बाणभट्ट की आत्मकथा : भारतीय जीवनदृष्टि

‘बाणभट्ट की आत्ककथा’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है। इसके माध्यम से जहाँ आप अतीत के एक विशिष्ट कालखण्ड की एक मनोरम झलक देखेंगे वही दूसरी ओर अपने वर्तमान जीवन के कुछ प्रेरणाप्रद तथ्यों को भी उजागर होते हुए पाएँगे।

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ उपन्यास की कलात्मकता से संबंधित विभिन्न बिंदुओं से परीचित हो सकेंगे,
  • उपन्यास की कथा वस्तु की संरचना और अलंकृत शैली की विशिष्टता से परिचित हो सकेंगे,
  • संवाद रचना में प्रयुक्त भाषा की सहजता, सरलता और पात्रों के मनो भावों को अभिव्यक्त करने की क्षमता से अवगत हो सकेंगे,
  • विशिष्ट प्रसंग निर्मिति के महत्व और औचित्य को जान सकेंगे।

हजारी प्रसाद द्विवेदी हिंदी-साहित्य जगत के एक विशिष्ट हस्ताक्षर है। साहित्येतिहासकार, आलोचक और निबंधकार उपन्यासकार के रूप में भी इन्होंने विशिष्ट उपलब्धि का परिचय दिया है। ‘हिंदी साहित्य का अतीत’, ‘भारतीय धर्मसाधना’, ‘सूरदास’, ‘कबीर’ आदि ग्रंथ उनके साहित्य की परख और इतिहास बोध की प्रखरता को रेखांकित करते हैं। ‘अशोक के फूल’, ‘कल्पलता’, ‘कुटज’ आदि निबंध-संग्रह, द्विवेदी जी को एक सर्वोत्तम ललित निबंधकार और भारतीय संस्कृति के उद्गाता के रूप में रेखांकित करते हैं। एक ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में भी उनकी निजता रेखांकित हुई है।

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के साथ ही -पुनर्नवा’, ‘चारूचन्द्रलेखा’ और ‘अनामदास का पोथा’ । जैसे ऐतिहासिक उपन्यास द्विवेदी जी की कलात्मक क्षमता के साथ ही उनके प्रखर इतिहास बोध को भी रेखांकित करते हैं। इन उपन्यासों की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता बोध के स्तर पर ऐतिहासिकता और पौराणिकता की रक्षा करते हुए अपने युग और समाज के सच को भी उजागर करता है। समसामयिक सामाजिक यथार्थ को संकेतित करने की प्रवृत्ति ही द्विवेजी के उपन्यासों को समकालीनता से जोड़ती है।

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ 1946 की रचना है। इसमें बाणभट्ट और महाराज हर्ष के एक छोटे कालखण्ड को आधार बनाया गया है। इस उपन्यास के केंद्र में स्वयं बाणभट्ट का जीवन है, जो राष्ट्रीय अस्मिता की प्रतीक तुवरमिलिंद की कन्या भट्टिनी की मुक्ति के महत् उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ता है। लेकिन यहाँ द्विवेदी जी की जो मुख्य विशेषता है, वह केवल भट्टिनी की मुक्ति तक ही सीमित न रहकर पराधीन भारत की राष्ट्रीय मुक्ति, नारी मुक्ति को भी रेखांकित करती है। इस प्रक्रिया में द्विवेदी जी ने ऐतिहासिकता की पूरी तरह रक्षा करते हुए अपने युग के राष्ट्रीय आंदोलन के लिए अनिवार्य राष्ट्रीय एकता, सामाजिक-साम्प्रदायिक सद्भाव, नारी-मुक्ति, जातिवाद की भावना को अत्यंत कलात्मक ढंग से संकेतिक किया है। यह समूचा प्रयास उपन्यास को समकालीन यथार्थ से जोड़ता है। प्रस्तुत इकाई में हम इन तथ्यों का विवेचन-विश्लेषण करने का प्रयास करेंगे।

बाणभट्ट की आत्मकथा : जीवनदृष्टि

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के सृजन के पीछे हजारीप्रसाद द्विवेदी का उद्देश्य अतीत-वैभव की भव्यता का चित्र प्रस्तुत करना नहीं था और न ही ऐतिहासिक घटनाओं एवं तिथियों को ब्योरेवार प्रस्तुत करना था। इस रचना का उद्देश्य था ऐतिहासिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में तत्कालीन युगीन जीवन के आंतरिक यथार्थ को उद्घाटित करना। इसलिए ऐतिहासिक तथ्य और सांस्कृतिक तत्वों का आधार लेकर तत्कालीन युग-सत्य की खोज की गयी है। द्विवेदी जी ने एक युग-विशेष की सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परंपराओं की छानबीन कर समकालीन संदर्भो में उनकी संगति बिठायी है। इस उपन्यास के द्वारा मानवीय मूल्यों की चिंता, मानवता की स्थापना, नारी-स्वतंत्रता, जातिविहीन समाज की स्थापना के द्वारा स्वाधीन भारत की कल्पना को साकार करने का प्रयास किया गया है। अत: यह उपन्यास जितना ऐतिहासिक है उतना समसामयिक भी। यह लेखक की गहरी सूझ-बूझ, यथार्थवादी दृष्टिकोण और सर्जनात्मक विशिष्टता का ही प्रमाण है कि अतीतकालीन समस्याएँ अपने समय के संदर्भ में जितनी सार्थक है, आज के संदर्भ में उतनी ही संगत भी। अपने समय की स्थितियों के प्रति सजगता और कलात्मक चेतना के कारण द्विवेदी जी समय के अंतर को सहजता से दूर करते हैं। ऐतिहासिक कथ्य को कल्पना का आधार देकर मानवीय संवेदनाओं, जटील संबंधों को, सच्चे प्रेम और चिंताओं को वास्तविक धरातल से जोड़ देते हैं। इससे उपन्यास में जितनी गहराई, व्यापकता है उतनी ही विश्वसनीयता भी शामिल है।

महाराज हषर्वर्धन के राज्यकाल में जो विदेशी आक्रमण हुए तथा उनके परिणामस्वरूप जनता को जो असहनीय कष्ट और अमानवीय यातनाएँ भोगनी पड़ी इसका चित्रण योग्य विम्बयोजना के माध्यम से किया गया है। इस भयावह स्थिति से देश को उबारने के लिए ही उपन्यासकार द्विवेदीजी ऐतिहासिक दृष्टि व्यापक, मानवीय धरातल से उठती है, वे ऐतिहासिक बोध की सार्थकता को मानवीय उपयोगिता में मानते हैं। सामाजिक विकास की प्रक्रिया में इतिहास की वैज्ञानिक दृष्टि को कैसे उपयोग में लाया जा सकता है यह पहली बार ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के द्वारा स्पष्ट हो जाता है। इतिहास के विकास और पतन में जनसाधारण की भूमिका का महत्व जन संघर्ष और विकास की कहानी व्यक्ति के स्थान पर समूह का महत्व और जनसामान्य की सोच का क्या प्रभाव होता यह पहली बार द्विवेदीजी की इतिहास दृष्टि में परिलक्षित हुआ है।

बाणभट्ट की आत्मकथा’ के विजन में केन्द्रीय स्थिति एक ऐसी प्रेम-संवेदना की है जो लोकोत्तर है। उपन्यास का नायक बाणभट्ट निपुणिका और भट्टिनी के प्रेम का आलम्बन है। यह प्रेम अपनी गहनता, तीव्रता, त्याग और संयम में अद्वितीय है। निपुणिका का बाणभट्ट के प्रति प्रेम उद्दाम होते हुए भी आत्मबलिदान में समाप्त होकर उसे उदात्त बना देता है। द्विवेदी जी प्रेम के उस भारतीय आदर्श के कायल हैं जो मानता है कि तपस्या और लोकमंगल की भावना से सम्पन्न होने पर ही प्रेम स्थाई और कल्याणकारी होता है। कालिदास ने अपने काव्यों में इसी प्रेम का चित्रण किया है। बाणभट्ट की आत्मकथा में निपुणिका का बाणभट्ट के प्रति प्रेम कामजन्य था, इसी कारण वह कमल पत्र पर पड़ी जल की बूँद की तरह बिखर गया। पर जब यह प्रेम छह वर्षों के पश्चाताप और प्रायश्चित की आँच में तप कर कंचन बन गया तो इसमें स्थायित्व आ गया। बाणभट्ट की आत्मकथा की एक पात्र, महामाया, एक स्थान पर बाणभट्ट से कहती है : “स्त्री प्रकृति है। उसकी सफलता पुरुष को बाँधने में है. किन्त सार्थकता पुरुष की मुक्ति में है।” निपुणिका पर महामाया के इस कथन का अद्भुत प्रभाव पड़ा है। जब निपुणिका को विश्वास हो जाता है, और बाणभट्ट भी इसकी पुष्टि कर देता है, कि वह बाणभट्ट को बाँधने में सफल हुई है तब वह उसे मुक्त कर अपनी सार्थकता प्रमाणित करती है और वह भट्टिनी तथा उसके बीच से हट जाती है। अपनी मृत्यु की घड़ी में भी वह परम सन्तुष्ट है।

भट्टिनी और बाणभट्ट का प्रेम तो और भी उदात्त है। बाणभट्ट भट्टिनी को, जो एक अपृहत राजकुमारी है, हर्षवर्द्धन के एक सामन्त के अन्त:पुर से निकाल कर उसकी रक्षा करता है। इस साहसिक अभियान के पीछे काम की नहीं, बल्कि कर्तव्य की प्रेरणा है। बाणभट्ट नारी का बेहद सम्मान करता है, वह नारी देह को देवमन्दिर मानता है। निपुणिका के प्रेम की उपेक्षा भी उसने अपने इसी मूल्यबोध के कारण, अनजान में, कर दी थी। निपुणिका की प्रेरणा से ही वह अपनी जान की बाजी लगाकर, भट्टिनी की रक्षा करता है। बाणभट्ट और भट्टिनी, साथ में निपुणिका भी, काफी दिनों तक साथ साथ रहते हैं। ‘इसी साहचर्य से भट्टिनी के मन में बाणभट्ट के प्रति अनुराग का उदय होता है। पर यह प्रेम वाणी के माध्यम से तो कभी व्यक्त नहीं ही होता, आंगिक चेष्टाओं और सात्विक भावों के रूप में भी बड़ी मुश्किल से व्यक्त होता दिखाई देता है। बाणभट्ट भट्टिनी की पूजा करता है; भट्टिनी के प्रति उसके मन में केवल श्रद्धा ही श्रद्धा है, समानता के स्तर पर प्रतिष्ठित होने वाला प्रेम नहीं। इस प्रेम में भावना का उफान कहीं नहीं दिखाई देता; शरीर प्राप्ति या काम का आकर्षण तो इसमें है ही नहीं। यह प्रेम केवल भावना के रूप में है जो अत्यन्त प्रगाढ़ तो है, पर काम का अतिक्रमण कर भक्ति के क्षेत्र में पहुँचा हुआ है। निपुणिका और भट्टिनी दोनो बाणभट्ट से प्रेम करती हैं, पर चूँकि यह प्रेम काम का अतिक्रमण कर चुका है, अत: वे एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या या असूया भाव से ग्रस्त नहीं हैं। उपन्यास के अन्त में बाणभट्ट के प्रति भटिटनी का प्रेम अभिव्यक्त होता है, पर वह प्रेम मानव कल्याण के एक उदात्त लक्ष्य के प्रति समर्पित है, शारीरिक मिलन के प्रति नही।

बाणभट्ट की आत्मकथा में चित्रित प्रेम सामान्यत: उपन्यासों में चित्रित होने वाले प्रेम की तुलना में निश्चय ही विशिष्ट है। कुछ लोगों को यह प्रेम हवाई, अमनोवैज्ञानिक, आदर्शवादी, अयथार्थ आदि प्रतीत हो सकता है, पर इससे गुजरने का एक अपना सुख है। यह प्रेम उपन्यासकार के अपने विशिष्ट विजन की वस्तु है, जिसे विश्वसनीय रूप में प्रस्तुत करने में उसे अद्भुत सफलता मिली है। यह विजन आगे चलकर एक व्यापक सामाजिक यथार्थ की पृष्ठभूमि निर्मित करता है।

‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ प्रेम की संवेदना तक सीमित नहीं है। इसके भीतर एक राष्ट्रीय संकट का इतिहास बोध भी सन्निहित है। किसी भी राष्ट्र के इतिहास में राजनीतिक संकट, जिसमें विदेशी शक्तियों का आक्रमण भी शामिल है, आते ही रहते हैं। जिस समय ‘बाणभटट की आत्मकथा’ लिखी जा रही थी, भारत परतन्त्र था और द्वितीय विश्वयुद्ध की विनाशलीला अपने चरम पर थी। उपन्यासकार की चेतना में यह परतन्त्रता राष्ट्रीय संकट के रूप में विद्यमान थी। इसकी अभिव्यक्ति बाणभट्ट की आत्मकथा में परोक्ष रूप में, हषवर्द्धन काल के राष्ट्रीय संकट के रूप में, हुई है। यद्यपि स्वयं हषवर्द्धन को हूणों के किसी आक्रमण का सामना नहीं करना पड़ा था, पर उसके राज्यकाल में पश्चिम से उनके आक्रमण की सम्भावना बनी हुई थी। बाणभट्ट की आत्मकथा में इस सम्भावना को औपन्यासिक प्रसंग के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इस प्रसंग के रूप में द्विवेदी जी का इतिहास-बोध भी व्यक्त हुआ है। इतिहासकार इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि भारत में विदेशी आक्रमणकारियों की सफलता का प्रमुख कारण सामान्य जनता की राजनीतिक उदासीनता या तटस्थता, हिन्दू समाज व्यवस्था के विरोधाभास, समाज का अनेक जातियों में विभाजन तथा निरन्तर बढ़ता जातिभेद और वर्गभेद था।

इस काल की जनता को इस बात का बोध नहीं था कि विदेशी आक्रमणकारियों से युद्ध में उसकी भी कोई भूमिका हो सकती है। इसका एक बड़ा कारण गुप्तकाल के बाद जातिगत भेदभाव और संकीर्णता में निरन्तर होती वृद्धि थी। युद्ध क्षत्रियों का पेशा तो बहुत पहले से ही माना जाता था, पर धीरे धीरे यह मान्यता कट्टर संकीर्णता में परिणत होती गयी और युद्ध करना केवल राजपूतों का काम माना जाने लगा। इसके अतिरिक्त गुप्त काल में सामन्ती प्रथा का जन्म हुआ, जिसके कारण सेना में भी वर्णभेद की स्थिति पैदा हो गयी। जब तक सम्राट् शक्तिशाली रहे तब तक तो इस व्यवस्था से लाभ ही होता रहा पर केन्द्रीय शक्ति के दुर्बल होते ही यह व्यवस्था सैन्य शक्ति की दुर्बलता बन गयी। बाणभट्ट की आत्मकथा में इस राजनीतिक स्थिति को मार्मिक और ऐतिहासिक यथार्थ के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उपन्यास में कुमार कृष्णवर्द्धन, भर्तुर्मा, लोरिकदेव आदि भारतवर्ष को हूणों के आक्रमण से बचाने के लिए किसी राजशक्ति की, विशेष कर पश्चिमोत्तर सीमान्त के प्रतापी शासक तुवर मिलिन्द की, भूमिका को आवश्यक मानते हैं। पर विद्रोहिणी महामाया भैरवी इसका विरोध करती है। वह एक जनसभा को सम्बोधित करती हुई कहती है :

“आर्य, सभासदो, उत्तरापथ के लाख लाख नौजवानों ने क्या कंकण वलय धारण किया है? क्या वे वृद्धों और बालकों, बेटियों और बहुओं, देवमन्दिरों और विहारों की रक्षा के लिए अपने प्राण नहीं दे सकते? क्या इस देश के विद्वानों में स्वतन्त्र संगठन बुद्धि का विलोप हो गया है?”  वस्तुत: यह महामाया भैरवी का नौजवानों और विद्वानों से प्रश्न नहीं है, बल्कि उपन्यासकार का अपने समकालीन नौजवानों और बुद्धिजीवियों को आहवान है। महामाया युवकों को ‘देवपुत्रों’ और ‘महाराजाधिराजों’ की आशा छोड़ने और संगठित होकर आक्रमणकारियों का सामना करने के लिए उबुद्ध करती है। वह घोषणा करती है : “राजाओं, राजपुत्रों और देवपुत्रों की आशा पर निश्चेष्ट बने रहने का निश्चित परिणाम पराभव है। प्रजा में मृत्यु का भय छा गया है, यह अशुभ लक्षण है। अगर तुम आर्यावर्त को बचाना चाहते हो तो प्राण देने के लिए तत्पर हो जाओ। धर्म के लिए प्राण देना किसी जाति का पेशा नहीं है, वह मनुष्य मात्र का उत्तम लक्ष्य है।

अमृत के पुत्रो, मैं भविष्य देख रही हूँ। राजा, महाराजा और सामन्त स्वार्थ के गुलाम बनते जा रहे हैं। प्रजा भीरु और कायर होती जा रही है। विद्वान् और शीलवान नागरिकों की बुद्धि कुंठित होती जा रही है। धर्माचरण में इसलिए व्याघात उपस्थित हुआ है कि राजा अन्धा है, प्रजा अन्धी है और विद्वान् अन्धे हैं। अपने आप को बचाओ, धर्म पर दृढ़ रहो, न्याय के लिए मरना सीखो, ब्राह्मण से चांडाल तक एक हो जाओ–चट्टान की तरह दुर्भेद्य एक। यही बचने का उपाय है।“ वस्तुत: यह उद्बोधन उपन्यासकार का है जो ब्रिटिश शासन काल में भारतीय जीवन में व्याप्त मतभेद, जड़ता, कायरता और निर्णयहीनता से व्यथित था। तत्कालीन भारत की स्थिति से पीड़ित लेखक का सारा आक्रोश इस उद्बोधन द्वारा व्यक्त हुआ है। उपन्यास की महामाया भैरवी गैरिकधारिणी भैरवियों का दल संगठित कर, समस्त देश में घूम घूम कर, युवा शक्ति को जगाती है। यह उपन्यासकार का नारी शक्ति को आह्वान भी माना जा सकता है।

बाणभट्ट की आत्मकथा में तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त स्तरभेद और जातिभेद की ओर भी इशारा किया गया है। महामाया भैरवी देश की रक्षा के लिए ब्राह्मण और चांडाल को एक हो जाने का सन्देश देती है। भट्टिनी यहाँ की सामाजिक व्यवस्था की दुखती रग पर उँगली रखती है : “ यहाँ इतना स्तर भेद है कि मुझे आश्चर्य होता है कि यहाँ के लोग कैसे जीते हैं। तुम यदि किसी यवन कन्या से विवाह करो तो यह इस देश में एक भयंकर सामाजिक विद्रोह माना जाएगा। जहाँ भारतवर्ष के समाज में एक सहस्र स्तर हैं वहाँ उनके (यवनों के) समाज में कठिनाई से दो-तीन होंगे। भारतवर्ष में जो ऊँचे हैं वे बहुत ऊँचे हैं, जो नीचे हैं . उनकी निचाई का कोई आर पार नहीं; परन्तु उनमें सब समान हैं। उनकी स्त्रियों में रानी से लेकर परिचारिका तक के और गणिका से लेकर वार-विलासिनी तक के सैकड़ों भेद नहीं हैं।“ वस्तुत: यह चिन्ता अपने समय को लेकर उपन्यासकार की है जिसे उसने सातवीं शताब्दी के भारतीय समाज के चित्रण के रूप में प्रस्तुत किया है। महामाया भैरवी और भट्टिनी के द्वारा जो आह्वान उपन्यास में किया गया है, स्वाधीनता आंदोलन के दौरान वह कार्य महात्मा गांधी द्वारा सम्पन्न हुआ है। गांधी जी के आह्वान पर ही भारत की विभिन्न जातियों के लोग, किसान-मजदूर, हिंदू-मुसलमान एक जुट होकर स्वाधीनता संग्राम के लिए एक मंच पर आए। इस तथ्य की ओर भी उपन्यासकार संकेत करता है।

द्विवेदी जी के विजन में एक ऐसे विश्व समाज की परिकल्पना है जिसमें युद्ध न हो, विषमता न हो, अत्याचार न हो, अशान्ति न हो और नारी को पूर्ण सम्मान और बराबरी के अधिकार प्राप्त हो। अखंड विश्वशान्ति का सपना तभी साकार हो सकता है जब पर्व और पश्चिम की सभ्यताएं एक दूसरे के श्रेष्ठ गुणों को ग्रहण कर आपस में मिल जाएँ। यह कार्य राजनीतिज्ञ नहीं, संवेदनशील कलाकार और कवि-लेखक ही कर सकते हैं। उपन्यासकार ने भट्टिनी की सोच और संवेदना के माध्यम से इस अवधारणा को प्रस्तुत किया है। भट्टिनी अनुभव करती है कि “ महानाश का खेल खेलने वाले म्लेच्छों में भी मनुष्य का हृदय है।” वह बाणभट्ट से प्रश्न करती है : ” क्यों भट्ट, ऐसा क्या नहीं हो सकता कि ऊँची भारतीय साधना उन तक पहुंचाई जा सके और निकृष्ट सामाजिक जटिलता यहाँ से हटाई जा सके। जब तक ये दोनो बातें साथ साथ नहीं हो जाती, तब तक शाश्वत शान्ति असम्भव है।”  बाणभट्ट एक महान् कवि है, इसलिए भट्टिनी का विश्वास है कि वह अपनी कविता के माध्यम से इस पूर्ण सत्य का प्रचार कर सकता है। वह भट्ट से कहती है : “ तुम इस म्लेच्छ कही जाने वाली निर्दय जाति के चित्त में समवेदना का संचार कर सकते हो, उन्हें स्त्रियों का सम्मान करना सिखा सकते हो, बालकों को प्यार करना सिखा सकते हो।  वह आगे कहती है : “ एक जाति दूसरी को म्लेच्छ समझती है, एक मनुष्य दूसरे को नीच समझता है, इससे बढ़ कर अशान्ति का कारण और क्या हो सकता है भट्ट ! तुम्हीं ऐसे हो जो नर लोक से लेकर किन्नर लोक तक व्याप्त एक ही रागात्मक हृदय, एक ही करुणायित चित्त को हृदयंगम करा सकते हो। मनुष्य लोभवश, मोहवश, द्वेषवश पशुता की ओर बढ़ता जा रहा है, तुम इसके हृदय को संवेदनशील और कोमल बना सकते हो।”  बाणभट्ट के मन में संशय है कि “ क्या यह सम्भव है कि काव्य से मनुष्य की दयाहीन, विवेकहीन, धर्महीन वृत्तियाँ उच्चतर कार्य में नियोजित हो जाएँ।“ पर निपुणिका के आत्म बलिदान और भट्टिनी की अवसन्नता के साथ ही बाणभट्ट की जड़ता समाप्त हो जाती है और वह कह उठता है : “ देवि, उठो, तुम्हें कातर होना नहीं शोभता। नर लोक से किन्नर लोक तक व्याप्त एक ही रागात्मक हृदय का सन्धान पाना बाकी है। उठो देवि, आर्यावर्त को बचाना है।” तत्पश्चात् दोनो इस कार्य को पूरा करने का संकल्प कर महावाराह को प्रणाम करते हैं जो उनके प्रेम की परिपूर्णता की भी द्योतक है।

कला विषयक दूसरा महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उपन्यासकार ने अपने विजन को किस प्रकार रूप प्रदान किया है। उपन्यास में यह कार्य एक कल्पित कथासंसार के सृजन द्वारा सम्पन्न हुआ है। कथासंसार की रचना के लिए सामान्यत: एक कालविशेष और देशविशेष की कल्पना आवश्यक होती है, जिसमें मुख्यत: मानव प्राणी, कल्पित पात्रों के रूप में कार्यरत होते हैं। इस कथा संसार में प्रकृति और मानवेतर प्राणी भी सम्मिलित होते हैं, क्योंकि उनकी भूमिका प्राय: गौण होती है। द्विवेदी जी ने अपने विजन को रूप देने के लिए सातवीं शताब्दी का काल और स्थाण्वीश्वर (थानेश्वर) से लेकर भद्रेश्वर दुर्ग (बलिया, उ.प्र.) और उज्जयिनी तक फैले देश का चयन किया है। इसके प्रमुख पात्र, बाणभट्ट और हर्षवर्धन, तो ऐतिहासिक हैं पर अन्य सारे पात्र कल्पित हैं। द्विवेदी जी ने अर्ध ऐतिहासिक या कल्पित पात्रों का अत्यन्त सर्जनात्मक उपयोग बाणभट्ट की आत्मकथा में किया है। ये पात्र इतिहास के बन्धन से मुक्त होकर भी ऐतिहासिक प्रभाव की सृष्टि में सहायक हैं। ऐतिहासिक पात्रों को भी उपन्यासकार ने, उनके ऐतिहासिकता की रक्षा करते हुए, सर्वथा नवीन रूप में प्रस्तुत किया है। बाणभट्ट को तो उपन्यासकार ने एक ऐसे सजीव पात्र के रूप में प्रस्तुत किया है,जहाँ इतिहास पहुँच ही नहीं सकता। इनके अतिरिक्त उपन्यास में दर्जनों ऐसे पात्र हैं जो अपनी संवेदनशीलता, करुणा, प्रेम, त्याग, बलिदान, कर्मठता, निष्ठा, कर्तव्यपरायणता, देशभक्ति आदि से इस कथा संसार को अद्भुत रमणीयता प्रदान करते हैं। बाणभट्ट की आत्मकथा में इतिहास और कल्पना का यह दुर्लभ संगम मन पर अद्भुत प्रभाव छोड़ता है।

प्रेम की परिकल्पना

बाणभट्ट की आत्मकथा में भारतीय जीवनदृष्टि की अभिव्यक्ति प्रचुर मात्रा में और सफलतापूर्वक हुई है। इस जीवनदृष्टि के कई पक्ष उपन्यास में उभरे हैं। इनमें प्रमुख पक्ष प्रेम-दर्शन का है। प्रेम साहित्य मात्र का, स्वभावत: उपन्यास का भी, सर्वाधिक प्रिय विषय है। बाणभट्ट की आत्मकथा में बाणभट्ट दो प्रेमिकाओं के प्रेम का आलम्बन बनता है। वे हैं–निपुणिका और भट्टिनी; उज्जयिनी की नगरवधू मदनश्री भी उसके आकर्षण में बँधती है, पर यह आकर्षण क्षणिक है। इनमें बाणभट्ट और भट्टिनी, दोनो में से कोई भी काम-राग से अन्धा नहीं हैं। निपुणिका आरम्भ में बाणभट्ट के प्रति मोहग्रस्त है, पर उसका यह मोह भी छह वर्षों की तपस्या से कट जाता है और अन्त तक पहुँच कर तो वह, अपना सर्वस्व भट्टिनी और बाणभट्ट को देकर स्वयं प्रेम के मार्ग से हट जाती है।

इस प्रेम प्रसंग का किंचित् विस्तार अपेक्षित है। बाणभट्ट के चरित्र की दुर्लभ विशेषता यह है कि वह नारी का बहुत सम्मान करता है। वह स्त्री को भोग्या या काम की वस्तु नहीं, बल्कि देवमन्दिर मानता है। उसकी नाट्यमंडली की अभिनेत्रियाँ कुलवधुओं का सम्मान और गरिमा प्राप्त करती हैं। पर उसकी एक अभिनेत्री, निपुणिका, उससे प्रेम कर बैठती है और उससे प्रोत्साहन न पाकर, ग्लानिवश, उसकी नाट्यमंडली छोड़ कर भाग जाती है। पर जल्द ही निपुणिका को अपनी भूल का भान हो जाता है। फिर भी वह बाणभट्ट के पास लौट कर नहीं आती। छह वर्षों तक वह इधर उधर भटकती, मारी मारी फिरती है। उसे इस बात का किंचित् आभास है कि बाणभट्ट के मन में उसके प्रति अनुराग है, पर उस अनुराग में काम का भाव नहीं है। निपुणिका के चले जाने के बाद बाणभट्ट का उसकी खोज में भटकना और फिर अपनी नाट्यमंडली को ही तोड़ देना इसका परिचायक है। निपुणिका इस देवोपम चरित्र वाले व्यक्ति को अपने काम-राग में बाँधने की कुवासना से इतनी दुःखी है कि वह प्रायश्चित भाव से छह वर्षों तक भटकती रहती है। यह एक प्रकार की तपस्या ही है। इस तपस्या से उसका प्रेम पावन बन जाता है। छह वर्षों के बाद जब बाणभट्ट से उसकी अचानक मुलाकात होती है तो उसके प्रति निपुणिका की प्रेमभावना वासना से मुक्त हो चुकी है। ठीक इसी समय, जिस ‘छोटे राजकुल’ के अन्त:पुर में निपुणिका परिचारिका है, वहाँ बन्दिनी के रूप में भट्टिनी लायी जाती है। भट्टिनी को ‘छोटे राजकुल’ का सामन्त अपनी पटरानी बनाना चाहता है। निपुणिका भट्टिनी के उद्धार के लिए चिन्तित है। निपुणिका बड़े अधिकार से बाणभट्ट को भट्टिनी के उद्धार का कार्य सौंपती है और बाणभट्ट भट्टिनी को अन्त:पुर से निकाल कर, निपुणिका के साथ, नगर से दूर एक निर्जन चंडी मन्दिर में ले जाता है। इस घटना से बाणभट्ट के प्रति भट्टिनी का अनुराग प्रकरण आरम्भ होता है, जिसे शास्त्रीय भाषा में ‘साहचर्यजन्य प्रेम’ कहा जा सकता है।

भट्टिनी और निपुणिका को राजकोप से बचाने के लिए बाणभट्ट को, हर्षवर्द्धन के भाई और महासान्धिविग्रहिक कुमार कृष्ण के सहयोग से, उन्हें लेकर मगध के लिए प्रस्थान करना पड़ता है। इस बीच अनेक घटनाएँ घटित होती हैं जो भट्टिनी के मन में बाणभट्ट के प्रति प्रेम का कारण बनती हैं। पर भट्टिनी के प्रति बाणभट्ट का. अनुराग उसके अवचेतन में भले ही स्थित हो, वह चेतन स्तर पर कहीं भी व्यक्त नहीं होता। चेतना के स्तर पर वह भट्टिनी की पूजा ही करता है। वह उसके सौन्दर्य से बार बार अभिभूत होता है, उसे देखते ही उसकी काव्यधारा बाँध तोड़ कर प्रवाहित होने लगती है। बाणभट्ट स्वयं भी यह नहीं जानता कि भट्टिनी के प्रति उसके मन में प्रेम है, यद्यपि भट्टिनी के लिए प्राण भी दे देने में उसे कोई द्विधा नहीं है। वह अपने को भट्टिनी का ‘सेवक’ ही मानता है, यद्यपि आरम्भ में ही भट्टिनी उसे अपना ‘अभिभावक’ स्वीकार कर लेती है। पहली बार अवधूत अघोर भैरव भट्टिनी के प्रति बाणभट्ट के प्रेम का संकेत देते हैं। वे बाणभट्ट से कहते हैं-” देवता ने जिस रूप में तुझे सबसे अधिक मोहित किया है उसी की पूजा कर।’ महामाया भी उससे यही कहती हैं : “त्रिभुवनमोहिनी ने जिस रूप में तुझे मोह लिया है,उसी रूप की पूजा कर, वही तेरा देवता है।” यह संकेत स्पष्टत: भट्टिनी की ओर है। भट्टिनी के प्रति बाणभट्ट का यह पूजा-भाव प्राय: अन्त तक बना रहता है। जब मौखरि सैनिकों के दस्ते का नायक विग्रहवर्मा बाणभट्ट और भट्टिनी को ‘ब्राह्मण दम्पति’ कहता है तो बाणभट्ट इसे सुनकर अपने कानों पर हाथ रख लेता है। भट्टिनी का प्रमी होने की कल्पना ही उसे धृष्टता और लज्जास्पद प्रतीत होती है, यद्यपि भट्टिनी का उसके प्रति प्रेम दिनोदिन प्रगाढ़ ही होता जाता है। पर यह प्रेम भी शारीरिक विकारों द्वारा व्यक्त नहीं होता।

भट्टिनी के चरित्र में यह संयम और भी उदात्त रूप में सामने आता है। बाणभट्ट के प्रथम दर्शन, सम्भाषण, और फिर साहचर्य से, जो भाव पैदा होता है,उसे वह प्रेम या ‘अनुराग’ नहीं कहती, उसे बस इतना ही लगता है कि उसका नारी जन्म ‘सार्थक हो गया। उपन्यास में कहीं भी, जैसा हम देख चुके हैं, भट्टिनी का अनुराग शब्दों या शारीरिक विकारों के माध्यम से व्यक्त नहीं होता, अधिक से अधिक वह मानसिक विकारों के रूप में ही व्यंजित होता है। उपन्यास के अन्त में,जब निपुणिका का निधन हो जाता है, भट्टिनी अपने इस अनुराग को एक महान् मानवीय लक्ष्य से जोड़कर उदात्त बना देती है।

निपुणिका रत्नावली की वासवदत्ता की प्रेम-दृष्टि से प्रभावित होकर भट्टिनी और बाणभट्ट को मिलाने का संकल्प करती है। भट्टिनी भी निपुणिका के अस्वस्थ होने पर जिस प्रकार उसकी सेवा करती है और बाणभट्ट से उसे, सम्मोहन की बाधा दूर करने के लिए, सौरभहद के शिव सिद्धायतन में ले जाने को कहती है, वह निपुणिका के प्रति उसके चरम स्नेह भाव का निदर्शन है। भट्टिनी जानती है कि निपुणिका बाणभट्ट से प्रेम करती है,पर उसके मन में भी उसके प्रति ईर्ष्या या असूया का भाव नहीं है। प्रेम का यह रूप अत्यन्त मनोहर है।

रत्नावली के मंचन में वासवदत्ता की भूमिका में अभिनय करती निपुणिका राजा का हाथ . रत्नावली के हाथ में देती हुई अपने को वासवदत्ता से एकाकार कर लेती है। किन्तु अपने अभिनय में वह इतनी भावमग्न हो जाती है कि सम्मोहन के कारण पहले से ही दुर्बल उसकी शिराएँ शिथिल हो जाती हैं और उसका प्राणान्त हो जाता है। भट्टिनी ‘कुररी की भाँति कातर चीत्कार के साथ चिल्ला उठती है–“हाय, भट्ट, अभागिनी का अभिनय आज समाप्त हो गया। उसने प्रेम की दो दिशाओं को एकसूत्र कर दिया !’

नारी चेतना की अभिव्यक्ति

द्विवेदी जी ने बाणभट्ट की आत्मकथा में नारी विषयक भारतीय दृष्टि को प्रस्तुत करने का . . प्रयास किया है। ई. सन् की छठी शताब्दी तक भारतीय समाज में नारी की स्थिति भोग्य वस्तु के रूप में बन चुकी थी। स्त्रियों का अपहरण और उनकी खरीद फरोख्त सामान्य बात … हो गयी थी। बाणभट्ट की आत्मकथा में भट्टिनी इसकी शिकार है। वह प्रतापी सम्राट तुवर मिलिन्द की कन्या है। पर दस्यु उसका अपहरण कर लेते हैं और उसे हर्षवर्द्धन के एक सामन्त के हाथों बेच देते हैं। निपुणिका और बाणभट्ट के प्रयत्न से उसका उद्धार होता है। इस सामन्त के अन्त:पुर में अपहृता बालिकाओं की भरमार है। महामाया भैरवी भी एक . अपहृता बालिका है, जिसका विवाह घूर्तों ने महाराज ग्रहवर्मा से करा दिया था। वह अन्त:पुर में रो रो कर दिन बिता रही है और अन्त में संन्यास लेकर मुक्त होती है। वह एक जनसभा को सम्बोधित करती हुई कहती है : “इस उत्तरापथ में लाख लाख निरीह बहुओं और बेटियों के अपहरण और विक्रय का व्यवसाय क्या नहीं चल रहा है?”“ मैं तुम्हारे देश की लाख लाख अवमानित, लांछित और अकारण दंडित बेटियों में से एक हूँ। कौन नहीं जानता कि इस घृणित व्यवसाय के प्रधान आश्रय सामन्तों और राजाओं के अन्त:पुर हैं? आपमें से किसे नहीं मालूम कि महाराजाधिराज की चामरधारिणियाँ और करंकवाहिनियाँ इसी प्रकार भगायी हुई और खरीदी हुई कन्याएँ हैं ! ” इसी प्रकार निपुणिका की व्यथा उसके इन प्रश्नों से प्रकट होती है, जिन्हें वह बाणभट्ट से पूछती है– मेरी हीशपथ करके तुम सत्य सत्य कहो, मेरा कौन सा ऐसा पाप-चरित्र है जिसके कारण मैं निदारुण दुःख की भट्ठी में आजीवन जलती रही? क्या स्त्री होना ही मेरे सारे अनर्थों की जड़ नहीं है? ”

इस पृष्ठभूमि में द्विवेदी जी ने नारी महिमा का जो रूप खड़ा किया है, वह अनूठा है। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में एक भी ऐसा नारी पात्र नहीं है, जो अपने चरित्र से स्त्री की गरिमा को बढ़ाता न हो। भट्टिनी, निपुणिका, महामाया, सुचरिता आदि सभी प्रमुख नारी पात्र स्त्री का ऐसा आदर्श सामने रखते हैं, जो वंदनीय है। विभिन्न पात्रों के द्वारा नारी के  सम्बन्ध में व्यक्त कराए गये विचार भी द्विवेदी जी के नारी विषयक दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हैं। महामाया भैरवी भट्टिनी से कहती हैं–‘हाँ बेटी, नारीहीन तपस्या संसार की . भद्दी भूल है। यह धर्मकर्म का विशाल आयोजन, सैन्यसंगठन और राज्य व्यवस्थापन सब फेन-बुदबुद की भाँति विलुप्त हो जाएँगे; क्योंकि नारी का इसमें सहयोग नहीं है। यह सारा ठाट-बाट संसार में केवल अशान्ति पैदा करेगा।’  महामाया ‘नारी तत्त्व’ की व्याख्या करती हैं–” जहाँ कहीं अपने आपको उत्सर्ग करने की, अपने आप को खपा देने की भावना प्रधान है, वहीं नारी है। जहाँ कहीं दुःखसुख की लाख लाख धाराओं में अपने को दलित द्राक्षा के समान निचोड़ कर दूसरे को तृप्त करने की भावना प्रबल है, वहीं ‘नारी तत्त्व है, या शास्त्रीय भाषा में कहना हो, तो ‘शक्ति तत्त्व’ है।”  बाणभट्ट प्रथम बार सुचरिता को देखकर अपने भाव व्यक्त करता है : “मुझे बार बार बराहमिहिर की याद आती रही और मैं उनकी सहृदयता पर मुग्ध हुए बिना नहीं रहा। उन्होंने ठीक ही कहा है,स्त्रियाँ ही रत्नों को भूषित करती हैं, रत्न स्त्रियों को क्या भूषित करेंगे ! आज यदि बराहमिहिर यहाँ उपस्थित होते, तो और भी आगे बढ़कर कहते– धर्म-कर्म,भक्ति-ज्ञान,शान्ति-सौमनस्य कुछ … भी नारी का संस्पर्श पाये बिना मनोहर नहीं होते– नारी-देह वह स्पर्शमणि है, जो प्रत्येक  ईंट-पत्थर को सोना बना देती है।” अवधूत अघोरभैरव महामाया से कहते हैं–‘ मैं सारे जीवन नारी की उपासना करता रहा हूँ। मेरी साधना अपूर्ण रह गयी है। तुम विशुद्ध नारी बन कर मेरा उद्धार करो–विशुद्ध नारी-त्रिपुरभैरवी।’ बाणभट्ट निपुणिका के प्रसंग में चिन्तन करता है– “नारी से बढ़ कर अनमोल रत्न और क्या हो सकता है? पर उससे अधिक दुर्दशा किसकी हो रही है? मुझसे निपुणिका क्या आशा रखती है? अवधूतपाद की साधना इसलिए अधूरी है कि उन्हें विशुद्ध नारी का सहयोग नहीं मिला और निपुणिका की बलिदानाकांक्षा इसलिए अपूर्ण है कि उसे पुरुष का करावलम्ब नहीं मिला।”

भट्टिनी के रूप में एक आदर्श परंपरागत नारी का रूप भी साकार हो उठा है। बाणभट्ट के शब्दों में, “लौट कर जब आया, तो भट्टिनी मेरे आहार का आयोजन कर रही थीं। उनकी आँखें इस समय प्रसन्न दिख रही थीं और शरीर में एक प्रकार का लाघव-भाव स्पष्ट ही लक्षित हो रहा था।” जब बाणभट्ट विनयपूर्वक इसका विरोध करता है तो भट्टिनी उत्तर देती है: “मुझे इतना अधिकार मिलना चाहिए भट्ट, कि अपनी बुद्धि से निर्णय कर सकूँ कि कौन सा गौरव किसे मिलना चाहिए।”भट्टिनी के इस उत्तर में भारतीय नारी का अपने अधिकारों के प्रति सचेत होकर सोचने का संकेत मिलता है।

सेवा भावी सम्मोहन की क्लान्ति से रुग्ण बाणभट्ट की परिचर्या में भी भट्टिनी एक आदर्श भारतीय नारी की भूमिका निभाती है। बाणभट्ट के देर तक बाहर बैठने का निषेध करती हुई भट्टिनी कहती है–‘भट्ट, दुर्बल शरीर लेकर रात भर बाहर बैठना तो उचित नहीं है।’ वह उसे भीतर जाकर सोने का आदेश देकर चली जाती है। यहाँ भी नारी का भव्य वत्सल रूप प्रकट हुआ है।

द्विवेदी जी भी मानते हैं कि जो प्रेम लोकमंगल के भाव और कर्तव्यबोध से सम्पन्न नहीं होता, वह एकांगी और क्षणिक होता है। भट्टिनी का बाणभट्ट के प्रति प्रेम लोकमंगल, अपितु विश्वमंगल, की भावना से जुड़कर अत्यन्त मनोहर बन गया है। भट्टिनी की कामना है कि भारतवर्ष बार बार कूर और आततायी ‘प्रत्यन्त दस्युओं · से पादाक्रान्त न हो, उनके द्वारा स्त्रियों और बच्चों का, ब्राह्मणों और श्रमणों का, वृद्धों और बालिकाओं का संहार न हो, मन्दिरों और विहारों का ध्वंस न हो, ग्राम और नगर जला कर भस्मीभूत न किए जाएँ। महामाया इस समस्या के समाधान के लिए जनजागरण का सन्देश देती हैं। भट्टिनी महामाया से सहमत है कि ‘राजाओं और राजपुत्रों की ओर ताकते रहने से आर्यावर्त का उद्धार नहीं होगा।’ पर उसकी दृष्टि में यह अर्ध सत्य है। वह एक ऐसे विश्व की कल्पना करती है कि जिसमें युद्ध हो ही नहीं। वह इस सत्य को सामने रखना चाहती है कि ‘यवन’ और भारतवासी दोनो ही मनुष्य हैं। महामाया जिन्हें यवन कह रही हैं, भट्टिनी की दृष्टि में वे भी मनुष्य हैं, “भेद इतना ही है कि उनमें सामाजिक ऊँचनीच का ऐसा भेद नहीं है। जहाँ भारतवर्ष के समाज में एक सहस्र स्तर हैं वहाँ उनके समाज में कठिनाई से दो तीन होंगे। वह बाणभट्ट से कहती है–” तुम उनके दुर्द्धर्ष रूप को जानते हो, उनके कोमल हृदय को एकदम नहीं जानते। क्यों भट्ट, ऐसा क्या नहीं हो सकता कि ऊँची भारतीय साधना उन तक पहुँचायी जा सके और निकृष्ट सामाजिक जटिलता यहाँ से हटायी जा सके। जब तक ये दानो बातें साथ साथ नहीं हो जाती तब तक शाश्वत शान्ति असम्भव है।”

वह बाणभट्ट से इसी ‘पूर्ण सत्य’ का प्रचार करने को कहती है। भट्टिनी को भारतीय भागवत धर्म में यह पूर्णता दिखाई देती है। वह बाणभट्ट से कहती है–” तुम इस म्लेच्छ कही जाने वाली निर्दय जाति के चित्त में समवेदना का संचार कर सकते हो,उन्हें स्त्रियों का सम्मान करना सिखा सकते हो,बालकों को प्यार करना सिखा सकते हो।” वह एक गहरी पीड़ा के साथ कहती है–“एक जाति दूसरी को म्लेच्छ समझती है, एक मनुष्य दूसरे को नीच समझता है, इससे बढ़ कर अशान्ति का कारण और क्या हो सकता है भट्ट ! तुम्ही ऐसे हो जो नरलोक से लेकर किन्नर लोक तक व्याप्त एक ही रागात्मक हृदय, एक ही करुणायित चित्त को हृदयंगम करा सकते हो।” आरम्भ में बाणभट्ट इस बात को पूरी तरह से समझ नहीं पाता, उसके मन में इसकी सफलता को लेकर संशय है। पर वह भट्टिनी के प्रति इस हद तक समर्पित है कि उसके अनुरोध को आदेश मानकर स्वीकार कर लेता है। भट्टिनी भी उसके प्रति अपना अनुराग, तनिक अधिक स्पष्ट शब्दों में व्यक्त करती है: “ तुम क्या समझते हो कि मैं रानी की मर्यादा पाने से सन्तुष्ट हो गयी हूँ? ना भट्ट, तुम्हारी इस पवित्र वाक् स्रोतस्विनी में स्नान करके ही मैं पवित्र हुई हूँ।” (पृ. 274) वह यहाँ तक कह जाती है कि हमारे तो सर्वस्व तुम्ही हो। और अन्त में आर्यावर्त को बचाने के लिए, मनुष्य जाति को बचाने के लिए भट्टिनी और बाणभट्ट एक हो जाते हैं और इस उद्देश्य के निमित्त स्वयं को समर्पित कर देते हैं। व्यापक लोकमंगल की भावना में प्रेम की यह परिणति मानव आदर्श का जीवन्त रूप है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार धर्म का अर्थ आँख मूंदकर कर्तव्य पालन करना नहीं है। उन्होंने कंचुकी वाभ्रव्य के प्रसंग द्वारा इस बात का अत्यंत प्रभावशाली चित्रण किया है। कंचुकी का काम अंत:पुर की कुलवधुओं की रक्षा करना है लेकिन दो बार उससे इस कर्तव्य का । पालन नहीं होता। वह भट्टिनी से कहता है “प्रीत हूँ बेटी, आज मेरा परिताप धुल गया है। मौखरियों के अन्त:पुर की मानरक्षा न कर सकने का क्षोभ आज मेरे मन से दूर हो गया है। बीस वर्ष से मैंने कंचुक धारण किया है। इस लम्बी अवधि में केवल दो बार मुझे कर्तव्य से च्युत होने का अपराध स्वीकार करना पड़ा है। पर त्रिपुरभैरवी की कुछ ऐसी विचित्र माया रही है कि दोनो ही बार मेरे अपराधों से बृहत्तर जगत् को लाभ हुए हैं।

भट्टिनी की घटना के पूर्व मौखरि राजा ग्रहवर्मा के अन्त:पुर से उसकी रानी महामाया संन्यास धारण कर निकल गयी थी और वाभ्रव्य ने उसे जाने की अनुमति दे दी थी। दोनो बार वह अपने धर्म के पालन में अक्षम रहा, पर इससे जगत् का कल्याण ही हुआ। भट्टिनी और महामाया की मुक्ति से ही भारतवर्ष की हूणों के आक्रमण से रक्षा हुई। दोनो के साथ ही घोर सामाजिक अन्याय हुआ था। दोनो अन्याय पीड़ित थीं। पर वाभ्रव्य को लगा था कि वह अपने धर्मपालन में अक्षम . रहा है। पहली घटना के समय धूमेश्वरी मन्दिर के योगी ने उससे कहा था– “जिस दिन तुझे मालूम हो जाएगा कि जिसे तू धर्म समझ रहा है वह अधर्म है और जिसे अधर्म समझ रहा है वह धर्म है, उस दिन तू त्रिपुरसुन्दरी का साक्षात्कार पा सकेगा।” वस्तुत: धर्म और अधर्म की बँधी लकीरों पर चलना धर्म नहीं है। वह धर्म का दिखावा है, ढोंग है। वाभ्रव्य भट्टिनी से गद्गद स्वर में कहता है– “मैं आज स्पष्ट देख रहा हूँ कि जितने बँधे बँधाए नियम और आचार हैं, उनमें धर्म अँटता नहीं। वह नियमों से बड़ा है, आचारों से बड़ा है। मैं जिनको धर्म समझता रहा वे सब समय और सभी अवस्था में धर्म ही नहीं थे. जिन्हें अधर्म समझता रहा वे सभी समय और सभी अवस्था में अधर्म नहीं कहे जा सकते। योगी ने मुझे बताया था कि जिस दिन तू धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म समझ लेगा उसी दिन त्रिपुरसुन्दरी का साक्षात्कार पा सकेगा।”

भारतीय दृष्टि में ‘सत्य’ का स्वरूप क्या है, इसका स्पष्टीकरण भी एक स्थान पर, प्रसंगवश, किया गया है। कुमार कृष्णवर्द्धन भट्टिनी और निपुणिका को राजकोप से बचाने के लिए ‘असत्य’ को साधन के रूप में अपनाते हैं। इसका स्पष्टीकरण करते हुए वे बाणभट्ट से कहते हैं– “इतिहास साक्षी है कि देखी-सुनी बात को ज्यों का त्यों कह देना या मान लेना सत्य नहीं है। सत्य वह है जिससे लोक का आत्यन्तिक कल्याण होता है। ऊपर से वह जैसा भी झूठ क्यों न दिखाई देता हो, वही सत्य है। लोक कल्याण प्रधान वस्तु है। वह जिससे सधता हो, वही सत्य है। आचार्य आर्यदव ने सबसे बड़े सत्य को भी सर्वत्र बोलने का निषेध किया है। औषध के समान अनुचित स्थान पर प्रयुक्त होने पर सत्य भी विष हो जाता है।

संस्कृति और समन्वयात्मकता

बाणभट्ट की आत्मकथा में भारतीय संस्कृति के स्वरूप की चर्चा भी अनेक प्रसंगों में आयी है। भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी समन्वयात्मकता मानी जाती है। वैदिक काल से लेकर आज तक भारतीय संस्कृति अनेक समान और परस्पर विरोधी विचारों के संयोग और घात प्रतिघात से अपना रूप ग्रहण करती रही है। ब्राह्मण और श्रमण संस्कृतियाँ तो भारत में बहुत प्राचीन काल से साथ साथ चलती आयी हैं। दोनो में विरोध कम नहीं रहा है, पर उनमें समन्वय भी होता रहा है। बौद्ध और जैन धर्म के अनेक तत्व ब्राह्मण संस्कृति ने अपनाए जरूर हैं, लेकिन समानता, स्वतंत्रता और न्याय, जो कि बौद्ध और जैन धर्म के मूलभूल तत्व हैं, हिंदू धर्म और ब्राह्मण संस्कृति ने कभी भी नहीं अपनाए। आज भी स्वतंत्र भारत में जन्म के आधार पर ही इन्सान की जाति का निर्धारण होता है और उसके आधार पर समाज में सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक स्थिति भी तय होती है। हिंदू धर्म जिस असमानता, भेदभाव और जाति व्यवस्था में विश्वास करता है, उससे समन्वयात्मक संस्कृति का निर्माण होने में आज भी बाधाएं उत्पन्न हो रही है। समन्वय ही भारतीय संस्कृति की धरोहा रही है और जहाँ कहीं इस समन्वयात्मक विचारों में दरार आई है, जनजीवन को दु:खों और संकटों का सामना करना पड़ा है। बाणभट्ट की आत्मकथा में भारतीय संस्कृति के इस केन्द्रीय पक्ष को महत्व दिया गया है।

पाँचवी-छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म से ही वाममार्गी साधनाएँ भी विकसित हो गयी थीं। सौगत तन्त्र उन्हीं में से एक था जो नैरात्म्य भावना की साधना पर बल देता था। इस साधना में ‘तुम और मैं’, ‘स्त्री और पुरुष’, ‘बुद्ध और बद्ध’ का भेद त्यागने तथा अपने प्रिय से प्रिय व्यक्ति को भी त्याग सकने के साहस की आवश्यकता होती थी।बाणभट्ट की आत्मकथा में विरतिवज्र (अमितकान्ति) इस साधना के योग्य सिद्ध नहीं होता, क्योंकि उसने अपनी पत्नी और असहाय माता को त्याग कर वैराग्य धारण किया है और उनके मोह-जाल को काटने में वह समर्थ नहीं है। अत: सौगत तन्त्र के साधक अमोघवज्र, जिनका वह शिष्य है, उसे कौलाचार्य अघोर भैरव के पास भेजते हैं। अवधूत अघोर भैरव विरतिवज्र को कौल मार्ग के योग्य तो समझते हैं, पर इस मार्ग में शक्ति (स्त्री) के बिना साधना नहीं हो सकती। विरतिवज्र की पत्नी सुचरिता उनके साथ नहीं है। उपन्यास में कौल साधना का पर्याप्त विस्तार के साथ वर्णन किया गया है। यह साधना भी गुह्य है, जिसमें मदिरा सेवन, मन्त्रजाप, शवसाधना, शक्ति साधना आदि की प्रधानता है। पर इस साधना मार्ग के गुरु, अघोर भैरव, के चरित्र में एक महान सन्त के सारे गुण विद्यमान हैं। वे सच्चे साधक हैं। उनमें मनुष्य के प्रति अगाध करुणा का भाव है। ब्राह्मण धर्म और वैदिक अनुष्ठानों में उनका विश्वास नहीं ‘है, क्योंकि उनमें पाखंड की प्रधानता हो गयी है। अघोर भैरव इस पाखंड के विरोधी हैं। वे बाणभट्ट को उपदेशित करते हैं कि “डरना नहीं चाहिए। जिस पर विश्वास करना चाहिए, उस पर पूरा विश्वास करना चाहिए, चाहे परिणाम जो हो। जिसे मानना चाहिए, उसे अन्त तक मानना चाहिए। (पृ.80) वे फिर कहते हैं–” देख रे, तेरे शास्त्रं तुझे धोखा देते हैं। जो तेरे भीतर सत्य है, उसे दबाने को कहते हैं ; जो तेरे भीतर मोहन है, उसे भुलाने को कहते हैं ; जिसे तू पूजता है, उसे छोड़ने को कहते हैं।(पृ.82) वे अमंगल से भयभीत बाणभट्ट से कहते हैं, ” तू अमंगल को मंगल क्यों नहीं मान लेता?” वे उसे फिर समझाते हैं–” देख बाबा, भटकता न फिर। इस ब्रह्मांड का प्रत्येक अणु देवता है। देवता ने जिस रूप में तुझे सबसे अधिक मोहित किया है, उसी की पूजा कर ।”

वे बाणभट्ट को मन्त्र देते हैं–” किसी से न डरना, गुरु से भी नहीं, मन्त्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।”(85) अघोर भैरव का कहना है कि प्रवृत्तियों से डरना भी गलत है, उन्हें छिपाना भी ठीक नहीं और उनसे लज्जित होना बालिशता है। बाणभट्ट को उनका आदेश है कि ‘त्रिभुवन मोहिनी ने तुझे जिस रूप में मोह लिया है उसी रूप की पूजा कर, वही तेरा देवता है।’ विरतिवज्र को वे श्रीपर्वत के वैष्णव तान्त्रिक वेंकटेश भट्ट के पास भेजते हैं, जो पहले उड्डियानपीठ में सौगत तन्त्र की साधना करते थे और वहाँ से वे श्रीपर्वत पर चले गये थे। उन्होंने कई साधना-मार्गों के तत्त्वों को मिलाकर एक नये भक्ति मार्ग की साधना का विकास किया था। इस साधना में वासुदेव नारायण की पूजा, नाम कीर्तन और समर्पण भाव की . . प्रधानता है। वे नाम कीर्तन करते करते भावमग्न होकर नाच उठते हैं और संज्ञाहीन-तक हो जाते हैं। उनकी साधना समन्वय की साधना है, जिसमें शैव, शाक्त, वैष्णव आदि साधना मार्गों का मिश्रण है। इस उपासना के बारे में सुचरिता बताती है : “मैं भी नहीं समझती . आर्य, परन्तु इतना जानती हूँ कि आज से तीन महीने पूर्व तक मैं अपने को पापलिप्त समझती थी। अब मेरे चित्त का यह विकल्प दूर हो गया है।” उसके अनुसार “मानव देह केवल दंड भेगने के लिए नहीं बनी है, आर्य ! यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है। यह नारायण का पवित्र मन्दिर है।“ “समस्त गुण और अवगुण जब तक निर्विकार चित्त से  नारायण को नहीं सौंप दिये जाते, तब तक वे भारमात्र हैं।”

ब्रह्मांड के प्रत्येक अणु को देवतां समझने, किसी से भी न डरने, अमंगल को भी मंगल मान .. लेने, स्वाभाविक वृत्तियों का, मन के भीतर के सत्य का दमन न करने, अपने उपास्य पर . अखंड विश्वास करने, उसके प्रति निष्काम भाव से समर्पित होने आदि के विचार भारतीय संस्कृति के प्रमुख स्वर हैं, जिनका बाणभट्ट की आत्मकथा में मनोहर प्रसंगों के माध्यम से प्रतिपादन किया गया है।

इस प्रकार बाणभट्ट की आत्मकथा में भारतीय जीवन दृष्टि के अनेक पक्षों का सुन्दर अंकन किया गया है।

बाणभट्ट की आत्मकथा : संरचना और शैली

उपन्यास एक कलावस्तु है। ललित कला के पाँच प्रमुख भेदों में एक साहित्य कला भी है और उपन्यास साहित्य की ही एक विधा है। उपन्यास भी, साहित्य की ही तरह, शब्दों की कला है। उपन्यास एक ऐसी कला है जिसमें उपन्यासकार की संवेदना , उसके अनुभव और विचार, . शब्दों के माध्यम से अभिव्यक्त होते हैं। उपन्यासकार के द्वारा प्रयुक्त शब्द पाठक के मानस में एक रचना संसार का निर्माण करते हैं। वह रचना संसार पाठक के मन में ही निर्मित होता . . है। उपन्यास पढ़ते समय आप अनुभव करते होंगे कि जैसे-जैसे आप शब्द, वाक्य, पैराग्राफ : और पृष्ठ दर पृष्ठ पढ़ते जाते हैं आपके मन में एक रचना संसार भी निर्मित होता चलता है, और जब आप पूरी किताब पढ़ जाते हैं तब आपके मानस में एक पूरा कथा संसार रच जाता है। उस कथा संसार का, आपकी चेतना के बाहर, कोई अस्तित्व नहीं होता। फिर भी आप अनुभव करते होंगे कि, अगर वही नहीं, तो एक वैसा ही संसार आपके आसपास, चारो ओर, अवश्य विद्यमान है। यही उपन्यास की कलावस्तु के रूप में पहचान है।

बाणभट्ट की आत्मकथा की अगली समस्या कथा संसार की प्रस्तुति की प्रविधि से सम्बद्ध है। प्रत्येक उपन्यासकार के सामने एक चुनौती भरा प्रश्न यह होता है कि वह अपने कथा संसार को … . किस अवलोकन बिन्दु से प्रस्तुत करे। ऐतिहासिक उपन्यास की पूर्वप्रचलित प्रविधि किस्सागोई की … है, पर द्विवेदी जी ने इसे नहीं चुना है। किस्सागोई की प्रविधि में किस्सागो की वर्तमानता, . सर्वज्ञता, स्वेच्छाचारिता आदि के कारण एक तरह का सन्देह या अविश्वसनीयता का वातावरण बना रहता है। पर जब कथा- का कोई पात्र ही किस्सागो की भूमिका ग्रहण कर लेता है और आत्मकथा के रूप में कहानी प्रस्तुत करता है तो उसमें प्रामाणिकता-बोध की मात्रा बढ़ जाती है। यद्यपि प्रबुद्ध पाठक यह जानता है कि कथा कहने वाला अन्तत: उपन्यासकार ही है पर केन्द्रीय पात्र के माध्यम से कथा की प्राप्ति होने से उसकी विश्वसनीयता बढ़ जाती है। यह अप्रत्यक्ष रूप में कथा प्रस्तुति का एक चरण है। पर द्विवेदी जी इतने से ही सन्तोष नहीं करते। उपन्यास के ‘कथामुख’ में पाठक को बताया जाता है कि शान्तिनिकेतन में आठ वर्षों तक रहने वाली आस्ट्रियावासी मिस कैथराइन व्योमकेश शास्त्री को (जो द्विवेदी जी का ही छद्म नाम है) एक पांडुलिपि देती हैं जो कथित रूप से बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’ है। पर वस्तुत: व्योमकेश शास्त्री को भ्रम हुआ है, जिसे मिस कैथराइन अपने पत्र द्वारा दूर करती हैं। वह, दरअसल, एक कल्पित कथा है। मिस कैथराइन के अनुसार “बाणभट्ट की आत्मा शोणनद के प्रत्येक बालुका कण में वर्तमान है।” उसी ‘आत्मा की आवाज’ को स्वयं मिस कैथराइन ने शब्दबद्ध किया है। वे अपने उसी पत्र में कहती हैं : “ ‘बाणभट्ट केवल भारत में ही नहीं होते, इस नर लोक से किन्नर लोक तक एक ही रागात्मक हृदय व्याप्त है।” वस्तुत: बाणभट्ट की भट्टिनी मिस कैथराइन ही हैं। पता नहीं उनका ‘बाणभट्ट’ कौन है? व्योमकेश शास्त्री ने ठीक ही अनुमान किया है कि दीदी ने अपने उसी कवि प्रेमी की आँखों से अपने को देखने का प्रयत्न किया है। यह एक नया प्रयोग है। अपने प्रेमी की आँखों से खुद को देखने का प्रयोग नया और चुनौती पूर्ण तो है ही। व्योमकेश शास्त्री के अनुसार “ काव्य की और धर्म साधना की दुनिया में जो कल्पना थी उसे दीदी ने अपने जीवन में सत्य करके दिखा दिया।”

इस प्रसंग में एक मौलिक प्रश्न यह भी उठता है कि क्या यह प्रेम संवेदना स्वयं द्विवेदी जी की ही नहीं है? वस्तुत: यह प्रेमानुभूति है तो स्वयं उपन्यासकार की ही पर उसने इसे मिस कैथराइन पर आरोपित कर दिया है। मनुष्य का हृदय बड़ा रहस्यमय और उसकी संवेदना बड़ी जटिल होती है। बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’ इसका प्रमाण है।

‘आत्मकथा’ का आरम्भ संस्कृत के एक श्लोक से होता है। चूँकि ‘आत्मकथा’ बाणभट्ट जैसे महान् संस्कृत रचनाकार की है, अत: इसका कलागत औचित्य है। किन्तु जब बाणभट्ट अपनी ‘कहानी’ कहने लगता है तो उसकी भाषा बहुत सरल और कथन-शैली पाठक से गहरी आत्मीयता पैदा करने वाली हो जाती है। उपन्यास की आरम्भिक पंक्तियाँ हैं : यद्यपि बाणभट्ट नाम से ही मेरी प्रसिद्धि है ; पर यह मेरा वास्तविक नाम नहीं है। इस नाम का इतिहास लोग न जानते, तो अच्छा था। मैंने प्रयत्नपूर्वक इस इतिहास से लोगों को अनभिज्ञ रखना चाहा है ; पर नाना कारणों से अब मैं उस इतिहास को अधिक नहीं छिपा सकता। मेरी लज्जा का प्रधान कारण यह है कि मेरा जन्म जिस प्रख्यात वात्स्यायन वंश में हुआ है,उसके धवलकीर्ति-तट पर यह कहानी एक कलंक है। मेरे पितृ-पितामहों के गृह वेदाट यायियों से भरे रहते थे। उनके घर की शुक-सारिकाएँ भी विशुद्ध मन्त्रोच्चारण कर लेती थीं, और यद्यपि लोगों को यह बात अतिशयोक्ति अँचेगी, परन्तु यह सत्य है कि मेरे पूर्वजों के विद्यार्थी उनकी शुक-सारिकाओं से डरते रहते थे। वे पद पद पर उनके अशुद्ध पाठों को सुधार दिया करती थीं।“ यह भाषा संस्कृत के तत्सम शब्दों से निर्मित है, पर वाक्य सरल और छोटे छोटे हैं। इस पूरे उद्धरण में संयुक्त और मिश्र वाक्यों की संख्या एक-दो से ज्यादा नहीं है। यह सही है कि कथा कहते कहते बाणभट्ट का कवि रूप प्राय: उच्छ्वसित हो उठता है, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकार बरबस अपनी छटा दिखाने लगते हैं पर । कहानी की प्रवहमानता और बोधगम्यता में कोई बाधा नहीं पड़ती। उदाहरण के लिए यह अंश देखा जा सकता है : मेरे पिता ग्यारह भाई थे। मैंने उनमें सबको नहीं देखा था। मेरे एक चचेरे भाई का नाम उडुपति था। उम्र में मुझसे बहुत बड़े थे, पर मेरे साथ उनका व्यवहार समवयस्कों के समान ही था। वे अपने युग के प्रसिद्ध तार्किक थे। उन्होंने ही वसुभूति नामक बौद्ध भिक्षु को शास्त्रार्थ में पराजित किया था।  कथा के बीच में भोजपुरी शब्दों और मुहावरों को टपका कर द्विवेदी जी भाषा को अद्भुत रूप से जीवन्त बना देते हैं। बाणभट्ट का जन्मस्थान तो भोजपुरी क्षेत्र में था ही। उदाहरण द्रष्टव्य है : मैं जब घर से निकल भागा था तो अपने साथ गाँव के अन्य छोकरों को भी फोड़ ले गया था। वे सब अन्त तक मेरे साथ नहीं रहे, तो भी मैं गाँव में बदनाम तो हो ही गया था। मगध की बोली में ‘बंड’ पूँछ कटे बैल को कहते हैं। वहाँ यह कहावत मशहूर है कि बंड’ आप आप गये साथ में नौ हाथ का पगहा भी लेते गये। सो लोग मुझे बंड’ कहने लगे।

पर ज्योंही कथा स्थगित होती है, किसी बिन्दु पर ठहरती है और किसी वर्णन का प्रसंग उपस्थित होता है कविप्रवर बाणभट्ट की कल्पना, अलंकृत शैली और ध्वनिमूलक शब्दयोजना का घटाटोप उपस्थित हो जाता है। निम्नलिखित उद्धरण से इसकी पुष्टि होती है : जब मैं नगर में पहुंचा, तो बड़ी धूमधाम देखी। कूर्मपृष्ठ के समान उन्नतोदर राजमार्ग पर एक बड़ा भारी जुलूस चला जा रहा था। उसमें स्त्रियों की संख्या ही अधिक थी। राजबहुएँ शिविकाओं पर आरूढ़ थीं। साथ साथ चलने वाली परिचारिकाओं के चरणविघट्टनजनित नूपुरों के क्वणन से दिगन्त शब्दायमान हो उठा था। वेगपूर्वक भुजलताओं के उत्तोलन के कारण मणिजड़ित चूड़ियाँ चंचल हो उठी थीं। उनकी ऊपर उठी हथेलियों को देखने से ऐसा लगता था, मानो आकाशगंगा में खिली हुई कमलिनियाँ हवा के झोकों से विलुलित होकर नीचे उतर आयी हों। उनकी चंचल हार-लताएँ जोर जोर से हिलती हुई उनके वक्ष भाग से टकरा रही थीं, खुली हुई केशराशि सिन्दूर-बिन्दु पर अटक जाती थी।

उपन्यास में ऐसे स्थल भी हैं जहाँ प्रकृति वर्णन अत्यधिक काव्यात्मक और कदाचित् बोझिल भी हो गया है। यद्यपि बाणभट्ट की काव्यशैली को देखते हुए इसे असंगत नहीं माना जा सकता, पर संस्कृत न जानने वाले पाठकों के लिए यह किंचित् अबोधगम्य तो है ही। एक उदाहरण देखने लायक है : देखते देखते चन्द्रमा पद्म मधु से रंगे हुए वृद्ध कलहंस की भाँति आकाशगंगा के पुलिन से उदास भाव से पश्चिम जलधि के तट पर उतर गया। समस्त दिड्. मंडल वृद्ध रंकुमृग की रोमराजि के समान पांडुर हो उठा। हाथी के रक्त से रंजित सिंह के सटाभार की भाँति किंवा लोहित वर्ण लाक्षारस के सूत्र के समान सूर्यकिरणे आकाशरूपी वनभूमि के नक्षत्ररूपी फूलों को इस प्रकार झाड़ देने लगीं, मानो वे पद्मरागमणि की शलाकाओं से बनी हुई झाडू हों।

एक और उद्धरण है : विकसित मंजरियों के सौरभ से स्वयं आकृष्ट भ्रमरावली ने आम के वृक्षों को छा लिया था, पुष्प-धूलि के केसर-चूर्ण सघन भाव से वर्षित होकर वनभूमि को . पीत बालुकामय पुलिन के रूप में परिणत कर रहे थे; पुष्प मधु के पान से आमत्त भ्रमरियाँ विह्वल भाव से लतारूप प्रेखा-दोला पर झूला झूल रही थीं ; मत्त कोकिल लवली के विकसित पल्लवों के अन्तराल में लुक्कायित होकर पुष्पमधु निकाल रहे थे और इसीलिए उन पेड़ों के नीचे मधुवृष्टि सी हो रही थी; किसी किसी वृक्ष और लता से जीर्ण पुष्प गिर रहें . थे और भ्रमर-भार से जर्जरित उनके गर्भकेसरों से लतामंडप मनोरम हो उठे थे  यह परम्परागत कविता की भाषा है। ‘झाड़’,झाडू’,’झूला’ जैसे तद्भव शब्द तत्सम शब्दों के बीच आकर भाषा को सहजता के धरातल पर लाने का प्रयास करते हैं, पर यह भाषा, जो उपन्यास में बार बार सामने आती है, सामान्य पाठक के सामने समझ का संकट तो पैदा करती ही है।

इस प्रकार बारी बारी से कथा-वर्णन की सरल शैली और प्रकृति या नारी-सौन्दर्य वर्णन की अलंकृत शैली सामने आती है, जिसका सहृदय पाठक के चित्त पर गहरा प्रभाव पड़ता है। … सारा उपन्यास इसी प्रकार के वर्णनों से भरा पड़ा है। बीच-बीच में पाठक बाणभट्ट के मानस में प्रवेश करने का अवसर भी पाता है। इस प्रकार के मनोवैज्ञानिक क्षणों की भाषा स्वाभाविक और अलंकार-रहित है।. उदाहरणार्थ: मेरे मन में आज विचित्र उमंग थी। आज मानो मेरा सारा कलुष घुल गया था और मेरा मन तथा शरीर लघु-भार हो गये थे। मैं अब निश्चय कर चुका था कि अपनी लम्पटता की बदनामी को हमेशा के लिए धो दूंगा।

जहाँ विभिन्न प्रकार के भावों, विशेषकर प्रेम और भक्ति, के प्रसंग उपस्थित होते हैं वहाँ द्विवेदी जी की भाषा अद्भुत रूप से सर्जनात्मक हो जाती है; ऐसा प्रतीत होता है मानो कवि बाणभट्ट का ही उनके शरीर में प्रवेश हो गया हो। इस प्रकार के भावावेग से युक्त प्रसंग उपन्यास में भरे पड़े हैं और भाषा उनका साथ देने में कहीं चूकती नहीं दिखाई देती। विपत्ति की मारी, पान बेचती निउनिया (निपुणिका) का चित्रण उदाहरण के रूप में देखा जा सकता .. है : वह एक पान की दूकान पर बैठी थी। ऐसा लगता था कि वह पान कम बेच रही थी मुस्कान ज्यादा। मुझे अपनी पहचानने की शक्ति का गर्व था। मैं हँसी वाली रुलाई और रुलाई वाली हँसी पहचानने में अपने को सिद्धहस्त समझता था, पर यह हँसी एक विचित्र प्रकार की थी। उसमें आकर्षण था, पर आसक्ति नहीं थी, ममता थी, पर मोह नहीं था। वह पान लगा रही थी, पर यह अनाड़ी आदमी भी समझ सकता था कि उसके चित्त में कोई भयंकर उथल पुथल चल रही थी। बहुत दिनों के बाद पान पर फिरती हुई निपुणिता की शिथिल उँगलियों को देख कर मुझे एक अभूतपूर्व आह्लाद हो रहा था। निपुणिका के अधरों पर मुस्कान थी और आँखों में पानी। वह भी चुप थी। पान का एक बीड़ा एक घटी में लग सका। तब उसने मेरी ओर ताका । आँसू रुक न सके। वे झरते रहे, झरते रहे। मैं निर्वाक्, निश्चल देखता रहा। अश्रु फिर भी झरते रहे।

परस्परविरोधी. भावों की सटीक पहचान और उन्हें अभिव्यक्त करने वाली यह भाषा असाधारण है। इसी प्रकार महावाराह की पूजा में भावमग्न निपुणिका और उस भक्तिभाव में स्वयं भी अवश भाव से बहते बाणभट्ट की चित्तदशा का अंकन इन पंक्तियों में देखा जा सकता है : वह कुशासन पर बैठ गयी और महावाराह के सामने रुंधे गले से एक स्तोत्र-पाठ करने लगी। उसकी आँखों से निरन्तर आँसू झरते रहे। वक्षःस्थल पर का वासन्ती उत्तरीय इस अश्रुधारा में भींग गया। मैं यह दृश्य एकटक देखता रहा। निपुणिका धन्य है, महावाराह धन्य हैं, तुलसी धन्य हैं, और मैं अभागा बाण इन तीनो को देख रहा हूँ, सो धन्य ही हूँ। मुझे एक बार अपने गर्व की तुच्छता पर पश्चात्ताप हुआ। किसे आश्रय देने की बात मैं कह रहा था? निपुणिका को जो आश्रय मिला है, उसकी तुलना में मेरा आश्रय कितना तुच्छ, कितना नगण्य और कितना अकिंचन है। मेरे पुरुषत्व का गर्व, कौलीन्य का गर्व और पांडित्य का गर्व क्षण भर में भरभरा कर गिर गये। (पृ. 24)

‘छोटे राजकुल’ के अन्त:पुर में वन्दिनी भट्टिनी के तप:पूत, भक्तिभाव से आप्लावित सौन्दर्य का वर्णन भी अपनी मनोरमता में अद्वितीय है : इसी समय राजकन्या ने वीणा बजाना शुरू किया। धीरे धीरे वह अत्यन्त तन्मय हो गयी। मैने इस बार स्वाभाविक संकोच छोड़ कर इस कमनीयता की मूर्ति की ओर देखा। उसको देख कर अत्यन्त पतित व्यक्ति के हृदय में भी भक्ति उत्पन्न हुए बिना नहीं रह सकती। उसके सारे शरीर से स्वच्छ कान्ति प्रवाहित हो रही थी। अत्यन्त धवल प्रभापुंज से उसका शरीर एक प्रकार से ढंका हुआ-सा ही जान पड़ता था, मानो वह स्फटिक गृह में आबद्ध हो, या दुग्ध सलिल में निमग्न हो, या विमल चीनांशुक से समावृत हो, या दर्पण में प्रतिबिम्बित हो, या शरद्कालीन मेघपुंज में अन्तरित चन्द्रकला हो। . उसकी धवल कान्ति दर्शक के नयन मार्ग. से हृदय में प्रविष्ट होकर समस्त कलुष को । विलित कर देती थी, मानो स्वर्मन्दाकिनी की धवल धारा समस्त कलुष कालिमा का क्षालन  कर रही हो।

एकादश उच्छ्वास में बाणभट्ट के सम्मोहन-ग्रस्त होने और उसके बाद की स्थिति का अंकन है। यद्यपि भाषा बाणभट्ट की अलंकरण प्रधान भाषा ही है, पर उसमें उसकी अपनी मनोदशा को व्यंजित करने की अद्भुत क्षमता है : मेरा सारा शरीर एक प्रकार की अवश जडिमा से भाराकान्त हो रहा था। तीन दिन और तीन रात तक मैं संज्ञाहीन पड़ा रहा, और जब चैतन्य लाभ हुआ, तब भी स्वप्नावेश की मायाँ मेरे सारे अस्तित्व को अभिभूत किये रही। मैं मानो एक तरल मरुकान्तार में वृन्तच्युत तूल-खंड की भाँति उतरा रहा था।

भट्टिनी के कई दिनों तक जग कर अस्वस्थ बाणभट्ट की सेवा करते रहने के कारण उसकी थकी हुई मन:स्थिति का वर्णन भी वैसी ही समर्थ भाषा में किया गया है : सामने • भट्टिनी बैठी थीं। उनकी बड़ी बड़ी आँखें धंस गयी थीं, मुखमंडल पांडुर हो गया था और कपोलतल फीके पड़ गये थे। निश्चय ही कई दिनों से उन्हें नींद नहीं आयी थी। उनकी जागरणखिन्न लाल आँखें धूलितुंठित पलाश पुष्प की भाँति, आतप-म्लान, बन्धुजीव कुसुम के समान और पिंजरबद्ध खंजन शावक की भाँति दर्शक को व्यथित, खिन्न और उत्सुक बना देती थीं। भट्टिनी मेरे पैरों की ओर बैठी हुई निनिमेष भाव से मेरी ही ओर देख रही थीं। उस दृष्टि में कारुण्य धारा उमड़ रही थी। मैंने स्पष्ट ही लक्ष्य किया कि मेरी आँखों के खुलते ही भट्टिनी का रोम रोम उल्लसित हो गया, जैसे शोभा के समुद्र में अचानक ज्वार आ गया हो।

इसके बाद भट्टिनी की लज्जा और जड़िमा की मन:स्थिति का वर्णन है, जो उतना ही सशक्त और सहज-सटीक है : परन्तु भट्टिनी इसके लिए तैयार नहीं थीं। उन्हें शीघ्र ही मेरी संज्ञा के लौट आने की शायद आशा नहीं थी। वे कुछ झेंप सी गयीं। उनके पारिजात पल्लवों के .. समान सुकुमार-मनोहर हाथ तेजी से उत्तरीय की खोज में दौड़ पड़े। एक निमेष बीतते न बीतते भट्टिनी का कपोत-कर्बुर अंशुकान्त (आँचल) सीमान्त रेखा पर आ गया, मानो विद्युल्लता ने चन्द्रमा पर नील मेघपटल का आवरण डाल दिया हो, मानो मृणाल-नाल ने कमल पुष्प को पत्तों से ढंक दिया हो मुझे निषेध करने के लिए उन्होंने आयासपूर्वक अपने कोमल करतलों से मुझे दबाया। उनके मुख से केवल एक ही शब्द निकल सका–‘नहीं।’ उनका गला. रुंधा हुआ था, दृष्टि कातर थी और करतल. स्वेद-धारा से आर्द्र था। मुझमें तब भी उठने की शक्ति नहीं थी। मैंने आँखें मूंद लीं और भट्टिनी की स्नेह-मेदुर मुखश्री का ध्यान करने लगा। कहाँ भटक रहे हैं इस मर्त्यलोक के वातुल कवि? लक्ष्मी क्या स्वर्ग में रहती है? इस पृथ्वी पर ही तो वे अवतीर्ण हुई हैं। भट्टिनी से बढ़कर किस श्रीशालिनी की कल्पना हो सकी है?

कहना न होगा कि इस वर्णन में काव्य देह धारण कर उपस्थित हो गया है। और, यह कोई अकेला उदाहरण नहीं है। जहाँ भी उपन्यासकार को भट्टिनी के भावों के अंकन का अवसर मिलता है, उसकी भाषा अपनी शक्ति के शिखर पर पहुँच जाती है।

संवाद योजना

आत्मकथा के बीच बीच में संवादों की योजना भी अत्यन्त कलात्मक रूप में की गयी है। इन वार्तालापों में बाणभट्ट के साथ कोई दूसरा पात्र शामिल होता है। इन संवादों की भाषा अत्यन्त सहज, विदग्धतापूर्ण, संवादरत पात्रों के मनोभावों की व्यंजक, संकेतपूर्ण और .. कौतूहलोत्पादक है। ये वार्तालाप केवल पात्रों की मनोदशाओं को ही व्यक्त नहीं करते वरन् । कथा को आगे बढ़ाने में भी योग देते हैं। एक उदाहरण देखा जा सकता है :

‘निउनिया, कल सौभाग्य से मुझसे तेरी मुलाकात हो गयी थी।

हो भट्ट !’

‘मैं सोचता हूँ कि कहीं तू अकेली ही भट्टिनी को लेकर इधर आयी होती, तो

कितना कष्ट होता।

‘सो तो होता ही।

‘इस समय मैं जो कुछ कह रहा हूँ उस समय उतना भी तो नहीं हो पाता !

‘ ‘इतना तो हो जाता भट्ट !’

कौन करता भला?

‘ ‘पुजारी !’

‘पुजारी? पर तू तो पुजारी से डरी हुई थी निउनिया !

‘ ‘पुजारी जैसे मूर्ख रसिकों से डरती, तो निउनिया आज से छ: वर्ष पहले ही मर गयी होती

भट्ट !’

‘पर तू प्रत्यूष काल में डरी हुई जरूर थी।’

सो तो थी ही। ‘

तो तू किससे डरी थी भला?’

‘तुमसे !’

‘मुझसे?’

‘हाँ भट्ट, तुमसे !

‘तो मुझसे क्यों डरी थी, निउनिया !’

‘क्या बताऊँ, भट्ट! मेरे जैसी स्त्री तुम्हारे जैसे पुरुष से क्यों डरती है, यह बात अगर आज तक तुम्हारी समझ में नहीं आयी तो अब नहीं आएगी।’

इस संवाद का सौन्दर्य अपने आप में अनूठा है। बाणभट्ट से संवाद करती निपुणिका की भाषा में सर्वत्र एक लीला और चुहल का भाव दिखाई देता है। इसका कारण यह है कि वह बाणभट्ट से प्रेम भी करती है और उसके प्रति श्रद्धा भी रखती है। छह वर्षों के घोर प्रायश्चित्त से उसके प्रेम में एक ऐसी स्थिरता आ गयी है, जो डिगने वाली नहीं।

बाणभट्ट की आत्मकथा के अधिकतर संवादों में बाणभट्ट समान रूप से विद्यमान रहता है, पर अन्य पात्र बदलते रहते हैं। आत्मकथा की प्रविधि में कही गयी कथा में यही स्वाभाविक भी है। फिर भी बाणभट्ट की भाषा में एकरसता नहीं है। उसकी भाषा उसकी मन:स्थितियों के अनुरूप परिवर्तित होती रहती है। जहाँ वह भट्टिनी से बात करता होता है, उसकी भाषा में श्रद्धा, कृतज्ञता और विह्वलता का आवेग होता है। निपुणिका से बात करते समय उसकी मन:स्थिति अभिभावक और वरिष्ठ सखा की होती है। पर जहाँ उसे किसी ऐसे व्यक्ति से बात करनी होती है, जो भट्टिनी का समुचित समादर नहीं करता, वहाँ उसकी भाषा में अद्भुत ओज, आत्मविश्वास, आत्मगौरव, भयहीनता, स्पष्टवादिता और उत्तेजना का भाव आ जाता है.। एक ऐसा ही प्रसंग बाणभट्ट और कुमार कृष्णवर्धन के वार्तालाप का है। इस संवाद का एक ओजदृप्त अंश है : कुमार, साम्राज्य गर्व में अन्धे न बनो। स्थाण्वीश्वर ने राजलक्ष्मी का अपमान किया है। और, ब्राह्मण पर तुम्हारा कोप व्यर्थ है। वह न भिखारी होता है न सान्धिविग्रहिक। वह धर्म का व्यवस्थापक होता है। मैंने जो कुछ किया है, उससे न मैं लज्जित हूँ, न मेरा ब्राह्मणत्व कलुषित हुआ है। मैं देवपुत्र तुवरमिलिन्द की मर्यादा का पूर्ण जानकार हूँ और निर्भय भाव से फिर कहता हूँ कि स्थाण्वीश्वर के राजवंश ने अपने को पूज्य-पूजन के अयोग्य सिद्ध किया है।

बाणभट्ट और वृद्ध ब्राह्मण  बाणभट्ट और भट्टिनी, बाणभट्ट और सामनेर , बाणभट्ट और अवधूत अघोर भैरव (पृ. 80) आदि के वार्तालापों में भी पात्रों के मानसिक भावों की ऐसी सूक्ष्म अभिव्यक्ति हुई है। जहाँ वृद्ध ब्राह्मण की भाषा में काशीवासियों का स्वाभिमान और लीला भाव है, वहाँ भट्टिनी की भाषा में आभिजात्य के साथ-साथ स्त्रीसुलभ सौकुमार्य, संकोच और शालीनता है। भट्टिनी के मनोभावों के अंकन में बाणभट्ट के माध्यम से द्विवेदी जी ने अपने अद्भुत भाषा सामर्थ्य का परिचय दिया है। अघोर भैरव की वाणी में साधना की परिपक्वता, सन्त का सात्विक स्वभाव, अक्खड़ता और चुहल का भाव बड़े मनोरम रूप में अभिव्यक्त हुआ है।

उपन्यास में कुछ संवाद ऐसे भी हैं जिनमें बाणभट्ट स्वयं तो शामिल नहीं है, पर ये संवाद उसके सामने होते हैं या वह उन्हें सोने का बहाना बना कर सुन रहा होता है। जो संवाद उसके सामने होते हैं, वे प्राय: छोटे होते हैं, पर उनका चुटीलापन और व्यंग्य मन को मोहे बिना नहीं रहता। एक प्रसंग में बाणभट्ट छद्मवेश में निपुणिका के साथ ‘छोटे राजकुल’ के अन्त:पुर में जा रहा है। उसके सामने निपुणिका और एक मदमत्त दासी के बीच जो वार्तालाप होता है, वह द्रष्टव्य है : “ निपुणिका को अवसर मिल गया। बोली– उसे न छेड़ मित्तिया, गाँव से नयी-नयी आयी है, अभी यहाँ की रीति नीति नहीं जानती।’ मित्तिया जोर से हँस पड़ी। दो दिन में सीख जाओगी लली, न जाने कितनी आँखों पर नाचती फिरोगी ! इस संवाद में ‘लली’ शब्द का प्रयोग कितना लीलापूर्ण है, इसे कोई सहृदय ही समझ सकता है।

एक अक्षर वाले शब्द ‘ना’ में कितनी शक्ति भरी जा सकती है इसका उदाहरण है एक प्रसंग में भट्टिनी द्वारा उच्चरित यह शब्द। प्रसंग है, बाणभट्ट और निपुणिका के सम्मोहन-ग्रस्त होकर अस्वस्थ हो जाने पर महामाया द्वारा उनके उपचार के बाद अपने आश्रम जाने का। इस बीच भट्टिनी ने भैरवी महामाया को माँ के रूप में मोहबद्ध कर लिया है। महामाया इस मोह का त्याग कर अपने गुरु के पास जाना चाहती हैं। वे भट्टिनी से कहती हैं : “….बिलकुल चिन्ता मत कर बिटिया, आज भट्ट की नाड़ियाँ स्वस्थ हैं, कलाएँ उबुद्ध हैं, द्वार रुद्ध हैं अभी इसकी आँखें खुली जाती हैं। निपुणिका में अभी देर है। घबराती नहीं है न! –छि:, ऐसा भी व्याकुल हुआ जाता है।

भट्टिनी ने केवल रुद्ध कंठ से कहा–‘ना !

महामाया पुन: कहती हैं– ‘आज तो मुझे जाना होगा बेटी, अक्षय तृतीया में तो अब अधिक देर नहीं है। यहाँ तुझे कोई भय नहीं है। लोरिकदेव बड़ा धार्मिक सामन्त है। तुझे कोई कष्ट नहीं होगा। क्या कहती है, जाऊँ न ?’

भट्टिनी ने दृढ़ता के साथ संक्षेप में उत्तर दिया–‘ना !

इस प्रसंग में दो बार ‘ना’ का प्रयोग हुआ है। पहले प्रयोग में आश्वस्ति का, विश्वास का भाव व्यक्त हुआ है, तो दूसरे में विश्वास, अधिकार, प्रेम, विवशता, अस्वीकार, हठ और शिशुता का जो मिलाजुला भाव है, उसे कोई सहृदय ही समझ सकता है। इसके बाद भट्टिनी के यह कहने पर कि ‘मैं तप में विघ्न पैदा कर रही हूँ, माता ?’ महामाया स्नेह के स्वर में कहती हैं– ‘ना रे, ना ! यह तीन अक्षरों का अस्वीकार भी भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से संवेदनपूर्ण है।

विशिष्ट प्रसंग निर्मिति

उपन्यास के रूप में बाणभट्ट की आत्मकथा की श्रेष्ठता का एक आधार उसमें निर्मित मार्मिक प्रसंग भी हैं। उपन्यास में दर्जनों ऐसे प्रसंग हैं, जो पाठक को अभिभूत कर देते हैं। ये प्रसंग कहीं वर्णन के रूप में हैं, कहीं दृश्य के रूप में; कहीं संवाद के रूप में हैं, कहीं सबके मिलेजुले रूप में। नमूने के रूप में उपन्यास के अन्तिम प्रसंग की तनिक विस्तार से व्याख्या की जा सकती है। प्रसंग रत्नावली नाटिका के अभिनय का है। इस नाटिका में वासवदत्ता अपने पति से उसकी प्रेमिका का मिलन करा देती है। निपुणिका वासवदत्ता का अभिनय कर रही है। वह बाणभट्ट से प्रेम करती है। उसे यह ज्ञात हो चुका है कि भट्टिनी का भी । बाणभट्ट से अनुराग है। वह यह जान चुकी है कि बाणभट्ट उसके (निपुणिका के) प्रेम से भी उदासीन नहीं है। महामाया उसे यह भी बता चुकी हैं कि नारी की सफलता पुरुष को . बाँधने में है, सार्थकता उसे मुक्त करने में। निपुणिका बाणभट्ट को अपने प्रेम से जीत कर . सफलता प्राप्त कर चुकी है ; अब वह अपने जीवन को सार्थक करने का संकल्प करती है। वह “सम्मोहन के प्रतिप्रसव की क्लान्ति से, पहले से ही, अस्वस्थ है।

इस अस्वस्थता की स्थिति में ही वह वासवदत्ता की भूमिका में उतरने का फैसला करती है। वह देखती है कि नाटिका .. में वासवदत्ता ने दो विरोधी दिशाओं में जाने वाले प्रेम को एकसूत्र कर दिया है। उसके अनुसार प्रेम एक, और अविभाज्य है। उसे केवल ईर्ष्या और असूया ही विभाजित करके छोटा कर देते हैं। वह अपने प्रेम को इस कसौटी पर खरा उतारने के लिए आत्म बलिदान का रास्ता चुनती है। आर्य वाभ्रव्य ने उससे कहा था, ‘अपने को नि:शेष भाव से दे देना ही वशीकरण है।’ रत्नावली की वासवदत्ता में उसने वही वैशिष्ट्य देखा था। अत: वह अपना सर्वस्व, अपना जीवन ही, बाणभट्ट और भट्टिनी को दे देने का संकल्प करती है। वासवदत्ता की भूमिका में वह उन्माद बरसा देती है। उसके हर्ष, शोक और प्रेम के अभिनय में वास्तविकता सदेह उतर आती है। अन्तिम दृश्य में रत्नावली का हाथ राजा के हाथ में देते समय वह विचलित हो जाती है, सिहर जाती है। यहाँ वह केवल वासवदत्ता का अभिनय नहीं करती, बल्कि वासवदत्ता बन जाती है। उसके शरीर की एक एक शिरा शिथिल हो जाती है। भरत वाक्य समाप्त होते न होते वह धरती पर लोट जाती है और उसका प्राणान्त हो जाता है। उसका अभिनय सदा के लिए समाप्त हो जाता है। और बाणभट्ट अनुभव करता है कि ‘अभिनय करके जिसे पाया था, अभिनय करके ही उसे खो दिया।

पर द्विवेदी जी के प्रसंग-निर्माण की क्षमता इसके बाद सामने आती है। इस घटना से सभी अवसन्न हो जाते हैं। धावक जैसा मस्त और फक्कड़ कवि भी अभिभूत हो उठता है। जिस । मुखमंडल से केवल मस्ती और आनन्द उच्छवसित होते रहते थे उस पर प्रथम बार विषाद का धूम छा जाता है। कान्यकुब्ज की नगरश्री चारुस्मिता जब निपुणिका की चिता को जानुपातपूर्वक प्रणाम करती है तो धावक की आँखों के रुद्ध अश्रु बह चलते हैं। बाणभट्ट को ‘दिशाएँ शून्य मालूम पड़ती हैं, व्योममंडल कुलातचक की भाँति घूमता मालूम पड़ रहा है। भट्टिनी की दशा और भी चिन्तनीय है। उसकी आँखों में अश्रु नहीं थे, अन्तवर्ती शोकाग्नि ने उन्हें एकदमं सुखा दिया था। उनकी आँखें न जाने किस अनन्त की ओर उड़ जाने को व्याकुल थीं। भट्टिनी की मनोदशा का चित्रण उपन्यासकार ने यहाँ जिस सुकुमार ढंग से किया है, वह अद्भुत है। उसे किन्हीं दूसरे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। निपुणिका  के बलिदान की परिणति भी प्रेम के उदात्त रूप में होती है। सुचरिता बाणभट्ट से कहती है : ” निपुणिका धन्य हो गयी आर्य, उसकी चिन्ता छोड़ो। परन्तु उसका बलिदान तभी सार्थक , होगा जब तुम उसके दान का सम्मान करो। शोक मत करो। आर्य, भट्टिनी की सेवा करो, जो अनर्थ हो गया उसे नारायण का प्रसाद मानो। कुछ कल्याण ही होने वाला है। भट्टिनी . कह रही थीं कि नरलोक से लेकर किन्नरलोक तक एक ही रागात्मक हृदय के सन्धान का काम बीच में ही रुक गया ! क्यों रुकेगा आर्य ? निपुणिका के जीवन का बलिदान तभी सार्थक होगा जब यह सन्धान सफल हो।“और अन्त में इस प्रसंग का समापन बाणभट्ट और भट्टिनी के इस संकल्प से होता है कि वे मनुष्य जाति को महानाश से बचाने के लिए हिंस्र यवन जातियों में मानवीय संवेदना के विकास का प्रयास करेंगे।

बाणभट्ट की आत्मकथा में सुचरिता की कहानी का अपना महत्व है। हालांकि बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’ में इसका कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं दीखता। उपन्यास के समग्र विजन से भी सुचरिता की कथा अनिवार्यत: जुड़ी हुई नहीं प्रतीत होती। पर सम्भवत: तत्कालीन भारतीय धर्मसाधना के एक विशिष्ट स्वरूप को प्रस्तुत करने के लिए द्विवेदी जी ने इस कथा का समावेश उपन्यास में किया है। पाँचवी-छठी शताब्दी में वाममार्गी साधनाओं का बड़ा जोर था, जिसका प्रभाव धर्म और सामाजिक संरचना पर पड़ रहा था। इन साधनाओं में शक्ति (स्त्री), मदिरा, तन्त्र-मन्त्र, सम्मोहन, वशीकरण, अभिचार, नरबलि आदि का प्राधान्य था। द्विवेदी जी .. ने अघोर भैरव के रूप में एक ऐसे तान्त्रिक साधक का चित्रण किया है, जो अपनी वाममार्गी, तान्त्रिक साधना के बावजूद हमारी श्रद्धा का पात्र बना रहता है। महामाया भैरवी तो लोकहित से जुड़ कर और भी प्रीतिकर चरित्र बन जाती हैं। पर वाममार्गी साधना सामान्य जनता के लिए सुगम और सहजग्राह्य नहीं थी। वह अपनी प्रकृति में ही लोकविरोधी थी। इसी पृष्ठभूमि में भक्ति मार्ग का विकास हुआ। द्विवेदी जी ने इस लोकमुखी साधना के विकास के अंकन के लिए सुचरिता और विरतिवज्र की कथा की रचना की है। अमितकान्ति नाम का । एक युवक पहले सौगत अवधूत अमोघवज्र का शिष्य बनता है। उसका नया नामकरण होता है–विरतिवज्र। पर सौगत तन्त्र की नैरात्म्य भाव की साधना उससे नहीं होती। तब उसके गुरु उसे कौलाचार्य अघोर भैरव के पास भेजते हैं। किन्तु इस साधना के योग्य भी वह सिद्ध नहीं होता, क्योंकि वह ‘शक्ति’-हीन है।

कौल तन्त्र में ‘शक्ति’ स्त्री को कहते हैं। विरतिवज्र अपनी पत्नी को त्याग कर साधना के मार्ग में आया है। घटना-कम से अपनी पत्नी से तो उसका मिलन हो जाता है,पर अघोर भैरव उसे आचार्य वेंकटेश भट्ट के पास भेज देते हैं। आचार्य वेंकटेश भट्ट की साधना लोकमार्ग से जुड़ी हुई भक्तिमार्गी साधना है। विरतिवज्र और उसकी पत्नी सुचरिता दोनो उनके शिष्य बन कर एक. बिलकुल नये ढंग की साधना का … आरम्भ करते हैं जो सहज, लोकभावना के अनुकूल और परम्परागत भक्तिमार्ग से जुड़ी होने के कारण जनता में अत्यन्त लोकप्रिय हो जाती है। स्वयं अघोर भैरव का भी कहना है कि “प्रवृत्तियों से डरना भी गलत है, उन्हें छिपाना भी ठीक नहीं और उनसे लज्जित होना बालिशता है। वे बाणभट्ट से कहते हैं–“त्रिभुवनमोहिनी ने जिस रूप में तुझे मोह लिया है, .. उसी रूप की पूजा कर। वही तेरा देवता है।” अघोर भैरव की शिष्या और ‘शक्ति’ भैरवी महामाया भट्टिनी से कहती हैं–“नारीहीन तपस्या संसार की भद्दी भूल है। यह धर्मकर्म का .. विशाल आयोजन, सैन्य संगठन और राज्य व्यवस्थापन सब फेन-बुदबुद की भाषत विलीन हो : जाएँगे; क्योंकि नारी का इसमें सहयोग नहीं है।” (पृ.156) आचार्य वेंकटेश भट्ट की भक्ति . साधना इस विचार से भी जुड़ी हुई है। सुचरिता एक स्थान पर बाणभट्ट से कहती  ।

है–“मानव देह केवल दंड भोगने के लिए नहीं बनी है, आर्य ! यह विधाता की सर्वोत्तम सृष्टि है। यह नारायण का पवित्र मन्दिर है। यह प्रमाद है आर्य, कि यहारीर नरक का साधन है। यह बैकुंठ है! इसी को आश्रय करके नारायण अपनी आनन्द लीला प्रकट कर रहे हैं। . आनन्द से ही यह भुवनमंडल उद्भासित है। आनन्द से ही विधाता ने सृष्टि उत्पन्न की है। … आनन्द ही उसका उद्गम है, आनन्द ही उसका लक्ष्य है। लीला के सिवा इस सृष्टि का और क्या प्रयोजन हो सकता है, आर्य?” सुचरिता बाणभट्ट के शब्दों में ‘भक्तिमती : देवी है। उसकी प्रमुख चिन्ता है–‘मन बड़ा पापी है, कब वह मनुष्य को नारायण के रूप में देखेगा।’ वह अन्यत्र बाणभट्ट से कहती है–” समस्त गुण और अवगुण जब तक निर्विकार – चित्त से नारायण को नहीं सौंप दिये जाते, तब तक वे भार मात्र हैं। इस प्रकार से द्विवेदी जी ने तंत्र साधना की भक्तिमार्गीय लोकोन्मुखीप्रवृत्ति को रेखांकित किया है। उपासना के क्षेत्र का अतिक्रमण कर ये साधक मानवीय कर्म की ओर प्रेरित करते हैं और मानवमान्य की एकता की अनिवार्यता का प्रतिपादन करते हैं। धर्म साधना के क्षेत्र में कल्पित पात्रों की भूमिका इस दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है, जो द्विवेदी जी की दृष्टि को स्पष्ट करती है।

सारांश

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ एक विशिष्ट कलात्मक उपन्यास है। एक निश्चित दृष्टि के कारण उपन्यासकार ने वस्तु-संरचना और शिल्प-विन्यास का बड़ा ही कुशलतापूर्वक संयोजन किया है। कथ्य के महत्व को शिल्पगत विशिष्टता ने मार्मिकता से प्रस्तुत किया है। संक्षेप में कह सकते हैं कि ‘बाणभटट की आत्मकथा’ कथ्य और अभिव्यक्ति कौशल का उत्कृष्ट उपन्यास है।

समग्रता में बाणभट्ट की आत्मकथा एक श्रेष्ठ कलात्मक उपन्यास है। औपन्यासिक विजन से लेकर उसकी प्रस्तुति तक, सारा आयोजल, कुछ छोटी मोटी खामियों के बावजूद, अत्यंत भव्य रूप में प्रस्तुत किया गया है। बाणभट्ट की आत्मकथा हिन्दी साहित्य की विशिष्ट रचना है, जिसने हिंदी उपन्यास साहित्य को समृद्ध बनाया है।

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