नागार्जुन के काव्य का रचना-विधान

इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप जान सकेंगे कि :

  • नागार्जुन के यहाँ एक कविता किस प्रकार से रूप या आकार ग्रहण करती है,
  • भाषा के कितने रूप (तत्सम, बोलचाल आदि) किस प्रकार सर्जनात्मक ऊर्जा से भर उठते हैं,
  • सरल, सहज लगने वाली भाषा अत्यधिक अर्थवान, सप्रयोजन बनकर कविता में आती है,
  • नाटकीयता और व्यंग्य का तत्व किस प्रकार उनकी कविता को बहुलार्थमयी, विशिष्ट और बहुआयामी बनाता है, और
  • नागार्जुन किसी एक रूप, छंद में बंध कर नहीं चलते उनके यहाँ ढेरों रूप, छंद, का खुलकर इस्तेमाल होता है।

हम ने पिछले पाठ में नागार्जुन की कविता में संवेदना के विविध रूपों के बारे में बात की। देखा कि संवेदना कितनी विविध है और जीवन के कितने सारे पक्ष उनकी कविता में अभिव्यक्ति पाते हैं। लेकिन यह सब हुआ कैसे? यह सब संभव कैसे होता है? कविता बनती कैसे है? रचना-विधान का यही अर्थ है – रचना का बनना। हम एक उदाहरण से इसे समझ सकते हैं – जिस तरह कुम्हार (बर्तन बनाने वाला) मिट्टी के एक लोंदे को चाक पर रखकर घुमाते-संवारते उसे एक बर्तन या आकृति में बदल देता है, उसी तरह एक कवि भी जीवन के टुकड़े को कविता में बदलता है। एक कवि मिट्टी की जगह शब्दों का इस्तेमाल करता है। उसका माध्यम, उसकी सामग्री शब्द ही है। यानी भाषा। इन्हीं शब्दों से एक ढांचा तैयार होता है, एक रूप – वही कविता की निर्मिति या विधा है। यानी भाषा में ही कविता संभव होती है। इसलिए रचना-विधान को समझने के लिए सबसे पहले हम कविता को शब्दशः पढ़ते हैं। एकएक शब्द के ज़रिए पूरे निर्माण को समझने की कोशिश करते हैं।

लेकिन रचना-विधान में और भी कई तत्व हैं। भाषा तो सर्वोपरि है ही। इसके अलावा हम यह भी देखते हैं कि कवि ने मिथक, प्रतीक, फंतासी का व्यवहार किस तरह किया है। उदाहरण के लिए क्या मुक्तिबोध और नागार्जुन फंतासी का इस्तेमाल एक ही तरह से करते हैं? यदि नहीं, तो क्यों? इसी तरह हम यह भी देखते हैं कि स्वर की कितनी भंगिमाएँ यहाँ हैं, नाटकीयता है या नहीं। बोलने की कितनी विधियों, बातचीत के कितने स्तरों का उपयोग हुआ है। नागार्जुन की कविता पर विचार करते समय हमें विशेषकर व्यंग्य की चर्चा करनी होगी। नागार्जुन के रचना-विधान का एक अनिवार्य तत्व है व्यंग्य जो उन्हें मुक्तिबोध और शमशेर या अज्ञेय जैसे कवियों से भिन्न करता है। फिर हमें काव्य-रूपों का अध्ययन करना होगा। आप तो जानते ही हैं कि आजकल कविताएँ प्रायः गद्य में लिखी जाती हैं। फिर भी प्रत्येक कविता, श्रेष्ठ कविता, दूसरी कविताओं से भिन्न होती है – केवल अपने कथ्य के कारण नहीं, बल्कि अपने गठन के कारण भी। यह भिन्नता कैसे प्रगट होती है। इसके अलावा, नागार्जुन जैसे कवि अनेकानेक छंदों का उपयोग करते हैं। इतने सारे काव्य-रूप निराला के बाद बहुत कम कवियों ने अपनायें हैं। उनका अध्ययन और विश्लेषण करते हुए नागार्जुन-काव्य के शिल्प को समझा जा सकेगा। नागार्जुन ने भूले-बिसरे काव्य-रूपों को तो अपनाया ही, उन्होंने नये-नये छंदों की भी रचना की। कई बार एक ही कविता में कई काव्य-रूपों को अपनाया। जैसे कि शमशेर बहादुर सिंह कहते हैं, नागार्जुन के यहाँ रूपों की अद्भुत विविधता मिलती है, जितने कथ्य उतने रूप। इसलिए नागार्जुन की प्रत्येक कविता का रचना-विधान अलग होता है। अनूठा।

यहाँ हम उनकी कुछ कविताओं का विश्लेषण करके रचना-विधान के इन तत्वों को समझेंगे।

रचना-विधान के तत्व

भाषा

रचना-विधान को समझने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि हम किसी रचना को सामने रखें और उसे ध्यान से पढ़ें। कविता जो भी है वह अपने शब्दों में ही है। इसलिए शब्दों के आचरण को समझना ही सबसे महत्वपूर्ण है। तो आइये, हम नागार्जुन की एक बहुत ही प्रसिद्ध कविता ‘अकाल और उसके बाद से अपनी चर्चा आरंभ करें। पहले कविता को सामने रखिए, नज़र के सामने। हाथ में पेंसिल लीजिए और पढ़िए। पहले मन-ही-मन पढ़िए। फिर बोल कर पढ़िए। चुपचाप पढ़ने से आपका ध्यान अर्थ पर रहेगा। बोलकर पढ़ने से आप लय को पकड़ सकेंगे। शब्द के मोटा-मोटी दो पहलू हैं – ध्वनि और अर्थ। कविता दोनों ही पार्यों का व्यवहार करती है :

अकाल और उसके बाद

कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास

कई दिनों तक कानी कुतिया सोई उनके पास

कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त

कई दिनों तक चूहों की भी हालत रही शिकस्त।

दाने आए घर के अंदर कई दिनों के बाद

धुआँ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद

चमक उठी घर भर की आँखें कई दिनों के बाद

कौए न खुजलाई पाँखें कई दिनों के बाद।

देखिए कि नागार्जुन किस तरह रोज़मर्रा के बिम्बों और शब्दों से अपनी कविता बनाते हैं। इस कविता में एक भी शब्द ऐसा नहीं जो आप पहले से न जानते हों। एक भी विवरण ऐसा नहीं जो आपके लिए अपरिचत हो। और लय भी सुगम, जानी-पहचानी-सी। ऐसा क्यों? इसलिए कि नागार्जुन रोज़मर्रा की ज़िंदगी के बारे में लिख रहे हैं, साधारण लोगों के जीवन के बारे में उन्हीं की भाषा में, उन्हीं के जीवनप्रसंगों का उपयोग कर कई दिनों तक चूल्हा रोया – यानी कई दिनों तक चूल्हा जुड़ा ही नहीं, जला नहीं क्योंकि अन्न था ही नहीं। चक्की रही उदास – चक्की में कुछ पिसा ही नहीं क्योंकि दाने थे ही नहीं। ‘कई दिनों तक कानी कुतिया सोयी उनके पास ‘| इसका मतलब? एक तो यह कि चूल्हा-चक्की खाली पड़ी थी तो कुतिया वहाँ आकर सो गयी, उसे भगाता कौन? दूसरा यह कि जब घर भर ही भूखा था तो कुतिया भी भूखी थी इसलिए सबके दुःख में सहभागी। लेकिन कानी कुतिया क्यों? सिर्फ कुतिया क्यों नहीं? क्या इसलिए कि सिर्फ कुतिया रखने से छंद टूटता? नहीं। इसलिए कि यह एक गरीब परिवार है जहाँ की कुतिया भी कानी है, कुत्तों की मार-काट में बेचारी की एक आँख जाती रही – कमज़ोर परिवार की कमज़ोर कुतिया। ‘कई दिनों तक लगी भीत पर छिपकलियों की गश्त’ – यानी छिपकलियों को खाने को कीड़े नहीं मिले क्योंकि बत्ती नहीं जली। इसी तरह ‘चूहों की भी हालत रही शिकस्त | ध्यान दीजिए कि इन दो पंक्तियों में युद्ध की शब्दावली का प्रयोग हुआ है – गश्त, शिकस्त। इस तरह कविता पाठक को प्रच्छन्न तरीके से जीवन-संग्राम में ले जाती है – यह संग्राम है अन्न के लिए, भूख की लड़ाई। भूख ही सबसे बड़ा युद्ध है यहाँ। लेकिन ‘चूहों की भी हालत रही शिकस्त क्या सही मुहावरा है? शायद नहीं। व्याकरण की दृष्टि से नहीं। लेकिन बोलचाल में चलता है, सो नागार्जुन ने रख लिया।

अब दूसरा बंद। देखिए कि कैसे दूसरे बंद की लय पहले बंद की लय से भिन्न है। पहले बंद की लय धीमी है, सुस्त, क्योंकि अन्न नहीं है। दूसरे में तेज़, निकलती हुई, क्योंकि दाने आ गये हैं। लय में यह परिवर्तन कई कारणों से हुआ जिनमें एक यह है – पहले बंद में ‘कई दिनों तक ‘ शुरू में आता है जबकि दूसरे बंद में अंत में, एक परिवर्तन के साथ, अब है ‘कई दिनों के बाद’। और दानों का आना प्रगट होता है आँगन में धुआँ उठने से – धुआँ उठा आँगन से ऊपर कई दिनों के बाद। याद कीजिए पहली पंक्ति का चूल्हा, अब वह खुश है, धुआँ उठा। ‘चमक उठीं घर भर की आँखें – ध्यान दीजिए कि पहले बंद में कहीं भी घर वालों का जिक्र नहीं है, चूल्हा है, चक्की है, कानी कुतिया है, छिपकली और चूहे हैं, पर आदमी कहीं नहीं है। क्यों? अकाल ने मानों आदमी के अस्तित्व को ही समाप्त कर दिया है। आदमी का होना अन्न के होने पर निर्भर है। बहुत ही प्रच्छन्न तरीके से नागार्जुन यह कहते हैं। पूरा पहला बंद बिना आदमी का नाम लिए आदमी के बारे में, उसके अस्तित्व, उसकी सत्ता के बारे में है। यह एक बहु विशिष्टप्रविधि है जिसमें सुपरिचित को अपरिचित और निकट को दूर कर दिया जाता है। और अब आता है घर भर-जिसकी आँखें चमक उठी हैं अन्न देख कर। घर भर में कुटुम्बी जन तो हैं ही, कानी कुतिया, छिपकली और चूहे भी हैं और कौए भी – ‘कौए ने खुजलाई पाँखें। लेकिन पहले बंद में कौआ क्यों नहीं है? वह तो चालाक है और कहीं चला गया होगा। अब जब दाना आया है तो लौटा है वापस और अपनी पाँखें, खुजला रहा है उम्मीद में।

देखिए कि अन्न का नहीं रहना और फिर अन्न का आना – यही कविता का विषय है। और नागार्जुन किस कौशल से, शब्दों और भाषा के तत्वों के कितने कुशल उपयोग से हमें इन दो स्थितियों का बोध कराते हैं। कविता यही करती है। वह हमें स्थिति या दिशा-विशेष का अनुभव कराती है। वही रचनाविधान सफल है जो कवि के मंतव्य को पूर्णतः व्यक्त करे।

अभी हमने सिर्फ यह देखा कि कैसे एक छोटी सी कविता में भाषा का अथवा शब्दों का इस्तेमाल किया गया है। नागार्जुन हिंदी भाषा के विविध स्तरों का इस्तेमाल करते हैं। बोलचाल के शब्द तो हैं ही, कई बार तत्सम, संस्कृतनिष्ठ शब्दावली है, अंग्रेज़ी के शब्द भी हैं और लोकभाषाओं के भी शब्द। नागार्जुन एक कविता में कहते हैं – ‘आंचलिक बोलियों का मिक्सचर/कानों की इन कटोरियों में भरकर लौटा। सुबह-सुबह। तो नागार्जुन की भाषा भी तरह-तरह की बोलियों का ‘मिक्सचर’ या मिश्रण है। बोलचाल की भाषा की एक छवि तो अभी हमने देखी। ‘बादल को घिरते देखा है’ की आरंभिक पंक्तियाँ हैं :

अमल धवल गिरि के शिखरों पर

बादल को घिरते देखा है।

छोटे-छोटे मोती जैसे उसके शीतल तुहिन कणों को

मानसरोवर के उन स्वर्णिम कमलों पर गिरते देखा है ….

यहाँ प्रायः तत्सम शब्दों का प्रयोग हुआ है। यह छायावाद की भाषा की याद दिलाता है। फिर,

जी हाँ, लिख रहा हूँ ….

बहुत कुछ! बहोत बहोत!!

मगर, आप उसे पढ़ नहीं पाओगे ….

यहाँ बिल्कुल वैसे जैसे कि लोग बोलते हैं।

और इन पंक्तियों में :

तैरती रहीं आरण्यक छवियाँ सूनी निगाहों में

लेकिन वह तो अब तक अलक्षित हो चुका था।

जा चुका था, गहरे निबिड अरण्य की अतल झील के अंदर …

स्टार्ट हुई हमारी जीप

बैलाडीला वाली उसी सड़क पर

 (शालवनों के निविड़ टापू में)

यहाँ आरण्यक, अलक्षित, निबिड़ जैसे तत्सम शब्दों के साथ-साथ उर्दू का प्रचलित ‘निगाह’ भी है और अंग्रेज़ी का ‘स्टार्ट’ भी। यह नागार्जुन की अपनी विशेषता है। उन्हें किसी तरह का परहेज नहीं। लेकिन इन सबके पीछे कोई न कोई तर्क ज़रूर होता है। ‘आरण्यक’, ‘अलक्षित’ और ‘निबिड़’ जैसे शब्द कविता के नायक अधेड़ माड़िया आदिवासी को दूर करते जाते हैं जबकि ‘निगाह’ शब्द उसकी छवि को बिल्कुल पास लाता है और ‘स्टार्ट’ इन सबके उलट उस बाह्य संस्कृति को लक्षित करता है जिसका प्रतिनिधि है कविता का प्रवक्ता (नैरेटर) – ‘स्टार्ट हुई हमारी जीप ‘। इस तरह दो प्रतिलोम जीवन पद्धतियों, संस्कृतियों और स्वाधीनता के बाद भी भारतीय जीवन में बरकरार असमानता को यह कविता व्यक्त करती है। हम लगातार देख रहे हैं कि नागार्जुन के यहाँ शब्द ‘सक्रिय’ हैं, हमेशा कार्यरत, उन्हें जो करना है वही करते हुए। यहाँ देखिए ठेठ आंचलिक बोली :

बड़ा मुखयल मालूम पड़ता है जमूरा

खा रे खा! तेरे खातिर 

बाबा आज खीर-पाटी दे रहे हैं

(नेवला)

मुखयल ठेठ बिहार की बोली है। इसी तरह नागार्जुन के, जैसे कि डॉ0 नामवर सिंह कहते हैं, ‘बात करने के हज़ार ढंग हैं। कभी तो वह सीधा-सीधा वक्तव्य देते हैं – ‘प्रतिबद्ध हूँ। आबद्ध हूँ। कभी खुद से बातचीत – ‘नदी कर ली पार/उसके बाद नाव को लेता, चले क्यों पीठ मैं लाद?’ कभी दूसरे को संबोधन – ‘कालिदास सच-सच बतलाना ‘| आत्म-मंथन या आत्म-विश्लेषण – ‘इन सलाखों से टिकाकर भाल, सोचता ही रहूँगा चिरकाल | कभी केवल वर्णन – ‘बरफ पड़ी है। सर्वश्वेत पार्वती प्रकृति निस्तब्ध खड़ी है ‘। कभी कविता के अंदर संवाद जैसे ‘तेरी खोपड़ी के अंदर’ या ‘नथुने फुला-फुला के ‘ कविताओं में। कभी नारों जैसी सरलता – ‘बस सर्विस बंद रही तीन दिन तीन रात।’ तो कभी मंत्र कविता जैसा संश्लिष्ट विधान। जैसा कि नागार्जुन स्वयं कहते हैं :

बातें –

यही अपनी पूंजी, यही अपने औज़ार

यही अपने साधन, यही अपने हथियार

बातें –

साथ नहीं छोड़ेंगी मेरा ….

(बातें)

अब आप इन प्रश्नों को पढ़ें और उनके उत्तर ढूँढ़ें :

  • ऐसी कविताओं की सूची बनाएँ जिनमें मुख्यतः संस्कृतनिष्ठ शब्दावली का प्रयोग हुआ हो। 
  • ऐसी तीन कविताएँ चुनें जिनमें बोलचाल की भाषा का इस्तेमाल हुआ हो। 
  • मंत्र कविता की भाषा किस तरह की है?
  1. तत्सम बहुल
  2. बोलचाल की
  3. मिश्रित
  4. सधुक्कड़ी
  • मंत्र कविता में भाषा का ऐसा प्रयोग किस कारण से हुआ है?
  • उन कविताओं को चुनें जिनमें नाटकीयता का तत्व प्रमुख हो।

नाटकीयता

नागार्जुन की कविताओं में नाटकीयता का तत्व प्रमुख है। किसी भी कविता में मुख्यतः दो में कोई एक तत्व अधिक मुखर होता है। कविता या तो गीतात्मक (लिरिकल) होगी या फिर नाटकीयता सम्पन्न। छायावाद की कविताओं की मुख्य भंगिमा गीतात्मक है। नागार्जुन के यहाँ नाटकीयता मुखर है। प्रायः नागार्जुन एक स्थिति लेते हैं और उसका वर्णन करते हैं। स्थिति में जो द्वंद्व है, अंतर्विरोध है यानी दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियों या तत्वों की उपस्थिति है, नागार्जुन उसे पकड़ने और अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं। इसी कारण नाटक जैसा वातावरण बनता है, क्योंकि यहाँ घात-प्रतिघात है, परस्पर द्वंद्व है। उनकी कविता स्थितियों द्वारा उत्पन्न भावों को प्रकाशित करने की कविता मूलतः नहीं है। इसीलिए उसका रचना-विधान भी भिन्न है, नाटकीयता से सम्पन्न। उदाहरण के लिए, ‘भोजपुर’ कविता की आरंभिक पंक्तियाँ :

यही धुआँ मैं ढूँढ रहा था

यही आग मैं खोज रहा था

यही गंध थी मुझे चाहिए

बारूदी छरे की खुशबू

इनमें नाटक के सवांद जैसा वेग और वैसी ही प्रस्तुति है। ‘मास्टर’ जो छंदोबद्ध और पारंपरिक शैली में लिखी गई कविता है, उसमें भी वार्ता है। ‘प्रेत का बयान’, ‘बच्चा चिनार’, ‘नेवला’, ‘तेरी खोपड़ी के अंदर ‘, ‘गुलाबी चूड़ियाँ, ‘वे हमें चेतावनी देने आये थे’, ‘पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने’, – इनके अलावा भी बहुत सी कविताओं में नाटकीयता का गुण है। नागार्जुन की अनेक श्रेष्ठ कविताएँ जीवन का नाटक ही तो प्रस्तुत करती हैं। आइये, हम इस कविता को पढ़ें :

नथुने फुला-फुला के

राह चलते-चलते

यक-ब-यक बाँह पकड़ ली

खुद भी खड़े रहे

मुझे भी रोक लिया

और बोले : क्या कुछ खास-सी महसूस होती है?

मैं चौंका:

क्या सचमुच कोई खासियत मालूम देती है।

फिर हमारे प्राध्यापक मित्र

भरपूर साँस खींचकर कहने लगे :

‘यहाँ मुलुंड में इत्र का कारखाना लगा है

मराठा व्यवसायी एक कोई केलकर साहब ने

सौरभ-द्रव्यों का अपना अभिनव उत्पादन-केंद्र

आरंभ किया है यहाँ मुलुंड में

प्रतिदिन, संध्याकाल

पवन देव की अनुकंपा से

इद्र-गिर्द बीसियों किलोमीटर

हो उठते हैं मुअत्तर

यह सुरभित सांध्य समीर

हमारे मलुंड की बहुत बड़ी खासियत है .

…’ ‘आपकी गंध-चेतना ठस तो नहीं हुई?

अभी तो सत्तर के न हुए होंगे आप –

फिर से प्राधापक मित्र ने

अपने तई भरपूर साँस खींची

नथुने फुला-फुला के 

वो मुअत्तर हवा भर ली अंदर।

यह कविता आपने पढ़ी। अब आप इसे एक नाटक मानकर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर बताएँ : ।

  • घटना का स्थान कौन सा है?
  • समय कौन-सा हो सकता है?
  • कुल कितने पात्र हैं?
  • सर्वाधिक नाटकीय पंक्ति कौन-सी है?
  • इस कविता का मुख्य द्वंद्व क्या है? का क्या है?

स्थिति रह कि मुलुंड में किसी व्यवसायी ने इत्र का कारखाना लगाया है, जिसकी ‘खुशबू’ प्राध्यापक मित्र नथुने फुला-फुला के अदंर खींच रहे हैं। कविता के प्रवक्ता को कोई ‘खुशबू’ महसूस नहीं होती तो ‘प्राध्यापक मित्र’ समझते हैं कि उसकी ‘गंध-चेतना’ ठस हो गयी है। वास्तव में गंध-चेतना किसकी ठस हुई है? ‘हाँ नैसर्गिक और कृत्रिम के बीच के द्वंद्व को और कृत्रिम द्वारा नैसर्गिक के विस्थापन की प्रक्रिया को व्यक्त किया गया है जिसके लिए नागार्जुन एक पूरे नाटक का ढाँचा तैयार करते हैं। कृत्रिम का प्रसार हो रहा है और उसे समर्थन भी है। ‘प्राध्यापक मित्र’ यानी बुद्धिजीवी तक उसके प्रभाव में हैं। यह कविता उपभोक्तावाद पर भी गहरा व्यंग्य है। इसका ढाँचा ऐसा है कि त्रासदी, विडम्बना और व्यंग्य तीनों को नागार्जुन व्यक्त करते हैं। और अपनी ओर से कवि ने कोई टिप्पणी नहीं की है, कोई व्याख्या नहीं की है। नागार्जुन को जो भी कहना होता है वह अपनी अनेक कविताओं में स्पष्टता के साथ, खोलकर कह देते हैं। इसलिए कई बार कविताएँ सपाट भी हो जाती हैं। लेकिन यहाँ सब कुछ अनकहा छोड़ दिया गया है। नाटक का तत्व हमेशा ही कविता को सघन और संष्लिष्ट बनाता है। सब कुछ पाठक पर छोड़ दिया गया है कि वह जैसे चाहे स्थिति की व्याख्या करे। यहाँ पाठक को कई खाली जगहें भी भरनी पड़ती हैं। तब जाकर स्थिति का पूरा नाटक उजागर होता है।

इस कविता में व्यंग्य प्रच्छन्न है। नागार्जुन की ढेर सारी कविताओं में व्यंग्य स्पष्ट और तिलमिला देने वाला होता है। अब हम देखेंगे कि व्यंग्य कैसे कविता के पूरे शिल्प को प्रभावित करता है।

व्यंग्य

‘यह निर्विवाद है कि कबीर के बाद हिंदी कविता में नागार्जुन से बड़ा व्यंग्यकार अभी तक कोई नहीं हुआ।’ डॉ0 नामवर सिंह कहते हैं। नागार्जुन का व्यंग्य भारतेंदुकालीन व्यंग्यकारों से भी जुड़ता है। उन्होंने आज की व्यवस्था पर गहरा प्रहार किया है। सबसे ज्यादा चोट राजनेताओं पर की और कई बार खुद अपने पर। हम देखें कि कैसे नागार्जुन की कविताओं का रूप व्यंग्य को धारण और संप्रेषित करता है।

व्यंग्य के लिए द्वंद्व या अंतर्विरोध का होना ज़रूरी है। दो मूल्यों की टकराहट, दो परस्पर विपरीत स्थितियों की प्रस्तुति से व्यंग्य उत्पन्न होता है। कविता का रूप यानी शिल्प ऐसा होना चाहिए कि यह द्वंद्व या अंतर्विरोध सर्वाधिक तीव्रता से व्यक्त हो सके। नागार्जुन की व्यंग्य कविताएँ अधिकांशतः राजनीतिक हैं, विशेषकर तात्कालिक राजनीति। इसके द्वंद्व और विद्रूप को उभारने के लिए नागार्जुन प्रायः पारम्परिक छंदों का प्रयोग करते हैं। इस तरह गंभीर विषयों के लिए प्रयुक्त हो चुके पारंपरिक छंद जब हल्की तथा अंतर्विरोधी चरित्र वाली स्थिति को व्यक्त करते हैं तो स्वभावतः एक तनाव उत्पन्न होता है जो व्यंग्य को धारदार बनाता है। उदाहरण के लिए, मंत्र कविता को देखें। यह नागार्जुन की सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य कविताओं में से एक है। फिर आप इन प्रश्नों पर विचार करें :

  • कविता का शीर्षक ‘मंत्र’ क्यों है?
  • ‘मंत्र’ कहने से किन तत्वों का बोध होता है?
  • इस कविता की विषय-वस्तु क्या है?
  • क्या इसमें हास्य का तत्व भी है?
  • व्यंग्य का निशाना क्या है?

‘मंत्र’ कहते ही मन में श्रद्धा उत्पन्न होती है और वैदिककाल से लेकर समस्त संस्कृत काव्य एवं धर्मशास्त्र के मंत्रों की स्मृति मन में जगती है। सर्वाधिक पवित्र एवं निष्ठा से ओतप्रोत। कविता की पहली पंक्ति – ओं शब्द ही ब्रह्म है – भी उसी परंपरा का स्मरण कराती एक गंभीर पंक्ति है। फिर शुरू होता है विद्रूप – ओं वक्तव्य, ओं उद्गार ओं घोषणाएँ ….! और पूरी कविता अपने समय के जीवन के सभी पक्षों, विशेषकर राजनीतिक पक्षों में विराजमान विद्रूप एवं वीभत्सता को उजागर करती है। भारतीय परंपरा के सर्वाधिक पवित्र एवं गंभीर रूप-विधान का उपयोग नागार्जुन समकालीन भारतीय जीवन के सर्वाधिक अपवित्र एवं अराजक पक्ष को व्यक्त करने के लिए करते हैं। इससे बहुत गहरा व्यंग्य पैदा होता है जो तमाम ‘छल-छंद, मिथ्या, बकवास’ पर चोट करता हुआ पाठक को यथार्थ की नयी, सर्वथा भिन्न अनुभूति कराता है। व्यंग्य को पैना करने के लिए नागार्जुन अपनी समस्त शब्द-विधा का प्रयोग करते हैं – यहाँ वैदिक मंत्रों का विधान तो है ही, झाड़-फूंक वाले मंत्रों, शाक्त-मंत्रों और जादूगरबाजीगरों के अनर्गल जैसे शब्द-प्रलापों का भी उपयोग किया गया है। इस तरह कविता मारक प्रभाव उत्पन्न करती है।

एक और कविता लें, ‘आए दिन बहार के ‘| यह स्पष्टतः राजनीतिक व्यंग्य है। इस कविता का पहला बंद इस प्रकार है :

‘स्वेत-स्याम-रतनार’ अँखियाँ निहार के

सिंडकेटी प्रभुओं की पग-धूर झार के

लौटे हैं दिल्ली से कल टिकट मार के

खिले हैं दाँत ज्यों दाने अनार के

आए दिन बहार के।

अब देखिए कि इस एक बंद में, जिसमें उन नेताओं पर व्यंग्य है जो दिल्ली से टिकट मार के (विधायक या सांसद बनने का) लौटे हैं। यह उनके लिए खुशी का क्षण है। इस पर नागार्जुन चोट करते हैं और इसके लिए पारंपरिक, श्रृंगारिक शब्दावली और चिर-परिचित मुहावरों का प्रयोग करते हैं, जिससे कि इस ‘अश्लील प्रणय’ का विद्रप उभर सके – ‘श्वेत-श्याम रतनार अँखियाँ’, ‘दाँत ज्यों दाने अनार के’ तथा टेक की पंक्ति ‘आए दिन बहार के ‘। जो प्रेमियों के लिए प्रिय-दर्शन का सुख था वसंत में, वही इन नेताओं के लिए सुख है टिकट मारने में।

‘शासन की बंदूक’, ‘कर दो वमन’,’आओ रानी हम ढोएँगे पालकी’, ‘मास्टर’, ‘तीनों बंदर बापू के ये सब सर्वोत्तम व्यंग्य कविताओं में गिनी जाती हैं। जैसा कि नागार्जुन स्वयं कहते हैं – ‘प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का ‘। तो यह घृणा जो कुछ जड़, विगलित, जीवन-विरोधी है उसके प्रति घृणा ही इन व्यंग्य-कविताओं के मूल में है। कई बार अचानक यह तत्व नागार्जुन की अन्य कविताओं में भी फूट पड़ता है।

नागार्जुन के व्यंग्य करने का एक तरीका और है। वह अक्सर व्यक्तियों या स्थितियों को अतिरंजित करके प्रस्तुत करते हैं, जैसा कि कार्टून बनाने वाले अक्सर करते हैं, किसी की नाक बढ़ा दी, किसी के होंठ, किसी का पेट। नागार्जुन ने कुछ अदभुत व्यंग्य-चित्र बनाये हैं शब्दों से। हो सकता है हम उनके मंतव्यों से सहमत न हों, पर उनकी कला का लोहा मानना पड़ता है। ऐसी ही कविताओं में हैं ‘योगीराज’, ‘वाणिक्य पुत्र’, ‘अनुदान’, ‘सौदा’, ‘आइजनहवर’, ‘कंचन मृग’ तथा अन्य अनेक।

भारतेंदु काल में तथा उसके बाद भी एवं मतवाला तथा चकल्लस जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित होने वाली व्यंग्य कविताओं की परंपरा को कबीर से जोड़ते हुए नागार्जुन ने हिंदी को श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ दी

अभी तक हम लोगों ने रूप-विधान को समझने के सिलसिले में नागार्जुन की कविता की भाषा, शब्दप्रयोग, नाटकीयता एवं व्यंग्य की चर्चा की। हमने देखा कि नागार्जुन की भाषा का विस्तार तत्सम से लेकर लोक की बोलियों तक हैं। उनके यहाँ भाषा का कोई एक बना-बनाया खांचा नहीं है, बल्कि जितनी तरह की कविताएँ, जितने तरह के विषय उतनी तरह की भाषा और शब्द-रूप। हमने यह भी देखा कि नागार्जुन की कविताएँ यथार्थ का प्रत्यक्ष चित्रण करती हैं। इसलिए वहाँ स्थितियाँ प्रमुख हैं और उन स्थितियों का अंतर्निहित द्वंद्व जिससे नाटकीयता उत्पन्न होती है। भाव-प्रधान कविताओं में नाटकीयता का तत्व इतना मुखर नहीं होता। इसी तरह नागार्जुन स्थितियों के द्वंद्व और अंतर्विरोधों को उभार कर व्यंग्य की रचना करते हैं। ऐसे कवि कम हैं जिनमें गंभीरता के साथ-साथ हास्य-व्यंग्य की भी प्रधानता हो। प्रभाकर माचवे, भारत भूषण अग्रवाल और नागार्जुन जैसे कवि ही निराला के बाद इस कोटि के कवियों में मुख्य हैं।

नागार्जुन और रूप प्रयोग

जैसा कि आप सब जानते हैं कि छायावाद के बाद हिंदी कविता में मोटी-मोटी दो प्रवृतियाँ या आंदोलन उभरे। ये हैं प्रगतिवाद’ और ‘प्रयोगवाद | वैसे हम हमेशा याद रखें कि ये सारी चिप्पियाँ या बिल्ले अंततः निरूपयोगी ही सिद्ध होते हैं। नागार्जुन घोषित रूप से प्रगतिवादी हैं। जो प्रयोगवादी हुए उनका बल या आग्रह रूप पर था, कविता में नये-नये रूप-प्रयोगों यानी नयी बात तो हो ही नया रूप भी हो और इसके लिए नये प्रयोग किए जाएँ। नागार्जुन ने अपनी कविताओं द्वारा भी प्रयोगवादी कवियों की आलोचना की। प्रयोगवादियों ने भी नागार्जुन को उनका उचित दाम नही दिया। लेकिन वस्तुस्थिति यह है कि नागार्जुन ने रूप संबंधी जितने प्रयोग किये हैं उतने बहुत कम कवियों ने किये हैं। शमशेर बहादुर सिंह ने नागार्जुन की इस क्षमता को रेखांकित भी किया है।

नागार्जुन ने पहले तो कोई एक तरह की, एक ही शिल्प की कविता नहीं लिखी; छंद में लिखा, गद्य में लिखा, तुकों का प्रयोग किया, अतुकांत भी लिखा, पुराने से पुराने सवैयों-दोहों का इस्तेमाल किया और नवीनतम गद्य-शैली भी अपनायी, वर्णन भी किया यथातथ्य तो यथार्थ-संबंधों में परिवर्तन भी किये, नयेनये वस्तु-संयोजन द्वारा। गंभीर स्वर के साथ-साथ हल्का-फुल्का स्वर भी लगा दिया। यानी भाषा की समस्त शक्तियों के साथ प्रयोग किया। अब हम कुछ कविताओं को लेकर देखेंगे कि कैसे नागार्जुन ने कुछ अभिनव, नितांत नये प्रयोग रूप-विधान में किये। ‘मंत्र’ कविता तो आपने देखी ही, वह स्वयं एक अनूठा प्रयोग है। लेकिन यहाँ हम ले रहे हैं ‘चंदू मैंने सपना देखा’, ‘इन सलाखों से टिका कर भाल’, ‘नेवला’, ‘पिछली रात’, ‘प्रेत का बयान’ तथा ऐसी ही कुछ अन्य कविताओं को। लेकिन एक बात हम ज़रूर याद रखें कि नागार्जुन ने केवल प्रयोग के लिए प्रयोग नहीं किये हैं। उनके प्रयोगों, नये रूप विधानों के पीछे कथ्य या विषय-वस्तु की माँग रहती है। अपनी बात को अधिकाधिक बल के साथ कहने के लिए या कविता के ज़रिए वह जो करना चाहते हैं उसकी पूर्ति के लिए ही नागार्जुन नये रूपाकारों की रचना करते हैं। उदाहरण के लिए, हमने पहले भी ‘चंदू मैंने सपना देखा’ कविता की चर्चा की है। आप इसे फ़िर से पढ़ें और इन प्रश्नों पर सोचें :

  • ‘चंदू मैंने सपना देखा’ पूरी कविता की प्रत्येक पंक्ति में यह शब्द-समूह क्यों दुहराया गया है? यानी कवि का अभीष्ट क्या है?
  • किस पंक्ति का दो बार इस्तेमाल हुआ है और क्यों?
  • इस कविता की गति को आप कैसे परिभाषित करेंगे – इसकी गति रैखिक है या  चक्रीय?
  • छंद का उपयोग कर कवि ने किस नये जीवन- तत्व को या यथार्थ को व्यक्त किया है?
  • क्या इस कविता का रूप केवल बाह्य यथार्थ को व्यक्त करता है या मनोभावों अथवा आभ्यंतर जगत को भी व्यक्त करने में समर्थ है?

उम्मीद है कविता आपने पढ़ ली होगी। ध्यान से। और पढ़ते हुए आपको मज़ा भी आया होगा। संगीत इसका इतना मोहक है कि हम पढ़ते हुए संगीत के ही वशीभूत हो जाते हैं। क्यों? इसका कारण यह है कि नागार्जुन एक स्वप्न-सरीखा वातावरण रच रहे हैं, एक प्रति-लोक। इसलिए ‘चंदू मैंने सपना देखा’ की निरंतर आवृत्ति एक चक्रीय गति की रचना करती है जो हमें अपने पाश में घुमाती है। पहली ही पंक्ति में ‘हिरनोटा’ एक भूला-भटका, प्राचीन शब्द आता है और हमें मानो तात्कालिक दबाव से काट कर पीछे ले जाता है। फिर ‘अमुआ से हूँ पटना लौटा/ तुम्हें खोजते बद्री बाबू/ खेल-कूद में हो बेकाबू/ कल परसों ही छूट रहे हो/ खूब पतंगें लूट रहे हो/ लाए हो तुम नया कैलेंडर … | अगर आप इन पंक्तियों को देखें तो पाएंगे कि ये अलग-अलग लगती हैं जिनका स्वतंत्र रूप से कोई अर्थ ढूंढ़ पाना भी कठिन है। कारण? क्योंकि नागार्जुन स्वप्न-लोक की रचना कर रहे हैं जहाँ सारे प्रत्यक्ष संबंध स्थगित हो जाते हैं। फिर भी उनका एक अर्थ, गहरा अर्थ होता है। इस कविता का भी. है। इस कविता का रूप तात्कालिक जीवन की विशृंखलता को, छोटी-छोटी इच्छाओं को और नये सुंदर भविष्य के स्वप्न को व्यक्त करता है। इसीलिए ‘लाए हो तुम नया कैलेंडर’ को दुहराया गया है और कविता समाप्त भी इसी पंक्ति के साथ होती है। यह एक अभिनव प्रयोग है।

‘इन सलाखों से टिकाकर भाल’ कविता को अगर आप देखें तो पाएंगे कि इतनी छोटी-सी कविता में भी नागार्जुन अनेक भावों, स्वरों का प्रयोग करते हैं। ‘और भी तो गलेगी कुछ दाल’ या ‘न टपकेगी कि . उनकी राल’ जैसी पंक्ति अचानक स्वर की गंभीरता को बाधित करती हुए कविता को भिन्न धरातल पर ले जाती है और फिर वापस। इसी तरह ‘चाँद पूछेगा न दिल का हाल’ एक सर्वथा भिन्न स्मृति को जाग्रत करती है, कुछ-कुछ रोमांटिक परंतु उसका निषेध भी। और एक नये रूपाकार की सृष्टि होती है। अनेक स्वर एकत्र होते हैं। 

नागार्जुन ने ‘नेवला’ जैसी कविता भी लिखी है जो मुख्यतः गद्य में है, लम्बी कविता, पर वर्णनात्मक, मुक्तिबोध या धूमिल जैसी नहीं। यह इतिवृत्त जैसी है। दूसरी तरफ लोकगीतों या धुनों का भी भरपूर उपयोग किया है। खासतौर से राजनीतिक कविताओं में, जैसे ‘आओ रानी हम ढोएँगे पालकी ‘ या ‘तीनों बंदर बापू के’। उन्होंने नारों को भी कविता में बदल दिया है – ‘बस सविर्स बंद रही/ तीन दिन तीन रात/ तीन दिन तीन रात’ । उनकी एक प्रसिद्ध कविता ‘चना जोर गरम’ की तर्ज पर तो दूसरी एक भजन के तर्ज पर है – ‘रानी गाय ब्राह्मण दान, हर गंगे भई हर गंगे’। इसी प्रकार ‘लाल भवानी प्रगट हुई है सुना कि तेलंगाने में’ या’जय हो बंभोला’ या पता नहीं दिल्ली की देवी गोरी है या काली’ जैसी पंक्तियों और धुनों का इस्तेमाल कर नांगार्जुन ने सर्वथा नये रूपों की रचना की है। और ठीक इसके विपरीत ‘खड़े तीनों काल/ देवदारू विशाल’ या ‘अमल धवल गिरि के शिखरों पर’ जैसी कविताएँ भी हैं जो शास्त्रीय छंदों का प्रयोग करती हुई चिरपरिचित भावों को नये तरीके से प्रगट करती हैं। और अब इस कविता को देखिए। शीर्षक है ‘पिछली रात’।

पिछली रात

ठीक 3.22 पर एक हादसा हुआ …

मई-जून की वो भरी-पूरी झेलम

नील-निर्मल प्रवाहों वाली वो ‘वितस्ता’

मेरे ऊपर से होकर गुज़री – पिछली रात।

लगातार – आधा घंटा तक, नहीं 45 मिनट लगे होंगे।

-प्रवाहित होती रही मुझ पर से.. .

मैं लेटा रहा, निमीलित-नेत्र ….

मन-ही-मन जागरूक, मोद-मग्न

….. आशीष की मुद्रा में मेरे होंठ हिलते रहे

जी हाँ, झेलम को हड़बड़ी थी –

वो सिंध से मिलने जा रही थी, सीमा पर जाना था उसे।

अब आप इन प्रश्नों पर विचार करें :

  • ‘ठीक 3.22’ देने का प्रयोजन क्या है?
  • ‘हादसा’ क्या है? बताएँ ‘
  • लगातार आधा घंटा तक, नहीं 45 मिनट लगे होंगे।’ – इसमें आधा घंटा कह कर फिर 45 मिनट क्यों कहा गया?
  • पूरी कविता में इतने सारे ‘डेश’ या ‘डाट’ का प्रयोग क्यों किया गया है?
  • क्या यह कविता गद्य में है?
  • क्या यह कविता आपको पूरी तरह से स्पष्ट है?

नागार्जुन ने मुक्तिबोध की तरह अथवा उन्हीं जैसी लम्बी कविता नहीं लिखी। मुक्तिबोध फंतासी का उपयोग करते हैं, यथार्थ के प्रत्यक्ष संबंधों को तोड़ते-बदलते एक नये स्वप्न-संसार की रचना करते हैं। पौराणिक मिथ में, प्रतीकों का इस्तेमाल भी करते हैं। इसके विपरीत नागार्जुन प्रायः इतिवृतात्मक कविता करते हैं, विशेषकर लम्बी कविता के संबंध में यह कहा जा सकता है। शमशेर भी वस्तुओं के आपसी संबंध को ज्यों-का-त्यों न रखकर कुछ छोड़ते, कुछ खाली जगहें बनाते हुए लिखते हैं जैसे ‘टूटी हुई बिखरी हुई | नागार्जुन की लंबी कविताएँ उस काल में प्रचलित लम्बी कविता की शैली से सर्वथा भिन्न

शैली की कविताएँ हैं, ऐसा लगता है। आप खुद पढ़कर देखें और तय करें। चाहे वह ‘नेवला’ हो, चाहे ‘चनाजोरगरम’, चाहे ‘भस्मासुर’। परंतु ‘हरिजन गाथा’ एक ऐसी कविता है जिसमें नागार्जुन फंतासी रचने का प्रयास करते हैं, मिथकों की रचना करते हैं। विषय की नवीनता और भविष्य के प्रति गहरी आस्था के कारण ही ऐसा हुआ है। फिर भी रूप-प्रयोग की दष्टि से भी ‘हरिजन-गाथा’ एक महत्वपूर्ण लंबी कविता है जो वर्णनात्मक एवं मिथकीय शैलियों का सम्मिश्रण कही जा सकती है! ‘प्रेत का बयान’ जैसी कविता में ‘हरिजन-गाथा’ के शिल्प की झाँकी अवश्य मिलती है, परंतु ‘हरिजन-गाथा’ गद्य-पद्य के मिश्रण, मिथकों, प्रतीकों एवं फंतासी के इस्तेमाल के लिए अलग से विचार करने योग्य है।

इस तरह हम देखते हैं कि नागार्जुन ने अनेक प्रकार के प्रयोग किए हैं। लिखने का कोई एक तरीका, कोई एक शिल्प नहीं है। अनेक विधियाँ हैं। नागार्जुन के लिए कुछ भी त्याज्य या अस्पृश्य नहीं है, जैसे कथ्य में वैसे ही रूप में। एक बात अवश्य है कि नागार्जुन के रूप-प्रयोग कहीं भी क्लिष्ट या समझ के बाहर नहीं हैं। गंभीर बात को वह इस तरह से कहते हैं कि साधारण लोग भी समझ सकें। वह उन थोड़े से कवियों में हैं जिनकी कविताएँ सर्वसाधारण तक पहुँची हैं। जैसा कि डॉ0 रामविलास शर्मा कहते हैं – ‘नागार्जुन ने लोकप्रियता और कलात्मक सौंदर्य के संतुलन और सामंजस्य की समस्या को जितनी सफलता से हल किया है, उतनी सफलता से बहुत कम कवि- हिंदी से भिन्न भाषाओं में भी – कर पाये हैं।

नागार्जुन का रचना-विधान यदि उनके ही समकालीन अन्य कवियों, जैसे शमशेर, मुक्तिबोध या अज्ञेय से भिन्न है तो उसका मूल कारण क्या है? आप खुद भी इस पर विचार करें। यदि हम इस पर गौर करें तो पाते हैं कि एक कारण तो विषयों की विविधता है, यानी काव्य-वस्तुओं की विविधता जिस कारण प्रत्येक विषय को नया और पृथक रचना-विधान या रूप चाहिए। दूसरा कारण यह है कि नागार्जुन अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक अधिक से अधिक सुगम तरीके से पहुँचाना चाहते हैं। इसलिए भी उनका शिल्प ज्यादा खुला हुआ, विविध और अपेक्षाकृत सरल है। बहुत से लोग इसी ‘सरलता’ के कारण उन्हें ‘सरल’ अथवा ‘सामान्य’ कवि समझ बैठते हैं। परंतु उनका शिल्प भी बहुस्तरीय जटिल और विशिष्ट है। यदि आसान लगता है तो सिर्फ इसलिए कि नागार्जुन ने उसे वैसा ही बनाना चाहा था और यही उस रचना-विधान की सफलता है। सबसे सफल रचना-विधान अथवा शिल्प वही है जो सबसे अच्छे ढंग से विषय-वस्तु को अभिव्यक्त कर दे।

सारांश

तो, अभी इस पाठ में हमने नागार्जुन की कविताओं के रचना-विधान की चर्चा की। यानी रचना कैसे बनी है, उसका गठन कैसा है। इस सिलसिले में हमने उनकी भाषा और शब्दावली.का विश्लेषण करते हुए पाया कि नागार्जुन साधारण शब्दों के साथ-साथ तत्सम शब्दों का भी प्रयोग करते हैं और भाषा के सम्पूर्ण पटल का इस्तेमाल करते हैं। हमने नाटकीयता की भी चर्चा की। नागार्जुन का शिल्प एक स्थिति की सम्पूर्ण नाटकीयता यानी द्वंद्व को व्यक्त करता है। नागार्जुन अनेकानेक छंदों और रूपों का इस्तेमाल करते हैं। व्यंग्य का तत्व उनके यहाँ प्रबल है। संभवतः कबीर और निराला के बाद वह हिंदी के अकेले बड़े व्यंग्य-कवि भी हैं। उन्होंने कुछ कविताओं में मिथक, फंतासी का भी प्रयोग किया है। उनकी कविताएँ प्रायः छोटी हैं, लेकिन कुछ लंबी कविताएँ भी उन्होंने लिखी हैं। उनका शिल्प प्रायः इतिवृत्तात्मक है। नागार्जुन के रचना-विधान की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह ‘सरल’ पर संश्लिष्ट है। उनकी कविता अधिक से अधिक लोगों को समझ में आने लायक है जिसका कारण ‘सरल’ रचनाविधान है। उनके बिंब भी सुगठित, मूर्त और स्पष्ट होते हैं।

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