रीतिकालीन कविता का स्वरूप

यह इकाई रीतिकालीन साहित्य के स्वरूप पर आधारित है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप:

  • रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त कवियों तथा उनकी कृतियों का परिचय दे सकेंगे;
  • रीतिकाल के साहित्य के तीनों वर्गों के कवियों के साहित्य की विशेषताएँ बता सकेंगे;
  • रीतिकालीन शृंगारेतर काव्य के अंतर्गत आने वाले भक्ति, नीति, वैराग्य तथा प्रशस्ति काव्य की चर्चा कर सकेंगे;
  • रीतिकालीन कवियों के भाषा सौन्दर्य और शिल्प की जानकारी दे सकेंगे।

हिन्दी साहित्य के इतिहास में रीतिकाल एक कालखंड है। रीति शब्द का जो अभिप्राय हमें संस्कृत साहित्य में मिलता है, उस शब्द का समान अभिप्राय हिन्दी साहित्य के लिए उपयुक्त नहीं है। संस्कृत साहित्य में अलंकार, रीति, रस, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि काव्यशास्त्रीय चिंतन के पहलू हैं। अलंकारवाद, रीतिवाद, रसवाद इत्यादि काव्यशास्त्रीय चिंतन की सुदृढ़ प्रणाली हैं। हिन्दी साहित्य के रीतिकाल में जितने भी रीतिग्रंथ मिलते हैं उनमें कवियों का उद्देश्य भिन्न है। इन रीति ग्रंथों के कवियों का उद्देश्य काव्यांगों का शास्त्रीय विवेचन करना नहीं था। उनका मुख्य उद्देश्य कविता करना था। कविता के प्रति उनका दृष्टिकोण भी बहुत सीमित था।

कवि अर्थोपार्जन के लिए कविता करते थे। सामंतों का दरबार उनकी कविता का मुक्त बाज़ार था। सामंतों की रुचि का ख्याल रखना और उनका मनोरंजन करना कवियों के लिए महत्वपूर्ण हो गया। इस कार्य के लिए कवियों ने तीन प्रकार से शास्त्र का सहारा लिया। प्रेम-क्रीड़ाओं से संबंधित काम शास्त्र, उक्ति वैचित्र्य से संबंधित अलंकार शास्त्र और नायक नायिका के स्वभाव का वर्णन करने वाले रस शास्त्र को कवियों ने अपना आधार बनाया।

काव्यशास्त्र-विवेचन हिन्दी में भी काफी पुराना है। सत्रहवीं शती के प्रारंभ में कृपाराम की हितरंगिणी’ की रचना को विद्वानों ने आमान्य तो ठहरा दिया लेकिन उसी में उसकी एक निश्चित परंपरा का संकेत है जो कभी समाप्त नहीं हई। ऐसा हो सकता है कि आदिकाल में सामंत युद्धों में व्यस्त थे और संत सामान्य जन में आध्यात्मिक चेतना जगाने और अपने मत के प्रचार में डूबे हुए थे। अत: उस समय कविता वीरों में युद्धोन्माद और लोक में अलौकिक शक्तियों के प्रति आकर्षण उन्पन्न करने का साधन बनी। (हिन्दी साहित्य का इतिहास, लेखक आचार्य रामचंद्र शुक्ल) भक्तिकाल में कविता आराध्य देवों के गुणगान का सशक्त माध्यम बनी।

दूसरी ओर बाह्याडंबर के विरोध में और प्रेम के वास्तविक रूप के उद्घाटन में ही संतों – सूफियों ने उसकी सार्थकता मानी। इस धार्मिक – आध्यात्मिक प्रवाह में तथा आगे चलकर रीतिकाल में हिन्दी कविता का स्वरूप बदलता रहा। रीतिकाल तक आते-आते कविता का विषय शृंगार हो गया। इस युग में भक्ति गौण और शृंगारिकता प्रमुख हो गई।

इस इकाई में हम रीतिकालीन कविता के स्वरूप की विस्तार से चर्चा करेंगे।

रीतिकाल में जो कविता प्राप्त होती है उसके कर्ता मुख्यत: तीन वर्गों में विभक्त किए गए हैं, फलत: इन वर्गों में विभक्त करके ही रीतिकालीन काव्य के स्वरूप का परिचय दिया जा सकता है। ये वर्ग हैं :

  1. रीतिबद्ध
  2. रीतिसिद्ध और
  3. रीतिमुक्त

रीतिबद्ध काव्य

रीतिबद्ध काव्य मुख्यत: शास्त्रीय स्वरूप के उद्घाटन में नियोजित था। जिसके परिणाम स्वरूप उसमें विभिन्न काव्यरीतियों का बंधन पाया जाता है। कवि को अपनी भावना के प्रसार के लिए व्यापक भूमि नहीं मिली। आचार्य शुक्ल ने अपने इतिहास में रीतिकाल पर चर्चा करते हुए लिखा है : “वाग्धारा बँधी हुई नालियों में प्रवाहित होने लगी जिससे अनुभव के बहुत से गोचर और अगोचर विषय रस – सिक्त होकर सामने आने से रह गए।” शुक्लजी की मर्यादावादी दृष्टि समग्रजीवन के विविध भावों का पूर्ण उत्कर्ष रीतिकाव्य में न पाकर, इसे वासनात्मक और चमत्कार प्रधान एवम् रूढ़िग्रस्त मानती है किन्तु शृंगार रस के कोमल – ललित भावों का अपूर्व भंडार भी घोषित करती है।

वस्तुत: रीतिबद्ध कविता में शास्त्रीयता और श्रृंगारिकता का अद्भुत संयोग देखने को मिलता है। इस काव्य प्रवृत्ति की पृष्ठभूमि में दरबारी मानसिकता कार्यरत थी। दरबार में कविता को संगीत और नृत्य की तरह मनोरंजन का साधन समझा जाने लगा। सामंत का मनोरंजन कविता का उद्देश्य हो गया। सामंत की रुचि का महत्त्व काव्य-प्रवृत्ति का रुझान बन गया। सामंत की रुचि श्रृंगार रस से पूर्ण छंद में तथा सामान्य शास्त्रीय जानकारी तक सीमित थी। इसलिए रीतिबद्ध काव्य में चमत्कार की प्रमुखता हो गई जिससे आश्रयदाताओं को चौंकाया जा सके। इस चमत्कार के फलस्वरूप रीतिबद्ध काव्य में वाग्वैदग्ध्यता, सघनता, लघुता और शृंगारिक उत्तेजना का प्रसार मिलता है।”

रीतिकाल में काव्यशास्त्र – विवेचन का लक्ष्य दूसरा था। ये संस्कृत के आचार्यों की तरह बौद्धिक विश्लेषण में रुचि न ले सके क्योंकि इन्हें तो सामान्य रसिक सामन्तों को हिन्दी भाषा के माध्यम से काव्यशास्त्र का साधारण ज्ञान कराना और रमणीय उदाहरणों के द्वारा उनका मनोरंजन करना था। ये आचार्य – कर्म के बहाने अपने काव्य कौशल का प्रदर्शन करना चाहते थे।

इसीलिए इन्हें न तो संस्कृत के उद्भावक आचार्य की तरह नवीन सिद्धांतों की स्थापना करनी थी, न व्याख्याता आचार्यों की तरह स्थापित सिद्धांतों की तर्कपूर्ण शैली में व्याख्या ही करनी थी। ये मूलत: कवि-शिक्षक थे। “अत: लक्षणों के वेष्ठन में वेष्ठित करके कोमल – मादक मनोभावों को प्रस्तुत करना ही इनका लक्ष्य था जिसमें इन्हें पर्याप्त सफलता मिली।” (हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, ले. डॉ.बच्चन सिंह) इस वर्ग में आने वाले कुछ प्रमुख कवि-आचार्यों तथा उनके साहित्य का परिचय हम यहाँ उदाहरण के रूप में दे रहे हैं।

आचार्य केशवदास (सन् 1560-1601 ई.)

इनकी चर्चा साहित्य के इतिहासकारों ने भक्तिकाल के फुटकल कवियों में की है। किन्तु बिना केशवदास का श्रद्धापूर्वक स्मरण किए हिंदी रीति साहित्य की भूमिका का प्रारंभ कोई न कर सका। पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र लिखते हैं – “केशव की रचना में इनके तीन रूप दिखाई देते हैं – आचार्य का, महाकवि का और इतिहासकार का। ये परमार्थत: हिन्दी के प्रथम आचार्य हैं। इन्होंने ही हिन्दी में संस्कृत की परंपरा की व्यवस्थापूर्वक स्थापना की थी।” डॉ.भगीरथ मिश्र ने भी विश्वनाथ जी के इस कथन का समर्थन किया है।

आचार्य शुक्ल ने केशव की सहृदयता पर आक्षेप करते हुए इनकी कविता में दुरूहता और अस्पष्टता का सविस्तार उल्लेख किया है। डॉ. जगदीश गुप्त ने भी कहा है कि ‘सुबरन’ की खोज में तथा कवि रूढ़ियों के निर्वाह में तल्लीन उनकी काव्य चेतना कवि-सुलभ रागात्मक तारतम्य और सहज सौंदर्य बोध से प्राय: वंचित रह गई है। इन्होंने मुक्तक और प्रबंध दोनों काव्य रूपों में अनेक काव्यों की रचना की – उदाहरण के रूप में रस (रसिकप्रिया), अलंकार (कविप्रिया) छंद और भक्ति (रामचंद्रिका, छंदमाला), वीर-प्रशस्तिकाव्य (वीर सिंह देवचरित, जहाँगीर जस चन्द्रिका, रतन बावनी), वैराग्य (विज्ञानगीता) आदि को लिया जा सकता है।

रीतिकालीन कविता के लिए एक विशेष मानसिक वातावरण के निर्माण में इनका योगदान मूल्यवान है यद्यपि इनमें सहृदयता और निर्मल शास्त्र ज्ञान का अभाव माना जाता है फिर भी, रीतिकालीन कविता की सभी प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व केशव का साहित्य करता है। केशव की कविता में शास्त्रीय विवेचन की सामग्री मिलती है। ‘कविप्रिया’ और ‘रसिकप्रिया’ शास्त्रीय ग्रंथ हैं। ये दोनों ग्रंथ रीतिकाल के आधारभूत लक्षण ग्रंथ हैं। इन ग्रंथों की विषयवस्तु का विवेचन करना अनिवार्य होगा। रसिकप्रिया’ में नायिका भेद का वर्णन है।

कामशास्त्र के अनुसार, विभिन्न उम्र के अनुसार आदि कई प्रकारों से नायिका भेद का विवेचन किया गया है। अमीर और सामंत सविधाभोगी वर्ग थे। सामंत अपनी हैसियत के अनुसार हरम में रानियों को रखते थे। रानी का मुख्य कार्य सामंत पति को रिझाना होता था। शास्त्र ने नायिका भेद को रचकर उपयुक्त नारी पात्र को सामंत के सामने प्रस्तुत होने का विधान बनाया। नायिका भेद की रचना की उपयोगिता विशुद्ध भोग-विलास के लिए थी। उसका जन सामान्य से कोई सीधा तात्पर्य नहीं था। नायिका भेद का सूत्र शृंगारिक मनोभाव से जुड़ा हुआ था।

मोहिबो मोहन की गति को, गति ही पढ़े बैन कहाँ धौ पढ़ेगी।

ओप उरोजन की उपजै दिन काई मढे अँगिया न मढ़ेगी।

नैनन की गति गूढ़ चलाचल केशवदास अकाश चढ़ेगी।

माई! कहाँ यह माइगी दीपति जो दिन द्वै इहि भाँति बढ़ेगी।

कविप्रिया की रचना केशव ने अपनी साहित्य शिष्या प्रवीणराय के लिए की थी। प्रवीणराय केशव के आश्रयदाता इंद्रजीत सिंह के दरबार की गणिका थी। कविप्रिया में 16 प्रभावों का वर्णन है। काव्य रचना में उपयोगी अनेक बातों का विवरण दिया गया है। अलंकार के अनेक प्रकार के अतिरिक्त नख शिख वर्णन, बारहमासा, ऋतृवर्णन तथा होली आदि का विस्तृत वर्णन मिलता है। वे सभी काव्य रूढ़ियाँ जिनका परिपालन संस्कृत काव्य में हुआ करता था, केशव ने इन्हें भाषा काव्य में कहने का साहस दिखाया। नायिका के रूप-वर्णन में केशव की कला को देखा जा सकता है।

गोरो गात पातरी न लोचन समात मुख,

उर उरजातन की बात अवरोहिये ।

हँसति कहति बात फूल से झरत जात,

ओठ अवदात राती रेख मन मोहिये।

श्यामल कपूर धूरि की ओढ़नी ओढ़े उड़ि,

धूरि ऐसी लागी कैसौ उपमा न टोहिये।

काम की दुल्ही सी काके कुल उलही,

सु लहलही ललित लता सी लाल सोहिये।

मतिराम

मतिराम रीतिकाल के विशिष्टांग (रस, अलंकार, छंद) – निरूपक आचार्यों में प्रमुख थे। इन्होंने भानुमिश्र के रस और नायिका भेद के लक्षणों का आधार लेकर ‘रसराज’ नामक प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ की रचना की। इन्होंने दोहों में लक्षण और सरस सवैयों – कवित्तों में उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। इनका ग्रंथ ‘ललितललाम’ प्रसिद्ध अलंकार – निरूपक ग्रंथ ‘कुवलयानंद’ के आधार पर निर्मित है। इसके उदाहरण – भाग में राजा भावसिंह हाड़ा की प्रशस्ति पाई जाती है। छंदो-निरूपक ग्रंथ ‘छंदसार’ शंभुनाथ सोलंकी को समर्पित है। इनकी सतसई’ में 703 दोहे हैं जिनमें पूर्व निर्मित ग्रंथों के भी दोहे संगृहीत हैं। सतसई के अंत में आश्रयदाता भोगनाथ की प्रशंसा की गई है।

आचार्य शुक्ल ने लिखा है, “मतिराम की-सी स्निग्ध और प्रसादपूर्ण भाषा रीति का अनुसरण करने वालों में बहुत ही कम मिलती है। भाषा के ही समान मतिराम के न तो भाव कृत्रिम हैं और न उनके व्यंजक व्यापार और चेष्टाएँ।” वास्तव में इनकी प्रसिद्धि का मूल । कारण इनके द्वारा दिए गए उदाहरणों की स्वाभाविक सरसता ही है। मतिराम के काव्य में स्वाभाविकता है। रीतिकाल के अन्य कवियों की तरह उन्होंने वैचित्र्य को अपने काव्य में स्थान नहीं दिया है। रीति काल की परिपाटी का पालन करते हुए भी वे रूढ़ियों से मुक्त हैं। उनकी कविता में नायिका के रूप वर्णन अथवा कार्य व्यापार के जो चित्र मिलते हैं, उसमें गृहस्थ जीवन की झलक मिलती है। नवविवाहिता नायिका के लज्जापूर्ण सौन्दर्य की मोहक छवि को इस पद में देखा जा सकता है

गौने के द्यौस सिंगारन को मतिराम सहेलिन को गन आयो।

कंचन के बिछुआ पहिरावत प्यारी सखी परिहास जनायो।

पीतम सौन समीप सदा बजै यो कहिकै पहिले पहिरायो।

कामनि कौंल चलावन कौं कर ऊँचो कियो पै चल्यौ न चलायौ।।

मतिराम ने लोकजीवन के शृंगारिक भाव को कविता की विषयवस्तु बनाया। इसलिए रूप और सौन्दर्य के चित्र को भी लोकजीवन से ही उठाने का प्रयास किया । नायिका की विभिन्न चेष्टाओं और दशाओं के लिए उन्होंने किसी भी काव्य रूढ़ि को नहीं अपनाया है। भाव के मनोविज्ञान को परखकर वे नायिका की भंगिमा को निर्धारित करते थे। रूप और प्रेम से भरे इस पद को देखिए। इस पद में नायिका की आँख में मादकता है और चित्त में चंचलता है।

कुंदन को रंग फीको लगै झलकै असि अंगन चारु गुराई।

आँखनि में अलसानि चितौनि में मंजु बिलासन की सरसाई।

को बिन मोल बिकात नहीं मतिराम लहै मुसुकानि मिठाई।

ज्यों-ज्यों निहारिये नीरे ह्ये नैननि त्यों-त्यों खरी निकरै सी निकाई।।

भूषण

भूषण शिवाजी के समकालीन थे और उन्होंने शिवाजी तथा छत्रसाल दोनों का आश्रय ग्रहण किया। शिवराज भूषण, शिवा बामनी और छत्रसाल दशक इनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं। रीतिकाल की सर्वाधिक लोकप्रिय काव्य – प्रवृत्ति – शृंगारिकता की उपेक्षा करते हुए इन्होंने अपने प्रसिद्ध अलंकार-निरूपक ग्रंथ ‘शिवराजभूषण’ में वीर प्रशस्तिपरक उदाहरणों की रचना की है। इसमें मतिराम के ललितललाम’ के 100 अलंकारों के अतिरिक्त 5 शब्दालंकारों का भी समावेश किया गया है। पं. विश्वनाथप्रसाद मिश्र ने सही संकेत किया है कि परंपरा के फेर में हिन्दी के कितने ही कवियों का सच्चा और उत्कृष्ट रूप निखरने नहीं पाया। अलंकारों के बोझ से वीर रस दब गया। भूषण के लक्षण कई स्थानों पर अस्पष्ट और भ्रामक हैं। 

भूषण को काव्यरीति का अच्छा अभ्यास न था। (भूषण-आ.विश्वनाथ प्रसाद मिश्र) डॉ. महेन्द्र कुमार का मानना है कि भूषण के काव्य में वीर रस की व्यंजना के स्थान पर राजविषयक रति का ही परिपाक हुआ है क्योंकि “वाणी के ओज पर पूर्ण दृष्टि रहने के कारण सामान्य रूप से ये उन तत्त्वों का निर्वाह नहीं कर पाए जिनसे वीर-रस का परिपाक होता है – कर्म के प्रति आश्रय की ललक तथा अभीष्ट सिद्धि के लिए व्यापार श्रृंखला में उत्तरोत्तर आनंदप्राप्ति की व्यंजना का अभाव इनकी अनुभाव योजना को शिथिल कर गया है।’

इनके दो मुक्तक ग्रंथ ‘शिवाबावनी’ और छत्रसाल दशक’ में इनका कविरूप अधिक उभर सका है। वीर रस के साथ-साथ अद्भुत, भयानक, वीभत्स और रौद्र भी इसमें व्यंजित हुए हैं। इनके ‘भूषण उल्लास’,‘दूषण उल्लास’ और ‘भूषण हजारा’ भी यदि उपलब्ध हो जाते तो इन्हें संभवत: आचार्य के रूप में प्रतिष्ठा मिल सकती थी। भूषण की सभी रचनाएँ मुक्तक हैं। इनकी साहित्यिक भाषा ब्रज है। रीतिकार के रूप में चाहे इन्हें सफलता न मिली हो परन्तु कवित्व की दृष्टि से इनका प्रमुख स्थान है।

‘भूषण’ वास्तव में इनका नाम नहीं बल्कि उपाधि है जो इन्हें चित्रकूट के नरेश सोलंकी हृदयराम के पुत्र रुद्र ने प्रदान की थी। भूषण की कविता में ओज है। वे वीर रस के कवि थे। ओज वीर रस की कविता का स्थायी भाव है। ओज ने उनकी कविता में आवेग को भरा। यह आवेग उन्हें सामाजिक जीवन से मिला था। सामाजिक जीवन की परिस्थिति की माँग युद्ध और आक्रमण था। युद्ध और आक्रमण की कविता के लिए जिस प्रकार से भाव का संगठन काव्य में होना चाहिए उसी प्रकार का भाव भूषण की कविता में मिलता है। भूषण के छंद में आवेग और अनुभूति की एकता है।

इंद्र जिमि जंभ पर, बाड़व सु अंभ पर

रावन सदंभ पर रघुकुल राज हैं।

पौन बारिवाह पर संभु रतिनाह पर,

ज्यों सहसाबाहु पर राम द्विजराज हैं।।

दावा द्रुमदंड पर चीता मृगझुंड पर,

भूषण बितंड पर जैसे मृगराज हैं।

तेज तम अंस पर कान्ह जिमि कंस पर,

ज्यों मलेच्छ बंस पर सेर, सिवराज हैं।।

पूरे पद को पढ़ने के बाद यह पता लगता है कि कवि अत्याचारी के खिलाफ खड़ा है। कविता में आक्रोश का भाव है। कवि आश्रयदाता में प्रतिपक्षी के प्रति आक्रोश भरता है। यह आक्रोश दमन के विरुद्ध है। भूषण की चिंता के केन्द्र में सामाजिक अव्यवस्था और पतनोन्मुखता है। वीर रस की कविता डिंगल में ही हो सकती है, इस मिथक को भूषण ने तोड़ दिया। काव्य साहित्य के इतिहास में यह भूषण का मौलिक योगदान है।

देव

रीतिकालीन सर्वांगनिरूपक आचार्यों में देव का स्थान महत्वपूर्ण है। बिहारी या भूषण की तरह इन्हें कोई ऐसा आश्रयदाता न मिल सका जो इन्हें पूर्णत: संतुष्ट कर सकता। अत: जीवनभर इन्हें अनेक छोटे बड़े दरबारों के चक्कर लगाने पड़े। संभवत: यही कारण है कि उन्हें अपने पुराने छंदों में कुछ नए जोड़ कर अनेक ग्रंथों का निर्माण करना पड़ा। इनके ग्रंथों की संख्या 72 बताई गई है पर अभी तक 25 ग्रंथ ही उपलब्ध हुए हैं। इनमें से हिंदी साहित्य के वृहत इतिहास’ में केवल 18 ग्रंथों का उल्लेख है। प्रेमचंद्रिका, रागरत्नाकर, देवशतक, देवचरित्र और देवमायाप्रपंच को छोड़कर शेष काव्य शास्त्रीय हैं। इनके विवरणों में न जाकर सामान्यत: यह कहा जा सकता है कि प्रमचंद्रिका’ में वासना रहित प्रेम का महत्त्व प्रतिपादित है।

इस कृति में प्रेमस्वरूप, प्रेममहात्म्य आदि विषयों को ललित शैली में वर्णित किया गया है। ‘रागरत्नाकर’ में संगीत विषयक चर्चा है। देव शतक अंतिम दिनों की रचना होने के कारण वैराग्य परक है। इसमें कवि ने दार्शनिक भावनाओं को पूर्ण अनुभूति के साथ अंकित किया है। देवचरित्र’ श्रीकृष्ण के चरित्र पर आधारित प्रबंध काव्य है। दवमाया प्रपंच’ संस्कृत के ‘प्रबोधचंद्रोदय’ का पद्यमय अनुवाद है। काव्य शास्त्रीय ग्रंथों में भावविलास रस, नायिका भेद और अलंकार निरूपक ग्रंथ है।

शब्दरसायन’ में काव्यांगों की चर्चा है। ‘सुखसागर तंरग’ भी काव्यांगों पर लिखित उदाहरणों का संग्रह है। ‘अष्टयाम’ अपने नाम से ही वर्ण्यवस्तु का संकेत देता है। इन्होंने शृंगार को मूल रस के रूप में प्रतिष्ठित किया है आचार्य शुक्ल ने त्रुटिपूर्ण भाषा होने पर भी भाव – निर्वाह में इन्हें सफल माना है। यद्यपि इन्होंने ज्ञान-वैराग्य और भक्ति विषयक काव्य रचना भी की है पर सफलता इन्हें भंगारिक रचनाओं में ही मिली। डॉ.जगदीश गुप्त का मत है कि देव भी कवित्वप्रधान आचार्यत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। इन्होंने भाषा के सौष्ठव, समृद्धि और अलंकरण पर विशेष ध्यान दिया है। देव आचार्य और कवि थे। देव के काव्य में मानव मनोभाव का अत्यंत सूक्ष्मतापूर्वक विश्लेषण किया गया है। मनोभाव का सजीव चित्र उनके काव्य में मिलता है। प्रेम भाव में मन:स्थिति की चंचलता का बड़ा ही रमणीय चित्र इस पद में प्रस्तुत हुआ है।

मूरति जो मनमोहन की मनमोहिनी के थिर ह्दै थिरकी सी।

देव गोपाल को बोल सुने छतियाँ सियराति सुधा छिरकी सी।

नीके झरोखे ह्वै झाँकि सकै नहिं नैनहिं लाज घटा, घिरकी सी।।

पूरन प्रीति हियै हिरकी खिरकी खिरकीन फिरै फिरकी सी।।

देव की कविता में मात्र संयोग श्रृंगार का मनोरम वर्णन नहीं है, उनके साहित्य में वियोग की करुणा का हृदयविदारक दृश्य भी मिलता है। सौंदर्य वर्णन में उनकी प्रतिभा बेजोड़ है। भाववर्णन का प्रसंग हो, रूपवर्णन का प्रसंग हो अथवा चेष्टा का वर्णन हो, कवि देव, बिंब योजना के माध्यम से उसे कविता में प्रकट करते हैं। बिम्ब विधान के माध्यम से कवि कविता में प्रेम, मिलन, रागानुभूति के अनुभव को बड़े ही सघन रूप में रखते हैं। देव की कविता में छंद की गति, शब्द की वर्णमैत्री और सरसता नाद सौंदर्य को पुष्ट करते प्रतीत होते हैं। अपनी तकनीकी विशेषता और भाव की सरसता के कारण देव की कविता रीतियुग की प्रतिनिधि कविता बन जाती है।

माखन सों मन दूध सों जीवन है दधि सों अधिकौ उरई ठी।

जा छबि आगे सुधाकर छोंछि समेत सुधा बसुधा सब मीठी।

नैनन नेह चुवै कहि देव’ बुझावत बैन बियोग अँगीठी।

ऐसी रसीली अहीरी अहै कहौ क्यौं न लगै मनमोहनै मीठी।।

भिखारीदास

इन्हें सर्वांग-निरूपक आचार्यों में प्रमुख माना जाता है। इनके द्वारा रचित ‘रस सारांश’ में रस और रसांगों का तथा ‘श्रृंगार निर्णय’ में श्रृंगार के आलंबन नायक-नायिका के भेदों का वर्णन भानुदत्त की ‘रसमंजरी’ और रसतरंगिणी’ के आधार पर किया गया है। काव्य निर्णय’ में मम्मट, विश्वनाथ, जयदेव और अप्पय दीक्षित आदि के ग्रंथों को आधार बनाया गया है। इसमें रस, अलंकार, गुण, दोष और ध्वनि का विवेचन किया गया है। इनका काव्य उत्कृष्ट और ललित है। भाव पक्ष और कलापक्ष का सुन्दर सामंजस्य इनके कवि कर्म की उत्कृष्टता को प्रमाणित करते हैं, पर आचार्य कर्म में इन्हें पर्याप्त सफलता नहीं मिली। अलंकारों के वर्गीकरण और तुकों के विवेचन में इनकी मौलिकता झलकती है। ‘छंदार्णव पिंगल’ में संस्कृत-प्राकृत हिन्दी ग्रंथों से सहायता ली गई है। इन्होंने नीतिपरक सुन्दर सूक्तियों की भी रचना की है।

रीतिकाव्य में भिखारीदास का महत्त्व कवि और आचार्य दोनों रूपों में है। अलंकार विवेचन के क्रम में उन्होंने अलंकारों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया। नायिका भेद पर उन्होंने नई दृष्टि से विचार किया। छंद विवेचन में भी कवि ने मौलिक सूझबूझ का परिचय दिया है। छंद के संदर्भ में इन्होंने प्राकृत और संस्कृत काव्यों का अध्ययन किया। इन्होंने अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष दिया कि तक का प्रारंभ अपभ्रंश काव्य से होता है। काव्यांग के निरूपण में भी भिखारीदास का महत्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने छंद, रस, अलंकार, रीति, गुण, दोष, शब्द-शक्ति आदि सब विषयों पर गहराई से विश्लेषण किया है। काव्यांग विवेचन के क्रम में इन्होंने बड़े मनोहर उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। भावों की स्वाभाविकता के साथ कलात्मकता का संयोग निम्नलिखित पद में देखा जा सकता है।

नैननि को तरसैये कहाँ लौं कहाँ हियो बिरहागि में तैये।

एक घरी न कहूँ कल पैयै कहाँ लगि प्रानन को कल पैये।

आवै यही अब जी मै विचार सखि चलि सौतिन के गृह जैये ।

मान घटे ते कहा घटिहै जु पै प्रान पियारे को देखन पैये।

पद्माकर

कवि पद्माकर रीतिकाल के विशिष्टांग निरूपक आचार्य के रूप में जाने जाते हैं। जयपुर नरेश जगतसिंह के आश्रय में इन्होंने जगद्विनोद’ नामक नवरस-निरूपक ग्रंथ की रचना की। मतिराम जी के ‘रसराज’ के समान पद्माकर जी का जगद्विनोद’ भी काव्यरसिकों और अभ्यासियों दोनों का कंठहार रहा है। इन्होंने हिम्मतबहादुर विरुदावली’ नाम की वीर रस की एक बहुत ही फड़कती हुई पुस्तक लिखी। डॉ. बच्चन सिंह ने इनके रीतिकाव्य-ग्रंथों की सराहना की है पर प्रशस्तिपरक और भक्तिपरक काव्य को ‘काव्याभास’ माना है, क्योंकि इनमें काव्य-रूढ़ियों का निर्वाह अधिक है। किंतु शुक्लजी ने समग्रत: पद्माकर की नूतन कल्पना, दृश्य-चित्रण और भाषा की अनेक रूपता की प्रशंसा की है। ‘गंगालहरी’ और ‘प्रबोधपचासा’ काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से सामान्य हैं। गंगालहरी में कवि ने गंगा का अलंकारों से अद्वितीय अलंकरण किया है।

इन ग्रंथों की रचना कवि ने अपने अंतिम दिनों में कानपुर में गंगा के तट पर की थी, अत: इनमें चमत्कार की अपेक्षा भक्ति और ज्ञान-वैराग्य की भावना प्रमुख है। इनका अलंकार ग्रंथ ‘पद्माभरण’ लक्षणों की स्पष्टता और उदाहरणों की सरसता के कारण अधिक प्रसिद्ध हुआ। इन्होंने मुक्तक तथा प्रबंध दोनों शैलियों में रचना की। इनकी भाषा में प्रवाहमयता है तथा वह सरस एवं व्याकरण सम्मत है-

पद्माकर की कविता में मुख्य रूप से उल्लास और आनंद का वर्णन है। शृंगारिक भाव की व्यजंना में उन्मुक्तता और खुलापन है। ब्रजमंडल में फाग के दृश्य का अद्भुत वर्णन उन्होंने किया है। फाग पर उनकी एक प्रसिद्ध कविता है :

फाग की भीर अभीरन में गहि गोबिदै लै गई भीतर झोरी।

माई करी मन की पद्माकर ऊपर नाई अबीर की जोरी।

छीन पितम्बर कमर तेसु बिदा दई मीड़ि कपोलन रोरी।

नैन नचाई कही मुसकाई लला फिर आइयौ खेलन होरी।।

यहाँ होली में मादक अनुभूति का अत्यंत मनोरम वर्णन है। कविता में भाव, रूप और चेष्टा की अत्यंत मार्मिक अभिव्यक्ति है। इसी प्रकार शीतऋतु में सामंती दरबार का अत्यंत उद्दीपन परक चित्र उनके काव्य में देखा जा सकता है :

गुलगुली गिल में गलीचा हैं, गुनीजन हैं

चाँदनी है चिक हैं चिरागन की माला हैं।

कहै पद्माकर ज्यों गजक हैं, गिजा हैं

सजी सेज हैं सुराही हैं सुरा हैं और प्यालिहिं हैं।

सिसिर के पाला को ना व्यापत कसाला तिन्हैं,

जिनके अधीन एते उदित मसाला हैं।

तान तुक ताला हैं, विनोद के रसाला हैं

सुबाला हैं दुसाला हैं बिसाला चित्रसाला हैं।

पद्माकर की अभिव्यक्ति में नाद तत्व और चित्रतत्व का संयोग है। कल्पना द्वारा उन्होंने रूप, रस, गंध, स्वाद और घ्राण के बिंब को कविता में मूर्त रूप में रख दिया है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि इन रीतिबद्ध कवियों ने सामान्य पाठकों के लिए काव्यशास्त्र के सिद्धांतों का ज्ञान कराने और सरस उदाहरणों के द्वारा सहृदय रसिकों का मनोरंजन करने के लिए ही काव्य-रचना की थी। इनसे संस्कृत काव्यशास्त्रियों की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि एक तो दोनों के लक्ष्य भिन्न-भिन्न हैं, दूसरे, ब्रजभाषा गद्य का ऐसा विकास नहीं हुआ था कि उसमें काव्य-सिद्धांतों की सूक्ष्मताओं का निरूपण किया जा सकता।

रीतिसिद्ध काव्य

रीतिसिद्ध काव्य में काव्यशास्त्रीयता इतनी अधिक है कि लगता है कवि रस, अलंकार, ध्वनि, नायक-नायिका भेद आदि के उदाहरण स्वरूप काव्य-रचना कर रहा हो। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इसे मध्यम मार्ग का काव्य माना है क्योंकि इसमें न तो लक्षण-उदाहरण की आचार्यवादी परंपरा है न ही रीतिमुक्त काव्य का स्वच्छन्द भावावेग ही। इस वर्ग के कवि ‘शास्त्रकाव्योमय कवि’ माने गए जो रीति से बंधे भी थे और उससे कुछ स्वच्छंद होकर भी चलते थे।

रीतिकाल के सर्वप्रमुख कवि बिहारी की विशेषताओं की स्वतंत्र चर्चा करने के लिए आचार्य मिश्र ने इस काव्य परंपरा को रीतिबद्धकाव्य की श्रेणी से पृथक कर दिया। आचार्य शुक्ल ने मूलत: रीतिकालीन कवियों को दो वर्गों में विभाजित किया – प्रथम और प्रमुख वर्ग लक्षणग्रंथकारों का रखा जिनकी संख्या 57 है। दूसरे वर्ग के कवियों को फूटकल शृंगार परक पद्यकार या अन्य प्रकार की रचना करने वाला माना। वास्तव में ‘बिहारी’ इसी वर्ग में आते हैं क्योंकि इन्होंने रीतिग्रंथ की रचना नहीं की, लेकिन शुक्लजी ने इन्हें प्रतिनिधि, रीतिग्रंथकारों के वर्ग में रखा है क्योंकि इनका काव्य लक्षणानुसारी है। अत: ये प्रतिनिधि कवियों में ही समाहित कर लिए गए।

आचार्य मिश्र ने इस गड़बड़ी को दूर करने के लिए रीतिसिद्ध कवियों का एक स्वतंत्र वर्ग बना दिया। उन्होंने इस वर्ग के कवियों के लिए स्पष्टीकरण दिया, “जिन्होंने रीति की सारी परंपरा सिद्ध कर ली थी अर्थात् रचनाएँ जिन्होंने रीति की बंधी परिपाटी के अनुकूल ही की हैं पर लक्षणग्रंथ प्रस्तुत न करके स्वतंत्र रूप से अपनी रचनाएँ रची हैं।” आगे वे फिर कहते हैं, “इस प्रकार के कवियों को, जो रीतिविरुद्ध नहीं और लक्षणग्रंथ से ऐसे भी नहीं बँधे हैं कि तिलभर भी उससे हट न सकें, भले ही वे रीति की परंपरा को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाते हों, रीतिसिद्ध कवि कहना चाहिए।” “हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास में ऐसे कवियों को काव्यकवि के वर्ग में रखा गया है।

वास्तव में, रीतिसिद्ध कवियों को आचार्य या कवि-शिक्षक बनने की अभिलाषा नहीं थी। इन्होंने अपने काव्यकौशल के प्रदर्शन पर विशेष ध्यान दिया। इनमें स्वानुभूति की प्रधानता मिलती है जिसे अलंकृत शैली में प्रस्तुत किया गया है। यों तो संपूर्ण रीतिकाव्य मुक्तक शैली में निर्मित हआ है किन्तु रीतिसिद्ध कवियों ने संस्कृत, प्राकृतादि की मुक्तक परंपरा से सीधे प्रभाव ग्रहण किया है। ये कवि विद्यापति, चंडीदास, सूरदास, रहीम, तुलसीदास आदि भाषा कवियों से भी प्रेरित हुए हैं। इनकी काव्य-दृष्टि तत्कालीन सामंती परिवेश से ही निर्मित है। इसलिए इन पर फारसी काव्य का भी प्रभाव पाया जाता है। रीतिसिद्ध काव्य यद्यपि विलासप्रधान है, फलत: उसके केन्द्र में नारी का रूपाकर्षण प्रमुख है फिर भी उसका क्षेत्र रीतिबद्ध की अपेक्षा विस्तृत है। इनमें शृंगार के साथ-साथ भक्ति, प्रशस्ति, नीति, ज्ञान-वैराग्य और प्रकृति के आलंबन-उद्दीपक रूपों का भी वर्णन प्राप्त होता है।

बिहारी

इनका एक ही काव्यग्रंथ उपलब्ध है, किन्तु उसके द्वारा इन्होंने जो कीर्ति अर्जित की वह किसी अन्य हिन्दी कवि द्वारा संभव नहीं हो सका। इनकी सतसई’ मुक्तक काव्य परंपरा की एक प्रतिनिधि रचना है। “इसका एक-एक दोहा हिन्दी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है। इसकी पचासों टीकाएँ रची गई। इस प्रकार बिहारी संबंधी एक अलग साहित्य ही खड़ा हो गया है।” (हिन्दी साहित्य का इतिहास-आ. रामचन्द्र शुक्ल) आगे शुक्लजी ने लिखा है कि “मुक्तक कविता में जो गुण होना चाहिए वह बिहारी के दोहों में अपने चरम उत्कर्ष को पहुँचा है।’ बाद में इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने लिखा कि इसके लिए कवि को मनोरम वस्तुओं और व्यापारों का एक स्तवक सा कल्पित करके उन्हें अत्यंत संक्षिप्त और सशक्त भाषा में प्रदर्शित करना पड़ता है। अत: जिस कवि में कल्पना की समाहार-शक्ति के साथ भाषा की सामासशक्ति जितनी ही अधिक होगी उतना ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा। यह क्षमता बिहारी में पूर्ण रूप से विद्यमान थी।

बिहारी ने दोहा ओर सोरठा जैसे छोटे छंद में भी पूर्ण और सजीव चित्र उपस्थित कर दिया है। बिहारी ने मुक्तक काव्य की प्राचीन परंपरा का अनुसरण करते हुए अपने दोहों में शृंगार, भक्ति, नीति-वैराग्य, प्रशस्ति, हास्य-व्यंग्य सबका समावेश किया है किन्तु युगानूकूल उनमें शृंगार के विविध रूपों, नायक-नायिका भेद, नखशिख, षड्ऋतु और बारहमासे का वर्णन अधिक है। इन्होंने प्रकृति का प्रयोग अनेक रूपों में किया है।

बिहारी को कुछ विद्वान अलंकारवादी मानते हैं क्योंकि इनके दोहों में कई-कई अलंकारों का सहज विन्यास पाया जाता है किन्तु ये अलंकार प्रेषणीयता को बढ़ाने में ही सहयोगी सिद्ध होते हैं। कुछ लोग इन्हें शुद्ध रसवादी मानते हैं क्योंकि बिहारी ने स्वयं ‘सतसई’ के अंत में लिखा है, ‘करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद’ । डॉ. विजयेन्द्र स्नातक ने इन्हें ध्वनिवादी सिद्ध करते हुए लिखा है, “यदि उनके लक्ष्यों (दोहों) की परीक्षा की जाए तो यह तथ्य और अधिक स्पष्ट हो जाएगा कि रस ध्वनि के उदाहरणों की भरमार होने पर भी वे रस-संप्रदाय के पोषक न होकर ध्वनि-संप्रदाय के ही अनुगामी हैं।”

संक्षेप में कहा जा सकता है कि बिहारी ने ‘सतसई’ की रचना अलंकारों के उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए नहीं की। यदि ऐसा होता तो सभी अलंकारों का उसमें विधि प्रतिपादन होता। यदि उन्होंने श्रृंगार रस के भेद-प्रभेदों और नायक-नायिका-भेद को दृष्टि में रखा होता तो उसी के सर्वांगों का निदर्शन होता। इन्होंने वर्ण्यवस्तु का आधार तो सबसे ज्यादा शृंगार को ही बनाया पर उसमें भी नख-शिखपरक रचना ज्यादा है। वियोग पक्ष में पूर्वानुराग का वर्णन अधिक है।

विरह वर्णन में जहाँ ये फारसी-उर्दू के प्रभाव से मुक्त रहे हैं, वहाँ स्वाभाविकता है किंतु जहाँ विदेशी प्रभाव ज्यादा है वहाँ ऊहात्मक कथन हास्यापद हो गए हैं। इनकी अनुभाव योजना की प्रशंसा आचार्य शुक्ल से लेकर आज तक के सभी समीक्षकों ने की है। राज प्रशस्ति की दृष्टि से बिहारी बहुत ही संयमित रहे हैं। इन्होंने अपने आश्रय दाता मिर्जाराजा जयसिंह की युद्धवीरता, दानवीरता, धर्मवीरता के साथ ही उनके रूप-गुण की भी प्रशंसा की है। बिहारी की नीतिपरक उक्तियाँ मात्र सूक्तियाँ नहीं हैं। अपितु उनमें जीवनानुभवों का उपयोग सरस और व्यंजक शैली में किया गया है। हास्य-व्यंग्य की उक्तियों में उन्होंने समाज के रुग्ण पक्ष पर मार्मिक प्रहार किया है जिसके लक्ष्य प्राय: ज्योतिषी, वैद्य, पौराणिक, घरजमाई आदि रहे हैं।

बिहारी धार्मिक दृष्टि से निम्बार्क संप्रदाय में दीक्षित थे, परन्तु रीतिकाल के अन्य कवियों की भाँति उनमें भी सांप्रदायिक आग्रह नहीं मिलता। उन्हें भक्तकवि नहीं माना जा सकता। वे एक सामान्य भारतीय की तरह धार्मिक भावना से परिपूरित थे। उन्होंने राम और कृष्ण में कोई भेद नहीं माना। उनके दोहों में दार्शनिक विचार भी प्राप्त होते हैं किंतु वे किसी दार्शनिक मतवाद से कोसों दूर थे।

डॉ. बच्चन सिंह ने बिहारी को स्वच्छंदधारा में न रखकर अभिजात (क्लासिकल) वर्ग में रखा है जो प्रायः रीतिसिद्ध कवि – वर्ग ही है। इन्होंने बिहारी के मध्यममार्गीय होने का प्रतिपादन करते हुए लिखा है कि “इनकी कविता न तो रीतिबद्ध कवियों की तरह पूर्णत: निर्वैयक्तिक है न रीतिमुक्त कवियों की तरह वैयक्तिक ही, बल्कि इनमें दोनों तत्व घुलेमिले हैं।”

भाषा की दृष्टि से आचार्य शुक्ल ने रीतिबद्ध कवियों में पद्माकर, रीतिमुक्त कवियों में घनानंद और रीतिसिद्ध कवियों में बिहारी की विशेष प्रशंसा की है। पद्माकर और बिहारी की तुलना के संदर्भ में उन्होंने लिखा है – “इनकी मधुर कल्पना ऐसी स्वाभाविक और हावभावपूर्ण मूर्तिविधान करती है कि पाठक मानो प्रत्यक्ष अनुभूति में मग्न हो जाता है। ऐसा सजीव मूर्तिविधान करने वाली कल्पना बिहारी को छोड़ कर और किसी कवि में नहीं पाई जाती।’ बिहारी की भाषा को शक्लजी ने ‘चलती’ होने पर भी ‘साहित्यिक’ माना है।

आचार्य मिश्र लिखते हैं, “बिहारी की भाषा बहुत कुछ शुद्ध ब्रजी है, पर है वह साहित्यिक । इनकी भाषा में पूर्वी प्रयोग भी मिलते हैं। खड़ी बोली के कृदंत और क्रियापद अनुप्रास के आग्रह से रखे गए हैं।  बिहारी की भाषा व्याकरण से गठी हुई है, मुहावरों के प्रयोग, सांकेतिक शब्दावली और सुष्ठु पदावली से संयुक्त है।  उसमें साहित्यिक दोषों को ढूंढ निकालना श्रमसाध्य है। विन्यास सम्मत, प्रयोग व्यवस्थित और शैली परमार्जित है।”

बिहारी ने दोहा जैसा छोटा छंद चुना पर उसमें न तो कहीं न्यूनपदत्व है न अधिक पदत्व । यह छंद एक ओर तो संस्कृत की ‘आर्या’ से मिलता जुलता है दूसरी ओर उर्दू-फारसी के ‘शेर’ से और प्राकृत की गाथा’ से तो उद्भूत ही लगता है। मिश्रजी ने इनके दोहा छंद-प्रयोग के बारे में कहा है कि कुल 48 मात्राओं और अधिक से अधिक 46 वर्गों में ही भाव की सारी सामग्री या ‘रस का समचा चक्र’ स्थापित मिलता है। इस क्षेत्र में कवि को ऐसी अभूतपूर्व सफलता मिली कि परवर्ती क्या पूर्ववर्ती कवियों को भी ऐसी सफलता दुर्लभ थी। सतसइयों की परंपरा में हिंदी का यह ग्रंथ सबसे अनूठा और अपनी दीप्ति में अनुपम है।

इनकी भाषा और भावव्यंजना की क्षमता ही ऐसी थी कि आचार्य शुक्ल को इन्हें रीतिकाल के अन्य कवियों के वर्ग से हटाकर ‘रीतिकाल के ग्रंथकार’ कवियों में स्थान देना पड़ा और आचार्य मिश्र को केवल इनके लिए एक अलग वर्ग की कल्पना करनी पड़ी। डॉ. बच्चन सिंह ने यद्यपि रीतिमुक्त कवियों में इन्हें परिगणित किया पर स्वच्छंद कवियों में नहीं बल्कि क्लासिकल (अभिजात) वर्ग में। उन्होंने एक मात्र बिहारी को इस वर्ग का प्रतिनिधि कवि स्वीकार किया।

डॉ. विजयेन्द्र स्नातक के शब्दों में कहा जा सकता है कि बिहारी प्रतिभाशाली कवि थे, परंतु उन्होंने काव्याभ्यास के बाद ही कविता रचने की ओर ध्यान दिया था। इसीलिए उनके काव्य में भक्ति और निपुणता का चरम विकास संभव हुआ।”

बिहारी के अतिरिक्त इतिहास ग्रंथों में रीतिबद्ध कवियों’ में बेनी कवि का उल्लेख किया गया है जो इसी नाम के बेनी बंदीजन (टिकैतरायप्रकाश’ – अलंकारग्रंथ, रसविलास’ – रसनिरूपक ग्रंथ और भंडौवा-हास्यरस के कर्ता) और बेनी प्रवीन (भंगारभूषण और नवरसरंग तथा ‘नानारावप्रकाश’ नामक अलंकार ग्रंथ के रचयिता) से भिन्न असनी के बंदीजन है। इनके श्रृंगार परक फुटकल छंद ही प्राप्त होते हैं। कृष्ण कवि (बिहारी सतसई के टीकाकार) को इस वर्ग में बिहारी सतसई के दोहों का सरस कवित्त-सवैयों में पल्लवन करने के कारण रखा गया है। रसनिधि’ बरौनी (दतिया राज्य) के जमींदार थे। इन्होंने बिहारी सतसई की पद्धति पर भंगाररस के एक प्रसिद्ध ग्रंथ ‘रतनहजारा’ की रचना की थी। इनके अनेक काव्यग्रंथ, खोज में प्राप्त हुए हैं। नृपशंभु का ‘नखशिख’ सरस काव्यग्रंथ है। रामसहाय दास, पजनेस और राजा मानसिंह द्विजदेव का भी उल्लेख इसी श्रेणी में मिलता है।

रीतिमुक्त काव्य

रीतिमुक्त या स्वच्छन्द धारा के कवि अपने समकालीन रीतिबद्ध कवियों से वर्ण्य विषय और वर्णन प्रणाली में भी भिन्न थे। रीतिबद्ध काव्य में शास्त्रीयता ज्यादा थी। उन्होंने प्राचीन काव्य प्रणाली को अपना आदर्श माना, जब कि स्वच्छन्द काव्य कर्ता शास्त्रीय चौखटों को अस्वीकार करके आत्मानुभूति के आवेग में रचना करते थे। इनकी रचनाओं में वैयक्तिकता की प्रधानता थी जबकि दूसरे लोग निर्वैयक्तिक अथवा तटस्थतापूर्वक काव्यशास्त्रीय लक्षणों के उदाहरण प्रस्तुत किया करते थे। ये सामाजिक या दरबारी मर्यादा में बंधकर रचना करने वाले नहीं थे। इस धारा के सभी कवि प्रेममार्ग के पथिक थे। उनका प्रेम स्थूल जगत से उत्पन्न होने वाला था किन्तु अपनी गहनता और व्यापकता में अलौकिक ऊँचाइयों का स्पर्श करने लगता था। अत: उस पर सूफी प्रम की पीर’ का प्रभाव तो था ही साथ ही इश्क मज़ाजी की इश्क हकीकी में परिणति भी थी। इनका प्रेम एकोन्मुख और विषम था। इन कवियों पर इसी कारण फारसी प्रेम-पद्धति का भी प्रभाव पाया जाता है।

रीतिबद्ध कवियों का संयोग मांसल और स्थूल था जबकि रीतिमुक्त का संयोग मानसिक। इन कवियों ने संयोग की अपेक्षा वियोग का वर्णन अधिक किया है। रीतिबद्ध कवियों ने प्राय: राधाकृष्ण के श्रृंगार का वर्णन मुक्तकों में किया है जबकि इन कवियों ने मुक्तकों और प्रबंधों दोनों विधाओं को अपनाया है। डॉ.बच्चन सिंह ने माना है कि रीतिबद्ध कवियों का प्रेम क्रीड़ापरक है जबकि इनका पीड़ा परक । प्रेम गाथाओं के लोक प्रचलित प्रेम में जो स्वाभाविकता और प्राकृतिक पृष्ठभूमि प्राप्त होती है वह । इनकी प्रेमाभिव्यक्ति को जीवंत और प्रामाणिक बना देती है। रूप-सौंदर्य का वर्णन वहाँ आलंबन गत ज्यादा है जबकि ये कवि अपने मन (आश्रय) पर पड़े उसके प्रभाव का अंकन मनोयोगपूर्वक करते हैं।

इस धारा के प्रमुख कवि हैं – घनानंद, बोधा, आलम, ठाकुर और द्विजदेव, किन्तु इनमें आनंद घन या घनानंद का स्थान सर्वोपरि है। इनके काव्य में कवि परंपरा द्वारा स्वीकृत रूढ़ियों का पालन नहीं है।

इसीलिए इनकी कविता ‘जग की कठिनाई’ से सर्वथा भिन्न है। इनके प्रेम पंथ में ‘बौद्धिक चातुरी नहीं है, न ये लुक छिपकर प्रमचौगान’ खेलनेवाले ही थे। इनका प्रेममार्ग अत्यन्त सरल सीधा और समर्पणप्रधान था। घनानंद ने लिखा – ‘अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।’ ये लोकलाज का साहसपूर्वक तिरस्कार करके अपनी एकनिष्ठता में लीन रहने वाले थे।

रीतिमुक्त कवियों के प्रेम की तुलना भारतीय या विदेशी प्रेमव्यंजना से नहीं की जा सकती क्योंकि इनका प्रेम विशिष्ट है. प्रिय भी विशिष्ट है। संयोग और वियोग भी इसीलिए विशिष्ट रूप में ही अभिव्यक्त हआ है। आचार्य शुक्ल ने इन कवियों को लक्षणानुसारी रचना करने वाले कवियों से भिन्न माना है। वे लिखते हैं, “पिछले वर्ग के कवि (लक्षणबद्ध काव्य-रचना करने वाले) प्रतिनिधि कवियों से केवल इस बात में भिन्न हैं कि इन्होंने क्रम से रसों, भावों, नायिकाओं और अलंकारों के लक्षण कहकर उनके अंतर्गत अपने पद्यों को नहीं रखा। अधिकांश में ये भी भंगारी कवि हैं।’ यद्यपि ये रीतिमुक्त थे फिर भी इनके काव्यों पर रीति परंपरा का प्रभाव पाया जाता है। कुछ लोगों ने नायिका-भेद, संयोग-वियोग की विभिन्न स्थितियों का काव्यशास्त्रीय निरूपण इनके काव्यों में भी खोजने का चेष्टा की है।

एक दृष्टि से विचार किया जाए तो यह काव्य रीतिबद्ध काव्य के विरुद्ध स्वच्छन्द वृत्ति के कवियों का विद्रोह दिखाई पड़ता है क्योंकि ठाकुर कवि ने कवि शिक्षा से प्राप्त निर्जीव काव्य प्रणाली के विरोध में ही कहा है –

‘डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच, लोगन कबित्त कीबो खेल करि मानो है।’

अर्थात् रीतिबद्ध कवि ढेले की तरह नीरस शुष्क कविता रचकर संवेदनशील कवियों को चोट पहुंचाते थे। इसी के परिणाम स्वरूप स्वच्छंदमार्गी कवियों ने सच्ची अनुभूतियों का प्रकाशन अपने काव्य में किया। डॉ.मनोहर लाल गौड़ ने लिखा है, “स्वच्छंदतावादी साहित्य में अभिनवत्व (ताजगी) रहता है क्योंकि उसकी प्रेरणा जीवन से मिलती है। जब साहित्य अपने समवर्ती जीवन से प्रेरणा न लेकर पूर्ववर्ती साहित्य से प्रेरणा लेने लगता है तब वह क्लासिकल बन जाता है, उसकी अभिनवता क्षीण होने लगती है।” इन कवियों ने लोक-जीवन की मर्यादा का तिरस्कार करके सामान्या या वेश्या के प्रेम का वर्णन किया।

घनानंद

डॉ. मनोहर लाल गौड़ ने स्वच्छंदधारा के प्रमुख गुण-भावात्मक वक्रता, लाक्षणिकता, भावों की वैयक्तिकता, रहस्यात्मकता, मार्मिकता, स्वच्छंद आदि माने हैं। ये सभी घनानंद में सबसे स्फुट रूप में प्राप्त होते हैं। शुक्लजी घनानंद को साक्षात् रसमूर्ति और ब्रजभाषा के काव्य के प्रधान स्तंभों में मानते हैं। घनानंद के काव्य में अनुभूति पक्ष और अभिव्यक्ति पक्ष का सम्यक् संयोजन प्राप्त होता है। इन्होंने विभाव पक्ष का वर्णन कम और भावों का अधिक किया है।

इन भावों में रीझ, विषाद, उलझन, अभिलाष, भूल, उपालंभ आदि प्रमुख हैं। इन्होंने प्रेम – व्यापार के मूल उपादान नेत्रों और प्राणों का मानवीकरण करके भावों को सहज संप्रेष्य बना दिया है। इनकी प्रेयसी (बादशाह मुहम्मदशाह रंगीले के दरबार की नर्तकी) सुजान दिल्ली दरबार छुटने पर भी, घनानंद की भावना से छूट न पाई फलत: वही श्रीकृष्ण के विशेषण के रूप में इनके काव्य में व्याप्त हो गई। इस प्रकार इनकी लौकिक भावना का चिन्मुखीकरण होकर दिव्य या आध्यात्मिक भावना में लय हो गया।

घनानंद ने यद्यपि सुजान श्रीकृष्ण के प्रति प्रणयानुभूति निवेदित की है पर इन्हें भक्त नहीं माना जा सकता। आ.विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने लिखा है कि रहीम और सेनापति भी भक्त नहीं थे उसी प्रकार रसखान, आलम और घनानंद भी प्रेमोमंग के कवि हैं भक्त नहीं हैं, किन्तु यदि व्यापक दृष्टि से विचार किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि कबित्त और सवैयों में लौकिक प्रेम की विवृत्ति है पर धीरे-धीरे आनंदघन का मन श्रीराधाकृष्ण के अलौकिक प्रेम अर्थात् भक्ति में निमग्न दिखता है।

“रीतिकाल के अन्य कवियों की तरह शृंगार और भक्ति की खिचड़ी पकाने के स्थान पर घनानंद ने अपना प्रेम जीवन और भक्ति जीवन अलग-अलग रखकर दोनों को पूर्णता तक पहुँचाया।” उन्होंने सारे सांसारिक प्रेम और सौंदर्य को अलौकिक प्रेम और सौंदर्य का एक कण या बूंद का विस्तार माना है। घनानंद का परवर्ती पद-साहित्य भक्ति प्रधान है जिसमें सरल भक्तिभाव का अभिव्यंजन है।

आनंदघन का अभिव्यंजना शिल्प अत्यन्त प्रौढ़ और परिष्कृत है। इनके भाषा-शिल्प की प्रशसा आचार्य शुक्ल, आचार्य मिश्र, डॉ. कृष्णचंद्र वर्मा, डॉ.मनोहरलाल गौड़ और डॉ.रामदेव शुक्ल आदि विद्वानों ने मुक्तकंठ से की है। इनके काव्य में प्रेम के उच्छ्वासित निर्बाध भावों की अभिव्यक्ति बड़ी सहजता से हुई है।

डॉ. बच्चनसिंह का मत बहुत ही सटीक है कि घन आनंद संगीत, नृत्य, वाद्य, चित्र, काव्य को एक साथ प्रस्तुत करते हुए एक व्यावहारिक सौंदर्य शास्त्र बनाते हैं। वे प्रेम की भावानुभूति, काव्यानुभूति और काव्य भाषा को नए बोध के अनुसार रचते हैं। घनानंद की कविता में जिस प्रेम को अभिव्यंजित किया गया है. वह उनके जीवन की वास्तविकता है। घनानंद के प्रेम में आत्मानुभूति की प्रधानता है। सौन्दर्य और प्रेम उनकी कविता का आधार है। सौन्दर्य और प्रेम के प्रति उनमें समर्पण है। घनानंद की कविता में विलास से परे शुद्ध अनुराग की अनुभूति है। उनके एक पद को यहाँ उद्धृत किया जा सकता है।

अति सूधो सनेह को मारग है, जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।

तहाँ साँचै चलै तजि अपुनापौ झुझकै कपटी जे निसाँक नहीं।

घन आनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक ते दूसरौं आँक नहीं।

तुम कौन धौ पाटी पढ़े हौ कहौ मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं।।

घनानंद ने स्नेह के मार्ग को अत्यंत सीधा और सरल बताया है इसमें किसी प्रकार के छल कपट की गुंजाइश नहीं है। प्रेम परस्पर आत्मदान की वस्तु है। घनानंद आत्मदान तो देते हैं, परंतु सजान से स्नेह मिलने की संभावना के प्रति उत्सुक नहीं हैं। आत्मानुभूति के कारण ही घनानंद की भाषा में लाक्षणिक सौंदर्य है। हृदय की अनुभूति जब काव्य भाषा को रचती है तो भाषा में अनूठी भाव भंगिमा का संचार होता है। घनानंद के काव्य की भाषा बहुत कुछ छायावादी कवियों की तरह है। घनानंद की कविता की भाषा में स्वाभाविक प्रेम की स्निग्धता के साथ-साथ वाग्वैदग्ध्य की उक्तिवक्रता का परिचय भी मिलता है।

परकारज देह को धारे फिरौ परजन्य! जथारथ ह्वै दरसौ।

निधि नीर सुधा के समान करौ सबही बिधि सुंदरता सरसौ।

घन आनंद जीवनदायक हो, कबौं मेंरियौ पीर हिये परसौ।

कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मो अँसुवन को लै बरसौ।

ठाकुर

हिन्दी के इतिहास में तीन कवि ठाकर नामधारी हो चुके हैं जिनमें से दो असनी के ब्रह्मभट्ट थे और एक बुंदेलखंड के कायस्थ। ये तीसरे ठाकुर ही रीतिमुक्त धारा के प्रसिद्ध कवि हैं। इनकी कविता बड़ी ही सरस और सरल है। इनके स्फुट छंदों के दो संग्रह ‘ठाकुर शतक’ और ‘ठाकुर ठसक’ नाम से प्रसिद्ध हैं। ठाकुर द्वारा दी गई काव्य परिभाषा तत्कालीन काव्य पर सटीक लागू होती है। वे कहते हैं –

“मोतिन की सी मनोहर माल गुहै तुक अच्छर जोरि बनावै ।

प्रेम को पंथ कथा हरिनाम की उक्ति अनूठी बनाइ सुनावै ।

ठाकर सो कवि भावत मोहि जो राजसभा में बड़प्पन पावै।

पंडित और प्रवीनन को जोइ चित्त हरै सो कबित्त कहावै।”

इनके काव्य में प्रेम के विविध प्रसंगों के साथ ही होली, वसंत आदि के स्वाभाविक वर्णन प्राप्त होते हैं। इन्हें लोकजीवन का अच्छा ज्ञान था इसीलिए इनके काव्य में लोकोक्तियों का व्यंजनामय प्रयोग पाया जाता है। इन्होंने भावों का यथातथ्य चित्रण बोलचाल की भाषा में किया है।

बोधा

बोधा बुंदेलखंड के रहने वाले थे। इनका कविता काल सन् 1773 से 1803 ई. तक माना जाता है। घनानंद की भांति इनका भी प्रेम पन्ना दरबार की नर्तकी सुभान से हो गया था जिसके कारण इन्हें देश निकाला मिला। इस निर्वासन में इन्होंने माधवानलकामकंदला चरित्र’ या विरहवारीश’ की रचना की। कवि ठाकुर की तरह ये भी आत्मसम्मानी और मनमौजी थे। फारसी प्रभाव के कारण इनकी रचना कहीं-कहीं हल्की हो गई है। ‘माधवानलकामकंदला’ (विरहवारीश) प्रसिद्ध प्रेमाख्यान पर आधारित है और आलम के इसी नाम के प्रबंध से प्रभावित है। ‘इश्कनामा’ इनका दूसरा काव्यग्रंथ है जिसमें प्रेम के महत्त्व और उसके विविध पक्षों का वर्णन है। रीतिमुक्त कवियों में प्रेम की पीर’ का चित्रण करने वाले बोधा बहुत ही मर्मस्पशी कवि हैं।

रीति-स्वच्छंद काव्य धारा के अन्तर्गत आलम, रसखान और द्विजदेव का भी उल्लेख किया जाता है। इन कवियों ने स्वानुभूति के आधार पर काव्य रचना की है। संयोग की अपेक्षा वियोग का वर्णन अधिक होने से स्थूल विलासपूर्ण चित्रण की अपेक्षा सूक्ष्म मानसिक दशाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन इन्हें रीतिबद्ध कवियों से पृथक् करता है। ये सभी प्रम की पीर’ से तथा फारसी प्रेम की विषमता से भी प्रभावित हैं। इनकी कल्पना में ताज़गी और मौलिकता भी है। स्वच्छंद भाव और अनुभूति के कारण रीतिमुक्त कवि रीतिबद्धता को चुनौती देते हैं। रीति काव्य के जड़ बंधन से उनकी कविता मुक्त है। उनकी कविता चमत्कार प्रियता और रूढ़ उपमान से लदी हुई नहीं है।

रीतिमुक्त कवियों के काव्य में नैराश्य का भावावेग है। यह नैराश्य उनके जीवन में संवदेना और आत्मीयता की कमी से उपजा है। संवेदना और आत्मीयता की स्वानुभूति काव्य भाषा को रूढ़ संस्कारों से मुक्त करती है। वैयक्तिक विशिष्टता से रीतिमुक्त कवियों को सहज ही पहचाना जा सकता है। हर रीतिमुक्त कवि ने अपनी वेदना और अपने आत्मिक संघर्ष का अंकन काव्य में किया है। इसलिए रीतिबद्ध कवियों की कृत्रिमता से अलग रीतिमुक्त कविता में जैविक प्रक्रिया का बोध मिलता है।

श्रृंगारेतर काव्य

रीतिकाल में लक्षण – लक्ष्य परंपरा से मुक्त होकर बहुत से काव्यग्रंथ लिखे गए। आचार्य शुक्ल ने ‘रीतिकाल के अन्य कवि’ के अंतर्गत स्वच्छंदधारा के कवियों के साथ ही उन कवियों का भी उल्लेख किया है जिन्होंने आदिकाल – भक्तिकाल की प्रवृत्तियों का विस्तार रीतिकाल में किया है। डॉ. नगेन्द्र द्वारा संपादित हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में संत काव्य, सूफी काव्य, वीर – प्रशस्ति काव्य और नीति वैराग्य आदि काव्य प्रवृत्तियों का विस्तार से विवेचन किया गया है। डॉ. भगीरथ मिश्र ने तो शृंगारेतर रीतिकालीन काव्य में जीवन के बीच वास्तविक बातों के अनुभव और ज्ञान संग्रह के रूप में राजनीति, कामशास्त्र, शालिहोत्र, ज्योतिष, रमल, सामुद्रिक, भोजन शास्त्र मैत्री, संगीत शास्त्र आदि की रचनाओं की गणना भी की है।

रीतिबद्ध और रीतिसिद्ध काव्यों के अंतर्गत हमने भक्ति, प्रशस्ति, नीति वैराग्य आदि विषयों की चर्चा की है। श्रृंगारेतर काव्य के अन्तर्गत उन कवियों/कृतियों का परिचय दिया जाएगा। जिन्होंने अनेक काव्य – विषयों पर स्वतंत्र ग्रंथों की रचना की। इनमें से कुछ प्रबंध, कुछ निबंध और कुछ मुक्तक काव्य हैं । पं. रामचंद्र शुक्ल ने इन काव्यों में सरसता की कमी भी लक्षित की है। किन्तु फिर भी रीतिकालीन साहित्य में इनका अपना एक विशेष स्थान है।

प्रबंध काव्यों में सबलसिंह का महाभारत, गुरू गोविंद सिंह का चंडी चरित्र, लाल कवि का छत्रप्रकाश, जोधराज का हम्मीर रासो, गुमान मिश्र का नैषध चरित्र, सूदन का सुजान चरित्र, देवीदत्त की वैताल पचीसी, चंद्रशेखर का हम्मीर हठ, श्रीधर का जंगनामा, पद्माकर का रामरसायन, मधुसूदनदास का रामाश्वमेध आदि की गणना की जाती है। दूसरे प्रकार के प्रबंधों को शुक्ल जी वर्णनात्मक प्रबंध कहते हैं जिनमें दानलीला, मानलीला, जलविहार, वनविहार, मृगया, झूला, होली, जन्मोत्सव, रामकलेवा आदि का । वर्णन किया गया है। इन्हें काव्य न कहकर शुक्लजी के शब्दों में पद्य कहा जा सकता है। तीसरे प्रकार के रचयिताओं को वे सूक्तिकार कहते हैं। इनमें वाग्वैदग्ध्यपूर्ण तथ्य कथन रहता है। इस वर्ग में वृंद, गिरिधर, घाघ और वैताल की परिगणना की गई है। चौथे प्रकार में ज्ञानोपदेश और वैराग्य परक पद्यों को रखा गया है। इनमें रूपक, दृष्टांत आदि अलंकारों के द्वारा विषय को स्पष्ट करने की चेष्टा लक्षित होती है।

अन्योक्तियों के सहारे भगवत्प्रेम, संसार के प्रति विरक्ति और करुणा उत्पन्न की गई है। पाँचवा वर्ग भक्त कवियों का है जो पुरानी परंपरा के अनुसार ईश्वर के प्रति प्रेम और विनय की रचना करने वाले थे। छठा वर्ग प्रशस्तिकाव्य रचनाकारों का है जिन्होंने आश्रयदाताओं की युद्धवीरता और दानवीरता का वर्णन किया है। जिन कवियों ने राष्ट्र नायकों की प्रशंसा में काव्य रचना की है उन प्रशस्ति काव्य के रचयिताओं को ही कवियश मिल पाया शेष कवियों के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध न हो सकी।

वीरकाव्य

वीरकाव्य में सबसे पहले मान कवि का उल्लेख किया जा सकता है जिन्होंने अपने आश्रयदाता मेवाड़ नरेश राजसिंह की प्रशंसा में सन् 1677 में राजविलास की रचना की। इसमें राजस्थानी मिश्रित ब्रजभाषा का प्रयोग है। वीरकाव्य के अन्य कवि सूदन ने अपने आश्रयदाता भरतपुर के सुजानसिंह ‘सूरजमल’ की। युद्धवीरता का वर्णन अपने प्रसिद्ध ग्रंथ सुजानचरित में किया है। वर्ण्य विषय की विविधता और विस्तार को देखकर इनकी योग्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है। इन्हें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और अनेक भाषाओं का अच्छा ज्ञान था। इसकी रचना लगभग 1753 ई. में हुई होगी। पद्माकर ने अपने रस विवेचन के ग्रंथ जगद्विनोद’ के आरंभ में महाराजा जगतसिंह की प्रशंसा की है। इसके अतिरिक्त हिम्मतबहादुर विरुदावली में हिम्मतबहादुर और अर्जुनसिंह के युद्धों का वर्णन है।

प्रतापविरुदावली में महाराजा प्रतापसिंह की प्रशस्ति है। जोधराज ने नींवगढ़ (अलवर) के राजा चन्द्रभान चौहान की आज्ञा से हम्मीर रासो की रचना सन् 1828 में की, जिसमें रणथंभोर के हम्मीर और अलाउद्दीन के युद्धों का वर्णन है। पृथ्वीराज रासो का प्रभाव ग्रहण करके भी कवि जोधराज ने अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है। इसके वर्णन में ऐतिहासिक कम कल्पना का योग ज्यादा है।

मुक्तक वीर काव्यों में भूषण के शिवाबावनी और छत्रसालदशक के अतिरिक्त कविराज बाँकीदास का नाम उल्लेखनीय है। जोधपुराधीश राजा मानसिंह इन्हें अपना गुरू मानते थे। इनके सूर छत्तीसी और वीरविनोद प्रसिद्ध वीर रसात्मक ग्रंथ हैं।

आदिकालीन वीरगाथा की रचना प्राय: चारणों और भाटों ने की थी अत: उनमें अत्युक्तिपूर्ण चाटुकारिता की प्रमुखता है, जबकि रीतिकाल में वीर काव्यकर्ता मूलत: कवि थे जिन्होंने साहित्य रचना करते समय राष्ट्रहित को प्रमुखता दी। आदिकालीन कवियों की भाषा डिंगल है जबकि रीतिकवियों की भाषा ब्रजभाषा।

वस्तुत: आदिकाल के वीरकाव्य और रीतिकाल के वीरकाव्य के बीच कोई मूलभूत वैचारिक अंतर नहीं है। आदिकाल और रीतिकाल दोनों युगों में सामंत की प्रशस्ति में ही वीरकाव्य की सर्जना हुई है। परन्तु कथ्य की ऐतिहासिक प्रामाणिकता, भाव व्यंजना की निपुणता, ध्वन्यात्मकता और भाषा की शुद्धता की दृष्टि से रीतिकाल का वीरकाव्य आदिकालीन वीर काव्य से श्रेष्ठ सिद्ध होता है।

भक्तिकाव्य

सामान्य जनता में रीतिकाल में भी भक्तिकाव्य धारा का ही विशेष सम्मान था क्योंकि वह हिम्मत न हारकर हरिनाम के भरोसे जीवन संघर्ष में जुटी हुई थी। कवि भी जीवन का उत्तमांश राजदरबारों में व्यतीत करने के बाद वृद्धावस्था में सामान्य जन बन जाता था। समाज के निम्न वर्गों में संतों और सूफी-भावनाओं का प्रचार चला आ रहा था जबकि सवर्णों में राम-कृष्ण की भक्ति अधिक प्रचलित थी। रीतिकाल में भक्ति की निष्ठा के स्थान पर आडंबर की प्रमुखता हो गई थी। इसी कारण इस युग के भक्तिकाव्य में भक्ति का सहज सरल वर्णन दिखाई नहीं देता। भक्ति रीतिकालीन कवियों की मनोवैज्ञानिक जरूरत है।

मनोवैज्ञानिक जरूरत इस अर्थ में कह सकते हैं कि कवि के लिए भक्ति सर्मपण की विषयवस्तु नहीं है। उनके लिए भक्ति सांसारिकता से ऊबकर पलायन का एक रास्ता है। रीतिकाल के अधिकांश कवियों ने जीवन के उत्तरार्ध में ही भक्ति काव्य की रचना की। उसमें भी उनका दैन्य और अभाव झलकता है। दूसरे प्रकार की भक्ति के आराध्य राधा और श्रीकृष्ण हैं। राधा और कृष्ण के प्रेम प्रसंग का सहारा लेकर कवि रसिकता को उभारने का प्रयत्न करते हैं। इसके पीछे रीतिकवियों का यह तर्क रहा होगा कि रसिकता का महत्त्व लौकिक जीवन तक ही सीमित नहीं है, उसका महत्त्व अलौकिक जीवन में भी है। रीतिकवियों की भक्ति विवेचना के इन संदर्भो के अतिरिक्त सांप्रदायिक रूप से भी भक्ति साहित्य की कुछ रचनाएँ मिलती हैं। उसे इस क्रम में रखा जा सकता है :

संतकाव्य

रामानंद ने उत्तर भारत में भक्ति-धारा के प्रवाह को विशेष बल दिया। इनके शिष्य निर्गुणोपासक भी थे और सगुणोपासक भी। निर्गुण की उपासना रीतिकाल में अनेक मतों और पंथों की गद्दियों में प्रचलित थी किन्तु भावना की गहराई की अपेक्षा युग के प्रभाव से उसमें प्रदर्शन और आडंबर अधिक हो गया था। यारी साहब या यार मुहम्मद ने सन् 1700 ई. के आसपास हिन्दू-मुस्लिम एकता को स्थापित करते हुए योग, अध्यात्म की बातों का प्रचार किया। जीवात्मा परमात्मा के विरह-मिलन के प्रसंग में रहस्यात्मक प्रवृत्ति दृष्टिगत होती है। इन पर सूफियों का भी प्रभाव लक्षित होता है। दूसरे संत बिहार के दरिया साहब थे जिनकी शिष्य परंपरा काफी लंबी थी। इन्होंने बीस ग्रंथों की रचना की। ‘दरियासागर’ में इन ग्रंथों का संग्रह किया गया। जगजीवनदास दादू दयाल की शिष्य परंपरा में थे। इनका जन्म 1670 ई. में माना। जाता है और मृत्यु 1761 ई.में। इनकी भाषा ब्रज-अवधी मिश्रित है।

पलटू साहब ने चमत्कारपूर्ण शैली में जीव-ब्रह्म की व्याख्या की है। हिन्दी के अनेक छंदों का इन्होंने प्रयोग किया है। चरनदास एक ज्ञानी और विरागी संत थे जिनके बावन सुयोग्य शिष्य थे। इन्होंने विभिन्न विषयों पर इक्कीस पुस्तकों की रचना की, इनके शिष्यों ने चरनदासी संप्रदाय का प्रचार किया। शिवनारायण भी अपने संप्रदाय के प्रवर्तक थे। योग, भक्ति और वैराग्य की शिक्षा देने के लिए इन्होंने कई ग्रंथों की रचना की। इनके साहित्य में रहस्यात्मक भावना पाई जाती है। तुलसीसाहब दक्षिण के ब्राह्मण और पूना के युवराज थे। 1760 ई. से 1842 ई. तक इनकी स्थिति मानी जाती है। गुरू तेगबहादुर सिक्खों के नवें गुरू थे।

इनकी वाणियाँ ‘आदिग्रंथ’ में संकलित है। अक्षर अनन्य ने योग-वेदांत पर छह पुस्तकों की रचना की है। इनमें भाव की गंभीरता, विषय की स्पष्टता और भाषाशैली की प्रौढ़ता प्राप्त होती है। संतमत के शेष साधक कवियों में बाबा चरणीदास, बूला साहब, दया बाई और सहजोबाई भी प्रसिद्ध हैं।

सूफी काव्य

भक्तिकाल में उद्भूत सूफी काव्यधारा रीतिकाल में भी प्रवाहित रही। हिंदी काव्य में इसके दो रूप पाए जाते हैं – एक, शुद्ध सैद्धान्तिक आधार पर निर्मित दूसरा, शुद्ध प्रेमपरक । दोनों रूपों में भारतीय प्रेमकथाओं का आधार लिया गया है, पर पहले रूप में रहस्यात्मकता की प्रधानता अधिक है जबकि दूसरे में सीधे-सीधे प्रेम के महत्त्व और उसके संयोग-वियोग पक्ष की अभिव्यंजना कथानक रूढ़ियों के सहारे की गई है। इस शाखा के कुछ कवियों का परिचय निम्नलिखित है –

कासिमशाह

कासिमशाह के हंसजवाहर’ (सन् 1736 ई.) में शहज़ादा हंस और शहज़ादी की काल्पनिक प्रेम-कहानी का वर्णन किया गया है। इस पर जायसी के पद्मावत का पर्याप्त प्रभाव पाया जाता है। इसकी अवधी ब्रजभाषा मिश्रित है।

नूरमुहम्मद

इन्होंने ‘इन्द्रावती (1744 ई.) नामक आख्यानक काव्य की रचना की। जिसमें कलिंजर के राजकुमार राजकुँवर और आगमपुर की राजकुमारी इंद्रावती की प्रेम कहानी का वर्णन किया गया है। ये फारसी के अच्छे ज्ञाता थे। इन्होंने फारसी में भी कई किताबें लिखी। कासिमशाह की तरह इन्होंने भी शाहे वक्त मुहम्मदशाह की प्रशंसा की है। इनकी दूसरी कृति ‘अनुराग बाँसुरी’ (1764 ई.) है। इसमें आध्यात्मिक सिद्धांतों के आधार पर रूपक की कल्पना की गई है। भाषा परिनिष्ठित अवधी है, पर संस्कृत और ब्रजी के प्रयोग भी मिलते हैं। शुक्लजी ने इन्हें सूफी परंपरा का अंतिम कवि माना है।

रीतिकालीन शृंगारी काव्य में वर्णित प्रेम को उज्ज्वल और उदात्त बनाने में इन प्रेमाख्यानों का थोड़ा बहुत प्रभाव माना जा सकता है पर भक्तिकालीन प्रेमाख्यान-परंपरा रीतिकाल में आकर संकुचित और स्थूल धरातल पर प्रतिष्ठित हो गई थी।

राम-काव्य

रीतिकाल तक आते-आते रामकाव्य में श्रृंगारी प्रवृत्ति घुलने लगी थी, फलस्वरूप उसका लोकमंगल वाला तत्त्व कमजोर पड़ने लगा था और लोकरंजन की प्रमुखता हो चली थी। इसका प्रथम उन्मेष सेनापति के कवित्त रत्नाकर’ में देखा जा सकता है। कृष्णभक्ति की माधुर्योपासना ने रामभक्ति को भी प्रभावित किया। इसका स्पष्ट प्रभाव रामचरणदास की शृंगारी उपासना पर पड़ा जिस परंपरा से क्षुब्ध होकर आचार्य शुक्ल ने अपने ग्रंथ ‘हिन्दी साहित्य के इतिहास’ में रामकथा की विकृति पर चिंता व्यक्त की है।

गुरू गोविन्द सिंह सिक्खों के दसवें गुरू थे। मूलत: ये शक्ति के उपासक थे पर अपनी गोविंद रामायण’ में इन्होंने रामकथा का ओजस्वी और सरस वर्णन किया है। जानकी रसिकशरण (1700 ई.) के ‘अवधसागर’ में अष्टयाम-प्रसंग का भी वर्णन भंगाररीति के प्रभाव का द्योतक है। भगवन्तराय खीची ने हनुमत्पचीसी (1760 ई.) में हनुमानजी के संबंध में पच्चीस कबित्तों की रचना की है। जनकराजकिशोरीशरण (रचनाकाल सन् 1800 ई.) ने राम भक्ति की रसिकोपासना से संबंधित अनेक काव्यग्रंथों की रचना की है। नवलसिंह कायस्थ (सन् 1816-67 ई.) ने ब्रजभाषा में कई रामकाव्यों की रचना की है। रीवांनरेश विश्वनाथसिंह रीतिकाल के अंतिम प्रसिद्ध रामभक्त कवि हुए हैं जिन्होंने बत्तीस ग्रंथों की रचना की है। राम का लोकमान्य रूप मर्यादावादी रहा है अत: उस पर रीतिकालीन विलासिता का प्रभाव अधिक न पड़ सका।

कृष्ण काव्य

रीतिकालीन कवियों ने राधा-कृष्ण को अपने काव्य का आलंबन तो बनाया ही था, उसके समानांतर श्रीकृष्ण की लीलाओं का वर्णन कथा प्रबंधों और मुक्तकों में भी बराबर होता रहा। निंबार्क और गौड़ीय संप्रदायों के प्रभाव से अनेक भक्त कवियों ने युगलोपासनापरक काव्यों की रचना की। इस वर्ग के प्रबंधकारों में गुमान मिश्र, ब्रजवासीदास, मंचित आदि प्रमुख हैं। गुमान मिश्र ने कृष्णचंद्रिका’ (1781 ई.) नामक प्रबंधकाव्य में सरल शैली में कृष्ण कथा कही है। ब्रजवासीदास ने ‘ब्रजविलास’ (1770 ई.) में सूरसागर के आधार पर दोहा चौपाई शैली में कृष्णकथा की रचना की। कवि मंचित ने सन् 1779 के आसपास सुरभीदानलीला और कृष्णायन नामक दो प्रबंधों की रचना की थी। कृष्णायन तुलसीदास के रामचरितमानस की दोहा चौपाई शैली में ब्रजभाषा में रची गई है।

मुक्तक शैली में कृष्णभक्तिकाव्य की रचना करने वालों में सखी संप्रदाय के भक्तवर नागरीदास का स्थान मुख्य है। ये कृष्णगढ़ के राजा थे पर विरक्तभाव से वृंदावन में रहने लगे थे। सन् 1723-62 ई. में । इन्होंने कई काव्यों की रचना की। इन पर कहीं-कहीं सूफी और फारसीकाव्य का भी प्रभाव लक्षित होता है। अलबेली अली की कविता सूरदास के समान मधुर और ललित है। चाचा हितवृंदावनदास, भगवत रसिक आदि युगलोपासक भक्तों की रचनाएँ इसी वर्ग में ली जा सकती हैं।

नीतिकाव्य

रीतिकालीन काव्य में भक्ति, प्रशस्ति और नीति-वैराग्य परक उक्तियाँ दो रूपों में प्राप्त होती हैं एक तो लक्षणग्रंथों में उदाहरण स्वरूप निबद्ध की गई, दूसरी स्वतंत्र रूप से। रीति के बंधे परिवेश से निकलकर जीवनानुभवों को व्यक्त कर अपने को ताज़गी देने के लिए ऐसी रचनाएँ रीतिबद्ध कवियों के ग्रंथों में भी मिलती हैं किन्तु स्वतंत्ररूप से जीवन-जगत के यथार्थ रूप को प्रकट करने वाले छंदों की रचनाएँ नीतिकाव्य के अंतर्गत ही मिलती है। विद्वानों का ऐसा विचार है कि भक्ति यदि इन कवियों के आकुल अंतर के लिए शरणभूमि थी, तो नीति संघर्षमय दरबारी जीवन के घात-प्रतिघातों से उत्पन्न मानसिक द्वंद्व के विरेचन के परिणाम स्वरूप शांति का आधार थी। इसीलिए आत्मोपदेश और अन्योक्तिपरक छंदों में इनके वैयक्तिक अनुभवों की छाप प्राय: देखने को मिलती है। इन छंदों में पूर्व पंरपरा का पालन तो है ही साथ ही अपने परिवेश से प्रेरित जीवन के उत्थान-पतन और आशा-निराशा का चित्रण भी पाया जाता है।

संस्कृत में विदुर, चाणक्य, भर्तृहरि आदि, प्राकृत में गाहासत्तसई और वज्जालग्ग तथा अपभ्रंश में पाहुड़दोहा, उपदेशरसायन और प्राकृत पैंगलम के छंदों में नीतिपरक उक्तियाँ प्राप्त होती हैं। हिंदी के भक्तिकाल में भी कबीर, तुलसीदास, नरहरि, रहीम आदि ने जीवनयात्रा को सफल बनाने वाली बातें सक्तिरूप में कही हैं। रीतिकाल में इसी परंपरा का विस्तार पाया जाता है। वृंद (1643-1723 ई.) ने । ‘दृष्टांत सतसई’ या वृंदसतसई की रचना की थी। इनमें सद्गुण-दुर्गुण आदि विषयों के दोहों का संग्रह है। गिरिधर ने सामाजिक और पारिवारिक संबंधों पर नैतिक दृष्टि से कुंडलियों की रचना की है।

इस वर्ग के अंतिम रीतिकालीन कवि दीनदयाल गिरि (सन् 1822-55 ई. काव्य-काल) ने भी गिरधर की तरह विविध विषयों पर गुण-दोषों की दृष्टि से विचार किया है इनकी अन्योक्ति कल्पद्रुम, ‘अन्योक्तिमाला’ और ‘दृष्टांततरंगिणी’ प्रसिद्ध हैं। इसमें मौलिकता की अपेक्षा परंपरा पालन अधिक है। आचार्य शुक्ल ने कोरे नीति-कथन को सूक्ति कहा है, किन्तु सब सूक्तिकार ही नहीं हैं। इन सूक्तियों में सरस उदाहरणों के द्वारा रोचकता और काव्यात्मकता भी उत्पन्न की गई है। नीतिकाव्य में लोकजीवन के अनुभवों को प्रस्तावित किया गया है। ‘वंद सतसई’ का यह दोहा भले मनुष्य की पहचान को व्यंजित करता है। सही और गलत की पहचान परिस्थितियों के आधार पर ही होती है। अपनी बात की पुष्टि कवि ने एक उदाहरण देते हुए की है कि बसंत ऋतु में बोलने के कारण ही कौए और कोयल की पहचान होती है।

फीकी पै नीके लगै, कहिए समय विचारि।

सबको मन हरषित करै, ज्यौं बिवाह में गारि।

भले बुरे सब एक सम, जो लौं बोलत नाहिं ।

जान परत हैं काग पिक ऋतु बसंत के माहिं ।

वैराग्य-तत्त्वज्ञानपरक काव्य

रीतिकाल में वैराग्य और तत्त्वज्ञान को भी महत्त्व दिया गया था क्योंकि यह अतिशय शृंगरिकता का मनोवैज्ञानिक परिणाम था। नीतिकाव्य लिखने वाले कवियों ने सांसारिक प्राणियों को प्रबोधने के लिए नीति कथन के साथ ही अध्यात्मकथन भी किया है। ज्ञान-वैराग्य की उक्तियाँ प्राचीनकाल से ही प्राप्त होती हैं। जीवन की क्षणभंगुरता, संसार की असारता, मोह-माया के बंधन से मुक्ति आदि विषयों को अनेक कवियों ने रोचक शैली में प्रस्तुत किया है।

इस इकाई में हमने रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त के साथ-साथ रीति-इतर प्रवृत्तियों का भी संकेत किया है। इन इतर प्रवृत्तियों में काव्य परंपरा से प्राप्त भक्ति, ज्ञान-वैराग्य, नीति और वीर प्रशस्ति के काव्य की गणना की गई है। इन सभी काव्य प्रवृत्तियों में रीतिकालीन परिवेश का प्रभाव पाया जाता है। अत: सभी प्रकार के काव्यों में उदात्त भावों और मौलिकता के स्थान पर रूढ़िग्रस्तता और चमत्कार प्रदर्शन की प्रमुखता दिखाई पड़ती है। काव्यरूप की दृष्टि से रीतिकालीन कविता मुक्तक प्रधान है। मुक्तकों में जिस प्रकार भक्ति, वीर, नीति-वैराग्य आदि काव्यों की सुदीर्घ परंपरा प्राप्त होती है, उसी की अगली कड़ी रीतिकालीन मुक्तकों में भी मिलती है।

रीतिकालीन कवियों का भाषा शिल्प

रीतिकाल की काव्य-भाषा मुख्यरूप से ब्रजभाषा थी। कुछ कवियों ने अवधी को भी अपनाया। ब्रजभाषा उस मध्यदेश की भाषा थी जो भारत का हृदयस्थल था। यहीं शौरसेनी अपभ्रंश से इस भाषा का विकास हुआ और हिंदी साहित्य के मध्यकाल की साहित्यिक भाषा के रूप में दूर-दूर तक फैल गई। बंगाल के पश्चिमी किनारे से पंजाब और गुजरात के पूर्वी किनारे तक इसका प्रसार था। इसकी विस्तृत सीमा में राजस्थानी, पंजाबी, बुंदेलखंडी और पूर्वी क्षेत्रों की शब्द-संपदा समाहित हो गई। षड्भाषा परंपरा में इसमें खड़ीबोली (उर्दू) अरबी-फारसी और तुर्की के भी शब्द ब्रजी के रंग में रंग कर प्रयुक्त होने लगे। मध्यदेश की संस्कृति और भाषा का प्रभाव भी मध्यकालीन हिंदी कविता पर पड़ा। इसी ओर संकेत करते हुए आचार्य भिखारीदास ने कहा है,

तुलसी गंग दुवौ भए सुकविन के सरदार।

इनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार ।।

इस विविधता का कारण है भाषा का क्षेत्र-विस्तार। इसकी परंपरा सूरदास के पूर्व भी सिद्ध हो चुकी है। 14 वीं शती तक इसका रूप बहुत कुछ स्थिर हो चुका था। कृपाराम की हिततरंगिणी के पूर्व भी अनेक छंदों में काव्य-निरूपण होता रहा होगा ऐसा डॉ.नगेन्द्र का भी विश्वास है। लगभग छह सौ वर्षों तक काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा का प्रयोग सैकड़ों कवियों के द्वारा किया गया, अत: उसमें विविधता और व्याकरण संबंधी शिथिलता का होना अवश्यंभावी था। आचार्य शुक्ल ने रीतिकालीन कवियों की भाषा के बारे में लिखा है- “भाषा जिस समय सैकड़ों कवियों द्वारा परिमार्जित होकर प्रौढ़ता को पहुँची उसी समय व्याकरण द्वारा उसकी व्यवस्था होनी चाहिए थी।”

ऐसा नहीं हुआ जिसके परिणाम स्वरूप च्युत संस्कृति दोष, वाक्य दोष, लिंग दोष आदि का निराकरण न हो सका और शब्दरूपों में एकरूपता न आ पाई। शुक्लजी ने अरबी-फारसी के शब्दों का ब्रजभाषा में ग्रहण अनुचित नहीं माना, वह तो ऐतिहासिक प्रभाव से होना ही था किन्तु उसके विकृत और अतिशय प्रयोग को अनुचित ठहराया गया है। कहीं-कहीं अप्रचलित देशज शब्दों के प्रयोग से भी दुरूहता आ गई है। फिर भी घनानंद, बिहारी और पद्माकर के साहित्य में ब्रजभाषा का शुद्ध प्रयोग मिलता है।

भाषा की लाक्षणिकता का प्रयोग घनानंद की कविता की अपनी विशेषता ही बन गई। बिहारी, देव, भिखारीदास आदि में भी व्यंजना वृत्ति का विशेष प्रयोग पाया जाता है। बिहारी के छोटे से दोहे में अनेक अर्थ-छवियाँ उसकी ध्वन्यात्मकता के ही कारण समाहित हो सकी हैं। रीतिकवियों ने अपने काव्य को बिम्बात्मकता और चित्रात्मकता से भी सजाया है। यद्यपि इस क्षेत्र में भी घन आनंद सबसे आगे हैं पर मतिराम, देव, बिहारी, पद्माकर आदि भी उनसे बहुत पीछे नहीं हैं। इन कवियों ने फारसी के शब्दों को ब्रजी के अनुकूल ढाल कर ही ग्रहण किया है।

कान सुनि आगम सुजान प्रान प्रीतम को

आति सखियान सजी संदरी के आसपास।

कहै पदमाकर सु पन्नन के हौज हरे

ललित लबालब भरे है जल बास बास।

 गुदि गुल गज गौहरनि गंज गुल

गुपत गुलाबी गुल गजरे गुलाब पास ।

खासे खस बीजन सुपौन पौन खाने खुले।

खस के खजाने खसखाने खूब खास खास ।।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि यद्यपि रीतिकालीन कवियों ने ब्रजभाषा को व्याकरण सम्मत और एक सुस्थिर रूप नहीं प्रदान किया फिर भी उसकी शब्द-संपदा में अपूतपूर्व वृद्धि हुई। उन्होंने भाषा को शृंगार रसानुकूल माधुर्यगुण से ही संपन्न नहीं बनाया बल्कि उसमें ओजगुण की अभिव्यक्ति क्षमता भी पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न कर दी। मुहावरों और लोकोक्तियों के व्यंजक प्रयोगों द्वारा भाषा में प्रवाह और जीवंतता का संचार किया। चाक्षुष बिम्बों की अधिकता के द्वारा चित्रात्मकता की कला और संवेदनात्मक बिम्बों के द्वारा भावानुभूति की गहनता से अभिव्यंजना के नए क्षितिज का स्पर्श किया। भाषा की सुघड़ता और तरलता का जैसा विकास रीतिकालीन ब्रजभाषा में प्राप्त होता है वह अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धि है।

सारांश

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप समझ गये होंगे कि रीतिकालीन कविता किस सामाजिक परिस्थिति के बीच पनपी थी तथा उसका विस्तार किन-किन धाराओं के बीच हुआ। रीतिकाल की विभिन्न धाराओं के बीच के अंतर को भी आप समझ गए होंगे। रीतिबद्ध, रीतिसिद्ध और रीतिमुक्त कविता की आंतरिक विशेषता का अध्ययन भी आपने इस इकाई में किया। रीतिकाल में शृंगारिक रचनाओं के साथ-साथ शृंगारेतर साहित्य की भी रचना हो रही थी। वीरता, धर्म, नीति और वैराग्य पर भी कविताएँ लिखी जा रही थीं, जिनका इस युग में विशेष महत्व है।

अभ्यास प्रश्न

  1. रीतिकालीन रीतिबद्ध काव्य की विशेषताओं की चर्चा कीजिए। यह रीतिमुक्त काव्य से किस प्रकार भिन्न थी?
  2. रीतिकालीन रीतिमुक्त काव्य की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  3. रीतिकालीन काव्य की किन-किन विशेषताओं का प्रतिफलन बिहारी की सतसई में प्राप्त होता है? विवेचन कीजिए।
  4. रीतिकालीन भक्ति-भावना के स्वरूप का परिचय दीजिए।
  5. रीतिकालीन नीतिकाव्य की विशेषताओं का परिचय दीजिए।
  6. रीतिकालीन कवियों की भाषा-शैली की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
  7. रीतिकालीन रीतिबद्ध काव्य धारा के प्रमुख कवियों का परिचय दीजिए।
  8. रीतिकालीन रीतिसिद्ध काव्य धारा की विशेषताओं की चर्चा कीजिए।
  9. रीतिकालीन शृंगारेतर काव्य प्रवृत्तियों का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।

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