18वीं शताब्दी के मध्य की भारतीय राजनीति

यहां पर हम एक राजनीतिक नक्शो की रूपरेखा प्रस्तुत करेंगे जिसको आगामी इकाइयों में मरा जायेगा। इसका अध्ययन करने के बाद आप निम्नलिखित शीर्षको के विषय में जानकारी प्राप्त करेंगे:

  • मुगल साम्राज्य का पतन
  • मुगल प्रांतों को क्षेत्रीय शक्तियों का हैदराबाद
  • बंगाल और अवध के रूप में उदय
  • मराठों, जाटो, सिक्यों और अफगानों के नये राज्यों का उदय
  • स्वतन्त्र राज्यों के रूप में मैसूर, राजपूत राज्यो’ तथा केरल का इतिहास
  • औपनिवेशिक साम्राज्य का प्रारंभ।

इस में हमारे अध्ययन का काल 1740से 1773 तक है। प्रथम कर्नाटक युद्ध तथा नाविर शाह का मारत पर जाक्रमग इस काल की प्रारंभिक ऐतिहासिक घटनाये थी तथा वारेन हैस्टिग के शासन काल के दौरान राजनैतिक पुनर्गठन इसका अन्तिम पड़ाव था।

मुगल सामाज्य का पतन इसका प्रथम भाग है। यह एक लम्बी चलने वाली प्रक्रिया थी, जिसमें बहुत से कारकों में योगदान किया। 1739 में नादिरशाह के आक्रमण तथा दिल्ली में नर संहार ने पहले से जर्जर होते मुगल साम्राज्य को और कमजोर बना दिया। आर्थिक संकट सहित अन्य कारणों ने मुगल साम्राज्य के पतन में योगदान किया। तथापि मुगल साम्राज्य जीवित न रह सका परन्तु इसकी संस्थाये तथा परम्परायें क्षेत्रीय राज्यों और ब्रिटिशा प्रांतों में निरंतर जारी रहीं। मुगल प्रशासन की परम्पराओं को विशेषकर मू-राजस्व में अपना लिया गया था। दूसरा भाग, क्षेत्रीय शक्तियों का उदय संभवत: सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।

इनका वर्गीकरण तीन प्रकार के राज्य समूहों में किया जा सकता है। प्रथम श्रेणी में हैदराबाद, बंगाल तथा उत्तराधिकारी राज्य थे जो कमी मुगल सामान्य 3 प्रांत थे तथा साम्राज्य से अलग होकर स्वतंत्र राज्य बन गये। जाटो, मराठो’, सिक्खों तथा अफगानों के द्वारा नये राज्यों का निर्माण किया गया इनमें से कुछ राज्यों के निर्माण की इस प्रक्रिया में शाही मांगों के विरुद्ध लोकप्रिय किसान आंदोलनों ने महत्वपुर्ण भूमिका अदा की। तीसरे वर्ग में मैसर राजपूतों तथा केरल के वे स्वतंत्र राज्य आते थे जिन्हें गलत रूप से “हिन्दु राजनैतिक व्यवस्था” वाले राज्य कहा गया है। ये क्षेत्रीय शक्तियां अग्रेजों को देश से बाहर रखने में असफल क्यों हई। इसमें इनकी कुछ निर्णायक कमजोरियों की ओर इंगित किया गया ।

अंतिम माग के रूप में इस्ट इंडिया कम्पनी का एक व्यापारिक कम्पनी से राजनैतिक सत्ता के रूप में संक्रमण था। हम इस संक्रमण का और परिणामस्वरूप दक्षिण भारत तथा बंगाल में होने वाले संघर्षों का क्रमबद्ध तरीके से विवेचन करेंगे।

अठारहवीं सदी: एक अन्धकारमय युग?

अभी हाल तक 18वीं सदी को एक अन्धकारमय युग के रूप चित्रित किया गया क्योंकि उस समय अव्यवस्था तथा अराजकता का शासन था। मुगल साम्राज्य धराशायी हो गया, क्षेत्रीय शाक्तियाँ साम्राज्य को स्थापित करने में जसफल रही तथा 18 वीं सदी के अन्त में ब्रिटिश सर्वोच्चता स्थापित हो जाने के साथ ही स्थायित्व कायम हो पाया।

भारतीय इतिहास पर काम करने वाले केम्ब्रिज स्कुल के इतिहासकारों और उनके समर्थक भारतीय इतिहासकारों ने 18 वीं शताब्दी को अन्धकारमय युग काया तथा इसकी तुलना में भारत में ब्रिटिश शासन को एक वरदान बताया। इस संदर्भ में जादुनाथ सरकार द्वारा अपनी पुस्तक हिस्ट्री ऑफ बंगाल भाग-1 में लिखी गयी निम्नलिखित पंक्तियों को उगत करना उपयोगी होगा:

“23 जून 1757 को भारत के मध्य युग का अन्त हुना तथा आधुनिक युग का प्रारंभ प्लासी से वारेन हेस्टिंग तक के 20 वर्षों में पश्चिम की नयी गतिशीलता के सम्पर्क में आने से सभी पुनर्जीवित हो उठे।”

इस प्रकार के विचारों को स्वीकार करने में कई समस्यायें हैं। मुगल साम्राज्य का प्रमाषन तो इतना गहरा था और न इतना व्यापक जितना कि इसको माना जाता है। भारत का एक काफी बड़ा माग विशेषकर उत्तर पूर्वी तथा दक्षिणी भाग इसके बाहर था और इसी मांति बहुत से सामाजिक समूह भी इसके प्रभाव से बाहर रहे। इसलिये अखिल भारतीय स्तर पर होने वाले परिवर्तनों का विश्लेषण करने के लिये मुगल साम्राज्य के पतन को उचित आधार नहीं माना जा सकता। हाल ही में कुछ विद्वानों का मत है कि अखिल भारतीय सामाज्यों के उत्थान तथा पतन की तुलना में क्षेत्रीय राजनैतिक शक्तियों की स्थापना 18वीं सदी की ज्यादा महत्वपूर्ण विशेषता थी। मध्यकालीन भारत के अग्रणीय इतिहासकार प्रो. सतीश चन्द्र के अनुसार, 18वी सदी के इतिहास को पूर्व-प्रिटिश व प्रिटिश दो मागों में देखने के स्थान पर उसे उसकी निरंतरता तथा समग्रता में देखा जाना चाहिए।

मुगल साम्राज्य का पतन

18 वीं सदी के पूर्व में ही मुगल साम्राज्य का पतन प्रकट होने लगा और 1740 में, जिस तिथि से हमारा अध्ययन शुरू होता है, नादिरशाह ने मुगलों की राजधानी दिल्ली नगर को तहस-नासस किया। 1761 में अहमवशाह अब्बाली के विरुद्ध मुगलों ने नहीं बल्कि मराठों ने युद्ध किया। 1883 से मुगल सम्राट ब्रिटिश शासकों का पेंशन प्राप्तकर्ता बन गया।

आंतरिक कमजोरियाः सत्ता के लिये संघर्ष

औरंगजेब की गलत नीतियों ने मुगलों की स्थायी राजनैतिक व्यवस्था को कमजोर किया। परन्तु मुगल सामाज्य के वो मुख्य स्तम्भ सेना तथा प्रशासन 1707 ई. तक पूर्णत: सक्रिय थे। उत्तराधिकार के युद्धों तथा कमजोर शासकों के कारण 1707 से 1719 तक दिल्ली में अव्यवस्था फैल गई। मोहम्मद शाह का 1719 से 1748 तक का लम्बा शासन काल सामाज्य के भाग्य को पुनः स्थापित करने के लिये पर्याप्त था परन्तु सम्राट की पूर्ण आयोग्यता ने इस संभावना को भी समाप्त कर दिया।

निजामुल-मुल्क ने इस सम्माट के शासन के दौरान बजीर के पद से त्यागपत्र देकर 1724 में हेदरामाद के स्वतंत्र राज्य की स्थापना की। बंगाल, अवध और पंजाब ने भी इस पथका अनुसरण किया और साम्राज्य का उत्तराधिकारी राज्यों में विभाजन हो गया। छोटे सरदारों ने बसे विद्रोह का सूचक समझा और मराठों ने अपने साम्राज्य की स्थापना की कल्पना को साकार करने के लिये पुरजोर प्रयासों को प्रारंभ कर दिया।

बाहय चुनौतियाँ

ईरान के सम्राट नादिरशाह ने 1738-39 में मारत पर आक्रमण किया। उसने शीघ्र् ही लाहौर पर विजय प्राप्त कर ली तथा 13 फरवरी 1939 को कानाल में मुगल सेना को पराजित कर दिया। इस अपमानजनक पराजय को और पूरा करने के लिये मुगल समाट मोहम्मद शाह को पकड़ लिया गया तथा दिल्ली को लूटा गया। उस समय के कधियों मीर तथा शौदा ने दिल्ली के नष्ट होने संबंधी विलाप गीत का वर्णन अपनी रचनाओं में किया है। परन्तु नादिरशाह के आक्रमण का दिल्ली पर इतना व्यापक प्रभाव नही हुआ जितना कि सामान्यत: माना जाता है। अब्दाली के आक्रमण का दिल्ली पर अधिक भय्ंकर प्रभाव हुआ। परन्तु 1772 तक स्पिति पुन: सुधर चुकी थी।

शाही खजाने से 70 करोड़ रूपये तथा पनी कुलीनों की जमा राशियों को लुट लिया गया। उसकी लुट में सबसे बहुमुल्य वस्तुएं मयूर सिहासन तथा कोहिनूर हीरा थे। नादिरशाह ने मुगल सामाज्य के सामरिक महत्व के काबुल सहित सिधु नदी के पश्चिमी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। एक बार फिर भारत उत्तर-पश्चिम से होने वाले आक्रमणों का शिकार हो गया। नादिरशाह के सेनापति के रूप में अहमद शाह अब्दाली अति महत्त्वपूर्ण हो गया तथा नादिरशाह की मृत्यु के पश्चात उसने अफगानिस्तान पर अपना शासन कायम कर लिया। 1748 से 1767 तक उसने कई बार भारत पर आक्रमण किये। उसने सबसे महत्वपूर्ण विजय मराठों के विरुद्ध 1761 में दर्ज की जिसको पानीपत के तीसरे युद्ध के नाम से जाना जाता है।

पतन: कुछ व्याख्याये

मुगल साम्राज्य के पतन के संदर्भ में कई दशकों से हमारे परम्परागत दृष्टिकोण में सुधार आया है। परम्परागत विचार के प्रस्तुत कर्ता इयिंग तथा जादुनाथ सरकार आदि इतिहासकारों के अनुसार सबाटो तथा कुलीनों की व्यक्तिगत असफलतायें, उनके दुराचार एवं विलासिता में लिप्त रहना मुगल साम्राज्य के पतन के कारण थे।

सरकार एवं अन्य इतिहासकारों ने मुगल शासन का चित्रग एक मुस्लिम शासन के रूप में किया है तया मराठो, सिक्खों बबुन्देला के विद्रोहों को इस्लामी दमन के विस्तव हिन्दू प्रतिक्रिया बताया है।

परन्तु इस विचार का उचित विरोध करते हुए सतीश चन्द्र तथा इरफान हबीब ने मुगल सामाज्य के पतन को आर्थिक व्यवस्था के संकट के रूप में चित्रित किया है। सतीश चन्द्र का तर्क है कि जागीरदारी व्यवस्था में संकट हो जाने के कारण मुगल साम्राज्य का पत्तन हुआ तथा ऐसा इसलिये हुआ कि जागीरदारों की बहुतायत ची परन्तु जागीरों की संख्या कम यी।

इरफान हबीच के अनुसार मुगलों के अन्तर्गत कृषि व्यवस्था और अधिक शोषणकारी हो गयी थी क्योंकि इन सीमित साधनों पर वाव अधिक बढ़ने लगा था। इसी कारणवश किसान विद्रोह फूट पड़े जिसके कारण साम्राज्य का स्थायित्व नष्ट हो गया।

परन्तु भारत के नवीन कैम्ब्रिज इतिहास के लेखकों का मत हरफान हबीब से विपरीत है। उनका कहना है कि मुगल साम्राज्य के पतन का कारण मुगल व्यवस्था की सफलता में निहित था न कि इसकी असफलता में। उनका मत है कि जिन जमीदारों ने मुगलों के विरुद्ध विद्रोह किये जो मुगल सामाज्य के पतन का कारण बने वे जमींदार धनी थे न कि गरीब किसान और इनका समर्थन घनी व्यापारियों द्वारा भी किया गया। परन्तु इस मत को तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता जब तक कि अन्य प्रमाण इस संदर्भ में नहीं मिल जाते। फिलहाल हमारे लिये आर्थिक व्यवस्था का संकट ही मुगल साम्राज्य के पतन का स्वीकृत कारण प्रतीत होता

मुगल परम्पराओं की निरंतरता

मुगल साम्राज्य के तेजी से होते क्षेत्रीय विखण्डन के बिल्कुल विपरीत सरकार की मुगल परम्परा जीवित रही। 1761 के आते-आते मुगल साम्राज्य नाम मात्र को रह गया था। यह कहना उचित होगा कि यह केवल दिल्ली मात्र का राज्य था। परन्तु सम्राट की स्थिति का सम्मान इतना अधिक था कि चाहे कोई क्षेत्र प्राप्त करना हो या फिर सिंहासन या साम्राज्य, इन सबके लिये सम्राट की स्वीकृति लेनी पड़ती थी। याहाँ तक कि मराठो तथा सिक्खों के विद्रोही सरदारों ने कमी-कमी सम्राट को प्रमुत्व का उद्गम या स्रोत माना। 1783 में सिक्खों ने मुगल बादशाह के दरमार में नजराना मेंट किया (इसके बावजूब कि उनके गुरुओं को मुगलों ने मरवाया था) तया 1714में मराठा नेता साह औरंगजेब की समाधि के दर्शन के लिये आया।

अंग्रेजों और मराठों ने बादशाह को अधिकार में लेने के लिये इस आशा से संघर्ष किया कि वे साम्राज्य पर उत्तराधिकार के अपने दावों को वैधता प्रदान कर सकें। बक्सर के युद्ध के बाद बादशाह शाह आलम द्वितीय को कम्पनी ने अपना पेंशन-भोगी बना लिया परन्तु दिल्ली पर उसने मराठों के संरक्षण को प्राथमिकता दी। परन्तु 1803 में अंग्रेजों के द्वारा दिल्ली पर अधिकार कर लिये जाने के कारण मुगल बादशाह पुनः अंग्रेजों के संरक्षण में आ गया।

मुगल प्रशासन के तौर-तरीकों को क्षेत्रीय राजनैतिक शक्तियों ने भी अपना लिया। मुगल साम्राज्य के उत्तराधिकारी राज्यों के लिये यह स्वाभाविक भी था कि उन्होंने मुगलों की पुरानी परम्पराओं को जारी रखा। यहाँ तक कि मराठा जैसे राज्यों ने भी , जहाँ पर साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध लोकप्रिय आंदोलनों का प्रारंभ हुआ था. प्रशासन के मुगल तरीको का अनुसरण किया। जिन बहुत से अधिकारियों की शिक्षा मुगल परम्पराओं के अनुरूप हुई थी उनको इन बहुत सी रियासतों में रोजगार मिल गया।

संस्थानों की निरंतरता बनाम व्यवस्था संबंधी परिवर्तन

परन्तु संस्थाओं की निरंतरता से हमें इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँचना चाहिये कि मुगल राजनैतिक व्यवस्था जीवित बनी रही। नवीन राजनैतिक व्यवस्थाओं का चरित्र क्षेत्रीय था और उनमें से कोई भी अखिल भारतीय स्तर का चरित्र ग्रहण न कर सकी। कुछ पुरानी संस्थाओं के साथ नवीन राजनैतिक व्यवस्थाओं को क्षेत्रीय शासकों और बाद में अमेज़ शासकों के द्वारा पुन: एकबद्ध कर दिया गया। औपनिवेशिक व्यवस्था के अंतर्गत पुरानी मुगलीय संस्थाओं ने भिन्न प्रकार के कार्यों को सम्पन्न किया।

भू-राजस्व व्यवस्था  के समान थी, परन्तु उपनिवेशवाद के अन्तर्गत एकत्रित की गई सम्पदा का निष्कासन भारत में हुआ। स्वरुप तथा कार्य का यह अंतर साम्राज्यवादी इतिहास लेखन से पूर्णत: गायब है और संस्थाओं की निरंतरता पर उनके द्वारा बाल देने का उदेश्य मात्र यह साबित करना है कि ब्रिटिश शासक भी अपने परवतियों से भिन्न नहीं थे।

क्षेत्रीय राजनैतिक व्यवस्थाओं का उदय

मुगल साम्राज्य के पतन के साथ-साथ क्षेत्रीय राजनैतिक व्यवस्थाओं का उदय 18वीं सदी की दुसरी महत्वपूर्ण विशेषता थी। इस समय साधारणत: तीन प्रकार के राज्यों का उदय हुआ:

  • उत्तराधिकारी राज्य जो मुगल साम्राज्य से टूट कर अलग हो गये
  • नये राज्य जिनकी स्थापना मुगलों के विरुद्ध विद्रोहियों द्वारा की गयी, और
  • स्वतन्त्र राज्य।

अब हम इनमें से प्रत्येक का विश्लेषण करेंगे।

उत्तराधिकारी राज्य

हैदराभाद, बंगाल तथा अवध ऐसे तीन राज्य ये जहाँ मुगलों के अधीन प्रांतीय गवर्नर थे जहां जिन्होंने स्वतंत्र राज्यों की स्थापना की थी। ये राज्य दिल्ली से कई चरणों में अलग हुए -कुछ व्यक्तियों का विद्रोह क्रमश: सामाजिक समूहो, समुदायों तथा अन्तत: क्षेत्रीय विद्रोहों में परिवर्तित हो गया। शाही करों की अधिक मांग के विरद्ध जमींदारों के विद्रोहों ने टूटने की इस प्रक्रिया को पूर्ण कर दिया।

प्रांतीय गवर्नरों को केना से कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई जिसके फलस्वरूप उन्होंने स्थानीय प्रभावशाली गुटों का समर्थन प्राप्त करने के लिये प्रयास किये। फिर भी केन्द्र के साथ सम्पर्कों को बनाये रखा गया तथा मुगल परम्पराये मी जारी रहीं। जिस समय नादिर शाह ने दिल्ली पर आक्रमण किया तो अबध तथा हैदराबाद ने मुगल शासकों की सहायता की।

कुलीनों के विभिन्न गुटों के साथ अपने सम्पकों के कारण प्रांतीय गवर्नर केन्द्र को नियंत्रित करने के लिये काफी शक्तिशाली थे। इसलिये इस समय में राजनैतिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों को पतनशील बताने की अपेक्षा रूपांतरण की विशेषता के नाम से जानना उचित होगा (इस अवधारणा का प्रयोग मुजफफर आलम ने किया हैं)। मुगलों के संस्थात्मक ढांचे के अंतर्गत एक नवीन राजनैतिक व्यवस्था को निर्मित किया गया।

अखिल भारतीय स्तर पर राजनैतिक व्यवस्था के मृतप्राय हो जाने पर सामान्यत: आर्थिक हास नहीं हुआ। क्षेत्रीय चित्र बहुत ही मिन्न बा। विदेशी आक्रमण के कारण पंजाब की अर्थव्यवस्था में रुकावट आयी लेकिन अवध की अर्थव्यवस्था में वृद्धि हुई। लखनऊ की सुरक्षा के लिये अवष नवाम सफवर जंग ने इस अवसर पर नादिरशाह को तीन करोड़ रूपये दिये। अवध में आर्थिक संपन्नता के आधार पर राजनैतिक व्यवस्था में स्थायित्व कायम हुआ जबकि पंजाब में निर्मित राज्य घराशायी हो गये।

हैदराबाद

1748 में निजाम-उल-मुल्क की मृत्यु के साथ हैदराबाद के इतिहास का गौरवशाली प्रथम अध्याय भी समाप्त हो गया। इस राज्य की स्थापना 1724 में निजामुल-मुल्क ने उस समय की थी जिस समय दिल्ली दरबार पर सैयद बंधुओं का नियंत्रण था और वह एक प्रमुख कुलीन था। इसने सैयदों को हटाने में मोहम्मद शाह की सहायता की थी और इसके बदले में उसने दक्कन की सूबेदारी प्राप्त की।

उसने प्रशासन को पुनर्गठित किया तथा राजस्व व्यवस्था को सुचारू बनाया। 1722 से 1724 तक संक्षिप्त समय के लिये दिल्ली में वजीर रहने के बाद वह एक राज्य की स्थापना करने के लिये दक्कन को वापस लौट गया जो व्यवहारिक स्तर पर एक स्वतंत्र राज्य था, फिर भी उसने मुगल सम्राट के प्रति अपनी राज भक्ति की घोषणा को निरंतर बनाये रखा। क्षेत्रीय प्रमुत्व सम्पन्न वर्ग के बन जाने से इस स्वतंत्रता को स्थायित्व मिल गया जैसा कि इतिहासकार कैरेन लियोनार्ड ने हैदराबाद की राजनैतिक व्यवस्था के अपने अध्ययन में दिखाया है। राजस्व व्यवस्था में सुधार, जमीदारों को अधीन करना, हिन्दुओं के प्रति सहिष्णुता की नीति का अनुसरण आदि उसकी प्रशंसनीय नीतियाँ थीं।

परन्तु 1748 में उसकी मत्यु हो जाने पर हैदराबाद की कमजोरियां, मराठों एवं विदेशी कम्पनियों के आघातों के सामने स्पष्ट हो गई। मराठा सेनायें अपनी इच्छानुसार राज्य पर आक्रमण करती और नि:सहाय राज्य के लोगों से चोय वसूल करती। निजाम-उल-मुल्क पुत्र नासिर जंग और पौत्र मुजफ्फर जंग के मीच उत्तराधिकार के लिये संघर्ष हुआ। डूप्ले के नेतृत्व में फ्रांसीसियों ने इस अवसर का प्रयोग एक गुट को दूसरे गुट के विरुद्ध लड़ाने में किया तथा अन्तत: मुजफ्फर जंग का समर्थन किया और उसने इसके बदले फ्रांसीसियों को काफी मोटी रकम एवं क्षेत्र उपहार के रूप में दिया।

बंगाल

व्यवहार में स्वतंत्रता तथा दिल्ली की राजसत्ता के प्रति राज मक्ति बंगाल के नवामों के शासन की विशेषता थी। 1717 में मुगलों की सत्ता के अधीन मुर्शिद कुली खान बंगाल का गवर्नर जना परन्तु दिल्ली के साथ उसका सम्पर्क नाजराना भेजने तक ही सीमित था। शुजाउद्दीन 1727 में नवाब बना तथा अलीवदी खान द्वारा 1739 में शासन संभालने तक पर इस पद पर बना रहा। 1756 में अपने दादा अलीवी खान की मत्यु के बाद सिराजुदौला मंगाल का नबाब हुआ।

बंगाल के नवाबों ने, सार्वजनिक पदों के लिये नियुक्तियाँ करने में, धर्म के आधार पर कोई मैडमाव नहीं किया तथा हिन्दु मी सार्बजनिक सेवाओं में उच्चतर पत्रों तक पहुंचे और उन्होंने कई आकर्षक जमीचारियों को प्राप्त किया। नवाबों ने अपनी स्वतंत्रता को कठोरता के साथ बनाकर रखा तथा अपने प्रमुत्व वाले इलाको में विदेशी कम्पनियों पर कड़ा नियंत्रण रखा।

फ्रांसीसी तथा अमेजी कम्पनियों को चन्दरनगर तथा कलकत्ता में किलेबन्दी करने की इजाजत नाती दी और न ही नवाष द्वारा उनको विशेष सुविधायें प्रदान की गई। त्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के द्वारा अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये बार-बार सैन्य शक्ति का प्रयोग करने की धमकियों के बावजूद बंगाल के नवाबों ने अपनी संप्रभुता को बनाये रखा।

परन्तु अंतत: कम्पनी के हाथो नवाबों को पराजय का मुंह देखना पड़ा क्यों कि उनकी सेना कमजोर तथा दुर्बल की और उन्होंने कम्पनी से उत्पन्न होने वाले खतरों को कम कर के आंका । 1757 में प्लासी के युग में अंग्रेज़ों की विजय ने भारत के साथ अंग्रेजों के संबंधों के नये युग का सुत्रपात किया।

अवध

सआदत खां बुरहानुल-मुल्क को 1722 में अवध सुबेदार नियुक्त किया गया था परन्तु उसने इसके बाद अबष को एक स्वतंत्र राज्य बना दिया। अवध में मुख्य समस्या उन जमीदारों ने उत्पन्न की जिन्होंने न केवल मु-राजस्व देना बंद कर दिया बल्कि अपनी सेनाओं तया किलों के द्वारा स्वतंत्र सरदारों की भांति कार्य करने लगे। सआदत सा ने उनको अपने अधीन किया तथा एक नयी भू-व्यवस्था को लागू किया जिसके द्वारा किसानों को जमीदारों के शोषण के विरुद्ध संरक्षण किया गया।

जागीरदारी व्यवस्था को सुभारा गया तथा जागीरों को स्थानीय उच्च लोगों को प्रदान किया गया और उनको प्रशासन एवं सेना में मी उच्च स्थान मिले। एक “क्षेत्रीय शासक वर्ग” पैदा हो गया जिसके अंतर्गत शेख जादे, अफगान एवं कुछ हिन्द्र भी थे। परन्तु यह ध्यान देने योग्य है कि बुरहानुल-मुल्क और सफदर जंग दोनों माहर से आये थे। बंगाल एवं हैदराबाद की मांति ही अवध के शासक भी अपने दृष्टिकोण में साम्प्रदायिक नहीं थे और हिन्दुओं ने भी उच्च पदों को प्राप्त किया था।

सआदत खां की मृत्यु के बाद 1739 में सफदरजंग अवध का नवाब बना तथा 1754 तक इस पद पर बना रहा। उसने पहले की नीति का सफलतापूर्वक अनुसरण करते हुए जमीदारों का कठोरता के साथ दमन किया। परन्तु पेशवा के साथ समझौता करने के अपने प्रयास में वह असफल रहा क्योंकि इसी के द्वारा मराठों और मुगलों को, अम्बानी के अधीन अफगान विदेशी आक्रमणकारियों और आंतरिक विद्रोहियों जैसे कि राजपूतों एवं बंगेश के पठानों के विपद संयुक्त रूप से सैनिक कार्यवाही करनी थी। परन्तु पेशवा ने अदूरदर्शिता का परिचय दिया क्योंकि दिल्ली में वह सफदर जंग के विरोधियों से जा मिला जिन्होंने उसे अवध और इलाहाबाद का सूबेदार बनाने का वचन दिया। लेकिन करार पूरा हो जाने पर सफदरजंग द्वारा पेशवा को 50 लाख रूपये तथा पंजाब सिंघ और उत्तर भारत के कई जिलो का चौथ दिया लाने वाला था। इसके अलावा पेशवा को आगरा तया अजमेर का सूबेदार बनाया जाना था।

नये राज्य

क्षेत्रीय राज्यों का दूसरा समूह “नये राज्यों” या “विद्रोही राज्यों” का था जिनकी स्थापना मराठों, सिक्खों, जाटों एवं अफगानों ने मुगलों के विरुद्ध विद्रोह करके की थी। पहले तीन राज्यों का प्रारम, किसान विप्लव के लोकप्रिय आंदोलनों के द्वारा हुआ। इन आंदोलनों का नेतृत्व कुलीनों के साथ न होकर अक्सर समाज के साधारण “नये आदमियों” अर्थात दरअली, सिंधिया और होलकर सरीखे लोगों के पास था।

मराठा

यदि 18 वीं सदी के इतिहास की दो मुख्य घटनायें मुगल शक्ति का पतन एवं औपनिवेशिक शासन की स्थापना भी तो तीसरी महत्वपूर्ण घटना क्षेत्रीय राज्यों का उदय एवं पतन था और इनमें सबसे महत्वपूर्ण मराठा राज्यों का उदय। इनमें से प्रथम का अखिल भारतीय साम्राज्य के रूप में पतन हुआ, दुसरे को अभी अपना स्थान प्रहण करना था और तीसरा साम्राज्य अपने अस्तित्व में आने से पूर्व ही असफल हो गया। मुगल साम्राज्य का पतन सदी के पूर्ती में हो गया, ब्रिटिश सत्ता का तेजी के साथ विकास सदी के उत्तराई में हुआ परन्तु सदी के बिल्कुल मध्य में अधिकतर भू-माग मराठों के राजनैतिक शासन के अधीन हो गया।

मराठा राज्य व्यवस्था की मुख्य विशेषता पेशवाओं या प्रधानमंत्रियों का आधिपत्य था जिसका विकास बालाजी विश्वनाथ के शासन काल के दौरान हुआ। वह शिवाजी के पौत्र साहू का एक वफादार अधिकारी था।

1707 में साहू को मुगलों की जेल से छोड़ दिया गया तथा वह मराठा राज्य का राजा बन गया। उसके शासन के दौरान पेशवा की शक्ति में तेजी के साथ पद्धि हुई और मराठा सम्राट नाम मात्र का शासक रह गया। 1702 में बालाजी विश्वनाष की मृत्यु हो गई और उसके बाद उसका पुत्र बाजीराव पेशवा बना जिसकी मृत्यु 1741 में हुई और इसी समय से हमारा अध्ययन भी प्रारंभ होता है। इस समय तक मराठा क्षेत्रीय शक्ति न रहकर एक विस्तारवादी साम्राज्य बन गया था। उन्होंने मुगल सामाज्य के द्वारा दूर दराज के क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था।

इसकी मुख्य दुर्बलता यह थी कि इन विजयों को प्राप्त करने में मराठा सरदारों की अग्रिम भूमिका थी और ये सरदार पेशवा द्वारा जारी किये गये नियमों को मानने के विरुद्ध थे। उन्होंने पेशवा के प्रभुत्व को इसलिये स्वीकार किया था कि उसके साथ रहने में उनको सैन्य तथा वित्तीय लाम होता था। कुछ विशेष क्षेत्रों में चोष तथा सरदेशमुखी को एकत्रित करने और विजित करने की आज्ञा मराठा सरदारों को प्रदान कर दी गई थी। अगर पेशवा उनकी गतिविधियों को नियंत्रित करने की कोशिश करता तो ये सरदार दूसरे विरोधी गुटों के साथ हो जाते। बालाजी विश्वनाम के समय में यह स्थिति थीं।

संभवत: इसी से सीख लेते हुए बाजीराव ने स्वयं सैनिक अभियानों का नेतृत्व किया और दूसरे क्षेत्रों के साथ-साथ गुजरात और मालवा के उपजाऊ क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। दुर्भाग्यवश वह दक्कन की शक्ति हैदराबाद के शासक निजामुला-मुल्क के साथ उलझ गया। दोनों ने पहले मुगलों के विरुद्ध गठबंधन किया और बाद में अंग्रेजों के, तथा दोनों को ही इससे लाम हुआ। परन्तु उन्होंने एक दूसरे के विरुद्ध मुगल पदाधिकारियों के साथ गठबंधन भी बनाये।

बाजीराव की सेनाओं ने निजाम की सेनाओं को दो बार निर्णायक रूप से पराजित किया परन्तु दक्कन प्रांतों पर अधिकार करने के लिये दोनों के बीच संघर्ष जारी रहा। अंग्रेज भी इस संघर्ष में कुछ पाड़े और अब यह त्रिकोणीय संघर्ष में बदल गया जो अंग्रेजो के लिये बड़ा ही लाभकारी सिट हुआ और उन्होंने उनका उपयोग एक दूसरे के विरद किया। बालाजी राव, जिसको नानासाहेब के नाम से भी जाना जाता था, 1740 से 1761 तक पेशवा रहा। इसके शासन के दौरान मराठा शाक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर थी। अब मराठा शक्ति का प्रसार केवल उन्ही क्षेत्रों तक सीमित नहीं था जिन पर मुगलों का अनिश्चित अधिकार था। भारत का कोई ऐसा माग न था जिसने मराठों की विजय के साथ लुट को न देखा हो। दक्षिण भारत को अपने अधीन करना उनके लिये सरल रहा।

1760 में हैदराबाद की पराजय के बाद उसने अपने बहुत से धोत्रों को मराठो को चौथ एवं सरदेशमुखी वसूली के लिये छोड़ दिया। मैसुर तथा अन्य राज्यों ने उनको नजराना भेंट किया। पूरब में बंगाल की लगातार विजयों से उनको 1751 में उड़ीसा प्राप्त हो गया। मध्य भारत में बाजीराव ने मालवा, गुजरात तथा बुन्देलखंड के जिन क्षेत्रों को विजयी किया उनको शेष मराठा साम्राज्य के साथ माली मांति मिला लिया गया।

मुगलों, मराठों और अफगानों के बीच संघर्ष

प्रारंभिक सरल विजयों को प्राप्त करने के बाद मराठा शासकों के लिये उत्तरी भारत पर स्वामित्व बनाये रखना अधिक मुश्किल कार्य सिद्ध हुआ। दिल्ली पर स्थित मुगल शासक मराठों के प्रभाव में आ गये परन्तु अफगानों ने अब्बाली के नेतृत्व में मराठों को पीछे ढकेल दिया।

पानीपत का तृतीय युद्ध , 1761

पानीपत का तृतीय युद्ध 14 जनवरी 1761 को हुआ। परन्तु इस संघर्ष का परिणाम यह हुआ कि इसने मराठो के उस प्रभाव को भी म्रतप्राय: कर दिया जो उन्होंने 1752 में उत्तरी भारत को रौंद कर दिल्ली दरबार में तथा उत्तरी भारत पर स्थापित किया था। इमाद-उला-मुल्क को राज्य का वजीर घोषित किया गया परन्तु व्यवहारिक तौर पर सभी प्रकार से, मराठेही शासक थे। मराठों ने इसी की प्राप्ति तक स्वयं को संतुष्ट न रखा तथा उन्होंने अपनी लालची आँखों से पंजाब की ओर देखा, जिस पर इस समय अब्दाली के एक सामन्त के द्वारा शासन किया जा रहा था। यही उनकी भयंकर भूल थी। अब्दाली भारत की लूट-खसोट करके वापस लौट गया तथा कुछ क्षेत्रों का शासन प्रबंध करने के लिये अपने कुछ वफादार लोगों को छोड़ गया था, परन्तु मराठों की चुनौतियों का सामना करने के लिये उसने भारत वापस जाने का निश्चय किया ।

इस संघर्ष के बहुउदेशीय परिणाम निकले क्योंकि इसमें उत्तरी भारत की छोटी-बड़ी कई ताकतों ने भाग लिया। मराठों की तुलना में अफगानों को एक लाम वा क्योंकि साम्राज्य के इस भाग को विजयी करने तथा इसका प्रशासन चलाने की प्रक्रिया में कई शाक्तियों मराठों की शत्रु बन गई। इमाद-उन-मुल्क के अतिरिक्त मुगल कुलीनों को सत्ता संघर्ष में उन्होंने पराजित किया था। उनकी विजयों के कारण जाट और राजपूत शासक मी उनसे अलग-थलग पड़ गये थे और ऊपर से उनके ऊपर भारी जुर्माने थोपे गये। विदेशी आक्रमणों के कारण सिक्खमी अपनी शक्ति को संगठित करने के प्रयासों से पहले ही निराश हो चुके थे। इसलिये पंजाब को अपने सामाज्य में शामिल करने के मराठों के प्रयासों में सहायता करने के लिये कोई भी तैयार न था।

रूहेलखंड के सरदार तथा अवष के नवाब इस सीमा तक गये कि वे अब्दाली के साथ मिल गये क्योंकि मराठा सेनाओं ने उनके क्षेत्रों को पीरोद डाला था। इन सबका परिणाम यह हुआ कि पानीपत के युद्ध में अब्दाली का सामना करने के लिये केवल मराठों की ही सेनायें थीं।

अफगान सेनाओं के साथ मराठा सेनाओं की कोई तुलना नाही थी यद्यपि मराठा सेनाओं का प्रशिक्षण पश्चिमी आधार पर किया गया था। युद्ध के मैदान में 28000 सैनिकों के साथ-साथ सेनापति तथा पेशाषा का छोटा बेटा विश्वराव और चचेरा भाई सदा शिव राव माऊ मारे गये। इस दर्दनाक पराजय का समाचार सुनकर पेशवा, बालाजी बाली राव अधिक समय तक जीवित न रह सका।

पानीपत के तृतीय युद्ध के बाद

भारत पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिये पानीपत का तृतीय युद निर्णायक साबित हुआ। मुगलों को सामाज्य शक्ति से हटाकर मराठों को स्थापित करने की उनकी अभिलाषा को इस पराजय के द्वारा एक विशेष सामरिक बिन्दु पर रोक दिया गया। अफगानों की अपेक्षा इससे अंग्रेजों को लाभ हुआ। बंगाल और भारत में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए इससे अमेज़ों को व्यापक अपसर प्राप्त हुआ। एक बार भारत में पैर जमाने के बाद एक बार भी उन्हें पीछे मुड़कर न देखना पड़ा। 1761 की भारी पराजय के बाद एक बार फिर परन्तु क्षणिक समय के लिये ऐसा प्रतीत हुआ कि मराठो का भाग्य पुन: उदित हो गया। माधव राव ने जो 1761 में पेशवा बना, सफलता पूर्वक उत्तर के अपने पुराने शत्रुओं रूहेलों, राजपूतों तथा जाटों और दक्षिण में मैसूर व हैदराबाद को रोद डाला। परन्तु पेशवा माधव राव की 1772 में 28 वर्ष की आयु में मत्यु हो जाने के कारण मराठों का सपना निर्माबक रूप से समाप्त हो गया। अंग्रेजों के हाथों प्रथम ऐंग्लो-मराठा युबा (ऐग्लो-मराठा संघर्ष इकाई 10 का शीर्षक है) में मराठों की पराजय ने शक्ति के लिये होने वाले मराठा गुटों के षड़यंत्रों एवं संषों को भी स्पष्ट कर दिया।

मराठा राज्य एवं आंदोलन का चरित्र

मराठो का उदय मुगल केन्द्रीयकरण के विरुद्ध क्षेत्रीय प्रतिक्रिया के साथ-साथ निम्न वर्गों तथा डोटी जातियों का प्रगतिशील आंदोलन था। छोटे ग्रामीण जमींदारों तथा परम्परागत जुताईवारों (मीरासदार) ने इसका सामाजिक आधार बनाया। कृषक जातियाँ क्षेत्रीय जाति का स्तर प्राप्त करना चाहती थी और अधिकारीगण अपने हाथों में शक्ति को केन्द्रित करना। लूट को चौथ के रूप में संस्थागत कर दिया गया और यह मराठा राज्य व्यवस्था का एक वैध भाग बन गयी।

माराठों के अर्घ विकसित निवास क्षेत्रों के लिये आमदनी बढ़ाने के लिये चौथ के रूप में मन गरीबों से वसूल किया गया। परन्तु जूट पर निर्भरता मराठा व्यवस्था की एक कमजोरी थी , उन्होंने कर्नाटक, कोरोमण्डल एवं गंगा के मैदान के सम्पन्न क्षेत्रों पर उस समय भी सीधा शासन लागू नहीं किया जबकि ये उनके नियंत्रण में आ गये थे। मराठों ने मुगल प्रशासनिक व्यवस्या के कुछ भाग को अपनाया। परन्तु उन्होंने अतिरिक्त उत्पादन को वसूल करने के लिये अपनी ही तकनीकियों पर ध्यान केन्द्रित किया जिनमें ध्यापक प्रशासनिक ढाँचे का अभाव था। भलीभाति परिमाधित प्रांतीय प्रभुत्व के अभाव में वे अपने प्रभाव को अफगानों तथा अंग्रेजों के आने से पूर्व आवश्यक गति के साथ सुसंगठित न कर सके और परिणामस्वरूप उनकी पराजय हुई।

उनकी प्रशासकीय व वित्तीय कमजोरियां विशेषकर सैन्य क्षेत्र में, उनके तकनीकी पिछड़ेपन में निहित थी। उस समय की नवीन प्रगतियों कों जैसे कि तोपखाना छोटे हथियार, विशेषकर कठोर बन्दूके और उन्नत आग्नि हथियारों को नहीं अपनाया गया।

सिक्ख

15 वीं शताब्दी के अन्त में नये लोकतान्त्रिक धर्म सिक्खवाद का प्रसार सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण पंजाब प्रांत में हुया। आगामी दो सदियों तक या व्यक्ति विशेष तक सीमित रहा, परन्तु दसवें गुरु गोविन्द सिंह के समय में इस पंथ के अनुचरों में राजनैतिक अभिलाषाओं तथा संघर्षकारिता को पैदा करके इसको एक भली भाति सुसंगित समुदाय में बदल दिया गया। औरंगजेब के विस्त गुरु गोविन्द सिंह के संघर्ष को अच्छी प्रकार से जाना जाता है तथा इसी प्रकार से औरंगजेब के उत्तराधिकारियों के विरुद्ध बंदा बहादुर का विद्रोह था।

पंजाब के सामरिककय से महत्वपूर्ण होने के कारण मुगलों ने पूरी ताकत के साथ विद्रोह को दबा दिया। अन्य विद्रोहियों की तुलना में सिक्ख विद्रोही मुगलों के साथ समझौता करने के इच्छुक नहीं थे। उन्होंने केन्द्र के साथ किसी भी प्रकार संमंध रखने से इंकार कर दिया और पुर्ण स्वतंत्र शासक बनने के लिये अपना संघर्ष जारी रखा। सिक्खों के संगठन में कुछ आंतरिक कमजोरियां थी। आंदोलन के नेता खत्रियों की स्थिति में गिरावट आयी क्योकि विदेशी आक्रमणों तथा मराठों के कारण व्यापार तथा शाहरी केन्द्रों का पतन हो गया। प्रगति की संभावनाओं के कारण आंदोलन में छोटी जातियां सम्मिलित हो गई और जिसके फलस्वरूप उच्च जातियों व वर्गों का विरोध इस आंदोलन के अंदर होने लगा।

1715 में बंबा बहादुर के विटोह का दमन हो जाने के बाद, लगमग एक चौथाई शताब्दी तक सिक्ख शांत रहे। परन्तु मुगल साम्राज्य के बुरे दिन सिक्खों के लिये आवसर के रूप में लाभकारी हाए। नादिरशाह और अब्दाली के आक्रमण उत्तरी भारत के लिये विनाशकारी साबित हुए और जो उनके लुटने से बच गया उसको सिक्खों ने लूट लिया। अदाली तथा उसके समर्थकों के वापस लौट जाने के बाद इस अपार सम्पदा के आधार पर सभी मुगलों का नियंत्रण समाप्त हो जाने की स्थिति का लाम उठाते हुए सिक्खों ने तीव्रता के साथ पंजाब में अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।

इसके उपरान्त 12 मिसलों या संघों ने मिलकर पंजाब प्रांत का गठन किया। हाल के वर्षों में इतिहासकारों ने इस विचार का खंडन किया है कि सिक्ख राज्य एक धार्मिक राज्य था। उनका कहना है कि यह भी उस समय बोशा के अन्य भागों की तरह एक धर्म निरपेक्ष राज्य था। लेकिन एक महत्वपूर्ण राज्य के रूप में पंजाब का उदय होना अभी बाकी था। यह कार्य शताब्दी के अन्त में रणजीत सिंह द्वारा पूरा किया गया।

जाट

जाट एक खेतिहर जाति थे जो दिल्ली-आगरा क्षेत्र में बसे थे। 17 वीं सदी के उत्तराई में मुगला आधिपत्या के विरुद्ध जाट किसानों के विद्रोहों के कारण मुगल साम्राज्य के इस अन्तर्मागीय क्षेत्र की स्थिरता के लिये खतरा पैदा हो गया। मुगल शक्ति के पतन के साथ-साथ जाट शक्ति में बदि हुई और एक किसान विद्रोह को विप्लव में परिवर्तित कर दिया गया जो इस क्षेत्र के अन्य गुटों सहित राजपूत जमीदारों के लिये विनाशकारी सिद्ध हुआ। किसान विद्रोह होने के बावजूद भी जाट राज्य का ढांचा सामंती मना रहा जिसके अंतर्गत प्रशासनिक तथा राजस्व शक्तियाँ जमीदारों के पास थी और सूरजमल के शासन में भू-राजस्व मुगलों से कहीं अधिक था।

चूड़ामन तथा बदन सिंह ने भरतपुर में जाट राज्य की स्थापना की। परन्तु यह सुरजमल ही था जिसने जाट शक्ति को 1756 से 1763 तक अपने शासन काल में सुगठित एवं सुदद किया। राज्य के प्रसार के कारण इसकी सीमायें पुरब में गंगा नदी, दक्षिण में चम्मल उत्तर में दिल्ली तथा पश्चिम में आगरा तक फैल गयी। इसी के साथ-साथ उसमें विशेषकर राजस्व एवं नागरिक मामलों में विशेष प्रशासनिक योग्यता थी। परन्तु उसका शासन काफी कम समय तक रहा और 1763 में उसकी मृत्यु के बाद जाट राज्य का पतन हो गया।

फरूखाबाद और रूहेलखण्ड

कालखण्ड तथा बंगश पठानों के राज्यों की स्थापना 17वीं सदी में अफगानों के विस्थापन का परिणाम थी। अफगानिस्तान में 18वीं सदी के मध्य में राजनैतिक तथा आर्थिक अस्थिरता पैदा हो जाने के कारण काफी बड़ी संख्या में अफगानों का भारत में विस्थापन हुआ। नादिरशाह के आक्रमण के भाव उत्तर भारत में अराजकता की स्थिति पैदा हो गई। इसका लाम उठातेर मुहम्मद खां ने रूहेलखण्ड के एक छोटे राज्य की स्थापना की।

यह क्षेत्र हिमालय की तलपटी में उत्तर में कुमायू पहाड़ियों तथा दक्षिण में गंगा नदी के बीच स्थित था। कालों को जिनको उनके क्षेत्र रूहेलखण्ड के नाम से जाना जाता था, क्षेत्र की अन्य शक्तियों जैसे कि जाटों और सपथके शासकों तथा बाद में मराठों एवं ओजों के हाथों मारी पराजय को देखना पड़ा। दिल्ली से पूरब की ओर फसखाबाद में मोहम्मद खान बंगश ने जो एक अफगान सरवार था, एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना की।

अफगानियों के तोपखाने ने विशेषकर कठोर मूठ वाली बदूकों ने युद्ध में घुड़ सेना के स्थायिपत्य को समाप्त कर दिया। राजनैतिक रूप से अफगानों की भूमिका नकारात्मक थी। न केवल उन्होंने मुगल साम्राज्य के पतन की गति को तीव्र किया पाक्षिक उन्होंने वर्ष के नवाब को परास्त करने के लिये अब्दाली की मदद की जो भारत में अमेज़ों के प्रसार को रोक सकता था।

स्वतंत्र राज्य

तीसरी श्रेणी में पे राज्य खाते थे जो न तो ब्रिटिश साम्राज्य से अलग हुए थे और न ही बन राज्यों का निर्माण दिल्ली के विरूद्ध विद्रोह करके किया गया था। मैसूर, राजपूत राज्य पर्व बबाल इस श्रेणी के राज्य थे।

मैसूर

18 वीं सदी के मध्य में मैसुर का वक्षिण भारत में एक महत्वपूर्ण राज्य के रूप में उदय हुआ। मैसुर शापित की आधारशिला देवरचली के द्वारा रखी गयी जिसको सुसंगठित उसके पुत्र टीपू सुल्तान ने किया। हैदरअली यद्पि मैसूर राज्य की सेना में एक छोटा अधिकारी या परन्तु उसने एक सेनापति के पद तक प्रगति की। हैदरअली की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह एहसास कराना था कि एक आधुनिक सेना की शक्तिशाली राज्य का आधार हो सकती है। फलस्वरूप उसने सेना को पश्चिमी तरीकों से प्रशिक्षित किया एवं शास्त्रा भडारण करने के लिये फ्रांसीसी विशेषज्ञों को भर्ती किया। शीघ्र ही वह इतना शक्तिशाली हो गया कि उसने मैसुर सिहासन के पीछे वास्तविक शक्ति मंत्री नुजराज को 1761 में उखाड़ दिया।

मैसूर राज्य की सीमाओं में मालाबार तथा कर्नाटक के सम्पन्न तटीय क्षेत्रों को सम्मिलित कर लिया गया। बिल्कुल मध्य में प्रसार होने के कारण क्षेत्र की सरी शक्तियों मराठों, हैदराबाद तथा नवीन उमरती शक्ति वजों के साथ उसका संघर्ष होना स्वाभाविक था। उसने 1769 में मद्रास के निकट खनेजी सेनाओं के विरुव अपनी विजय को दर्ज किया। 1782 में उसकी मत्यु के बाद उसका बेटा टीपू सुल्तान मैसूर का सुल्तान बना और उसने मी अपने पिता द्वारा शुरु की गयी नीतियों का अनुसरण किया। टीपू सुल्तान का शासन इस इकाई के क्षेत्र से बाहर है।

राजपूत राज्य

मुगल साम्राज्य के बिखराव से राजपूत राजाओं ने लाम उठाते हुए अपनी स्थिति को अन्य शासकों की भांति और मजबूत किया। उनमें से कोई भी इतना बड़ा एवं पर्याप्त शक्तिशाली नहीं था कि सर्वोच्च शक्ति की स्थिति को प्राप्त करने के लिये मराठों एवं अंग्रेजों को चुनौती दे सके। उनकी नीति थी कि दिल्ली के साथ अपने संबंधों को धीरे-धीरे समाप्त होने देना और स्वतंत्र राज्यों के रूप में कार्य करना। दिल्ली दरबार में सत्ता के लिये होने वाले संघर्षों एवं षडयंत्रों में उन्होंने माग लिया और मुगल शासकों से आकर्षक तथा प्रभावशाली सूबेदारियाँ प्राप्त की।

उत्तर मुगल काल में भी राजपूत नीति विखण्डित रूप में जारी रही। सभी राज्यों ने प्रसारवादी नीति का लगातार अनुसरण किया और जब भी संभव होता तो वे अपने कमजोर पड़ौसी को अपने राज्य में मिला लेते। ये खेल राज्य के अदर भी खेला जाता, एक गुट दुसरे गुट के विरुद्ध उसी प्रकार से बडयंत्र रचता रहता था जैसा कि मुगलों के दिल्ली दरबार में खेल चलता रहता था। राजपूत शासकों में अजमेर का राजा जय सिंह बहुत लोकप्रिय हुआ और जिसने 1699 से 1743 तक जयपुर पर शासन किया।

केरल

वर्तमान केरल राज्य का गठन तीन राज्यों को चीन, त्रावणकोर तथा कालीकट को मिलाकर किया गया है। बहुत से सरदारों तथा राजाओं के क्षेत्र 1763 तक इन राज्यों के अंतर्गत घे। परन्तु मैसूर राज्य का प्रसार केरल की स्थिरता के लिये विनाशकारी साबित हुआ। हैदरअली ने 1766 में केरल पर आक्रमण किया और मालाबार तपा कालीकट पर अधिकार कर लिया।

जावणकोर ध्रुव दक्षिण का एक महत्वपूर्ण एवं सुरक्षित राज्य था। 1729 के बाद इसका महत्व उस समय और भी बढ़ गया जबकि इसके राजा माता वर्मा ने मजबूत तथा पश्चिमी तरीकों से प्रशिक्षित और आधुनिक हथियारों से लैस आधुनिक सेना की मद्द्त से अपने राज्य की सीमाओं का प्रसार किया। डचों को केरल से बाहर तथा सामंत सरदारों का दमन कर दिया गया।

उसकी द्रष्टि प्रसार के आगे अपने राज्य के विकास की ओर थी तथा उसने सिंचाई परिवहन और सम्पर्क साधनों को विकसित करने के लिये कार्य किया। उसका उत्तराधिकारी राम वर्मा एक महान रचनाकार एवं शिान था तथा उसे पश्चिम का ज्ञान मी था। उसके शासन काल के दौरान उसकी राजधानी त्रिवेन्द्रम विद्वता तथा कला का केन्द्र बन गई।

क्षेत्रीय राजनीति की कमजोरियाँ

ये राज्य मुगल सत्ता को नष्ट करने के लिये पर्याप्त शक्तिशाली साबित हुए परन्तु इनमें से कोई भी मुगल साम्राज्य के स्थान पर अखिल भारतीय स्तर पर एक स्थिर राजनैतिक व्यवस्था देने में सक्षम नहो सका। एक मत के अनुसार, ऐसा इसलिये था कि इन क्षेत्रीय राजनैतिक व्यवस्थाओं में ही कमजोरियों निहित थीं। तथापि इनमें से कुछ ने विशेषकर मैसूर ने आधुनिकीकरण की ओर प्रयास किया परन्तु कुल मिलाकर वे तकनीकी एवं विज्ञान में पिछड़ी हुई थी। ये राज्य आर्थिक गतिरोध की उस प्रक्रिया को संबल सके जिसने मुगल साम्राज्य की अर्थव्यवस्था को चौपट कर दिया था। जागीरदारी संकट और गहरा हो गया क्योंकि कृषि से होने वाली आमदनी में गिरावट आयी और अतिरिक्त पैदावार पर हक जमाने पालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई। आंतरिक तथा विदेशी व्यापार बिना किसी रूकावट के जारी रहा और यहाँ तक कि उसमें सम्पन्नता बढ़ी परंतु बाकी अर्थव्यवस्था में व्रद्धि बंद हो गयी।

कमजोरियों के विषय में उपरोक्त विश्लेषण पर अभी हाल के वर्षों में इतिहासकारों द्वारा प्रश्नचिहन लगाया गया है। कुछ विशेष उदाहरण स्पिति का इसराही चित्र प्रस्तुत करते है। सतीश चन्द्र का कहना है कि आर्थिक हास् तथा सामाजिक रोष का एकरूप चित्रण करना गलत है। सामाज्य की राजनैतिक व्यवस्था के मत प्राय : होने के बावजूय साभाज्य के पूर्वी माग में आर्थिक विकास की गति में और तेजी आयी। औपनिवेशिक शासन की प्रारंभिक लुटपाट को बंगाल प्रांत ने मजबूती से पाहन किया। 1770 के बाद मी बंगाल की अर्थव्यवस्था में स्थायित्व बना रहा और सई की वस्तुओं का निर्यात्त 1750 में 400,000 से 1790 में ढाई गुना तक बह गया। सामाजिक ढांचे में ठहराव नाहीं आया, इसमें मी परिवर्तन हुए और छोटी जातियों ने प्रगति की तथा “नये लोग” आगे बढ़ते रहे। सारे भारत में ये सामान्य बातें थी।

मुजफ्फर आलम ने क्षेत्रीय आधार पर मिन्न-भिन्न विवरण प्रस्तुत किये है। उनका कहना है कि आपम में जहां एक ओर वार्षिक सम्पन्नता बढ़ी तो वहीं दुसरे क्षेत्रों (पंजाब) की अर्थव्यवस्था में ठहराव जाया। परन्तु राजनैतिक व्यवस्थायें क्षेत्रीय बनी रही क्योंकि पर्याप्त अतिरिक्त पन के अभाव में अखिल भारतीय स्तर पर एक ऐसी स्वदेशी राज्य व्यवस्था कायम न हो सकी। जिसकी तुलना मुगल साम्राज्य के साथ की जा सकती थी।

ब्रिटिश शक्ति का उदय

तुतीय तथा 18वीं सदी की राजनीति की सबसे निर्णायक तथा दूरगामी विशेषता मारत में सिटिश शक्ति का उदय एवं प्रसार था। इसने भारत के इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात किया। इस माग में आप यह मली-भांति जान जायेंगे कि भारत में अप्रेज़ कैसे आये और फिर उन्होंने किस प्रकार से अपने प्रभाव का प्रसार किया।

व्यापारिक कम्पनी से राजनैतिक शक्ति तक

18वीं सदी के मध्य में तो ईस्ट इंडिया कम्पनी का एक व्यापारिक कम्पनी से राजनेतिक शक्ति के रूप में परिवर्तन हो गया। अपनी स्थापना के दिन 31 दिसंबर 1600 ई. से 1744 तक, अग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत में अपने व्यापार एवं प्रमाव को धीरे-धीरे फैलाया। कुछ तचा मुगल दरबार में घुसपैठ की संयुक्त नीति के द्वारा पुर्तगालियों और डचों के बढ़ते प्रमाव को रोक दिया गया। 18वीं सदी के आते-आते केवल फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत में ओजी ईस्ट इंडिया कम्पनी की प्रमुख विरोधी विदेशी शक्ति के रूप में रह गयी थी जिसने इस संघर्ष में देरसे पदार्पण किया था।

ब्रिटिश साम्राज्य के प्रारंभ को सामान्यत: 1757 के उस समय से माना जाता है जबकि अग्रेजों ने प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब को पराजित किया। 1757 की विजय की पृष्ठभूमि दक्षिण मारत में उस समय तैयार की गयी जबकि अंग्रेजों ने फ्रांसीसी कम्पनी के साथ संघर्ष में अपनी सैनिक शक्ति एवं कूटनीति का सफलतापूर्वक परीक्षण किया। इस संघर्ष को कर्नाटक युद्धो के नाम से जाना जाता है जो एक चौथाई शाताब्दी 1744 से 1763 तक होते रहे।

अंग्रेजी ईस्ट  इंडिया कम्पनी 150 वर्षों तक एक व्यापारिक संगठन बनी रही। इस समय में इसकी राजनैतिक अभिलाषाओं में वृद्धि का क्या कारण था। जैसा कि हम बंड 2 में देखेंगे कि 1730 से भारत में यूरोपीय कम्पनियों के प्रसार का कारण, यूरोप के उत्पादन तथा व्यापार का फैलाव और यूरोप में आक्रामक राष्ट्रीय राज्यों का उदय होना था। भारत में मुगल प्रमुत्व के पतन ने स्पष्टत: बन कम्पनियों के प्रभाव के प्रसार के लिये महान अवसर प्रदान किया। करों से अधिक राजस्व प्राप्त करने की कम्पनी की लालसा ने उसे सामान्य स्थापित करने की ओर प्रेरित किया।

कम्पनी को अपने व्यापार को बनाये रखने तथा सेनाओं के वेतन देने के लिये अधिक धन की आवश्यकता थी और उसे अपनी बस जरूरत को पूरा करने के लिये कुछ क्षेत्रों को प्राप्त करने का रास्ता सर्वश्रेष्ठ लगा। कम्पनी की बंगाल विजय में दोहरे स्वायों की पूर्ति हुई। एक तरफ तो उसने अपने व्यापार को संरक्षण प्रदान किया तो दूसरी ओर बंगाल के राजस्व पर अपना नियंत्रण कर लिया। उनका लक्ष्य बंगाल के अतिरिक्त राजस्व को प्राप्त कर उसको बंगाल के सामानों पर खर्च करना। बंगाल से प्राप्त होने वाले सामानों के दाम 1765 में 400,000 पौंड से बढ़कर 1770 के दशक के अन्त तक 10 लाख पौंड तक पांच गये।

दक्षिण भारत में आंग्ल-फ्रांसीसी संघर्ष

निजामुल-मुल्क के अधीन हैदराबाद राज्य, केन्द्रीय प्रभुत्व से स्वतंत्र हो गया था परन्तु 1748 में उसकी मत्यु के बाद इस राज्य में अस्थिरता की शुरुआत हुई। जैसा कि कर्नाटक के संघों से स्पष्ट है कि उत्तराधिकार के संघर्षों ने विदेशी कम्पनियों को हस्तक्षेप का अवसर प्रदान किया।

प्रथम कर्नाटक युद्ध

1742 में युरोप के अन्दर दोनों देशों में युद्ध हो आने के कारण प्रथम कर्नाटक युद्ध हुआ। 1745 के आते-आते यह युद्ध भारत में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी तथा फ्रांसीसी ईस्ट कम्पनी के बीच का युद्ध बन गया। ये दोनों कम्पनियों मारत में व्यापार एवं राजनैतिक प्रभाव में एक दूसरे की प्रतिद्वन्दी थी। पांडिचेरी के पास प्रेजी सेना ने फ्रांसीसी जहाजों पर आक्रमण कर दिया परन्तु फ्रांसीसियों ने शीनही मदास पर अधिकार कर लिया। इस मौके पर कर्नाटक के नवाब ने अंग्रेजों द्वारा मदास को बचाने की अपील का उत्तर देते हुए फ्रांसीसी सेनाओं पर आक्रमण कर दिया। परन्तु उसकी सेनाओं को फ्रांसीसियों की एक छोटी सी सेना ने मद्रास के पास सेंट थोमस में पराजित कर दिया। यूरोप में युद्ध समाप्त होने के साथ ही अस्थायी रूप से दोनों कम्पनियों के बीच युद्ध समाप्त हो गया। सर्वोच्चता के प्रश्न का अमी अंतिम रूप से समाधान नहीं हुआ था। अत: 1748 के बाद संघर्ष की संभावनाएं फिर से शुरू हो गयीं।

कर्नाटक का दूसरा युद्ध

कर्नाटक का दूसरा युद्ध पांडिचेरी के फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले के कूटनीतिक प्रयासों का परिणाम था। हैदराबाद तथा कर्नाटक राज्यों के सिंहासन प्राप्त करने के लिये आंतरिक कलह काफी गंभीर स्थिति ग्रहण कर चुके थे। इन राज्यों से आकर्षक मेंट प्राप्त करने की लालसा से डूप्ले ने शीघ्रता के साथ कर्नाटक में चन्द्रा साहिम और हैदराबाद में मुजफ्फर जंग को समर्थन देने का निश्चय किया। ये प्रारंभिक तैयारियां उस समय काफी उपयोगी सिद्ध हुई जबकि फ्रांसीसियों और उनके सहयोगियों ने 1749 में अपने विरोधियों को पराजित कर दिया। फ्रांसीसियों को क्षेत्रीय व आर्थिक दोनों प्रकार के लाम प्राप्त हुए। उन्होंने नदिन सरकार, मच्छलीपत्तनम और पांडिचेरी के आस-पास के कुछ गांवों को प्राप्त किया। राजनैतिक प्रभाव को मनाये रखने के लिये हैदराबाद के निजाम दरबार में फ्रांसीसियों के एक प्रतिनिधि की नियुक्ति कर दी गई। अग्रेज़ों ने अपनी पराजय का बदला 1750 में लिया। राबर्ट क्लाइव ने अपनी चालाकी पूर्ण योजना को लागू करते हुए 200 अमेज़ सिपाहियों तथा 300 भारतीय सैनिकों की मदद से आर्काट पर अधिकार कर लिया।

चंबा साहिब के पास अब कोई रास्ता न था और अपनी राजधानी की सुरक्षा के लिये उसने त्रिचनापल्ली के घेरे को तोड़ा और इसके परिणामस्वरूप मुहम्मद अली को जमा लिया। यह पताप की याशाओं के अनुरूप था।

फ्रांसीसी सरकार के समर्थन के समाष में फ्रांसीसियों के पुनः खोपी शक्ति को प्राप्त करने के प्रयासों को पक्का लागा। उनको अमेरिका तपा भारत के संघर्षों में मारी नुकसान को उठाना पड़ा और इसलिये उन्होंने खचाले संघों के बदले तापमानजनक शांति को स्वीकार किया। इस प्रकार कम्पनी के चरित्र को एक राज्य के रूप में परिवर्तित करने का प्रयास फ्रांसीसी ईस्ट ईडिया कम्पनी के लिये बहा विनाशकारी सिखा। फ्रांसीसी सरकार न केवल प्रष्ट पर्व पतनशील थी बल्कि भविष्य में होने वाले विकास तथा योजनाओं को समझने में मी असफल रही। अमेज़ी कम्पनी के साथ वार्तालाप होने के मात्र 1754 में प्ले को फ्रांस वापस बुला लिया गया और वास्तविक रूप में फ्रांसीसी चुनौती समाप्त हो गई।

कर्नाटक का तीसरा युद्ध

यूरोप में लड़ाई छिड़ जाने के कारण दोनों कम्पनियों के बीच पुन: 1756 में युद्ध शुरू हो गया। काउन्ट डी लाली के नेतृत्व में, फ्रांसीसी सेना की सहायता के लिये, फ्रांस ने एक सेना भारत को भेजी, परन्तु उसके जहाज को वापस भेज दिया गया तथा फ्रांसीसी सेना को कनार्टक में पराजित कर दिया गया। हैदराबाद के दरबार, तथा क्षेत्र में फ्रांसीसियों को जो स्थिति प्राप्त की उसको अंग्रेजों ने उनके स्थान पर ग्रहण कर लिया। 1760 में वाण्डीबाश के युद्ध में फ्रांसीसियों की पराजय से भारत में उनका प्रभाव समाप्त हो गया। युद्ध जैसी शांति की परिस्थिति एक बार फिर यूरोप से ही संबंधित थीं। पैरिस को 1763 की संधि के बारा फ्रांसीसी कम्पनी बिना किसी राजनैतिक अधिकार एक व्यापारिक संगठन मात्र रह गयी। अग्रेज़ी और फ्रांसीसी कम्पनियों के बीच संघर्ष अमेज़ों के लिये मारत में अपनी शाक्ति को संगठित करने के लिये एक निर्णायक था। 20 वर्षों के बाद अग्रेज़ों ने फ्रांसीसियों के ऊपर अपनी स्रेष्ठता को साबित कर दिया था।

बंगाल की विजय : प्लासी से बक्सर तक

बंगाल पहला ऐसा प्रवेश था जिस पर अंग्रेजों ने अपने राजनैतिक नियंत्रण को स्थापित किया। नवाब सिराजुदौला को 1757 में प्लासी की लड़ाई में पराजित कर दिया गया। 1757 में मीर कासिम के द्वारा 24 परगनों की जमीदारी तथा फिर 1760 में बुदैवान, मिदनापुर. और चटगांव की जमींदारियाँ कम्पनी को प्रदान कर दी गयी। इससे कम्पनी के अधिकारियों को नवाब के अधिकारियों तथा किसानों का दमन करने का अवसर मिल गया। इसी प्रकार व्यापारिक अधिकारों का मी दुरुपयोग कम्पनी ने किया।

मीर कासिम ने सिराजुदौला के उदाहरण का अनुसरण करते हुए अपनी सार्वमौमिकता पर होने वाले हमलों को मानने से इंकार कर दिया। उसने अवष के नवाब तथा मुगल सम्राट के साथ मिलकर 1764 में अक्सर में अंग्रेज़ों के विरुद्ध युद्ध किया। कम्पनी ने एक आसान सी विजय प्राप्त की। इकाई में प्लासी से बक्सर तक होने वाली घटनाओं का विस्तृत रूप से वर्णन किया जायेगा। यहां पर हमारा संबंध केवल राजनैतिक व्यवस्था में होने वाले परिवर्तनों से है।

दोहरी शासन प्रणाली

1765 की संधि के द्वारा बंगाल में दोहरी शासन प्रणाली को लागू किया गया। क्लाइब बंगाल का गवर्नर हो गया तथा कम्पनी वास्तविक शासक। नवाब अब नाम मात्र का शासक रह गया और उसकी सेना को समाप्त कर दिया गया। प्रशासन का कार्य एक उप-सुबेदार को सौंप दिया गया जिसे नवाम के नाम पर कार्य करना था परन्तु उसको मनोनीत कम्पनी के द्वारा किया जाना था। उप-दीवान के माध्यम से राजस्व को एकत्रित करने पर कम्पनी का प्रत्यक्ष नियंत्रण कायम हो गया। दीवानी और सूबेदार के कार्यालयों पर एक ही व्यक्ति का नियंत्रण होने के कारण कम्पनी का नियंत्रण संपूर्ण था। इससे भी अधिक इसमें लाभ यह था कि उत्तरदायित्व नवाब का था। कम्पनी के कारिन्दे जो लुट तथा दमन करते उसका आरोप नवाब पर लगाया जाता। यह अनुमान है कि 1766से 1768 तक के वर्षों में कम्पनी ने केवल बंगाल से ही 57 लाख रूपये वसूल किये। क्लाइव सहित अग्रेज उच्च अधिकारियों ने यह स्वीकार किया कि कम्पनी का शासन अन्यायपूर्ण तथा भ्रष्ट था और परिणामस्वरूप बंगाल की जनता को भयंकर रूप से दरिद्ध किया गया।

राजनैतिक व्यवस्था का पुनर्गठन

अत्यधिक प्रशासनिक गलतियों के फलस्वरूप कम्पनी ने 1772 में दोहरी शासन प्रणाली को समाप्त कर दिया। कम्पनी मूलत: एक व्यापारिक संगठन थी, राज्य का प्रशासन करने के लिये उसके पास प्रशासनिक ढाँचा नहीं था। राजनैतिक शक्ति को सुव्यवस्थित करने के लिये इसके संविधान में परिवर्तन अपरिहार्य थे। कम्पनी के कार्य संचालन के लिये ब्रिटिश सरकार नियम बनाती थी। इसी कारणवश 1773 के रेगुलेटिंग एक्ट ने इसके कार्य को प्रमापित किया।

पश्चिमी संस्थाओं को लागू करना

हमारे लिये रेगुलेटिंग एक्ट का महत्व इस बात में निहित है कि भारत में सिटिश सरकार को चलाने की प्रणाली को लागू किया गया। ब्रिटिश पदति पर आधारित संस्थाओं को लागू किया गया। गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को बंगाल का प्रशासन चलाना पड़ता तथा बम्बई व मद्रास के प्रशासन का निरीक्षण करना होता था। कलकत्ता में जजों के एक सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई जो ब्रिटिश मापदण्ड से न्याय का प्रशासन चलाता था। कम्पनी के अंतर्गत पहले से ही एक प्रशासनिक प्रणाली विधमान थी जैसे कि इसके पास एक सेना थी, करों को एकत्रित करने की प्रणाली तथा न्याय देने का अधिकार था। प्रारंम में पुरानी व्यवस्या को केवल बढाया मात्र गया। परन्तु सदी के अन्त तक प्रशासन के अमेजी सिद्धांत गहरायी तक प्रवेश कर गये।

इस प्रकार का एक सिद्धांत मात्र था कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग कर दिया गया। दीवानी न्यायालयों को स्थापित किया गया जिनकी अध्यक्षता जजों या न्यायाधीशों द्वारा की जाती थी तचा बनकी लोकप्रियता की पुष्टि इस तथ्य से ही होती है कि 19वीं सदी के प्रारंभ तक इन न्यायालयों द्वारा 20,000 मामलों का निपटारा प्रति वर्ष किया जाता था। कार्नवालिस के शासन के दौरान पुलिस व्यवस्था भी कायम हो गई।

सेवाओं के लिये भारतीय आदमियों पर निर्भरता जारी रही, परन्तु विभिन्न नियमों के आधार पर। जैसे कम्पनी ने सत्ता की सर्वोच्चता प्राप्त की वैसे नवाष एवं उसके सहायकों की शक्ति समाप्त हो गई। एक शक्तिशाली राज्यव्यवस्था का निर्माण किया गया और जनता से यह आशा की गई कि वह उसकी आज्ञाओं का पालन करें। पुरानी परम्पराओंकी निरंतरता बनी रही परन्तु जनता को शासित करने के तरीके में मूलभूत परिवर्तन हुआ। यह परिवर्तन तात्कालिक रूप से दिखायी नहीं पड़ता था। कम्पनी के कारिन्दे स्वयं नवामों की मांति कार्य करते थे और राजस्व इकट्ठा करने के लिये विभिन्न परम्परागत तरीको एवं मुगल परम्पराओं को अपनाया गया। कम्पनी के प्रशासन एवं नीतियों पर ब्रिटिश सरकार का नियंत्रण कायम हो गया और मिटेन के हितों को पूरा करने के लिए स्वदेशी सरकार व्यवस्था का स्थान एक सामाम्यवादी व्यवस्था ने ले लिया।

सारांश

यात स्पष्ट हो चुका है कि 18 वी सदी को अब एक मूलत: अन्धकारमय, अराजकतावादी युग नहीं माना जा सकता। मुगल साम्राज्य का पतन ही बस शताब्दी की एक मात्र प्रमुख विशेषता नहीं थी। क्षेत्रीय शक्तियों का उदय 18वीं सदी के मध्य की लगभग उतनी ही महत्वपूर्ण घटना पी। 18वीं सदी के मध्य में ब्रिटिश शक्ति का उदय तीसरी महत्त्वपूर्ण घटना थी।

मुगलों से लेकर क्षेत्रीय व ब्रिटिश राजनैतिक व्यवस्थाओं में परम्पराओं की निरंतरता कां बने रहना काफी महत्वपुर्ण था। परन्तु इन तीनों प्रकार की राजनैतिक व्यवस्थाओं में विभिन्नतायें मी समान रूप से विद्यमान थी। एक ही प्रकार की संस्था को अब नयी राजनैतिक व्यवस्था के अंतर्गत मिला दिया गया तो उसने भिन्न प्रकार के कायों को सम्पन्न किया। उदित होने वाली क्षेत्रीय शक्तियाँ तीन प्रकार की थी- उत्तराधिकारी राज्य, नये राज्य और स्वतंत्र राज्य। प्रथम श्रेणी के राज्य राजनैतिक रूप से स्थिर साबित हुए। मराठा द्वितीय श्रेणी के “नये राज्यों” के अन्तर्गत आते थे और अखिल भारतीय स्तर पर सामाज्य स्थापित करने वालों में वही मुख्य दाबेदार थे। परन्तु बाहय चुनौतियों तथा आंतरिक कमजोरियों के संयुक्त रूप ने उनके सपनों को धराशायी कर दिया। जिन राज्यों की स्थापना सिक्खों, जाटों तथा अफगानों द्वारा की गई थे घोड़े समय के लिये ही जीवित रह सके।

क्षेत्रीय शक्तियां मुगलों का स्थान लेने में सक्षम न हो सकी। यद्यपि कुछ राज्य आर्थिक रूप से काफी सम्पन्न थे और कुछ राज्यों ने सैनिक क्षेत्र में भी काफी प्रगति की, फिर भी अखिल भारतीय स्तर की राजनैतिक व्यवस्था को चलाने के लिये पर्याप्त साधनों एवं शक्ति का अमाव था। आधुनिकीकरण के प्रयास काफी सीमित थे। पिछडे राज्य आसानी से अधिक सक्षम ब्रिटिश व्यवस्था के अधीन आ गये। सर्वोच्चता के लिये फ्रांसीसियों के साथ संघर्ष बिटिश शक्ति के उदय का प्रथम पड़ाव था। बंगाल की विजय द्वितीय एवं निर्णायक चरण था। प्रारंभ में अंग्रेजों ने स्वदेशी संस्थाओं के माध्यम से शासन किया परन्तु 1773से उन्होंने संवैधानिक सुधारों को लागू करना शुरू किया। ब्रिटिश शासन का मुख्य रुझान औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था की ओर था परन्तु औपनिवेशिक संस्थाएं मुगल और अंग्रेजी संस्थाओं का मिश्रण थी। भारत में ब्रिटिश शक्ति ब्रिटेन की विश्वव्यापी साम्राज्यवादी व्यवस्था का एक अभिन्न अंग थी।

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