रासो काव्य एवं लौकिक साहित्य

आदिकालीन साहित्य के अंतर्गत इस इकाई में आप रासो काव्य एवं लौकिक साहित्य का अध्ययन करेंगे। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप :

  • रासो काव्य रचना की प्रेरक ऐतिहासिक परिस्थिति को जान सकेंगे और रासो काव्य के रचना विधान का विवेचन कर सकेंगे;
  • रासो की वीरगाथात्मक प्रवृत्ति को समझ सकेंगे;
  • लौकिक साहित्य के अंतर्गत मिथिला से लेकर राजस्थान तक के अंचल में मिलने वाले लोक साहित्य पर टिप्पणी कर सकेंगे; और
  • लोक साहित्य में संवेदना की विविधता का विवेचन स्थानीय संस्कृति के संदर्भ में कर सकेंगे।

यद्यपि सिद्ध, नाथ और जैन रचनाकारों की रचनात्मक संवेदना में हिंदी भाषा के प्रारंभिक रूप का प्रादुर्भाव हो चुका था, तथापि हिंदी साहित्य का क्रमबद्ध विकास रासो साहित्य के आविर्भाव से ही माना जाता है। सिद्ध, नाथ और जैन रचनाकारों की मूल भाषा अपभ्रंश ही थी परंतु उन्होंने अपभ्रंश भाषा के साथ-साथ अपनी रचनाओं में देशभाषा का भी प्रयोग किया। दसवीं शताब्दी के बाद अपभ्रंश भाषा के साथ-साथ लोकभाषा का प्रयोग खुलकर होने लगा था। राजस्थान से मिथिला तक के राजदरबारों में देशी भाषाओं के साथ अपभ्रंश भाषा को मिलाकर काव्य रचने की पद्धति प्रचलित हो चली थी। इस प्रकार, आदिकाल में दो प्रकार की साहित्यिक प्रवृत्तियों का प्रारंभ होता है। प्रथम प्रकार की साहित्यिक प्रवृत्ति को साहित्य के इतिहास में रासो काव्य के नाम से जाना जाता है और दूसरे प्रकार की साहित्यिक प्रवृत्ति को लौकिक साहित्य की संज्ञा दी गई है। रासो साहित्य और लौकिक साहित्य की रचना एक विशेष प्रकार की सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था के बीच हुई थी। सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था ने किस प्रकार से साहित्य को प्रभावित किया, इन मुद्दों पर भी इस इकाई में चर्चा की जाएगी।

रासो साहित्य की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता .

रासो साहित्य की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता पर विचार करने से पूर्व रासो ग्रंथों पर विचार करना उचित प्रतीत होता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने निम्नलिखित रासो ग्रंथों की चर्चा की है – “विजयपाल रासो’, ‘हम्मीर रासो’, ‘खुम्माण रासो’, ‘बीसलदेव रासो’, ‘पृथ्वीराज रासो’, तथा ‘परमाल रासो’ । इन्हीं काव्य-ग्रंथों की चर्चा सामान्यतया रासो साहित्य के अंतर्गत की जाती है। ‘विजयपाल रासो’ के रचयिता नल्लसिंह भाट थे। इस काव्य में राजा पंग और विजयपाल के बीच युद्ध का वर्णन है। मिश्र बंधुओं ने इस काव्य-कृति का रचनाकाल चौदहवीं शती माना है | काव्य-कृति की भाषा-शैली पर विचार करने पर यह रचना परवर्ती जान पड़ती है। यह रचना प्रामाणिक रूप में उपलब्ध नहीं है। हम्मीर रासो’ शाईधर कवि की कृति बताई जाती है, परंतु इस ग्रंथ की सूचना मात्र ही उपलब्ध है।

प्राकृतपैंगलम में कुछ छंदों के आधार पर आचार्य शुक्ल ने इस कृति के अस्तित्व को स्वीकारा है। ‘हम्मीर रासो’ की कोई भी प्रति अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। ‘खुम्माण रासो’ की एक अपूर्ण प्रति प्राप्त हुई है, उसमें खुम्माण से लेकर महाराणा प्रताप सिंह तक का वर्णन मिलता है। ‘खुम्माण रासो’ मूल रूप में नवीं-दसवीं शताब्दी की रचना है, परंतु जो काव्य-प्रति प्राप्त हुई है, वह सत्रहवीं शताब्दी की रचना मालूम पड़ती है। बीसलदेव रासो’ के रचयिता नरपति नाल्ह थे। ‘बीसलदेव रासो’ यद्यपि माता प्रसाद गुप्त द्वारा संपादित होकर प्रकाशित हो चुकी है परंतु इस ग्रंथ के रचनाकार के विषय में मतभेद बना हुआ है। कुछ लोग इस कृति का रचनाकाल तेरहवीं शताब्दी मानते हैं और कुछ लोग सोलहवीं शताब्दी मानते हैं।

चंदबरदाई कृत ‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रामाणिकता को लेकर विद्वानों में विवाद है। इसमें सबसे बड़ी कठिनाई है – पृथ्वीराज रासो के विभिन्न संस्करणों के बीच से उसके प्रामाणिक और मूल पाठ को तय करना । डॉ. माता प्रसाद गुप्त ने बृहत्तम, बृहत्, लघु और लघुतम पाठों में से लघुतम पाठ को पृथ्वीराज रासो का मूल रूप बताया है। आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अनुमान लगाया है. कि कवि चंद ने रासो की रचना शुक-शुकी के संवाद के रूप में की होगी। पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता को लेकर विद्वानों में तीन वर्ग बन गए हैं। विद्वानों का प्रथम वर्ग इस काव्य-कृति को अप्रामाणिक मानता है। इस वर्ग के विद्वानों में डॉ. बूलर, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, कविराज श्यामलदीन तथा हीराचंद ओझा के नाम प्रमुख हैं। डॉ. श्यामसुंदर दास, मोहनलाल विष्णुलाल पाण्ड्या, मिश्रबंधु, कर्नल टॉड आदि विद्वानों ने नागरी प्रचारिणी सभा वाले पृथ्वीराज रासो के संस्करण को प्रामाणिक माना है। विद्वानों का तृतीय वर्ग पृथ्वीराज रासो को अर्ध-प्रामाणिक रचना मानता है। इस वर्ग के विद्वानों में प्रमुख नाम मुनि जिनविजय, डॉ. सुनीति चाटुा , आ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ. नामवर सिंह का है। पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता की बहस हिंदी साहित्य में बहुत पुरानी है, चूंकि इस रचना को आधार मानकर आदिकाल का विश्लेषण किया जाता है।

इसलिए इस ग्रंथ को कम से कम अर्ध प्रमाणिक मानना ही उचित प्रतीत होता है। साहित्य में प्रारंभिक रचनाओं के संदर्भ में इस तरह के प्रश्न साहित्य के इतिहास में पैदा होते रहते हैं, इसका श्रेष्ठ उदाहरण ग्रीक साहित्य में रचा गया काव्य ‘इलियड’ और ‘ओडिसी’ है। होमर रचित इस कृति के लिए पश्चिमी साहित्य में एक मुहावरा चल पड़ा होमरिक प्रॉब्लम (कभी न सुलझने वाली गुत्थी)। साहित्य के इतिहास में काव्य-कृति की प्रामाणिकता को लेकर चलने वाले विवाद के साथ-साथ उस काव्य-कृति के आलोचनात्मक विश्लेषण का भी महत्व है। यह आलोचनात्मक विश्लेषण ही हमारी इतिहास दृष्टि को तय करता है।

रासो काव्य की पृष्ठभूमि

रासो काव्य से हमारा तात्पर्य आदिकालीन साहित्य की वीरगाथात्मक कृतियों से है। आदिकालीन साहित्य में रास ग्रंथ और रासो ग्रंथ दोनों प्रकार की रचनाओं की चर्चा मिलती है। रास साहित्य और रासो साहित्य का मुख्य अंतर भावानुभूति को लेकर है। रास साहित्य की संवेदना धार्मिक अनुभूति अथवा लौकिक प्रेम की अनुभूति से जुड़ी हुई है। रास काव्य का प्रसार जैन साहित्य में देखने को मिलता है। रास साहित्य में लौकिक प्रेमानुभूति को भी अभिव्यक्त किया गया है। ‘संदेश रासक’ इसी तरह के साहित्य का उदाहरण है। आदिकालीन साहित्य में रास काव्य का नाम जैन रचनाकारों द्वारा लिखे गए रासक ग्रंथों और ‘संदेश रासक’ जैसे प्रेमानुभूति प्रधान काव्य संवेदना के लिए रूढ़ हो गया है। वस्तुतः रास, रासो, रासउ और रसायण शब्द अलग-अलग हैं और वे एक खास तरह के मनोभाव को अभिव्यक्त करते हैं।

अब हम रासो साहित्य को समझने की कोशिश करेंगे। वस्तुतः रासो साहित्य की रचना चारणों द्वारा हुई थी। चारणों का साहित्य में आगमन सामंतवादी व्यवस्था के समानांतर होता है। सामंतों को प्रशस्तिगान के लिए चारणों की आवश्यकता हुई। प्रशस्तिगान में चारण अधिकतर आश्रयदाता सामंतों की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा करते थे। प्रशस्तिगान की विषय-वस्तु बहुत ही सीमित थी। सामंतों के जीवन में दो बातों की प्रधानता थी युद्ध और प्रेम। इसलिए चारणों के साहित्य में भी इन्हीं दो विषयों की प्रमुखता मिलती है। किसी राजा की रूपवती कन्या का संवाद पाकर किसी दूसरे राजा का चढ़ाई करना तथा उस कन्या का हरण कर लेना, वीरों के लिए गौरव और अभिमान का विषय था। पृथ्वीराज रासो और बीसलदेव रासो में इस प्रकार के कई प्रसंग आएं हैं। राजनीतिक कारणों से हुए युद्धों के स्थान पर भी चारणों ने काव्य में रूपवती स्त्री को ही युद्ध का कारण परिकल्पित किया है।

पृथ्वीराज और शहाबुद्दीन गौरी के बीच युद्ध का कारण एक रूपवती स्त्री को बताया गया है। रासो साहित्य के संदर्भ में इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि यह साहित्य युद्ध और श्रृंगार तक ही क्यों सीमित है ? इस प्रश्न का सीधा-सा जवाब है कि साहित्य बहुत कुछ सामाजिक संरचना पर निर्भर करता है  सामाजिक संस्था की बनावट का असर साहित्य पर भी दृष्टिगोचर होता है। सामंती व्यवस्था में चारण कवियों ने जीवन के उन पक्षों को अनदेखा किया जिसका संबंध जीवन के अभावों से है, इसीलिए व्यवस्था से शोषित सामान्य मानव के घरेलू जीवन और उसकी । समस्याओं की ओर उनका ध्यान नहीं है। इन विषयों से सामंतों का मनोरंजन भी नहीं हो सकता था। अतः कवियों ने साहित्य में सामान्य मनुष्य की ओर ध्यान देना आवश्यक नहीं समझा । आदिकालीन रासो साहित्य में साहित्य का उद्देश्य सामंतों का मनोरंजन था, इसलिए रासो साहित्य में युद्ध और श्रृंगार को प्रमुख विषय बनाया गया । इस श्रृंगार में भी उत्तेजना है, इसमें प्रेम से अधिक काम का वर्णन है। प्रकृति वर्णन को भी काव्य में काम की उत्तेजना को बढ़ाने का साधन माना गया है।

रासो साहित्य में विचारणीय बिंदु

रासो साहित्य का अध्ययन करते समय हमें कुछ बिंदुओं को ध्यान में रखना अनिवार्य होगा। रासो साहित्य को हम वीरगाथात्मक साहित्य कहते हैं। इस साहित्य में वीरता का जो वर्णन मिलता है उसका स्वरूप क्या है ? वीरगाथा का मूल स्वर किस प्रकार का है ? इन रचनाओं में वर्णित वीरता में राष्ट्रीय उद्बोधन का स्वर मिलता है अथवा वे मात्र प्रशस्तिपरक ही हैं। वस्तुतः रासो साहित्य में मुख्य रूप से सामंतों के आपसी सत्ता-संघर्ष का वर्णन मिलता है और उसमें किसी प्रकार की राष्ट्रीयता का स्वर नहीं उभरता । पृथ्वीराज और शहाबुद्दीन गौरी के बीच के युद्धों में कहीं भी राष्ट्रीयता की झलक नहीं मिलती। यह लड़ाई दो सामंतों की लड़ाई थी। रासो साहित्य में राष्ट्रीयता की झलक हमें ‘परमाल रासो’ में मिलती है। यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि ‘परमाल रासो’ में किस प्रकार की राष्ट्रीयता है ? ‘परमाल रासो’ की राष्ट्रीयता और क्षेत्रीयता अलग-अलग नहीं हैं। पृथ्वीराज देश-हित के लिए शहाबुद्दीन गौरी से युद्ध नहीं करता है लेकिन ‘परमाल रासो’ के वीर आल्हा और ऊदल महोबे की रक्षा के लिए पृथ्वीराज की सेना के विरुद्ध भिड़ते हैं।

‘परमाल रासो’ में सामंतों को बचाने की चिंता कम है, महोबा की रक्षा का बोध अधिक है। अतः ‘परमाल रासो’ राष्ट्रीय उद्बोधन का काव्य प्रतीत होता है और पृथ्वीराज रासो’ में प्रशस्तिपरक गुणगान का भाव अधिक मिलता है। आल्हा और ऊदल अपनी जन्मभूमि और अपने देश पर आए संकट के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। जनता उनके वीरतापूर्ण कर्तव्य का आज तक स्मरण करती है। ‘परमाल रासो’ की भाषा बदल गई, परंतु काव्य में भावों की प्रबलता और उद्बोधन का स्वर अभी तक जनता को आकर्षित करता है।

रासो साहित्य में कथानक रूढ़ियाँ

कथानक रूढ़ियाँ लोक-साहित्य के अध्ययन के आवश्यक उपादान हैं। कथानक रूढियों में जीवन और समाज का संश्लिष्ट अर्थ स्तर छिपा होता है, जिसे अनदेखा करके आदिकाल के काव्य के मर्म तक नहीं पहुंचा जा सकता। ये कथानक रूढ़ियाँ विविध प्रकार की हैं। पशु-पक्षी, देव-दानव, सरीसप, वृक्ष, शाप, वरदान, स्वप्न संकेत, अभिज्ञान, प्राण प्रक्षेपण, अप्सराओं का साक्षात्कार, यक्ष-गंधर्व से मिलन आदि विविध प्रकार की कथानक रूढ़ियों के सांकेतिक अर्थ और उनके प्रचलन की परंपरा है। कथानक रूढ़ियों का विकास प्रबंध काव्य के संदर्भ में ही हुआ है। वस्तुतः प्रबंध काव्य में कथानक रूढ़ियों द्वारा दो प्रकार का कार्य सम्पन्न हुआ है। कथानक रूढ़ियों से कथा-क्रम को गति दी गई है तथा प्रबंध काव्य की संभावना को अधिक विस्तृत करने के कार्य का निष्पादन हुआ है। काव्य में संभावना पक्ष पर अधिक बल देने के कारण कथानक रूढ़ियाँ चल पड़ी। ‘पृथ्वीराज रासो’ में शुक-शुकी का प्रसंग आता है जो कथा कहने वाले वक्ता भी हैं और श्रोता भी। कथानक की गति में जहाँ-जहाँ अवरोध पैदा होता है शुक-शुकी के संवाद में नए प्रसंग की उद्भावना की जाती है। कुछ कथानक रूढ़ियों का निर्वाह मध्य काल के प्रबंध काव्यों में सामान्य रूप से मिलता है ।

तुलसीदास के रामचरितमानस और जायसी के पद्मावत दोनों कृतियों में विवाह से पहले नायिका का शिव-पूजन के लिए जाना और उसी क्रम में नायक से भेंट, सामान्य रूप से मिलते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि कथानक रूढ़ियों का संबंध किसी रचना से नहीं होकर संस्कृति के एक विशिष्ट दृष्टिकोण से होता है। कथानक रूढ़ियों में प्रतीकों, लोक-विश्वासों, मिथकों और लोकगाथाओं का मिला-जुला रूप प्रकट होता है। उनके अध्ययन से हमें संस्कृति के जीवन-दर्शन के अंतःसंबंध की रूपरेखा प्राप्त होती है। मानव तथा प्रकृति के आंतरिक रिश्तों का अंतःसूत्र मिलता है।

काव्य में प्रेम संबंधी कथानक रूढ़ियों का प्रयोग कई रासो ग्रंथों में मिलता है। ‘पृथ्वीराज रासो’ में ऐसे कई प्रसंग मिलते हैं, जिसमें नायक तथा नायिका किसी दूसरे के मुख से गुणगान को सुनकर परस्पर आकर्षित होते हैं। पृथ्वीराज नट से शशिव्रता के रूप की प्रशंसा को सुनकर तथा शशिव्रता गाना सिखाने वाली शिक्षिका से पृथ्वीराज की प्रशंसा को सुनकर एक-दूसरे के प्रति आकृष्ट होते हैं इस प्रकार की कथानक रूढ़ियों का प्रयोग प्रेम-काव्यों में बहुत अधिक मिलता है। इसी प्रकार, कन्या-हरण का प्रसंग भी बहुत सामान्य-सी कथानक रूढ़ि है। ‘पृथ्वीराज रासो’ में कन्या-हरण के कई प्रसंग मिलते हैं। प्रेम संबंधी कथानक रूढ़ियों के अध्ययन से यह पता चलता है कि इस प्रकार के प्रेम में स्वाभाविक अनुभूति और मार्मिकता नहीं है। यह प्रेम रूप-वर्णन और वयःसंधि प्रकरण तक सीमित है। इंछिनी के सौंदर्य वर्णन में रासोकार लिखते हैं

नयन सुकज्जल रेष तष्षि निष्छल छवि कारिय।

श्रवनन सहज कटाछ चित कर्षन नर नारिय।

भुज मृनाल कर कमल उरज अबुज कल्लिय फल।

जंघ रंभ कटि सिंहगमन दुति हंस करी छल ।

ऋतु-वर्णन भी प्रेम-संबंधी कथानक रूढ़ियों का एक हिस्सा है। ‘पृथ्वीराज रासो’ में संयोगकालीन उद्दीपक ऋतु वर्णन की पुरानी प्रथा को अपनाया गया है। पृथ्वीराज युद्ध से पहले हर रानी से विदा लेने जाते हैं और वे उस ऋतु में ऋतु का मनोरम वर्णन सुनकर वहीं रुक जाते हैं। वसंत ऋतु में इंछिनी के पास जाते हैं पर उन्हें नायिका से बाहर निकलने की अनुमति नहीं मिलती है। वसंत के बाह्य वातावरण का चित्र उपस्थित करती हुई रानी पृथ्वीराज से कहती है जब आम बौरा गए हों, कदम्ब फूल चुके हो, रात की दीर्घता में कोई कमी न आई हो, भँवरे भावमत्त होकर झूम रहे हों, मकरंद की झड़ी लगी हुई हो, मंद मंद पवन विरहाग्नि को सुलगाने में लगी हो, और कोकिल कूक रही हो – ऐसे में कोई अपने प्रिय को बाहर जाने की अनुमति कैसे दे सकती है

मवरी अंब फुल्लिंग कदंब रयनी दिघ दीसं ।

भँवर भाव भल्लै भ्रमंत भ्रमंत मकरंद बरीसं ।।

बहत वात उज्जलित भौर अति विरह अगिनि किय।

कुहकुहंत कलकंठ पत्रराषस अति अग्ग्यि ।।

काव्य में वातावरण के चित्र के द्वारा संयोग की अनुभूति की व्यंजना की गई है परंतु जितने भी उपमानों का प्रयोग किया गया है वे बड़े ही रूढ़ हैं। कवि उसमें किसी भी तरह की मौलिकता का परिचय नहीं देता। वसंत ऋतु के बाद ग्रीष्म का वर्णन मिलता है। ग्रीष्म ऋतु में पृथ्वीराज पुण्डीरनी के यहाँ ठहर गए। पुण्डीरनी ने भी ग्रीष्म का उसी प्रकार का चित्र उपस्थित किया। वह पति से अनुरोध करती है कि जब राह चलना कठिन हो रहा हो, दिन-रात गर्मी की ज्वाला से काया क्लेशपत्र हो उठी हो – इस प्रकार के समय में प्रिय को कभी बाहर नहीं जाना चाहिए –

त्रिय लहै तत्त अष्षर कहै गुनियन अब्ब न मंडियै।

सुनि कंत सुमति संपति, विपति ग्रीषम ग्रेह न छंडियै ।।

पृथ्वीराज वर्षाकाल में इंद्रावती से विदा लेने गए। उसने भी वर्षा ऋतु की पृष्ठभूमि में प्रिय से । मिलन की आकांक्षा अभिव्यक्त की। वर्षा ऋतु में प्रकृति का चित्र मादक हो उठता है। ऐसे मद-भरे वातावरण में कोई भी रमणी अपने प्रिय को कैसे विदा कर सकती है –

घन गरजै घर हरै पलक निस रैनि निघटै।

सजल सरोवर पिष्षि हियौ ततछन घन फट्टै।

जल बद्दल बरषत पेय पल्ल्हौ निरंतर ।

कोकिल सुर उच्चरै अंग पहरंत पंचसर ।

‘पृथ्वीराज रासो’ तथा अन्य रासो ग्रंथों में ऋतु वर्णन की रूढ़ि का पालन किया गया है। ‘संदेश रासक’ में कवि को ऋतु वर्णन का एक सुंदर बहाना मिल गया है। इस काव्य में पथिक को विरहिणी का संदेशवाहक बनाया गया है। पथिक विरहिणी की दशा देखकर रुक जाता है। अंत में पथिक विरहिणी से पूछता है कब से तुम्हारा यह हाल है ? उसके बाद एक-एक करके ऋतु वर्णन चलने लगता है। ‘पृथ्वीराज रासो’ और ‘संदेश रासक के ऋतु वर्णन में अंतर है। ‘संदेश रासक’ में विरहिणी नायिका जन-सामान्य की भावभूमि पर दिखाई पड़ती है। उसमें राजसी ठाठ नहीं है, उसके दुख में अनुभूति की सच्चाई है। कवि ने कुछ ताजे बिंबों का प्रयोग कर विरह को तीव्र बनाने का प्रयास किया है। ‘पृथ्वीराज रासो’ में ऋतु वर्णन का प्रयोग काव्य में परंपरा-पालन के लिए किया गया है। ऋतु वर्णन में एक बात स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आती है कि नारी का जीवन पुरुषों पर आश्रित था और पति के बिना उनका जीवन अस्तित्वहीन भालूम पड़ता है। नारी में एक प्रकार की असुरक्षा का भाव मिलता है, उसे हमेशा यह डर लगा रहता है कि पुरुष अपनी स्वेच्छाचारिता के कारण कहीं उसका त्याग न कर दे, इसलिए वे पुरुष को अपने पास से अलग नहीं करना चाहती हैं । नारी कभी ऋतु का भ्रम उत्पन्न करके और कभी अपने यौवन की उन्मादकता के द्वारा पुरुष को अपने पास रखने का प्रयत्न करती है।

रासो साहित्य में कथात्मक संरचना

रासो काव्य का ढाँचा मुख्य रूप से प्रबंधात्मक है। इस दौर में मुक्तक रचनाएँ भी हुईं, परंतु वे मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करती। कथानक के धारावाहिक विकास के कारण काव्य में प्रबंधत्व का विकास विशेष रूप से हुआ है। कथानक का कभी-कभी कई युगों तक विकास होता रहता था। यही कारण है कि आदिकाल की प्रबंध कृतियों का किसी एक कवि की रचना होने पर भी संदेह अभिव्यक्त किया जाता है। ‘पृथ्वीराज रासो’ के विषय में यह प्रचलित है कि कवि चन्द अपने पुत्र जल्हण के हाथों में काव्य-कृति को पूरा करने का भार सौंपकर गजनी चला गया था :

पुस्तक जल्हन हत्थ दै चलि गज्जन नृप काज।

इस प्रकार आदिकाल में रचे गए प्रबंध काव्य का ढाँचा लगातार बदलता रहा है। उसमें नए-नए प्रसंगों की उद्भावना होती रही है। कई कवियों द्वारा कई प्रसंगों की उद्भावना एक-साथ प्रबंध योजना में ही संभव हो सकती है। प्रबंध काव्य रचने का दूसरा सबसे बड़ा कारण था-चारणों द्वारा किया गया अतिरंजनापूर्ण वर्णन। किसी भी काव्य -कृति में कथानक को अतिरंजनापूर्ण बनाने के लिए उसमें प्रसंगों की विविधता आवश्यक हो जाती है। प्रसंग की विविधता के क्रम में कथानक में फैलाव आता जाता है, जिसे मुक्तक में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता है । रासो काव्य के प्रबंधत्व में लोक-तत्व और कथानक रूढ़ियों का समावेश भी मिलता है।

रासो साहित्य में वीर गीत

रासो काव्य दो रूपों में मिलता है – प्रबंध काव्य और वीर गीत के रूप में । प्रबंध काव्य की चर्चा हम पहले कर चुके हैं। वीर गीत मौखिक और लिखित, दोनों रूपों में प्राप्त होते हैं। मौखिक रूप में ‘परमाल रासो’ तथा लिखित रूप में ‘बीसलदेव रासो’ जैसी रचनाएँ मिलती हैं। ‘बीसलदेव रासो’ में शृंगारिक मनोभाव का वर्णन है। इस काव्य-कृति में भोज परमार की पुत्री राजमती और अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव तृतीय के विवाह, वियोग एवं पुनर्मिलन की कथा को सरस शैली में प्रस्तुत किया गया है। ‘बीसलदेव रासो’, “संदेशरासक’ की तरह संदेश परंपरा का काव्य है। ‘बीसलदेव रासो’ में नारी जीवन की करुणा गीतात्मक अनुभूति में प्रकट हुई है। यह काव्य-कृति अपने सरल एवं निष्कपट भाव सौंदर्य के कारण महत्वपूर्ण है। इसमें नारी जीवन के सुख-दुख, माधुर्य एवं करुणा तथा अश्रु और हास का भावपूर्ण चित्रण मिलता है। काव्य के ये भावपूर्ण चित्र लयात्मक अनुभूति के रूप में प्रकट हुए हैं। भाव-व्यंजना तथा ध्वनि सौंदर्य की दृष्टि से बीसलदेव रासो महत्वपूर्ण काव्य है।

परणब चाल्यो बीसलराय। चउरास्या सहु लिया बोलाई।

जान तणी साजति कलउ । जीरह रँगावाली पहरज्यो टोप।।

जगनिक का परमाल रासो लोकगीत के रूप में देश के विभिन्न भागों में प्रसिद्ध है। यह लोक गीत आल्हा के नाम से उत्तर भारत के विविध क्षेत्रों में गाया जाता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है – ‘इस प्रकार साहित्यिक रूप न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीरदर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इस दीर्घ कालयात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है। वस्तुतः आल्हा लोकगाथा और लोकगीत है। लोकगीत स्वतःस्फूर्त काव्य का अंग होता है। लोकगीतों में उनके रचयिता अथवा रचनाकाल का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं होता, उसका महत्व तो उसके सरल सौंदर्य में होता है। उसमें एक व्यक्ति की अनुभूति की अपेक्षा लोक हृदय की अनुभूति ही प्रधान होती है। ये गीत व्यक्ति-विशेष की भावनाओं का प्रतिनिधित्व न होकर समुदाय की भावना के सच्चे प्रतीक होते हैं। काल और स्थान की सीमा को लाँघकर, लोक गायकों के अधरों पर जीवित रहने वाले ये लोकगीत वर्तमान में भी जीवित हैं। समय के व्यवधान से उसमें कुछ परिवर्तन अवश्य हुए हैं परंतु मूल भाव सुरक्षित हैं आल्हा की लोकगाथा में एक मुख्य कथा-सूत्र है।

महोबा के राजा परमर्दिदेव पर पृथ्वीराज का आक्रमण होता है। आल्हा और ऊदल वीरतापूर्वक लड़कर जन्मभूमि के लिए प्राण अर्पित कर देते हैं। इसी मुख्य कथासूत्र का विकास क्रमशः स्थल-स्थल पर अनेक पात्रों और धाराओं के योग से होता है। आल्हा की प्रवाहमयी शैली में स्वतःस्फूर्त गीत फूट पड़ते हैं :

बाहर बरस लै कूकर जीवै अरु तेरह लै जियै सियार।

बरस अठारह क्षत्री जीवै आगे जीवन को धिक्कार ।।

रासो काव्य में अभिव्यक्ति कौशल

भाषा, अभिव्यक्ति कौशल का प्राथमिक उपादान है। भाषा में ही काव्य की रचना होती है। आदिकालीन साहित्य के रासो काव्य में भाषा के मानक रूप का परिचय नहीं मिलता है। भाषा के इस मानक रूप के विकास को अवरुद्ध करने में सामंती व्यवस्था की बहुत बड़ी भूमिका है। रासो काव्य वीरगाथात्मक काव्य है। वीरगाथात्मक काव्य का संबंध सामंतों के आपसी युद्धों से है। उन युद्धों के बिना वीर रस की कल्पना नहीं की जा सकती है, परंतु यह वीर रस भाषा के विकास के लिए घातक सिद्ध हुआ। वीरता के भाव ने सामंतों में आपसी प्रतिद्वंद्विता को जन्म दिया। राज्य के छोटे-छोटे हिस्सों पर अलग-अलग सामंतों का शासन था। राज्य के इन छोटे-छोटे हिस्सों के बीच संचार और सम्प्रेषण का कोई सामान्य साधन उपलब्ध नहीं था। राज्यों के आपस में वैर-भाव के कारण न मंडियाँ आबाद हो सकी और न व्यापारिक संबंधों का ही विकास हो सका। इस कारण भाषा में किसी सामान्य नियम का विकास नहीं हो पाया। उनमें किसी प्रकार की भाषायी मानकता का अभाव मिलता है। रासो साहित्य की भाषा स्थानीय बोलचाल की भाषा है, जिस पर अपभ्रंश का प्रभाव भी देखा जा सकता है।

रासो काव्य के लिए मुख्यतः दो प्रकार की भाषा प्रचलित हो चुकी थी। यह भाषा डिंगल और पिंगल नाम से पहचानी जाती है। अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था वह डिंगल कहलाता था। डिंगल भाषा को कई विद्वान गँवारों की भाषा मानते हैं। वस्तुतः डिंगल भाषा में कर्कश वर्णों का प्रयोग प्रचुरता से होता है।

डिंगल भाषा की ध्वन्यात्मकता से युद्ध के वातावरण का सजीव चित्र उपस्थित किया जा सकता था, इसलिए इस भाषा का व्यापक प्रसार रासो साहित्य में देखने को मिलता है। युद्ध वर्णन की मुख्य भाषा डिंगल भाषा ही थी। पृथ्वीराज रासो में भी युद्ध के वर्णन में डिंगल भाषा का प्रयोग हुआ है :

बज्जिय घोर निसांन रान चौहान चहूँ दिसि ।

सकल सूर सामन्त समर बल जंत्र मंत्र तिसि ।

उट्ठि राज प्रथिराज, बाग लग्ग मनहु वीर नर।

कढ़त तेग मन बेग लगत मनहु बीजु झट्ट थट्ट ।।

‘बीसलदेव रासो’ से यह सूचना मिलती है कि मध्यदेश की भाषाओं के सहयोग से पिंगल भाषा प्रचलित हो रही थी। प्रादेशिक बोलियों के साथ-साथ ब्रज या मध्यदेश की भाषा का आश्रय लेकर एक सामान्य साहित्यिक भाषा स्वीकृत हो चुकी थी जो चारणों में पिंगल भाषा के नाम से पुकारी जाती थी। पिंगल भाषा को डिंगल की अपेक्षा अधिक परिष्कृत माना जाता था। पिंगल में कोमल भावों को अभिव्यक्त किया जाता था। डिंगल और पिंगल विशेष प्रकार के भाव और भाषा की शैली थी। रासो काव्य की भाषा में दूसरी महत्वपूर्ण बात उभरती है, मिश्रित शब्दावली का प्रयोग। मिश्रित शब्दावली से तात्पर्य है तत्सम तद्भव और देशज शब्दावली के साथ-साथ विदेशी शब्दों का प्रचुरता से प्रयोग । ‘बीसलदेव रासो’ में अरबी और फारसी के सैकड़ों शब्द मिलते हैं । भाषा के स्तर पर यह मिश्रण इस बात को सूचित करता है कि भाषा में सामाजिक संस्कृति का विकास हो रहा था।

प्रत्येक साहित्यिक कालखंड अपना छंद स्वयं रचता है। छंद का निर्माण युग के द्वारा होता है और इसीलिए युग बदलने के साथ छंद भी परिवर्तित हो जाते हैं। रासो काव्य में कुछ छंदों का प्रयोग रासो युग की खोज है और कुछ छंद उसे अपभ्रंश काव्य से प्राप्त हुए हैं। छंदों की जितनी अधिक विविधिता रासो काव्य में मिलती है उतनी किसी दूसरी साहित्यिक धारा में प्राप्त नहीं होती है। कवित्त (छप्पय), दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा, आर्या और आल्हा आदि अनेक प्रकार के छंद रासो काव्य में प्रयुक्त हुए हैं । दूहा, रोला, उल्लाला, छप्पय, और कुण्डलिया अपभ्रंश भाषा के प्रचलित छंद हैं। पृथ्वीराज रासो में अपभ्रंश भाषा का प्रभाव गहरा है। इसलिए अपभ्रंश भाषा के छंदों का प्रयोग भी काव्यकृति में दिखाई पड़ता है। पृथ्वीराज रासो में सर्वाधिक छप्पय छंद प्रयुक्त हुआ है।

एक बान पहुमी नरेस कैपासह मुक्यौ ।

उर उप्पर थर हरयो बीर कष्यंतर चक्यौ ।।

वियौ बान संधान हन्यो सोमेसर नंदन ।

गाढ़ौ करि निग्रहयौ षनिव गड्यौ संभरि धन।।

थल छोरि न जाइ अभागरौ गड्यौ गुन गहि अग्गरै।

इम जपै चंदवरदिय कहा निघटै उन प्रलै ।।

‘परमाल रासो’ लोकगान के लिए रचा गया था। परमाल रासो में आल्हा नामक छंद का आविष्कार किया गया। आल्हा छंद का प्रयोग किसी भी प्राचीन रचना में नहीं मिलता। आल्हा शैली में तुकांत शब्दों के प्रयोग से काव्य में संगीतात्मकता की सृष्टि की गई है। शब्दों में ध्वनि के सामंजस्य से काव्य में नाद सौंदर्य को रचा गया है तथा कविता में अभिव्यक्ति चित्रात्मक है।

लौकिक साहित्य

आदिकालीन साहित्य में धार्मिक साहित्य और चारणों की प्रशस्तिपरक रचनाओं से भिन्न दूसरे प्रकार के साहित्य की लोकधारा भी प्रवाहशील थी। साहित्य की यह लोकधारा ही वास्तविक अर्थ में देशभाषा काव्य थी जो हिंदी साहित्य के विकास के मूल में है। चारण साहित्य को जब से राजाश्रय प्राप्त हो गया, तब से उसमें भी शास्त्रीय रूढ़ियों जैसे अभिजात तत्व से रासो साहित्य आच्छादित हो गया, ऐसी परिस्थिति में साहित्य में नूतनता का प्रादुर्भाव लोक साहित्य द्वारा संभव हो सकता था। लौकिक साहित्य ने जीवन की रची-बसी विषय-वस्तु को अपने साहित्य का विषय बनाया इसलिए कविता या गद्य में अलंकरण न होकर जीवन की . स्वाभाविक दशाओं का वर्णन है। लौकिक साहित्य के विभिन्न अंग केवल शुद्ध साहित्यिक दृष्टि से ही अध्ययन के विषय न होकर सांस्कृतिक अर्थात् मानव विज्ञान तथा समाजशास्त्र की दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

हिंदी साहित्य के आदिकाल में मुलतान, राजस्थान, दिल्ली, अवध और मिथिला से लौकिक साहित्य प्राप्त हुए हैं | ‘संदेश रासक’ का कवि अद्दहमाण या अब्दुल रहमाण मुलतान का था, ‘ढोला मारू रा दूहा’ की रचना राजस्थान में हुई थी। अमीर खुसरों दिल्ली के आसपास के रहने वाले थे, “उक्ति व्यक्तिप्रकरण’ का रचनाकार अवध का रहने वाला था और विद्यापति तथा ज्योतिरीश्वर ठाकुर मिथिला के निवासी थे। रचनाकार के जन्म-स्थान बताने का उद्देश्य यह है कि रचनाकार की भाषा पर स्थानीयता का गहरा रंग चढ़ा हुआ है। इस रंग को पहचान कर हम उससे स्थानीय भाषा और संस्कृति को समझ सकते हैं।

संदेश रासक

‘संदेश रासक’ की रचना बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में मूल स्थान (मुलतान) के आसपास हुई थी। ‘संदेश रासक’ की रचना अपभ्रंश भाषा में हुई थी, परंतु वह अपभ्रंश भाषा बोलचाल के अधिक नज़दीक थी। कवि अब्दुल रहमाण प्राकृत और अपभ्रंश की परंपरा के अच्छे जानकार थे, फिर भी वे अपनी रचना को बोलचाल की भाषा के अधिक नज़दीक रखने का प्रयत्न करते हैं। बोलचाल की भाषा से जुड़ी होने के कारण ही ‘संदेश रासक’ में लोक-संवेदना का सहज विस्तार मिल गया है। ‘संदेश रासक’ दूत काव्य है। दूत काव्य की परंपरा संस्कृत और प्राकृत में भी मिलती है और उसी काव्य-चेतना का प्रसार अपभ्रंश में भी मिलता है। ‘मेघदूत’ के । पूर्व-मेघ और उत्तर-मेघ के समान ‘संदेश रासक’ तीन प्रक्रमों में विभाजित है। प्रथम प्रक्रम प्रस्तावना रूप में है, द्वितीय प्रक्रम में वास्तविक कथा का प्रारंभ होता है और तृतीय प्रक्रम में षड्ऋतु का वर्णन है।

‘संदेश रासक’ में मंगलाचरण, आत्म-परिचय, ग्रंथ लिखने के औचित्य, षड्ऋतु वर्णन तथा रूप वर्णन जैसी शास्त्रीय रूढ़ियों की कमी नहीं है, फिर भी उसमें नारी की करुणा का संदेश मार्मिक है। इस काव्य में लोक जीवन के सघन चित्र प्राप्त होते हैं। काव्य में शास्त्रीय रूढ़ि, काव्य की संरचना मात्र है, मूल संवेदना गहरे स्तर पर लोकानुभूतियों को स्पर्श करती है। काव्य की मूल कथा में विजय नगर की एक प्रोषितपतिका नायिका का वर्णन है, जिसका पति धनार्जन हेतु खंभात गया है। यह विरहिणी नायिका एक पथिक के माध्यम से अपनी विरहानुभूति का संदेश पति तक सम्प्रेषित करना चाहती है। नायिका के विरह में प्रकृति का पूर्ण सहयोग है, प्रकृति के विराट प्रांगण में विरह का उत्सव मनाया जाता है। प्रकृति वर्णन में कवि की दृष्टि जहाँ ग्राम्य जीवन की ओर गई है, वे स्थल काव्य में बड़े मार्मिक हो गए हैं। काव्य में प्रकृति का बाहय वर्णन प्राकृतिक वर्णन मात्र न होकर विरहिणी नायिका के हृदय का चित्र हो गया है। आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में, ‘वर्णन चाहे जिस दृश्य का हो, व्यंजना हृदय की कोमलता और मर्म-वेदना की ही होती है। प्रकृति और विरहिणी नायिका का इसी प्रकार का साम्य जायसी के पद्मावत् के नागमती वियोग खंड में मिलता है :

उत्तरायणि वड्ढिहि दिवस,

णिसि दक्खिण इहु पुव्व णिउइउ।

दुच्चिय वड्ढहि जत्थ पिय,

इहु तीयउ विरहायणु होइयउ।।

अर्थात् उत्तरायण में दिन बड़े हो जाते हैं, दक्षिणायन में रातें बड़ी हो जाती हैं और दिन छोटे हो जाते हैं। अब मेरे लिए दोनों दिन भी और रातें भी बड़ी हो गईं – यह तीसरा विरहायण हो गया।

अब्दुल रहमाण ने नायिका की तीव्र विरहानुभूति को प्रभावकारी बनाने के लिए नाटकीय कौशल का सहारा लिया है। थोड़ा संदेश सुनकर पथिक ज्यों ही चलने को होता है, नायिका नया प्रसंग छेड़ देती है। आज के सामाजिक जीवन में टूटते मानवीय संबंध की तुलना जब ‘संदेश रासक’ के सहृदय पथिक की सहानुभूति से करते हैं तब हम पाते हैं कि आज के युग में मानवीय भावों का कितना हास हुआ है। मानवीय करुणा और सहानुभूति के शीतल स्पर्श के कारण इस कृति की सार्थकता आज भी बनी हुई है।

ढोला मारू रा दूहा ‘ढोला मारू रा दूहा’

की रचना ग्यारहवीं शताब्दी में पश्चिमी राजस्थान में हुई थी। यह अज्ञात है कि इस कृति की रचना किस रूप में हुई थी। कुशललाम ने कृति में कुछ चौपाइयों को। जोड़कर काव्य-कृति को सुगठित आधार दिया। ‘ढोला मारू रा दूहा’ की रचना लोककथा के आधार पर की गई थी। इस काव्य-कृति में कथानक इस प्रकार से बुना गया है कि कथा का मुख्य सूत्रधार राजकुमार ढोला ही प्रतीत होता है। राजकुमार ढोला दो विवाह करता है। उसका प्रथम विवाह मारवाणी से होता है। राजकुमार ढोला शीघ्र ही मालव प्रदेश की यात्रा करता है और वहाँ एक दूसरी लड़की पालवाणी से प्रेम करने लगता है। मारवाड़ प्रदेश में मारवाणी विरह व्यथा से त्रस्त है। मारवाणी अपनी आंतरिक वेदना का संदेश दंढियों के माध्यम से राजकुमार ढोला तक पहुँचाती है। मारवाणी के संदेश में उसके हृदय की तीव्र अनुभूति व्यक्त होती है।

वस्तुतः यह काव्य पुरुष की स्वेच्छाचारी मनोवृत्ति को उद्घाटित करता है और उसके साथ ही नारी जीवन की पराधीनता और विवशता की ओर भी ध्यान आकृष्ट करता है। चूंकि ‘ढोला मारू रा दूहा’ लोककथा है, इसलिए इसमें लोकजीवन और प्रकृति के आत्मीय रिश्तों को भी । कृतिकार ने रेखांकित किया है। इस काव्य में नारी जीवन की आशाएँ, स्मृतियाँ तथा चिंताएँ ऋतु की संवेदनाओं के साथ जुड़ जाती हैं । मारवाणी के प्रेम वियोग में प्रकृति पूर्णतः सहयोगी बनकर उपस्थित होती है। हिंदी साहित्य में दोहा के विकास को समझने में ‘ढोला मारू रा दूहा’ का व्यापक महत्व है।

गद्य रचनाएँ

आदिकालीन हिंदी साहित्य में देश के विविध भागों में विविध प्रकार की गद्य रचनाएँ भी हो रही थीं। गद्य रचना में जीवन और समाज की वास्तविकता को प्रकट करने की शक्ति होती है। आदिकाल में जितने प्रकार की गद्य रचनाएँ मिलती हैं, उसमें कहीं न कहीं तत्कालीन जीवन की यथार्थताओं का वर्णन है। इस युग की गद्य कृतियों में दामोदर भट्ट रचित ‘उक्तिव्यक्तिप्रकरण’ (12वीं शताब्दी), ज्योतिरीश्वर ठाकुर की कृति, “वर्ण रत्नाकर’ (14वीं शताब्दी) तथा विद्यापति की ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ (14वीं शताब्दी) का नाम उल्लेखनीय है।

दामोदर भट्ट गहड़वार के प्रसिद्ध राजा गोविन्दचन्द्र के दरबारी साहित्यकार थे। गोविन्दचन्द्र के पुत्रों को शिक्षा देने के लिए इस कृति की रचना हुई थी। लोकभाषा की लोकरुचि से संस्कृत व्याकरण का आधारभूत ज्ञान किस प्रकार से प्राप्त किया जाए – इसका संकेत हमें ‘उक्तिव्यक्तिप्रकरण’ में मिलता है। ‘उक्तिव्यक्तिप्रकरण’ से इस बात का भी पता चलता है कि साहित्य की रूढ़ भाषा से बोलचाल की भाषा बिल्कुल अलग थी। साहित्य की रूढ़ भाषा अपभ्रंश थी और बोलचाल में लोकभाषा तथा बोली प्रयुक्त होती थी। अवधी भाषा और संस्कृति को समझने में ‘उक्तिव्यक्तिप्रकरण’ का ऐतिहासिक महत्व है।

‘वर्णरत्नाकर’ डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी द्वारा संपादित हो कर प्रकाशित हो चुकी है। ‘वर्णरत्नाकर’ की भाषा मैथिली हिंदी है। ‘वर्णरत्नाकर’ कल्लोलों में विभाजित है। इस गद्य कृति में राज-दरबारों के कार्यकलापों का ब्योरेवार वर्णन मिलता है। वर्णरत्नाकर’ में रीति ग्रंथों की तरह नायक-नायिका के गुणों, उनके प्रकारों की विवेचना मिलती है। इसमें वेश्याओं का वर्णन है और उनमें प्रचलित संगीत का वर्णन भी मिलता है। संपूर्ण रूप से देखें तो मैथिली भाषा और संस्कृति की विभिन्न विशेषताओं को समझने में इस पुस्तक का विशिष्ट महत्व है।

विद्यापति

विद्यापति का रचनाकाल चौदहवीं शताब्दी था। उस काल की देशभाषा को अपभ्रंश में मिलाकर रचने की प्रवृत्ति प्रचलित थी। विद्यापति ने भी इन रूढ़ियों का पालन किया, परंतु उनके काव्य में देशभाषा का स्वतंत्र विकास भी देखने को मिलता है। अपभ्रंश मिश्रित लोकभाषा जिसे विद्यापति ने अवहट्ठ कहा है, तथा मिथलांचल प्रदेश में प्रचलित लोकभाषा मैथिली दोनों ही भाषाओं में विद्यापति ने रचना की। विद्यापति की स्पष्ट मान्यता थी –

देसिल बअना सब जन मिट्ठा । ते तैसन जपओं अवहट्ठा।

अर्थात देशी भाषा सबको मीठी लगती है, इससे वैसा ही अपभ्रंश में कहता हैं। विद्यापति दो भाषाओं को स्वीकार करते हुए भी देशभाषा को प्रमुख मानते हैं। यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि वह कौन-सी ज़रूरत थी जिसके कारण विद्यापति को अवहट्ठ में रचना करनी पड़ रही थी। वस्तुतः राज-दरबार के अभिजात्य के बीच अपभ्रंश भाषा का प्रचलन था। विद्यापति राजाश्रय में रचना कर रहे थे। वे कीर्ति सिंह के दरबार में रहते थे। अतः उन्हें विवशतावश दरबार की भाषा को भी रचना के लिए अपनाना पड़ा। कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ उनकी इसी विवशता का प्रतिफल है। विद्यापति की भाषा में लोक-अनुभति और लोक-अनुभव का आधार इतना गहरा था कि उससे उनकी अवहट्ठ रचनाएँ भी प्रभावित हुई। उस अपभ्रंश की विशेषता यह है कि उसमें देशभाषा का कुछ अधिक प्रभाव है। यह प्रभाव शब्द के साथ-साथ लय और टोन में अभिव्यंजित होता है :

धारि आनय बाभन बरुआ। मथा चढ़ावउ गाय का चरुआ।

हिंदू बोले दूरहि निकार। छोटउ तुरुका भभकी मार ।।

यह अपभ्रंश भाषा प्राकृत की रूढ़ियों में बंधी हुई प्रतीत नहीं होती। वस्तुतः विद्यापति के सामने कविता की दो धाराएँ थीं – एक प्राचीन मैथिली की और दूसरी उत्तरकालीन अवहट्ट की। विद्यापति ने दोनों प्रकार की भाषाओं को मिलाकर एक नई शैली की उद्भावना की। आश्रयदाताओं की प्रशंसा के बावजूद मैथिल-कोकिल ने लोक-अनुभूति के मर्म से अपनी कविता को रचा। मिथिला का कोई पर्व-त्योहार, विवाह और अन्य लोकोत्सव मैथिल-कोकिल के गीत के बिना अधूरा माना जाता है। लोक-संवेदना में इतने गहरे स्तर तक हिंदी में किसी दूसरे कवि की पैठ नहीं मिलती। इसी अर्थ में डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्हें मध्यकालीन नवजागरण का अग्रदूत माना है। विद्यापति के विषय में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया जाता है कि वे भक्त थे अथवा शृंगारी। इस विवाद को उनकी कविता के आधार पर ही विवेचित किया जा सकता है। विद्यापति के काव्य में मानवीय सौंदर्य का गहरा रंग है। उनके द्वारा रचे गए सौंदर्य के चित्र सघन हैं। राधा और कृष्ण के साथ शिव और पार्वती को भी विद्यापति ने मानवीय बनाकर प्रस्तुत किया है। विद्यापति का काव्य जहाँ जयदेव के श्रृंगारी काव्य से प्रभावित है, वहीं दूसरी ओर उनपर कालिदास की स्वच्छंद अनुभूति का प्रभाव भी मिलता है। विद्यापति ने कृष्ण के अतिरिक्त, शिव को भी श्रृंगार रस का आलंबन बनाया है। कवि ने शिव और कृष्ण के मिथक का आश्रय इसलिए लिया है कि प्रेम जैसी अनुभूति का तन्मयता से वर्णन हो सके।

विद्यापति के शृंगार वर्णन की बहुत बड़ी विशेषता है कि उन्होंने अपने शृंगार वर्णन को सामंती श्रृंगार के सौंदर्य के उपभोग पक्ष से अलग रखा है। उनके शृंगारिक मनोभाव में लोकजीवन की सहजता है। उनके काव्य में किशोर और किशोरियों के प्रेम का सहज आकर्षण है, नवयौवन की चंचलता है और भावों की ऊहापोह है। वयःसंधि के प्रकरण में विद्यापति अद्वितीय हैं :

सैसव जौवन दुहु मिलि गेल

सावन क पथ दुहु लोचन लेल

निरजन उरज हेरइ कत वेरि

हंसइ जे अपन पयोधर हेरि।

नवयौवन में किन मनःस्थितियों का विकास होता है, विद्यापति ने उसका मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन किया था। इन मनःस्थितियों के बीच जो प्रतिक्रिया होती है उसका विशद वर्णन विद्यापति के साहित्य में मिलता है। विद्यापति के नायक और नायिका में बेचैनी है। उनका मनोभाव अशांत है, उसमें भावों की तरलता है और प्रिय से मिलने की आकांक्षा है। प्रेमानुभूति, यौवन और सौंदर्य के अतिरिक्त विद्यापति में सामान्य जीवन का चित्रण भी मिलता है। इनके कई पदों में मिथिला के गरीब लोगों का चित्र सामने आता है, जो अपनी हीन वित्तीय स्थिति के कारण अपनी आवश्यकताओं की भी पूर्ति नहीं कर पाते थे। प्रोषितपतिका नायिका अपनी हीन वित्तीय स्थिति के कारण पथिक को विभिन्न भाव-भांगिमा के द्वारा अपनी ओर आकृष्ट करने की चेष्टा करती है।

मिथिला में विद्यापति ने जिस तान को छेड़ा उसका प्रभाव मिथिला में ही सीमित न होकर असम, बंगाल, उड़ीसा तक जा पहुँचा। वस्तुतः मिथिला पूर्वी संस्कृति का केंद्र था। मिथिला में गीति काव्य और दर्शन की दो धाराएँ एक-साथ प्रवाहित हो रही थीं। विद्यापति का संबंध इन दोनों धाराओं से था। पूरब के लोग मिथिला में पढ़ने-लिखने और कार्य करने आते थे। जब वे अपने प्रदेश लौटते थे तो मिथिला के गीत और भजन भी लेते जाते थे। इसी तरह से विद्यापति की कविताओं का प्रसार असम, बंगाल और उड़ीसा में हुआ। मैथिल-कोकिल की लयात्मक चेतना और गीतात्मक संवेदना से संपूर्ण पूर्वी भारत आनंदित हो उठा :

नंदक नंदन कदम्बक तरु तरे

धीरे-धीरे मुरली बजाय

समय संकेत निकेतन वैसल

बेरि-बेरि बोलि पठाव।

अमीर खुसरो

अमीर खुसरो बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। उन्हें विविध विधाओं में निपुणता हासिल थी। इतिहास, कविता, संगीत आदि विविध विषयों पर उन्होंने लेखनी चलाई। वे कई भाषाओं के जानकोर थे। फारसी, उर्दू, ब्रजभाषा, खड़ीबोली तथा कई अन्य भाषाओं में वे समान अधिकार के साथ लिख सकते थे। खुसरो मिलनसार तथा खुशमिज़ाज़ स्वभाव के थे। उन्होंने जनता में प्रचलित पद्य, पहेलियों तथा मुकरियों को अपनाया। उनके दोहे तथा पहेलियों में एक खास प्रकार की तुकबंदी है। कहीं-कहीं तो उन्होंने फारसी भाषा और ब्रजभाषा की संगीतात्मक ध्वनि को एक-साथ पिरो दिया। दो भिन्न भाषाओं और संस्कृतियों के छंद को एक- साथ मिलाने का असाधारण कार्य कोई दृष्टि – सम्पन्न अध्येता ही कर सकता है।

जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना बनाय बतियाँ ।

कि ताबे हिजा न दारम ए जाँ! न लेहु काहें लगाय छतियाँ ।

शबाने हिजाँ दराज चूँ जुल्फ व रोजे वसलत यूँ उम्र को तह ।

सखी! पिया को जो मैं न देखू तो कैसे का, अंधेरी रतियाँ! ।।

खुसरों के काव्य में सामान्य भारतीय मनुष्य की सहजता है। अमीर खुसरों दरबार के फारसी पांडित्य से अलग लोकभाषा में जनता की अनुभूति को अभिव्यक्त करते हैं। उन्होंने जनता की भाषा को अपना बनाया था, इसलिए जनता भी उन्हें आज तक नहीं भूली है। मध्यदेश की भाषा खड़ी बोली और ब्रजभाषा के विकास को समझने में खुसरो की रचनाओं से काफी मदद मिलती है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है ‘यहाँ इस बात की ओर ध्यान दिला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि काव्यभाषा का ढाँचा अधिकतम शौरसेनी या पुरानी ब्रजभाषा का ही बहुत काल से चला आता था। अतः जिन पश्चिमी प्रदेशों की बोलचाल खड़ी होती थी, उनमें भी जनता के बीच प्रचलित पद्यों, तुकबंदियों आदि की भाषा ब्रजभाषा की ओर झुकी रहती थी। अब भी यह बात पाई जाती है।

इसी से खुसरो की हिंदी रचनाओं में भी दो प्रकार की भाषा पाई जाती है। ठेठ खड़ी बोलचाल की भाषा पहेलियों, मुकरियों और दो सुखनों में ही मिलती है-यद्यपि उनमें भी कहीं-कहीं ब्रजभाषा की झलक है। पर गीतों और दोहों की भाषा ब्रज या मुख प्रचलित काव्यभाषा ही है। मध्यदेश के जनमानस में प्रचलित भाषा और जनता की सोच-समझ को जानने के लिए आदिकालीन हिंदी साहित्य में खुसरो का महत्व । अतुलनीय है। अमीर खुसरो ने अनेक काव्यों को रचा, जिसमें ऐतिहासिक प्रेमाख्यान भी हैं। उन्होंने सभी काव्य-शैलियों का प्रयोग किया। उन्होंने एक नई फारसी शैली का निर्माण किया जो बाद में सबक-ए-हिंदी या भारतीय शैली कहलाई। खुसरो द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या सौ बताई जाती है, जिनमें बीस-इक्कीस ही उपलब्ध हैं। ‘खलिकबारी’, ‘पहेलियाँ’, ‘मुकरियाँ’, ‘दो सुखने’, ‘गज़ल’ आदि अधिक प्रसिद्ध हैं।

खुसरो की मुकरियाँ और पहेलियाँ जनता के बीच अधिक लोकप्रिय हैं। अमीर खुसरों ने ब्रजभाषा में गीत और कव्वालियों को रचा, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आज भी मौखिक रूप में प्रचलित हैं। उन्होंने ऐमान गोरा सनम जैसे अरबी और ईरानी रागों को हिंदी प्रदेशों में प्रचलित किया। सितार और तबले जैसे वाद्ययंत्र के निर्माण का श्रेय भी खुसरो को ही दिया जाता है। मध्यकाल में भारतीय जीवन में मिश्रित सांस्कृतिक प्रक्रिया का जो प्रारंभ हुआ, उसकी प्रतिच्छाया को खुसरो की रचनाओं में देखा जा सकता है।

दक्खिनी हिंदी

दक्खिनी हिंदी के संदर्भ में बहुत संक्षिप्त चर्चा की संभावना है। उत्तरी भारत में खड़ी बोली की कविता की शुरुआत खुसरों की रचनाओं से ही मानी जाती है, परंतु दक्षिणी भारत में सूफी मत के प्रचार के साथ खड़ी बोली हिंदी के दक्खिनी रूप का विकास प्रारंभ होता है। दक्खिनी हिंदी का विकास उर्दू के प्रभाव में हो रहा था। जिस प्रकार की भाषा में दक्षिण भारत में बंदानेवाज, शाँहशीराँजी तथा सबरस रचना कर रहे थे। उनकी रचना तथा उत्तरी भारत की खड़ी बोली की रचनाओं में फर्क मात्र लिपि के स्तर पर था। उन्होंने अरबी लिपि में काव्य रचना को प्रस्तुत किया। बंदानेवाज़ की काव्य-कृति ‘चक्कीनामा’ तथा शाहशीसूजी की काव्य-कृति ‘खुशनामा’ को हिंदी की ही रचना स्वीकार करना चाहिए।

सारांश

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप चारण साहित्य की प्रमुख प्रवृत्तियों को समझ गए होंगे। चारण साहित्य की प्रशस्तिपरक रचना तथा लोककाव्य के बीच के सूक्ष्म भेदों की चर्चा भी हमने इस इकाई में की। प्रशस्तिपरक साहित्य का स्थायी भाव युद्ध और प्रेम ही क्यों था इस बात को भी आप भली-भाँति समझ गए होंगे । मुलतान से लेकर मिथिला तक किस प्रकार से देशभाषा में साहित्य रचना की शुरुआत हुई तथा लोकभाषा और अपभ्रंश भाषा के द्वंद्वात्मक रिश्तों के बीच किस प्रकार कवियों ने देशभाषा को प्रतिष्ठित करने में अपनी भूमिका निबाही इसका अध्ययन भी आपने किया। लौकिक साहित्य के अध्ययन में आपको यह भी पता चल गया होगा कि संस्कृति की विषय-वस्तु, भाषा, छंद का कितना अटूट संबंध होता है।

अभ्यास प्रश्न 

  1. रासो काव्य की पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  2. आदिकालीन लौकिक साहित्य पर एक निबंध लिखिए।
  3. आदिकालीन लौकिक साहित्य में अमीर खुसरों के योगदान की चर्चा कीजिए।
  4. निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए :
  • संदेश ससक 
  • विद्यापति
  • ‘ रासो साहित्य की प्रामाणिकता

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