ट्रेड यूनियन और किसान आंदोलन (1920-30)

इस इकाई का उद्देश्य आपके सामने 1920 और 1930 के दशकों के दौरान भारत में “ट्रेड यूनियन और किसान आन्दोलन” के विकास का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करना है।

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • श्रमिकों की दशा के बारे में जान सकेंगे
  • ट्रेड यूनियनवाद का अर्थ, इसका आरंभिक इतिहास और आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना के विषय में बता सकेंगे
  • ट्रेड यूनियन आन्दोलन के विकास की प्रक्रिया और बाद में उनके बीच हुए विभाजन के विषय में जान सकेंगे
  • किसानों की कठिनाइयों के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे
  • यह व्याख्या कर सकेंगे कि किसान आन्दोलन किस प्रकार देश के विभिन्न भागों में उभरे और किस प्रकार के किसान सभा में संगठित हुए

आपने 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हए किसान और श्रमिक वर्ग के आन्दोलनों के विषय में पढ़ा था । इम इकाई के अन्तर्गत हम आपको 1930 और 1930 के दशकों के दौगन हए ट्रेड यूनियन और किसान आन्दोलनों के विकाम के विषय में बताएगे । पहले हम ट्रेड यूनिन, आन्दोलन पर और उसके बाद किसान आन्दोलन पर विचार करेंगे। आप पढ़ चुके हैं कि किस प्रकार 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में औपनिवेशिक सरकार, ज़मींदार और मिल मालिकों के शोषण और उत्पीड़न के कारण किसानों और मजदूरों ने आन्दोलन किये । आप अब समझ सकेंगे कि 20वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में किस प्रकार इन आन्दोलनों ने धीरे-धीरे संगठित रूप धारण किया और औपनिवेशिक साम्राज्य पर अपनी नीतियां बदलने के लिए दबाव डाला । इस काल के श्रमिक वर्ग की प्रकृति और किसान आन्दोलनों में हुए इन परिवर्तनों को समझने के लिए आपको कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए :

  • राष्ट्रीय आन्दोलन में नयी प्रवृत्तियों का उभरना—विशेषकर जन-राजनीति और जन-संगठनों की तरफ झुकाव ।
  • प्रथम विश्वयुद्ध के आर्थिक, सामाजिक परिणाम, जिन्होंने भारतीयों के विभिन्न वर्गों पर विपरीत प्रभाव डाला । और
  • बोल्शेविक रूस का प्रभाव और भारत में समाजवादी विचारों का विकास ।

इन सभी कारणों से भारत में श्रमिक वर्ग और किसान आन्दोलनों का विकास हुआ । इन आन्दोलनों की प्रकृति उन पुराने आन्दोलनों से, जिनकी हम चर्चा कर चुके हैं, भिन्न थी ।

श्रमिकों की दशा

अब हम संक्षेप में श्रमिकों की दशा का वर्णन करेंगे । इससे हमें यह समझने में मदद मिलेगी कि भारत में ट्रेड यूनियनों की स्थापना क्यों हुई । भारत में सूती वस्त्र उद्योग का मुख्य केन्द्र बम्बई तथा जूट और चाय का मुख्य केन्द्र बंगाल था । यहां श्रमिकों की जनसंख्या भारत में सबसे अधिक थी । श्रमिकों के रहने और कार्य करने की परिस्थितियां बहुत शोचनीय थीं । वे एक दिन में 15-16 घंटे से लेकर 18 घंटे तक काम करते थे । अवकाश की कोई व्यवस्था नहीं थी । श्रमिकों को ठेकेदारों (सरदार) को रिश्वत देनी पड़ती थी, जिन पर उनकी आजीविका.निर्भर करती थी । वे अंधेरी और अस्वास्थ्यकर बस्तियों में रहते थे । जहां पानी और सफाई की कोई व्यवस्था नहीं थी ।

कोयला खानों के मजदूरों की दशा और भी अधिक शोचनीय थी । झरिया और गिरिडिह की कोयला खानों के श्रमिकों के काम के घंटे प्रातः 6 बजे से सांय 6 बजे तक थे । स्त्रियां और बच्चे भूमिगत खानों में काम करते थे । वहां प्रायः दुर्घटनाएं हुआ करती थीं । 1923 के बाद ही सरकार ने दुर्घटना बीमा योजना शुरू की थी । इसके बाद भी श्रमिकों को दुर्घटनाओं के मुआवजे की रकम लेने के लिए भी परेशानी उठानी पड़ती थी । श्रमिकों को मजदूरी कम दी जाती थी, जिससे मालिकों को अधिक से अधिक लाभ हो सके ।

रॉयल कमीशन आन लेबर ने स्पष्ट किया कि मद्रास और कानपुर में मजदूरी सबसे कम और बम्बई में सबसे ज़्यादा है । श्रमिकों द्वारा नुकसान करने, देर से आने और कम उत्पादन के लिए कई सालों तक जुर्माना वसूल किया जाता था । श्रमिक ऋणग्रस्त रहते थे । उन्हें प्रायः काबुली महाजनों का सहारा लेना पड़ता था । ये महाजन ब्याज की ऊँची दरें वसूल करते थे । भविष्य निधि और पेंशन की कोई व्यवस्था नहीं थी । वृद्ध होने पर श्रमिकों को काग से हाथ धोना पड़ता था । अतः उन्हें अपने भरण-पोषण (जीवन-निर्वाह) के लिए अपने बच्चों या रिश्तेदारों पर निर्भर रहना पड़ता था ।

ट्रेड यूनियनवाद का उदय

आइये देखें कि शोषण के विरुद्ध संघर्ष के लिए श्रमिक किस प्रकार संगठित हुए । वास्तव में ट्रेड यूनियनवाद का उदय श्रमिक वर्ग के आन्दोलन में एक नये युग का प्रतीक था।

 ट्रेड यूनियनवाद का अर्थ

ट्रेड यूनियनें जोकि आज बहुत प्रचलित हैं, श्रमिकों की ऐसी संस्थाएं हैं जिनका उद्देश्य फैक्टरियों में । काम करने वाले श्रमिकों की दशा सुधारना है। 19वीं शताब्दी में भारत में फैक्टरियों और मिलों की स्थापना होने पर सैकड़ों की संख्या में श्रमिक प्रतिदिन इकट्ठे काम करने लगे और रोज़ मिलने लगे। इससे उन्हें अपनी समस्याओं की चर्चा करने और अपने विचार मालिकों के सामने रखने का अवसर मिला । अधिकांश श्रमिक अशिक्षित थे । आरम्भ में उनका ट्रेड यूनियन बनाने और स्वयं को संगठित करने का विचार नहीं था । अधिकतर बुद्धिजीवियों ने उन्हें शिक्षित किया और ट्रेड यूनियनों में संगठित किया । ये लोग प्रायः यूनियनों के नेता होते थे ।

आरंभिक इतिहास

जैसाकि हम पहले बता चुके हैं, कुछ व्यक्ति श्रमिकों की शोचनीय दशा देखकर उनकी काम करने की परिस्थितियों में सुधार लाने के लिए आगे आए । उदाहरणस्वरूप ब्रह्म समाज के एक आमूल परिवर्तनवादी (Radical Brahmo) शशिपाड़ा बनर्जी ने कार्यरत व्यक्तियों का क्लब बनाया । उन्होंने 1874 में “भारत श्रमजीवी” (भारतीय श्रमिक) नामक अख़बार प्रकाशित किया और जूट मिल के श्रमिकों में शिक्षा का प्रसार करने के लिए रात्रिकालीन स्कूलों की व्यवस्था की । लेकिन उन्होंने ट्रेड यूनियन की स्थापना नहीं की । इसी प्रकार बम्बई में एन. एम. लोंखडे ने 1880 में ‘दीनबन्धु‘ नामक साप्ताहिक पत्रिका आरंभ की तथा 1890 में ‘बम्बई मिल हेंड्स एसोसिएशन’ की भी स्थापना की । यद्यपि यह संस्था ट्रेड यूनियन नहीं थी, फिर भी इसने निम्नलिखित मागे पेश की ।

  • काम के घंटों में कमी ।
  • साप्ताहिक अवकाश और
  • फैक्टरियों में काम के दौरान घायल हुए श्रमिकों को मुआवज़ा ।

अप्रैल 1918 में ऐनीबेसेन्ट के निकट सहयोगी बी. वी. वाडिया ने ‘मद्रास लेबर यूनियन’ की स्थापना की । यह भारत की पहली ट्रेड यूनियन थी । 1918 में मोहन दास करमचन्द गांधी ने अहमदाबाद के सूती कपड़ा उद्योग में श्रमिकों की हड़ताल का नेतृत्व किया । गांधी जी ने अपनी आत्मकथा “दी। स्टोरी ऑफ़ माइ एक्सपेरीमेंट्स विद ट्रथ” (The Story of My Experiments With Truth) में श्रमिकों की दशा का उल्लेख करते हुए लिखा है कि “उनकी मजदूरी कम थी और इसमें वृद्धि के लिए . श्रमिक बहुत समय से संघर्ष कर रहे थे ।” .

गांधीजी ने मिल मालिकों से अनुरोध किया कि वे मामले मध्यस्थता के लिए भेज दें । परन्तु मिल मालिकों ने इन्कार कर दिया । तब गांधी जी ने श्रमिकों को हड़ताल करने की सलाह दी । हड़ताल 21 दिन तक जारी रही । गांधी जी ने उपवास शुरू किया लेकिन तीन दिन बाद ही समझौता हो गया। 1920 में गाधी जी ने ‘मजूर महाजन संघ’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य श्रमिकों और उनके मालिकों के बीच शांतिपूर्ण संबंध बनाए रखना और मध्यस्थता तथा समाज सेवा करना था ।

ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना

ऊपर बताए गए प्रयत्नों से ट्रेड यूनियनवाद धीरे-धीरे लोकप्रिय होने लगा । 1919-1920 में कानपुर, कलकत्ता, बम्बई, मद्रास, जमशेदपुर और अहमदाबाद जैसे औद्योगिक केन्द्रों में अनेकों हड़तालें हुई । हज़ारों श्रमिकों ने इन हड़तालों में भाग लिया । इस पृष्ठभूमि में 1920 में बम्बई में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना हुई । लाला लाजपतराय ने इस के उद्घाटन सत्र की अध्यक्षता की । इसमें मोतीलाल नेहरू, ऐनीबेसेन्ट, सी. एफ. एंड्रयूज़, बी. वी. वाडिया और एन. एम. जोशी जैसे प्रमुख राष्ट्रवादी नेताओं और ट्रेड यूनियनवादियों ने भाग लिया । दी ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन काग्रेस, भारतीय श्रमिकों का प्रधान संगठन था ।।

यद्यपि 1920 के दशक में कई बार हड़तालें होती रहती थीं परन्त श्रमिकों के बीच ट्रेड यूनियनवाद के विकास की गति धीमी थी । रॉयल कमीशन आन लेबर ने इसके दो कारण बताए :

  • भाषा और साम्प्रदायिक भिन्नता ऐसे कारक थे, जो श्रमिकों की एकता में बाधक थे । उदाहरण के लिए बंगाल जूट मिल में अधिकतर श्रमिक बिहार और यू. पी. (संयुक्त प्रान्त) से आए थे ।  बंगाली श्रमिकों की संख्या कम थी ।
  • ठेकेदारों तथा मालिकों ने ट्रेड यूनियनों के विकास का विरोध किया ।
  • 1929 में केवल 51 यूनियनें थीं । 190,436 सदस्य ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस से संबद्ध थे । लेकिन अभी भी बहुत से श्रमिक ट्रेड यूनियनों में संगठित नहीं थे क्योंकि उन्हें नौकरी से निकाले जाने का डर था ।

ट्रेड यूनियनों का विकास

इन सभी रुकावटों के बावजूद ट्रेड यूनियन आन्दोलन श्रमिकों के बीच लोकप्रियता प्राप्त कर रहा था । इसका मुख्य कारण श्रमिकों की अनेक तकलीफें थीं, जैसे काम के अत्यधिक घंटे, अस्वास्थ्यकर आवास व्यवस्था, अपर्याप्त मजदूरी, नौकरी से निकाला जाना आदि । उन्होंने सहायता के लिए “बाहरी व्यक्तियों” का मगरा लिया । ये बाहरी व्यक्ति राष्ट्रवादी कम्युनिस्ट और समाजवादी तथा कुछ निर्दलीय भी होते थे । ये बाहरी व्यक्ति श्रमिकों की सभाएं आयोजित करते थे, मालिकों को सम्बोधित कर याचिकाएं लिखते थे और मांग पत्र तैयार करते थे । वे श्रमिकों को ट्रेड यूनियनों में संगठित करते थे तथा ये ट्रेड यूनियनें ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन काग्रेस से सम्बद्ध थीं ।

जब मालिक उनकी मागे अस्वीकार कर देते थे, तब श्रमिक हड़ताल करते थे । प्रायः हड़ताल के दौरान ट्रेड यूनियनें श्रमिकों की आर्थिक सहायता करती थीं क्योंकि हड़ताल के दौरान श्रमिकों को मजदूरी नहीं मिलती थी । हड़तालों के कारण श्रमिकों को बहुत अधिक परेशानियाँ उठानी पड़ती थीं । विशेषकर जव ये हड़ताले महीनों तक चलती थीं । इन परेशानियों के बावजूद भी फैक्टरियों में अनेक हड़तालें हई. । सरकारी कार्यालयों और व्यापारिक फर्मों के कर्मचारियों ने भी ट्रेड यूनियनें बनायीं और हड़तालें आयोजित की ।

अब हम इस काल में भारत में हुई कुछ हड़तालों के विषय में चर्चा करेंगे । भारत में बम्बई राती कपड़ा मिलों का सबसे बड़ा केन्द्र था । इनमें से अधिकांश मिलें भारतीय पूंजीपतियों द्वारा स्थापित की गयी थीं । 1924 में बम्बई में 150,000 श्रमिकों की एक बड़ी हड़ताल हुई : हड़ताल का मुख्य कारण मजदूरों को पिछले चार वर्षों से मिलने वाला बोनस इस वर्ष नहीं दिया जाना था । 1926 में एन. एम. जोशी की अध्यक्षता में ‘टैक्सटाइल लेवर युनियन‘ की स्थापना की गयी । अप्रैल 1928 में बम्बई में एक आम हड़ताल हुई । अधिकांश मिलों के श्रमिकों ने इस हड़ताल में भाग लिया । जब मरकार ने श्रमिकों की मांगों पर विचार करने के लिए एक समिति नियुक्त की तब 9 अक्टूबर को हड़ताल समाप्त हो गयी । इम् प्रकार हड़ताल ने सरकार को श्रमिकों और मालिकों के बीच हुए झगड़े में हस्तक्षेप करने के लिए बाध्य किया ।

वंगाल की जूट मिलों पर अग्रेज़ पूंजीपतियों का अधिकार था । यह बंगाल का सबसे बड़ा उद्योग था । बंगाल में 1921-29 के दौरान 592 औद्योगिक विवाद हुए । इनमें से 236, जूट मिलों में हुए । 1928 में हावड़ा जिले के बाउरिया में फोर्ट ग्लोस्टर मिल के श्रमिकों ने हड़ताल कर दी । यह हड़ताल बहुत महत्वपूर्ण थी, क्योंकि यह 17 जुलाई से 31 दिसम्बर तक यानी लगभग 6 महीने चली । जवाहरलाल नेहरू ने इस हड़ताल के विषय में लिखा है कि-“बाउरिया का गांव हावड़ा शहर से 16 मील पर है  इस गांव और इसके आसपास के इलाके में फैक्टरी के गरीब श्रमिकों और बंगाल के बड़े जूट मालिकों के बीच भीषण संघर्ष हुआ ।  उनमें से पंद्रह हज़ार व्यक्तियों ने इस संघर्ष को 6 महीने से भी अधिक समय तक जारी रखा ।”

जुलाई 1929 में जूट मिलों में एक आम हड़ताल हुई । बंगाल कांग्रेस ने हड़ताल के प्रति सहानुभूति दिखायी । सरकार ने हस्तक्षेप किया और 16 अगस्त को हड़ताल समाप्त हो गयी ।

जमशेद जी टाटा ने भारत में जमशेदपुर में पहली आधुनिक स्टील फैक्टरी स्थापित की । लगभग 20 हज़ार श्रमिक इस फैक्टरी में काम करते थे । 1920 में श्रमिकों ने “लेबर एसोसिएशन” की स्थापना की । बड़ी संख्या में श्रमिकों के निकाले जाने के विरोध में टाटा स्टील फैक्टरी के श्रमिकों ने 1928 में एक आम हड़ताल की । यह हड़ताल 6 महीने से ज़्यादा चली । यद्यपि हड़ताल पूरी तरह सफल नहीं थी परन्तु मालिकों ने “लेबर ऐसोसिएशन” को मान्यता दे दी ।

इस काल के दौरान अहमदाबाद में मिल मालिकों द्वारा मजदूरी में 20% कटौती किए जाने के विरोध में 64 कपड़ा मिलों में से 56 में आम हड़ताल हुई । मद्रास शहर भी ट्रेड यूनियन आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था । मद्राम में 1923 में सिंगारावेलू ने पहला “मई दिवस’ मनाया ।

ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस में विभाजन

अमेरिका में भीषण आर्थिक मंदी आरम्भ हई और 1929 तक पूरे विश्व में फैल गयी । भारत में मंदी 1936 तक जारी रही । मैकड़ो फैक्टरियाँ बंद हो गयीं और हज़ारों श्रमिक रोज़गार से हाथ धो वैठे । यूनियनों की संख्या में भी कमी हई ।

दुर्भाग्यवश इस काल के दौरान ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन काग्रेस दो भागों में विभाजित हो गयी । । पहला विभाजन 1929 में हुआ । उस समय जवाहरलाल नेहरू ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस के अध्यक्ष थे । इसका मुख्य मुद्दा था कि ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस अंगेज़ सरकार द्वारा नियुक्त रायल कमीशन आन लेबर का बहिष्कार करेगी या नहीं । उदारवादी इसमें शामिल होना चाहते थे, जबकि उग्रवादी इसका बहिष्कार करना चाहते थे । अंत में उदारवादियों ने ऑल इंडिया ट्रेड  यूनियन कांग्रेस छोड़ दी और वी. वी. गिरि की अध्यक्षता में इंडियन ट्रेड यूनियन फेडरेशन की  स्थापना की । 1931 में दूसरा विभाजन हुआ । कम्युनिस्टों ने ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन काग्रेस को छोड़ दिया और रेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना की । यह विभाजन उस समय हुआ जब मालिकों ने हज़ारों श्रमिकों को नौकरी से निकाल दिया था । विभाजनों के कारण ट्रेड यूनियन आन्दोलन कमज़ोर पड़ गया ।

नया चरण

1935 के पश्चात ट्रेड यूनियन आंदोलन का एक नया चरण आरंभ हुआ । ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन काग्रेस में पुनः एकता स्थापित हुई । 1936 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार आया । 1937 में काग्रेस ने प्रान्तों में मंत्रिमंडलों की स्थापना की । कांग्रेस मंत्रिमंडलों की स्थापना मे श्रमिकों की आकांक्षाएं बढ़ी । 1936 और 1939 के बीच ट्रेड यूनियनों की संख्या दुगुनी हो गयी और इसके सदस्यों की संख्या भी काफी बढ़ गयी । हड़तालों की संख्या 1936 में 157 से 1939 में 406 हो गयी ।

इनमें से प्रमुख हड़तालें 1935 में कलकत्ता में केसोराम कॉटन मिल्स और अहमदाबाद में टेक्सटाइल्स मिलों में, दिसम्बर 1936 से फ़रवरी 1937 तक बंगाल नागपुर रेलवे में हुई। इसके अलावा 1936 के दौरान कलकत्ता जूट मिल्स और कानपुर टैक्सटाइल्स मिल्स में श्रमिकों तथा मालिकों के बीच अनेक झगड़े हुए जो आगामी वर्ष में पराकाष्ठा पर पहुंच गये तथा दोनों में व्यापक आम हड़तालें हुई । इस समय की महत्वपूर्ण घटना दक्षिण पंथी और समाजवादियों द्वारा ट्रेड यूनियनों और किसान संगठनों को सामूहिक आन्दोलन के लिए एकताबद्ध करना था । दरअसल इस चरण में ही ट्रेड यूनियन आंदोलन का विकास हुआ ।

किसानों की कठिनाइयाँ

1920 और 1930 के दशकों के दौरान भारत के विभिन्न भागों में अनेक किसान संगर्ष हुए । आप पढ़ चुके हैं कि औपनिवेशिक शासन की स्थापना से किस प्रकार भारतीय कृषक वर्ग बुरी तरह से प्रभावित हुआ और उन्होंने इस शोषण के विरुद्ध अपनी आवाज़ उठाई । इम भाग में हम पढ़ेंगे कि किस प्रकार बदले हुए हालात भी किसानों का शोषण समाप्त नहीं कर पाये । वरन् यह वैसा ही बना रहा । लेकिन किसानों ने अपने अनुभव से यह सीखा कि उन्हें सरकार और ज़मींदारों की शक्ति के विरुद्ध असंगठित नहीं रहना चाहिए । एक ओर 20वीं शताब्दी में किसानों ने न केवल ताल्लुकेदारी और ज़मींदारी व्यवस्था की ज़्यादती के विरुद्ध विद्रोह किया, बल्कि किसान सभाओं जैसे किसान संगठनों की भी स्थापना की ।

भारत के विभिन्न भागों में शोषण के तरीकों में कुछ विभिन्नताएं हो सकती हैं । परन्तु सामान्यतः भारत में किसानों को अनेक कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी । वे सदा दूसरों की दया पर निर्भर रहते थे । यहां हम किसानों की कुछ प्रमुख कठिनाइयों का वर्णन करेंगे । इससे आप उस समय के किसानों की वास्तविक दशा को समझ सकेंगे ।

बहुत से क्षेत्रों में किसान का अपनी जोती हुई ज़मीन पर कोई दखल अधिकार (Occupancy Right) . नहीं था । ज़मींदार को उन्हें बेदखल करने का अधिकार था, जिसका प्रयोग वे काश्तकारों को सताने के लिए करते थे ।

  • ज़मींदार को नियमित कर देने के अतिरिक्त ज़मीदार काश्तकारों को “नज़राना”, “अबवाब” और विशेष अवसरों पर अन्य उपहार देने के लिए बाध्य करते थे ।
  • भू-राजस्व/भूमि किराये के भारी दबाव के कारण किसान गांव के व्यापारियों और ज़मीदारों के अणी हो जाते थे । ये किसानों से भारी ब्याज की दर वसूल करते थे । किसान के लिए इस ऋण जाल से बाहर निकलना कठिन था । यह अण पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता था ।
  • प्रथम विश्वयुद्ध ने किसानों की तकलीफों को और भी बढ़ा दिया । क्योंकि अनेक क्षेत्रों में  किसानों को युद्ध कोष तथा सैनिक कार्यवाहियों के लिए ऐसा देना पड़ता था ।
  • इस काल में अनाज की कीमतों में भारी वृद्धि हुई । इस महंगाई से गरीबों को लाभ नहीं हुआ  परन्तु मध्यम वर्ग और व्यापारियों को इससे लाभ हुआ ।

इस परिस्थिति में सरकार का कर्तव्य किसानों की सहायता करना था । परन्तु सरकार स्वयं ज़मींदारों के पक्ष में थी । इसका कारण यह था कि देहात में सरकारी शासन की स्थिरता ज़मींदारों पर निर्भर थी । अतः अनेक कष्टों के कारण किसानों ने विद्रोहों द्वारा अपनी मुक्ति का मार्ग चुना । ।

1920 के दशक के दौरान किसान आन्दोलन

इस पृष्ठभूमि में अब हम 1920 के दशक के दौरान हुए कुछ महत्वपूर्ण किसान आन्दोलनों की चर्चा करेंगे । इस काल में किसान आन्दोलन का मज़बूत केन्द्र यू. पी. था । उत्पीड़क ताल्लकेदारी और ज़मींदारी व्यवस्था ने किसानों का जीना दूभर कर दिया था । राष्ट्रवादियों ने किसानों की समस्याओं पर विशेष ध्यान दिया । लेकिन बावा रामचन्द्र ने ज़मींदारों के विरुद्ध अवध के किसानों को संगठित करने के लिए पहल की । बावा रामचन्द्र महाराष्ट्रियन ब्राह्मण थे । वे 1905 में करारबद्ध श्रमिक के रूप में फिजी गये थे । वहां से वे 1917-18 में अवध लौट आए । सन्यासी की वेशभूषा में वे किमानों के बीच रहे । उन्होंने गांव में सभायें आयोजित की और गांव में किसानों को जागृत और संगठित करने के लिए रामचरितमानस का उपयोग किया ।

उन्होंने किसानों को बतलाया कि किम प्रकार सरकार और ताल्लकेदारों ने उन्हें बंधुआ मजदूर बना दिया है । दामता को तभी समाप्त किया जा सकता है जब वे एकतावद्ध होकर अपना संगठित दल बना लें । अगस्त, 1920 में अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तव असंख्य किमानों ने कचहरी प्रांगण में एकत्रित होकर उनकी रिहाई की मांग की ।

1920 में किसान आन्दोलन कांग्रेस के असहयोग आन्दोलन मे जड़ गया । 1921 में किमान आन्दोलन तीव्र हो उटा और यू. पी. के बोली हैदावाद और नगर में फैल गया । किसानों ने प्रदर्शन किये । उनको माग थी कि जमीन मे वेदना की जानी चाहिए । उन्होंने ज़मींदारों ओर महाजनों के घरों पर धावे बोले । 6 जनवरी, 1921 में किसान फरमतगंज बाज़ार में इकट्ठे हए । उन्होंने अनाज और कपड़े की कीमत में वृद्धि, दनियों के भारी मुनाफे और ताल्लुकेदारों की मनमानी (निरंकुशता) के विरुद्ध विद्रोह किया । पलिम किसानों को तितर-बितर करने में असफल रही . और उन पर गोली चलायी । इस कार्रवाई में 6 व्यक्ति मारे गये ।

7 जनवरी को जब हज़ारों किमान रायबरेली में मुंशीगंज पुल पर इकट्टे हए उस समय पुलिस ने निहत्थे किसानों पर फिर गोली चलायी । नेहरूजी ने अपनी आत्मकथा में इस घटना का वर्णन इस प्रकार किया है.-

“जैसे ही मै नदी के पास पहुँचा, दूसरी ओर से गोली चलने की आवाज़ सुनी जा सकती थी । मुझे पुल पर रोक लिया गया ”इस गोलीकांड में कई लोग मारे गये धे” ।

1921 में स्थिति में परिवर्तन हआ । सरकार की दमनकारी नीति, काग्रेसियों के आन्दोलन को रोकने के प्रयास और 1921 में अवध लगान ऐक्ट (Ovadh Rent Act) में सुधार के कारण आंदोलन फीका पड़ गया । परन्तु इससे किसानों को शांत नहीं किया जा सका । 1921 के अंत और 1922 के आरंभ में हरदोई, बाराबंकी, सीतापुर आदि जिलों में आन्दोलन फिर से उभरा । इन जिलों में किसानों ने “एका” आन्दोलन आरम्भ किया । इसे शुरू करने में जुझारू (Radical) किसान नेता मदारीपासी का हाथ था । उनके नेतृत्व में शुरू किए गये आन्दोलन ने ज़मींदारों और प्रशासन को गंभीर चुनौती दी । तथापि अंग्रेज़ सरकार की दमनकारी नीति के कारण यह आन्दोलन असफल हो गया । परन्तु मदारीपासी को गिरफ्तार नहीं किया जा सका ।

उत्तर बिहार में किसान आन्दोलन स्वामी विद्यानन्द के नेतृत्व में विकसित हुआ । इस क्षेत्र में दरभंगा के राजा के पास विस्तृत संपदा थी । उसने यहां के स्थानीय किसानों का विभिन्न प्रकार से दमन किया । स्वामी विद्यानन्द ने दरभंगा के राजा के विरुद्ध किसानों को संगठित किया । लेकिन यहां का आन्दोलन यू. पी. की भांति जुझारू नहीं था ।

बंगाल के किसानों ने भी “कर न देने” संबंधी आंदोलन में भाग लिया । मिदनापुर जिले में यह अधिक तीव्र था । किसानों ने यूनियन बोर्ड को ‘कर देने से इन्कार कर दिया । यह आंदोलन इतना प्रभावशाली था कि यूनियन बोर्ड के सदस्यों को त्यागपत्र देना पड़ा । सरकार ने यूनियन बोर्ड को समाप्त करने का निश्चय किया । इस प्रकार यह आन्दोलन सफल हुआ ।

कांग्रेस ने गुजरात में किसानों को संगठित करने का प्रयत्न किया । 1927 में कपास के मूल्य में गिरावट आने के बावजूद सरकार ने बारदोली में राजस्व बढ़ा दिया । बल्लभ भाई पटेल और कनवर जी मेहता ने किसानों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । इस प्रकार 1928 में बारदोली सत्याग्रह आरंभ हुआ । किसानों ने सरकार को राजस्व देने से इन्कार कर दिया । इसके परिणामस्वरूप सरकार ने दमनकारी रुख अपनाया और किसानों की ज़मीनें ज़ब्त कर ली । अंत में सरकार को समझौता करना पड़ा और राजस्व की दर घटा दी गयी ।

उपरोक्त आन्दोलनों के अतिरिक्त देश के अन्य भागों में भी छुटपुट विद्रोह हुए  राजस्थान, मालाबार, उड़ीसा, आसाम तथा अन्य प्रान्तों में भी किसानों ने अपने प्रति हुए अन्यायों का जोरदार विरोध किया ।

1930 के दशक में किसान आन्दोलन

1930 के दशक में भी किसानों ने विभिन्न प्रांतों में विद्रोह किए । यू. पी. में किसान विद्रोह सबसे अधिक प्रभावशाली था । कांग्रेस ने ‘कर न देने’ संबंधी आंदोलन का आह्वान किया और ज़मींदारों से सरकार को राजस्व न देने के लिए कहा । परंतु कुछ नेता ‘लगान बंदी’ (No Rent) आंदोलन आरंभ करना चाहते थे । ‘लगान बंदी’ आंदोलन क्या है ? यह उन काश्तकारों का आंदोलन है, जो ज़मींदारों को लगान देते थे, कर नहीं आंदोलन सरकार के विरुद्ध था जबकि लगान बंदी आंदोलन का प्रभाव जमींदारों पर पड़ा । 1931 में लगान बंदी आंदोलन आंरभ किया गया जिसका काश्तकारों ने ज़ोरदार समर्थन किया । उन्होंने ज़मींदारों को लगान देना बंद कर दिया ।

आंदोलन रायबरेली, इटावा, कानपुर, उन्नाव और इलाहाबाद में फैल गया । रायबरेली के कालका प्रसाद जैसे नेताओं ने किसानों से सभी प्रकार की अदायगी रोक देने का अनुरोध किया । सरकार ने आंदोलन को दबाने का प्रयत्न किया । किसान यूनियन को अवैध घोषित कर दिया गया । आंदोलन कुचल दिया गया ।

बंगाल और बिहार में किसानों ने कर नहीं आंदोलन में भाग लिया । बंगाल में कृषक महिलाएं भी इस आंदोलन में शामिल हुई और उन्होंने मिदनापुर जिले में गैर कानूनी नमक भी बनाया और बेचा । पुलिस द्वारा उनकी पिटाई की गयी । मानभूम, सिंहभूम और दिनाजपुर ज़िलों में आदिवासी किसानों ने नमक सत्याग्रह में भाग लिया और जेल गये परंतु ज़मींदारों को लगान का भुगतान न करने का कोई आंदोलन नहीं हुआ था ।

मद्रास में भी किसान आन्दोलन का विकास हो रहा था । 1928 में आन्ध्र रैयत एसोसिएशन बनायी गयी थी । इसके नेता प्रोफेसर एन. जी. रंगा थे । रैयत एसोसिएशन ने किसानों की तात्कालिक मांगों की तरफ ध्यान आकर्षित किया । इनकी महत्वपूर्ण मांगों में से एक मांग लगान में कमी थी । जिससे ज़मींदार प्रभावित हुए । जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ हुआ, उस समय किमानों ने गांवों में सभाएं आयोजित की और भू-राजस्व के विरुद्ध प्रचार किया । तंजौर, मदुरा और सेलम में विद्रोह । तेज़ हुआ । 1931 के अंत तक कुछ जिलों में अनाज के लिए दगे आरम्भ हो गये । कृष्णा जिले में एक महाजन के घर पर धावा बोला गया और उसका अन्न भंडार लूट लिया गया ।

गुन्टूर जिले के पुलिस और किसानों के बीच संघर्ष हुआ । सरकार और कांग्रेस द्वारा, किसान आन्दोलन को रोकने के प्रयासों के बावजूद भी यह और अधिक उत्साह के साथ बढ़ता रहा ।

ऑल इंडिया किसान सभा की स्थापना

1920 तक विभिन्न क्षेत्रों में प्रान्तीय किसान सभाओं की स्थापना हो चुकी थी । परन्तु समाजवादियों और कनिस्टों ने यह महसूस किया कि किसानों का एक केन्द्रीय संगठन होना आवश्यक है । उनके प्रयत्नों मे 19.36 में ऑल इंडिया किसान सभा की स्थापना हुई । 1937 तक ऑल इंडिया किसान मभा की शाखाएं विभिन्न प्रान्तों में बन गई । एन. जी. रंगा, स्वामी सहजानंद, नरेन्द्र देव, इन्दुलाल याग्निक और बंकिम मुकर्जी ऑल इंडिया किसान सभा के कुछ प्रमुख नेता थे । किसान सभा के निम्नलिखिन उद्देश्य थे :

  • आर्थिक शोषण से किसानों की रक्षा |
  • जमींदारीऔर ताल्लुकेदारी के रूप में भूस्वामित्व की समाप्ति ।
  • राजस्व और लगान में कमी,
  • ऋण स्थगन,
  • महाजनों को लाइसेंस देना (महाजनों के लिये कानून बनाना),
  • खेतिहर मजदूरों के लिए न्यूनतम मजदूरी,
  • व्यापारिक फसलों के लिए उचित मूल्य, और
  • सिंचाई सुविधाएं आदि ।

सभाओं और प्रदर्शनों में किसान सभा इन मांगों से किसान को अवगत कराती थी और इन मांगों की स्वीकृति के लिए सरकार पर दबाव डालती थी । ऑल इंडिया किसान सभा ने फैज़पुर में अपनी दूसरी वार्षिक सभा में प्रस्ताव रखा, “देश की सारी साम्राज्यवाद विरोधी शक्तियाँ ख़ासकर किसान और मज़दूर शोषकों के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष को तेज़ करें । यह संघर्ष शोषण के प्रतिनिधि अग्रेज़ सरकार, ज़मींदारों, भूमिपतियों, उद्योगपतियों और महाजनों के खिलाफ होगा ।” ऑल इंडिया किसान सभा ने काग्रेस से अलग होकर संघर्ष करने का निर्णय लिया । उन्होंने दावा किया कि किसानों की मुक्ति उनके अपने संगठन के द्वारा ही हो सकती है ।

किसान सभा ने एक नये तरीके का आंदोलन चलाया । यह मुख्यतः ज़मींदारों के विरुद्ध था । 193738 में बिहार में एक जन आंदोलन आरंभ हुआ । यह आंदोलन बकाश्त के नाम से विख्यात हुआ । बकाश्त का अर्थ है-स्वयं का जोता हुआ । प्रायः ज़मींदार बकाश्त भूमि से काश्तकार को बेदखल कर देते थे । 1937 में कांग्रेस मंत्रिमंडल के गठन के पश्चात् किसान सभा ने बकाश्त के मुद्दे को उठाया । बकाश्त आंदोलन के दौरान किसानों ने बेदखली के विरुद्ध संघर्ष किया । ज़मींदार और किसानों के बीच भी संघर्ष हुआ ।

बंगाल में भी किसान सभा सक्रिय थी । वर्दमान जिले में दामोदर नहर के निर्माण के पश्चात् किसानों पर ‘नहर कर’ लगाया गया । किसान मभा ने ‘नहर कर’ में कमी के लिए सत्याग्रह किया । सरकार ने किसान सभा की कुछ मागें स्वीकार कर लीं, अतः आंदोलन समाप्त कर दिया गया । उत्तर बंगाल के जिलों में ‘हाट्’ ‘टोला’ आंदोलन आरंभ किया गया । मेलों और हाटों में (साप्ताहिक बाज़ार) चावल, धान, सब्जी, फेन बेचने वाले किसानों से ज़मींदार वसूली (Levy) करते थे । किसानों ने इस वसूली का भुगतान करने से इंकार कर दिया । कभी-कभी ज़मींदार किसानों के साथ समझौता कर लेते ये और गरीब किसानों को लेवी के भुगतान से छूट दे देते थे ।

1939 में बटाईदारों (Share Croppers) का आंदोलन हुआ | ये ज़मींदार की भूमि जोतने वाले गरीब किसान हुआ करते थे जो उत्पादन का कुछ भाग ज़मींदार को देते थे, फिर भी पट्टेदारी की कोई सुरक्षा नहीं थी और ज़मींदार इन्हें बेदखल कर सकता था । 1939 में काश्तकार खेत से फसल अपने खलिहानों में ले गये । इससे पहले उन्हें फसल को ज़मींदार के अन्न-भंडार में ले जाना पड़ता था, जहां उसकी गहाई की जाती थी और तब बटाईदारों और ज़मींदारों के बीच बांटा जाता था ।

उत्तर बंगाल के दीनाजपुर जिले में आंदोलन तेज़ था । सरकार ने किसानों से समझौता किया । यह निश्चित किया गया कि भविष्य में धान एक ऐसे स्थान पर इकट्ठा किया जायेगा जिसका निर्णय ज़मींदार और बटाईदार करेंगे । इस प्रकार आंदोलन सफल हुआ और किसान, संगठन क्षमता से अवगत हुए । इस काल में उड़ीसा और आन्ध्र प्रदेश में भी इसी प्रकार के संघर्ष हुए । आन्ध्र प्रदेश में किसानों को संगठित करने में एन. जी. रंगा ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी ।

कांग्रेस और किसान वर्ग

अब हमारे ज़हन में दो प्रश्न उठते हैं, वे इस प्रकार हैं—किसान आंदोलन के विषय में कांग्रेस की क्या प्रतिक्रिया थी ? और काग्रेस द्वारा निर्देशित राष्ट्रीय आंदोलन के बारे में किसानों की क्या प्रतिक्रिया थी ? काग्रेस नेता किसानों की शक्ति से भलीभांति परिचित थे और अंग्रेज़ी राज्य के विरुद्ध संघर्ष में उनके महत्व को समझते थे । वे किसान की समस्याओं और तकलीफों से चिंतित थे। यह नेहरू की टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है, जो उन्होंने 1937 में की थी—”भारत में सबसे महत्वपूर्ण समस्या किसानों की समस्या है । शेष सब गौण है” परन्तु कांग्रेस के वे दक्षिणपंथी जो भारतीय समाज के प्रमुख सामाजिक समूहों का प्रतिनिधित्व करते थे, भारतीय किसान की बढ़ती हुई वर्ग चेतना और ज़मींदारी उन्मूलन के लिए किसान सभा की मांग से डरे हुए थे। वे चाहते थे कि किसान साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन को शक्तिशाली बनाने में सहयोग दें, परन्तु ज़मींदारों के विरुद्ध किसानों की मांग के वे विरोधी थे ।

जब कभी किसानों ने ज़मींदारों के विरुद्ध संघर्ष किया, कांग्रेस नेता उन्हें रोकने का प्रयास करते थे । दक्षिणपंथियों ने किसान सभा की स्थापना को कांग्रेस संगठन के लिए एक चुनौती समझा । महादेव देसाई ने इसका तर्क देते हुए लिखा है :

“यदि किसान सभा किसानों और ज़मींदारों के बीच अन्दरूनी झगड़े पैदा करती है तो उससे काग्रेस के उद्देश्य को हानि पहुँचेगी । कांग्रेस भलि प्रकार जानती है कि राष्ट्र को बनाने वाले विभिन्न तत्वों से किस प्रकार निपटा जा सकता है । नीतियाँ निर्धारित करना कांग्रेस का कार्य है कोई व्यक्ति या । समूह धमकी या बल प्रदर्शन से कांग्रेस पर अपनी नीतियाँ नहीं थोप सकता”

इसके विपरीत यदि हम किसान सभा और किसान आंदोलनों पर दृष्टि डालते हैं तब हमें ज्ञात होता है कि किसी भी स्तर पर किसान नेताओं ने कांग्रेस के विरुद्ध काम नहीं किया । कांग्रेस और देश की स्वतंत्रता के लिए उसकी भूमिका पर उन्हें पूरा विश्वास था । किन्तु कांग्रेस के दक्षिण पंथियों से भिन्न, किसान नेता केवल अग्रेज़ शासन से ही नहीं बल्कि ज़मींदारों और पूंजीपतियों के आधिपत्य से भी मुक्ति की मांग करते थे । कांग्रेसी नेतृत्व और किसान नेतृत्व के बीच मतभेद का यही मुख्य कारण था । कांग्रेस के प्रति किसानों का दृष्टिकोण 4 अक्तूबर, 1939 में दिये गये सहजानंद के भाषण से स्पष्ट हो जाता है।

“हम सब कांग्रेस से उसके जादू या रहस्य के कारण नहीं बल्कि इसलिए जुड़े हैं कि वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करती है । इसने संकटपूर्ण परिस्थितियों में गलत कदम नहीं उठाये  मुक्ति के लिए राष्ट्रीय संघर्ष की इस संकटपूर्ण परिस्थिति में संगत निर्णय लेने में हमारे सारे प्रयत्न इसके हाथ मज़बूत करने के लिए हैं” ।

सारांश

भारत में श्रमिकों को दुःखद स्थिति ने ट्रेड यूनियन आंदोलन के विकास के लिए अनुकूल पृष्ठभूमि तैयार की । परन्त श्रमिकों का अशिक्षा, भाषा, जाति और सम्प्रदाय की भिन्नता और सवते अधिक, मालिको के ट्रेड यूनियन विरोधी दृष्टिकोण के कारण भारत में ट्रेड युनियनो की स्थापना में विलम्ब हुआ ।

इसके बावजूद 1920 के उपरांत ट्रेड युनियन आंदोलन धीरे-धारे मज़बूत होने लगा । “बाहरी व्यक्तियों ने ट्रेड युनियनो के विकास में सहायता की 1980 में ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन काग्रेस की स्थापना एक मात्र घटना थी 

1937 के पश्चात ट्रेड यूनियनवाद का विस्तार हुआ । काग्रेस ने प्रान्तों में मंत्रिमंडल स्थापित किये । जिससे जनता में आशाएं जागी । और श्रमिक, ट्रेड यूनियनों में शामिल हुए तथा हड़तालों में भाग लिया । कम्युनिस्टों और समाजवादियों ने इन हड़तालों में सक्रिय भूमिका निभायी । टैक्स का अधिक भार, बेदखली का भय, भूमि पर दखल अधिकार (Occupancy Right) न होने, आवश्यक वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि और इस अन्याय के प्रति सरकार के निष्क्रिय व्यवहार ने किसानों को विद्रोह के लिये बाध्य किया ।

1920 और 1930 के दौरान भारत के विभिन्न राज्यों में अनेक किसान विद्रोह हुए । किसानों ने किसान सभाओं में अपने आपको संगठित किया और एक नये प्रकार का आंदोलन आरंभ किया । आंदोलन मुख्यतः ज़मींदारों के विरुद्ध थे । किसानों के केन्द्रीय संगठन के रूप में ऑल इंडिया किसान सभा की स्थापना की गयी । इस काल के किमान आंदोलनों का यह एक स्थायी प्रभाव था ।

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