समावेशी विकास : भारत में समावेशी विकास प्राप्त करने में आने वाली चुनौतियां
प्रश्न: समावेशी विकास से आप क्या समझते हैं? भारत में समावेशी विकास को प्राप्त करने में आने वाली चुनौतियों को रेखांकित कीजिए। इन चुनौतियों का समाधान कैसे किया जा सकता है?
दृष्टिकोण:
- समावेशी विकास के अर्थ की संक्षिप्त चर्चा करते हुए उत्तर आरंभ कीजिए।
- भारत में समावेशी विकास प्राप्त करने में आने वाली चुनौतियों को रेखांकित कीजिए।
- इन चुनौतियों के समाधान हेतु उठाए जाने वाले कदमों को सूचीबद्ध कीजिए।
- उपर्युक्त बिंदुओं के आधार पर निष्कर्ष प्रस्तुत दीजिए।
उत्तर:
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में समावेशी विकास को “एक विकास प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया गया है, जो व्यापक लाभ प्रदान करती हो और सभी के लिए अवसरों की समानता को सुनिश्चित करने पर केन्द्रित हो”। इसके तहत “समतावादी विकास” अथवा “सामाजिक न्याय के साथ विकास” को प्राथमिकता प्रदान की जाती है। UNDP के अनुसार समावेशी विकास एक परिणाम एवं प्रक्रिया दोनों है। एक ओर यह विकास प्रक्रिया में सभी की भागीदारी को सुनिश्चित करता है तथा दूसरी ओर यह लाभ के समान रूप से साझाकरण पर बल देता है।
हालाँकि भारत सरकार ने समावेशी विकास को प्राप्त करने की दिशा में विभिन्न पहलें जैसे- जन धन योजना, सौभाग्य योजना, मनरेगा, सर्व शिक्षा अभियान आदि आरभ की हैं तथापि इस संदर्भ में भारत को अभी वांछित महत्वपूर्ण परिणाम प्राप्त नहीं हुए हैं। भारत में समावेशी विकास प्राप्त करने में आने वाली चुनौतियां निम्नलिखित हैं:
- निर्धनता और बेरोजगारी: भारत की लगभग 22% जनसंख्या, निर्धनता रेखा से नीचे जीवन-यापन कर रही है (जनगणना 2011) तथा साथ ही बेरोजगारी दर विगत 45 वर्षों की तुलना में अपने उच्चतम स्तर (NSSO डेटा के अनुसार) पर पहुंच गई है। इसके अतिरिक्त, अब तक सृजित किए गए रोजगारों की गुणवत्ता निम्न है, और ये मुख्यतः अनौपचारिक क्षेत्रों में ही सृजित हुए हैं।
- अपर्याप्त स्वास्थ्य और शिक्षा व्यवस्था: भारत में उच्च शिशु एवं मातृ मृत्यु दर, स्वास्थ्य क्षेत्र में आउट ऑफ पॉकेट व्यय; भूख और कुपोषण आदि समस्याएं विद्यमान हैं। इनके अतिरिक्त, प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता भी असंतोषजनक
- उच्च स्तरीकृत समाज: भारतीय समाज ग्रामीण-शहरी विभाजन, अंतर्राज्यीय क्षेत्रीय विषमताओं तथा धर्म, लिंग अथवा जाति के कारण असमानताओं आदि अनेक मुद्दों पर विभाजित है।
- आर्थिक चुनौतियां: आर्थिक चुनौतियों में कृषिगत भू-जोतों का विखंडन, संस्थागत ऋण तक पहुँच का अभाव, वित्तीय सेवा संबंधी निम्न जागरुकता, निम्न विकास दर (विशेषकर कृषि में, जो एकमात्र सबसे बड़ा नियोक्ता क्षेत्र है) आदि शामिल हैं।
- पर्यावरणीय मुद्देः भूमि, वायु और जल का निम्नीकरण उपर्युक्त सभी मुद्दों में वृद्धि करता है तथा भविष्य में समाज के सुभेद्य वर्गों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करता है।
इन चुनौतियों का समाधान करने के लिए विभिन्न प्रयास किए जा सकते हैं:
- पिछड़े राज्यों को प्राथमिकता: अन्य राज्यों की तुलना में पिछड़े राज्यों को भौतिक एवं मानव पूंजी, प्रौद्योगिकी, संस्थानों के निर्माण और बेहतर अभिशासन आदि में निवेश करते हुए अधिक सहयोग प्रदान किया जाना चाहिए।
- अर्थव्यवस्था का औपचारिकीकरण: सामाजिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने हेतु औपचारिक क्षेत्र में रोजगार सृजित किए जाने की आवश्यकता है। वर्तमान में 90% से अधिक रोजगार असंगठित क्षेत्र से संबंधित हैं।
- शासन में सुधार: संसाधनों के समान वितरण को सुनिश्चित करने हेतु इसे जवाबदेह, कुशल और सहभागी बनाने के लिए शासन में सुधार किए जाने की आवश्यकता है।
- सामाजिक अवसंरचना को सुदृढ़ बनाना: सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज, बीमा कवरेज में वृद्धि, कौशल प्रशिक्षण प्रदान करने और रोजगार सृजन और उद्यमिता को प्रोत्साहित करने वाले परिवेश तथा स्वास्थ्य एवं शिक्षा पर सार्वजनिक व्यय में वृद्धि करने की दिशा में प्रयास किए जाने की आवश्यकता है।
- सूक्ष्म लघु एवं मध्यम उद्योगों (MSMEs) को बढ़ावा देना: चूंकि MSMEs एक श्रम गहन क्षेत्र है, इसलिए इसे राज्य के समर्थन के माध्यम से प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों तक पहुंच सुनिश्चित करने हेतु विद्युत् कटौती, GST के कारण अनुपालन लागत में वृद्धि, विपणन कौशल का अभाव आदि विद्यमान चुनौतियों का समाधान किया जाना चाहिए।
- कृषि क्षेत्र: इस क्षेत्र को प्रौद्योगिकी के उपयोग तथा राज्य के समर्थन के माध्यम से उत्पादक बनाया जाना चाहिए।
भारत ने समावेशी विकास के कई संकेतकों पर महत्वपूर्ण प्रगति की है। वर्ष 2006 से वर्ष 2016 के मध्य सरकारी प्रयासों के माध्यम से लगभग 271 मिलियन लोग निर्धनता के दुष्चक्र से बाहर निकल पाए हैं। हालाँकि बुजुर्गों, विशेष रूप से सक्षम व्यक्तियों, ट्रांसजेंडरों सहित समाज के प्रत्येक वर्ग को विकास की प्रक्रिया में एक सक्रिय भागीदार बनाए जाने की आवश्यकता है। इससे भारत की विकास क्षमता को बढ़ाने में सहायता प्राप्त होगी।
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