भारत छोड़ो आंदोलन

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • भारत छोड़ो आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार करने वाली परिस्थितियों के बारे में जान सकेंगे
  • इस आंदोलन के प्रति भारतीय जनता के विभिन्न वर्गों के दृष्टिकोणों को समझ सकेंगे
  • देश के विभिन्न क्षेत्रों में इस आंदोलन की प्रतिक्रिया के बारे में जान सकेंगे
  • इस आंदोलन को कुचलने के लिए अंग्रेज़ सरकार द्वारा अपनाये गये दमनकारी उपायों के बारे में जान सकेंगे
  • इस आंदोलन की विशेषताओं और उसके महत्व के बारे में जान सकेंगे

युद्ध की प्रतिकूल परिस्थितियों और अंतर्राष्ट्रीय दवाबों ने अंग्रेजों को भारत के साथ एक सौहार्दपूर्ण समझौता करने और युद्ध में उसका संक्रिय सहयोग प्राप्त करने के लिए विवश कर दिया। सर स्टेफर्ड क्रिप्स कुछ प्रस्तावों के साथ भारत आये और उन्होंने विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के साथ बातचीत की।

 क्रिप्स के प्रस्ताव

क्रिप्स के कुछ प्रस्ताव जो घोषणा पत्र के प्रारूप में शामिल थे, इस प्रकार थे :

  • युद्ध समाप्त होने के तुरंत बाद भारत को, पृथक होने के अधिकार सहित, डॉमिनियन स्टेटस दे दिया जाएगा।
  • युद्ध समाप्त होने के तुरंत बाद एक संविधान निर्मात्री संस्था का गठन किया जाएगा।
  • इसमें ब्रिटिश भारत और देशी रियासतों के प्रतिनिधि होंगे।
  • इस तरह युद्धोपरांत बनाया गया संविधान अंग्रेज़ सरकार द्वारा इस शर्त के साथ स्वीकार कर लिया जाएगा कि कोई भी भारतीय प्रांत, यदि वह चाहे तो, भारतीय संघ से बाहर रह सकेगा और इस मसले पर ब्रिटेन से सीधी बातचीत कर सकेगा।
  • राजा और सैनिक कार्रवाइयों का वास्तविक नियंत्रण अंग्रेज़ सरकार के पास रहेगा।

इस घोषणा पत्र को तकरीबन सभी भारतीय पार्टियों ने अस्वीकार कर दिया। कांग्रेस भविष्य के वादों पर भरोसा नहीं करना चाहती थी। वह पूर्ण अधिकारों सहित उत्तरदायी सरकार और देश की रक्षा पर नियंत्रण भी चाहती थी। गांधीजी ने प्रस्तावों की उपमा एक दिवालिया बैंक के नाम काटे गए उत्तर दिनांकित चेक से दी। मुस्लिम लीग ने मुसलमानों के लिए एक अलग राज्य बनाये जाने के संबंध में अंग्रेजों द्वारा एक स्पष्ट घोषणा किये जाने की मांग की, और साथ ही अंतरिम सरकार में कांग्रेस के साथ मुस्लिम लीग के लिए 50 : 50 के आधार पर सीटों की मांग भी रखी। दलित वर्गों, सिक्खों, भारतीय, ईसाइयों और एंग्लो इंडियनों ने अपने-अपने समुदायों के लिए रक्षा उपायों की मांगें रखीं।

इस तरह, क्रिस कमीशन भारतीयों को संतुष्ट करने में असफल रहा। ब्रिटेन ने यह सारा प्रयोग में कोई ठोस काम करने के बजाय दनिया को यह दिगो के लिए ज्यादा किया था कि तह भारत की भावनाओं की चिंता करता है।

भारत छोड़ो आंदोलन की पृष्ठभूमि

कांग्रेस को अपने भावी काम की दिशा जिन स्थितियों के चलते  तय करनी पडी थी।

  • क्रिप्स मिशन की असफलता
  • जापानी सेना का भारत की सीमाओं तक आ पहुंचना
  • बढ़ती हुई कीमतें और खाद्य आपूर्ति की कमी
  • कांग्रेस के अंदर अलग-अलग मत

कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने एक प्रस्ताव पारित किया जिसमें भारत पर हमला करने वाली किसी भी विदेशी ताकत के साथ पूर्ण अहिंसक असहयोग करने का आह्वान किया गया (मई 1942)। राजगोपालाचारी और मद्रास के कुछ अन्य कांग्रेसियों ने एक प्रस्ताव पारित करवाने का प्रयास किया जिसमें कहा गया था कि अगर मद्रास सरकार उन्हें आमंत्रित करती है तो कांग्रेस को वहां मंत्रिमंडल का गठन करना चाहिए। इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया गया, परंतु इस प्रस्ताव ने यह ज़ाहिर कर दिया कि कुछ ऐसे कांग्रेसी थे जो सरकार के साथ सहयोग करना चाहते थे। राजगोपालाचारी एक स्वतंत्र रास्ता अपना रहे थे। वे पाकिस्तान की मांग का समर्थन कर चुके थे और कांग्रेस से आग्रह कर रहे थे कि वह युद्ध में सहयोग करें।

मई 1942 में गांधी जी ने बंबई में कांग्रेसियों की एक सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि उन्होंने तय कर लिया है कि वे आदेशात्मक स्वर में अंग्रेजों से भारत छोड़ने के लिए कहेंगे। अगर अंग्रेज़ नहीं मानेंगे तो वे नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू कर देंगे। इस आंदोलन को शुरू करने के बारे में बहुत से कांग्रेसी नेताओं के मन में संकोच था। नेहरू, विशेष रूप से दविधा में थे कि साम्राज्यवादी ब्रिटेन से संघष करें या फासीवाद के विरुद्ध सघंर्ष में सोवियत संघ और चीन का साथ न दें। आखिरकार नेहरू ने आंदोलन शुरू करने के पक्ष में फैसला किया।

कांग्रेस ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत छोड़ो मांग का मतलब यह नहीं कि ब्रिटिश और मित्र राष्ट्रों की फौजें तुरंत ही भारत से चली जाएं। बल्कि इसका तात्पर्य था कि अंग्रेजों द्वारा भारत की स्वतंत्रता को तत्काल स्वीकृति प्रदान की जाए। 14 जुलाई को कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने “भारत छोड़ो’ प्रस्ताव स्वीकार किया जिसकी पुष्टि अगस्त में बम्बई में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में की जानी थी।

8 अगस्त, 1942 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने “भारत छोड़ो प्रस्ताव पारित कर दिया। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों पर विस्तार से चर्चा करने के बाद, कांग्रेस ने भारत के लोगों से अपील की :

उन्हें याद रखना चाहिए कि अहिंसा इस आंदोलन का आधार है। एक समय ऐसा आ सकता है कि जब लोगों के लिए निर्देश जारी करना, या निर्देश के लिए जनता तक। पहुंचना सम्भव न हो, और जब कोई कांग्रेस कमेटी काम न कर सके। अगर ऐसा हो तो प्रत्येक स्त्री और पुरुष को जो इस आंदोलन में भाग ले रहा है, जारी किए गये सामान्य निर्देशों की चौहद्दी में रहकर स्वयं अपने अनुसार काम करना चाहिए।

गांधी जी ने अंग्रेजों से यहां से चले जाने और “भारत को भगवान भरोसे छोड़ने के लिए कहा। उन्होंने सभी वर्गों को प्रोत्साहित किया कि वे आंदोलन में भाग लें, उन्होंने जोर देकर कहा “प्रत्येक भारतीय को जो आज़ादी चाहता है और इसके लिए प्रयत्न करना चाहता है, अपना अगुआ स्वयं बनना चाहिए।” उनका संदेश था “करो या मरो” इस तरह “भारत छोड़ो आंदोलन” शुरू हो गया।

आंदोलन

कांग्रेस ने अंग्रेज़ों को निकाल बाहर करने का आह्वान तो किया लेकिन इसने पालन के लिए लोगों को कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं दिया। सरकार इस आंदोलन को कुचलने की तैयारियां कर रही थी। 9 अगस्त की सबह गांधी जी सहित कांग्रेस के सभी प्रमख नेता गिरफ्तार कर लिए गए। नेताओं की गिरफ्तारी ने लोगों को धक्का पहुंचाया और वे । विरोध के लिए सड़कों पर निकले आये। के.जी. मशरूवाला ने, जो “हरिजन’ के सम्पादक हो गये थे, विरोध की सम्भावित रूपरेखा के बारे में अपनी निजी राय प्रकाशित की:

मेरी राय में, कार्यालायों, बैंकों, अन्न-भंडारों की लूटपाट या आगजनी उचित नहीं है। यातायात संचार व्यवस्था अहिंसक तरीके से और जीवन को खतरे में डाले बिना भंग करना उचित है। हड़तालों का आयोजन करना सर्वश्रेष्ठ है तार काटना, पटरी उखाड़ना, छोटे पुलों को नष्ट करना आदि को इस प्रकार के संघर्ष में अनुचित नहीं ठहराया जा सकता, बशर्ते कि जीवन की सुरक्षा की अत्यधिक सावधानी बरती जाए।

मशरूवाला ने कहा, “गांधीजी और कांग्रेस ने, अंग्रेज़ और भारतीय राष्ट्रों के बीच फिर से सद्भाव पैदा होने की सभी उम्मीदें नहीं छोड़ दी हैं, यदि प्रयास राष्ट्रीय इच्छा को प्रकट करने के लिए काफ़ी शक्तिशाली है, तो आत्मसंयम कभी भी हमारे विरुद्ध नहीं जाएगा”

अब हम इस आंदोलन के प्रसार और विभिन्न वर्गों पर इसके प्रभाव की थोड़ी चर्चा करें।

आंदोलन का प्रसार

9 अगस्त को अपनी गिरफ्तारी से पूर्व गांधी जी ने देश के नाम निम्न संदेश दिया था :

प्रत्येक व्यक्ति इसके लिए स्वतंत्र है कि वह हड़ताल तथा अन्य अहिंसक साधनों से गतिरोध पूरा करने के लिए अहिंसा के अंतर्गत, अपनी आख़िरी हदों तक काम करे। सत्याग्रहियों को जीवन के लिए नहीं बल्कि मत्य के लिए बाहर निकलना है। उन्हें मत्य का सामना करना है, उसे गले लगाना है। जब प्रत्येक व्यक्ति करेंगे या मरेंगे की भावना के साथ बलिदान के लिए निकलेगा तभी देश जीवित रहेगा।

लेकिन यह संदेश देने के साथ गांधीजी ने एक बार फिर अहिंसा पर बल दियाः

स्वतंत्रता के प्रत्येक अहिंसक सेनानी को करेंगे या मरेंगे” का नारा एक कागज़ या कपड़े के टुकड़े पर लिखना चाहिए और उसे अपने कपड़ों पर चिपकाना चाहिए ताकि सत्याग्रह के दौरान अगर उसकी मृत्यु हो जाए तो उसे उन दूसरे तत्वों से अलग किया जा सके जो अहिंसा का समर्थन नहीं करते।

गांधीजी और उनके साथ अन्य कांग्रेसी नेताओं की गिरफ्तारी पर देश के विभिन्न भागों में अभूतपूर्व जन-प्रतिक्रिया हुई। शहरों और कस्बों में हड़तालों, जुलूस और प्रदर्शनों का सिलसिला शुरू हो गया। हालांकि आह्वान कांग्रेसी नेतृत्व का था, परंतु वास्तव में आंदोलन जनता ने शुरू किया। चूंकि राष्ट्रीय, प्रांतीय और स्थानीय स्तर के सभी मान्य नेता गिरफ्तार कर लिए गए थे इसलिए इनकी जगह भरने के लिए उनके क्षेत्रों में स्थानीय स्तरों पर युवा और उग्र, विशेषरूप से समाजवादी रुझान वाले छात्र नेता उभर कर आए।

प्रारंभिक चरणों में आंदोलन अहिंसा की सीमाओं में रहा। पर सरकार की दमनकारी नीति ने लोगों को हिंसा के लिए उकसाया। अहिंसक संघर्ष का गांधीजी का संदेश पृष्टभूमि में चला गया और लोगों ने संघर्ष को अपने-अपने तरीके ईजाद कर लिए। इनमें ये कदम शामिल थे :

  • सरकारी इमारतों, पुलिस थानों और डाकघरों पर हमले,
  • रेलवे स्टेशनों पर हमले, और रेल की पटरियों को उखाड़ना,
  • टेलीग्राफ, टेलीफोन और बिजली के तारों को काटना,
  • पलों को नष्ट करके सड़क यातायात भंग करना, और
  • मजदूरों की हड़ताल आदि।

इनमें से अधिकांश कार्रवाइयां सेना और पुलिस की गतिविधि को राकेने के लिए थीं, जिनका इस्तेमाल सरकार आंदोलन को कुचलने के लिए कर रही थी। कई क्षेत्रों में सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रह गया और यहां स्थानीय जनता ने “स्वराज” क़ायम कर दिया। कछ उदाहरण दिये जा सकते हैं।

  • महाराष्ट्र में, सतारा में एक समानान्तर सरकार स्थापित कर दी गयी जो लम्बे समय तक चलती रही।
  • बंगाल में, तामलुक जातीय सरकार मिदनापुर जिले में काफी समय तक काम करती रही। इस राष्ट्रीय सरकार के पास क़ानून और व्यवस्था, स्वास्थ्य, शिक्षा, कृषि आदि विभागों के साथ-साथ अपनी डाक व्यवस्था तथा विवाचन (Arbitration) अदालतें भी थीं।
  • उड़ीसा में तलचर (Talacher) में लोगों ने स्वराज स्थापित किया।
  • पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कई भागों में (आज़मगढ़, बलिया, गाज़ीपुर, मुंगेर, मुज़फ्फरपुर इत्यादि) लोगों ने पुलिस थानों पर कब्जा कर लिया और सरकारी सत्ता को उखाड़ फेंका।

प्रारम्भ में यह आंदोलन शहरी इलाकों में ही प्रभावी था, परंतु शीघ्र ही इसका प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों में भी हो गया जहां विद्रोह का झंडा लम्बे समय तक ऊंचा उठा रहा। बम्बई, आंध, यू.पी., बिहार, गजरात, उड़ीसा, असम, बंगाल, कर्नाटक आदि में आंदोलन को जनता का व्यापक समर्थन मिला। लेकिन पंजाब, सिंध, उत्तर पश्चिम सीमाप्रांत में आंदोलन का प्रभाव कम था।

प्रतिक्रियाएं और प्रवृत्तियां

“भारत छोड़ो” और “करो या मरो” उस समय के प्रमुख नारे थे, परंतु आंदोलन के प्रति जनता ने कई रूपों में अपनी सक्रियता दिखायी, श्रमिक वर्ग ने कई औदयोगिक केन्द्रों में हड़तालें कीं। इन में से कुछ प्रमुख केन्द्र थे-बम्बई, कानपुर, अहमदाबाद, जमशेदपुर और पना। दिल्ली में 9 अगस्त की हड़ताल मज़दूरों के सड़क पर निकल आने का परिणाम थी। लेकिन अहमदाबाद को छोड़कर, जहां हड़ताल तीन महीने चली, अन्य जगहों पर हड़ताल ज़्यादा दिन नहीं चली।

बिहार में व्यापक जन कार्रवाइयों के परिणामस्वरूप पटना शेष इलाके से कट गया, और उत्तरी क्षेत्र में, बेगूसराय के उपमंडल (सब डिवीज़न) अधिकारी ने रिपोर्ट दी:

स्कूली विद्यार्थियों ने आंदोलन शुरू किया, कांग्रेस के सभी वर्गों के कार्यकर्ता उनके साथ शामिल हो गए। कांग्रेस के नरम वर्ग ने आंदोलन को नियंत्रण में रखने का प्रयास किया, लेकिन जब उन्होंने ग्रामीण जनता को आंदोलन में शामिल किया त, यह एक आर्थिक प्रश्न बन गया, विशाल सम्पत्तियों, खासकर रेलवे स्टेशनों पर पड़े अनाज ने उन्हें आकर्षित किया  गरीब मजदूरों ने लूट में आगे बढ़कर हिस्सा लिया। दरस्थ स्टेशनों पर व्यापारी वर्ग कांग्रेस की दया पर निर्भर था। नरम वर्ग ने यह सब पसंद नहीं किया, परंतु उस समय उनका कोई नियंत्रण नहीं था।

इससे आंदोलन में ग्रामीण जनता की भागीदारी और गांधीवादी नेताओं (नरम वर्ग के रूप में वर्णित) की, आंदोलन को निर्देशित करने की मजबूरियों का पता चलता है। इसी तरह के हालात पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी थे। आज़मगढ़ जिले के मधुबन थाने में जो कुछ हुआ, उसके आर.एच. निबलेट द्वारा रखे गए लेखे-जोखे से इस क्षेत्र में जनता के विद्रोह की भयानकता का आभास होता है। निबलेट ने उल्लेख किया है कि किस प्रकार योजनाबद्ध तरीके से पुलिस स्टेशन पर तीन ओर से हमला किया गया। एक ओर से चलने वाले लोग जल्दी पहंच गए तो उन्होंने दूसरी ओर से आने वाले लोगों की एक निश्चित फ़ासले पर खड़े होकर प्रतीक्षा की। पुलिस ने हमले को रोकने के लिए 119 चक्र गोलियां चलायीं। हमला करीब दो घंटे तक चला।

उड़ीसा में तलचर (Talacher) कस्बे की ओर बढ़ते हुए किसान गरिल्लों को रोकने के लिए हवाई जहाज़ों का प्रयोग किया गया। महाराष्ट्र में सतारा क्षेत्र में लम्बी मुठभेड़ें चलीं।

व्यापक जन कार्रवाई के अलावा आंदोलन में एक और प्रवृत्ति उभर कर आयी। प्रवृत्ति थी भूमिगत, क्रांतिकारी कार्रवाई की। 9 नवम्बर 1942 को जयप्रकाश नारायण और रामानंद मिश्रा हज़ारीबाग जेल से भाग निकले। उन्होंने नेपाल सीमा से लगे क्षेत्रों से भूमिगत आंदोलन का संचालन किया।

इसी प्रकार बंबई में, अरुणा आसिफ अली जैसी नेता के नेतृत्व में समाजवादी नेताओं ने अपनी भूमिगत गतिविधियां जारी रखीं। भूमिगत आंदोलन की सबसे साहसपूर्ण कार्रवाई कांग्रेस रेडियो की स्थापना थी, जिसकी उद्घोषिका उषा मेहता थी। यह रेडियो लम्बे समय तक सक्रिय रहा। सुभाषचंद्र बोस ने बर्लिन रेडियो पर बोलते हुए (31 अगस्त, 1942) इस आंदोलन को “अहिंसक गुरिल्ला युद्ध” कहा। उन्होंने सुझाव दिया कि :

इस अहिंसक गुरिल्ला अभियान का लक्ष्य दुहरा होना चाहिए। पहला, भारत में युद्ध उत्पादनों को नष्ट करना, और दूसरा, देश में अंग्रेज़ प्रशासन को ठप्प करना। इन लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए भारत के सभी वर्गों को इस संघर्ष में भाग लेना चाहिए।

आंदोलन में छात्रों ने व्यापक रूप से भाग लिया। वे देहात में फैल गए और वहाँ ग्रामीणों को दिशा निर्देश देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। आंदोलन को व्यापारी-वर्ग का ज़्यादा समर्थन नहीं मिला। वास्तव में अधिकांश पूंजीपतियों और व्यापारियों ने युद्ध के दौरान भारी मुनाफ़ा कमाया था। कुछ मामलों में, पूंजीपतियों ने सरकार से (फिक्की-फेडरेशन ऑफ़ इंडियन चैम्बर्स ऑफ कामर्स एंड इंडस्ट्री के माध्यम से) गांधीजी और अन्य नेताओं को रिहा करने का आग्रह किया। लेकिन उनका तर्क था कि अकेले गांधीजी ही सरकारी सम्पत्तियों पर हो रहे हमलों को रोक सकते हैं।

वे चिंतित थे कि इस तरह के हमले अगर जारी रहे तो वे निजी संपत्ति पर हमले के रूप में बदल सकते हैं। मस्लिम लीग ने स्वयं को इस आंदोलन से दूर रखा। इस दौरान साम्प्रदायिक दंगों की घटनाओं के समाचार भी नहीं मिले। हिंदू महासभा ने आंदोलन की आलोचना की। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी “जन युद्ध की नीति” के कारण आंदोलन का समर्थन नहीं किया। राजा और ज़मींदार युद्ध प्रयासों का समर्थन कर रहे थे। आंदोलन के साथ उनकी कोई सहानभति नहीं थी। राजगोपालाचारी जैसे भी कुछ कांग्रेसी नेता थे जिन्होंने आंदोलन में भाग नहीं लिया और जिन्होंने युद्ध प्रयासों का समर्थन किया।

इस सबके बावजूद आंदोलन की तीव्रता निम्न आंकड़ों से मापी जा सकती है :

  • यू.पी. में एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 104 रेलवे स्टेशनों पर हमला किया गया और क्षति पहुँचायी गयी। लगभग 100 घटनाएं रेलपटरियों की तोड़-फोड़ की हुईं। टेलीफोन और टेलीग्राफ तार काटने के 425 मामले हुए। डाकघरों को क्षति पहुंचाने की 119 घटनाएं हुईं।
  • मिदनापुर में 43 सरकारी इमारतों को आग लगायी गई।
  • बिहार में 72 पुलिस थानों पर हमले हुए, 332 रेलवे स्टेशनों, 945 डाकघरों को क्षति पहुंचायी गयी।
  • देश भर में 664 बम विस्फोट हुए।

इस व्यापक जन-लहर की सरकार पर क्या प्रतिक्रिया हुई? इस सवाल की चर्चा हम आगामी भाग में करेंगे।

दमन

व्यापक जन आंदोलन को कुचलने के लिए सरकार ने अपनी सारी ताकत लगा दी थी। गिरफ्तारियों, नज़रबंदियां, पुलिस गोली चालन, कांग्रेस कार्यालयों को आग लगाना, आदि वे तरीके थे जो सरकार ने अपनाये।

  • 1942 के अंत तक अकेले यू.पी. में 16,089 लोग गिरफ्तार किये गए। सारे भारत में 1943 के अंत तक गिरफ्तारियों का सरकारी आंकड़ा 91,836 था।
  • सितम्बर 1942 तक पुलिस गोली चालन में मारे गए लोगों की संख्या 658 थी, और 1943 तक यह संख्या 1060 हो गई थी। लेकिन ये सरकारी आंकड़े थे। वस्ततः इससे कहीं अधिक लोग मरे थे और बहुत से घायल हुए थे।
  • अकेले मिदनापुर में सरकारी बलों ने 31 कांग्रेस शिविरों और 164 निजी घरों को आग लगायी थी। बलात्कार के 74 मामले हुए। इनमें से 46 पुलिस द्वारा एक ही दिन में एक ही गांव में 9 जनवरी 1943 को किये गये थे।
  • सरकार ने 5 स्थानों पर लोगों पर गोली चलाने के लिए हवाई जहाजों के प्रयोग की बात स्वीकार की। ये स्थान थे पटना के निकट गिरिक (Giriak) भागलपुर ज़िला, नाडिया जिले में रामाघाट, मुंगेर जिला, तलचर (Talacher) शहर के निकट।
  • लाठीचार्ज, कोड़े मारने, बंदी बनाने की अनगिनत घटनाएं हुईं।
  • आंदोलन प्रभावित क्षेत्रों के निवासियों से सामूहिक जुर्माना वसूल किया गया। उदाहरण के लिए य.पी. में इस तरह के जाने की कुल धनराशि 28,32,000 रुपए थी, और फ़रवरी 1943 तक 25,00,000 रुपए वसूल कर लिये गए थे।
  • इसी प्रकार उत्तरी बिहार में फ़रवरी 1943 तक रु. 34,15,529 का जाना किया जा चका था, जिसमें से रु० 28,35,025 वसूल कर लिये गये थे।

इस प्रकार के दमनकारी तरीकों से ही अंग्रेज़ ख़ुद को फिर से जमाने में सफल हो गये। युद्ध की स्थिति ने दो तरह से उनकी मदद की :

  • उनके हाथ में विशाल सैन्य शक्ति थी, जो भारत में जापानी हमले के मुकाबले के लिए रखी गई थी, परंतु इस शक्ति का उपयोग आंदोलन को कुचलने में किया गया।
  • युद्धकालीन सेंसर स्थिति का लाभ उठाकर उन्होंने आंदोलन को निर्मम ढंग से दबा दिया। उन्हें अपने इन दमकारी तरीकों के लिए न तो किसी आंतरिक (घरेलू)आलोचना की चिंता करनी थी, और न विश्व जनमत की। मित्र राष्ट्र, धुरी राष्ट्रों के साथ युद्ध में उलझे थे, उनके पास यह चिंता करने का समय नहीं था कि अंग्रेज़ भारत में क्या कर रहे थे।

भारत छोड़ो आंदोलन असफल हो गया। परंतु इसने अंग्रेज़ राज से छुटकारा पाने के लिए जनता के दृढ़ इरादे को बखूबी जाहिर कर दिया। कांग्रेसी नेतृत्व ने अहिंसा के सिद्धांत से हटने के लिए लोगों की आलोचना नहीं की लेकिन साथ ही लोगों के किसी भी हिंसक कृत्य के लिए ज़िम्मेदारी लेने से इंकार कर दिया।

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