस्तु और भाषा तथा रूप की नवीनता। उन्हें पढ़ते हुए कविता की समग्र बनावट (अंतर्वस्तु और भाषा) पर ध्यान देना ज़रूरी है। याद रखना ज़रूरी है कि अज्ञेय की कविता आधुनिक भाव-बोध की कविता है जो पहले से प्रचलित काव्य-विधान से संभव नहीं है।

अज्ञेय के पाठ के अनुकूल दृष्टि और पद्धति विकसित करते हुए उनकी कविता कलगी बाजरे की पर ज़रूर ध्यान जाना चाहिए। यह कविता बताती है कि एक ढर्रे पर चलने वाली कविता से अज्ञेय का विरोध कहाँ और क्यों है। कुछ पंक्तियाँ हैं :

अगर मैं तुमको

ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका

अब नहीं कहता,

या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुंई,

टटकी कली चम्पे की

वगैरह, तो

नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या कि सूना है

या कि मेरा प्यार मैला है।

बल्कि केवल यही :

ये उपमान मैले हो गए हैं

देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच!

कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।

सही पद्धत्ति यही होगी कि हम अज्ञेय की विशेषताओं को कविता में ही देखें और समझें। कई बार कविता का अर्थ जानना ज़रूरी या पर्याप्त नहीं होता। समग्र पाठ और प्रभाव ग्रहण ज़रूरी होता है।

छायावादोत्तर कविता : प्रयोगवाद और नई कविता

अज्ञेय को व्यापक अर्थ में आधुनिक कवि के रूप में देखना चाहिए। मुख्यतः वे प्रयोगवादी या प्रयोगशील कवि हैं। उनकी दृष्टि में नयी कविता प्रयोगशील कविता का ही विकास है। परंतु याद रहे नयी कविता यदि एक अर्थ में प्रयोगवादी या प्रयोगशील कविता का विकास है तो दूसरे अर्थ में प्रगतिवादी या प्रगतिशील कविता का विकास है। नयी कविता में प्रगतिवाद का सामाजिक सरोकार भी है और प्रयोगशीलता की सहज स्वाभाविक आकांक्षा भी। चमत्कारपूर्ण प्रयोग का आग्रह नयी कविता में कम है या नहीं है। अज्ञेय जब ‘नदी के दीप’ या ‘यह दीप अकेला’ जैसी कविता लिखते हैं तो वैयक्तिकता और सामाजिकता का द्वंद्व भी दिखाई देता है। जब वे कहते हैं:

यह दीप अकेला स्नेह-भरा है

गर्व-भरा मदमाता पर

इसको भी पंक्ति को दे दो।

तो सामाजिकता को स्वीकार भी करते हैं परंतु आगे याद दिलाते हैं कि सर्जक व्यक्तित्व का अकेलापन अद्वितीयता खोने के लिए नहीं है। यह सामाजिकता और वैयक्तिकता का द्वंद्व अज्ञेय की कविता का बहुत ज़रूरी संदर्भ है। यह अज्ञेय की कई कविताओं में प्रकट है। अज्ञेय ‘साँचे ढले समाज’ की जगह ‘अच्छी कुंठारहित इकाई’ के पक्ष में हैं। अज्ञेय का यह एक मुख्य काव्य-अभिप्राय है।

प्रयोगवाद : रोमांटिक तथा आधुनिक दृष्टि का द्वंद्व

अज्ञेय ने जिस काव्यादर्श को प्रयोगवाद में क्रमशः मूर्त किया उसमें यदि एक द्वंद्व ‘रोमांटिक’ और ‘आधुनिक’ के बीच था तो दूसरा ‘परंपरा’ और ‘आधुनिकता’ के बीच | रोमांटिक अनुभव का जान-बूझकर निषेध अज्ञेय के यहाँ नहीं है। परंतु जैसा पहले संकेत किया गया, ‘आत्मचेतना’ या खास तरह के ‘आत्म-बोध’ से जुड़कर वही आधुनिक-बोध बन जाता है। इसी प्रकार, अज्ञेय परंपरा को अस्वीकार नहीं करते पर उसे ‘पोटली में बाँधकर रखा गया पाथेय ‘ भी नहीं मानते। उससे एक तनावपूर्ण संबंध बनाते हुए वे ‘आधुनिक अनुभव’ तक पहुंचते हैं। यह तनाव ही अज्ञेय को आधुनिक भाव-बोध का कवि बनाता है।

‘भग्नदूत’ में अज्ञेय का अनुभव और कहने का ढंग छायावाद से भिन्न नहीं है। ये कविताएँ हैं भी . छायावाद वाले दौर की हीं – 1929 से 1932 के बीच कीं। संग्रह छपा 1933 में। विषय वही – ससीम असीम के प्रणय प्रसंग। ‘चिन्ता’ (1941) में कुछ भिन्नता है। प्रेम का अनुभव कुछ प्रगाढ़ है। प्रेम सख्यभाव लिए हुए! ‘इत्यलम्’ (1946) में 1933 से 1946 तक की कविताएँ संकलित हैं। इनमें कहीं प्रेम की विफलता है तो कहीं बौद्धिकता का रंग लिए आत्म-व्यंग्य। कहीं स्त्री-देह के प्रति और कहीं प्रकृति के लिए आकर्षण | रोमांटिक और आधुनिक स्वभाव का द्वंद्व ‘हरी घास पर क्षण भर’ (1949), ‘बावरा अहेरी’ (1954) और ‘इन्द्रधनुष रौंदे हए ये’ (1957) में अधिक गहरा हुआ है। ‘हरी घास पर क्षण भर’ के आगे अज्ञेय नयी कविता आंदोलन के निकट हैं और उसपर मिली-जुली प्रतिक्रिया करते हैं। अनुभूति और संवेदना की गहराई भी इस कालखंड की कविताओं में प्रकट है। प्रयोगवाद-काल की कविताओं में मुखरता है। एक तरह का उद्दाम अतिकथन भी है – ‘आह मेरा श्वास है उत्तप्त / धमनियों में उमड़ आयी है लहू की धार | प्यार है अभिशप्त / तुम कहाँ हो, नारि।’ पर ‘मौन भी अभिव्यंजना है’ – यह अज्ञेय समझते हैं और अधिक सांकेतिकता की ओर उन्मुख हैं।

नई कविता : वैयक्तिकता तथा सामाजिक सरोकार : संबंध और द्वंद्व

एक सुविधापूर्ण विभाजन यह है कि 1950 से 1960 के बीच की कविता नयी कविता है। इस दृष्टि से ‘तीसरा सप्तक’ (1959) को नयी कविता का प्रतिनिधि संग्रह माना जाता है। 1960 के बाद की हिंदी कविता एक अलग प्रकार के मोह-भंग की सूचक है। साठोत्तरी कविता लगभग एक अवधारणा बन चुकी है। अज्ञेय आगे की कविता के साथ जुड़ाव नहीं अनुभव करते। यही कारण है कि ‘चौथे सप्तक’ के प्रकाशन का आगे की नयी कविता पर कोई प्रभाव नहीं है।

नयी कविता वाले दौर का एक प्रमुख द्वंद्व है – व्यक्तित्व की स्वतंत्रता और सामाजिक दायित्व का द्वंद्व। इस विषय पर न केवल तीव्र विचार-मंथन दिखाई देता है, बल्कि अज्ञेय की ‘नदी के दीप’, ‘यह दीप अकेला’ कविताएँ भी पाठक को प्रभावित करती हैं। इनमें कवि सामाजिक प्रवाह में घुल-मिल जाना चाहता है, पर सृजनात्मकता की अद्वितीयता और विशिष्टता बचाकर।

यह जन है : गाता गीत जिन्हें फिर और कौन गायेगा?

पनडुब्बा .: ये मोती सच्चे फिर कौन कृती लायेगा?

यह समिधा : ऐसी आग हठीला बिरला सुलगायेगा।

यह अद्वितीय : यह मेरा : यह मैं स्वयं विसर्जित :

यह दीप, अकेला, स्नेह-भरा है गर्व-भरा

मदमाता, पर इसको भी पंक्ति को दे दो।

-यह दीप अकेला

किंतु हम हैं द्वीप।

हम धारा नहीं हैं।

स्थिर समर्पण है हमारा।

हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।

किंतु हम बहते नहीं हैं

क्योंकि बहना रेत होना है।

– नदी के द्वीप

अज्ञेय के ये दोनों उदाहरण ‘यह दीप अकेला’, ‘नदी के द्वीप’ — इन प्रतिनिधि कविताओं से लिए गए हैं। अकेला दीपक जो स्नेह-भरा गर्व-भरा है सर्जनात्मक अद्वितीयता अर्थात वैयक्तिकता का प्रतीक है। अज्ञेय उसे पंक्ति को अर्थात् सामाजिकता को दे देना चाहते हैं। पर उसके अकेलेपन को जीवंत, स्वाधीन रखकर| इसी द्वीप का द्वीपत्व महत्वपूर्ण है। वह धारा में है, धारा से ही बना है, पर जब बन गया है, तो धारा में विलीन हो जाना उसे स्वीकार नहीं। क्योंकि बह जांना रेत हो जाना है और रेत की तरह धारा में मिलने की सार्थकता ही क्या। इसलिए धारा में होकर भी उसकी अद्वितीयता बनी रहे, यही कवि को भी स्वीकार है।

मूल्यबोध और समकालीन कविता

अज्ञेय को पढ़ते हुए आप बराबर अनुभव करेंगे कि वे अवधारणाओं, विचारों, मूल्यों के कवि हैं पर वे औसत मूल्य को भी अपने निजी व्यक्तित्व के स्पर्श से नया मूल्य बना देते हैं। नयी कविता आंदोलन के बाद भी वे समकालीन काव्य परिदृश्य पर अपनी निजी पहचान बनाए रख सके – यह अपने आप में महत्वपूर्ण है। प्रेम, विषाद, मृत्यु का उनका अपना अनुभव कविता में नया विचार बनता है। उनका मूल्य-बोध उनका काव्य-मुहावरा बन जाता है। कभी उनका कथन इतना सादा है :

मैं आस्था हूँ

तो मैं निरंतर उठते रहने की शक्ति हूँ

मैं व्यथा हूँ

तो मैं मुक्ति का श्वास हूँ

कभी संकेत पर भी उनका सारा बल है। कविता प्रेम की हो तो ज़रूरी नहीं कि प्रेम की अभिव्यक्तिं ढर्रे पर चलकर संभव हो। ‘उधार’ कविता में एक तरह की नाटकीयता है, पर प्रेम एक अंसीमित अकथित मूल्य है जिसे संवेदनशील पाठक ग्रहण कर सकता है :

मैंने कहा : प्यार? उधार?

उस अनदेखे अरूप ने कहा – हाँ,

क्योंकि ये ही सब चीजें तो प्यार हैं –

यह अकेलापन, यह अकुलाहट,

यह असमंजस, अचकचाहट,

आर्त अनुभव

यह अंधकार में जाग कर सहसा पहचानना

कि जो मेरा है वही ममेतर है।

महत्वपूर्ण है प्यार की अस्पष्टता, प्यार की व्यापकता। पर प्यार ऐसा कि बंधना कोई शर्त नहीं है। यही है प्रेम के प्रति एक आधुनिक दृष्टिकोण। प्रेम प्रगाढ़ता में बाँधता नहीं, मुक्त करता है। ‘सागर’ श्रृंखला की कविताओं में सागर मुक्त करता है। करुणा, मानवीय आत्मीय सहज मूल्य हैं। ‘आत्मदान’ सहज मूल्य है। ‘हम खोते हैं तो होते हैं।’

अज्ञेय : आत्मबोध और जीवन दृष्टि

अज्ञेय का आत्मबोध आत्मलीनता तक सीमित नहीं है। आप अनुभव करेंगे कि अज्ञेय का आत्मबोध व्यक्ति-सत्य और व्यापक सत्य के बीच एक नया संबंध बनाता है। अज्ञेय जीवन से प्रेम करते हैं पर इस प्रेम को निस्संग विस्मय का-सा भाव बताते हैं। जीवन सुंदर है आश्चर्यजनक रूप से, सुंदर है पर ज़रूरी है कि जीवन को सीधे देखें, काँच में से न देखें। काँच में से देखेंगे तो रूपों में भटक जाएंगे। जीवन तक पहुँचेंगे ही नहीं। ‘सोन मछली’ कविता यही कहती है। प्रतीक नया नहीं है पर अर्थ नया है। संकेत के लिए बिम्ब नया है :

हम निहारते रूप :

काँच के पीछे हाँप रही है मछली।

रूप-तृषा भी

(और काँच के पीछे)

है जिजीविषा।

यहाँ मछली का प्रतीक सत्य के अन्वेषण में सहायक है। अज्ञेय की जीवन-दृष्टि के प्रमुख संदर्भ हैं – व्यक्ति स्वातंत्र्य और व्यक्तित्व का विसर्जन, या अहं का विलयन या आत्मदान। जैसा पहले अज्ञेय की कविताओं (यह दीप अकेला, नदी के द्वीप) के उदाहरणों को ध्यान में रखकर कहा गया है – व्यक्तित्व एक ओर विराट सामाजिकता के प्रति समर्पित है – ऐसे, कि उसे दे दिया जाना है, पर दूसरी ओर उसका विशिष्ट अद्वितीय पक्ष जो सर्जनात्मकता का स्रोत है, उसे बचा लेना भी कवि-कर्म का हिस्सा है।

‘भग्नदूत’ (1933) से ‘आँगन के पार द्वार’ (1961) तक

अज्ञेय के आत्म-बोध को कविताओं में देखें। जब वे कहते हैं :

दुःख सबको माँजता है

और –

चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु

जिनको माँजता है

उन्हें यह सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।

— ‘हरी घास पर क्षण भर से’

यहाँ संकेत है कि दुःख आत्म-परिष्कार और आत्म-प्रसार दोनों में किस तरह सहायक है। ‘बावरा अहेरी’ में अहेरी सूर्य है। कवि सूर्य से प्रार्थना करता है कि वह उसके मन-विवर में छिपी ‘कलौंस’ या कालिमा को दूर करे – भाषा प्रश्न की, पर प्रार्थना के आशय के साथ :

एक बस मेरे मन-विवर में दुबकी कलौंस को

दुबकी ही छोड़कर क्या तू चला जायेगा?

बावरा अहेरी ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ (1959) और ‘आँगन के पार द्वार’ (1961) की कविताओं में आत्मबोध, आत्मदान का बोध है। वही कवि की जीवन-दृष्टि भी है। सर्जनात्मक अनुभव एक आस्तिक का-सा अनुभव है। उसे आलोचक एक नए आध्यात्मिक अनुभव के रूप में भी देखते आए हैं। एक नए रहस्यवाद के रूप में :

मैंने देखा

एक बूंद सहसा

उछली सागर के झाग से :

रंगी गयी क्षण भर

ढलते सूरज की आग से।

अज्ञेय स्वीकार करते हैं कि नया काव्यानुभव उनके लिए सूने विराट’ के सम्मुख एक ‘आलोक छुआ अपनापन’ है। वही ‘नश्वरता के दाग’ से ‘उन्मोचन’ भी है। वही ‘काल’ में ‘कालातीत’ को संभव करने का क्षण है। ये धारणाएँ बार-बार आपके सामने अज्ञेय के पाठ के क्रम में आएंगी।

‘आँगन के पार द्वार’ के बाद अज्ञेय

अज्ञेय की जिजीविषा उन्हें एक नए मानववाद के कवि के रूप में देखने के लिए प्रेरित करती है। यह केवल धारणा या विचार नहीं, जीवन-बोध है, सजग काव्य-बोध है। ‘बना दे चितेरे’ कविता की अंतिम पंक्तियाँ हैं :

तू अंतहीन काल के लिए फलक पर टाँक दे –

क्योंकि यह माँग मेरी, मेरी, मेरी है कि प्राणों के

एक जिस बुलबुले की ओर मैं हुआ हूँ उदग्र, वह

अंतहीन काल तक मुझे खींचता रहे

‘मानव अकेला’ मनुष्य में कवि की अदम्य आस्था का संकेत है। यहाँ ‘मानव’ को ‘अँगारे-सा’, ‘भगवान-सा’, ‘अकेला’ कहना विशेष अर्थ रखता है। जहाँ लोकाचार राख की युगों-युगों की .. परतें हैं – मनुष्य है कुछ ऐसा :

भीडों में

जब जब जिस-जिससे आँखें मिलती हैं

वह सहसा दिख जाता है

मानव

अंगारे-सा भगवान-सा

अकेला।

रमेशचन्द्र शाह अज्ञेय के एक सजग पाठक-आलोचक हैं। वे मानते हैं कि अज्ञेय के लिए आधुनिकता ‘संस्कार’ है, संस्कारवान होने की क्रिया है, बल्कि एक प्रक्रिया है। इसलिए आधुनिकता उनके लिए पश्चिमी ढंग का विच्छिन्नता-बोध नहीं है। अज्ञेय का आत्म-बोध उस महामौन के अनुभव तक पहुँचना चाहता है जो अविभाज्य है। ‘असाध्य वीणा’ में कलाकार ने सृजन प्रक्रिया के इस रहस्य को जान लिया है और दूसरों पर प्रकट भी कर दिया है। इस कविता पर हम आगे भी विचार करेंगे। अभी यही पंक्तियाँ देखें जिनसे अज्ञेय के आत्म-बोध और जीवन-दृष्टि का अनुमान किया जा सकता है। आप इन पंक्तियों को सतर्कता से पढ़ें – यहाँ एक-एक शब्द महत्वपूर्ण है :

श्रेय नहीं कुछ मेरा :

मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में –

वीणा के माध्यम से अपने को मैंने

सब कुछ को सौंप दिया था –

सुना आपने जो वह मेरा नहीं,

न वीणा का था :

वह तो सब कुछ की तथता थी –

महाशून्य

वह महामौन

अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रेमय

जो शब्दहीन सब में गाता है।

अज्ञेय की कविता : आधुनिक बोध और संवेदना

पहले ही यह स्पष्टीकरण ज़रूरी है कि आधुनिकता समय-सापेक्ष संज्ञा है और वह मूल्य-बोधक भी है। समसामयिकता से एक सीमित अर्थ का बोध होता है। यहाँ मूल्य का आग्रह नहीं है। आधुनिकता मूल्य-बोध है और उसका संदर्भ व्यापक है। इसलिए इलियट जैसे विचारक परंपरा के साथ द्वंद्वात्मक संबंध से आधुनिक भाव-बोध को सम्बद्ध करते रहे हैं। आधुनिकता परंपरा को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं करती। उससे प्रश्न करती है। प्रश्नशीलता आधुनिक भाव-बोध की अभिव्यक्ति की खास युक्ति है। वह रीति या रूढ़ि के विरूद्ध है। आधुनिकता में विद्रोह और विक्षोभ का विशेष अनुभव भी शामिल है। निर्वैयक्तिकता भी उसका खास लक्षण है। अज्ञेय जैसे आधुनिक बोध के कवि के लिए प्रेम सामान्य प्रेम नहीं, दुख सामान्य दुख नहीं, मुक्ति या मृत्यु सामान्य मुक्ति या मृत्यु नहीं। प्रकृति भी वही नहीं, जो दूसरों के लिए है। अज्ञेय को श्वेत चाँदनी ‘वंचना’ लगती है, आकाश का गहन विस्तार ‘झूठ’ लगता है, पूर्णिमा की शांति ‘निस्सार लगती है। आधुनिकता का बोध कभी आघात पैदा करने वाला है।

समय का बोध

आधुनिक औद्योगिक बस्तियाँ, पहाड़ियों से घिरी छोटी-सी घाटी में विकर्षण पैदा करती हैं। मुँहझांसी चिमनियाँ दिन-रात धुआँ उगलती हैं। यह समय है। यह अनुभव भी समय का विशिष्ट अनुभव है : ‘मैं वह धनु हूँ जिसे साधने / में प्रत्यंचा टूट गयी है।’ कविजनोचित सत्य से हटकर यह अनुभव भी एक बदले हुए समय का सच है :

क्रौंच बैठा हो कभी बल्मीक पर

तो मत समझ

वह अनुष्टुप बाँचता है संगिनी के स्मरण में

जान ले वह दीपकों की टोह में है –

– ‘हरी धास पर क्षण भर’ से

अज्ञेय समय को सीधे या स्थूल रूप में प्रत्यक्ष नहीं करते। समय के बदलने के साथ प्रेम, प्रकृति और अन्य जीवनानुभवों का अर्थ कैसे बदल जाता है यह दिखाते हैं। ‘दूर्वाचल’ कविता प्रकृति के बहाने प्रेम को एक नयी दृष्टि से देखने और व्यक्त करने वाली कविता है। इसकी चर्चा हम आगे करेंगे।

स्वाधीन चेतना : व्यक्तित्व की खोज

रचनात्मक स्वाधीनता और व्यक्तित्व की खोज के संकेत अज्ञेय की आरंभिक कविताओं में भी मिलते हैं। जब वे लिखते हैं ‘सखि आ गये नीम को बौर’ तो वे परंपरा से हटते हैं, परिपाटी से हटते हैं। आम्र वृक्ष से बौर का संबंध न जोड़कर, नीम से जोड़ने के पीछे अभिव्यक्ति की नई आज़ादी का बोध है। सत्य का अन्वेषण एक ऐसा अभिप्राय है जिसमें आप अज्ञेय की स्वाधीन चेतना का अनुभव कर सकते हैं। अज्ञेय दूसरों के दिए सत्य पर निर्भर नहीं हैं। सत्य की नई खोज करते हैं। कभी यही खोज व्यक्तित्व की खोज का रूप ले लेती है। ‘घर कुटीर का छोटासा दिया’, ‘छोटी-सी ज्योति’ जैसे प्रयोगों में आप अज्ञेय की स्वाधीन चेतना और व्यक्तित्व की खोज की झलक पा सकेंगे।

मेरे छोटे घर – कुटीर का दिया

तुम्हारे मंदिर के विस्तृत आँगन में

सहमा-सा रख दिया।

– ‘आँगन के पार द्वार’

से कितनी दूरियों से कितनी बार

कितनी डगमग नावों में बैठकर

मैं तुम्हारी ओर आया हूँ

ओ मेरी छोटी-ज्योति!

कितनी बार मैं,

धीर, आश्वस्त, अक्लान्त

ओ मेरे अनबुझे सत्य! कितनी बार..

— ‘कितनी नावों में कितनी बार’ से

देखें कि यही अनबुझे सत्य की खोज कवि के लिए व्यक्तित्व की खोज भी है। अज्ञेय के लिए. व्यक्तित्व की खोज कुण्ठा-रहित इकाई की खोज है – याद करें – ‘यह दीप अकेला’, ‘नदी के द्वीप’ जैसी कविताएँ और इस स्पष्टीकरण को देखें :

अच्छी कुण्ठा रहित इकाई

साँचे ढले समाज से…

प्रकृति, प्रेम, सौंदर्य, आत्मदान, मृत्यु आदि अनुभव

अज्ञेय आधुनिक-बोध और संवेदना के कवि हैं। इसे हम और अधिक तीव्रता से अनुभव करेंगे – . प्रकृति, प्रेम, सौंदर्य, आत्मदान, मृत्यु आदि अनुभवों की अभिव्यक्ति के रूप में। अज्ञेय की एक प्रसिद्ध कविता है ‘दूर्वाचल’ – यह प्रकृति और प्रेम दोनों का एक सर्वथा नया बोध प्रस्तुत करती है। आगे जब हम अज्ञेय की काव्य-भाषा और शिल्प पर विचार करेंगे तो यह कविता फिर याद आएगी। यह पूरी कविता इस प्रकार है :

पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में

डगर चढ़ती उमंगों-सी।

बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।

विहग-शिशु मौन नीड़ों में

मैंने आँख भर देखा।

दिया मन को दिलासा-पुनः आऊँगा।

(भले ही बरस-दिन अनगिन युगों के बाद!)

क्षितिज ने पलक-सी खोली,

तमक कर दामिनी बोली –

‘अरे यायावर! रहेगा याद?’

यह कविता माँग करती है कि बार-बार पढ़ें। हड़बड़ी में, जल्दी में कोई एक सीधा अर्थ निकालने से बचें। अर्थ की व्याप्ति-सी है कविता में। खुली है। नए-नए अनुमानों, अर्थों के लिए। यात्रा का अनुभव है। प्रकृति को यात्री की दृष्टि से देखा जा रहा है। कल्पना के उपयोग में कवि सक्रिय है। इस तरह यात्री और कवि एक ही हैं। एक हो गए हैं। पर्वत-प्रदेश का सुरम्य चित्र। एक अद्भुत बिम्ब। नम्र है – गिरि का पार्श्व। पार्श्व है, इसीलिए नम्र है। यों पूरा परिदृश्य स्निग्ध कोमलता लिए हुए है। चीड़ पंक्ति : ऊँचाई : ‘डगर चढ़ती’ – डगर चढ़ना, जैसे उमंगों की उठान। और नीचे पैरों में बिछी पतली नदी। जैसे ‘दर्द की रेखा’। अज्ञेय का प्रयोग है – ‘दर्द की रेखा’। ‘दर्द’ शब्द यों ही कहीं आए तो एक हल्कापन आने का डर है। परंतु यही अज्ञेय की क्षमता है – दर्द की रेखा-सरीखी खिंची है, पतली नदी। जैसे चित्र में जड़ी हो, अंकित हो। नीड़ों में विहग-शिशु| यह है राग, पेम, वत्सलता, प्रेम की फलश्रुति। फिर यह आश्वासन कि फिर आऊँगा। पर यात्री का स्वभाव नहीं है उन्हीं जगहों पर बार-बार जाना। इसलिए दामिनी का तमक के साथ व्यंग्य – ‘अरे यायावर! रहेगा याद।’ झूठे आश्वासन पर चोट। यात्री का अनुभव जैसे प्रेम का अनुभव | प्रेम का एक वह सघन क्षण, जिसे दुहराया नहीं जा सकता।

प्रेम के क्षण दुहराए नहीं जाते – यह अज्ञेय बार-बार कहते हैं। कितनी ही कविताओं में। अज्ञेय के लिए प्रेम बिना आशा, बिना आकांक्षा के भी संभव है – यह आधुनिक बोध है प्रेम का :

ओ प्यार। कहो, है इतना धीरज,

चलो साथ यों :

बिना आशा-आकांक्षा

गहे हाथ?

‘क्योंकि मैं उसे जानता हूँ’ से

अज्ञेय के लिए प्रेम वह अनुभव है जिसमें ‘अभिमान की कसक’ रोने नहीं देती। अर्थात् भावुकता पर नियंत्रण-सा बना रहता है।

सौंदर्य की ऐन्द्रिक अनुभूति भी परिचित अनुभव में कुछ नया जोड़ती है। वह आधुनिक संवेदना के कारण ही :

बेल-सी वह मेरे भीतर उगी है, बढ़ती है।

उसकी कलियाँ हैं मेरी आँखें,

कोंपलें मेरी अँगुलियों में अंकराती हैं,

फूल-अरे, यह दिल में क्या खिलता है।

प्रश्न ही सौंदर्य को एक नया आयाम देता है। कभी सागर का बोध है जो घेरता है पर निबंध करता है मुक्त करता है। सौंदर्य का बोध तटस्थता देता है, मुक्त करता है, यही एक आधुनिक कवि का बोध है।

अपने लिखे हुए को भी मिटाते चलना – अज्ञेय जैसे कवि के लिए यह भी आत्मदान है। ‘मैं सच लिखता हूँ / लिख लिख कर सब / झूठा करता जाता हूँ।’ यह निस्संगता आधुनिक बोध है। अज्ञेय के यहाँ मृत्यु का वरण है। डर नहीं है। मृत्यु का स्वीकार – एक आधुनिक कवि का स्वीकार है। प्रेम और मृत्यु अभिन्न हो जाते हैं यहाँ। देखें, कि आधुनिक कवि के बोध में विडम्बना का बोध किस तरह शामिल है :

सागर को प्रेम करना

मरण की प्रच्छन्न कामना है

मरण अनिवार्य है

प्रेम

स्वच्छंद वरण है

‘अज्ञेय के मृत्यु-बोध के लिए रमेशचन्द्र शाह इन पंक्तियों की याद दिलाते हैं :

शब्द यह सही है सब व्यर्थ है

पर इसलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ है

और निष्कर्ष निकालते हैं कि क्षण-क्षण जो मरता दिखता है वही कवि अविरल अंतःसत्व है। (अज्ञेय, रमेशचन्द्र शाह, पृ.37)

इस तरह हम देख सकते हैं कि अज्ञेय के यहाँ प्रकृति, प्रेम, सौंदर्य, आत्मदान, मृत्यु जैसे अनुभव आते हैं तो किस प्रकार आधुनिक बोध और संवेदना का हिस्सा बन कर आते हैं।

प्रमुख कविताओं के आधार पर अज्ञेय का मल्यांकन

छायावादोत्तर कविता में प्रयोगवाद और नयी कविता के महत्वपूर्ण कवि अज्ञेय का अध्ययन करते हुए हमने उनके काव्य-विकास, आधुनिक बोध और संवेदना, स्वाधीन चेतना और व्यक्तित्व की खोज जैसे विषयों पर विचार किया है और अज्ञेय की कविता के प्रति उत्तरोत्तर अपने को सजग बनाया है। प्रमुख कविताओं के अंश बीच-बीच में आते रहे हैं और हम उनमें अज्ञेय की विशेषताओं को ठीक-ठीक देख सके हैं। अज्ञेय की काव्य-यात्रा में से कुछ कविताओं को चुनकर अलग से हम विचार कर सकते हैं। इससे यह भी पता चलेगा कि किस तरह कविता के मर्म को पहचानें और किस तरह कविताओं का विश्लेषण तथा मूल्यांकन करें।

 ‘असाध्य वीणा’ में अज्ञेय

आप अज्ञेय की कविताओं से कुछ विशिष्ट महत्वपूर्ण पाठ विश्लेषण के लिए चुनना चाहेंगे तो उनकी सबसे महत्वाकांक्षी कविता ‘असाध्य वीणा’ की ओर ज़रूर ध्यान जाएगा। यह एक लंबी कविता है जिसके मूल में आख्यान है| आख्यान का आधार यह संदर्भ है कि वीणा असाध्य तब तक है जब तक वह चेतन किरीटी तरू से कटी हई है। जो अपने को कलावंत मानकर वीणा बजाना चाहता है वह असफल है। जो वीणा में किरीटी तरू की उपस्थिति मानकर उसे साधना चाहता है, बजाना चाहता है वह सफल होता है। एक तो कविता की शब्दावली पर ध्यान दें जिससे कविता एक मिथकीय परिवेश निर्मित करती है :

केश कम्बली/ वज्रकीर्ति / किरीटी तरू / वासुकि नाग / तथता / महामौन / महाशून्य | अविभाज्य / अभिमंत्रित / राजा-रानी / राजसभा

फिर कथा-विन्यास पर ध्यान दें – प्रियवंद केशकम्बी का आगमन, राजा का स्वागत, आशयज्ञापन, असाध्य वीणा का प्रियंवद के समक्ष रखा जाना, वीणा का इतिहास-वृत्त, किरीटी तरू से वज्रकीर्ति द्वारा निर्माण, किरीटी तरू का वर्णन, वीणा की असाध्यता का उल्लेख, सच्चे स्वरसिद्ध की प्रतीक्षा, केशकम्बली का साधना-प्रयत्न, प्रभाव, प्रियवंद का उत्तर, प्रस्थान…….. |

कविता जो मिथकीय वातावरण बनाती है उसमें देखें किरीटी तरू की ऊँचाई का वर्णन : (किरीटी तरू की व्यंजना : मुकुटधारी, वृक्षराज)

उसके कानों में हिमशिखर रहस्य कहा करते थे अपने

कंधों पर बादल सोते थे—

जड़ उसकी जा पहुंची थी पाताल-लोक

उसकी गंध प्रवण शीतलता से फण टिका नागवासुकि सोता था

देखें वीणा को संभालने-साधने का यह ढंग :

केशकम्बली गुफागेह ने खोला कम्बल।

धरती पर चुपचाप बिछाया।

वीणा उस पर रख, पलक मूंदकर, प्राण खींच

करके प्रणाम

अस्पर्श छुअन से छुए तार

वीणा का बजना क्या है जैसे वृक्ष का परिवेश उभरता हो। स्मृतियों के साथ! एक-एक झंकृति के लिए अत्यंत सतर्क बिम्ब योजना है : ‘पन्थी के घोड़े की टाप अधीर / अचंचल धीर थाप भैसों के भारी खुर की /—बटिया पर चमरौंध की रूंधी चाप सातवें के लिए | और आठवें को कुलिया की कटी मेड़ से बहते जल की छुल-छुल- ।’

प्रियवंद के लिए वीणा बजाने की प्रक्रिया में अहं का विलयन अनिवार्य है :

मुझे स्मरण है –

पर मुझको मैं भूल गया हूँ :

‘असाध्य वीणा’ में वीणावादक का विलक्षण प्रभाव कुछ ऐसा :

डूब गये सब एक साथ।

सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे।

महत्वपूर्ण यह है कि अपने को भूलकर ही प्रियवंद को स्वर-सिद्धि मिली। हम अज्ञेय को पढ़ते . हुए कुछ प्रयोगों की विशिष्टता पर ध्यान दें, यह आवश्यक है – जैसे :

करके प्रणाम

अस्पर्श छुअन से छुए तार

 

‘स्पर्श’ वादन-प्रक्रिया का अंग है। यहाँ यह नहीं कहा जा रहा है कि तार छुए’ नहीं गए। कहा जा रहा है कि स्पर्श (तार को काटने की-सी अर्थ-ध्वनि) का प्रयत्न नहीं किया गया। जैसे, अपने आप बज उठी वीणा।

इस तरह ‘असाध्य वीणा’ को पढ़ते हुए हम अंज्ञेय के आधुनिक भाव-बोध और संवेदना को भाषा में पूर्णतर अभिव्यक्ति पाते हुए देख सकते हैं। ये कविताएँ हर बार संपूर्ण पाठ की माँग करती हैं।

अन्य कविताएँ

हमारे अध्ययन के बीच कुछ कविताओं के संदर्भ संकेत उभरते रहे हैं जैसे ‘यह दीप अकेला’, . ‘नदी के द्वीप’, ‘कलगी बाजरे की’, ‘दूर्वाचल’….। कुछ कविताएँ अलग से विचारणीय हैं, जैसे – ‘सम्राज्ञी का नैवेद्य दान’, ‘आज तुम शब्द न दो | ‘सम्राज्ञी का नैवेद्य दान’ पर टिप्पणी है – ‘जापान की सम्राज्ञी कोमियो प्राचीन राजधानी नारा के बुद्ध मंदिर में जाते समय असमंजस में पड़ गई थी कि चढ़ाने को क्या ले जाए। फिर रीते हाथ गयी थी।’ महत्वपूर्ण है यह तर्क कि जो फूल जहाँ खिला है, वहीं खिला रहे, मैं वहीं उसे अर्पित करती हूँ। इस तर्क में ही कविता या काव्यात्मकता है। इस काव्यात्मक तर्क को इन पंक्तियों में देखें :

जो कली खिलेगी जहाँ, खिली,

जो फूल जहाँ है,

जो भी सुख जिस भी डाली पर

हुआ पल्लवित, पुलकित,

मैं उसे वहीं पर

अक्षत, अनाघ्रात, अस्पष्ट, अनाविल,

हे महाबुद्ध।

अर्पित करती हूँ तुझे।

अज्ञेय का आत्म-सजग व्यक्तित्व ‘नदी के द्वीप’ जैसी कविता में कहना चाहता है कि उसे खोकर समाज के साथ सम्पृक्ति निरर्थक है। द्वीप को धारा से अलग बने रहना है। रेत नहीं होना है। कभी ज़्यादा तेज़ प्लवन हो, टूट-फूट हो तो फिर रेत में से छनकर पैर टिकाकर द्वीप में नए व्यक्तित्व का आकार बनेगा। नदी तब माँ की तरह उसे संस्कारित करेगी। कविता को एकदम शुरू से पढ़ें और द्वीप की प्रतिज्ञा से परिचित हों :

हम नदी के द्वीप हैं

हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर

स्रोतस्विनी बह जाए

वह हमें आकार देती है

हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत कूल,

सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं

माँ है वह है,

इसी से हम बने है।

‘आज तुम शब्द न दो’ कविता काव्य-प्रक्रिया से संबंधित है। आप अज्ञेय को पढ़ते हुए बराबर अनुभव करते आए हैं जैसे कवि अपनी अभिव्यक्ति से संतुष्ट नहीं हो पाता। जैसे एकमात्र उपयुक्त शब्द या सार्थक अभिव्यक्ति की प्रतीक्षा बनी ही रहती है। जिस स्रोत से अभिव्यक्ति संभव होने वाली है, उससे कवि का एक तनाव-भरा द्वंद्वात्मक रिश्ता बना रहता है। अब इन पंक्तियों को देखें :

आज तुम शब्द न दो, न दो

कल भी मैं कहँगा

तुम पर्वत हो अभ्रभेदी शिलाखण्डों के गरिष्ठ पुंज

चाँपे इस निर्झर को रहो, रहो।

तुम्हारे रन्ध्र रन्ध्र से

तुम्हीं को रस देता हुआ

फूटकर मैं बहूंग

-‘बावरा अहेरी’ से

इस काव्य-प्रक्रिया की एक खास झलक हम अज्ञेय की ही कविता ‘शब्द और सत्य’ में देख सकते हैं। आप इस समूचे अध्ययन-क्रम में देख रहे होंगे कि अज्ञेय बार-बार ‘शब्द’ पर लौटते हैं। अज्ञेय शब्द और सत्य में भी तनावपूर्ण द्वंद्वात्मक संबंध ही देखते हैं। जिस ‘आलोक स्फुरण’ में वे मिलते हैं वहीं अभिव्यक्ति की सार्थकता है। पहले ‘शब्द और सत्य’ कविता को देखें :

यह नहीं कि मैंने सत्य नहीं पाया था

यह नहीं कि मुझको शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है :

दोनों जब तक सम्मुख आते ही रहते हैं।

प्रश्न यही रहता है :

दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाए रहते हैं

मैं कब, कैसे, उनके अनदेखे

उसमें सेंध लगा दूँ

या भरकर विस्फोटक

उसे उड़ा दूँ?

कवि जो होंगे हों, जो कुछ करते हैं करें,

प्रयोजन मेरा बस इतना है :

ये दोनों जो

सदा एक-दूसरे से तनकर रहते हैं

कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में

इन्हें मिला दूँ –

दोनों जो हैं बंधु, सखा, चिर सहचर मेरे

इस कविता को एकाधिक बार पढ़ें। इसमें वे संकेत हैं जिनके सहारे अज्ञेय की अनेक कविताएँ अपना अर्थ खोल सकेंगी। खास बात यह है कि अज्ञेय जैसा एक आत्म-सजग आधुनिक कवि जो पहले कहा जा चुका है, कविता की जो रीति बन चुकी है, उससे संतुष्ट नहीं है। सर्जनात्मकता कवि के लिए नएपन में ही सार्थक है। अधिकतर कवि सत्य को पहले से प्राप्त मानते हैं। वे सत्य को कहने के लिए शब्द को साधन के रूप में देखते हैं। यहाँ अज्ञेय तो कविता को सबसे पहले शब्द मानते हैं। वे सत्य को अन्वेषण का विषय मानते हैं और शब्द को भी। फिर मानते हैं कि दोनों एक-दूसरे के अनुरूप होकर नहीं परस्पर टकराकर नया काव्यत्व प्राप्त करते हैं। अज्ञेय का बल प्रयोगशीलता पर इसीलिए है कि कविता बार-बार नया अर्थ, नया रूप प्राप्त करना चाहती है।

सारांश

छायावादोत्तर कविता में प्रयोगवाद और नयी कविता के अग्रणी कवि के रूप में अज्ञेय का महत्व निर्विवाद है। आधुनिक भाव-बोध और संवेदना के कवि के रूप में उनकी एकदम अलग पहचान है। उनके आधुनिक बोध के मूल में है – व्यक्तित्व की खोज। व्यक्तित्व की खोज का समकक्ष है – अभिव्यक्ति की खोज। अज्ञेय के लिए काव्य-प्रक्रिया का अपना महत्व है। शब्द और सत्य में निरंतर द्वंद्व की स्थिति बनी रहती है। अज्ञेय निर्वैयक्तिक संवदेना को महत्व देते हैं। तनाव और द्वंद्व की स्थिति में ही अज्ञेय को नया काव्योन्मेष उपलब्ध हो पाता है।

अज्ञेय की प्रकृति, प्रेम, आत्मदान, मृत्यु संबंधी कविताओं में सब कुछ नयी प्रश्नशील निगाह से देखा जा रहा है। प्रकृति केवल अलंकरण तक सीमित नहीं है। प्रेम ढर्रे से अलग है। मृत्यु भय नहीं देती। वरण के लिए एक अप्रत्याशित विकल्प देती है। एक ओर अहं का विलयन अज्ञेय का ज़रूरी सरोकार है। दूसरी ओर व्यक्तित्व का तेजस अंश बचाए रखने की चिंता अज्ञेय को सबसे अलग प्रमाणित करती है। अज्ञेय की स्वाधीन चिंता के निहितार्थ अनेक हैं।

अज्ञेय की कई कविताएँ काव्य-प्रक्रिया की ही कविताएँ हैं। उनमें अधिकतर कविताएँ अवधारणात्मक हैं जो व्यक्तित्व और सामाजिकता के द्वंद्व को, रोमांटिक आधुनिक के द्वंद्व को प्रत्यक्ष करती हैं। जिजीविषा अज्ञेय का अधिक प्रिय काव्य-मूल्य है। वह संघर्ष की सार्थकता का पर्याय है। अज्ञेय आधुनिक भावबोध के एक अत्यंत महत्वपूर्ण कवि के रूप में बराबर पढ़े जाते रहेंगे और शब्द-अर्थ का नया संबंध खोजने-पहचानने में सहायक होंगे।

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