बाणभट्ट की आत्मकथा का शिल्प
आपने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ की जीवनदृष्टि और सरंचना और शैलीगत विशेषताओं का परिचय प्राप्त कर लिया है। इस प्रकिया में उपन्यास की वस्तु-संरचना, प्रेम का स्वरूप, उसके सामाजिक-राष्ट्रीय निहितार्थ, इतिहास बोध के साथ-साथ समसामयिक सामाजिक यथार्थ, और स्वाधीनता आंदोलन के लिए उपन्यास में व्यक्त दिशा-संकेत आदि सभी महत्वपूर्ण बिंदुओं पर विचार किया गया है!
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इसे पढ़ने के बाद आप –
- ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में आत्मकथात्मकता के तत्व को समझ सकेंगे,
- उपन्यास में चित्रित रोमांस की स्थितियाँ और विशिष्टता से अवगत हो सकेंगे,
- इतिहास और कल्पना के सामंजस्य के द्वारा वर्तमान स्थिति की जटिलता को समझ सकेंगे।
हजारीप्रसाद द्विवेदीजी ने ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ उपन्यास ‘आत्मकथा पद्धति पर लिखा है! हर्षकालीन भारतवर्ष के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिवेश से कथावस्तु का चयन किया है! इसके कुछ महत्वपूर्ण पात्र ऐतिहासिक है, जैसे बाण, हर्षवर्धन, कृष्णवर्धन, शीलभद्र, राज्यश्री और जयन्त भट्ट। इस उपन्यास में चित्रित प्रसंग, शहर, नगर सभी ऐतिहासिक है, लेकिन पात्रों के आस-पास घटने वाली घटनाएँ और उनके कार्य काल्पनिक हैं। उपन्यास का आधार संस्कृत के विद्वान बाणभट्ट की जीवन कथा है। द्विवेदी जी ने बाणभट्ट की जीवन-कथा को तत्कालीन युग के विभिन्न घटनाओं के साथ जोड़कर प्रस्तुत किया है। द्विवेदी जी ने पात्रों के अनुरूप उनसे संबंधित काल्पनिक घटनाओं की निर्मिति द्वारा ऐतिहासिक वातावरण का आभास निर्माण किया है! ऐतिहासिक कथावस्तु को आधार बनाकर वे सामाजिक विकास प्रकिया। को वैज्ञानिक दृष्टि से विश्लेषित करते हैं! समाजिक, सांस्कृतिक परंपराओं, रूढि रीतियों, भेदभाव की नीतियों और मानव की प्रतिष्ठा को गिराने वाली जातियता की जड़ों को वे इतिहास के गर्भ से खोज निकालने की कोशिश करते हैं। आज के सामाजिक राजनीतिक संदर्भो को इतिहास की इन्हीं परंपराओं और संस्कारों के तहत तलाशते हैं। मानव समुदाय के विकास में अवरोध बनी इस जड़ परंपराओं को तोड़कर समानतामूलक समाज व्यवस्था को ।
जीवन कथा को प्रमुखता नहीं दी है, प्रमुख है युगीन संदर्भ और घटनाएँ। इसलिए इतिहास हजारीप्रसाद द्विवेदी और कल्पना का सहारा लेना उन्हें आवश्यक लगा। कल्पित घटनाओं और अनुकूल पात्रों के निर्माण द्वारा तत्कालीन परिवेश को साकार करने का प्रयास किया है। इस इकाई में आप पढ़ेंगे कि जन-लीवन के यथार्थ चित्र को प्रस्तुत करने का प्रयास ही यह ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ है।
आत्मकथात्मकता
इस प्रसंग में पहला प्रश्न आत्मकथात्मकता पद के अर्थ को लेकर पैदा होता है। उपन्यास के शीर्षक में ही आत्मकथा पद प्रयुक्त हुआ है, जिसका प्रथम अर्थ यह होगा कि यह संस्कृत के . महान् लेखक बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’ है। ‘आत्मकथा’ वह विधा है जिसमें कोई व्यक्ति अपनी जीवन-कथा लिखता है। पर संस्कृत के विख्यात कथालेखक बाणभट्ट के प्रसंग में यह पद इसलिए निरर्थक है कि उस काल में संस्कृत साहित्य में ‘आत्मकथा लिखने का प्रचलन था ही नहीं। यदि यह किताब सचमुच ही बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’ का अनुवाद होती, जैसा कि उसकी भूमिका और शीर्षक में कहा गया है, तो शोध की दृष्टि से यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होती ; संस्कृत साहित्य के इतिहास में एक नया अध्याय ही जुड़ जाता। पर वस्तुत: ऐसा है नहीं। यह किताब एक उपन्यास है, या स्वयं द्विवेदी जी के शब्दों में एक ‘गप्प है, जिसे विश्वसनीय बनाने के लिए ‘आत्मकथा’ कह दिया गया है। ‘झूठ तो यह है ही, पर ‘गप्प झूठ नहीं तो क्या होगा ! हाँ, गप्प बिलकुल सच लगे, इसका प्रयास तो ‘गप्पकार’ करता ही है। द्विवेदी जी ने ऐसा ही किया है। उन्होंने अपने ‘गप्प को, जिसे हम उपन्यास कहते हैं, अत्यन्त विनोद की मुद्रा में, साथ ही पर्याप्त विश्वसनीयता के साथ, ‘आत्मकथा’ की संज्ञा दे दी है, और ऐसा भ्रम पैदा किया है कि उनके पट्ट शिष्य तक इस भ्रम के शिकार हो गये हैं।
आत्मकथा लिख्यते। इस वाक्य से इस किताब के संस्कृत पोथी’ होने का भ्रम पैदा किया गया • है, यद्यपि चतुर सहृदय को इसकी असंगति और इसमें छिपा विनोद भाव भ्रमित नहीं कर सकता। इसके बाद प्रथम अध्याय की जगह ‘प्रथम उच्छ्वास के प्रयोग और संस्कृत काव्यरचना की शैली में, संस्कृत में ही, शिव की स्तुति से उक्त भ्रम को और भी गाढ़ा करने का प्रयास किया गया है।
उपन्यास का आरम्भ कथामुख’ से हुआ है, जिसका ‘मैं’, अर्थात् लेखक, स्वयं हजारी प्रसाद द्विवेदी नहीं, बल्कि कोई ‘व्यो’. हैं ! हिन्दी साहित्य के प्रबुद्ध विद्यार्थी जानते हैं कि ये ‘व्यो. (व्योम) श्री व्योमकेश शास्त्री हैं, जो हजारी प्रसाद द्विवेदी का ही छद्म नाम है। इस प्रकार द्विवेदी जी ‘कथामुख’ में भी अपने को छिपा गये हैं और यह कथामुख भूमिका न रह कर उपन्यास का अंग बन गया है। इस ‘कथामुख’ से पाठक को सूचना मिलती है कि पचहत्तर वर्षीय मिस कैथराइन, जो ‘आस्ट्रिया के एक सम्भ्रान्त ईसाई परिवार की कन्या’ हैं, और जिनकी भारत की पुरानी चीजों को ढूँढ़ने और एकत्र करने में गहरी दिलचस्पी है, अपनी शोण-यात्रा में एक ‘पोथी’ प्राप्त करती हैं जिसका स्वयं ही हिन्दी में अनुवाद करके व्योम को संशोधन और टंकन के लिए देती हैं। इस ‘अनुवाद’ में शीर्षक के स्थान पर मोटे मोटे अक्षरों में लिखा है : अथ ‘ बाणभट्ट की आत्मकथा लिख्यते ।
व्योम चक्कर में पड़ जाते हैं। वे पोथी को बाणभट्ट की आत्मकथाः मानकर ही उसे टंकित कराते हैं, बाणभट्ट के ग्रन्थों से मिलाकर उसकी प्रामाणिकता की जाँच करते हैं , उसे नये सिरे से ‘सम्पादित करते हैं और लगभग दो वर्ष बाद (क्योंकि ‘दीदी’ या मिस कैथराइन पांडुलिपि सौंप देने के बाद व्योमकेश को चकमा देकर विदेश चली गयी थीं) उसे ‘दीदी के अनुवाद’ के रूप में प्रकाशित कराते हैं। ‘कथामुख’ में व्योमकेश को, और साथ ही पाठक को भी, यह भ्रम बना ही रहता है कि यह किताब बाणभट्ट की आत्मकथा का ‘अनुवाद’ है। पर ‘उपसंहार’ पढ़ने के बाद इस भ्रम का निरसन हो जाता है। मिस कैथराइन व्योम को लिखे अपने पत्र में कहती हैं : “… ‘आत्मकथा’ के बारे में तूने एक गलती की है। तूने उसे अपने कथामुख’ में इस प्रकार प्रदर्शित किया है, मानो वह ‘ऑटोबायोग्राफी’ हो। ले भला ! तूने संस्कृत पढ़ी है, ऐसी ही मेरी धारणा थी, पर यह क्या अनर्थ कर दिया तूने ! बाणभट्ट की आत्मकथा शोणनद के प्रत्येक बालुका कण में वर्तमान है। छि: कैसा निर्बोध है तू, उस आत्मा की आवाज तुझे नहीं सुनाई देती? देख रे, तू पुरुष है, तू युवक है, तुझे इतना प्रमाद नहीं शोभता।”
इस प्रकार मिस कैथराइन एक भ्रम तोड़कर दूसरा रहस्य पैदा कर देती हैं। वे अपने पत्र में आगे कहती हैं : “ भोले, ‘बाणभट्ट’ केवल भारत में ही नहीं होते, इस नरलोक से किन्नर लोक तक एक ही रागात्मक हृदय व्याप्त है। तूने अपनी दीदी को कभी समझने की चेष्टा भी की ! प्रमाद, आलस्य और छिप्रकारिता–तीन दोषों से बच।’ रहस्य यह है कि यह ‘आत्मकथा’ किसकी है? भारतीय बाणभट्ट की आत्मकथा तो यह नहीं ही है। व्योमकेश का मन भी ऊहापोह से भर जाता है। : “शोणनद के अनन्त बालकाकणों में से न जाने किस कण ने बाणभट्ट की आत्मा की यह मर्मभेदी पुकार दीदी को सुना दी थी। हाय, उस वृद्ध हृदय में कितना परिताप संचित है ! अस्त्रियवर्ष की यवनकुमारी देवपुत्र नन्दिनी क्या आस्ट्रिया- वासिनी दीदी ही हैं ! उनके इस वाक्य का क्या अर्थ है कि बाणभट्ट केवल भारतवर्ष में ही नहीं होते! आस्ट्रिया में जिस नवीन ‘बाणभट्ट’ का आविर्भाव हुआ था वह कौन था? हाय, दीदी ने क्या हमलोगों के अज्ञात अपने उसी कविप्रेमी की आँखों से अपने को देखने का प्रयत्न किया था? यह कैसा रहस्य है ? दीदी के सिवा और कौन है जो इस रहस्य को समझा दे? मेरा मन उस बाणभट्ट का सन्धान पाने को व्याकुल है।“
इससे यह रहस्य तो खुल जाता है कि यह किसी विदेशी ‘बाणभट्ट’ की कथा है, जो मिस कैथराइन का प्रेमी था; पर गुत्थी यह पैदा हो जाती है कि उस कविप्रेमी ने स्वयं अपनी कथा या आत्मकथा नहीं लिखी है। इस ‘आत्मकथा’ की लेखिका मिस कैथराइन हैं। इस गुत्थी को सुलझाते हुए व्योमकेश लिखते हैं : “ यदि मेरा अनुमान ठीक है तो साहित्य में यह अभिनव प्रयोग है। मध्य युग के किसी किसी कवि ने राधिका की इस उत्कट अभिलाषा का वर्णन किया है कि वे समझ सकतीं कि कृष्ण उनमें क्या रस पाते हैं। श्रीकृष्ण ने भी, कहते हैं कि, राधिका की दृष्टि से अपने को देखना चाहा था और इसीलिए नवद्वीप में चैतन्य महाप्रभु के रूप में प्रकट हुए थे। काव्य की और धर्मसाधना की दुनिया में जो कल्पना थी उसे दीदी ने अपने जीवन में सत्य करके दिखा दिया।”
इससे उद्घाटित रहस्य इस रूप में सामने आता है कि मिस कैथराइन ने अपनी प्रेमकथा भारतीय बाणभट्ट की कल्पित कथा के रूप में प्रस्तुत की है। प्रेम उनके और उनके कविप्रेमी के बीच का है, पर ‘आत्मकथा’ में वे स्वयं भट्टिनी और उनका कविप्रेमी बाणभट्ट के रूप में है। ‘आत्मकथा की भट्टिनी और मिस कैथराइन के बाहरी रूप में साम्य देखा जा सकता है। सम्भव है, कैथराइन को भारतीय बाणभट्ट में अपने कविप्रेमी का रूप दिखाई पड़ा हो और अपने प्रति उसके प्रेम को बाणभट्ट पर आरोपित कर दिया हो। भट्टिनी तो उनकी अपनी प्रतिबिम्ब है ही। इस प्रकार यदि यह ‘आत्मकथा’ है तो मिस कैथराइन के कविप्रेमी की है, जो मिस कैथराइन द्वारा अपने प्रेमी में कायाप्रवेश की क्रिया से उद्भूत है ; या यह भी कह सकते हैं कि यह मिस कैथराइन की आत्मकथा है जो उसके कविप्रेमी की संवेदना की आँखों से देखी गयी है। कथालेखन की यह एक जटिल प्रकिया जान पड़ती है, जिसकी छानबीन भी कदाचित् कठिन है।
उपन्यास की आलोचना की दृष्टि से महत्वपूर्ण बात यह है कि हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रेम संवेदना या प्रेमानुभूति उपन्यास में बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’ के रूप में व्यक्त हुई है। यह न तो संस्कृत कवि बाणभट्ट की आत्मकथा है न मिस कैथराइन के कविप्रेमी की और न ही मिस कैथराइन की। यदि यह ‘आत्मकथा है तो स्वयं उपन्यासकार की ही है। पर अधिक संगत कथन यह होगा कि इस उपन्यास की प्रेम संवेदना तो उपन्यासकार की है, पर उसकी अभिव्यक्ति के लिए ‘आत्मकथा’ का शिल्प अपनाया गया है। उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें शेखर : एक जीवनी की तरह अज्ञेय से बाह्य रूप में भी मिलता जुलता पात्र अपनी जीवनी नहीं लिख रहा है, बल्कि एक ऐतिहासिक पात्र, बाणभट्ट, अपनी कहानी लिख रहा है। इतना ही नहीं, जैसा व्योमकेश ने लक्षित किया है, “कथा को ध्यान से पढ़ने वाला प्रत्येक सहृदय अनुभव करेगा कि कथालेखक जिस समय कथा लिखना शुरू करता है उस समय उसे समूची घटना ज्ञात नहीं है।
कथा बहुत कुछ आजकल की ‘डायरी’ शैली पर लिखी गयी है। ऐसा जान पड़ता है कि जैसे जैसे घटनाएँ अग्रसर होती जाती हैं वैसे वैसे लेखक उन्हें लिपिबद्ध करता जा रहा है। जहाँ उसके भावावेश की गति तीव्र होती है वहाँ वह जम कर लिखता है परन्तु जहाँ दुःख का आवेग बढ़ जाता है वहाँ उसकी लेखनी शिथिल हो जाती है। अन्तिम उच्छवासों में तो वह जैसे अपने में ही धीरे धीरे डूब रहा है।” यह एक अलग जाँच का क्षेत्र है। प्रस्तुत प्रसंग में यह विचारणीय है कि बाणभट्ट की आत्मकथा में ‘आत्मकथा की प्रविधि का कितना सार्थक उपयोग किया जा सका है।
उपन्यास का आरम्भ बड़े सहज रूप में, आत्मकथात्मक प्रविधि में, होता है : “यद्यपि बाणभट्ट नाम से ही मेरी प्रसिद्धि है ; पर यह मेरा वास्तविक नाम नहीं है। इस नाम का इतिहास लोग न जानते, तो अच्छा था। मैंने प्रयत्नपूर्वक इस इतिहास से लोगों को अनभिज्ञ रखना चाहा है; पर नाना कारणों से अब मैं उस इतिहास को अधिक नहीं छिपा सकता। मेरी लज्जा का प्रधान कारण यह है कि मेरा जन्म जिस प्रख्यात वात्स्यायन वंश में हुआ है, उसके धवलकीर्ति-तट पर यह कहानी एक कलंक है। मेरे पितृ-पितामहों के गृह वेदाध्यायियों से भरे रहते थे। उनके घर की शुक-सारिकाएँ भी विशुद्ध मन्त्रोच्चारण कर लेती थीं, और यद्यपि यह बात लोगों को अतिशयोक्ति अँचेगी, परन्तु यह सत्य है कि मेरे पूर्वजों के विद्यार्थी उनकी शुक-सारिकाओं से डरते रहते थे। “ इस उद्धरण में पाठक से आत्मीयता स्थापित कर उसे बाँध लेने की अद्भुत क्षमता है। उपन्यासकार चाहता तो अन्य पुरुष की प्रविधि में भी बाणभट्ट की कथा प्रस्तुत कर सकता था। पर उसमें वह विश्वसनीयता नहीं होती जो स्वयं बाणभट्ट से उसकी कहानी सुनने में है। पाठक श्रोता के रूप में स्वयं बाणभट्ट के रू-ब-रू है और उसकी ही जुबानी उसकी कहानी सुन रहा है। लगभग डेढ़ हजार वर्ष पूर्व के ऐतिहासिक व्यक्ति से उसकी कहानी सुनने का रोमांच कैसा होगा, इसका अनुभव पाठक बहुत अच्छी तरह करता है।
बाणभट्ट पहले दूसरों से सुनी अपने प्रख्यात वात्स्यायन वंश की कथा सुनाता है। तत्पश्चात् अपनी देखी सुनाता है। कथा में जहाँ भी उसे वर्णन का अवसर मिलता है, उसका कवि सजग हो जाता है; पर प्रारम्भ में वह अपने कवि को अधिक मौका नहीं देता, उसका किस्सागो रूप ही प्रबल बना रहता है। भाषा बिलकुल सरल, पाठक से निष्कपट आत्मीयता और अपने को खोल कर रख देने वाली कन्फेशन की मुद्रा : “….ऐसे ही . कृती पिता का मैं पत्र था–जन्म का आवारा, गप्पी, अस्थिरचित्त और घुमक्कड। मैं घर से जब निकल भागा था, तो अपने साथ गाँव के अन्य छोकरों को भी फोड़ ले गया था। वे अन्त तक मेरे साथ नहीं रहे, तो भी मैं गाँव में बदनाम तो हो ही गया था। मगध की बोली में ‘बण्ड’ पूँछ कटे बैल को कहते हैं। वहाँ यह कहावत मशहूर है कि ‘बण्ड आप आप गये, साथ में नौ हाथ का पगहा भी लेते गये।’ सो लोग मुझे बण्ड कहने लगे। इसी को बाद में संस्कृत शब्द ‘बाण’ द्वारा संस्कार करके मैने इस नाम की कुछ. इज्जत बढ़ा ली। भट्ट तो लोगों ने और बाद में जोड़ा। वैसे मेरा असली नाम दक्ष था। इधर मेरे प्रति लोगों का आदर और स्नेह का भाव बढ़ गया है, वे चाहें तो दक्ष भट्ट कर लें। बड़ी होशियारी से मैंने यह नाम अन्यत्र सुरक्षित रख छोड़ा है। उसकी कहानी मैं अभी बताऊँगा।”
इसके बाद बाणभट्ट संक्षेप में अपने परिवार का परिचय देता है और अपने आरम्भिक ‘आवारापन के बारे में बताता है। हर्षचरित में बाणभट्ट ने अपने प्रारम्भिक जीवन के सम्बन्ध में जो सूचनाएँ दी हैं, उनसे यह कथा, कल्पित होती हुई भी, बिलकुल मेल खाती है। पर उपन्यास का बाणभट्ट , एक कुशल किस्सागो की तरह, अपने आरम्भिक जीवन की पूरी कहानी एक साँस में नहीं सुना जाता। श्रोता-पाठक के कौतूहल को नजरअन्दाज करता हुआ । वह अपने प्रथम बार स्थाण्वीश्वर नगर पहुँचने के प्रसंग पर चला जाता है। कुछ नहीं तो, कम से कम, दस वर्षों के समय के अन्तराल को तो वह लाँघ ही जाता है। पर इस प्रसंग तक पाठक-श्रोता को लाकर बाणभट्ट उनसे सहृदयता की कुछ अधिक माँग करने लगता है। बाणभट्ट की कथा के श्रोता को ‘सहृदय तो होना ही होगा ! नगर के राजमार्ग पर चले जा रहे ‘जुलूस’ के वर्णन में बाणभट्ट का कवि अपने पूरे वैभव के साथ प्रकट हो जाता है और पाठक-श्रोता भी सजग हो जाता है कि वह संस्कृत के महान् गद्यकार बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’ पढ़-सुन रहा है। अब बाणभट्ट कभी किस्सागो के रूप में तो कभी वर्णनकर्ता कवि के रूप में पाठक को बोध और रहस्यात्मकता के विभिन्न स्तरों पर चढ़ाता-उतारता रहता है। बीच बीच में अपनी स्मृति के व्याज से वह पाठक को अपने बचपन की. भी एकाध झाँकी दिखा देता है। इस प्रकार वर्तमान और अतीत को एक साथ गूंथकर, अपने अतीत को भी वर्तमान बनाकर, बाणभट्ट का किस्सागो कथा में एक अद्भुत रमणीयता पैदा कर देता
अपनी कथा को कौतूहलपूर्ण बनाने की कला में बाणभट्ट बहुत कुशल है। अपनी ‘आवारगी’ के दिनों की जो कथा उसने श्रोता-पाठक से छिपा रखी है, उसे वह अत्यन्त नाटकीय रूप में प्रस्तुत करता है। कुमार कृष्णवर्धन से मित्रता स्थापित करने के लिए जाते समय उसे बीच में ही अपनी पुरानी नाट्यमंडली की एक अभिनेत्री, निपुणिका , मिल जाती है, और उसका कार्यक्रम धरा का धरा रह जाता है। निपुणिका से बाणभट्ट का यह मिलन इतना आकस्मिक और नाटकीय है कि पाठक उसमें पूरी तरह से रम जाता है। बाणभट्ट को निपुणिका का , और उसके साथ अपने सम्बन्ध का, परिचय देने का अवसर सहज ही मिल जाता है। इस प्रकार एक बार फिर बाणभट्ट के ‘आवारापन के दिनों की कहानी. अपनी पूरी रमणीयता के साथ उद्घाटित हो जाती है। इस प्रसंग की मार्मिकता इस बात में निहित है कि निपुणिका बाणभट्ट से प्रेम कर बैठी थी और उससे उपेक्षा पाकर, लज्जा और पश्चाताप वश, उसकी नाटकमंडली छोड़ कर भाग गयी थी। पर स्वयं बाणभट्ट भी उस प्रेम से अछूता नहीं रहा था। इस अत्यन्त मार्मिक प्रसंग को किस्सागो बाणभट्ट ने अद्वितीय सर्जनात्मकता के साथ प्रस्तुत किया है।
इस प्रसंग के बाद पुनः कहानी वर्तमान में आ जाती है और बाणभट्ट ‘कथा’ न कह कर निपुणिका की मनोदशा का अंकन करने लग जाता है। इसके साथ साथ उसकी अपनी मनोदशा भी पाठक के सामने आती रहती है। कथा काल के एक बिन्दु पर ठिठक सी गयी है और दो प्रेमी हृदयों की मनोदशाओं की परतें, एक के बाद एक, खुलती चली जाती हैं। भावुकताजन्य मार्मिकता की दृष्टि से यह प्रसंग अद्भुत है। पर यह कहना अधिक संगत है कि इस प्रकार के मार्मिक, भावुकतापूर्ण स्थल उपन्यास में भरे पड़े हैं।
बाणभट्ट और निपुणिका के वार्तालाप के माध्यम से पुन: कथा आगे बढ़ती है। यह वार्तालाप भी ‘आपबीती’ के रूप में ही प्रस्तुत किया गया है, पर इसे इतना सन्तुलित रखा गया है कि वह अविश्वसनीय न प्रतीत हो। स्मृति के माध्यम से प्रस्तुत संवाद की विश्वसनीयता को बनाए रखना प्राय: कठिन होता है, पर बाणभट्ट की ‘आपबीती’ के साथ गुँथे संवाद कहीं भी अविश्वसनीय नहीं प्रतीत होते। ये संवाद अनेकत्र कथा की गुत्थियों को खोलते और कथा को आगे भी बढ़ाते हैं। उदाहरणार्थ बाणभट्ट और भट्टिनी के संवाद से ही पाठक को ज्ञात होता है कि वह देवपुत्र तुवर मिलिन्द की कन्या है। कहीं कहीं ऐसे संवाद भी हैं, जिनमें बाणभट्ट स्वयं शामिल नहीं है,पर वे संवाद उसके सामने घटित होते हैं, अत: वह उन्हें पाठक को ज्यों का त्यों सुना जाता है।
इस प्रकार वस्तु-वर्णन, मनोभावों के अंकन, संवाद योजना आदि के साथ बाणभट्ट की आत्मकथा वर्तमान और अतीत मे संचरण करती हुई अग्रसर होती है। पर समस्या वहाँ पैदा होती है जहाँ बाणभट्ट किसी कथा प्रसंग का प्रत्यक्ष साक्षी नहीं है। उदाहरण के लिए चंडीमंडप के पुजारी का वर्णन। बाणभट्ट स्वयं इस विचित्र पुजारी को नहीं जानता, फिर वह किस प्रकार उसका वर्णन करे। इसके लिए उपन्यासकार ने एक वृद्ध ब्राह्मण की कल्पना कर ली है जो बाणभट्ट को पुजारी के बारे में बहुत सी मनोरंजक सूचनाएँ देता है। पाठक को यह वर्णन बाणभट्ट के माध्यम से ही प्राप्त होता है। तत्पश्चात् स्वयं बाणभट्ट की मुठभेड़ भी पुजारी से हो जाती है और पाठक वह कथा प्रसंग बाणभट्ट की जुबानी सुनता है।
षष्ठ अध्याय में बाणभट्ट पुन: अपने अतीत में प्रवेश करता है। निमित्त बनती है चंडीमंडप छोड़ते समय बाणभट्ट के चिन्ताकुल मस्तिष्क में उदित उसकी एक स्वरचित ‘आर्या’। बाणभट्ट को उस प्रसंग की स्मृति हो आती है जिसमें एक वृद्धा ने अपने पुत्र, और अपनी बहू के विरक्त पति, के सन्धान के लिए उससे आशीर्वाद की याचना की थी। बाद में बड़ी कुशलता से इस प्रसंग को विरतिवज्र और सुचरिता की कथा से जोड़ दिया गया है।
उपन्यास के कई प्रसंगों का बाणभट्ट प्रत्यक्ष साक्षी नहीं है। उदाहरण के लिए भट्टिनी के अपहरण और उसके ‘छोटे राजकुल’ के अन्त:पुर में बन्दिनी बनाये जाने का प्रसंग। यह प्रसंग पाठक को भट्टिनी की आपबीती के रूप में प्राप्त होता है। भट्टिनी अपनी आपबीती बाणभट्ट को सुनाती है, और बाणभट्ट उसे पाठक-श्रोता तक पहुचाता है। इसी प्रकार बाणभट्ट की नाट्यमंडली से निकल भागने के बाद निपुणिका पर क्या बीती, यह बाणभट्ट को भी ज्ञात नहीं है। अत: यह कथा पाठक को निपुणिका की आपबीती के रूप में उपलब्ध होती है, जिसे वह बाणभट्ट को सुना रही है। यहाँ हम फिर कथाक्रम में पीछे की ओर लौटते हैं और आगे बढ़ने वाली कथा एक समय-बिन्दु पर रूक जाती है। अतीत वर्तमान में आ जाता है।
उपन्यास में एक वार्तालाप-प्रसंग ऐसा भी है, जो बाणभट्ट के सामने सम्भव नहीं है, क्योंकि उसमें भट्टिनी महामाया के समक्ष बाणभट्ट के प्रति अपने अनुराग को स्वीकार कर रही है, पर कथा में उसकी असन्दिग्ध सार्थकता है। पर पाठक इस संवाद को कैसे सुने, क्योंकि उसे जो भी प्राप्त हो रहा है, वह बाणभट्ट की ‘आपबीती’ के रूप में है। अत: इसके लिए यह कौशल अपनाया गया है कि बाणभट्ट छिप कर यह वार्तालाप सुने और पाठक-श्रोता तक इसे पहुँचाए। इस कौशल से भट्टिनी-महामाया का गोपन संवाद पाठक को उपलब्ध हो जाता है।
जब औपन्यासिक संसार बहुत व्यापक और जटिल होने लगता है, तो आत्मकथात्मक प्रविधि की दुर्बलता भी सामने आने लगती है। इसे दूर करने के लिए उपन्यासकार को अन्य प्रविधियों की सहायता लेनी पड़ती है। उपन्यास की एक पात्र है सुचरिता जिसके बारे में बाणभट्ट प्रत्यक्ष रूप में बहुत कम जानता है। सुचरिता निपुणिका की सखी है और वह वस्तुत: गृहस्थ धर्म का त्याग कर पहले बौद्ध भिक्षु, और अन्तत: आचार्य बेंकटेश भट्ट के भक्तिमार्ग में दीक्षित, विरतिवज्र की पत्नी है। वह स्वयं भी इस भक्तिमार्ग में दीक्षा ले चुकी है। यों उपन्यास के विज़न में इस प्रसंग की सार्थकता बहुत नहीं है, पर हर्ष-बाण कालीन धर्म साधना के एक अध्याय से परिचित कराने के लिए उपन्यासकार ने इस प्रसंग की योजना की है और अपनी कल्पना तथा संवेदनशीलता से इसे बहुत मार्मिक बना दिया है।
यों तो बाणभट्ट की भेंट पहले भी सुचरिता और विरतिवज्र से हो चुकी है, पर सुचरिता ही विरतिवज्र की पत्नी है, यह न उसे ज्ञात है न पाठक को। भद्रेश्वर दुर्ग से स्थाण्वीश्वर पहुँचने पर सुचरिता का कुछ वृत्त उसे एक ‘भद्र वृद्ध पुरुष’ से प्राप्त होता है, जिसे वह अपनी ‘आत्मकथा’ के पाठक-श्रोता को बताता है। इसके बाद वह सुचरिता से मिलता भी है और उसकी पूरी कहानी पाठक के सामने आती है। पर सुचरिता की अतीत कथा पाठक को कैसे प्राप्त हो, इसके लिए सुचरिता से ही उसकी ‘आपबीती’ कहलाई गयी है जो बाणभट्ट के द्वारा पाठक-श्रोता को प्राप्त होती है। यद्यपि सुचरिता की भाषा बाणभट्ट की भाषा से अनावश्यक रूप से आकान्त होने के कारण पाठक को खटकती है, पर इससे उसके रस-बोध में कोई बाधा नहीं पड़ती। इस प्रकार ‘आत्मकथा .. के भीतर आत्मकथा’ की प्रविधि अपना कर शिल्प विषयक कठिनाई को दूर करने की कोशिश की गयी है।
बाणभट्ट को अपनी कथा से जुड़े कतिपय पात्रों की कथा अन्य स्रोतों से प्राप्त होती है। इनमें से एक कथा महामाया की है। स्वयं बाणभट्ट महामाया के रहस्यों से परिचित नहीं। हर्षवर्धन की राजसभा का कवि धावक उसे इस रहस्य से अवगत कराता है कि महामाया मौखरिकुल के प्रतापी राजा विग्रहवर्मा की प्रथम पत्नी, और राज्यश्री की सौत, है। महामाया की शेष कथा कंचुकी वाभ्रव्य से प्राप्त होती है। यह वाभ्रव्य की आपबीती है, जिसे वह भट्टिनी को सुनाता है, बाणभट्ट तो मात्र उसका श्रोता-साक्षी है। यह भी आत्मकथा के भीतर आत्मकथा की योजना का ही कौशल है।
रोमांस के तत्व
रोमांस उपन्यास की पूर्ववर्ती साहित्य विधा है। जो बोलचाल की भाषा में लिखित ऐसी गद्यकथा होता था जिसका मुख्य विषय वीरतापूर्ण साहस-कर्म हुआ करता था। प्रेम कथाएँ और धार्मिक रूपक कथाएँ भी प्राय: इसमें मिलीजुली रहती थीं, पर ये इसके लिए अनिवार्य नहीं थीं। शौर्य और साहस का चित्रण ही इसका मुख्य उद्देश्य होता था। प्रारम्भ से ही इन रचनाओं में मोहक, दूरस्थ और अद्भुत तत्त्वों की प्रधानता होती थी। इनमें वर्णनात्मक ब्योरे विपुल मात्रा में हुआ करते थे तथा प्रेम कथाएँ अधिकतर सुखान्त होती थीं। इस विधा के उदाहरण गद्य और पद्य दोनो में मिलते हैं, पर सामान्यत:, परवर्ती काल में, गद्य ही इसका मुख्य माध्यम बना। यूरोपीय रोमांस की जो विशेषताएँ बतायी जाती हैं, वे संस्कृत में रचित बाणभट्ट कृत कादम्बरी, दंडी कृत दशकुमारचरित, सुबन्धु कृत वासवदत्ता आदि गद्यकाव्यों में भी उपलब्ध होती हैं। कथासरित्सागर की कथाओं में भी रोमांस के तत्व भरपूर मात्रा में मिलते हैं। संस्कृत और हिन्दी में इस विधा का विकास नहीं हुआ, यद्यपि अपभ्रंश और पुरानी हिन्दी में रचित प्रेमकाव्य इसके अवशेष के रूप में देखे जा सकते हैं।
प्रजाति की दृष्टि से रोमांस से जुड़े होने पर भी उपन्यास एक स्वतन्त्र साहित्य रूप है। क्लारा रीव ने अपनी टाइम ऐंड नावेल नामक पुस्तक में उपन्यास और रोमांस का अन्तर स्पष्ट करते हुए लिखा है कि उपन्यास वास्तविक जीवन और व्यवहार (मैनर्स) का चित्र है। वह अपने समय का दर्पण है। इसके विपरीत रोमांस की भाषा अतिशयोक्तिपूर्ण होती थी, जिसे क्लारा रीव ने ‘उदात्त और उन्नीत भाषा (लॉश्टी ऐंड एलिवेटेड लैंग्वेज) कहा है। रोमांस, क्लारा रीव के अनुसार, वैसी बातों का वर्णन करता है, जो न कभी घटीं और न जिनके कभी घटने की सम्भावना है। उपन्यास प्रतिदिन हमारी आँखों के सामने गुजरने वाली चीजों को, ऐसी बातों को जो हमारे दोस्तों या खुद हमारे साथ घट सकती हैं, उनके सुपरिचित सम्बन्धों के साथ प्रस्तुत करता है। इसकी सफलता प्रत्येक प्रसंग को इतने सहज और सामान्य . रूप में प्रस्तुत करने में, उन्हें इतना विश्वसनीय बना देने में है कि हम समझने लगे कि वह सब कुछ यथार्थ है; हम कथा के पात्रों के सुख-दुख से इतने प्रभावित हो जाएँ, मानो वे हमारे अपने हैं।
बाणभट्ट की आत्मकथा एक उपन्यास है। इसमें रोमांस के तत्व अवश्य मिल जाते हैं लेकिन एक विधा के रूप में इसे रोमांस नहीं कहा जा सकता। यद्यपि इसमें दो प्रेमकथाएँ भी हैं और कतिपय साहसाभियान भी, पर वे रोमांस की कोटि में नहीं रखे जा सकते। रोमांस की प्रेमकथाएँ बहुत आकस्मिक ढंग से आरम्भ होती हैं और उनमें शरीर का आकर्षण बहुत प्रबल होता है। रोमांस की प्रेमकथा की समाप्ति भी अधिकतर नायक-नायिका के मिलन और विवाह में होती है। रोमांस में प्रेमारम्भ के बाद नायक की ओर से नायिका को प्राप्त करने के प्रयास होते हैं और अनेक कठिनाइयों से गुजरने, साहसपूर्ण अभियानों में सफल होने तथा संकटों को पार करने के बाद उसकी अपनी प्रेमिका से भेंट होती है और फिर प्रेमी-प्रेमिका विवाह-सूत्र में बँध जाते हैं। कुछ रोमांसों में नायक या नायिका की मृत्यु भी हो जाती है ; पर रोमांसों की सामान्य प्रवृत्ति सुखान्त होने की ही है। अत: पारिभाषिक अर्थ में ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ रोमानी होते हुए भी रोमांस न होकार उपन्यास की कोटि में आने वाला उपन्यास है। रोमानियत इसकी एक विशेषता मानी जा सकती है।
बाणभट्ट की आत्मकथा में निपुणिका-बाणभट्ट और भट्टिनी-बाणभट्ट की प्रेमकथाएँ प्रस्तुत की गयी हैं। पर इन प्रेमकथाओं की प्रकृति रोमांस से बिलकुल भिन्न है। बाणभट्ट रचित कादम्बरी एक रोमांस है, पर उपन्यास के रूप में प्रस्तुत उसकी यह तथाकथित ‘आत्मकथा रोमांस का आभास भी प्रस्तुत नहीं करती। निपुणिका का बाणभट्ट से प्रेम मोहासक्ति से आरंभ होकर आत्मोत्सर्ग की उत्कर्षता तक पहुंचता है। यह वह प्रेम नहीं है जो रोमांस में वर्णित होता है।
भट्टिनी और बाणभट्ट का प्रेम-प्रसंग तो और भी सूक्ष्म तथा गैर-रूमानी है। बाणभट्ट स्वभाव से ही नारी का सम्मान करने वाला व्यक्ति है। इसके साथ ही निपुणिका से उसका प्रच्छन्न अनुराग भाव भी है। अत: भट्टिनी के प्रति कामभाव से अनुरक्त होना उसके लिए अकल्पनीय है। पर बाणभट्ट के प्रति भट्टिनी के अनुराग भाव का स्पष्ट संकेत पाठक को महामाया और भट्टिनी के संवाद से ही मिल पाता है। महामाया भट्टिनी से पूछती हैं कि वह बाणभट्ट को क्या समझती है। भट्टिनी उत्तर देती है : “क्या बताऊँ, आर्ये, जिस दिन भट्ट ने मुझसे प्रथम वाक्य कहा था, उस दिन मेरा नवीन जन्म हुआ ; उस दिन सूर्य । उदयगिरि के तट पर मांगल्य वर्षा कर उदित हुआ था; उस दिन उष:काल ने मेरे सम्पूर्ण जीवन को परम सौभाग्य से भर दिया था। मैंने उस दिन अपनी सार्थकता को प्रथम बार अनुभव किया।…. मैंने प्रथम बार अनुभव किया कि मेरे भीतर एक देवता है, जो आराधक के. अभाव में मुरझाया हुआ बैठा है। मैंने प्रथम बार अनुभव किया कि भगवान ने नारी बनाकर मुझे धन्य किया है।” वह आगे कहती है : “माँ, भट्ट इस पृथ्वी के पारिजात हैं, इस भवसागरं के पुंडरीक हैं, इस कंटकमय भुवन के मनोहर कुसुम हैं ।“ इन शब्दों से गुजरने के बाद बाणभट्ट के प्रति भट्टिनी के अनुराग भाव में कोई सन्देह नहीं रह जाता।
जिस अनुराग भाव का प्रकाशन ही इतने गूढ़ रूप में होता हो, वह रोमांस का प्रेम नहीं हो सकता। धीरे धीरे बाणभट्ट के प्रति भट्टिनी का यह अनुराग भाव प्रगाढ़ होता जाता है, पर उसकी अभिव्यक्ति कहीं भी मुखर और प्रगल्भ नहीं होती। यह मुखरित तब होता है जब बाणभट्ट भट्टिनी के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेता है कि वह उसके साथ चलकर म्लेच्छ’ कहे जाने वाले लोगों का, अपनी अपूर्व काव्यशक्ति से, हृदय-परिवर्तन करने का संकल्प करे। बाणभट्ट वचन देता है और भट्टिनी महावाराह को साक्षी बनाकर उसे अपने सहचर के रूप में स्वीकार करती हैं। इस प्रकार यह. प्रेम एक महान् लक्ष्य की प्राप्ति का साधन बन कर ही सार्थकता प्राप्त करता है। निस्सन्देह प्रेम की यह परिणति रोमांस की प्रकृति के अनुकूल नहीं
जैसा पहले कहा जा चुका है, रोमांस की दूसरी प्रमुख विशेषता उसमें नियोजित साहसाभियान के प्रसंग होते हैं। नायिका से प्रेम हो जाने के बाद नायक उसे प्राप्त करने के लिए जमीन आसमान एक कर देता है, अनेक संकटों का सामना करते हुए, समुद्र और पर्वत लाँघते हुए, प्राणों की बाजी लगाते हुए, यहाँ तक कि अतिलौकिक शक्तियों से भी संघर्ष करते हुए अपनी प्रेमिका को प्राप्त करने में सफल होता है। बाणभट्ट की आत्मकथा का आरम्भ भी एक साहसाभियान से होता है, पर इसकी प्रकृति रोमांस के साहसाभियानों से नितान्त भिन्न है।
रोमांस की कथा में अतिलौकिक तत्वों की प्रचुरता तथा कारणत्व के प्रति उपेक्षा भाव होता है। .. उसका एकमात्र लक्ष्य भी प्रेमिका की प्राप्ति होता है। रोमांस में प्रेमोत्पत्ति के बाद साहसाभियान आरम्भ होता है पर बाणभट्ट की आत्मकथा में साहसाभियान का लक्ष्य सामन्ती अत्याचार की शिकार, कन्या का उद्धार है। यह एक महान् मानवीय मूल्य है, प्रेम का तूफानी आवेग नहीं। अतिलौकिक और अविश्वसनीय तत्व तो इसमें हैं ही नहीं। ‘घटनाएँ इसमें अवश्य हैं, और कहीं कहीं उनमें आकस्मिकता भी है,जो रोमांस का गुण है, पर ये घटनाएँ और आकस्मिकताएँ कहीं भी अविश्वसनीय नहीं हुई हैं।
इतिहास और कल्पना का सर्जनात्मक मिश्रण
उपन्यास , कथा की दृष्टि से, इतिहास के बहुत निकट होता है। गद्य में लिखित कथा दोनो में होती है, पर उपन्यास की कथा जहाँ कल्पना प्रधान होती है, वहाँ इतिहास की कथा तथ्याधारित होती है। उपन्यास की कथा कल्पना प्रधान होते हुए भी यथार्थ होती है जबकि इतिहास की कथा मात्र तथ्य होती है जिसके लिए जरूरी नहीं कि वह यथार्थ ही हो। वस्तुत: यथार्थ का सम्बन्ध अनुभव और संवेदना से है जिसकी गुंजायश इतिहास में न के बराबर होती है। इतिहास की कोई भी घटना तथ्य रहित नहीं हो सकती, जबकि उपन्यास में इसकी कोई जरूरत नहीं होती।
किन्तु ऐतिहासिक उपन्यास की स्थिति कुछ भिन्न होती है। इसमें दो परस्परविरोधी तत्व, इतिहास और कल्पना, आपस में मिलकर औपन्यासिक कथासंसार का निर्माण करते हैं। इतिहास में कल्पना की कोई गुंजायश नहीं होती। उपन्यासकार इतिहास से लिए गए तथ्यों में कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। पर ऐतिहासिक उपन्यासकार अपने को इतिहास तक सीमित नहीं रखता। वह अतीत के उन क्रोनों या क्षेत्रों को अपनी रचना का विषय बनाता है, जहाँ इतिहास साक्ष्य के अभाव में नहीं पहुँच पाता। ऐसे ही क्षेत्रों में उसकी कल्पना को सक्रिय होने का अवसर मिलता है, यद्यपि वहाँ भी कल्पना के पंख तत्कालीन ऐतिहासिक यथार्थ या .
सम्भावनाओं के अनुशासन में बँधे रहते हैं। उपन्यासकार की कल्पना की सक्रियता ऐतिहासिक पात्रों के चरित्र-निर्माण और उनके अन्तर्जगत् के चित्रण में भी सम्भव होती है, क्योंकि इतिहास अपने को इससे प्राय: अलग रखता है। इसी प्रकार इतिहास में, विशेष कर परम्परागत इतिहास में, प्रमुख राजनीतिक घटनाओं का ही विवरण और विश्लेषण होता है, सामान्य जनजीवन का नहीं। उपन्यासकार अतीत के इस आयाम को भी अपना चित्रणीय विषय बनाता है, जहाँ कल्पना के लिए असीम अवकाश होता है। साधारण स्तर के ऐतिहासिक उपन्यासों में इतिहासग्रन्थों में वर्णित राजनीतिक घटनाओं और उनसे सम्बन्धित विवरणों की अधिकता होती है, जबकि श्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यास राजनीतिक घटनाओं और विवरणों को नहीं, बल्कि ऐतिहासिक यथार्थ के अंकन और ऐतिहासिक या कल्पित पात्रों के चरित्रनिर्माण के . माध्यम से मानवीय सम्बन्धों और संवेदनाओं के अंकन को महत्त्व देते हैं। श्रेष्ठ कोटि के ऐतिहासिक उपन्यासकार इतिहास के प्रमुख व्यक्तित्वों को अपनी रचनाओं में बहुत गौण स्थान देते हैं ; उनके प्रमुख पात्र इतिहास के अपेक्षाकृत गौण व्यक्ति होते हैं। ऐसा करने से उपन्यासकार को अपने कल्पित कथासंसार के सृजन की अनेक सम्भावनाएँ उपलब्ध हो जाती हैं, यद्यपि इतिहास का जो भी, और जितना भी, अंश उसकी रचना में आता है, वह उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों के विरोध में नहीं जा सकता।
बाणभट्ट की आत्मकथा ऐतिहासिक उपन्यास है। द्विवेदी जी के उपन्यासों में ऐतिहासिक यथार्थ की प्रस्तुति का विवेचन करने के पूर्व हमें यह तय कर लेना होगा कि ऐतिहासिक उपन्यास में ऐतिहासिक यथार्थ का क्या स्थान है और उसका अपेक्षित स्वरूप क्या है। अनेक आलोचक, और प्राय: रचनाकार भी, अक्सर मान लेते हैं कि ऐतिहासिक उपन्यास इतिहास की पुन:प्रस्तुति है, जिसमें उपन्यासकार इतिहास की भूली कड़ियों को जोड़ने के साथ साथ अपनी कल्पनाशक्ति से ऐतिहासिक पात्रों के चरित्र का पुनर्निर्माण करता है। इसमें सन्देह नहीं कि उपन्यास में यह भी होता है, पर उसका मुख्य लक्ष्य होता है किसी कालविशेष के ऐतिहासिक यथार्थ का उद्घाटन तथा उसकी तर्कसंगत व्याख्या। इस क्रम में औपन्यासिक संसार ऐतिहासिक तथ्यों से भी जुड़ा रहता है, पर वह अपना विस्तार उन क्षेत्रों में करने से नहीं चूकता जहाँ इतिहास धुंधला होता है या तथ्यों पर उसकी पकड़ ढीली होती है। इसी प्रकार उपन्यासकार अपने पात्रों के चरित्र-निर्माण और उनकी विचारधारा की प्रस्तुति में भी एक सीमा तक स्वतन्त्र होता है। वह सीमा मात्र यह है कि कथाकार की कल्पना को ऐतिहासिक तथ्यों के सीधे विरोध में नहीं जाना चाहिए। कल्पना कहीं भी इतिहास को छोड़ती नहीं, न उसकी अवज्ञा करती है, पर इतिहास भी कल्पना के मुक्त उपयोग में बाधक नहीं बनता। औपन्यासिक संसार में कल्पना पर । निरन्तर आघात करने वाली एक ही चीज होती है ; वह है, यथार्थ बोध । औपन्यासिक कल्पना कहीं भी, किंचित् मात्र भी, यथार्थबोध की उपेक्षा नहीं कर सकती। ऐतिहासिक उपन्यासकार को एक तरफ ज्ञात ऐतिहासिक तथ्यों के प्रति निष्ठा बरतनी होती है और दूसरी तरफ उसे ऐतिहासिक यथार्थ के चित्रण के प्रति प्रतिबद्ध होना होता है। आचार्य द्विवेदी के उपन्यासों में ऐतिहासिक घटनाएँ गौण हैं ; उन्होंने इतिहास से कम-से-कम तथ्यों को लेकर उन पर अपनी कल्पना को उन्मुक्त भाव से पल्लवित होने दिया है। उनका मुख्य लक्ष्य । इतिहास का प्रस्तुतीकरण नहीं, ऐतिहासिक यथार्थ की वैज्ञानिक व्याख्या और विश्लेषण है। अक्सर वे ऐतिहासिक तथ्यों की प्रामाणिकता पर उतना ध्यान नहीं देते, जिसके कारण इतिहास के प्रति जागरूक विद्वानों को उनके उपन्यासों में पाई जाती असंगतियाँ खटकती हैं।
सर्वप्रथम हम बाणभट्ट की आत्मकथा में आए ऐतिहासिक तथ्यों की प्रामाणिकता की परीक्षा करें। इसका केन्द्रीय पात्र, बाणभट्ट, एक ऐतिहासिक व्यक्ति है, जो हर्षचरित और कादम्बरी के रचनाकार के रूप में ख्यात है। पर इतिहास ग्रन्थों में बाणभट्ट की स्थिति गौण है ; वहाँ बाणभट्ट के आश्रयदाता कान्यकुब्जेश्वर सम्राट हर्षवर्द्धन, उसकी बहन राज्यश्री आदि का ही अधिक महत्त्व है। बाणभट्ट की आत्मकथा में राज्यश्री का तो नामोल्लेख मात्र ही हुआ है, . जबकि हर्षवर्द्धन भी गौण पात्र के रूप में ही सामने आता है। उपन्यासकार ने इनके वर्णन में स्वयं को उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों से दूर नहीं जाने दिया है और उनके संक्षिप्त चरित्र को भी उपलब्ध साक्ष्यों के अनुरूप ही अंकित किया है। बाणभट्ट की आत्मकथा में भी हर्षचरित की सामग्री ज्यों की त्यों ले ली गयी है, पर चरित्र-निर्माण में कल्पना की सुगन्ध मिला दी गयी है। दूसरी तरफ उपन्यास में बाणभट्ट के परिवार, बचपन, किशोरावस्था तथा उसके श्रीहर्ष का राजकवि बनने के प्रसंग तो हर्षचरित से ही लिये गये हैं, पर उसका शेष चरित्र, जो उपन्यास का मुख्य विषय है, समकालीन ऐतिहासिक यथार्थ से अनुशासित होते हुए भी, पूर्णत: कल्पित है। यदि कोई उसे ऐतिहासिक मान बैठता है तो यह उसका भ्रम है। उपन्यास में और भी कई पात्र आते हैं, जिनका आधार, क्षीण रूप में ही सही, ऐतिहासिक है।
बाणभट्ट की आत्मकथा का एकपात्र है धावक,जो हर्ष का राजकवि है। धावक को कुछ यूरोपीय विद्वान् लोकभाषा का कवि मानते हैं। द्विवेदी जी ने उसे एक हास्यप्रिय, मस्तमौला कवि के रूप में प्रस्तुत किया है। विद्वानों का यह भी अनुमान है कि हर्ष के नाम पर प्रचलित नाटिकाएँ, प्रियदर्शिका, रत्नावली और नागानन्द धावक या बाणभट्ट की लिखी हुई हैं। . द्विवेदी जी ने यह अनुमान प्रस्तुत किया है कि ये रचनाएँ लिखी हुई तो श्रीहर्ष की ही हैं, पर उनके आज्ञानुसार बाणभट्ट ने उनमें कुछ परिवर्तन किए और एक श्लोक में अपना नाम .. ‘दक्ष’ भी कुशलता के साथ जोड़ दिया। यह सम्भावना इतिहासविरोधी नहीं है। पर बाणभट्ट के तीन पात्र, तुवर मिलिन्द, लोरिकदेव और ईश्वरसेन हमारे इतिहास बोध को चुनौती देते प्रतीत होते हैं। उपन्यास के उपसंहार में ‘व्योमकेश शास्त्री ने ऐतिहासिक दृष्टि से तुवर मिलिन्द को एक समस्या बताया है। पर, उपन्यास में यह समस्या द्विवेदी जी की ही खड़ी की हुई है। इतिहास ग्रन्थों में इस नाम का कोई ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं मिलता। बौद्ध साहित्य में मिलिन्दपन्हो नाम का एक प्रसिद्ध ग्रन्थ मिलता है जिसमें यवन राजा मिलिन्द और बौद्ध भिक्षु नागसेन के बीच प्रश्न और उत्तर के रूप में बौद्ध दर्शन और धर्म की विवेचना की गयी है। मिलिन्द की पहचान भारतीय यवन (यूनानी) राजा मिनांडर से की गयी है। मिनांडर का शासन काल 160 ई.पू. से 140 ई.पू. तक था और उसकी प्रसिद्धि एक शक्तिशाली राजा के रूप में थी। विश्वास किया जाता है कि मिनांडर ने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया था।
पर बाणभट्ट की आत्मकथा के तुवर मिलिन्द से मिनांडर या मिलिन्द का सम्बन्ध स्थापित करना इसलिए कठिन प्रतीत होता है कि हर्षवर्द्धन और मिनांडर के शासनकाल के बीच लगभग आठ शताब्दियों का अन्तराल है। मिलिन्द के साथ संलग्न ‘तुवर’ शब्द भी एक पहेली है। संस्कृत में ‘तुवर’ शब्द का अर्थ ‘दाढ़ी-मूंछ रहित होता है। यूनानी राजा प्राय: दाढ़ी-मूंछ नहीं रखते थे। सम्भव है, मिनांडर के लिए ‘दाड़ी-मूंछ रहित मिलिन्द (तुवर मिलिन्द) पद उपन्यासकार द्वारा गढ़ा गया हो। पर यह अनुमान ही अनुमान है। सम्भव है,नाम विषयक यह गुत्थी भविष्य में किसी और रूप में सुलझे !
ऐतिहासिक दृष्टि से यह प्रश्न बना ही रह जाता है कि बाणभट्ट की आत्मकथा का तुर्वर मिलिन्द कौन है? उपन्यास में विभिन्न स्थानों पर आए उल्लेखों से ज्ञात होता है कि तुवर मिलिन्द भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर स्थित किसी राज्य का शक्तिशाली नरेश है। एक स्थान पर भट्टिनी कहती है :”मेरा जन्म रोमकपत्तन के उत्तरी अस्त्रियवर्ष (आस्ट्रिया?) में हुआ था। मैं वहाँ से पुरुषपुर तक पिता की गोद में बड़ी हुई हूँ।” ‘व्योम’ (स्वयं ‘लेखक) एक स्थान पर भट्टिनी को ‘अस्त्रियवर्ष की यवनकुमारी’ कहता है। इससे यह तो स्पष्ट है कि तुवर मिलिन्द ‘यवन’ है। प्राचीन काल में यूनानियों के लिए ‘यवन’ शब्द का इस्तेमाल होता था। तुवर मिलिन्द यवन होने के साथ साथ हर का शत्रु तथा देवमन्दिरों और विहारों का रक्षक भी है। उसके नाम में देवपुत्र’ विरुद जुड़े होने से उसके कुषाण होने का संकेत मिलता है। कुषाण राजाओं के नाम के साथ देवपुत्र’ विरुद का प्रयोग होता था। कुषाण राजा यों तो बौद्ध थे, पर ब्राह्मण धर्म से भी उनका विरोध न था। अत: तुवर मिलिन्द के कुषाण होने का अनुमान किया जा सकता है।
ऐतिहासिक दृष्टि से एक कठिनाई यह भी है कि प्राचीन भारत के इतिहास ग्रन्थों में हर्षवर्द्धन के राज्यारोहण के समय अथवा उसके कुछ पूर्व, भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर इस नाम के किसी प्रतापी राजा का उल्लेख नहीं मिलता। ईसा की दूसरी शताब्दी के अन्तिम चरण में ‘भारशिव नाग राजाओं ने उत्तरी भारत से कुषाण राजाओं को मार भगाया था। पर कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान बैक्ट्रिया, काशगर, खोतान, यारकन्द जैसे दूरस्थ क्षेत्र भी शामिल थे। कुषाण साम्राज्य की राजधानी पुरुषपुर या पेशावर थी, जो उपन्यास के तुवर मिलिन्द की भी राजधानी है। इतिहासकारों का अनुमान है कि अन्तिम कुषाण राजा वासुदेव के अधिकार से उत्तर-पश्चिम के इलाके निकल गये थे। पर कुषाणों की एक शाखा ने, जिसे ‘किदार कुषाण’ कहते हैं, काबुल की घाटी और उसके आसपास के क्षेत्रों में अपना आधिपत्य कायम कर लिया था और हूणों के लगातार आक्रमणों के बावजूद वे ईसा की नवीं शताब्दी के मध्य तक अपना अस्तित्व बनाए हुए थे।
बाणभट्ट की आत्मकथा का ऐतिहासिक दृष्टि से दूसरा सन्दिग्ध चरित्र आभीर सामन्त लोरिकदेव है जो गंगा और महासरयू के संगम पर स्थित भद्रेश्वर दुर्ग का शासक है। लोरिकदेव के बारे में इतिहास मौन है, यद्यपि किंवदन्तियों और लोक साहित्य का वह प्रसिद्ध नायक है। यदि लोरिकदेव कोई ऐतिहासिक व्यक्ति रहा भी हो तो उसका काल अनिश्चित है। वह एक काल्पनिक पात्र है। उसे एक जीवन्त पात्र के रूप में प्रस्तुत कर द्विवेदी जी ने औपन्यासिक सर्जनशीलता का बेहतर उदाहरण प्रस्तुत किया है।
जहाँ तक ईश्वरसेन का प्रश्न है, बाणभट्ट की आत्मकथा में उसे व्याघ्रसर के आसपास के क्षेत्र का सामन्त बताया गया है। व्याघ्रसर आज का बक्सर है। पर हर्षवर्द्धन के काल में यहाँ किसी आभीर सामन्त ईश्वरसेन का आधिपत्य या प्रभाव था, यह ऐतिहासिक दृष्टि से सन्दिग्ध. है। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार तृतीय शताब्दी के अन्त में ईश्वरसेन नामक किसी आभीर सामन्त ने सातवाहनों से उत्तरी महाराष्ट्र के हिस्सों को छीन लिया था। सातवीं शताब्दी में बक्सर के आसपास किसी ईश्वरसेन की कल्पना विवादास्पद है।
बाणभट्ट की आत्मकथा में आया एक और उल्लेख ऐतिहासिक दृष्टि से असंगत जान पड़ता है। भट्टिनी और बाणभट्ट की सुरक्षा में नियुक्त मौखरी सैनिकों का सरदार विग्रहवर्मा अपने को ‘प्रतापी’ यशोवर्मा का सेवक कहता है। बाणभट्ट भी स्वयं को प्रतापी यशोवर्मा की विमल कीर्ति’ से परिचित बताता है। पर इतिहास ग्रन्थों के अनुसार मौखरि नरेश यशोवर्मा हर्षवर्द्धन के बाद हुआ था न कि पहले ! उसका शासनकाल लगभग 725-752 ई. माना जाता है। यशोधर्मा नाम का एक राजा मालवा में जरूर हुआ था, जिसने 532-33 ई. के पूर्व हूणों को गहरी शिकस्त दी थी।
पर उपन्यास में इन ऐतिहासिक पात्रों का उतना महत्व नहीं है, जितना काल्पनिक पात्रों का। ये पात्र ऐतिहासिक हैं या अनैतिहासिक, यह बहुत महत्व की बात नहीं है। द्विवेदी जी ने निजधरी कोटि के पात्रों, जैसे तुवर मिलिन्द, लोरिकदेव, ईश्वरसेन आदि पात्रों के सम्बन्ध में इतिहास को कम महत्व दिया है। और यह तो स्मरणीय है ही कि इनका जो चरित्र निर्मित किया गया है, वह कल्पनाप्रसूत और लेखकीय अनुभव तथा संवेदना पर आश्रित है। बाणभट्ट की आत्मकथा में विशुद्ध रूप से कल्पनाप्रसूत पात्रों में भट्टिनी , निपुणिका , सुचरिता, महामाया, भैरवी, गणिका मदनश्री, साधिका चंडमंडना, नर्तकी चारुस्मिता आदि स्त्री पात्र और अघोरभैरव, विरतिवज्र, अमोघवज्र, चंडीमंडप का पुजारी, सेठ धनदत्त, आचार्य सुगतभद्र, विग्रहवर्मा, साधक अघोरघंट, आचार्य वेंकटेश भट्ट, आचार्य मेघातिथि आदि पुरुष पात्र उल्लेखनीय हैं। कहना नहीं होगा कि इन पात्रों के निर्माण में उपन्यासकार का सारा अनुभव, पूरी संवेदना, अध्ययन-चिन्तन तथा असाधारण सर्जनात्मक क्षमता साकार हो गयी है।
‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ को एक कालजयी, विदग्ध और अत्यधिक प्रासंगिक उपन्यास बनाने का श्रेय उपर्युक्त काल्पनिक पात्रों को ही है। द्विवेदी जी की सर्जनात्मक कल्पना इन पात्रों के माध्यम से ही गति और दिशा प्राप्त करती है। यही वह आलम्बन है, जहाँ उपन्यासकार ने अपरिमित छूट ली है और अपने व्यापक विजन’ के तहत पूरी तरह ऐतिहासिक यथार्थ की रक्षा करते हुए समकालीन यथार्थ और अपेक्षाओं को भी खुलकर व्यक्त किया है। नारी मुक्ति की आवश्यकता, नारी-पुरुष की समानता, जातीय विषमता पर प्रहार, कर्मकाण्ड जनित मिथ्या रूढ़ियों का विरोध, स्वाधीनता आंदोलन के लिए ऊँच-नीच में विभाजित देश के सहस्राधिक स्तरों की एकता की अनिवार्यता को इन्हीं पात्रों द्वारा रेखांकित किया गया है। भट्टिनी, महामाया भैरवी, अघोर भैरव, सुचरिता आदि पात्र जाति-पात, छुआछूत, ऊँच-नीच के सामाजिक विभाजन को स्थान-स्थान पर देश के अस्तित्व की रक्षा, अखण्डता और एकता में बाधा उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों का खुलकर विरोध करते हैं। यह कार्य ऐतिहासिक पात्रों द्वारा संभव नहीं था। अपने युग की इस ज्वलन्त समस्या को आचार्य द्विवेदी ने इन्हीं काल्पनिक पात्रों द्वारा सुलझाने का सार्थक प्रयास किया है।
यही नहीं, इन काल्पनिक पात्रों द्वारा कालदोष के प्रति पूरी तरह सतर्क रहते हुए स्वस्थ भारतीय जीवन दृष्टि और सर्वोच्च सांस्कृतिक आदर्शों की भी नवीन व्याख्या कर द्विवेदी जी ने युगानुकूल आदर्शों की प्रतिष्ठा का भी सफल प्रयास किया है। प्राचीन के साथ नवीन का यह प्रगतिशील मिश्रण काल्पनिक पात्रों, घटनाओं, स्थितियों द्वारा ही संभव हो पाया है। पाठक को प्राचीनता के भ्रमयुक्त मोह से निकाल कर नवीन युग में प्रवेश कराने का श्रेय भी द्विवेदी जी की विजन’ संयुक्त कल्पना को ही जाता है। इसे इतिहास का वर्तमान के लिए सही उपयोग का एक ठोस नमूना माना जा सकता है। यही इस उपन्यास की सार्थकता है, जो आचार्य द्विवेदी द्वारा दूसरी परम्परा की खोज भी है।
सारांश
सारांश के रूप में कहा जा सकता है कि यद्यपि बाणभट्ट की आत्मकथा का कथासंसार पाठक को बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’ के रूप में ही उपलब्ध होता है, पर वस्तुत: यह न तो हर्षचरित के लेखक बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’ है न ही मिस कैथराइन के अज्ञात कविप्रेमी की। यह एक ऐतिहासिक उपन्यास है जिसमें उपन्यासकार (ह.प्र.द्विवेदी) का इतिहासबोध, प्रेम दर्शन और प्रेमानुभूति इतिहास, कल्पित कथाओं और कल्पना के योग से निर्मित एक मुकम्मल, सुगठित और मार्मिक प्रसंगों से भरी कथा के रूप में अभिव्यक्त हुई है। इस कथासंसार को विश्वसनीय बनाने के लिए, जो उपन्यास की एक अनिवार्य शर्त है, ‘आत्मकथा’ का शिल्प अपनाया गया है और उस शिल्प की दरारों को भरने के लिए आत्मकथा के भीतर आत्मकथा, मुख्य पात्र के अन्त:करण और मस्तिष्क में प्रवेश, मुख्य पात्र से अन्य पात्रोंके संवाद तथा विभिन्न पात्रों से प्राप्त सूचनाओं आदि की सहायता ली गयी है। कथा के बिखरे हुए सूत्रों को जोड़ने में भी कथाकार ने अद्भुत कौशल का परिचय दिया है। इस प्रकार उपन्यास में आत्मकथा की प्रविधिमात्र अपनायी गयी है, यह किसी की ‘आत्मकथा नहीं है, और यदि किसी की आत्मकथा का कोई अंश उपन्यास में है,तो वह स्वयं उपन्यासकार ही है।
बाणभट्ट की आत्मकथा प्रेम और साहसिक अभियान युक्त होने पर भी अपने पारिभाषिक अर्थ में रोमांस नहीं है। यह एक उपन्यास है जिसमें लेखक की संवेदना, चिन्तन, जीवन का अनुभव, यथार्थ के प्रति आग्रह और मूल्यबोध प्रमुख स्थान रखता है। इन तथ्यों के बावजूद ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में रोमानियत का अभाव अवश्य मिलता है। रोमांस के तत्वों के समावेश के कारण इस उपन्यास में रमणीयता की वृद्धि हुई है। अत: कहा जा सकता है कि उपन्यास होते हुए भी ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ रोमानी तत्वों से भरपूर एक विशिष्ट उपन्यास है।
बाणभट्ट की आत्मकथा में इतिहास और कल्पना का बहुत सर्जनात्मक मिश्रण किया गया है। उपन्यास में इतिहास को उतना महत्व नहीं मिला है, जितना ऐतिहासिक यथार्थ’ को। उपन्यासकार की कल्पना ‘इतिहास’ से नियन्त्रित होती हुई भी उसका अतिक्रमण करती है। इसमें सन्देह नहीं कि बाणभट्ट की आत्मकथा ने हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास ‘को एक नयी दिशा प्रदान की।
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