वामपंथी दलों का उदय: भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी तथा कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • भारत में वामपथ के उभरने की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बारे में जान सकेंगे
  • स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भारत में वामपंथी पार्टियों और समूहों की विचारधारा को समझ सकेंगे
  • स्वतंत्रता-पूर्व वामपंथी विचारधारा भारत के सामाजिक-राजनीतिक जीवन को किस हद तक प्रभावित कर सकी, ये जान सकेंगे

भारत में वामपंथी आंदोलन के इतिहास में जाने से महले “वामपंथ” शब्द के ऐतिहासिक एक सैद्धांतिक महत्व की चर्चा कर लें । फ्रांस की क्रांति के दौरान, फ्रांस की नेशनल असेम्बली में तीन ग्रुप थे कंज़रवेटिव दल, जिसने राजा तथा कुलीन वर्ग को समर्थन दिया । यह दल राजा और कुलीन वर्ग की शक्तियों को घटाना नहीं चाहता था, लिबरल दल, जो सरकार में सीमित सुधार चाहता था, और रेडिकल दल जोकि सरकारी व्यवस्था में आमूल परिवर्तन चाहता था, जैसे संविधान ग्रहण करना और रस्ता की शक्तियों की सीमाबंदी आदि । असेम्बली के भीतर कजरवेटिव दल वाले अध्यक्ष के दायीं ओर और रेडिकल दल वाले अध्यक्ष के दायीं ओर बैठते थे तथा लिबरल बीच में बैठते थे । तब से, राजनीति की शब्दावली में “वाम” शब्द का प्रयोग ऐसे दलों और आंदोलनों के अर्थ में होता आया है जो सरकार और समाज के वंचित तथा पीड़ित वर्गों के हितों को ध्यान में रखते हुए सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था में मूलभूत सुधारों के लिए लड़ते हैं ।

दूसरी ओर, “दक्षिणपंथी” (Rightist) शब्द का प्रयोग ऐसे दलों के अर्थ में होता है जो अपने स्वयं के हितों के कारण मौजूदा सरकारी व्यवस्था तथा सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन के विरुद्ध हैं । सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था में सीमित परिवर्तन चाहने वाले, सेन्ट्रिस्ट या मध्यम मार्गी के रूप में जाने जाते हैं । सामान्यतः वामपंथ को समाजवाद का पर्याय माना जाता है, क्योंकि समाजवाद एक ऐसी विचारधारा है जो . मेहनतकश जनता को ऊपर उठाने तथा उन्हें उनके मालिकों यानी पूँजीपतियों के शोषण से सुरक्षित रखने का लक्ष्य रखती है ।

आप पहले ही जान चुके हैं कि किस तरह औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप समाजवाद उत्पन्न हुआ और यूरोप में बढ़ा । कार्ल मार्क्स के समाजवाद के सिद्धांत, उनकी इतिहास की अर्थशास्त्रो व्याख्या, उनके वर्ग संघर्ष के सिद्धांत और वर्ग-विहीन समाज के विचारों के बारे में भी आपको बताया जा चुका है । आपने यह भी जाना है कि किस तरह लेनिन ने रूस में मार्क्स के सिद्धांत को लागू किया और उस देश में सर्वहारा का अधिनायकत्व स्थापित किया । यह भी उल्लेख किया जा चुका है कि कांग्रेस के नेता, जैसे जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चन्द्र बोस समाजवादी विचारधारा को मानते थे । इस इकाई में हम भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना तथा कार्यक्रम के बारे में चर्चा करेंगे ।

भारत में वामपंथी आंदोलन कैसे बढ़ा ?

भारत में वामपंथी आंदोलन आधुनिक उद्योगों के विकास और दूसरे देशों जैसे ग्रेट ब्रिटेन तथा रूस में समाजवादी आंदोलनों के प्रभाव के परिणामस्वरूप शुरू हुआ और बढ़ा । औद्योगिक विकास के फलस्वरूप कुछ जगहों जैसे बम्बई, कलकत्ता और मद्रास में मजदूरों की संख्या बहुत अधिक बढ़ी । धीरे-धीरे मजदूर बेहतर कार्य-परिस्थितियों तथा ऊंचे वेतन के लिए अपने आपको संगठित करने लगे । इससे ट्रेड यूनियनों की स्थापना हुई । भारत में ट्रेड यूनियन आंदोलन की वृद्धि की चर्चा आगे ज्यादा विस्तार के साथ करेंगे, किन्तु यहाँ हम यह बताना चाहेंगे कि ट्रेड यूनियनवाद की वृद्धि ने वामपंथी पार्टियों की स्थापना के लिए पृष्ठभूमि तैयार की ।

सफल समाजवादी क्रांति के बारे में पहले ही पढ़ चुके हैं । 1919 में सोवियत यूनियन की कम्युनिस्ट सरकार के सौजन्य से विभिन्न देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों के एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना हुई थी । यह संगठन थर्ड कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के नाम से जाना जाता है क्योंकि इसी तरह के दो संगठन पहले बन चुके थे । इसका उद्देश्य कम्युनिस्ट क्रांति लाना और पूरे विश्व में मजदूर वर्ग की सरकारें स्थापित करना था ।

प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति तक भारतीय उद्योगों में मजदूरों की हड़ताल एक विरल घटना थी और मज़दूर राजनीतिक रूप से जागरूक नहीं थे । प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद से उद्योगों में लगातार हड़ताले हई और बड़ी संख्या में ट्रेड यूनियनें बनीं । प्रथम विश्व युद्ध के बाद गंभीर मज़दूर अशांति, प्रमुखतः युद्ध के कारण मूल्यों में वृद्धि तथा मालिकों द्वारा वेतन न बढ़ाने के कारण थी । आर्थिक हितों की माँग करते हुए मजदूर अपनी राजनीतिक भूमिका के प्रति भी जागरूक हो गए । बम्बई जैसे शहरों में मजदूरों ने दमनकारी रोल्टः ऐक्ट के ख़िलाफ़ हड़तालें आयोजित की । राष्ट्रवादी नेता भी मज़दूर वर्ग के आंदोलन में उत्साह के साथ रुचि लेने लगे । अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन काग्रेस का पहला आधवेशन बम्बई में अक्तूबर, 1920 में राष्ट्रवादी नेता लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में हुआ ।

चलिए इस पृष्ठभूमि के साथ भारत में वामपंथी पार्टियों के इतिहास की चर्चा करते हैं ।

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना

रूस में बोल्शेविक क्रांति की सफलता तथा कम्युनिस्ट इं नेशनल की स्थापना को देखते हुए, भारत में या विदेशों में काम कर रहे कुछ भारतीय प्रांतिकारियों और बुद्धिजीवियों ने भारत में भी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना का विचार किया । एम. एन. राय (मानबेन्द्र नाथ राय) ऐसे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने भारत के नाहर ताशकंद में 1920 में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के तत्वावशन में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी बनाई

एम. एन. राय

मानवेन्द्र नाथ राय का वास्तविक नाम नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य था । उनका जन्म 6 फरवरी 1889 को बंगाल के 24 परगना जिले के उरबलिया गाँव में एक गरीव ब्राह्मण परिवार में हुआ । आरम्भिक जीवन में वे एक क्रांतिकारी आंतकवादी थे । उन्होंने अपनी शिक्षा अरविन्द घोष द्वारा स्थापित राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में ग्रहण की । प्रथम विश्व युद्ध के दौरान वे जर्मन हथियारों की मदद से भारत में हथियारबंद क्रांति लाने में व्यस्त थे । अपने क्रांतिकारी दौर में वे अनेकों देशों में घूमे जैसे मलाया, इंडोनेशिया, इंडो-चीन, फिलीपीन्स, जापान, कोरिया, चीन तथा अमरीका | वे 1916 की गर्मियों में अमरीकी शहर सेनफ्रांसिस्को पहुँचे ।

अमरीका प्रवास के दौरान उन्होंने अपना नाम बदल कर मानवेन्द्र नाथ राय रख लिया । यहाँ उन्होंने मार्क्सवादी साहित्य पढ़ा । धीरे-धीरे वे राष्ट्रवाद से अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिज्म की ओर उन्मुख हुए । अमरीका के संयुक्त शक्तियों यानी ब्रिटेन तथा फ्रांस के साथ प्रथम विश्व युद्ध में शामिल हो जाने के बाद, राय को वहाँ ज़्यादा देर तक ठहरना असुरक्षित लगा । वे मैक्सिको चले गए । यहाँ उनका सम्पर्क रूस के कम्युनिस्ट राजनीतिक माइकल बोरोदिन से हुआ । राय की बोरोदिन से दोस्ती हो गई और उन्होंने बोरोदिन से कम्युनिज़्म की दीक्षा ली तथा मैक्सिको की कम्युनिस्ट पार्टी को संगठित करने में उनकी मदद की । मैक्सिको से वे रूसी कम्युनिस्ट नेता लेनिन के आहवान पर मॉस्को चले गए ।

एम. एन. राय – लेनिन विवाद

मॉस्को में उन्होंने जुलाई-अगस्त, 1920 को हुई कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस में हिस्सा लिया । यह काग्रेस औपनिवेशिक देशों यानी यूरोपीय शक्तियों द्वारा शासित एशियाई देशों के संबंध में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की नीतियों का निर्धारण करने जा रही थी । लेनिन के अनुसार, कम्युनिस्टों को ऐसे देशों में विदेशी सामाज्यवाद के खिलाफ़ बुर्जुआ (मध्यम वर्ग यानी धनी वर्ग और बुद्धिजीवी) राष्ट्रवादियों द्वारा चलाये जा रहे क्रांतिकारी आंदोलनों को पूरा सक्रिय सहयोग देना चाहिए । उनका विचार था कि महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रवादी, जोकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ आंदोलन चला रहे हैं, प्रगतिशील है। किन्तु राय की धारणा थी कि बुर्जुआ राष्ट्रवादी, प्रतिक्रियावादी (प्रगति के ख़िलाफ़) है, साथ ही यह भी कि कम्युनिस्टों को साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष को मज़दूरों तथा किसानों की पार्टियाँ बनाकर स्वतंत्र रूप से चलाना चाहिए । राय के ज़ोर देने के परिणामस्वरूप कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की दूसरी कांग्रेस ने लेनिन के विचारों को निम्न तरीके से संशोधित किया : कम्युनिस्टों को जहाँ एक ओर साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में “क्रांतिकारी राष्ट्रीय बुर्जुआजी को समर्थन देना चाहिए, वहीं उन्हें मजदूरों तथा किसानों के बीच सहयोग के द्वारा अपने संघर्ष को स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ाना चाहिए ।”

एम. एन. राय ताशकंद में

अक्तूबर, 1920 में एम. एन. राय सोवियत रूस स्थित ताशकंद में आये, जोकि अफगानिस्तान से अधिक दूर नहीं है । वहाँ. उन्होंने भारतीय फ्रंटियर जनजाति के लोगों को अग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ सशस्त्र क्रांति के उद्देश्य से सैनिक प्रशिक्षण देने के लिए सैनिक स्कूल की स्थापना की । साथ ही भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना भी की । भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को 1921 में . कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के साथ संबंधित किया गया । इसी बीच तुर्की के सुल्तान (जोकि ख़लीफ़ा या मुसलमानों के धार्मिक प्रमुख थे) के प्रति अग्रेज़ सरकार के विद्वेष से तंग आकर हज़ारों मुसलमान हिजरत करके ताशकंद में राय के साथ शामिल हो गए ।

वहाँ उन्होंने नए स्थापित मिल्ट्री स्कूल में सैनिक प्रशिक्षण लिया । जब मई, 1921 में यह स्कूल बंद हो गया तो मुहाजिर मॉस्को के पूर्व में स्थित मेहनतकशों की कम्युनिस्ट यूनीवर्सिटी में पढ़ने चले गए । वहाँ उन्होंने मार्क्स और लेनिन के विचारों का शिक्षण प्राप्त किया ।

मास्को में प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद मुहाजिर भारत लौट आए । उनकी वापसी पर दे पुलिस द्वारा पकड़ लिए गए और जाँच-पड़ताल के लिए पेशावर लाए गए । यह जाँच पेशावर षड़या केस (1922-23) के रूप में जानी जाती है । इस जाँच के परिणामस्वरूप दो प्रमुख मुहाजिरा – मिया मोहम्मद अकबर शाह और गौहर रहमान ख़ान को दो साल कठोर कैद तथा अन्य लोगों को एक साल कठिन परिश्रम की सज़ा दी गई ।

आरंभिक कम्युनिस्ट ग्रूप

इसी बीच, वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय, भूपेन्द्र नाथ दत्त तथा बरकतउल्लाह जैसे क्रांतिकारी, जो भारत के बाहर काम कर रहे थे, मार्क्सवादी हो गए । इस दौरान भारत के अंदर भी कुछ कम्युनिस्ट ग्रूप उभरे । महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन स्थगित करने के बाद इसके कुछ समर्थक मार्क्सवाद की ओर मुड़ गए ।

बम्बई में श्रीपद अमृत डांगे द्वारा एक कम्युनिस्ट ग्रूप संगठित किया गया । डांगे का जन्म अक्तूबर, 1899 को नासिक में एक मराठी ब्राह्मण परिवार में हुआ था । उनके पिता एक सॉलिसिटर के पास क्लर्क थे । उन्होंने विल्सन कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की थी । जब गांधीजी ने असहयोग आदोलन शुरू किया तब डांगे अपनी पढ़ाई छोड़कर उसमें शामिल हो गए । असहयोग आंदोलन के स्थगित होने के तुरंत बाद वे कम्युनिस्ट हो गए । 1921 में उन्होंने “गांधी वर्सेज़ लेनिन” नामक एक किताब प्रकाशित की, जिसमें उन्होंने समाजवाद के प्रति अपने झकाव को प्रदर्शित किया । 1922 में उन्होंने एक कम्युनिस्ट पत्रिका “दी सोशलिस्ट’ का सम्पादन शुरू किया । इस पत्रिका के 16 सितम्बर 1924 के एक अंक में डांगे ने इंडियन नेशनल कांग्रेस की इंडियन सोशलिस्ट लेबर पार्टी के बनने की घोषणा की । शायद डांगे चाहते थे कि कम्युनिस्ट एक ग्रुप के रूप में कांग्रेस के अंदर ही काम करें ।

मई 1923 में मद्रास के सिंगारावेल चेट्टियर नामक एक वृद्ध वकील ने, जो अपने आपको कम्युनिस्ट मानते थे. “लेबर किसान पार्टी” बनाने की घोषणा की । दिसम्बर 1932 को हए इडियन नेशनल । कांग्रेस के ‘गया अधिवेशन’ में उन्होंने राष्ट्रीय स्वतत्रता पर एक प्रस्ताव रखा और असहयोग आंदोलन को स्थगित करने पर गांधीजी की आलोचना की । साथ ही मझाव दिया कि असहयोग आंदोलन को मज़दूरो को राष्ट्रीय हड़ताल के साथ मिलाना चाहिए ।

1925-26 में बंगाल में मज्जफर अहमद ने काज़ी नज़रूल इस्लाम की सहायता से लेबर स्वराज पार्टी (जिसे शीघ्र ही किसानों तथा मजदूरों की पार्टी के रूप में नया नाम दिया गया था) बनाई । काजी नज़रूल इस्लाम, जो उस समय 49वीं बंगाल रेजिमेंट में हवलदार थे, बाद में राष्ट्रीय कवि के रूप में प्रसिद्ध हए ! लाहौर और कानपुर जैसे शहरों में भी ‘कम्युनिस्ट पार्टियाँ वनीं ।

इसी दौरान एम. एन. राय, गुप्त दूतों द्वारा भारत के कम्युनिस्टों के साथ सम्पर्क बनाए हाः धे । 2 नवम्बर 1922 को एम. एन. राय ने, भारतीय कम्पनिस्ट पार्टी के लिए एक दोहो भन की योजना की रूपरेखा बताते हए. डाग को पत्र लिखा । इस योजना के अनमार “क सार्वजनिक मगटन तथा एक गप्त दल बनाने का सुझाव दिया ।

पूर्ववर्ती भारतीय कम्युनिस्टों को, अपने प्रति अग्रेज़ सरकार के विद्वेष के कारण, एक अखिल भारतीय संगठन बना पाना मुश्किल लग रहा था । 1924 में अग्रेज़ सरकार ने चार प्रमुख कम्युनिस्टों के खिलाफ षडयंत्र का केस शुरू किया । वे चार कम्युनिस्ट थे – मुज्जफर अहमद, एस. ए. डांगे, शौकत उस्मानी तथा नलिनी गुप्ता । सरकार ने आरोप लगाया कि इन कम्युनिस्टों ने “कम्युनिस्ट इंटरनेशनल” के नाम से पहचाने जाने वाले क्रांतिकारी संगठन की एक शाखा स्थापित की है और इस संगठन का उद्देश्य ब्रिटिश सम्राट की भारत पर प्रभुसत्ता समाप्त करना है । चूंकि अभियुक्तों पर मुकदमा कानपुर में चला । यह केस कानपुर षडयंत्र केस के नाम से जाना जाता है । मुकदमे के दौरान डांगे ने भारत में समाजवाद का प्रचार करने के अधिकार का दावा किया क्योंकि अग्रेज़ साम्राज्य के अन्य हिस्सों में तथा ब्रिटेन में ऐसा करने की स्वतंत्रता है । इस मुकदमे के परिणामस्वरूप मई 1974 को डांगे अहमद. उस्मानी और गुप्ता को चार-चार साल के कठोर कारावास की सज़ा हुई।

 भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना

सितम्बर, 1924 को, कानपुर में सत्यमस्त ने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण की घोषणा की । उन्होंने पार्टी के एक अंतरिम संविधान की भी घोषणा की । इसका उद्देश्य “भारत के समस्त समुदायों के हितों में” उत्पादन के साथरों तथा इन-सम्पत्ति के बंटवारे में समान मालिकाना हक एवं नियंत्रण के आधार पर भार पूर्ण स्वाधीनता का पुनर्गठन करना था ।

दिसम्बर, 1925 में सत्यभक्त ने कानपुर में कन्यनियों को एक अखिल भारतीय कान्फ्रेंस का आयोजन किया, जिसमें नलिनी गुप्ता और मज्जफर अहमद, जिन्हें जेल से रिहा कर दिया गया था, सहित अनेकों कम्युनिस्टों ने हिम्सा लिया । यह कान्स मिगारावेल चैटिटयर की अध्यक्षता में हुई । कानपुर कान्फ्रेंस को भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को चौपचारिक शुरुआत के रूप में माना जाता है । इस मीटिंग में पार्टी की केन्द्रीय समिति की स्थापना हुई तथा एस. बी. घाटे और जे. पी. बर्गरहट्टा को संयुक्त सचिव बनाया गया ।

1926 के अंत में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय समिति ने पार्टी के कार्यक्रम की रूपरेखा . तैयार करने के लिए अनेकों गुप्त बैठकें की । 1925 से भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन को संगठित ‘ करने के लिए ब्रिटिश कम्युनिस्टो ने भारत आना शुरू किया । 1928 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के दो सदस्यों को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के छठे अधिवेशन की कार्यकारिणी समिति के वैकल्पिक सदस्यों के रूप में चुना गया । 1930 में पार्टी औपचारिक रूप से कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से सम्बद्ध हो गई ।

उस समय भारत के नवजात कम्युनिस्ट आदोलन के सामने कुछ समस्याएँ थीं :

  • धन के अभाव से ग्रसित वा अपने क्रांतिकारी चरित्र और कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से सम्बद्धता के कारण भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति सरकार का रवैया काफी विद्वेषपूर्ण रहा ।
  • कार्यकर्ताओं का अभाव था, और
  • भारतीय समाज का सुविधा प्राप्त वर्ग कम्बनिजम के विरुद्ध था ।

मजदूर और किसान पार्टियों की स्थापना

रुकावटों के बावजूद कम्युनिस्ट आंदोलन में गति पकड़ी । 1927 में बम्बई तथा पंजाब में मजदूर और किसान पार्टियाँ बनीं । इन पार्टियों ने अखबारों की सहायता से अपने विचारों तथा कार्यक्रमों को प्रचारित-प्रसारित करने की कोशिश की :

बम्बई की मज़दूर और किमान पार्टी ने क्राति नामक एक मराठी साप्ताहिक निकाला । पंजाब की मजदूर और किसान पार्टी ने मेहनतकश नामक एक उर्दू साप्ताहिक निकाला । अक्टूवर, 1928 में मेरठ में हुई कान्फ्रेंस में भी एक किसान और मजदूर पार्टी बनी । इस कान्फ्रेंस में ब्रिटिश कम्यनिस्ट फिलिप स्पाट ने हिस्सा लिया । कान्फ्रेंस ने निम्न मागें करते हुए प्रस्ताव पारित  किए :

  • राष्ट्रीय स्वाधीनता, राजशाही व्यवस्था की समाप्ति,
  • मजदूरों के ट्रेड यूनियन बनाने के अधिकार को मान्यता,
  • ज़मींदारी-प्रथा का उन्मूलन,
  • भूमिहीन किसानों के लिए भूमि,
  • कृषि बैंकों की स्थापना,
  • दिन में अधिकतम काम के आठ घंटे, और
  • औद्योगिक मज़दूरों के लिए न्यूनतम वेतन ।

दिसम्बर, 1928 में सोहन सिंह जोश की अध्यक्षता में मजदूर और किसान पार्टियों की एक अखिल भारतीय कान्फ्रेंस कलकत्ता में हुई । यहाँ तीन मुख्य निर्णय लिए गए :

  • इस कान्फ्रेंस ने एक नेशनल एक्जीक्यूटिव कमेटी का गठन किया, जिसमें प्रमुख कम्युनिस्ट शामिल थे ।
  • इस कान्फ्रेंस ने कम्युनिस्ट आंदोलन के अतर्राष्ट्रीय चरित्र के साथ-साथ भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साम्राज्यवाद-विरोधी लीग तथा कम्युनिस्ट इंटरनेशनल जैसे अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के साथ संबंध कायम करने पर जोर दिया ।
  • इस कान्फ्रेंस ने कम्युनिस्टों को “तथाकथित कांग्रेसी बुर्जुआ नेतृत्व के साथ” अपनी पहचान .. बनाने के बजाय उन्हें अपना आंदोलन स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ाने का निर्देश दिया ।

ट्रेड यूनियनों पर कम्युनिस्ट प्रभाव

इसी बीच कम्युनिस्टों ने मजदूरों की हड़ताल का नेतृत्व करके ट्रेड यूनियन संगठनों पर अपना प्रभाव बढ़ा लिया । खड़गपुर में फरवरी और सितम्बर, 1927 की रेलवे वर्कशॉप मजदूरों की हड़ताल मे कम्युनिस्टों ने एक प्रमुख भूमिका अदा की । उनका प्रभाव वम्बई के टैक्सटाइल-मिल मज़दूरो पर भी बढ़ गम । अप्रैल से अक्तूबर, 1928 तक बम्बई के टैक्सटाइल मजदूरों ने वेतन में कटौती के ख़िलाफ़ भारी हड़तालें कीं । इन हड़तालों में कम्युनिस्ट गिरनी कामगार यूनियन ने सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । 1928 में इस ट्रेड यूनियन की शक्ति में भारी बढ़ोत्तरी हुई । दिसम्बर, 1928 तक इसकी शक्ति 54,000 सदस्यों तक बढ़ गई, जवकि अनुभवी उदार ट्रेड यूनियन नता एन.एम. जोशी के नेतृत्व वाली बाम्बे टैक्सटाइल लेबर यूनियन के केवल 6,749 सदस्य ही थे ।

1928 में उद्योगों में हड़तालों ने गभीर रूप ले लिया । उस वर्ष हड़तालों के परिणामस्वरूप 3 करोड़ 15 लाख कार्य दिनों की हानि हुई । सरकार ने उद्योगों में अशांति का ज़िम्मेदार कम्यनिस्टों को ठहराया । इसलिए सरकार ने उनकी गतिविधियों को रोकने के उपायों की योजना बनाई । जनवरी. 1929 को वाइसरॉय लार्ड इरविन ने सेन्ट्रल लेजिस्लेटिव असेम्बली में दिए गए अपने भाषण में कहा कि, “कम्युनिस्ट विचारधारा के बढ़ते प्रभाव ने चिन्ताजनक स्थिति पैदा कर दी है ।” 13 अप्रैल, 1929 को वाइसरॉय ने क्रांतिकारी विद्रोही तत्त्वों से निपटने के लक्ष्य मे पब्लिक मेफ्टी आर्डीनेस (जन सुरक्षा अध्यादेश जारी करने की घोषणा की । उसके साथ ही ट्रेड डिसप्पट ऐक्ट (श्रम विवाद कानन) भी स्वीकार किया गया । इस कानून से मजदूरों की समस्याओं को सुलझाने के लिए ट्राइब्यूनलों की स्थापना हुई । किन्तु व्यवहार में इसके द्वारा ऐसी हड़तालों पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जो सरकार को “बाध्य” करती हैं या लोगों की कठिनाई का कारण होती है ।

मेरठ षडयंत्र केस और 1934 का प्रतिबंध

14 मार्च, 1929 को ! कम्यनिस्टों की गिरफ्तारी सरकार द्वारा कम्यनिस्ट-विरोधी सबसे दमनकारी कदम था । इसी सिलसिले में हर और शिक्षा भी हुई । इन कम्यनिस्टों पर ब्रिटिश सम्राट के ख़िलाफ़ षडयंत्र करने के आरोप का लगाया गया । उनके खिलाफ आरोप आर.ए. होरटन (डायरेक्टर, इन्टेलीजेंस जारी, होम डिपार्टमेंट, गानोर ऑफ़ इंडिया के तहत एक विशेष अधिकारी) द्वारा लगार. गाए । उन्होंने यह आरोप गाय कि कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के निर्देश के तहत ये कम्युनिस्ट आम हड़तालों तथा समाज का द्वारा ब्रिटिश सम्राट को भारत पर उसके प्रभुत्व से वंचित करना चाहते थे । यहाँ मन या गया था कि इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कम्युनिस्टों ने मेरठ जैसी जगहों पर मजदूर और किसान पार्टियों का गठन किया है ।

इस केस में जिन 32 व्यक्तियों पर आरोप लगाए गए थे उनमें दो इंग्लिश कम्युनिस्ट फिलिप स्पार्ट (Philip Sprail) तथा बी.एफ. ब्राडले (B. F. Bradley) और लेस्टर हचिनमन 1 ccter is itihan) नामक एक इग्लिश पत्रकार भी शामिल थे । कम्युनिस्टों पर मुकदमा चार माल तक चला । अंत में स्पेशल सेशन कोर्ट की अपील पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कछ अभियोगियों को बरी कर दिया और अन्य लोगों की सज़ा बहुत कम कर दी । यह इस विचार के आधार पर हुआ था कि “अभियक्तों पर कधित षड़यंत्र को पूरा करने में प्रकट रूप से गैर कानुनी गतिविधियो में कार्यरत होने का आरोप नहीं है।’

कम्युनिस्टों के खिलाफ़ मेरठ षड़यंत्र केस की भारत में आपक रूप मे आलोचना हुई थी । महात्मा गांधी ने इसकी व्याख्या कानन के भेष में अराजकता के राज के रूप में की और कहा कि इसका उद्देश्य कम्युनिज्म को समाप्त करना नहीं बल्कि आतंक फैलाना था ! इस कम से कम्यनिस्ट आंदोलन को धक्का पहुँचने के बजाय इसने कम्युनिस्टों  में अधिक बलिदान और शहादत की भावना जगाई ।  उदाहरण के लिए राधारमण मित्रा ने अदालत में अपने बयान में कहा :

“यह वह केस है, जिसकी राजनीतिक एवं ऐतिहासिक महत्ता होगी । यह मात्र 31 अपराधियों के ख़िलाफ़ पुलिस द्वारा साधारण • ढंग से अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए चलाया गय केस नहीं है । यह वर्ग-संघर्ष का एक उदाहरण है । यह एक निश्चित राजनीतिक नीति के तहत शुरू किया और चलाया गया था । यह भारत की ब्रिटिश साम्राज्यवादी सरकार द्वारा उन शक्तियों पर किया गया प्रहार है जिन्हें वह अपने वास्तविक शत्रु के रूप में मानती है। तथा अंत में जो इसका तख्ता पलटेगी । इन शक्तियों ने पहले से ही इन साम्राज्यवादियों के विरुद्ध समझौतावादी रवैया अपना रखा था तथा अपनी शक्ति का भी ये आरम्भ से प्रदर्शन कर रहे थे” ।

1934 में कम्युनिस्टों ने अपनी जुझारू ट्रेड यूनियन गतिविधियों को पुनर्गठित किया । शोलापुर, नागपुर तथा बम्बई में हड़ताले हुई । सरकार घबरा गई और अपने आपको कम्युनिस्टों से निपटने में असमर्थ पाते हुए उसने 23 जुलाई, 1934 को कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया पर प्रतिबंध लगा दिया । उसके बाद से अनेकों कम्युनिस्टों ने इंडियन नेशनल कांग्रेस तथा नई गठित समाजवादी कांग्रेस पार्टी के अंदर से अपनी गतिविधियाँ जारी रखीं । कम्युनिस्ट पार्टी के भूमिगत कार्य चलते रहे ।

बोध प्रश्न 2 1) ब्रिटिश सरकार ने क्यों और कैसे कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया को दबाने की कोशिश की ? .

 कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना

कम्युनिस्ट अपनी गतिविधियाँ इंडियन नेशनल कांग्रेस से कमोबेश स्वतंत्र रूप से चलाते रहे थे, किन्तु कांग्रेस के भीतर भी एक अच्छी-खासी तादाद समाजवादी या कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रति आकृष्ट थी और उसने कांग्रेस के अन्दर ही एक समाजवादी कार्यक्रम बनाने का प्रयास किया था । ऐसे समाजवादियों में जवाहरलाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, अच्युत पटवर्धन तथा राम मनोहर लोहिया जैसे नेता थे ।

आरंभिक समाजवादी नेता

1934 में सविनय अवज्ञा आंदोलन के स्थगित होने के बाद, कांग्रेसियों के एक हिस्से ने विधायिकाओं में घुसने का निर्णय लिया, ताकि वे सरकार के भीतर रहते हुए कांग्रेस के हितों के लिए कार्य कर सके ! महात्मा गांधी ने इन’ कांग्रेसियों के कार्यक्रम का समर्थन किया । जिन्हें संविधानवादियों के रूप में जाना जाता था ।

इस अवसर पर कुछ समाजवादी कांग्रेस संगठन के भीतर ही समाजवादी पार्टी बनाना चाहते थे ताकि विधायिका में घुसने से कांग्रेस के क्रांतिकारी चरित्र को नष्ट होने से बचाया जा सके । कांग्रेस के भीतर के समाजवादी, कम्युनिस्टों की तरह मार्क्सवादी विचारधारा में विश्वास रखते थे । किन्तु समाजवादी कांग्रेसियों तथा कम्युनिस्टों में दो मूलभूत भिन्नताएँ थीं :

  • प्रथम, समाजवादी कांग्रेसी अपने को इंडियन नेशनल कांग्रेस के साथ जोड़ते थे, जबकि कम्युनिस्ट , अपने को कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के साथ जुड़ा पाते थे । दूसरे, समाजवादी कांग्रेसी राष्ट्रवादी थे, किंतु ‘ कम्युनिस्ट एक अंतर्राष्ट्रीय साम्यवादी समाज के लक्ष्य में भी विश्वास रखते थे ।
  • राष्ट्रीय स्वाधीनता के संघर्ष को मज़दूरों, किसानों तथा पेटी बुर्जुआ (निम्न मध्यम वर्ग) की मदद से आगे बढ़ाने के लिए समाजवादी कांग्रेसी, कांग्रेस की भीतर की ही बुर्जुआ जनतांत्रिक शक्तियों के साथ शामिल हो गए ।
  • समाजवादी कांग्रेसी, कांग्रेस में मजदूरों तथा किसानों को लाकर कांग्रेस संगठन के लिए एक विस्तृत आधार तैयार करना चाहते थे । उनका विचार था कि मजदूरों और किसानों को राष्ट्रीय स्वाधीनता के संघर्ष में हिस्सा लेना चाहिए ।
  • विदेशी राज से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए मज़दूरों की हड़तालों तथा किसानों के संघर्ष जैसे तरीकों की प्रभावशीलता में उनका विश्वास था । समाजवादी कांग्रेसियों का विश्वास वर्ग संघर्ष में था और वे पूंजीवाद, ज़मींदारी एवं रजवाड़ों (भारतीय रियासतों) की समाप्ति के लिए लड़े ।
  • वे कामगार जनता को ऊपर उठाने के लिए कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रम में मूलभूत परिवर्तनकारी सामाजिक और आर्थिक उपायों को शामिल करना चाहते थे । तीसरे दशक के प्रारंभ में वामपंथी कांग्रेसियों द्वारा बिहार, यू. पी., बम्बई तथा पंजाब जैसे प्रांतों में .. समाजवादी दल बना लिये गये थे ।

1933 में नासिक जेल में जयप्रकाश नारायण, अच्युत पटवर्धन, एम. आर. मसानी, एन.जी. गोरे, अशोक मेहता, एस.एम. जोशी तथा एम.एल. दंतवाला जैसे कुछ नौजवान समाजवादियों ने कांग्रेस संगठन के  भीतर ही समाजवादी पार्टी बनाने का विचार उठाया । 1934 में वनारस में संपूर्णानंद ने एक पैम्फलेट (पर्चा) प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने कांग्रेस के अंग के रूप में एक अखिल भारतीय समाजवादी पार्टी वनाने की आवश्यकता पर जोर दिया । उनका विचार था कि ऐसा संगठन पूंजीपतियों तथा उच्च वर्जआजी के प्रभाव का विरोध करेगा ।

ये समाजवादी कांग्रेसी पाश्चात्य-प्रभावी मध्यम वर्ग से आये थे । वे मार्क्स, गांधी तथा पश्चिम के मामाजिक जनतंत्र के विचारों से प्रभावित थे । उन्होंने मार्क्सवादी, समाजवादी, काग्रेसी राष्ट्रवादी तथा पश्चिम के लिवरल जनतंत्र का एक साथ प्रयोग किया ।

आरंभिक समाजवादियों का संक्षिप्त परिचय

समाजवादी कांग्रेस के अग्रणी नेता जयप्रकाश नारायण का जन्म 1902 ई. में बिहार में हुआ था । 1921 में असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए उन्होंने पटना कालेज मे अपनी पढ़ाई छोड़ दी । उसके बाद वे अमरीका में यूनिवर्सिटी की पढ़ाई करने के लिए गये । वहां उन्होंने मेहनत मजदूरी करके अपनी पढ़ाई जारी रखी । अमरीका में वे कम्यनिस्टों के संपर्क में आये और मार्क्सवादी बन गये । अमरीका मे वापस आने पर उन्हें लगा कि भारतीय कम्युनिस्ट, मास्को की कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से आदेश ले रहे हैं ।

हालांकि वे रूस की बोल्शेविक क्रांति और उस देश में कम्युनिज़्म की सफलता के प्रशंसक थे, फिर भी भारतीय कम्यनिस्टों का मास्को के आदेशों के तहत काम करना उन्हें पसंद नहीं आया । भारत वापस आने पर 1929 में वे कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गये । 1930 में वे काग्रेस के श्रम अनुसंधान विभाग के अध्यक्ष बना दिये गये । उनकी पत्नी प्रभावती, गांधी की पक्की समर्थक थीं । जयप्रकाश ने ‘व्हाय सोशलिज़्म’ (Why Socialism) नामक एक पुस्तक प्रकाशित की जिसमें उन्होंने भारत में समाजवाद की प्रासंगिकता पर जोर दिया ।

यूसूफ मेहरअली का जन्म 1903 ई. में बम्बई के एक धनाढ्य व्यापारी परिवार में हुआ । वे मेजिनी (Mazzini) तथा गैरीबालदी (Gairibaldi) और आयरलैंड के सिन फेन आंदोलन (Sinn Fein Movement) तथा चीनी आंदोलनों और रूमी क्रांति से प्रभावित थे । 1928 ई. में उन्होंने बम्बई की प्रांतीय यूथ लीग को संगठित किया जिसने साइमन कमीशन के ख़िलाफ़ तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन के लिए प्रदर्शनों का आयोजन करने में सक्रिय हिस्सा लिया ।

अचुत्य पटवर्धन का जन्म 1905 ई. में हुआ । उनके पिता एक धनी व्यक्ति थे और थियोसाफी विचारधारा में विश्वास रखने वाले थे । उनकी शिक्षा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में हुई । शिक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने कुछ समय के लिए विश्वविद्यालय प्राध्यापक के रूप में काम किया तथा यूरोप गये । उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया और गिरफ्तार हुए तथा सज़ा काटी । पटवर्धन पर गांधीवाद तथा थियोसाफिकल विचारधारा का गहरा प्रभाव था ।

अशोक मेहता का जन्म 1911 में शोलापुर में हुआ । उनके पिता गुजराती के प्रमुख साहित्यकार थे । उनकी शिक्षा बम्बई विश्वविद्यालय में हुई । उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में हिस्सा लिया और जेल में सज़ा काटी । अनेक वर्षों तक उन्होंने समाजवादी काग्रेस पार्टी की ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’, नामक पत्रिका का सम्पादन किया ।

एम.आर. मसानी का जन्म बम्बई के एक धनी और शिक्षित परिवार में हुआ । उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ़ इकानॉमिक्स में शिक्षा प्राप्त की । वे फेबियन समाजवाद, ब्रिटिश मज़दूर आंदोलन तथा रूस की बोल्शेविक क्रांति से प्रभावित थे ।

आचार्य नरेन्द्र देव का जन्म 1889 ई. में उत्तर प्रदेश में हुआ । उनके पिता वकील थे । अपने जीवन के प्रारंभिक दौर में वे बाल गंगाधर तिलक, लाला हरदयाल तथा अरविन्द जैसे अति राष्ट्रवादियों से प्रभावित थे । बोल्शेविक क्रांति के बाद दे मार्क्सवाद की ओर पलटे । उन्होंने राष्ट्रवादी और समाजवादी आंदोलन में किसानों को भूमिका को बहुत महत्व दिया । इसीलिए वे उत्तर प्रदेश में किमानों को संगठित करने के कार्य में जुट गये । समाजवादी आंदोलन में उन्होंने मध्यम वर्गीय बुद्धिजीवियों की भूमिका को भी महत्वपूर्ण माना । वे स्वयं को मार्क्सवादी मानते थे और साथ ही उन्होंने गांधीजी के रचनात्मक कार्यों का समर्थन भी किया ।

राम मनोहर लोहिया का जन्म 1910 ई० में उत्तर प्रदेश के एक राष्ट्रवादी मारवाड़ी परिवार में हुआ । उन्होंने बनारस, कलकत्ता तथा बर्लिन विश्वविद्यालयों से शिक्षा प्राप्त की । उन्होंने अपनी डाक्टरेट की उपाधि पालिटिकल इकॉनमी विषय में बर्लिन विश्वविद्यालय से प्राप्त की । भारत में उनकी वापसी पर जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के विदेश नीति विभाग का कार्यभार सीप दिया । लोहिया यूरोप के समाजवादी जनतंत्र तथा गांधीवादी विचारों से प्रभावित थे । मार्क्सवाद या कम्युनिज़्म में उनका विश्वास नहीं था । उन्होंने ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ नामक पत्रिका प्रारंभ की जो बाद में समाजवादी कांग्रेस पार्टी का औपचारिक हिस्सा बन गयी ।

अखिल भारतीय कांग्रेस समाजवादी पार्टी की ओर

पहली अखिल भारतीय समाजवादी काग्रेस कान्फ्रेंस का आयोजन बिहार समाजवादी पार्टी की ओर से मई 1934 को पटना में जयप्रकाश नारायण द्वारा हुआ । कान्फ्रेंस की अध्यक्षता आचार्य नरेन्द्र देव ने की । अपने अध्यक्षीय भाषण में नरेन्द्र देव ने कांग्रेसियों के नये स्वराजवादी हिस्से की आलोचना की जो विधायिकाओं में घुसना चाहते थे और कांग्रेस के क्रांतिकारी चरित्र के विरुद्ध चलना चाहते थे । उन्होंने समाजवादियों से कहा कि वे अपने कार्यक्रम को कांग्रेस द्वारा अपनाये जाने के संघर्ष को । जारी रखें । कान्फ्रेंस ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें कांग्रेस को एक ऐसा कार्यक्रम अपनाने के लिए कहा गया जो कि कार्य और लक्ष्य की दृष्टि से समाजवादी हो ।

इस कान्फ्रेंस के बाद समाजवादी कांग्रेसियों ने अखिल भारतीय समाजवादी कांग्रेस पार्टी को संगठित करने में कड़ी मेहनत की । आयोजन-सचिव की हैसियत से जयप्रकाश नारायण ने देश के विभिन्न भागों में पार्टी की प्रांतीय शाखायें संगठित करने के लिए प्रचार किया ।

अखिल भारतीय समाजवादी काग्रेस पार्टी का प्रथम वार्षिक अधिवेशन अक्तूबर 1934 में सम्पूर्णानंद की अध्यक्षता में बम्बई में हुआ । इसमें 13 प्रांतों के प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया । इस मीटिंग में समाजवादी काग्रेस की राष्ट्रीय एक्जीक्यूटिव (कार्यकारिणी) का गठन हुआ जिसके जनरल सेक्रेटरी जयप्रकाश नारायण थे ।

कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का कार्यक्रम

समाजवादी कांग्रेस पार्टी ने एक संविधान अपनाया जिसमें निम्न कार्यक्रम प्रस्तुत किया गया ।

  • समाजवादी कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रम को इंडियन नेशनल कांग्रेस. द्वारा स्वीकार कराने का कार्य करना ।
  • मजदूरों और किसानों को उनकी स्वयं की आर्थिक उन्नति के साथ-साथ स्वाधीनता तथा समाजवाद की प्राप्ति के आंदोलन को आगे बढ़ाने हेतु संगठित करना ।
  • यूथ लीगों, महिला संगठनों तथा स्वयंसेवी संगठनों को संगठित करना तथा समाजवादी कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रम के लिए उनका समर्थन प्राप्त करना ।
  • अंग्रेज़ सरकार के भारत को साम्राज्यवादी युद्धों में शामिल करने के किसी भी प्रयास का विरोध करना तथा ऐसे किसी भी संकट का प्रयोग स्वतंत्रता संघर्ष को तेज़ करने के लिए करना ।
  • संवैधानिक मामलों में अग्रेज़ सरकार के साथ किसी भी प्रकार के समझौते का विरोध करना ।

बम्बई की मीटिंग ने एक व्यापक कार्यक्रम को अपनाया जिसमें भारत में समाजवादी समाज का ख़ाका तैयार किया गया । इसमें निम्न मुद्दे शामिल थे :

  • सभी शक्तियों या सत्ता का जनता को हस्तातरण,
  • देश के आर्थिक विकास की योजना बनाना तथा राज्य द्वारा उसका नियंत्रण,
  • वितरण तथा विनिमय के साधनों के प्रगतिशील समाजीकरण को दृष्टि में रखना और उसके अनुसार प्रमुख उद्योगों, (जैसे इस्पात, कपड़ा, जूट, रेलवे, जहाज़रानी, बागवानी और खदानों), बीमा और सार्वजनिक उपयोगिताओं का समाजीकरण ।
  • विदेशी व्यापार पर राज्य का एकाधिकार,
  • आर्थिक जीवन के असंगठित क्षेत्रों में उत्पादन, वितरण तथा ऋण के लिए सहकारी संस्थाओं का गठन,
  • राजाओं, ज़मींदारों तथा अन्य शोषणकारी वगों की बतिपूर्ति करके उनके विशेष अधिकारों की समाप्ति,
  • किसानों के बीच भूमि का पुनर्वितरण,
  • राज्य द्वारा सहकारिता तथा सामूहिक खेती को प्रोत्साहन दिया जाना और नियंत्रण रखना ।
  • किसानों तथा ‘मज़दूरों पर जो अंण है उन्हें समाप्त करना,
  • रोज़गार का अधिकार या राज्य द्वारा भरण-पोषण,
  • आर्थिक वस्तुओं के वितरण का अंतिम आधार प्रत्येक को उसकी आवयकता के अनुसार होना चाहिए,
  • वयस्क मताधिकार व्यावहारिक आधार पर होना चाहिए,
  • राज्य किसी भी धर्म का न तो समर्थन करे और न ही धर्मों के बीच भेद । जाति या समुदाय के आधार पर किसी भेदभाव को मान्यता नहीं देनी चाहिए ।
  • राज्य, स्त्री और पुरुषों के बीच कोई भेदभाव न करे, और
  • भारत के तथाकथित सार्वजनिक ऋण की समाप्ति ।

बम्बई अधिवेशन ने मजदूरों और किसानों की उन्नति के लिए एक अलग कार्यक्रम अपनाया । मजदूरों के लिये निम्न मांगे थीं, ट्रेड यूनियन बनाने की स्वतंत्रता तथा हड़ताल पर जाने का अधिकार, जीवनयापन योग्य वेतन, सप्ताह में अधिकाधिक 40 घन्टे का काम और बेरोज़गारी, बीमारी, दुर्घटना तथा बुढ़ापे के लिए बीमे की व्यवस्था ।

किसानों के लिए निम्न मागें थीं :

  • ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति,
  • सहकारी कृषि को बढ़ावा,
  • लाभ न देने वाली भूमि पर लगान तथा टैक्स की माफ़ी,
  • भूमि लगान कम करना और सामंती करों की समाप्ति ।

समाजवादी कांग्रेस पार्टी के, स्वतंत्रता (ब्रिटिश राज से मुक्ति) तथा समाजवाद, दो मुख्य लक्ष्य थे ।

  • प्रथम लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समाजवादी कांग्रेस दल ने कांग्रेस के भीतर के साम्राज्यवाद-विरोधी तथा गैर समाजवादी ताकतों से मिलकर काम करने का निर्णय लिया । जयप्रकाश नारायण ने कहा : “कांग्रेस के भीतर का हमारा काम, एक सच्चे साम्राज्यवाद विरोधी संगठन के रूप में विकसित करने की नीति से नियंत्रित है ।”
  • उन्होंने 1935 में अपने साथियों को पूर्व चेतावनी भी दी थी कि : “ऐसा कोई कार्य नहीं किया जाना चाहिये जिससे सच्चे राष्ट्रवादी तत्व आंदोलन के ख़िलाफ़ हो जायें और उन्हें समझौता-वादी दक्षिणपंथियों के साथ शामिल करने पर मजबूर करें ।”

चूंकि समाजवादी कांग्रेसियों का अंतिम उद्देश्य भारत में एक समाजवादी समाज की स्थापना करना था इसलिए समाजवादी कांग्रेसी इण्डियन नेशनल कांग्रेस द्वारा अपने कार्यक्रम स्वीकार कराने के लिए भी जुटे रहे । आचार्य नरेन्द्र देव ने अखिल भारतीय समाजवादी कांग्रेस की पहली कान्फ्रेंस के अध्यक्षीय भाषण में कहा था कि : “राष्ट्रवादी आंदोलन को समाजवाद की दिशा में ले जाने के लिए अपने काम को जारी रखना चाहिए ।”

समाजवादी कांग्रेसियों ने स्वतंत्रता तथा समाजवाद प्राप्ति के अपने दोहरे उद्देश्य को पाने के लिए तीन तरह से कार्य किया ।

  • काग्रेसी होने के नाते कांग्रेस के भीतर उन्होंने साम्राज्यवाद-विरोधी तथा राष्ट्रवादी कार्यक्रमों को तैयार किया ।
  • समाजवाद के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने काग्रेस के बाहर मजदूरों, किसानों, विद्यार्थियों, बुद्धिजीवियों, नौजवानों तथा औरतों को संगठित किया,
  • उन्होंने उपरोक्त दोनों गतिविधियों को आपस में जोड़ने की भी कोशिश की ।

समाजवादी कांग्रेसियों ने किसानों तथा मजदूरों को उनकी स्वयं की आर्थिक उन्नति के साथ-साथ विदेशी राज से देश को स्वतंत्र कराने के लिए लामबंद करने का प्रयास किया ।

राष्ट्रीय राजनीति पर कांग्रेसी समाजवादियों के कार्यक्रम का प्रभाव

समाजवादी काग्रेस पार्टी के गठन पर कांग्रेसियों के बीच एक मिश्रित प्रतिक्रिया थी । अनुदारवादी (conservative) अथवा दक्षिण पंथी कांग्रेसियों ने समाजवादी काग्रेस की सम्पत्ति जब्त करने तथा वर्ग संघर्ष की बड़ी-बड़ी बातों की आलोचना की । महात्मा गांधी ने भी उनके वर्ग संघर्ष के विचार को नामंजूर कर दिया । गांधी जी रजवाड़ों, (भारतीय रियासतों) ज़मींदारी तथा पूंजीवाद को समाप्त करने की आवश्यकता में विश्वास नहीं रखते थे । वे राजाओं, ज़मींदारों तथा पूंजीपतियों का हृदय परिवर्तन करना चाहते थे ताकि वे अपने को राज्यों, ज़मींदारियों तथा फैक्टरियों का मालिक समझने के बजाय अपने आपको अपनी प्रजा, पट्टेदारों तथा मजदूरों के ट्रस्टी के रूप में मानें ।

किन्तु जवाहरलाल नेहरू तथा सुभाष चन्द्र बोस जैसे वामपंथी काग्रेसियों ने समाजवादी काग्रेस पार्टी के गठन का स्वागत तो किया परन्तु दोनों ही इस पार्टी में शामिल नहीं हुए । अप्रैल 1936 को लखनऊ में हुए कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन के अपने अध्यक्षीय भाषण में नेहरू ने समाजवाद के उद्देश्य का ममर्धन किया । उन्होंने कहा :

“मुझ गरीबी, व्यापक बेरोज़गारी, भारतीय जनता की बदहाली और भेदभाव को समाप्त करने के लिए समाजवाद के अतिरिक्त कोई अन्य रास्ता नज़र नहीं आता । यह हमारे राजनैतिक और सामाजिक ढाँचे में व्यापक क्रांतिकारी परिवर्तन की मांग करता है । इसके लिए भूमि और उद्योग से जुड़े निहित स्वार्थों के साथ-साथ, निरकुश सामंतशाही का खात्मा भी ज़रूरी है । जिसका सीमित अर्थों में मतलब है, निजी सम्पत्ति को समाप्त करना तथा उच्च आदर्शों के द्वारा वर्तमान मुनाफाखोर व्यवस्था को बदलना ।

1936 में नेहरू ने वामपंथी सुभाष चन्द्र बोस के अलावा तीन समाजवादी कांग्रेसियों नरेन्द्र देव, ‘जयप्रकाश नारायण तथा अच्युत पटवर्धन को कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति में शामिल किया । 1936 के आखिर में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए इंडियन नेशनल कांग्रेस के फैजपुर अधिवेशन में एक कृषि संबंधी कार्यक्रम बनाया गया जिसमें लगान में कमी, सामंती करों तथा वसूलियों की समाप्ति, सहकारी कृषि का आरंभ, कृषि मज़दूरों के लिए जीवनयापन योग्य मज़दूरी तथा किमान यूनियनों का गठन जैसे मुद्दे शामिल थे । इस बीच कांग्रेस श्रम समिति ने 1937 में प्रांतों में बने कांग्रेस मंत्री मंडलों से मजदूरों के हितों की रक्षा तथा उनको बढ़ावा देन के उपायों को अपनाने के लिए कहा ।

समाजवादी काग्रेसियों ने किसान आंदोलन में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की । प्रो. एन. जी. रंगा, इंदलाल याग्निक तथा स्वामी सहजानंद सरस्वती के प्रयासों से अखिल भारतीय किसान सभा संगठित हुई । अखिल भारतीय किसान कांग्रेस की पहली मीटिंग 1936 में लखनऊ में हुई । किसान सभाओं ने ज़मीदारी प्रथा की समाप्ति, भूमि-करों में कमी तथा कांग्रेस के साथ किसान सभा को पूरे तौर से . जोड़े जाने की मांग की । सभाजगदी कांग्रेसियों ने भारतीय रियासतों के विषय में भी कांग्रेस की . नीति को प्रभावित किया । कांग्रेस पहले रियासतों से बिलगाव की नीति अपना रही थी अव समाजवादियों के प्रभाव के कारण कांग्रेस भारतीय रियासतों के मामलों में भी गहरी रुचि लेने लगी । समाजवादी कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने भारतीय रियासतों की जनता के निरंकुश शासकों के खिलाफ जनतांत्रिक आंदोलनों में भी हिस्सा लिया । उन्होंने जन अधिकारों तथा उत्तरदायी सरकार के लिए आंदोलन किया ।

सारांश

वामपंथी आंदोलन यूरोप की औद्योगिक क्रांति का परिणाम था । भारत में इस आंदोलन के आरंभ और विकास का श्रेय आधुनिक उद्योगों के विकास, मज़दूर-वर्ग के आदोलन, राष्टवादी चेाना तथा अन्य देशों में समाजवादी आंदोलनों के प्रभाव (विशेष रूप से रूस की बोल्शेविक क्रांति) को जाता है । 1920 में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ताशकंद में एक भारतीय माक्सवादी एम. एल. राय द्वारा बनायी गयी ।

हालाकि 1920 तक भारत में अनेकों मसवादी दल धे फिः भी, भारतीय कम्यनिस्ट पार्टी की औपचारिक शुरुआत 1925 में कानपुर में आरित एक सभा से हुई । भारतीय कम्पनिट पार्टी का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवाद को उखाड़ फेकने तथा रूस की भांति मज़दूरों और किसानों सरकार की स्थापना करना था । कम्युनिस्टों ने अपना आंदोलन नेशनल कांग्रेस से स्वतंत्र यानी अलग चलाया क्योंकि वे कांग्रेस को भारतीय बुर्जुआजी तथा उन्हीं के निहित हितों से जुड़ा हुआ समझते थे। जल्द ही कम्युनिस्टों ने मजदूरों की ट्रेड यूनियनों पर अपना प्रभाव बढ़ा लिया । 1928 तक कम्युनिस्टों के नेतृत्व वाली गिरनी कामगर यूनियन बहुत शक्तिशाली बन गयी । अंग्रेज़ सरकार ने कम्युनिस्ट नेताओं के ख़िलाफ़ अनेक षड़यंत्रों के आरोप लगाकर मुकदमें चलाये और कम्युनिस्ट आंदोलन को दवाने का प्रयास किया । 1929 में 31 कम्युनिस्टों के खिलाफ़ मेरठ षड़यंत्र केस चलाया गया जो बहुत प्रसिद्ध हुआ । 1934 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी पर अंग्रेज़ सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया ।

हालांकि इंडियन नेशनल कांग्रेस का नेतृत्व भारतीय मध्यम वर्गों द्वारा हुआ और उसका मुख्य लक्ष्य विदेशी शासन से देश को स्वतंत्र कराना था, फिर भी, कांग्रेसियों का एक महत्वपूर्ण वर्ग भारत में समाजवादी राज्य की स्थापना चाहता था । 1934 में जयप्रकाश नारायण और आचार्य नरेन्द्र देव जैसे कुछ कांग्रेसियों ने कांग्रेस के अंग के रूप में समाजवादी कांग्रेस पार्टी बनायी । समाजवादी कांग्रेसियों ने विदेशी शासन से स्वतंत्रता तथा एक समाजवादी राज्य की स्थापना का आंदोलन भी साथ-साथ चलाया । उन्होंने मजदूरों तथा किसानों के आंदोलन मंगठित किये । उन्होंने भारतीय रियासतों, जमीदारी-प्रथा तथा पूंजीवाद की समाप्ति के लिए आंदोलन किये । उनके आंदोलनों के परिणामस्वरूप इंडियन नेशनल कांग्रेस ने मजदूरों तथा किसानों की उन्नति के कार्यक्रमों को अपनाया ।

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