महादेवी वर्मा की काव्य संवेदना

इस इकाई में हम आपको महादेवी वर्मा की काव्य संवेदना का परिचय देंगे। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप महादेवी वर्मा की कविता के विभिन्न पहलुओं पर विमर्श कर सकेंगे। आपको महादेवी की कविता के मूल तत्वों की जानकारी होगी और आप उनकी कविता के विविध आयामों का सम्यक विश्लेषण और विवेचन कर पाएंगे। हम यह देखेंगे कि महादेवी वर्मा अपने युगीन यथार्थ से संवेदना के धरातल पर किस प्रकार प्रभावित होती हैं और उन्होंने अपने समग्र काव्य में इसे किस प्रकार अभिव्यक्त किया है। इस प्रक्रिया में हम महादेवी की जीवन-दृष्टि पर गौर करते हुए उनके काव्य की प्रासंगिक विशेषताओं का आकलन भी करेंगे।

महादेवी वर्मा छायावाद की एक प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। छायावाद का युग उथल-पुथल का युग था। राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि सभी स्तरों पर विभ्रम, द्वंद्व, संघर्ष और आंदोलन इस युग की विशेषता थी। इस पृष्ठभूमि में, अन्य संवेदनशील कवियों के समान ही, महादेवी ने भी अपनी रचनाशीलता का उपयोग किया। यहाँ हमारा लक्ष्य छायावादी युग की सामाजिक-राजनीतिक पृष्ठभूमि की विशद व्याख्या करना नहीं है। किंतु, यहाँ हमें इस बात को ध्यान में रखकर अवश्य आगे बढ़ना है कि कवि अपने समय की वास्तविकता, यथार्थ से प्रभावित होकर अपनी रचनाओं में उसकी विशिष्ट प्रवृत्तियों को अभिव्यक्ति देता है और उसकी रचनाएँ ही उस युग-विशेष की मूल प्रवृत्ति को रूपायित करती हैं। लेकिन महादेवीजी अपनी काव्य रचनाओं में प्रायः अंतर्मुखी रही हैं। अपनी व्यथा, वेदना और रहस्य भावना को ही इन्होंने मुखरित किया है। उनकी कविता का मुख्य स्वर आध्यात्मिकता ही अधिक दिखायी देता है। यद्यपि उनका गद्य रचनाओं में उनका उदार और सामाजिक व्यक्तित्व काफी मुखर है। इस इकाई में हम उनकी कविता में वेदना के भाव की व्याख्या करेंगे।

हम उनकी व्यक्तिगत दुःखानुभूति की विवेचना करेंगे और उनकी वेदना को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों पर विमर्श करेंगे। महादेवी ने एक दिव्य सत्ता के दर्शन हर कहीं, हरेक उपादान में किए हैं। उस अलौकिक प्रिय से मिलन की इच्छा ने उन्हें उद्वेलित किया। रहस्य के आवरण में ही इसकी अभिव्यक्ति हुई। यहाँ हम उनके काव्य में विद्यमान रहस्यानुभूति का अनुशीलन करेंगे। हम यह कह सकते हैं कि महादेवी वर्मा का काव्य’ प्रासाद इन चार स्तम्भों पर अवस्थित है – वेदनानुभूति, रहस्य-भावना, प्रणय भाव, और सौंदर्यानुभूति। यदि हम यह कहें कि महादेवी वर्मा के काव्य का मूल भाव प्रणय है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनकी कविताओं में उदात्त प्रेम का व्यापक चित्रण मिलता है। अलौकिक प्रिय के प्रति प्रणय की भावना, नारी-सुलभ संकोच और व्यक्तिगत तथा आध्यात्मिक विरह की अनुभूति उनके प्रणय के विविध आयाम हैं।

महादेवी की कविता में सौंदर्य के विविध रूपों का मनोहर चित्रण हुआ है। उनकी सौंदर्यानुभूति विलक्षण है। वह, छायावाद के अन्य कवियों के समान ही, सौंदर्य-भावना को अपने युग की एक प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में अंगीकार करती हैं। वह भी अपनी कविताओं में सौंदर्य के सूक्ष्म रूप को ही प्रतिष्ठित और चित्रित करती हैं। महादेवी वर्मा सौंदर्य को ‘सत्य प्राप्ति का साधन ‘ मानती हैं और उनकी सौंदर्यानुभूति प्रकृति तथा मानव जीवन दोनों की ओर आकृष्ट होती है।

जहाँ वह प्रकृति के विभिन्न रूपों में विराट सौंदर्य के दर्शन करती हैं वहीं नारी के विविध रूपों का भी उन्होंने चित्रण किया है। छायावादी कवि चतुष्ठय में महादेवी वर्मा का महत्वपूर्ण स्थान है। इकाई के आगामी अंशों में हम उनकी काव्य संवेदना की उपर्युक्त विशेषताओं का विस्तार से अध्ययन करेंगे।

महादेवी की काव्य संवेदना

छायावादी काव्य एक नई संवेदनशीलता का काव्य था। इस युग के कवि विशिष्ट अर्थ में संवेदनशील थे। महादेवी वर्मा के संदर्भ में उनका व्यक्तित्व अपनी इंद्रधनुषी आभा लिए उनके काव्य-लोक में उपस्थित होता है। इस प्रसंग में उनका नारी होना उनके पक्ष में जाता है। उन्होंने काव्य रचना को अत्यंत गंभीरता से लिया है। उनकी जीवन-दृष्टि मानवीय गुणों से सम्पृक्त और संवेदनाओं से अनुप्राणित है। उसमें उदात्त और गौरवमय भाव मिलते हैं और समस्त प्राणि-जगत के प्रति उनकी करुणा उमड़ी पड़ती है। आगे के अंशों में हम इन बिंदुओं पर विस्तार से चर्चा करेंगे और महादेवी की कविताओं में उनका अवतरण भी देखेंगे।

छायावादी युग भारतीय नवजागरण का काल था, जहाँ सभी स्तरों पर मुक्ति के लिए संघर्ष सक्रिय था। नारी भी अपनी मुक्ति की खोज में रत थी। महादेवी में मुक्ति की उड़ान स्पष्ट, असीम और अनंत है। उनमें नारी के अभिमानी रूप की अभिव्यंजना हुई है। मुक्ति की आकांक्षा भाषा के स्तर पर भी प्रकट होती है और शिल्प के स्तर पर भी। छायावादी भाव-बोध के लिए गीत आदर्श विधा बनकर आई। महादेवी ने अपने काव्य के लिए गीत विधा को ही चुना। वस्तुतः अपने गीत काव्य में महादेवी वर्मा की काव्य संवेदना का सहज प्रत्यक्षीकरण हुआ है। अपने युग का अध्यात्म और भौतिकता का द्वंद्व उन्हें रहस्य का आवरण लेने को बाध्य करता है और वह अभिव्यक्ति के स्तर पर प्रायः प्रतीक का सहारा लेती हैं। महादेवी की रहस्य भावना पर हम आगे सविस्तार चर्चा करेंगे। जबकि उनकी प्रतीक योजना पर हम अलग इकाई में प्रकाश डालेंगे।

महादेवी की काव्य संवेदना की निर्मिति और विकास में उनके व्यक्तिगत एकाकीपन की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, जिसकी वेदना विभिन्न आयामों में उनके काव्य में प्रकट हुई है। वेदना के विविध रूपों की उपस्थिति उनके काव्य जगत की विशिष्टता है। महादेवी की कविता में व्याप्त इस वेदना के विषय में हम इस इकाई में अलग से चर्चा करेंगे।

प्रणय एक जीवन-दृष्टि के रूप में महादेवी के रचना-लोक में विद्यमान रहा है। उनका प्रियतम से नाता अत्यंत गूढ़, अत्यंत अज्ञेय है। इसे समझने के लिए कभी-कभी तो आत्मा-परमात्मा के संबंध का सहारा लेना पड़ता है। जीवन को ‘विरह का जलजात’ मानने वाली महादेवी प्रणय के संयोग पक्ष का भी चित्रण करती है। प्रेम अपने समग्र रूप मे महादेवी की कविता में प्रधानता से विद्यमान है।

महादेवी ने अखिल ब्रह्मांड में सौंदर्य के दर्शन किए हैं और उसे अपने गीतों में प्रमुख स्थान दिया है। स्थूल में सूक्ष्म के दर्शन उनकी सौंदर्य-दृष्टि की विशिष्टता है। सौंदर्य की अभिव्यंजना उनके काव्य में विभिन्न रूपों में हुई है और आनंद की सृष्टि करने में वह सफल रही है। व्यथा-वेदना से आनंद की ओर यह प्रस्थान उनकी काव्य-यात्रा का सार है। सम्यक् वेदनानुभूति का प्रस्फुटन आनंद में होता है। महादेवी के सौंदर्य चित्रण में सूक्ष्मता है। वहाँ स्थूल सौंदर्य के लिए स्थान नहीं है। ऐसे में प्रकृति अपने समग्र सौंदर्य में उनके काव्य में उपस्थित होती है। यहाँ हम महादेवी वर्मा की काव्य संवेदना के विभिन्न पक्षों का विवेचन प्रस्तुत करेंगे।

महादेवी की कविता में वेदना भाव

महादेवी वर्मा की कविता में दुःख और करुणा का भाव प्रधान है। वेदना के विभिन्न रूपों की उपस्थिति उनके काव्य की एक प्रमुख विशेषता है। वह यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं करतीं कि वह ‘नीर भरी दुःख की बदली’ हैं। वस्तुतः समूचा छायावादी काव्य ही व्यक्तिवाद का प्रभाव लेकर चला और वहाँ आत्माभिव्यक्ति को सहज ही स्थान मिला। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ‘हिंदी साहित्य की भूमिका में लिखते हैं – ‘1900-1920 ई. की खड़ी बोली की कविता में कवि के अपने राग-विराग की प्रधानता हो गई। विषय अपने आप में कैसा है यह मुख्य बात नहीं थी, बल्कि मुख्य बात यह रह गई थी कि विषयी (कवि) के चित्त के राग-विराग से अनुरंजित होने के बाद वह कैसा दिखता है। विषय इसमें गौण हो गया, विषयी प्रधान।’

जहाँ तक महादेवी वर्मा का प्रश्न है, उनकी वेदना के उद्गम के बारे में निश्चित तौर पर कुछ कहना संभव नहीं है। उनके एक गीत की पंक्ति है – ‘शलभ मैं शापमय वर हूँ / किसी का दीप निष्ठुर हूँ।’ उनके पूरे काव्य पटल पर इस तरह के असंख्य बिम्ब बिखरे पड़े हैं, जिनसे उनके अंतस में पलती अथाह पीड़ा का स्पष्ट संकेत मिलता है। एक विचित्र-सा सूनापन, एक विलक्षण एकाकीपन बार-बार उनकी कविताओं में उमड़ता दिखाई देता है। अल्पायु में ही विवाहित होने के बाद, उन्होंने स्वेच्छा से एकांत जीवन का चयन किया। डॉ.नगेन्द्र का मानना है कि उनके जीवन में जो एकाकीपन था वह किसी अभाव की देन था। पीड़ा का साम्राज्य ही उनके काव्य-संसार की सौगात है – ‘साम्राज्य मुझे दे डाला । उस चितवन ने पीड़ा का।’ विफल प्रेम का यह रुदन महादेवी के काव्य की अंतर्वस्तु है। यह पीड़ा ही कवयित्री का प्रारब्ध है – ‘मेरी मदिरा मधुवाली / आकर सारी दुलका दी । हंस कर पीड़ा से भर दी / छोटी जीवन की प्याली।’

महादेवी की वेदना अनुभूतिजन्य होने के कारण उनकी कविताओं में इसकी अभिव्यक्ति भी अत्यंत सहज ढंग से हुई है। उसमें कृत्रिमता कहीं दिखाई नहीं पड़ती। वह कितनी सहजता से कह देती हैं – ‘रात सी नीरव व्यथा / तम सी अगम मेरी कहानी।’ किंतु, यहाँ हमें यह तथ्य ध्यान में रखना होगा कि महादेवी के काव्य में अभिव्यंजित दुःख और वेदना जैसे भाव आरोपित बिल्कुल नहीं हैं, इनका वरण तो कवयित्री ने स्वयं किया है। उनका यह कथन इस वक्तव्य की पुष्टि करता है – ‘हमारे असंख्य सुख हमें चाहे मनुष्यता की पहली सीढ़ी तक भी न पहँचा सकें, किंतु हमारा एक बूंद आँसू भी जीवन को अधिक मधुर, अधिक उर्वर बनाए बिना नहीं गिर सकता।’ (यामा । अपनी बात) निष्ठुर दीप-सी तिल-तिल जलती कवयित्री अपने काव्य में इस व्यक्तिगत व्यथा को शब्द देने में संकोच नहीं करती।

किंतु, महादेवी की वेदना नितांत वैयक्तिक भी नहीं है। स्वयं उन्होंने अपने जीवन में दुःख और अभाव की बात से इंकार किया है। वस्तुतः उनके वेदना-भाव का प्रासाद दो आधार-भूमियों पर टिका हुआ है – आध्यात्मिक भावभूमि तथा मानवतावादी भावभूमि| दोनों आधारभूमियाँ परस्पर अन्योन्याश्रित हैं।’ (डॉ. सुषमा पाल / छायावाद की दार्शनिक पृष्ठभूमि)। बौद्ध धर्म के अध्ययन और उसके प्रति उनके रुझान ने भी महादेवी के वेदना-भाव के लिए आध्यात्मिक भावभूमि तैयार की। महादेवी ने दुःख को आध्यात्मिक स्तर पर ही अपनाया। भारतीय संस्कारों में पगी महादेवी करुणा-भाव में आकंठ डूबी हुई हैं। वेदना की अधिकता उन्हें अध्यात्म का आवरण लेने को बाध्य करती है। किसी दार्शनिक की तरह वह कह उठती हैं – ‘विजन वन में बिखरा कर राग, । ज्गा सोते प्राणों की प्यास, / ढालकर सौरभ में उन्माद नशीली फैलाकर विश्वास, / लुभाओ इसे न मुग्ध वसन्त! / विरागी है मेरा एकान्त!’ और, ‘मैं क्यों पूछु यह विरह निशा / कितनी बीती क्या शेष रही?’ तथागत की महाकरुणा का प्रभाव इन पंक्तियों में देखा जा सकता है – ‘अश्रुकण से डर सजाया त्याग हीरक हार, / भीख दुःख की माँगने जो फिर गया प्रति द्वार / शूल जिसने फूल छू चन्दन किया सन्ताप, / सुनो जगाती है उसी सिद्धार्थ की पदचाप, / करुणा के दुलारे जाग!’

जब व्यक्ति वेदना के अनुभव से गुज़र चुकता है और उसकी तीव्रता के दंश सह चुकता है तो वह पराई पीर को उसी धरातल पर खड़े होकर रामझ सकता है। यहीं से उसमें समग्र मानव जाति के दुःखों के प्रति सहानुभूति और करुणा के भाव जन्म लेते हैं। महादेवी के वेदना-भाव-प्रासाद की दूसरी आधारभूमि मानवतावादी भावभूमि है। मानव मात्र के प्रति करुणा का प्रत्यक्षीकरण महादेवी के गद्य लेखन में देखा जा सकता है। पद्य के क्षेत्र में, ‘सांध्यगीत’ और ‘दीपशिखा’ तक आते-आते उनकी वेदना को मानव मात्र के प्रति करुणा का रूप लेते देखा जा सकता है। इस दृष्टि से ‘दीपशिखा’ महादेवी की अनुपम कृति है। इसी संग्रह की ये पंक्तियाँ देखिए, जहाँ कवयित्री की चिंता केवल मनुष्य नहीं, तन्वंगी पक्षियों के प्रति भी प्रकट होती है – ‘पथ न भूले एक पग भी । घर न खोए लघु विहग भी । स्निग्ध लों की तूलिका से । आँक सबकी छाँह उज्ज्वल।’ महादेवी वर्मा व्यापक सृष्टि के पक्ष में अपने स्वयं के दुःख, अपनी वेदना को भी तिरोहित करने को तैयार रहती हैं।

एक कविता में वह कहती हैं –

‘मेरे बंधन नहीं आज प्रिय,

संसृति की कड़ियाँ देखो

मेरे गीले पलक छुओ मत,

मुरझाई कलियाँ देखो।’

एक अन्य कविता में,  सुमन के माध्यम से वह वंचितों, शोषितों की उपेक्षा से क्षुब्ध होकर उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करती हैं –

‘कर दिया मधुर और सौरभ ।

दान सारा एक दिन ।

किंतु रोता कौन है ।

तेरे लिए दानी सुमन?’

अब, एक और उदाहरण देखिए –

‘कह दे माँ क्या देखें।

देखें खिलती कलियाँ या

प्यासे सूखे अधरों को

तेरी चिर-यौवन सुषमा

या जर्जर जीवन देखू।’

क्या अब भी हम कुछ आलोचकों की इस दलील का समर्थन कर सकते हैं कि महादेवी वर्मा के काव्य पटल पर मिलने वाले वेदना के रंग उनकी वैयक्तिक व्यथा की अभिव्यक्ति हैं? क्या उनपर पलायनवादी होने का आरोप लगाना औचित्यपूर्ण है? इन प्रश्नों के उत्तर में यहाँ हम डॉ.शोभानाथ यादव के इस कथन को उद्धृत करना चाहेंगे – ‘आत्मवादी कवि या कलाकार अंतर्मुखी अवश्य होता है और इस रूप में महादेवी भी अधिक प्रबल हैं, किंतु उनके अंतर्मुखी चिंतन में जहाँ विरह-मिलन, तृप्तिअतृप्ति, आशा-निराशा की हल्की गहरी लहरियाँ मचलती रहती हैं, वहाँ जीवन के अनेक उदबोधन गीत भी फूट पड़े हैं, करुणा और मानवता की अनगिनत ध्वनियाँ भी मुखर हो उठी हैं।’

डॉ.रामविलास शर्मा के शब्दों में – ‘(महादेवी वर्मा) की करुणा व्यक्तिपरक अथवा आत्मगत ही नहीं है। वह बहिर्मुखी एवं समाजपरक भी है, जिसका प्रमाण उनकी अनेक गद्य रचनाएँ, बंगाल के दुर्भिक्ष से संबंधित काव्य संकलन की भूमिका आदि है।’

यह एक विलक्षण तथ्य है कि महादेवी के काव्य-लोक में, वेदना की परिणति आनंद में होती है। कवयित्री दुःख और पीड़ा के बोझ तले घुट-घुटकर सिसकती नहीं, अपितु निरंतर बढ़ते हुए आनंद भाव की ओर उन्मुख होती है। वह आनंद की ऐसी अवस्था में पहुँच जाती है, जहाँ ‘नयन श्रवणमय श्रवण नयनमन’ हो जाता है। वेदना की धारा प्रवाहित होकर अंततः आनंद के सागर में ही जा मिलती है। यहाँ तक कि मृत्यु को भी महादेवी वर्मा अंत अथवा दुःखद नहीं मानतीं।

उनकी दृष्टि में तो – ‘अमरता है जीवन का ह्रास /मृत्यु जीवन का चरम विकास।’ मृत्यु तो नियति है जो आनंद के ही सौ द्वार खोल देती है – ‘सृष्टि का है यह अमिट विधान | एक मिटने में सौ वरदान।’ उनका जीवन-दर्शन मानवता के लिए दुःख और वेदना के काँटे छोड़ना नहीं जानता। वह तो एक नई आशा, अमल आनंद की ही सृष्टि करना चाहती हैं। वह तो ‘सब बुझे दीपक जला’ देना चाहती हैं। उनकी कामना है – ‘दुःख से सुखमय सुख हो दुःखमय, / उपल बने पुलकित से निर्झर, / मरु हो जाए उर्वर गायक।’ जैसा कि हम इस इकाई में पहले कह चुके हैं, व्यथा-वेदना से आनंद की ओर यह प्रस्थान महादेवी वर्मा की काव्य-यात्रा का सार है। अपने इस विचार-बिंदु के समर्थन में हम ‘महादेवी अभिनंदन ग्रंथ’ से दो अंश उद्धृत करेंगे –

  • ‘वे हमें अपने काव्य में स्वर्ग की देवी-सी जान पड़ती हैं, मानो परीक्षार्थ कुछ दिन भूतल पर निवास करने आई हों। अपने जीवन की उच्चता और आनंद का उन्हें पूर्ण आभास है और इस मृत्युलोक के जीवन में भी वही आनंद प्राप्त करती हैं।’ (डॉ.भगीरथ मिश्र); और
  • जीवन के अवसान समीप होते हुए भी दीप जलने लगते हैं तो समस्त कण-कण दीपक और तृण-तृण वर्तिका बन जाते हैं और हर नए पल में एक नई ज्योति झिलमिलाने लगती है। कितना आशावादी और आनंदवादी दर्शन है जिसे अनेक बार दुःख और उदासीनता के रूप में लोगों ने देखने की भूल कर डाली है। ‘ (शक्ति त्रिवेदी)

इस तरह हमने देखा कि महादेवी वर्मा में वेदना का व्यक्तिगत रूप मिलता है तो समष्टिगत रूप भी। उनके वेदना-भाव का महल आध्यात्मिक और मानवतावादी भावभूमियों पर खड़ा है। उनकी वेदना के बारे में कोई निश्चित एक राय नहीं है। किंतु यह तो हम कह ही सकते हैं कि यह सहज है कि इसका वरण कवयित्री ने स्वयं किया और अपनी कविता में इसे प्रमुख स्थान दिया। उनकी वेदना प्राणि-मात्र के प्रति करुणा का रूप धारण करती है और वह अपने काव्य में समस्त मानव समाज, इसके वंचित, शोषित वर्ग की, पक्षधरता करती हैं। उनके काव्य लोक में वेदना की परिणति आनंद में होती है, और वह अपनी कविताओं के माध्यम से दुःखी जनों में नई आशा, अमल आनंद का संचार करती हैं।

यदि महादेवी के काव्य में व्याप्त वेदना भाव के लिए उनके एकाकीपन, उनके व्यक्तिगत जीवनानुभवों को दोषी ठहराया जाता है तो बैजनाथ प्रसाद (आलोचना पर छायावाद का प्रभाव) के इस कथन को रेखांकित करना समीचीन होगा कि, ‘गत महायुद्ध के बाद भारत की राजनीतिक परिस्थितियाँ ऐसी थीं कि निराशा का स्वर काव्य में प्राकृतिक रूप से उद्भूत हुआ। छायावादियों ने अगर उसका साथ दिया है तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि वे जान-बूझकर अकर्मण्यता का प्रचार कर रहे थे, बल्कि चाहते हुए उनके ओठों पर हंसी नहीं आ रही थी।’

महादेवी वर्मा की कविता में वेदना-भाव के उपर्युक्त विमर्श के बाद, आइए हम उनकी कविता में रहस्य भावना पर दृष्टिपात करें।

महादेवी की कविता में रहस्य भावना

जब छायावादी कवियों की, और उनमें भी विशेषकर महादेवी वर्मा की बात आती है तो रहस्यवाद की चर्चा अनिवार्य हो जाती है। हम ऊपर यह निवेदन कर चुके हैं कि छायावाद का युग उथल-पुथल, संक्रमण और लगभग प्रत्येक स्तर पर संघर्ष और विभम्र का युग था। एक अर्थ में द्वंद्व इस काल का प्रधान गुण था। यहाँ यथार्थ और आदर्श का द्वंद्व था तो इतिहास और मिथक का द्वंद्व भी, वर्तमान और अतीत का द्वंद्व था तो वास्तविकता और अध्यात्म का भी द्वंद्व था। इस अंतिम द्वंद्व ने विशेष रूप से छायावादी रचनाकार को रहस्यवाद की ओर मोड़ दिया। महादेवी के संदर्भ में कुछ आलोचक व्यक्तिगत एकाकीपन और अभाव को भी रहस्यानुभूति का कारण मानते हैं। जो भी हो, महादेवी और रहस्यवाद एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं। महादेवी वर्मा की रहस्य भावना एक-दूसरे के पर्याय बन गए हैं। महादेवी वर्मा की रहस्य भावना की विवेचना करने से पहले आइए हम रहस्यवाद के पारंपरिक अर्थ को समझने का प्रयास करें। कुछ परिभाषाएँ देखिए :

  • ‘चिंतन के क्षेत्र में जो अद्वैतवाद है, भावना के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है।’ (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल)
  • व्यष्टि सौंदर्य-दृष्टि छायावाद है और समष्टि सौंदर्य-दृष्टि रहस्यवाद।’ (आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी)
  • ‘रहस्यवाद जीवात्मा की उस अंतर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल संबंध जोड़ना चाहती है और यह संबंध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कोई अंतर नहीं रह जाता।’ (डॉ.रामकुमार वर्मा)
  • ‘काव्य में आत्मा की मूल अनुभूति की मुख्य धारा रहस्यवाद है।’ (जयशंकर प्रसाद)

इस आलोक में हम महादेवी वर्मा की कविताओं में रहस्यानुभूति की उपस्थिति का आकलन करें तो भी यही प्रमाणित होता है कि वह सर्वत्र, और प्रत्येक उपादान तथा प्रकृति-व्यापार में एक विराट सत्ता के दर्शन करती हैं। वह उसके साथ तादात्म्य, साक्षात्कार को व्याकुल दिखाई देती हैं। यहीं से उनके काव्य में रहस्य की सृष्टि होती है। वह स्वयं को प्रकृति (का ही कोई अंग) मानकर उस दिव्य सत्ता से मिलन को तत्पर रहती हैं। महादेवी स्वयं कहती हैं – ‘हमारे मूर्त और अमूर्त जगत एक-दूसरे से इस प्रकार मिले हुए हैं कि एक यथार्थदर्शी दूसरे को रहस्यदृष्टा बनकर ही पूर्णता पाता है।’ (मेरे प्रिय निबंध | रहस्यवाद) उनका नारी होना इस रहस्य भाव को और भी गहन करता है।

वे एक रागात्मक संबंध स्थापित करती हैं उस परम पुरुष के साथ – ‘जब असीम से हो जाएगा | मेरी लघु सीमा का मेल’ यही आत्म-समर्पण उनका पावन लक्ष्य है। आत्मा-परमात्मा के रागात्मक संबंध के इस पक्ष की व्याख्या करते हुए वह स्वयं कहती हैं – ‘समर्पण के भाव ने ही आत्मा को नारी की स्थिति दे डाली।

सामाजिक व्यवस्था के कारण नारी अपना कुल-गोत्र आदि परिचय छोड़कर पति को स्वीकार करती है और स्वभाव के कारण उसके निकट अपने आपको पूर्णतः समर्पित कर उसपर अधिकार पाती है। अतः नारी के रूपक से सीमाबद्ध आत्मा का असीम में विलय होकर असीम हो जाना सहज ही समझा जा सकता है।’ (साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध)

महादेवी वर्मा की रहस्यानुभूति पर यदि हम सतर्क दृष्टिपात करें तो हम देखेंगे कि उनके काव्य में रहस्यवाद के सभी चरणों की अभिव्यंजना हुई है। उनमें, कौतुहल और जिज्ञासा रहस्यानुभूति का सबसे पहला चरण होता है। मानव किसी चकित शिशु-सा जब ब्रह्मांड के विराट लीला व्यापार को देखता है तो वह बस चकित होकर रह जाता है और जब उसकी बुद्धि कोई भी व्याख्या प्रस्तुत नहीं कर पाती तो वह रहस्य में डूब जाता है। ‘किस शिल्पी ने अनजान | विश्व प्रतिमा कर दी निर्माण’ महादेवी भी चकित हो सोचती हैं और प्रश्न करती हैं – ‘प्रथम प्रणय की सुषमा सा / यह कलियों की चितवन में कौन? ‘ चकित मानव को हर ओर एक परम सत्ता के ही दर्शन होते हैं और वह उसकी एक झलक पाने को आतुर रहता है। महादेवी वर्मा ने भी प्रकृति के विविध उपादानों में इस अलौकिक प्रियतम को ही देखा है और इन्हीं को देख कर उसके अपार सौंदर्य की कल्पना की है – ‘चितवन तन-श्याम रंग, / इन्द्रधनुष भृकुटि भंग, / विद्युत का अंग राग / दीपित मृदु अंग-अंग, / उड़ता नभ में अछोर | तेरा नवनील चीर।’ इस परम प्रिय के परोक्ष दर्शन कर कवयित्री उससे मिलन के लिए उत्कंठित हो जाती है।

रागात्मक संबंध की यह महत्वपूर्ण विशेषता है। कवयित्री अपने परम प्रिय से मिलने की इच्छा व्यक्त करती है – ‘जो तुम आ जाते एक बार! / कितनी करुणा कितने संदेश | पथ में बिछ जाते बन पराग। | गाता प्राणों का तार-तार | अनुराग भरा उन्माद राग, | आँसू लेते वे पग पवार / जब यह कामना पूर्ण होती नहीं दिखती तो वह स्वप्न का सहारा लेने में भी कोई संकोच नहीं करती – ‘तुम्हें बाँध पाती सपने में!’ अथवा, ‘मैं पलकों में पाल रही हूँ | वह सपना साकार किसी का।’

महादेवी वर्मा एक रहस्यवादी कवि के रूप में केवल अद्वैतवाद से बंध कर नहीं चलतीं। वह प्रियतम के साथ एकाकार तो हो जाना चाहती हैं – ‘तुम मुझमें प्रिय! फिर परिचय क्या? | चित्रित तू, मैं हूँ रेखाक्रम, | मधुर राग तू, मैं स्वर-संगम, / तू असीम, मैं सीमा का भ्रम, | काया-छाया में रहस्यमय! / प्रेयसि-प्रियतम का अभिनय क्या! ‘ किंतु वह स्वाभिमानी हैं, अपने निजत्व को भी वह विसर्जित नहीं कर सकतीं – ‘सजनि मधुर निजत्व दे, / कैसे मिलूँ अभिमानिनी मैं।’ स्त्री होने के नाते उनमें स्त्री सुलभ गुण भी विद्यमान हैं, जो इस रागात्मकता में व्यवधान बनते हैं। एक स्त्रियोचित लज्जा और संकोच उनके प्रिय की ओर बढ़ते चरणों को रोक लेते हैं। प्रिय का स्मरण ही लाज-संकोच का पट डाल लेने को पर्याप्त होता है – ‘सीखते क्यों चंचल गति भू, / भरे मेघों की धीमी चाल, / दृष्टित कन-कन को क्यों चूम, / अरुण आभा सी देते झाल? | सजल चितवन में क्यों है हास? । अधर में क्यों सस्मित निश्वास?’

इस प्रकार, महादेवी वर्मा में रहस्यानुभूति के विविध रूपों के दर्शन होते हैं। मिलन की इच्छा, स्मरण, स्वप्न, और साक्षात मिलन के बाद विरह का अनिवार्य चरण भी आता है। महादेवी की कविता में विरह के उदाहरणों की तो कोई कमी नहीं, बल्कि उनका समूचा काव्य ही विरह के रंग में रंगा हुआ है। उनके समीप तो संपूर्ण जीवन ही ‘विरह का जलजात’ है। किंतु, वह अपनी लघुता को भी स्वीकार करती हैं – ‘क्षुद्र हैं बुद्बद् मेरे प्राण, / तुम्हीं में सृष्टि तुम्हीं में नाश।’ और आत्म-बलिदान के लिए भी तैयार रहती हैं – ‘नित घिरूँ झर झर मिटूं प्रिय / घन बनूं वर दो मुझे प्रिय!’

आद्योपांत अपने काव्य में रहस्यवाद को प्रकट करने वाली महादेवी वर्मा ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि वह यथार्थ-विरोधी रहस्य लोक में विश्राम करें। उन्होंने अपनी संवदेनाओं को समाज के उपेक्षित वर्ग के साथ भी जोड़ा। इस बिंदु को हम ऊपर भी रेखांकित कर चुके हैं। वह एक अलग आदर्शवादी, मंगलकारी लोक का निर्माण करना चाहती हैं। इस संदर्भ में वह दृढ़ संकल्प की घोषणा करती हैं – ‘जिसको पथ शूलों का भय हो । वह खोजे नित निर्जन गह्वर।’ हमारा विद्यार्थियों से यही आग्रह है कि वे महादेवी की अधिक से अधिक रचनाएँ पढ़ें। इससे वे उनकी रहस्यानुभूति तथा अन्य काव्यगत विशेषताओं का भरपूर रसपान कर पाएंगे।

जब हम छायावादी रहस्यवाद की बात करते हैं तो हम उसकी युगीन विशेषताओं को अनदेखा नहीं कर सकते। विभिन्न स्तरों पर पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े समाज के लिए यह मोटे तौर पर मुक्ति-संघर्ष का युग था। जन-मानस मुक्ति की उड़ान के लिए पर खोलने को तत्पर था। दो विश्व-युद्धों के मध्यांतर का यह काल राष्ट्रीय चेतना के उत्कर्ष का काल था। महाप्राण निराला ‘परिमल’ की भूमिका में लिखते हैं – ‘इस समय के और पराधीन काल के काव्यानुशासनों को देखकर हम जाति की मानसिक स्थिति को भी देख ले सकते हैं। अनुशासन के समुदाय चारों तरफ से उसे जकड़े हुए हैं – साहित्य के साथसाथ राज्य, धर्म, समाज, व्यवसाय सभी कुछ पराधीन हो गए हैं।’

छायावादी कवियों ने इसी पराधीनता के विरुद्ध संघर्ष को अपनी रचनाओं में स्वर दिया, क्योंकि पराधीनता मानसिक क्लेश को जन्म देती है और यही संघर्ष मुक्ति के संघर्ष के रूप में व्यक्त हुआ। उपेक्षितों-शोषितों की मुक्ति छायावाद की प्रमुख विषय-वस्त बनी तो मुक्ति कामना महादेवी वर्मा जैसी महिला रचनाकार की आत्म-विस्तार की कामना का महत्वपूर्ण आधार बन गई। महादेवी में मुक्ति का सारा प्रयोजन ही लौकिक और मानवीय बनकर प्रस्तुत हुआ – ‘तोड़ दो यह क्षितिज, मैं भी देख लूँ उस ओर क्या है! / जा रहे जिस पंथ से युग-कल्प उसका छोर क्या है!’

छायावाद का युग महात्मा गांधी की सक्रियता, किसान आंदोलन, प्रथम विश्व युद्धोत्तर स्थितियों, विश्वव्यापी आर्थिक संकट, श्रमिक हड़तालों, अरविंद घोष, तिलक के विद्रोही तेवर आदि का काल था, जहाँ मुक्ति की छटपटाहट ने छायावादी काव्य में आकार ग्रहण किया। छायावाद ने प्रकृति के प्रति भौतिकवादी दृष्टिकोण और तथाकथित नैतिक रूढ़ियों से मुक्ति का अलख जगाया। उसने रीतिकाल की सर्वथा भोगवादी प्रवृति से मुक्ति चाही तो द्विवेदी युग की दुराग्रही भोग-विरोधी मानसिकता से भी छुटकारा चाहा। यहाँ तक कि छायावाद ने व्यावहारिक जीवन की भौतिकता और घोर सांसारिकता से मुक्ति पाने के प्रयास में एक नए रहस्यवाद की ही रचना कर डाली। महादेवी वर्मा इस नए छायावादी रहस्यवाद की प्रमुख प्रणेता रहीं।

डॉ.शशी मुदीराज ने उपर्युक्त विमर्श बिंदु की सटीक व्याख्या की है। उनके शब्दों में – ‘महादेवी की रहस्यवादी अनुभूतियों में (इस) मुक्ति की तड़पन को सबसे अधिक देखा जा सकता है। महादेवी के लिए मुक्ति का प्रश्न देश और जाति का ही नहीं, स्वयं का भी है। इस जगह प्रसाद, पंत और निराला जैसे निस्संग और निरपेक्ष भाव से लिख सकते हैं वैसे महादेवी नहीं, क्योंकि वे नारी हैं। अनादि काल से पुरुष-शासित समाज में शोषित और पीड़ित नारी…..नई आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक लड़ाई ने स्त्री के अस्तित्व को उभार दिया। उस समय की नारी अपनी अस्मिता के लिए छटपटा रही थी। यह . कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि वह देश की मुक्ति में कहीं अपनी मुक्ति खोज रही थीं। वह इसके लिए सक्रिय संघर्ष कर रही थी। मुक्ति उसके लिए केंद्रीय प्रसंग थ। किंत गट दाज इतनी सीधी और सरल नहीं है। मुक्ति के लिए संघर्ष – वह भी एक लंबे, पीड़न, प्रतारणा, अपमान और यंत्रणा के इतिहास से छूटने का संघर्ष कथ्य को सरल नहीं रहने देता। उसमें अवसाद, विवशता, पीड़ा, आत्म-पीड़न के साथसाथ आत्माभिमान, अहंकार को छूता हुआ आत्माभिमान भी होगा।’ यह आत्माभिमान महादेवी की रहस्यानुभूति का एक महत्वपूर्ण अंग है। महादेवी की कविताओं में इस आत्माभिमान के एकाधिक उदाहरण यहाँ देना प्रासंगिक होगा – (क) ‘भिक्षुक से फिर जाओगे | जब लेकर यह अपना धन। । करुणामय तब समझोगे | इन प्राणों कां महंगापन।’ (ख) ‘चिंता क्या है निर्मम! / बुझ जाए दीपक मेरा, । हो जाएगा तेरा ही । पीड़ा का राज्य अंधेरा।’; और (ग) ‘उनसे कैसे छोटा है | मेरा यह भिक्षुक जीवन! / उनमें अनन्त करुणा है | इसमें असीम सूनापन।’

यदि हम मुक्ति को अध्यात्म के स्तर पर देखें तो उसका अर्थ ‘मोक्ष’ होता है, अर्थात इस जीव जगत में आवागमन के बंधनों से मुक्ति। किंतु, इस स्तर पर भी महादेवी ऐसी किसी मुक्ति की अभिलाषा नहीं करतीं जिसमें इस जगत के सौंदर्य से नाता टूट जाए। जिस मुक्ति का अर्थ जीवन-व्यापार का पूर्ण विराम है, उसकी तुलना में उनके लिए बंधन ही वरेण्य हैं। वह कहती हैं – ‘क्यों मुझे प्रिय हो न बंधन! । बीन-बंदी तार की झंकार है आकाशचारी; / धूल के इस मलिन दीपक से बंधा है तिमिरहारी; / बांधती निर्बन्ध को मैं, / बन्दिनी निज बेड़ियाँ गिन।’ वह अमरता वाली मुक्ति की जगह अवसाद, अपने मिटने के अधिकार का ही वरण करना चाहती हैं – ‘ऐसा तेरा लोक, वेदना / नहीं, नहीं जिसमें अवसाद, / जलना जाना नहीं, नहीं | जिसने जाना मिटने का स्वाद। / क्या अमरों का लोक मिलेगा । तेरी करुणा का उपहार? / रहने दो हे देव! अरे | यह मेरा मिटने का अधिकार!’ वह तो गर्वित हो यही कहती हैं – ‘मुझे प्रिय जग अपना भाता है। नारी चेतना, नारी मुक्ति के संदर्भ में महादेवी की ये पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं – ‘बांध लेंगे क्या तुझे ये मोम के बंधन सजीले | पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले / विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर गुन गुन / क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल के दल ओस गीले | तू न अपनी छांह को अपने लिए कारा बनाना।’

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि महादेवी के काव्य में रहस्यानुभूति के सभी चरण देखने को मिलते हैं। वह सर्वत्र एक विराट सत्ता के अस्तित्व का अभिज्ञान करती हैं। वह उससे मिलन की इच्छा रखती हैं, उसके प्रति समर्पण भाव दर्शाती हैं, उसके साथ तादात्म्य को तत्पर रहती हैं, वह परम सत्ता उन्हें अपनी विराट उपस्थिति से चकित करती है और उनमें कौतूहल और जिज्ञासा भी पैदा करती है। प्रकृति के विविध उपकरणों में वह उस अलौकिक प्रिय के अपार, अमिट सौंदर्य की कल्पना करती हैं। वह उसके साथ एकाकार होना भी चाहती हैं, और नारी सुलभ लज्जा और संकोच उनका साथ भी नहीं छोड़ते। वह विरह के ताप को भी झेलती हैं।

उनकी रहस्यानुभूति उन्हें मानव समाज के उपेक्षित, शोषित वर्ग के कल्याण के प्रति भी सजग करती है। उनमें छायावादी युग की मुक्ति कामना और मुक्ति संघर्ष का तीव्र रूप भी मिलता है। नारी होने के नाते उनमें मुक्ति की तड़प अपेक्षाकृत अधिक गहन है। मुक्ति की यह आकांक्षा उनकी गद्य रचनाओं में तो प्रत्यक्ष रूप में अभिव्यक्त होती है, जबकि काव्य में इनकी परोक्ष किंतु स्पष्ट अभिव्यक्ति हुई है। किंतु उनकी इच्छित यह ‘मुक्ति’ अध्यात्म का ‘मोक्ष’ नहीं है जहाँ जीव सदा-सदा के लिए भवसागर से पार हो जाता है। वह तो इसी लौकिक जगत में अपनी मुक्ति का आनंद लेना चाहती हैं। छायावादी रहस्यवाद का प्रसंग आता है तो निश्चय ही महादेवी वर्मा का उल्लेख अनिवार्य हो जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में कहें तो – ‘छायावादी कहे जाने वाले कवियों में केवल महादेवी जी ही रहस्यवाद के भीतर रही हैं।’

महादेवी वर्मा की रहस्यानुभूति की उपर्युक्त विवेचना के उपसंहार में हमें यह स्पष्ट करके चलना होगा कि महादेवी का, और व्यापक स्तर पर छायावाद का, यह रहस्यवाद मध्ययुगीन संतों के रहस्यवाद से भिन्न था। छायावाद के काल में वेदांत दर्शन की नए सिरे से व्याख्या हुई, और इस नव्य वेदांत की आभा को पश्चिमी जगत की वैज्ञानिक और औद्योगिक प्रगति की चकाचौंध भी मिटा नहीं पाई। इसीलिए, छायावादी राष्ट्रीय जागरण में धार्मिक प्रतीक और तत्व महत्वपूर्ण भूमिका में दिखाई पड़ते हैं। यह आध्यात्मिक धारा मध्यवर्गीय आदर्शवाद का पोषण करने वाली थी। यह वह काल था जब तिलक जैसे राष्ट्र-नेता गीता को कर्मयोग के रूप में ग्रहण कर रहे थे, अरविंद घोष जैसे आंदोलनकारी (1908 के बाद) रहस्य साधना की ओर मुड़ रहे थे और विवेकानंद जैसे आध्यात्मिक गुरु व्यावहारिक समस्याओं का व्यावहारिक समाधान प्रस्तुत करने के प्रयास में अद्वैत दर्शन का सहारा लेकर समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त कर रहे थे। उनका यह दृष्टिकोण छायावादियों के व्यक्तिवाद के विरुद्ध जाता था, और उन्होंने अपनी रचनाओं में इसका दोहन किया। छायावादियों ने अपने युग के घोर भौतिकवाद के विरोध में खड़े होते हुए प्रकृति को एक विराट चेतन सत्ता के रूप में अंगीकार किया, और व्यक्ति को इस विराटता से मिलाने का सद्प्रयास किया। यही उनका रहस्यवाद जो मध्ययुगीन रहस्यवाद से स्पष्ट रूप से भिन्न था।

महादेवी वर्मा स्वयं कहती हैं – ‘व्यापक चेतना से व्यष्टिगत चेतना की एकता की भावना ने पुरानी रहस्य प्रवृत्ति को नया रूप दिया।’ (मेरे प्रिय निबंध / छायावाद)

महादेवी वर्मा की रहस्यानुभूति, अथवा छायावादी रहस्य भावना मध्ययुगीन सतों के रहस्यवाद से किस प्रकार भिन्न थी? इसका उत्तर यह है कि छायावादी रहस्यवाद मध्ययुगीन रहस्यवाद की तरह साम्प्रदायेक नहीं था। विवेकानंद ने तो स्पष्ट कह दिया था कि ‘यह कहीं ज्यादा अच्छा है कि तर्क और युक्ति का अनुसरण करते हुए लोग अनीश्वरवादी बन जाएँ – बजाय इसके कि किसी के कहने मात्र से अंधों की तरह बीस करोड़ देवी-देवताओं को पूजने लगें।’ उन्होंने यह भी कहा कि जब समस्त प्राणी एक ही परमात्मा के अंश हैं तो फिर यह ऊँच-नीच और छूआछूत क्यों है? यह सर्वथा भिन्न रूप था अद्वैत का, जिसका प्रभाव छायावादी कवियों ने ग्रहण किया। इसीलिए, उनका रहस्यवाद मध्ययुगीन संतों के रहस्यवाद की साम्प्रदायिकता से अछूता रह सका।

सुमित्रानंदन पंत के शब्दों में – ‘मध्ययुगीन संतों की तरह छायावादी कवि आत्म-ब्रह्म और आत्म-परिष्कार की खोज में न जाकर विश्वात्मा तथा विश्व-जीवन की खोज की ओर अग्रसर हुए। (छायावाद : पुनर्मूल्यांकन / सुमित्रानंदन पंत ग्रंथावली) वास्तव में, छायावादी रहस्यवाद गूढ अर्थ में किसी विशेष वाद से निर्देशित नहीं होता, न ही इसमें मध्ययुगीन रहस्यवाद की साधना की वृत्ति थी; और छायावादी कवि किसी धार्मिक मतवाद से भी प्रेरित नहीं थे। ‘अतएव ‘ डॉ.शशी मुदीराज के शब्दों में ‘छायावादी रहस्यवृत्ति को समझने के लिए इसे साम्प्रदायिक साधनापरक रहस्यवाद से अलगाना आवश्यक है, तभी इसकी यथार्थवादी मानवीय भूमिका को स्पष्ट किया जा सकेगा।’

इस तरह, हमने देखा कि महादेवी छायावादी रहस्यवाद की प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। उनमें रहस्यानुभूति के प्रत्येक चरण की अभिव्यक्ति मिलती है। वह प्रकृति-व्यापार में एक विराट सत्ता के दर्शन करती और उसके साथ रहस्यात्मक, रागात्मक संबंध स्थापित करने को आतुर रहती हैं। किंतु उन्हें यथार्थ विरोधी रहस्यलोक में ही रहे आना कभी स्वीकार नहीं हुआ। वह अपनी संवेदनाओं को शोषित-उपेक्षित वर्ग से जोड़कर चलीं। उन्होंने अपने युग की मुक्ति आकांक्षा को अपनी रहस्यानुभूति में स्थान दिया! यह मुक्ति उनके लिए नारी-मुक्ति भी थी। उनकी मुक्ति की अवधारणा इसी लोक में निर्बन्ध होने की है। महत्वपूर्ण बात यह है कि महादेवी की रहस्यानुभूति मध्ययुगीन संतों के रहस्यवाद से भिन्न है। महादेवी का रहस्यवाद मध्ययुगीन रहस्यवाद की तरह साम्प्रदायिक नहीं था, और उसके पीछे किसी धार्मिक मतवाद की प्रेरणा भी नहीं थी। यह ‘साम्प्रदायिक साधनापरक रहस्यवाद’ से अलग अनुभूति थी।

महादेवी की कविता में प्रणय की अनुभूति

प्रणय की अभिव्यक्ति को छायावादी कविता में महत्वपूर्ण स्थान मिला है। कुछ आलोचक तो समूचे छायावादी काव्य को ही ‘प्रेम काव्य ‘ की संज्ञा देते हैं। छायावाद का काव्य भारतीय नारी के नवोत्थान का काव्य था, जब वह समाज में बराबरी का दर्जा पाने के लिए संघर्ष कर रही थी, अपने पारम्परिक रूढ़िगत बंधनों को तोड़ने का यत्न कर रही थी और रथ की व्यावहारिक सहचरी बनने की दिशा में अग्रसर हो रही थी। उधर पुरुष को भी यह लगने लगा था कि स्त्री को उसके विशुद्ध रूप में समझा जाना चाहिए। स्त्री-पुरुष संबंध इस युग में अपने लिए नए आयामों की खोज करता दिखाई देता है। युगीन संशय और द्वंद्व से प्रेम की अनुभूति भी अछूती नहीं रहती।

महादेवी वर्मा के काव्य में प्रेम एक पूल भाव के रूप में प्रकट हुआ है। उनका प्रेम अशरीरी है। यह करूणा से आप्लावित प्रेम है। अलौकिक दिव्य सत्ता के प्रति उनकी इस प्रणयानुभूति में दाम्पत्य प्रेम की झलक भी मिलती है, और लौकिक स्पर्श का आभास भी। महादेवी की कविता में व्यक्त प्रेम इसलिए भी विशिष्ट है, क्योंकि यह एक स्त्री की लेखनी से किया गया स्त्री-मनोभावों का चित्रण है। उनमें स्त्रियोचित लाज-संकोच है तो अपने युग की नवजागृत नारी का अहं भी है। वह विरह की आग में तपती हैं तो संयोग की छाँह से भी स्वयं को दूर नहीं रखना चाहतीं। इस प्रकार, उन्होंने प्रणय की विविध स्थितियों का भरपूर आनंद लेते हुए अपनी कविताओं में इनका गहन चित्रण किया है। यह प्रेम वासना-रहित प्रेम है जिसमें उदात्तता का भाव प्रचुरता से मिलता है। महादेवी ने प्रेम के मधुर रूप का चयन किया है। उनका प्रेम प्राकृतिक सौंदर्य से आप्रभावित है। इस संदर्भ में, उनका स्वप्न-द्रष्टा होना भी ‘एक उल्लेखनीय विशेषता है। आइए, हम उनकी प्रणयानुभूति का व्यापक अध्ययन करें।

महादेवी वर्मा सहज प्रेम की सहज गायिका हैं। प्रणय उनकी कविता का मूल भाव है। उन्होंने प्रेम के मधुर रूप का चयन किया, क्योंकि माधुर्य को वह प्रेम का महत्वपूर्ण गुण मानती हैं। उनका कहना है –

‘हृदय के अनेक रागात्मक संबधों में माधुर्यमूलक प्रेम ही उस सामंजस्य तक पहुँच सकता है जो सब रेखाओं में रंग भर सके; सब रूपों को सजीवता दे सके और आत्म-निवेदन को इष्ट के साथ समता के धरातल पर खड़ा कर सके।’ यहाँ छायावादी साहचर्य का भाव द्रष्टव्य है। मधुरता की इस अनुभूति के दर्शन उनकी कविताओं में अनेक स्थानों पर होते हैं। उदाहरणार्थ, ये पंक्तियाँ देखिए – ‘अंधेरों से झरता स्मित पराग, / प्राणों में गूंजा नेह-राग, / सुख का बहता मलयज समीर! / धुल-धुल जाता यह हिमदुराव, / गा-गा उठते चिर मूक भाव, / आली सिहर-सिहर उठता शरीर!’

महादेवी ने प्रकृति के उपकरणों में जिस सौंदर्य के दर्शन किए, उसी से उनकी प्रणयानुभूति का उद्भव हआ और इसी विराट सौंदर्य के प्रति वह अपने प्रणयोद्गार व्यक्त करती रहीं। सौंदर्य तो प्रेम का प्रेरक होता ही है। फिर अपार, अथाह, असीम सौंदर्य किसके हृदय को प्रणय से उद्वेलित नहीं कर देगा? यह देखिए –

‘चुभते ही तेरा अरुण बान

बहते कन-कन से फूट-फूट,

मधु के निर्झर से सजल गान!

इन कनक रश्मियों में अथाह

लेता हिलोर तम-सिन्धु जाग

बुदबुद-से बह चलते अपार,

उसमें विहगों के मधुर राग।’

वह इस मधुरता, इस अथाह सौंदर्य से प्रभावित तो अवश्य होती हैं और उनमें प्रणय भावना भी हिलोर मारती है, किंतु उन्हें यह आभास नहीं होता कि उनका यह इष्ट प्रेमी है कौन –

‘कौन तुम मेरे हृदय में?

कौन मेरी कसक में नित

मधुरता भरता अलक्षित?

कौन प्यासे लोचनों में

घुमड़ घिर झरता अपरिचित?

किंतु, फिर वह यह भी कहती हैं –

‘जो न प्रिय पहचान पाती,

किसलिए पावस नयन में,

प्राण में नगतक बसाते,

दौड़ती क्यों प्रति शिरा में,

प्यास विद्युत सी तरल बन,

क्यों किसी के आगमन के, ।

शकुन स्पन्दन मैं मनाती? ‘

यह संशय व्यक्तिगत है अथवा युगीन यह समझना कठिन नहीं है।

उनमें अपने इस अलौकिक प्रिय से मिलने की अति तीव्र इच्छा है। वह कहती हैं – ‘जो तुम आ जाते एक बार! / कितनी करुणा, कितने संदेश / पथ में बिछ जाते बन पराग। / गाता प्राणों का तार-तार / अनुराग भरा उन्माद राग, / आँसू लेते वे पद पखार।’ प्रिय से मिलने की आकांक्षा में वह शृंगार भी करती हैं – ‘शशि के दर्पण में देख देख, / मैंने सुलझाए तिमिस्केश, / गूंथे चुन तारक-पारिजात, । अवगुंठन कर किरणे अशेष।’ इसी प्रकार प्रणय के अनेकानेक मनोभावों के चित्रण उनकी कविताओं में भरे पड़े हैं। वहाँ स्त्री-सुलभ लाज-संकोच के भी दर्शन होते हैं – ‘सरल तेरा मृदु हास, / अकारण यह शैशव का हास, / बन गया कब कैसे चुपचाप, / लाज-भीनी सी मृदु मुस्कान!’ तो नारी के छायावाद युगीन अभिमानी रूप की अभिव्यंजना भी मिलती है – ‘कब दिवस का अग्निशर | मेरी सजलता बेध पाया, / तारकों ने मुकुट बन / दिग्भ्रान्त कब मुझको बनाया? / ले गगन का दर्प रज में उतार सहज निखर चली मैं!’

महादेवी की कविता में रहस्य भावना की चर्चा में हम उनकी प्रणयानुभूति के अनेक चरणों के विषय में जान चुके हैं क्योंकि उन्होंने उस दिव्य-विराट पुरुष को अपना प्रेम-इष्ट मान कर उसके साथ माधुर्यमूलक रागात्मक संबंध की स्थापना की है। इसलिए उनकी प्रेमानुभूति और रहस्यानुभूति दोनों एक-दूसरे में रच-बस गई हैं। यह रागात्मक संबंध इतनी गहनता और प्रगाढ़ता लेकर उपस्थित होता है कि उसमें दाम्पत्य प्रेम का संकेत मिलता है, जो स्वयं में प्रणय की पूर्णता का ही द्योतक है। डॉ.रामकुमार वर्मा का इस संबंध में यह विचार है कि ‘इस प्रेम की चरम अभिव्यक्ति दाम्पत्य प्रेम में है। अन्य प्रकार का प्रेम किसी न किसी परिस्थिति में अपूर्ण है।…..आत्म-समर्पण की भावना दाम्पत्य प्रेम में फलीभूत होती है. .इस प्रेम के आलोक में करुण से करुण, भावनाएँ भी एक अनिवर्चनीय उल्लास से ओत-प्रोत रहती हैं।’ (आधुनिक कवि)

उपर्युक्त उल्लास के उदाहरण महादेवी की कविता में कम नहीं हैं। ऐसे दो उद्धरण हम यहाँ देखते हैं – (क) ‘रोम-रोम में नन्दन पुलकित, / साँस-साँस में जीवन शत-शत, / स्वप्न-स्वप्न में विश्व अपरिचित’; और (ख) ‘इन श्वासों का इतिहास / ऑकते युग बीते, / रोमों में भर भर पुलक / लौटते पल रीते।’

अन्य छायावादी कवियों के समान महादेवी वर्मा भी स्वप्न-द्रष्टा हैं। यथार्थ में मिलन न होने पर भी वह स्वप्न में अपनी अतृप्त इच्छाओं की पूर्ति कर लेती हैं। उन्होंने स्वप्न के माध्यम से अनेक गीतों में अपनी प्रणयानुभूति को व्यक्त किया है। ऐसा ही एक उदाहरण देखिए – ‘पल भर का वह स्वप्न तुम्हारी । युग-युग की पहचान बन गया।’ किंतु, वह सपनों के मिलन को भ्रम अथवा मिथ्या कल्पना नहीं मानतीं, उनके निकट सपने का मिलन भी यथार्थ है। वह कहती हैं – ‘कैसे कहती हो सपना है, । अलि! उस मूक मिलन की बात? / भरे हुए अब तक फूलों में / मेरे आँसू उनके हास!’

प्रेम कितना भी गहन, तीव्र, प्रगाढ़, निश्छल और माधुर्यमूलक हो, विरह की अपरिहार्यता तो संभावित रहती ही है। संपूर्ण जीवन को ‘विरह का जलजात’ मान लेने वाली महादेवी ने निश्चय ही विरह की व्यथा को साक्षात् भोगा होगा। इस विचार के समर्थन में हम शचीरानी गुर्टू का यह कथन यहाँ उद्धृत करना चाहेंगे – ‘ यौवन के तूफानी क्षणों में जब उनका अल्हड़ हृदय किसी प्रणयी के स्वागत के लिए मचल रहा था और जीवन गगन के रक्ताभ पट पर स्नेह-ज्योत्सना छिटकी पड़ रही थी तभी अकस्मात विफल प्रेम की धूप खिलखिला पड़ी और पुलकते प्राणों में धूमिलिका अस्पष्ट रेखाएँ-सी अंकित कर गई।’ प्रसंगवश, महादेवी के दो काव्य संकलनों – ‘नीहार’ ; और ‘नीरजा’ में उनकी पूर्ण प्रणय कथा के संकेत मिलते हैं। हम चाहेंगे कि विद्यार्थी इन संकलनों को पढ़कर स्वयं इन संकेतों का अन्वेषण करें।

यहाँ द्रष्टव्य है कि विरह की स्थिति वेदना को जन्म देती है। महादेवी की काव्य संवेदना पर केंद्रित इस इकाई में हम उनके वेदना भाव का विस्तृत विवेचन प्रस्तुत कर चुके हैं। यहाँ हम रामचन्द्र शुक्ल के इस कथन के साथ इस विमर्श का समापन करेंगे, जो उन्होंने महादेवी की विरह वेदना के संबंध में रखा है। रामचन्द्र शुक्ल के विचार में, विरह की ‘इस वेदना को लेकर उन्होंने (महादेवी) हृदय की ऐसी अनुभूतियाँ सामने रखी हैं जो लोकोत्तर हैं। कहाँ तक अनुभूतियों की रमणीय कल्पना है यह नहीं कहा जा सकता।’ और, उधर नवल किशोर गौड़ लिखते हैं कि ‘ जिसके विरह में वे (महादेवी) तिलतिल कर जल रही हैं, उनका वह प्रियतम न तो भौतिक जगत का साकार व्यक्ति है और न परोक्ष सत्ता का सगुण स्वरूप – वह कुछ ऐसा अविज्ञेय और रहस्यपूर्ण है कि उसे. निराकार परोक्ष सत्ता का प्रतीक मान लिया गया है।

किंतु, इस समस्त किंतु-परंतु के बावजूद हमें यह कहना ही होगा कि अमुभूतियों की बेईमानी अथवा कृत्रिमता के सहारे इतनी सुंदर तथा उदात्ततापूर्ण, व्यापक रचना सृष्टि संभव नहीं है। महादेवी की प्रणयानुभूति ने जो रचनाएँ दी हैं, वे निस्संदेह हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं।

इस प्रकार हमने देखा कि प्रणय छायावादी कविता का एक महत्वपूर्ण अंग है। महादेवी वर्मा के काव्य का यह एक मूल भाव है। महादेवी की कविता में प्रणय की सभी स्थितियों का चित्रण मिलता है। उनका प्रेम अशरीरी है, किंतु उसमें लौकिक प्रणय की अभिव्यंजना हुई है। उनके प्रणय का इष्ट वह दिव्य परम पुरुष है। उनके प्रेम का उद्गम प्रकृति में है, जिसके विराट सौंदर्य से प्रभावित हो वह उसकी ओर आकर्षित होती हैं और माधुर्यमूलक प्रेम में खो जाती हैं। वह आत्म-समर्पण भी करती हैं, और अपने अभिमान को भी तिरोहित नहीं करतीं। उनमें स्त्री-सुलभ लाज-संकोच भी है तो अपनी लघुता के प्रति गर्वानुभूति भी। विरह की वेदना में तो वह आकंठ डूबी हुई हैं। कुल मिलाकर उनका प्रणय व्यापार एक महारास का रूप ले लेता है और उसमें रहस्यात्मकता आ जाती है। उनकी कविताओं में प्रणय की अभिव्यंजना अनुपम और अनूठी है।

महादेवी की कविता में सौंदर्य चित्रण

उपर्युक्त अंशों में हमने महादेवी वर्मा की समग्र काव्य संवेदना, उनकी कविता में विद्यमान वेदना भाव, रहस्य भावना और प्रणयानुभूति जैसे तत्वों पर विचार किया। प्रस्तुत अंश में हम महादेवी वर्मा की कविता में सौंदर्य चित्रण की विशेषताओं को रेखांकित करेंगे। उनकी कविता में सौंदर्य के विविध रूपों का मनोहर चित्रण हुआ है। सौंदर्य भावना भी छायावाद की एक प्रमुख प्रवृत्ति थी। महादेवी ने न केवल इसे अंगीकार किया, अपितु अपने काव्य में इसे महत्वपूर्ण, चित्ताकर्षक रूपाकार देकर समाहित भी किया। उन्होंने सौंदर्य के सूक्ष्म रूप को प्रतिष्ठित और चित्रित किया हैउनकी सौंदर्य दृष्टि प्रकृति और मानव दोनों की ओर आकृष्ट होती है।

‘सौंदर्य की उदभाविका’ महादेवी वर्मा सौंदर्य की अद्भुत चितेरी हैं। उन्होंने अखिल ब्रह्माण्ड में सौंदर्य के दर्शन किए हैं और इस अनुभूति से गुज़रते हुए. उन्होंने इसके विविध रूपों का चित्रांकन अपनी लेखनी से किया है। उनका काव्य सौंदर्य की खान है और उनके गीतों में सौंदर्य के विविध रूपों की छवियाँ बिखरी पड़ी हैं। यहाँ उनकी सौंदर्यानुभूति की व्यापकता को समेटना संभव नहीं होगा और न ही यह हमारा अभीष्ट है। यहाँ हम महादेवी वर्मा के काव्य में प्राप्त उस विराट सत्ता, प्रकृति और नारी के सौंदर्य पर ही दृष्टिपात करेंगे।

महादेवी ने सर्वत्र एक विराट सत्ता के दर्शन किए हैं। इसी अरूप पुरुष का दिव्य सौंदर्य उन्हें आकृष्ट करता है और वे उसी. के चिस्-सौंदर्य से प्रभावित होकर उसका गुणगान करती हैं। यह सौंदर्य उन्हें प्रकृति के प्रत्येक उपकरण, प्रत्येक उपादान में दिखाई देता है। इसलिए प्रकृति की सुषमा का वर्णन उनके संदर्भ में एक परम प्रिय के सौंदर्य का वर्णन ही है। इसीलिए उनकी सौंदर्यानुभूति में रहस्यात्मकता की उपस्थिति दिखाई देती है।

यहाँ प्रसंगवश हमें यह समझ लेना होगा कि छायावाद का जन्म जिन कारणों से हुआ उनमें एक प्रमुख कारण यह था कि छायावादी दृष्टि ने मनुष्य और प्रकृति के बीच औद्योगिक-व्यावसायिक संबंध का विरोध किया। मनुष्य की औद्योगिक वैज्ञानिक प्रगति को छायावाद ने प्रकृति पर मनुष्य की विजय घोषित करने का विरोध किया। प्रकृति के प्रति छायावादी दृष्टि, कौतूहल और रागात्मकता से भरी रही। स्वयं महादेवी कहती हैं – ‘छायावाद ने मनुष्य के हृदय और प्रकृति के उस संबंध में प्राण डाल दिए, जो प्राचीन काल से बिम्ब-प्रतिबिम्ब के रूप में चला आ रहा था और जिसके कारण मनुष्य को अपने दुःख में प्रकृति उदास और सुख में पुलकित जान पड़ती थी। छायावाद की प्रकृति घट, कूप आदि में भरे जल की एकरूपता के समान अनेक रूपों में प्रकट एक महाप्राण बन गई, अतः अब मनुष्य के अश्रु, मेघ के जलकण और पृथ्वी के ओस-बिंदुओं का एक ही कारण, एक ही मूल्य है। प्रकृति के लघु तृण और महान वृक्ष, कोमल कलियाँ और कठोर शिलाएँ, अस्थिर जल और स्थिर पर्वत, निविड़ अंधकार और उज्ज्वल विद्युत रेखा, मानव की लघुता-विशालता, कोमलता-कठोरता, चंचलता-निश्चलता और मोह-ज्ञान का केवल प्रतिबिम्ब न होकर एक ही विराट से उत्पन्न सहोदर हैं।’

महादेवी क्योंकि प्रकृति के समस्त उपकरणों, समस्त व्यापारों में उस दिव्य सौंदर्य के हो दर्शन करती हैं, इसलिए उन्होंने प्रकृति के सभी उपादानों, सभी रूपों का चित्रण अपनी कविताओं में किया है। यह हम कुछ उदाहरण देंगे, और विद्यार्थियों से आग्रह करेंगे कि वे महादेवी की कविताओं में प्रकृति-सौंदर्य चित्रण के अन्य उदाहरणों को खोजें और उनका आनंद लें :

धीरे-धीरे उतर क्षितिज से

आ वसन्त रजनी!

तारकमय नव वेणी-बन्धन,

शीशफूल कर शशि का नूतन

रश्मि वलय, सित घन अवगुंठन

मुक्ताहल अभिराम बिछा दे चितवन से अपनी

‘दिशा का चंचल

परिमल अंचल चित्रहार से बिखर पड़े ससि

जुगनू के लघु हीरक के कण!’

‘विधु की चाँदी की थाली ।

मादक मकरंद भरी सी ।

जिसमें उजियारी रातें

लुटती छलती मिसरी सी।’

हँस देता जष प्रात, सुनहरे

अंचल में बिखरा रोली।।

लहरों की बिछलन पर जब

मचली पड़ती किरणें भोलीं।।

तब कलियाँ चुपचाप उठा कर पल्लवों के बूंघट सुकुमार,

छलकी पलकों से कहती हैं कितना मादक है संसार!

प्रकृति के उपर्युक्त मनोहर रूपों के अतिरिक्त महादेवी की कविताओं में हमें प्रकृति का उग्र, शुष्क रूप भी देखने को मिलता है :

‘घोर तम छाया चारों ओर,

घटाएँ घिर आई घन घोर

वेग मासत का है प्रतिकूल,

हिले जाते हैं पर्वत-मूल,

गरजता सागर बारम्बार..

बह गई क्षितिज की रेखा

मिलती है कहीं न हेरे,

भूला सा मत्त समीरण

पागल-सा देता फेरे!

 ‘मर्मर का रोदन कहता है

कितना निष्ठुर है संसार?’

किंतु, महादेवी क्योंकि प्रकृति के प्रत्येक उपकरण, प्रत्येक रूप में उस दिव्य पुरुष के सौंदर्य के ही दर्शन करती हैं, इसलिए प्रकृति का कोई भी रूप उन्हें विचलित नहीं करता। उन्हीं के अनुसार – ‘प्रकृति का शांत रूप जैसे मेरे हृदय में एक चंचल लय-सी भर देता है, उसका रौद्र रूप वैसे ही आत्मा को प्रशांत स्थिरता देता है। अस्थिर रौद्रता की प्रतिक्रिया ही संभवतः मेरी एकाग्रता का कारण रहती है मेरे निकट आँधी, तूफान, बादल, समुद्र आदि कुछ ऐसे विषय हैं जिनके चित्र अनायास बनते हैं और बना लेने पर स्थायी आनंद प्राप्त होता है।’

महादेवी ने अपनी व्यक्तिगत प्रणयानुभूति और वेदनानुभूति की अभिव्यक्ति के लिए भी प्रकृति का सहारा लिया। जो कुछ वह सीधे-सीधे अप्रत्यक्ष रूप में नहीं कह सकती थीं, प्रकृति का आवरण ले लेने पर वही सब कुछ वह अत्यंत सहज, सरल ढंग से कह जाती हैं। कुछ उदाहरण देखिए :

 ‘उड़ उड़ कर जो धूल करेगी

मेघों का नभ में अभिषेक

अमिट रहेगी उसके अंचल

में मेरी पीड़ा की रेख।’

‘चिर विरह-मिलन पुलिनों की ।

सरिता हो मेरा जीवन

प्रतिपल होता रहता हो

युग-कूलों का आलिंगन।’

‘तुम्हें बाँध पाती सपने में

पावस घन सी उमड़ बिखरती

शरद निशा-सी नीरव घिरती।’

छायावादी कवियों के प्रकृति चित्रण की एक अनूठी विशेषता यह रही कि उन्होंने प्रकृति पर नारी रूप का आरोपण किया। वह चाहे प्रसाद हों, सुमित्रानंदन पंत, या फिर निराला – सभी प्रकृति की सुंदरता में किसी स्त्री स्वरूप की कल्पना करते हैं। निराला ने स्वीकार भी किया है कि ‘कोमलता लाने के लिए स्त्री स्वरूप की कल्पना से बढ़ कर और कौन-सी कल्पना होगी।’ महादेवी वर्मा भी इसका अपवाद नहीं हैं। बल्कि छायावाद युग में स्त्री की नव प्राप्त छवि और स्वतंत्रता से प्रेरित होकर, स्वयं स्त्री होने के नाते महादेवी ने नारी-मुक्ति की चेतना को कहीं अधिक सुंदर ढंग से व्यक्त किया है। महादेवी ने जो रूपक बाँधे हैं, उनमें अधिकतर प्रकृति पर नारी रूप का आरोपण ही मिलता है –

‘रूपसि तेरा घन केशपाश,

कंपित हैं तेरे सजल अंग,

सिहरा सा तन है सद्यःस्नात।

भीगी अलकों के छोरों से चूती बूंदें कर विविध लास।

सौरभ भीना झीना गीला लिपटा मृदु अंजन-सा दुकूल।

चल अंचल से झर-झर झरते पथ में जुगनू के स्वर्ण।

‘ एक और उदाहरण देखिए –

‘चौंकी निद्रित रजनी अलसित

श्यामल पुलकित कंपित कर में |

दमक उठे विद्युत के कंकण।’

कुछ आलोचक ‘सादृश्य ‘ अथवा ‘साम्य’ (एनालॉजी) को छायावादी प्रकृति चित्रण की विशिष्टता मानते हैं। उपर्युक्त उद्धरणों में हम इसके उदाहरण देख सकते हैं।

छायावादी सोच में नारी एक नए रूप में अवतरित हो रही थी। जैसा कि शकुन्तला सिंह ने लिखा है ‘द्विवेदी काल की बहिष्कृत नारी अब तक करुण क्रन्दन ही कर रही थी। छायावाद के लिए वह तीव्र आकर्षण का केंट बन गई। छायावादी कवियों ने उस रूठी हुई देवी को मनाया तो ज़रुर, पर वे उसे अपने जीवन-मंदिर में प्रतिष्ठा 7 कर सके। वे उसे कल्पना के पंखों पर उड़ा कर लाए, और व्योम-कुंजों में ही उसके साथ विहार करने लगे। अतः जरा अनिंद्य संदरी की हमें झाँकी ही मिल सकी; उसके स्वरूप, माँसल सौंदर्य के दर्शन हमें नहीं प्राप्त हुए। यदि वह कभी पृथ्वी पर उतरी भी तो नए वैभव और नूतन सौंदर्य से दीप्त होकर।’ महादेवी ने भी स्त्री के आंतरिक सूक्ष्म सौंदर्य का चित्रण किया है। वह स्थूल चित्रांकन से बचती हैं। तदपि उनकी कविताओं में रूप को शब्द मिले हैं, उसके विभिन्न अंगों, विभिन्न भंगिमाओं का चित्रण हुआ है। वह वयःसंधि के विशिष्ट सौंदर्य का भी चित्रण करती हैं –

‘सजनी तेरे दृग बाल |

चकित से विस्मित से दृग बाल /

आज खोए से आते लौट |

कहाँ अपनी चंचलता हाट? |

झुकी जाती पलकें सुकुमार |

कौन से नव रहस्य के भार ? ‘

वह अबोध बाला को लोभी प्रेमी के बहकावे में आने पर झिड़कती भी हैं –

‘पंकज कली!….. /

किस मलय सुरभित अंक रह /

आया विदेशी गंधवह? |

उन्मुक्त उर अस्तित्व खो |

क्यों तू उसे भुज भर मिली?’

इन अंतिम पंक्तियों में सांकेतिकता के माध्यम से प्रणय के सांयोगिक सौंदर्य की झाँकी मिलती है।

इस प्रकार हमने देखा कि महादेवी सौंदर्य की उद्भाविका हैं। उनके काव्य में दिव्य पुरुष, प्रकृति, नारी के माध्यम से सौंदर्य को अभिव्यक्ति मिली है। उनकी कविताओं में चित्रित सौंदर्य स्थूल न होकर सूक्ष्म और आंतरिक सौंदर्य है।

सारांश

इस इकाई में हमने महादेवी की काव्य संवेदना से आपका परिचय करवाया। आपने देखा कि छायावाद की एक प्रतिनिधि हस्ताक्षर महादेवी वर्मा अपने युगीन यथार्थ से संवेदना के धरातल पर किस प्रकार प्रभावित होती हैं और अपने काव्य में इसे किस प्रकार अभिव्यक्त करती हैं। हमने महादेवी की कविता में वेदना भाव पर चर्चा की और उसके विविध रूपों से साक्षात्कार भी किया। फिर हमने महादेवी की कविता में स्थान पाने वाली रहस्य भावना पर विमर्श किया और समझा कि वह छायावादी रहस्यवाद की प्रतिनिधि हस्ताक्षर क्यों कही जाती हैं। इस संदर्भ में हमने यह भी पढ़ा कि उन्होंने छायावाद युगीन मुक्ति-आकांक्षा को किस प्रकार अपनी कविता में, अपनी रहस्यानुभूति में स्थान दिया। हमने यह भी समझा कि महादेवी का छायावादी रहस्यवाद किस प्रकार, मध्ययुगीन संतों के रहस्यवाद से भिन्न है, क्योंकि वह मध्ययुगीन रहस्यवाद की तरह किसी मतवाद अथवा साम्प्रदायिकता से प्रेरित होकर नहीं चलता। महादेवी की प्रणयानुभूति वाले अंश में हमने विराट पुरुष के प्रति महादेवी के माधुर्यमूलक प्रेम के दर्शन किए और उसके विविध रूपों को देखा। अंत में हमने महादेवी वर्मा की कविता में सौंदर्य चित्रण पर चर्चा की। हमने देखा कि उनके काव्य में दिव्य पुरुष, प्रकृति और नारी के माध्यम से सौंदर्य का चित्रण हुआ है। आशा है, इस इकाई को पढ़ने के बाद आपके समक्ष महादेवी वर्मा की काव्य संवेदना का स्वरूप स्पष्ट हो गया होगा।

प्रश्न

महादेवी की प्रणयानुभूति की मुख्य विशेषताओं को स्पष्ट करें। … ‘वेदना महादेवी के काव्य का स्थायी भाव है।’ इस कथन की व्याख्या करें। … महादेवी के काव्य में व्यक्त रहस्यवाद के स्वरूप को स्पष्ट करें। … . ‘महादेवी के काव्य में प्रकति’ विषय पर एक निबंध लिखें। 

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