महादेवी वर्मा की प्रतीक योजना

इस इकाई में हम आपको महादेवी वर्मा की प्रतीक योजना के विषय में बताएँगे, जिसे पढ़ने के बाद आप यह समझ सकेंगे कि प्रतीक का क्या अर्थ होता है और इसे किस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है। आपको इस इकाई में यह भी समझने का अवसर मिलेगा कि प्रतीक की आवश्यकता सामान्य रूप से साहित्य में क्यों पड़ती है। महादेवी वर्मा के संदर्भ में प्रतीक क्यों आवश्यक रहे हम इसकी भी जानकारी प्राप्त करेंगे। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप महादेवी वर्मा के काव्य में आए विभिन्न प्रतीकों, उनके वर्गीकरण, उनके विविध रूपों का विवेचन कर पाएँगे। आप यह भी बता पाएँगे कि महादेवी वर्मा ने अपनी कविताओं में किन प्रतीकों का अपेक्षाकृत अधिक प्रयोग किया है।

पिछली इकाई में हमने महादेवी वर्मा की काव्य संवदेना के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त की। उस इकाई में हमने छायावाद युगीन पृष्ठभूमि में महादेवी वर्मा की रचनाओं में प्राप्त भावगत सौंदर्य पर दृष्टिपात किया। हमने उनके कवि-दार्शनिक रूप को देखा और उनकी कविताओं में उनकी आध्यात्मिक जीवनदृष्टि के दर्शन किए। हमने महादेवी के काव्य में प्रणय-भाव और सौंदर्यानुभूति का अनुशीलन करते हुए उनके समग्र काव्य लोक की विस्तृत विवेचना की। हमने इन अनुभूतियों से संबंधित उदाहरणों में देखा कि महादेवी वर्मा कतिपय कारणों से अपने भावों को अप्रत्यक्ष रूप में अभिव्यक्ति देती हैं। इसके लिए उन्होंने विभिन्न प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष आलम्बनों का सहारा लिया। इस इकाई में हम इन्हीं प्रतीकों का विधिवत, विशद अध्ययन करेंगे।

सबसे पहले हम प्रतीक के अर्थ को समझने का प्रयास करेंगे। प्रतीक क्या होता है। हम इसकी व्याख्या करेंगे। हम यह भी देखेंगे कि विभिन्न विद्वानों ने प्रतीक को किस प्रकार परिभाषित किया है। हम प्रतीक की परंपरा पर भी सरसरी दृष्टि डालेंगे।

प्रतीक का अर्थ, इसकी परिभाषा समझने के बाद हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि साहित्य रचना में प्रतीक की आवश्यकता क्यों होती है। इसकी उपस्थिति-अनुपस्थिति किसी कृति अथवा पंक्ति में क्या महत्वपूर्ण अंतर उत्पन्न कर सकती है? हम प्रतीक की सामान्य आवश्यकता का आकलन करने के साथ, महादेवी वर्मा के संदर्भ में भी इस बिंदु पर विचार करेंगे। हम देखेंगे कि महादेवी के काव्य में प्रतीकों की प्रचुरता का क्या कारण है।

महादेवी वर्मा में प्रतीक की आयोजना के महत्वपूर्ण तत्वों पर प्रकाश डालते हुए, इस इकाई में हम उनकी कविताओं में प्राप्त प्रतीकों के विभिन्न वर्गों तथा रूपों का विवेचन करेंगे। महादेवी वर्मा ने कुछ प्रतीकों का बार-बार प्रयोग किया है, कुछ प्रतीकों से उनका विशेष लगाव रहा है, हम इन प्रतीकों का अलग-अलग अध्ययन करेंगे। आइए, हम प्रतीक के विषय में जानें।

प्रतीक : अर्थ और उसकी परंपरा

शब्द दो प्रकार के होते हैं : 

  • वाचक शब्द, और 
  • प्रतीकात्मक शब्द|

वाचक शब्दों का संबंध केवल अभिधा शक्ति से होता है, जबकि प्रतीकात्मक शब्दों का संबंध लक्षणा और व्यंजना से होता है। स्पष्ट है, कविता में सौंदर्य की निर्मिति हेतु प्रतीकात्मक शब्द विशेष महत्व रखते हैं। प्रतीकात्मक शब्द वस्तुतः ऐसे शब्द होते हैं जो मूल से भिन्न होते हुए भी उसका बोध कराते हैं। प्रतीक ऐसे शब्द होते हैं जो सूक्ष्म, अमूर्त अथवा अप्रत्यक्ष भाव को स्पष्ट, मूर्त और प्रत्यक्ष कर देते हैं। उदाहरण के लिए, महादेवी वर्मा से ही एक उद्धरण लीजिए – ‘मधुर-मधुर मेरे दीपक जल’। यहाँ दीपक का प्रयोग कवयित्री ने प्रतीक के रूप में किया है और उसका अर्थ यहां साधारण प्रकाश स्रोत न होकर ‘जीवन’ है। प्रतीक की कुछ परिभाषाएँ देखिए :

‘एक शब्द में ही अनेकानेक भावों को अभिव्यक्ति प्रतीक का निर्माण करती है।’ (डॉ० रामकुमार वर्मा) ‘प्रतीक वह संकेतात्मक चिह्न है जो किसी गूढ़ एवं सूक्ष्म भाव या विचार का अर्थ प्रतिपादन करने के लिए स्वेच्छापूर्वक या परंपरागत रूप में प्रयुक्त होता है।’ (कृष्णकुमार गोस्वामी) ‘प्रतीक भाषा की बहुत बड़ी शक्ति है। जब भी भाषा अपनी अनुभूतियों के प्रकाशन में अपने आपको असमर्थ पाती है तब प्रतीक ही इस अभाव की पूर्ति में सक्षम होते हैं।’ (डॉ0 मनोरमा शर्मा)

‘केवल मानव के प्रत्यक्ष तथा कल्पना के क्षेत्र में आने वाले विचारों, भावों और अनुभूतियों के दृश्य या श्रव्य संकेत या चिह्न प्रतीक कहलाते हैं । (एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन ऐंड एथिक्स) प्रतीक की पंरपरा भी कोई नई नहीं है। पाश्चात्य प्रतीकवादियों की यह मान्यता थी कि ‘तुच्छ दैनिक वस्तुओं का यथावत चित्रण’ नहीं करके यदि उन्हें प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत किया जाए तो इस प्रकार उन्हें महत्ता प्रदान की जा सकती है। फ्रांस में उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में और इंगलैंड में बीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों में प्रतीकवाद अत्यधिक प्रचलन में रहा। फ्रांस में नहीं बोदलेयर से मॉलार्मे तक इसकी परंपरा गई, वहीं इंग्लैंड में जॉर्ज मूर, ऑस्कर वाइल्ड, एमंड गौस और ऐट्स ने प्रतीक को साहित्य में प्रतिष्ठित स्थान दिया।

हमारे यहां भी प्रतीकों का प्रयोग अत्यंत प्राचीन काल से होता रहा है। भारतीय साहित्य में प्रतीक विधान की परंपरा बहुत पहले से मिलती है। साहित्य मनीषी वैदिक साहित्य और उपनिषद काल की रचनाओं में प्रतीकों की उपस्थिति बताते हैं। इसके अतिरिक्त महाभारत, पुराण, नागपंथी हठयोगियों की बानियों, अमीर खुसरों की मुकरियों, तथा विद्यापति, सूर, कबीर, निराला और प्रसाद तक में प्रतीकों का प्रयोग देखने को मिलता है। किंतु, यहां उल्लेखनीय बात यह है कि भारतीय साहित्य में प्रतीक प्रयोग को मात्र एक साधन माना गया, साध्य नहीं।

महादेवी में आकर प्रतीक को एक सिद्ध शिल्पी मिला। महादेवी ने माया के लिए ‘दर्पण’ और आत्मा के लिए ‘दीपक’ जैसे प्रकृति से इतर प्रतीकों का प्रयोग किया। आगे हम महादेवी की प्रतीक योजना का विस्तार से अध्ययन करेंगे।

प्रतीक की आवश्यकता

कवि कल्पना-प्रधान जीव होता है। वह सौंदर्य का उपासक होता है और उसको अपनी रचनाओं में अत्यंत सुंदर रूप में प्रस्तुत भी करना चाहता है। इसीलिए वह उन शब्दों का सहारा लेता है जिनसे वह अपने भावों को संक्षेप में व्यक्त भी कर दे और उनमें सुंदरता भी ला सके।

काव्य-रचना को सुंदर बनाने हेतु कवि शब्दों का प्रयोग उनके परंपरागत रूढ अर्थों में न करके उन्हें विशिष्ट अर्थ से युक्त करता है। वह प्रत्यक्ष को अप्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष रूप में प्रस्तुत करके अपनी कविता को अतिरिक्त सौंदर्य प्रदान करता है। आर.एल.ब्रेट के अनुसार ‘कविता में सूक्ष्म सौंदर्य या उसकी अनुभूति को व्यक्त करने में प्रतीकों का अवतरण अनिवार्य होता है। कभी-कभी किसी रहस्यानुभूति को मूर्त रूप देकर उसे बोधगम्य बनाने के लिए भी कवि को प्रतीक का सहारा लेना पड़ता है और कभी प्रणय जैसी संवेदनशील, नाजुक विषय-वस्तु को अभिव्यक्त करने के लिए भी कवि संकोचवश प्रतीक की शरण में जाता है। जयशंकर प्रसाद इस संदर्भ में कहते हैं – ‘सौंदर्य-बोध की दृष्टि से ही प्रतीक महत्वपूर्ण नहीं हैं, अपितु उनका उपयोगितावादी पक्ष भी है।’

महादेवी के संदर्भ में जब हम प्रतीक के प्रयोजन, उसकी आवश्यकता पर विचार करते हैं तो हमें इस तथ्य को ध्यान में रखना होता है कि वह छायावादी युग की देन है। यह वास्तविकता है कि नई प्रतीकवादी कविता का श्रीगणेश छायावाद से हुआ। छायावाद की संवेदनीयता, रागात्मकता और रहस्यानुभूति तो प्रतीक के प्रयोग के लिए एक आदर्श भूमि प्रस्तुत करते हैं और महादेवी से अधिक ये विशेषताएँ और किसके काव्य में प्राप्त होती है? महादेवी का एक संवेदनशील व्यक्ति, विशेषकर स्त्री होना उनके लिए प्रतीक के प्रयोग को और भी आवश्यक बना देता है। अपने परम पुरुष के प्रति प्रेम निवेदन में उन्होंने प्रतीकों का ही सहारा लिया है। प्रकृति में हर कहीं उस विराट सत्ता के दर्शन करने वाली महादेवी अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए प्रकृति से ही प्रतीक उठाने को बाध्य होती हैं। इनका काव्य रहस्यानुभूति से आप्लावित है।

रहस्य का आवरण लेने वाले के लिए प्रतीक अनिवार्य हो जाते हैं। सौंदर्य की उद्भाविका महादेवी को जब सौंदर्य-चित्रण करना होता है तो प्रतीक उनके लिए एक आवश्यक उपकरण बन जाता है। डॉ0 मनोरमा शर्मा के अनुसार महादेवी के संदर्भ में प्रतीक कुंठाओं के उन्नयन और उदात्तीकरण में सहायक हुए हैं। यहां यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि संकोच की प्रवृत्ति के कारण भी महादेवी वर्मा को प्रतीकों का सहारा लेना पड़ा। सुमित्रानंदन पंत के शब्दों में – ‘नारी मन का सहज संकोच और तत्कालीन सामाजिक परिस्थिति की पृष्ठभूमि में नारी जीवन की सीमा ने ही महादेवी को मध्ययुगीन रहस्यवाद की ओर उन्मुख किया है।’ इसीलिए, वे प्रेमपरक प्रतीकों का प्रयोग करने की ओर प्रवृत्त होती हैं। अज्ञेय ने ‘पुष्करिणी’ की भूमिका में लिखा है कि ‘महादेवी जी में प्रसाद की भांति एक संकोच है …. संकोच ……. उन्हें भी प्रतीकों का आश्रय लेने को बाध्य करता है।’

महादेवी वर्मा के काव्य में प्रतीक योजना

उपर्युक्त अंशों में हमने प्रतीक का अर्थ, उसकी परिभाषा और परंपरा को समझने का प्रयास किया। हमने यह भी समझा कि प्रतीक की आवश्यकता सामान्य स्तर पर और विशेषकर महादेवी के संदर्भ में क्यों प्रस्तुत होती है। महादेवी ने प्रतीकों का आश्रय क्यों लिया है? इस प्रश्न का उत्तर जानने की हमने कोशिश की। अब हम महादेवी वर्मा के काव्य में प्रतीक-योजना का विवेचन करेंगे।

ऊपर हम पढ़ चुके हैं कि छायावाद का युग आधुनिक प्रतीकवादी कविता के आरंभ का युग था। इस काल के सभी प्रमुख कवियों ने प्रतीकों का अत्यंत सुंदर और सार्थक उपयोग किया। महादेवी वर्मा का इनमें विशिष्ट स्थान है। महादेवी ने प्रतीक को एक नया आयाम दिया। इस संदर्भ में डॉ० चन्द्रकला का कथन उल्लेखनीय है – ‘हिंदी साहित्य के शिल्पी, प्रतीकवाद के कवि प्रसाद, पंत, निराला अपनी कला से उसका शृंगार कर रहे थे, पूजा आरती का सामान लिए महादेवी दीप जलाने आ पहँची।’ (आधुनिक हिंदी काव्य में प्रतीकवाद) महादेवी का दृष्टिकोण आध्यात्मिक होने के बावजूद उनके प्रतीक इस प्रकार चुने गए हैं कि उनसे अभिप्रेत व्यंजना में कोई बाधा नहीं होती।

डॉ० गणपति चन्द्र-गुप्त,यह मानते हैं कि ‘महादेवी की अनुभूति आध्यात्मिक है, पर अभिव्यक्ति लौकिक है अर्थात लौकिक प्रतीकों के माध्यम से अलौकिक अनुभूति को व्यक्त किया गया है, अतः प्रतीकों की योजना सहज स्वाभाविक रूप में हो गई है।’- उदाहरण के लिए, ये पंक्तियाँ देखिए –

‘क्षितिजकारा तोड़कर अब/

गा उठी उन्मत्त आँधी,/

अब घटाओं में न सकती/

लास-तन्मय तड़ित बांधी,/

धूलि की इस वीणा पर मैं तार हर तृण का मिला लूं।’ दीपशिखा संकलन से ली गई इन पंक्तियों में महादेवी ने अपने परिवेश से प्रतीक उठाकर अपनी अलौकिक अनुभूति को सफल अभिव्यक्ति दी है। यहाँ ‘धूल की इस वीणा’ का अर्थ मनुष्य की यह माटीरूपी काया है।

महादेवी वर्मा प्रकृति प्रेमी होने के कारण अपने प्रतीक भी प्रकृति से ही उठाती हैं। उन्होंने प्रकृति के प्रत्येक उपकरण, प्रत्येक उपादान, प्रत्येक व्यापार में उस विराट सत्ता के दर्शन किए हैं। रहस्य तथा प्रणय के संकेतों से भरकर प्रकृति उनके समक्ष प्रस्तुत होती है और वह अपनी सूक्ष्म अनुभूतियों को व्यंजित करने हेतु प्रकृति से लिए गए प्रतीकों का प्रयोग करती हैं। पिछली इकाई में हमने महादेवी वर्मा की रहस्यानुभूति तथा प्रणयानुभूति के विभिन्न चरणों के और सौंदर्य चित्रण के उदाहरण देखे। उन उदाहरणों को यदि आप प्रतीकात्मकता की दृष्टि से दोबारा पढ़ें तो आपको उनमें ऐसे प्रतीकों की भरमार मिलेगी जिन्हें प्रकृति से लिया गया है।

एक स्थान पर वह कहती हैं – ‘जिसको पथ शूलों का भय हो/ वह खोजे नित निर्जन गह्वर।’ यहाँ ‘शूलों’ से उनका अभिप्राय मनुष्य के जीवन में आने वाली विभिन्न प्रकार की ‘रूकावटों’ अथवा ‘बाधाओं से है। प्रणय की पुलक को व्यक्त करते हुए जब वे कहती हैं –

‘अधरों से झरता स्मित पराग।

प्राणों में गूंजा नेह-राग,/

सुख का बहता मलयज समीर!/

घुल-धुल जाता यह हिम-दुराव,।

गा-गा उठते चिर मूक भाव,/

अति सिहर-सिहर उठता शरीर!’

तो उनके तन-मन का उल्लास प्रकृति के तमाम उपकरणों-व्यापारों में प्रतीकात्मक रूप में फूट पड़ता है। हँसी तो ‘पराग’ के रूप में झरने लगती है और सुख का प्रवाह मलयज समीर अर्थात् सुवासित वायु के झोंकों-सा बह निकलता है।

अपने मनोदाह को वे व्यक्त करना चाहती हैं तो प्रकृति का उग्र रूप उनका भाव-वाहक बन जाता है –

‘घोर तम छाया चारों ओर,/

घटाएँ घिर आई घनघोर/

वेग मारूत का है प्रतिकूल/

हिल जाते हैं पर्वत-मूल,/

गरजता सागर बारम्बार।

‘अंधकार’ उनकी निराशा का प्रतीक बन जाता है तो घटाएँ तमाम आशंकाओं का प्रतिनिधित्व करती हैं, मनुष्य रूपी नाविक के लिए (भव) सागर की गर्जना उसकी राह में तमाम बाधाओं, जीवन के अनेक कष्टों का प्रतीक बन जाती है। ..

पिछली इकाई में हमने सादृश्य अथवा साम्य को छायावादी प्रकृति चित्रण की एक उल्लेखनीय विशेषता के रूप में देखा। यहां यह उल्लेखनीय है कि छायावादी कवियों का सादृश्य अथवा साम्य के प्रति जो विशेष आग्रह रहा उसी ने तत्कालीन प्रतीक विधान को रूप दिया। क्योंकि छायावादी कवियों ने इस विशेषता को अत्यधिक महत्व दिया, इसलिए उनके प्रकृति चित्रण में प्रतीक का पक्ष प्रबल रहा। महादेवी की कविता इसके उपयुक्त, सटीक उदाहरण प्रस्तुत करती है। देखिए –

‘धीरे-धीरे उतर क्षितिज से/

आ वसंत रजनी!/

मर्मर की सुमधुर नूपुर ध्वनि,/

अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणी,/

भर पद-गति में अलस तरंगिणी,/

तरल रजत की धार बहा दे,।

मृदु स्मित से सजनी!/

विहंसती आ वसंत रजनी!’ 

प्रतीक केवल प्रकृति-चित्रण, रहस्य-व्यंजना और प्रणय निवेदन की उद्देश्य पूर्ति में साधक नहीं बने, अपितु न्होंने समकालीन मुक्ति चेतना को भी स्वर देने में महती भूमिका निभाई। महादेवी का यह आह्वान इस संदर्भ में द्रष्टव्य है –

बाँध लेंगे क्या तुझे ये मोम के बंधन सजीले/

पंथ की बाधा बनेंगे तितलियों के पर रंगीले/

विश्व का क्रन्दन भुला देशी मधुप की मधुर गुन-गुन/

क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल के दल ओस गीले/

तू न अपनी छांह को अपने लिए कारा बनाना।’

महादेवी के काव्य में प्रतीक की आयोजना पर विचार करते समय हम इस तथ्य को भी रेखांकित कर सकते हैं कि उन्होंने अपनी शुरू की कविताओं में जिन शब्दों का प्रयोग उपमान के रूप में किया था, आगे चल कर वे शब्द उनकी रचनाओं में प्रतीक के रूप में उपस्थित हुए हैं। दूसरी बात, जैसा कि डॉo.. राधिका सिंह ने कहा है – प्रतीकों द्वारा वक्रतापूर्ण अभिव्यंजना महादेवी की विशेषता है। यहां हमें यह भी देखना होगा कि जहां तक सौंदर्यबोध का प्रश्न है, महादेवी वर्मा ने मोटे तौर पर दो प्रकार के प्रतीकों का प्रयोग किया है, जिनमें पहला है आत्मिक प्रतीक। इस प्रकार के प्रतीक उनके आध्यात्मिक सौंदर्य बोध को स्पष्ट करते हैं और इनसे महादेवी के दार्शनिक दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति भी होती है। दूसरे हैं प्रेमपरक प्रतीक।

ये वे प्रतीक हैं जो महादेवी के मानसिक सौंदर्य बोध को प्रकट करते हैं और इनके माध्यम से उनके मनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व की झांकी मिलती है। इन सबके उदाहरण हमें आगे के अंशों में देखने को मिलेंगे। महादेवी की कविता में प्रतीक की योजना पर विचार करते समय एक और विशेषता की ओर ध्यान जाता है। वह विशेषता यह है कि उनकी कविताओं में हमें प्रतीकों की भरमार तो मिलती है, किंतु विविधता नहीं। यहाँ तक कि उनकी कृतियों के नाम भी प्रतीकात्मक हैं। उनकी जीवन-दृष्टि आध्यात्मिक होने पर भी उन्होंने इसकी अभिव्यक्ति के लिए लौकिक प्रतीकों का ही चयन किया।

प्रकृति प्रेमी होने के कारण उन्होंने अपने अधिकांश प्रतीक प्रकृति से ही उठाए, और इन्हीं के माध्यम से उन्होंने अपनी प्रणयानुभूति, वेदनानुभूति और रहस्यानुभूति की व्यंजना की। प्रतीकों का ही सहारा लेकर महादेवी ने अपने युग की मुक्ति-आकांक्षा को भी विश्वसनीय स्वर दिया। उन्होंने प्रतीकों का प्रयोग निश्चय ही बहुलता से किया किंतु उनमें विविधता का अभाव दिखायी देता है। अब आगे हम महादेवी वर्मा द्वारा प्रयुक्त प्रतीकों के विभिन्न वर्गों के विषय में चर्चा करेंगे।

महादेवी के प्रतीकों के विभिन्न प्रकार

उपर्युक्त अंश में हमने महादेवी वर्मा की कविताओं में प्रतीक की योजना के विषय में पढ़ा। इस संदर्भ में अन्य बातों के अतिरिक्त हमने यह भी जाना कि महादेवी ने मोटे तौर पर दो प्रकार के प्रतीकों का प्रयोग किया है। एक, आत्मिक प्रतीक, जो उनके आध्यात्मिक सौंदर्य बोध को स्पष्ट करते हैं और इनसे महादेवी के दार्शनिक दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति होती है, और दो प्रेमपरक प्रतीक, जो कवयित्री के मानसिक सौंदर्य बोध को प्रकट करते हैं और इनके माध्यम से उनके मनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व की झांकी मिलती है।

डॉ० कुमार विमल ने ‘छायावाद का सौंदर्यशास्त्रीय अध्ययन’ में महादेवी वर्मा की कविताओं में इन चार प्रकार के प्रतीकों की पहचान की है –

  • वेद और उपनिषद के प्राचीन प्रतीक, 
  • संत साहित्य के प्रतीक 
  • छायावाद के अतिरिचित प्रतीक, और 
  • अप्रस्तुतों के आवर्तक प्रयोग से बनाए गए (स्वनिर्मित) प्रतीक।

किंतु, डॉ0 मनोरमा शर्मा ने अपनी पुस्तक ‘महादेवी के काव्य में लालित्य विधान में महादेवी वर्मा की कविताओं में कम से कम बारह प्रकार के प्रतीकों की उपस्थिति बताई है। डॉ0 मनोरमा शर्मा ने महादेवी के काव्य में प्राप्त विभिन्न प्रकार के प्रतीकों को अधिक विस्तार में देखा समझा है। यहां हम इसी को आधार बनाकर महादेवी वर्मा के काव्य में विभिन्न प्रकार के प्रतीक विषयक अपना विवेचन प्रस्तुत करेंगे।

प्रकृति से उठाए गए प्रतीक

अन्य सभी छायावादी कवियों के समान, महादेवी वर्मा प्रकृति की अनन्य प्रेमी हैं। इस विषय पर हम पिछली इकाई में विस्तृत चर्चा कर चुके हैं। यहां यह कहना प्रासंगिक होगा कि प्रकृति के विभिन्न उपकरणों के माध्यम से महादेवी ने अपने विविध मनोभावों, अपने राग-विराग को पूर्ण अभिव्यक्ति दी है। प्रकृति में वह उस विराट सत्ता के दर्शन करती हैं और उसकी ही छवि चहं ओर निहारती हैं। देखिए –

‘चुभते ही तेरा अरूण बान…/

इन कनक रश्मियों में अथाह/

लेता हिलोर तम-सिंधु जाग,/

बुदबुद-से वह चलते अपार,/

उसमें विहगों के मधुर राग,/

बनती प्रवाल का मृदुल कूल,/

जो क्षितिज रेख थी कुहर म्लान।’

यहां ‘अरूण बान’ प्रियतम की मधुर चितवन का प्रतीक है। यह चितवन किस प्रकार प्रेयसि के मन में आनंद का संचार कर देती है, यह देखते ही बनता है। यहां कनक रश्मियों’ में आशा का प्रतिनिधित्व होता है तो ‘तम-सिंधु’ घोर निराशा का द्योतक है, ‘विहगों के मधुर राग’ प्रेमिका के मन में उठने वाले मधुर भाव हैं। महादेवी की कविताओं में इनके उद्धरण अनायास मिल जाते हैं। हम विद्यार्थियों से आग्रह करेंगे कि वे महादेवी की काव्य रचनाओं को ध्यानपूर्वक पढ़कर इस प्रकार के उदाहरण छांटे।

आध्यात्मिक प्रतीक

आपको अब तक यह स्पष्ट हो चुका होगा कि महादेवी वर्मा की जीवन-दृष्टि आध्यात्मिक है। यहां हम यह देखेंगे कि उन्होंने अपने काव्य को सौंदर्य-सज्जित करने के लिए प्रतीकों का चयन करते समय भी अध्यात्म का सहारा लिया है। कहना न होगा कि इनके आध्यात्मिक प्रतीकों में रहस्यात्मकता का पुट भी अनायास आ जाता है। यह उदाहरण देखिए – ‘करूणामय को भाता है। तम के परदों में आना,/ हे नभ की दीपावलियों!/ तुम पल भर को बुझ जाना!’ यहां परम पुरुष के आगमन का सहारा लेकर कवयित्री ने आध्यात्मिक प्रतीक की रचना की। अज्ञेय प्रिय की रहस्यात्मकता के लिए ‘तम और ‘दीपावलियों ‘ जैसे प्रतीकों का प्रयोग सार्थक हुआ है। महादेवी जहां स्वयं को उस अज्ञेय, असीम प्रियतम की प्रेमिका मानती है, वहां वे रहस्यात्मक हो जाती हैं’, और तब वे इसी प्रकार के प्रतीकों का प्रयोग करती हैं।

 साधनात्मक प्रतीक

महादेवी का संपूर्ण जीवन एक सतत साधना के रूप में उनके काव्य पटल पर चित्रित हुआ है। उन्होंने इस क्षेत्र से प्रतीक उठाकर अपनी विशिष्ट अनुभूतियों को अभिव्यक्ति दी है। उन्होंने ऐसे प्रतीकों का अत्यंत सुंदर प्रयोग किया है जिनसे साधना तथा श्रद्धा को अभिव्यक्ति मिली है। इस संदर्भ में अनेक उदाहरण उनके गीतों से दिए जा सकते हैं। देखिए – ‘यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो! रजतशंख घड़ियाल स्वर्ण वंशी-वीणा-स्वर/ गए आरती देला को शत-शत लय से भर,/…. अब मंदिर में इष्ट अकेला,/ इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!’ इस उदाहरण में अनेक साधनात्मक प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। यहां ‘मंदिर’ मानव शरीर का, ‘दीप’ उसकी आत्मा का, ‘शंख’, ‘घड़ियाल आदि मनुष्य की विभिन्न भावनाओं के और अजिर अंतर्मन का प्रतीक है। ज्ञातव्य है कि इस उद्धरण में प्रयुक्त ‘दीपक’ महादेवी का सबसे अधिक प्रिय प्रतीक है, जिसका पुनः-पुनः प्रयोग उनकी कविताओं में हुआ है

परम्परागत प्रतीक

महादेवी वर्मा ने अपनी कविताओं में परंपरागत और सांस्कृतिक प्रतीकों का भी खूब प्रयोग किया है और उन्हें नया तेवर, नयी दिशा देने का प्रयत्न किया है। ‘कमल’ एक ऐसा ही प्रतीक है। यह उनका एक सर्वाधिक प्रिय प्रतीक है और इसके प्रयोग के भी उदाहरण उनकी कविताओं में मिलते हैं। उन्होंने अपनी एक कृति का नामकरण ही ‘नीरजा’ किया है। इस प्रकार के उद्धरणों में कवयित्री की लोककल्पना और व्यक्ति कल्पना दोनों का मणि-कांचन संयोग देखने को मिलता है। परंपरागत, सांस्कृतिक प्रतीक का यह उदाहरण देखिए – ‘हुई उसमें इच्छा साकार/ उगल जिसने तिनरंगे तार/ बुन लिया अपना ही संसार।’ यहां ‘तिनरंगे तार’ तीन गुणों (सत, रज और तम) का प्रतीक है।

सौंदर्यपरक प्रतीक

हम बार-बार पढ़ चुके हैं कि महादेवी वर्मा सौंदर्य की उदभाविका हैं। अन्य छायावादी कवियों के समान महादेवी ने भी सौंदर्य को अपने काव्य में प्रधानता दी है। उन्होंने सर्वत्र उस चिर सौंदर्य के दर्शन किए हैं। प्रकृति के नारी रूप का भी अत्यधिक प्रयोग उनकी कविताओं में मिलता है। यह उदाहरण देखिए –

‘रजनी के श्याम कपोलों ।

पर ढरकीले श्रम के कन।’

यहां रात रूपी स्त्री के सांवले गालों (धुंधला आकाश) पर ‘श्रम के कन’ वस्तुतः तारों का प्रतीक है। एक और उदाहरण देखिए –

‘मिल जाता काले अंजन में/

संध्या की आंखों का राग।’

यहां ‘अंजन’ तो अंधेरे का प्रतीक है,

जबकि ‘संध्या की आंखों का राग’ का प्रयोग कवयित्री ने सांझ की लालिमा के लिए किया है।

वेदना प्रधान प्रतीक

महादेवी वर्मा की कविता का मूल स्वर वेदना होने के कारण उसमें वेदना प्रधान प्रतीकों की कोई कमी नहीं है। अपनी वेदना को व्यक्त करने के लिए वह विभिन्न प्रतीकों को माध्यम बनाती हैं। कभी वह कहती हैं – ‘विरह का जलजात जीवन’ तो कभी वह स्वयं को ‘नीर भरी दुःख की बदली’ बताती हैं। उनकी वेदना जब व्यष्टि की परिधि से निकल कर समष्टि को छूती है तो वह कहती हैं – ‘मेरे गीले पलक छुओ मत/ मुरझाई कलियाँ देखो।’ यहां ‘मुरझाई कलियां’ उन शिशुओं का प्रतीक हैं जो पर्याप्त पोषण के अभाव में म्लान हो जाते हैं।

भावनात्मक प्रतीक

महादेवी की कविताओं में विभिन्न भावनाओं का प्रत्यक्षीकरण अत्यंत सुंदर ढंग से हुआ है। भावनात्मक सौंदर्य के लिए कवियत्री भावनात्मक प्रतीकों का प्रयोग करती हैं। गीत की विशेषता यही होती है कि उसमें किसी एक अनुभूति को लेकर ही चला जाता है। यही गीत के सौंदर्य और उसकी सफलता का रहस्य होता है और यह खुला रहस्य है कि महादेवी एक सफलतम गीति-लेखिका हैं। भावनात्मक प्रतीक के उदाहरण स्वरूप ये पंक्तियां देखिए – ‘सब बुझे दीपक जला लूं! घिर रहा तम आज दीपकरागिनी अपनी जगा लूं।’ यहां कवयित्री ने ‘दीपक’ को आत्मा, प्राण का प्रतीक बनाकर उसे जगाना चाहा है, अर्थात् वह प्रिय मिलन के लिए प्राणों की जड़ता को तोड़कर ‘तम’ अर्थात अज्ञानता के अंधकार से बाहर आना चाहती हैं, जिससे कि प्रिय मिलन का मार्ग प्रशस्त हो सके।

आत्मचेतना संबंधी प्रतीक

छायावादी कवियों की एक. सामान्य विशेषता यह रही कि उन्होंने प्रकृति के अंदर एक चेतन सत्ता की उपस्थिति का अभिज्ञान किया। महादेवी तो इस क्षेत्र में अधिक मुखर हैं। जैसे प्रतीकों में शलभ, वीणा, तार, सरिता आदि प्रमुख हैं। एक उदाहरण देखिए –

‘सिंधु को क्या परिचय दें देव!

क्षुद्र हैं मेरे बुद् बुद् प्राण/

तुम्हीं में सृष्टि, तुम्हीं में नाश।’

यहां ‘सिंधु’ प्रतीक है उस असीम सत्ता का। एक उदाहरण और देखिए :

‘झटक जाता था पागल वात/

धूलि में तुहिन कणों के हार।’

यहां ‘वात’ और ‘तुहिन कणों’ का अभिनव प्रयोग द्रष्टव्य है,

जिनका अभिप्राय क्रमशः युवक और आंसुओं से है।

देखने योग्य है कि किस प्रकार प्रेम में उन्मत्त युवक आंसू बहाता है।  इस प्रकार हमने देखा कि महादेवी के काव्य में प्रतीकों का प्रयोग अत्यंत कुशलता से हुआ है। उन्होंने अपनी मूलभूत अनुभूतियों को व्यक्त करने के लिए तदनुकूल प्रतीकों का प्रयोग किया है। भाव के स्तर पर सुंदर उनकी कविताओं को प्रतीकों के सम्यक प्रयोग ने शिल्प के स्तर पर भी सुंदरता प्रदान की है। वैसे महादेवी के प्रतीकों के प्रयोग को देखकर यह लगता रहा है कि उनमें दोष है, वे दुरूह हैं, और कहीं-कहीं उनमें अनिश्चितता भी झलकती है। किंतु हम नामवर सिंह के इस कथन को निर्णायक मानेंगे कि महादेवी वर्मा के ‘प्रतीक रहस्यात्मक हैं, भाषा अस्पष्ट है – फिर भी उनसे जो कुछ व्यंजित होता है वह वास्तविक है।’

महादेवी द्वारा प्रयुक्त प्रतीकों के चार वर्ग 

उपर्युक्त अंश में आपने महादेवी वर्मा के काव्य में प्रयुक्त प्रतीकों के विभिन्न प्रकारों के विषय में जानकारी प्राप्त की। अब हम महादेवी में प्रतीक के चार वर्गों के बारे में पढ़ेंगे। ये हैं :

  • मूर्त के लिए मूर्त प्रतीक,
  • अमूर्त के लिए अमूर्त प्रतीक, 
  • मूर्त के लिए अमूर्त प्रतीक, और
  • अमूर्त के लिए मूर्त प्रतीक।

मूर्त के लिए मूर्त प्रतीक

इस वर्ग में मूर्त प्रस्तुत विषय के लिए प्रयुक्त मूर्त प्रतीक आते हैं। जैसे, दीपक का प्रतीक रूप में प्रयोग सामान्यतया साधनाशील मन के लिए हुआ है, किंतु इन पंक्तियों में इस मूर्त प्रतीक का प्रयोग मानव शिशु के लिए किया गया है, जो स्वयं मूर्त प्रस्तुत विषय है – 

‘तेरे असीम आंगन की/

देखू जगमग दीवाली,/

या इस निर्धन कोने में/

बुझते दीपक को देखू।।’

एक और उदाहरण देखिए –

‘समीरण के पंखों में गूंथ/

लुटा डाला सौरभ का भार,/

दिया दुलका मानस-मकरंद/

मधुर अपनी स्मृति का उपहार।’

यहां मकरंद मूर्त प्रतीक है, जिसका प्रयोग आँसू (मूर्त) के लिए किया गया है। इसी प्रकार – ‘छू अरूण का किरण-चामर/ बुझ गए नभ-दीप निर्भर/ में मूर्त प्रतीक ‘नभ दीप’ का प्रयोग मूर्त तारों के लिए किया गया है। इसी प्रकार ‘कनक-रजत के मधु प्याले’ का प्रयोग सूर्य-चन्द्रमा के लिए, ‘नभ के नयन ‘ का प्रयोग तारों के लिए किया गया है। इसी प्रकार – ‘स्मित ले प्रभात आता नित/ दीपक दे संध्या

जाती,। दिन ढलता सोना, बरसा) निशि मोती दे मुस्काती’ को लीजिए। इन पंक्तियों में मूर्त ‘स्मित’, ‘दीपक’, ‘सोना’ और ‘मोती’ का प्रयोग क्रमशः किरण, चंद्रमा, सुनहरा आकाश और ओस की बूंदों के लिए हुआ है। इसी प्रकार, शलभ को प्रतीक बनाकर भी महादेवी ने मूर्त प्रस्तुतों की व्यंजना की है। उनकी कविताओं में इस वर्ग के प्रतीकों के अन्य उदाहरण आप खोज सकते हैं।

अमूर्त के लिए अमूर्त प्रतीक

मूर्त विषय के लिए मूर्त प्रतीक की योजना इतनी दुष्कर नहीं होती, जितनी कि अमूर्त के लिए अमूर्त प्रतीक की होती है। इस प्रकार का प्रतीक विधान कम ही देखने में आता है। महादेवी ने भी अमूर्त प्रतीकों का जो प्रयोग किया है उनमें पुनरावृत्ति अधिक हुई है। ये दो उदाहरण देखिए, जिनमें ‘स्वप्न’ का प्रयोग प्रतीक के रूप में किया गया है –

अपने जर्जर अंचल में/

भर कर सपनों की माया,

और

‘उड़ा तू छंद बरसाता,/

चला मन स्वप्न बिखराता।’

यहां 1 में ‘स्वप्नों’ का प्रयोग विगत की अनुभूतियों के लिए किया गया है। जबकि 2 में ‘स्वप्न’ से अभिप्राय प्रियतम की छवि से उदभूत मधुर भाव से है। इसी प्रकार अमूर्त ‘सौरभ ‘ का प्रयोग महादेवी ने अमूर्त भावों के लिए किया है, इस प्रतीक की भी उनकी कविताओं में पुनरावृत्ति हुई है। दो उदाहरण देखिए द 

‘यह सांसें गिनतगिनते/

नभ की पलकें झपः जाती,

मेरे विरक्त अंचल में/

सौरभ समीर भर जाती ,

और 

‘मैं पलकों में पाल रही हूँ।

यह सपना सुकुमार किसी का!/

लाया झंझा-दूत सुरभिमय/

सांसों का उपहार किसी का।’

यहां 1 में मारिभ का प्रयाग प्रियतम से मिलन की स्मृतियों के लिए किया गया है, जबकि (ख) में ‘सुरभिमय’ सांस प्रियतम के अनुकूल भावों का बोध कराती है। 

मूर्त के लिए अमूर्त प्रतीक

मूर्त अथवा स्थूल प्रतीकों का सहारा लेकर अमूर्त अथवा सूक्ष्म को स्पष्ट करना सामान्य रूढ़ि है। किंतु अमूर्त अथवा सूक्ष्म प्रतीक का प्रयोग करके उसके किसी मूर्त अथवा स्थूल को स्पष्ट करने का प्रयास करना धारा के विपरीत बहने का प्रयत्न करने के समान है। यह अपने आप में न केवल असामान्य है, अपितु दुष्कर भी है। फिर भी, महादेवी ने इस प्रकार का प्रतीक-विधान अपनी कविताओं में दक्षता से किया है। यह उदाहरण देखिए –

‘किस मलय सुरभित अंक रहा/

आया विदेशी गंधवह?’

यहां ‘गंधवह’ (वायु) का प्रयोग महादेवी ने हरजाई प्रियतम के लिए किया है, जो किसी पराई स्त्री के साथ विहार करने के बाद मासूम प्रेयसी को बहकाने आया है। एक और उदाहरण देखिए –

‘कलियों की घन जाली में/

छिपती देखू लतिकाएं,/

या दुर्दिन के हाथों में/

लज्जा की करूणा देखू।’

यहां अमूर्त ‘लज्जा’ का प्रतीकात्मक प्रयोग अबला स्त्री के लिए किया गया है, जिसके प्रति कवयित्री अपनी सहानुभूति प्रकट करती है। विद्यार्थियों से आग्रह है कि वे ऐसे ही अन्य उदाहरण महादेवी की कविताओं में ढूंढे और उनका आनंद लें।

अमूर्त के लिए मूर्त प्रतीक

अमूर्त अथवा सूक्ष्म के लिए मूर्त अथवा स्थूल प्रतीकों का प्रयोग सामान्य बात है। अनेकानेक कवियों ने अनेकानेक बार इनका प्रयोग किया है। महादेवी वर्मा की कविताओं में भी ऐसे प्रयोगों की भरमार है। उन्होंने तो एक ही मूर्त प्रतीक का प्रयोग अलग-अलग संदर्भ में अलग-अलग अमूर्त विषयों अथवा भावों के लिए किया है। कुछ उदाहरण देखिए –

‘मधुर मधुर मेरे दीपक जल!’

यहाँ ‘दीपक’ का प्रयोग प्रतीक रूप में जीवन के लिए किया गया है,

‘शलभ मैं शापमय वर हूँ/

किसी का दीपक निष्ठुर हूँ।’

यहाँ ‘दीप’ का प्रयोग वेदना के लिए किया गया है।

‘टूट गया वह दर्पण निमर्म!/

उसमें हंस दी मेरी छाया।’

यहां मूर्त ‘दर्पण’ का प्रयोग माया के लिए किया गया है। जब तक माया का आवरण रहता है, आत्मा-परमात्मा का मिलन संभव नहीं होता, किंतु माया का दर्पण टूटते ही तादात्म्य की स्थिति बन जाती है।

इसी प्रकार 

‘कण-कण में रच अभिनव बंधन/

क्षण-क्षण को कर भ्रममय उलझन,/

पथ में बिखरा शूल/

बुला जाते हो दूर अकेले।’

यहाँ ‘शूल’ प्रतीक है कष्टों, बाधाओं का। 

‘इसमें उपजा यह नीरज सित,/

कोमल-कोमल लज्जित मीलित,/

सौरभ सी लेकर मधुर पीर!/

इसमें न पंक का चिह्न शेष,/

इसमें न ठहरता सलिल लेश,/

इसको न जगाती मधुपा भोर!’

इस उद्धरण में ‘पंक’ (कीचड़) कलुषता का, सलिल (जल) सांसारिक मोह का, और मधुप (भौंरा) लौकिक आकर्षण का प्रतीक है।

महादेवी के प्रतिनिधि और प्रिय प्रतीक

उपर्युक्त अंश में हमने महादेवी की कविता में प्रयुक्त प्रतीकों के चार वर्गों का अवलोकन किया। हमने देखा कि महादेवी वर्मा ने किस प्रकार अपने काव्य में मूर्त प्रस्तुत विषय के लिए मूर्त प्रतीक, अमूर्त प्रस्तुत विषय के लिए अमूर्त प्रतीक, मूर्त प्रस्तुत विषय के लिए अमूर्त प्रतीक, अमूर्त प्रस्तुत विषय के लिए मूर्त प्रतीक का प्रयोग अत्यंत सुंदर ढंग से किया है। महादेवी ने अपनी कविताओं में विभिन्न प्रकार के प्रतीकों का सफल प्रयोग किया है, जिनकी बानगी हम उपर्युक्त अंशों में देख चुके हैं। कुछ प्रतीक. ऐसे हैं जिनका प्रयोग महादेवी ने बास्बार किया है और अनेक बार तो उनका प्रयोग अलग-अलग अर्थों में हुआ है। महादेवी के ऐसे कुछ प्रिय अथवा प्रतिनिधि प्रतीकों की चर्चा यहां प्रासंगिक होगी।

  • दीपक : महादेवी का सर्वाधिक प्रिय प्रतीक दीपक है। उनकी कविताओं में यह प्रतीक के रूप में बहुलता से प्रयुक्त हुआ है। वस्तुतः कवयित्री के प्रतिनिधि प्रतीकों का विश्लेषण करके हम उनके मनोवैज्ञानिक व्यक्तित्व का अभिज्ञान कर सकते हैं। उदाहरणार्थ, जब वह ‘दीपक’ का प्रतीक के रूप में प्रयोग करती हैं, तो उनकी एकांत साधिका की छवि मुखरित होती है। उनका दार्शनिक चिंतन उससे स्पष्ट होता है और यह भी परिलक्षित होता है कि. वह प्रणय के क्षेत्र में आत्मोत्सर्ग को वरीयता देती हैं। हम उपर्युक्त अंशों में दीपक का प्रयोग देख चुके हैं। यहां कुछेक उदाहरण पर्याप्त होंगे

‘दीप मेरे जल अकम्पितं/ घुल अचंचल’।

कवयित्री अपने परम पुरुष के प्रणय में दीपक के समान अविकल,

अविराम जली है, उन्होंने अपने प्रेम को डगमगाने नहीं दिया,

विचलित नहीं होने दिया,

वह अकम्पित’ रही है प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थिति में।

 स्वर्ण वर्ण से दिन लिख जाता/

जब अपने जीवन की हार |

गोधूली नभ के आंगन में /

देती अगणित वार’ यहां दीपक प्रतीक है तारों का |

इसी प्रकार,

‘प्राण में जो जल उठा और है दीपक चिरन्तन’ में

दीपक का प्रयोग अज्ञात प्रियतम के लिए हुआ है। महादेवी ने अपने जीवन को दीपक के समान एकनिष्ठ साधना में प्रज्वलित रहकर व्यतीत किया है। स्वयं जल कर भी वह परिवेश को आलोकित कर देती हैं।

  • कमल : महादेवी का पूरा जीवन ही ‘विरह का जलजात ‘है। वह कमल के समान इस मायावी संसार के मायामोह, लौकिक आसक्ति के कीचड़ में रहकर भी कमल-सी निर्लिप्त रहती है। यहां भी उनके साधक व्यक्तित्व की ही अभिव्यंजना होती है। इस प्रतीक से उनका इतना लगाव रहा कि उन्होंने अपनी एक कृति का नामकरण ‘नीरजा’ कर दिया। कमल (पंकज) को प्रतीक रूप में प्रयुक्त करने का एक उदाहरण देखिए –

‘नव इंद्र धनुष सा चीर/

महावर अंजन ले,/

अलि-गुंजित मीलित पंकज नभ से रून-झुन ले,

फिर आई मनाने सांझ/ मैं बेसुध मानी नहीं।’

कवयित्री स्वयं को लज्जालु भारतीय नारी के रूप में और इस लज्जाशील सौंदर्य की व्यंजना के लिए वह कमल (नीरज) को ही प्रतीक बनाती है –

‘इसमें उपजा यह नीरज स्मित,/

कोमल-कोमल लज्जित मीलित,/

सौरभ सी लेकर मधुर पीर!’

  • यात्री : यात्री का प्रयोग भी महादेवी की कविता में प्रतीक रूप में बहुलता से हुआ है। यह जीवन एक यात्रा ही है और हममें से प्रत्येक व्यक्ति एक यात्री। इस जीवन-यात्रा के दौरान प्रत्येक यात्री के अपने अलग-अलग अनुभव होते हैं। महादेवी ने यात्री को कहीं पथिक के रूप में प्रस्तुत किया है तो कहीं नाविक के रूप में। कुछ उदाहरण देखिए

‘पंथ होने दो अपरिचित,/

प्राण रहने दो अकेला’,

 ‘अग्नि पंथी मैं तुझे दूं/

कौन-सा प्रतिदान?’

 ‘तरी को ले जाओ मंझधार।

डूबकर हो जाओगे पार’।

इस प्रकार, महादेवी अपनी आध्यात्मिक अनुभूति को ‘पथिक’ और ‘नाविक’ जैसे प्रतीकों के माध्यम से अभिव्यक्ति देती हैं।

  • शूल और झंझा : जीवन-यात्रा पर निकले यात्री की राह हमेशा ही आसान हो, ऐसा संभव नहीं है। उसके मार्ग में अनेक बाधाएं भी आ सकती हैं, आती हैं। इन बाधाओं की परवाह न करते हुए अपने गंतव्य की ओर बढ़ते जाना, उस परम सत्ता से मिलन के लिए निरंतर चलते जाना ही यात्री का धर्म होता है। महादेवी ने बाधाओं के लिए ‘शूल’ और ‘झंझा’ जैसे प्रतीकों का प्रयोग किया है। ये उनके प्रिय प्राकृतिक प्रतीक हैं। पथिक की राह में बाधाएं ‘शूल’ बन कर आती हैं तो नाविक की राह में ‘झंझा’ (आंधी) बनकर –

‘अन्य होंगे चरण हारे।

और हैं जो लौटते,

दे शूल को संकल्प सारे’,

 ‘पथ में बिखरा शूल/

बुला जाते हो दूर अकेले।’

‘ढूंढती झंझा मुझसे लें,/

मृत्यु का वरदान!/

शेष यात्रा यामिनी मेरा निकट निर्वाण

और

‘आलोक तिमिर सित आसित चीर/

सागर-गर्जन रूनझन मंजीर/

उड़ता झंझा में अलक जाल।’

यहां प्रथम दो उद्धरणों में बाधाओं के लिए ‘शूल’ का और अंतिम दो उद्धरणों में बाधाओं के लिए ‘झंझा’ का प्रतीकात्मक प्रयोग किया गया है।

  • दर्पण : इस जगत में जीव क्यों परमात्मा से तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता, इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि वह माया के बंधन में बंधा रहता है। माया उसे परम पुरुष में लीन नहीं होने देती। आध्यात्मिक जीवन दृष्टि की कवयित्री होने के नाते महादेवी अपनी कविताओं में माया के तत्व पर गंभीरता से विचार करती हैं और माया के लिए उन्होंने ‘दर्पण’ का प्रयोग प्रतीक-रूप में किया है –

‘टूट गया वह दर्पण निर्मम!/

उसमें हंस दी मेरी छाया’,

‘तोड़कर वह मुकुट जिसमें रूप करता हास/

पूछता आधार क्या प्रतिबिंब का आवास?’

और ‘तोड़ देता खीजकर जब तक न प्रिय यह मृदुल दर्पण।’

आत्मा-परमात्मा, प्रेयसी-प्रियतम का मिलन तभी संभव है जब यह ‘दर्पण’ टूट जाएगा। तादात्म्य के लिए यह अनिवार्य है।

  • शलभ : दीपक महादेवी का केंद्रीय प्रतीक है। जहां दीपक होगा, वहां शलभ की उपस्थिति निश्चित-सी हो जाती है। अपने इस प्रिय प्रतीक का प्रयोग महादेवी ने संदर्भानुसार भिन्न-भिन्न अर्थों में किया है। देखिए –

‘विश्व-शलभ सिर धुन कहता ‘मैं/

हाय न जल पाया तुझ में मिल ‘

(ख)

‘शलभ अन्य की ज्वाला से मिल,/

झुलस कहां हो पाया उज्ज्वल!’

(ग)

‘दीपकमय कर डाला जब/

जलकर पतंग ने जीवन’,

और  (घ)’

क्यों जग कस्ता मतवाली?/

क्यों न शलभ लुटलुट जाऊँ /

झुलसे पंखों को चुन लाऊं।’

यहां (क) और (ख) में शलभ को मूढ जीव के रूप में प्रस्तुत किया गया है, और (ग) (पतंग) तथा (घ) में वह आदर्श प्रेमी का प्रतीक है।

इस प्रकार हमने देखा कि महादेवी के कुछ प्रिय प्रतीक उनके आध्यात्मिक, आत्म बलिदानी, अटल, निर्लिप्त व्यक्तित्व को ही प्रतिबिंबित करते हैं। उनकी कविताओं में बारंबार आकर ये प्रतीक उनके काव्य सौंदर्य की अनूठी पहचान बन गए हैं। इन प्रतीकों ने उनकी विविधता को प्रभावित तो किया है, किंतु इससे उनकी काव्यगत रांदरता पर कोई आँच नहीं आती।

प्रतिमा कृष्ण’ बल का कथन है – ‘प्रसाद, निराला, पंत की तुलना में महादेवी के काव्य का प्रतीक वैविध्य अत्यंत सीमित है, किंतु उन सीमित प्रतीकों के ही संयोजन में वैविध्य उत्पन्न कर उन्होंने इसकी क्षतिपूर्ति कर ली है।’ (छायावाद का काव्य-शिल्प)

सारांश

इस इकाई में हमने महादेवी वर्मा की कविताओं में प्रतीकों के प्रयोग के विषय में जानकारी प्राप्त की। इकाई के प्रारंभ में हमने प्रतीक के अर्थ, उसकी परिभाषा, और परंपरा को समझा। हमने इस बिंदु पर भी विचार किया कि प्रतीक का प्रयोजन, उसकी आवश्यकता, उसका महत्व क्यों होता है, और महादेवी को प्रतीकों का सहारा क्यों लेना पड़ा। हमने विभिन्न क्षेत्रों से लिए गए महादेवी के प्रतीकों की भी बानगी ली। हमने महादेवी की कविताओं में प्रतीक- विधान के विभिन्न पक्षों पर गौर किया। हमने उनके प्रतीकों के विभिन्न प्रकारों के बारे में जाना और उनके द्वारा प्रयुक्त प्रतीकों के चार वर्गों पर भी दृष्टिपात किया। अंत में हमने महादेवी की कविताओं में बारंबार प्रकट होने वाले, अर्थात उनके प्रतिनिधि अथवा प्रिय प्रतीकों के उदाहरण भी देखे। हमें विश्वास है कि अब आपके समक्ष महादेवी की प्रतीक योजना की अवधारणा स्पष्ट हो गई होगी।

प्रश्न

महादेवी की प्रतीक-योजना संबंधी मूलभूत विशेषताओं को स्पष्ट करें। ‘महादेवी ने अपनी रहस्यभावना की अभिव्यक्ति के लिए प्रायः प्रतीकों का ही सहारा लिया है।’ इस कथन की सोदाहरण व्याख्या करें। ‘प्रकृति के क्षेत्र से लिए गए महादेवी के प्रतीकों के महत्व पर प्रकाश डालें। ‘महादेवी ने लौकिक प्रतीकों द्वारा अपने अलौकिक प्रेम को कुशलतापूर्वक व्यक्त किया है।’ इस कथन की सार्थकता पर प्रकाश डालें।

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