क्षेत्रीय शक्तियों का उदय – बंगाल और अवध
- अठारहवीं शताब्दी में क्षेत्रीय राज्य व्यवस्थाओं का उदय हुआ। इसको पढ़ने के बाद स्वायत्तता प्राप्ति के पूर्व बंगाल और अवध की प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन कर सकेंगे
- बंगाल और अवध के स्वायत्त राज्य में रूपांतरण की प्रक्रिया को रेखांकित कर सकेंगे
- उस संदर्भ पर प्रकाश डाल सकेंगे, जिसके तहत उन प्रिटिश साम्राज्यवादी व्यवस्था में मिला लिया गया
- अवध और बंगाल की क्षेत्रीय राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप और कार्यकलाप को व्याख्यायित कर सकेंगे।
आजकल 18वीं शताब्दी का जो इतिहास लिखा जा रहा है, उसमें क्षेत्रीय राजनीतिक व्यवस्थाओं के अभ्युदय और अनुभव पर विशेष बल दिया जा रहा है। आपने 18वी शताब्दी की राजनीतिक व्यवस्था की आम जानकारी प्राप्त की। इस इकाई में हमने उन तत्वों और प्रक्रियाओं को दिखाने की कोशिश की है, जिनके कारण साम्राज्यी प्रति स्वायत्त राज्यों में परिवर्तित हो गये। यहाँ हमारा मुख्य केन्द्र बंगाल और अवध है।
हालांकि इन दोनों में कुछ मामलों में, विभिन्नता थी पर रूपांतरण के आरंभिक वर्षों में उनके संगठन में समानताये थीं। हम इस तथ्य का विश्लेषण करेंगे, क्योंकि इससे हमें अठारहवीं शताब्दी की राजनीतिक व्यवस्था की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं और प्रक्रियाओं की तह में जाने का मौका मिलेगा। पहले हमने यह दिखाया है कि किस प्रकार बंगाल और अवध मुगल सूबों में स्वायत्त राज्य बने और फिर किस प्रकार ब्रिटिश साम्राज्य ने उन्हें अपने अधीन कर लिया। इस क्रम में हमने क्षेत्रीय राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप और कार्यकलाप की भी चर्चा की है।
मुगलों के अधीन बंगाल और अवध
18वीं शताब्दी में स्वायत्त और स्वतंत्र राज्य के रूप में बंगाल और अवध का उदय अपने आप में अकेली घटना नहीं थी। अवध बंगाल, हैदराबाद, मैसूर और अन्य क्षेत्रीय राज्यों का उदय 18वीं शताब्दी की राजनीतिक व्यवस्था की प्रमुख विशेषता है। मुगल साम्राज्य के पतन पर लागातार चल रहे शोध से यह स्पष्ट हो चुका है कि प्रशासनिक कृषीय, सामाजिक आदि संकटों के कारण मुगल साम्राज्यी व्यवस्था भरभरा कर गिर गयी। इतिहासकारों के बीच इन विभिन्न कारकों के स्वरूप और सापेक्षा महत्व पर अभी भी बहस चल रही है। इस इकाई में हमारे लिए अठारहवीं शताब्दी के दौरान मुगान प्रांतीय राजनीतिक व्यवस्था की जानकारी जरूरी है, इसे जानने के बाद ही हम बंगाल और अवध में नयी शासन प्रणाली के उदय की प्रक्रिया को समझ सकेगे।
बंगाल और अवध मुगल साम्राज्यी व्यवस्था के अंतमूर्त हिस्से थे। दोनों प्रांतों में नाजिम और दीवान जेसे बड़े पदाधिकारियों की नियुक्ति सीधे मुगल बादशाह करता था। प्रांतीय पदाधिकारियों का विवरण इस प्रकार है। सूबा या प्रांत में राजस्व प्रशासन का उच्चधिकारी दीवान कहलाता था। और नाजिम कार्यकारी प्रधान था, जो नागरिक और सैनिक प्रशासन से संबंधित अन्य मामलों पर नियंत्रण रखता था। बख्शी, मुख्य सेना का वेतन-देय पदाधिकारी होता था, कोतवाल पुलिस विभाग का उच्चाधिकारी होता था और वाकया-नवीस राजनीतिक मामलों से संबद्ध सूचनाओं को एकत्र करता था और उसकी सूचना देता था। सूबा या प्रांत सरकारों में विभक्त थे। यह फौजदार के अधीन होता था। सरकार पुन: परगनों में विभक्त किए जाते थे।
इसके अतिरिक्त, विभिन्न स्तरों पर कई पदाधिकारियों की नियुक्ति होती थी। प्रांत में स्थानीय स्तर पर जमीदार का स्थानीय जनता और प्रशासन पर सीधा नियंत्रण होता था। नाज़िम और दीवान की नियुक्ति पर बादशाह का पूर्ण नियंत्रण था और इसी नियंत्रण के जरिए वह प्रांत पर अपनी पकड़ मजबूत बनाता था। इसे संतुलन और नियंत्रण व्यवस्था के रूप में जाना जाता था। इन पदों पर बादशाह अपने भरोसे के लोगों को नियुक्त करता था। नाजिम की शक्ति पर नियंत्रण रखने के लिए बादशाह अलग से दीवान नियुक्त करता था। इन दो बडे पदाधिकारियों के अतिरिक्त प्रांतीय कुलीन वर्ग और कई अन्य पदाधिकारी जैसे अमील फौजदार आदि बादशाह पर ही निर्भर थे, क्योंकि वही उनकी नियुक्ति था।
साम्राज्य का राजनीतिक एकीकरण जमींदार, छोटे और बडे पदाधिकारियों जैसी कई शक्तियों के बीच समन्वय और संतुलन का ही प्रतिफलन था। इनमें से कुछ अधिकारियों का जिक्र हम अभी जब तक साम्राजय प्रांतीय प्रशासन पर अपना प्रभावी नियंत्रण कायम रख सका तब तक वह अवस्था सुचारू रूप से चलती रही। सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और अठारहवीं शताब्दी के पूर्वाध से लगातार केन्द्रीय सत्ता की प्रांतीय प्रशासन पर पकड़ कमजोर होती गयी और इस समय तक वह प्रांतीय गवर्नर से नजराना प्राप्त करने तक सीमित रह गयी। केन्द्रीय सरकार की अधीनता स्वीकार करने के बावजूद, प्रांतीय गवर्नर हमेशा अपने को स्थानीय शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने की कोशिश करते रहते थे और एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में कार्य करते थे। केन्द्रीय राज्यकोष में धन अनियमित रूप से भेजा जाने लगा।
प्रांतीय गवर्नर वंशगत प्रशासन की स्थापना करने लगे और प्रशासन में अपने आदमियों की नियुक्ति करने लगे। इन सारी गतिविधियों से केन्द्रीय शासन कमजोर हुआ और प्रांतों पर उनकी पकड़ ढीली होती गयी। स्थानीय स्तर पर स्वतंत्र शक्तियों का उदय हुआ।
बंगाल: स्वायत्ता की ओर
अठारहवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में स्वतंत्र स्वायत्त राज्य के रूप में बंगाल का उदय विभिन्न मुगल सूबों में पनप रही प्रांतीय स्वायत्ता की प्रवृत्ति का ज्वलंत उदाहरण थे। हालांकि मुगल बादशाह की संप्रभुता को चुनौती नही दी गयी, पर प्रांतों में व्यावहारिक रूप में गवर्नर का स्वतंत्र और वंशगत अधिकार स्थापित होने लगा था और सभी माताहत अधिकारियों पर गवर्नर का सीधा नियंत्रण होने लगा था। इस प्रकार बंगाल में स्वतंत्र स्वायत्त शक्ति का उदय
मुर्शिद कुली खाँ और बंगाल
बंगाल में स्वतंत्र राज्य की नीव मुर्शिद कुली खाँ द्वारा डाली गयी। बंगाल की राजस्व व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने के लिए उसकी प्रथम नियुक्ति दीवान के रूप में हुई थी। औरंगजेब की मत्यु के बाद केन्द्रीय सत्ता में आयी अस्थिरता के दौर में मुर्शिद कुली खाँ एक कुशल प्रशासक के रूप में सामने आया। इन दोनों कारणों से बंगाल का सूबेदार बन बैठा। हालाँकि मुर्शिद कुली खां ने मुगलों की साम्राजयी शक्ति की अवमानना नही की, पर उसकी प्रशासनिक व्यवस्था से ही बंगाल में बंशगत शासन की शुरुआत हुई।
बादशाह द्वारा सीधे तौर पर नियुक्त बंगाल का अंतिम गवर्नर था। मुर्शिद कुली खां ने नाजिम और दीवान के पदों को मिलाकर एक कर दिया। वस्तुतः प्रांत में दीवान की नियुक्ति का मुख्य उदेश्य प्रांतीय गवर्नर पर अंकुश रखना था। पर मुर्शिद कुली खाँ ने इन दोनों पदों को मिलाकर गवर्नर की शक्ति को मजबूत करने की कोशिश की। यह प्रांत में स्वतंत्र सत्ता स्थापित होने का स्पष्ट संकेत था। मुर्शिद कुली खाँ ने बंगाल में वंशानुगत शासन की शुरुआत की। यह स्पष्ट हो चुका था कि : उसकी मृत्यु के बाद बंगाल की नवाबी पर उसके परिवार का ही अधिकार होगा। वे बराबर बादशाह की अनुशंसा लेते रहे, पर नवाब के चुनाव में अब बादशाह का कोई नियंत्रण नही था। मुर्शिद कुली खाँ का प्रथम उदेश्य बंगाल की राजस्व वसूली को सुद्रढ करना था। बस उदेश्य की पूर्ति के लिए मुर्शिद कुली खाँ ने प्रांत की स्थानीय शाक्तियों से नये संबंध कायम किए।
इससे स्वायत्त सूबे को एक सुद्रढ आधार प्राप्त हुआ, जिसके तहत 1730 और 1740 के बीच में उसकी कार्य प्रणाली विकसित हुई। मुर्शिद कुली खां ने राजस्व व्यवस्था को मजबूत किया और इसकी वसूली के लिए कई कदम उठाए। इनमें से निम्नलिखित प्रमुख है:
- छोटे मिचौलिए जमीवारों का उन्मूलन
- उड़ीसा प्रांत के सीमांत के विद्रोही जमीदारों और जागीरदारों का निष्कासन
- खालसा भूमि का अधिक से अधिक निर्माण
- उन बड़े जमीवारों को प्रोत्साहन, जो राजस्व वसूली और भुगतान की जिम्मेवारी लेते थे।
मुर्शिय कुली खाँ ने कुछ बड़े जमीदारों को अपनी सम्पत्ति बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया। ये बड़े जमीदार बाकी जमीदारों की सम्पत्ति खरीद लेते थे। बंगाल की प्रमुख जमींदारियाँ रावसाही, बीनाजपुर, बुबपान, नादिया, मीरमम, विशनपुर और बिहार की प्रमुख जमीदारियाँ तिरहुत शामाबाद और टेकारी में विकसित हुई। मुर्शिद कुली खाँ ने उन जमीवारों के माध्यम से गांवों पर और राजस्व पर अपना नियंत्रण स्थापित किया। दूसरी तरफ इन जमीदारों ने छोटे पड़ोसी जमीदारों पर अपना कब्जा जमाया।
परिणामत: 1727 तक इस प्रांत में जमीदार एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरे। इसके साथ-साथ धनी और व्यापारिक शक्तियों को भी प्रमुखता मिली। जमींदारों पर राजस्व चुकाने का दबाव हमेशा बना रहता था, इस कार्य में ये विभिन्न सेठ-साहूकारों की सहायता लिया करते थे।
बंगाल में विकसित सत्ता का यह स्वरूप मुगल प्रांतीय प्रशासन व्यवस्था से बिल्कुल भिन्न था, निश्चित रूप से यह प्रांत पर दिल्ली की कमजोर होती पकड़ का प्रतिफल था। पर इस नये बदले माहौल के बावजूद नाज़िम ने दिल्ली से अपना पूर्ण संबंध विच्छेद नहीं किया और वार्षिक राजस्व भेजता रहा। लेकिन दूसरी तरफ, यह भी स्पष्ट हो चला था कि मुर्शिद कुली खाँ बंगाल को अपनी मिल्कियत समझने लगा था और वह इस बात के लिए सजग था कि उसके बाद सत्ता की बागडोर उसके परिवार के किसी सदस्य को ही मिले. न कि किसी बाहर के व्यक्ति को। अत: मुर्शिद कुली ने अपनी बेटी के लडके सरफराज को अपना उत्तराधिकारी बनाया। मजबूत सामाज्यी सरकार के दिनों में यह फैसला कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता था ।
शुजाउद्दीन और बंगाल
मुर्शिष कुली खाँ ने सरफराज को अपना उत्तराधिकारी बनाया. पर उसके पिता शुजाउदीन मुहम्मद खान ने उसे अपदस्थ कर दिया। शुजाउदीन के शासन के दौरान दिल्ली और मुर्शिदाबाद का संबंध कायम रहा। वह मुगल दरबार को राजस्व भेजता रहा। पर, इसके बावजूद, प्रांतीय सरकार के मामलों में राजा अपने ढ्ंग से कार्य करता था। उसने ऊंचे पदों पर अपने आदमियों की नियुक्ति की और बाद में उसे दिल्ली से अनुशंसित करवा लिया। शुजा ने मुर्शिद कुलीखों की प्रशासन व्यवस्था को कायम रखा। प्रांत पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखने के लिए उसने भी स्थानीय शक्तियों से अपने संबंध विकसित किए। फिलिप बी. काल्किनस का मत है कि 1730 के दशक के दौरान बंगाल की सरकार विभिन्न शक्तियों का समुच्चय थी न कि बाहरी सामाज्यी शासन का एक हिस्सा। बदलता हुआ यह शक्ति संतुलन नब और स्पष्ट हो गया जब 1739-40 में अलीवर्दी खां ने शुजाउदीन खां के वैधानिक उत्तराधिकारी सरफराज खां को मारकर गछी हथिया ली। जमींदारों और महाजनों ने अलीवी माँ को अपना समर्थन दिया।
अलीवर्दी खाँ और बंगाल
आलीची खां के शासन काल में मुगल सत्ता और बंगाल सरकार के संबंध में एक नया मोड़ आया। अपने पूर्वाधिकारी की तरह अलीवर्दी ने भी अपने पद की अनुशंसा मुगल दरबार से ली। पर उसके शासन-काल में मुगलों से विच्छेद आरंभ हो गया और इसे बंगाल सूबे की स्वायत्तता की शुरुआत मान सकते हैं। अलीवर्दी खाँ ने प्रांतीय प्रशासन के सभी प्रमुख पदों पर खुद नियुक्ति की और इसके लिए मुगल दरबार की अनुशंसा लेने की भी कोशिश नहीं की। इन्ही नियुक्तियों के जरिए बादशाह अपना नियंत्रण स्थापित करता था। अलीवर्दी ने पटना, कटक और ढाका में अपनी पसंद के उप-नवाबों की नियुक्ति की।
राजस्व प्रशासन को देखभाल के लिए मुतासची, अमोल या स्थानीय दीवान के रूप में बड़ी संख्या में हिंदुओं को नियुक्त किया। उत्तर भारत तथा बिहार के पठानों की मदद से अलीवर्दी ने मजबूत सैन्याक्ति स्थापित की। इसके अतिरिक्त दिल्ली भेजा जाने वाला नियमित नजराना भी बाधित हुआ यह केन्द्रीय सत्ता की बंगाल पर कमजोर होती पकड़ का प्रमाण था। समकालीन प्रोतों के अनुसार जहाँ मुर्शिद कुली और शुजाउबीन प्रतिवर्ष 10,000,000 रूपये मतौर नजराना मेजा करते थे, वहीं अलीवर्दी ने 15 वर्षों में कुल 4,000,000 से 5,000,000 रूपये तक ही मेजे। अल्लीवी ने वार्षिक नजराने का भुगतान बंद कर दिया।
यह ध्यान देने की बात है कि 1740 के दशक के दौरान बंगाल, बिहार और उड़ीसा में एक प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित हो चुकी थी जिसने दिल्ली के प्रभाव को काफी कम कर दिया। यह सही है कि अलीबी खाँ ने औपचारिक रूप से सामाज्यी सत्ता से संबंध विच्छेद नहीं किया, पर व्यवहारतः इस काल के दौरान उत्तरी भारत में एक स्वतंत्र राज्य का उदय हो चुका था। सामान्यतः बाधिक राजस्व की वसूली और प्रांतीय अधिकारियों की नियुक्ति के । माध्यम से केन्द्र प्रांत पर अपना नियंत्रण रखता है। ये दोनों ही माध्यम अलीवर्दी के शासनकाल में समाप्त हो चुके थे। व्यावहारिक रूप में बंगाल में साम्राज्यी सत्ता का कोई दखल नहीं था।
जब अलीवर्दी खाँ बंगाल में अपना पैर जमाने की कोशिश कर रहा था, उस समय उसे दो मजबूत बाहरी शक्तियों (मराठों और अफगान विद्रोहियों) का सामना करना पड़ा। मध्य भारत में अपना नियंत्रण स्थापित करने के बाद मराठे मध्य भारत के बाहर अपना नियंत्रण स्थापित करना चाह रहे थे। वे पड़ोसी राज्यों से जबरन चौथ वसूल करते थे। मराठा साम्राज्य के निर्माण और धन की प्राप्ति के उद्देश्य से मराठों ने 1742 से 1751 के बीच तीन से चार बार बंगाल पर आक्रमण किया। हर बार बंगाल पर उनके आक्रमणा से स्थानीय लोगों को माल । और जान का नुकसान उठाना पड़ा। मराठों के इन लगातार हमलों को रोकने में असफल होकर और परेशान होकर तता: 1751 में अतीवी ने मराठों के साथ संधि कर ली। अलीची 1,200,000 सालाना चौथ देने के लिए राजी हुआ और उड़ीसा मराठों को इस शर्त पर सोप विया गया कि ये फिर से अलीवर्दी के सीमा-क्षेत्र में प्रवेश नहीं करेंगे।
अलीवर्दी को अफगान विद्रोही सेना का भी सामना करना पड़ा। अफगान सेनापति, मुस्तफा खाँ में निष्कासित अफगान फौज की मदद से अलीवर्दी के लिए गभीर खतरा पैदा कर दिया। 1748 में इस फौज ने पटना पर कम्जा कर लिया और इसे लूटा पाटा। पर, अलीवर्दी खाँ कठिन संघर्ष के बाद उन्हें हराने में सफल हुया और पटना पर कब्जा किया। मराठों और अफगानों के खिलाफ लड़े गये लंबे युद्धों से अलीवर्दी खाँ के राज्यकोष पर काफी दबाव पड़ा। इसका प्रभाव जमींदारों पदाधिकारियों, महाजनों, व्यापारियों और यूरोपीय कम्पनियों पर भी पड़ा। अगले भाग में हम देखेंगे कि किस प्रकार इन शक्तियों ने स्वायत्त राज्य के आधार को कमजोर किया और ब्रिटिश साम्राज्यी व्यवस्था के अधीन होने का मार्ग प्रशस्त हुआ।
बंगाल: पराधीनता की ओर
1756 ई. में अलीवर्दी की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी के प्रश्न को लेकर दरबार के विभिन्न समुदायों के बीच मनमुटाव उत्पन्न हो गया। वस्तुत: किसी निश्चित उत्तराधिकार के नियम के अमाव में परेक नपाम की मत्यु के बाद गली के लिए संघर्ष होता था। अलीवी ने अपने पोते सिराणुगौला को अपना उत्तराधिकारी बनाया। सिराजमौला के दावे को पूर्णिया के फौजदार शौकत जंग और अलीबी की बेटी घसिटी बेगम ने चुनौती दी। इससे दरबार में गुटबंदी को प्रोत्साहन मिला। विभिन्न गुटों को विभिन्न जगत सेठ, जमीदार और अन्य प्रमावशाली समुदाय समर्थन देते थे। इससे फूट बढ़ी और स्वतंत्र मंगाल सुबे का अस्तित्व खतरे में पड़ गया। बस संकट को अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपनी चालाकियों से और गहरा कर दिया।
प्लासी और उसके बाद
आगे आने वाले वर्षों में कुछ ऐसी घटनाएं घटी जिनका प्रतिफलनं 1757 के प्लासी के युद और पइयंत्र के रूप में हुआ। यहीं से ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बंगाल के अपीनीकरण की. प्रक्रिया मी शुरू हुई। नवाब और ईस्ट इंडिया कम्पनी के बीच संघर्ष के प्रमुख मुके थे।
- राजस्व मुक्त व्यापार के विशेषाधिकार का दुरुपयोग:1717 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने यह विशेषाधिकार मुगल मावशास फरुखसियर से प्राप्त किया था। इस विशेषाधिकार का प्रयोग कम्पनी के व्यापारी अपने निजी व्यापार के लिए जबरन करने लगे।
- कलकत्ता शहर के अंदर किलेबदी का अधिकार। बंगाल के नवामों ने इन दोनों कार्यों का लगातार विरोध किया। सिरानुचौता के शासन काल में यह संकट और गहरा हो गया।
इसके परिणामस्वरूप दोनों शक्तियों (सिराजुदौला और ईस्ट इंडिया कंपनी) में युद्ध हुआ। सिराजुबौला के दरबार के असंतुष्टे तत्वों, खासकर जगत सेठों, यार लुत्फ खा. राय दुर्लम और अमीर चन्द ने सिराजुबौला को पदच्युत करने के लिये अग्ने ज़ों का साथ दिया। इस षड़यंत्र के पीछे असंतुष्ट तत्वों का वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था को ध्वस्त करना उपय नाहीं था, मलिक शायद वे अलीवी के शासनकाल में स्थापित व्यवस्था को कायम रखना। चाहते थे।
प्लासी का युद्ध (1757) नवाब के दरबार में पनप रही गुटबंदी का ज्वलंत उदाहरण है। प्लासी में कम्पनी की जीत उनकी शक्ति के कारण नहीं, बल्कि नवाज के निकट सहयोगियों की पोखेबाजी के कारण हुई। मीर जाफर को नया नवान बनाया गया। अंग्रेजों और नवाज के बीच एक संधि हुई, जिसके मुताधिक अंग्रेजों के व्यापारिक विशेषाधिकार को संरक्षण ही नहीं प्रदान किया गया, बल्कि इस विशेषाधिकार का क्षेत्र-विस्तार भी हुआ। इसके बदले कम्पनी ने आश्वासन दिया कि वह नवाब की सरकार में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी। प्लासी के युद्ध में कम्पनी का साथ देने वाले षड़यंत्रकारियों ने अंगाल की स्वायत्तता का जो स्वप्न देखा था, वह स्वप्न ही साबित हुआ।
शीघ्र ही मुर्शिद कली खो और उसके उत्तराधिकारियों द्वारा स्थापित बंगाल की स्वायत्तत्ता दह गयी। मीर जाफर की आमोग्यता दरबार के अंदर चल रहे षड़यंत्र और नवाब की सेना की कमजोरी से प्रोत्साहित होकर अंग्रेज प्रांत के कार्यकलापों में हस्तक्षेप करने लगे। मीर जाफर सैन्य सहायता के लिए कम्पनी पर निर्मर होता गया और इसके बदले में कम्पनी ने और अधिक धन और विशेषाधिकार प्राप्त किए। पर नवाब के पास इतना घन नहीं था कि वह कम्पनी की बढ़ती हुई मांग को पूरा कर सके। कम्पनी की अनगिनत मांग और नवाब की असमर्थता के कारण मीर जाफर और कम्पनी में अंततः प्रत्यक्ष संघर्ष हो गया। मीर जाफर को मजबूर होकर गदी छोड़नी पड़ी। अंग्रेजों के साथ एक गुप्त समझौते के तहत मीर कासिम को नवाबी हासिल हुई, पर उसका मी वही हाल हुआ, जो मीर जाफर का हुआ था।
बक्सर और उसके बाद
मीर कासिम ने अपने शासन काल के पहले वर्ष में स्वतंत्र बंगाल राज्य स्थापित करने की भरपूर कोशिश की। वह अपनी राजधानी मुर्शिदाबाद से हटाकर मुंगेर (बिहार) ले गया ताकि अग्रेजों के प्रमाव-क्षेत्र से दूर रह सके। उसका उदेश्य एक केन्द्रीकृत ससा की स्थापना करना चा। उसने राज्य की वित्तीय और सैन्य व्यवस्था को पुन: संगठित करने की कोशिश की। सेना को फिर से संगठित किया गया, एक बाकद और हथियारों का कारखाना स्थापित किया गया और संदिग्ध व्यक्तियों को सेना से निकाल दिया गया। गमन को रोका गया, फालतू खर्चों को बंद किया गया और जमीदारों को निमंत्रित किया गया। विद्रोही जमीदारों को पदच्युत कर दिया गया और उनके स्थान पर आ मिलों और राजस्व-कृषकों की नियुक्ति की गयी।
नवाब के इन प्रयासों से किसी को यह शक नहीं रहा कि नवाष एक स्वतंत्र और स्वायस शक्ति के रूप में कार्य करने के लिए कृत संकल्प है। कम्पनी के लिए यह स्थिति स्वीकार्य नहीं थी। मीर कासिम ने व्यक्तिगत व्यापार का कसकर विरोध किया, क्योंकि इससे राज्य के राजस्व को पक्का पहुंचता था और नवाब की स्वायत्ता का हनन होला था। बंगाल में अंग्रेजों को व्यापारिक घुसपैठ से न केवल राज्य की आर्थिक गतिविषि बाषित हो रही थी, बल्कि यह नवाब के अधिकार को भी खुली चुनौती थी।
दस्तक राजस्व मुक्त व्यापार अधिकार)का कम्पनी के अधिकारियों द्वारा दुरूपयोग 1764 के युद्धका तात्कालिक कारण बना। पटना पर अंग्रेजों द्वारा अचानक आक्रमण करने के बाद अंग्रेज़ों और मीर कासिम के बीच बुला सुद्र खिड़ गया। बिहार और उड़ीसा के प्रांतीय कुलीन वर्गों, अवध के नवाब और मुगल बादशाह शाह जालम ने इस युद्ध में मीर कासिम की सहायता की। पर यह संयुक्त मोर्चा अंग्रेजों को आगे बढ़ने से न रोक सका और बंगाल में नवाष के स्वतंत्र शासन का अंत हो गया।
मीर कासिम को गाड़ी से उतारकर फांसी दे दी गयी और मीर जाफर को पुनः अधिक कड़ी शतों पर गद्दी पर बैठाया गया। अब उसे और उसके उत्तराधिकारियों को न केवल 5,00,000 रुपये मासिक कम्पनी को भुगतान करना था, बल्कि पदाधिकारियों को नियुक्त और पदच्युत करने में गीजनकी सलाह माननी थी और सैन्य शक्ति में कमी लानी थी। व्यावहारिक रूप में अंग्रेजों के हाथ में सत्ता का हस्तांतरण हो गया।
12 अगस्त 1765 की इलामामाच की संधि के मार्फत इसे औपचारिकता भी प्रदान की गयी। इस संधि के अनुसार मुगल बादशाह ने अंग्रेज़ी ईस्ट इंडिया कम्पनी को बंगाल बिहार और उड़ीसा का दीवान नियुक्त किया। इन तीनों प्रांतों का वित्तीय प्रशासन कम्पनी को सौंप दिया गया और इसके बदले में कम्पनी द्वारा बादशाह को 2,600,000 रुपये प्रतिवर्ष देने थे।
बंगाल के नवाब नाजिम बने रहे और औपचारिक रूप से उन्हें प्रतिरक्षा कानून और व्यवस्था और न्यायालय का क्षेत्र सौंपा गया। संक्षेप में प्रशासन का सारा जिम्मा नाजिम का हुआ और राजस्व तया सभी अधिकारों पर कम्पनी का हक बना। इस प्रकार दीवानी प्राप्त कर अग्रेज़ बहद बंगाल के मालिक बन बैठे। हैदराबाद और अपघ के विपरीत अंगाल में स्वायत्ता का नामोनिशान नहीं छोड़ा गया।
अवध: स्वायत्तता की ओर
प्रथम चरण में बंगाल की तरह अवध में भी स्वायत्तता की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति विकसित हुई और अन्ततः उसका मी अंग्रेजी राज में विलय हो गया। अठारहवीं शताब्दी में क्षेत्रीय राजनीतिक व्यवस्था के रूप में अवध के उदय में आर्थिक और भौगोलिक कारकों के साथ साथ मुरहानुल मुल्क सआदत खां की राजनीतिक स्वायत्तता की दृढ़ इच्छा का भी महत्वपूर्ण हाथ था।
सआदत खां और अवध
सादत खाँ को दिल्ली दरबार में कमी भी अपेक्षित सम्मान और अधिकार प्राप्त नहीं हुआ। मुगल केन्द्रीय सत्ता का सक्रिय भागीदार न बन पाने के कारण सआदत खां ने अपने को अवध में केद्रित किया और अपनी सारी ऊर्जा अवध को मजबूत और स्वायत्तता मानाने में लगा दी। वह अवष को एक साम्राज्य के रूप में विकसित करने का स्वप्न देखा करता था।
अर्थव्यवस्था की दृष्टि से अवध अठारहवीं शताब्दी में समृदया, व्यापार और कृषि उन्नत अवस्था में थे। मौगोलिक दृष्टि से भी यह क्षेत्र सामरिक महत्व का था. यह गंगा के उत्तरी तट और हिमालय पर्वत के बीच स्थित था। इसके अलावा यह केन्द्रीय सत्ता, (दिल्ली) केभी करीम था। साआदत खां को अवष की सुबेदारी 1772 ई. में प्राप्त हुई थी। इसके पूर्व बस आगरा प्रांत का प्रशासक था, जहां उसे जाट बागियों को बनाने में कोई खास सफलता हासिल नहीं हुई थी।
अवध की सुबेदारी संभालने के बाद सआदत खाँ ने अपनी सारी शक्ति अषध को स्वायत्त राज्य बनाने में लगा दी। औरंगजेन की मौत के बाद केन्द्रीय सत्ता में आयी अव्यवस्था ने उसे इस काम में सहायता प्रदान की। अवध की बागडोर संभालने के शीष बाद सआदत खां को विद्रोही सरदारों और राजाओं का जबरदस्त सामना करना पड़ा।
अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए उसने निम्नलिखित कदम उठाए :
- स्थानीय बागी जमींदारों और सरदारों का दमन,
- मदद-ए-माश के अनुदान प्राप्तकर्ताओं की शक्ति को नियंत्रित किया,
- राजस्व वसूली को व्यवस्थित किया और
- कुछ स्थानीय जमींदारों से संधि की।
प्रांतीय प्रशासन के सभी महत्वपूर्ण पदों पर उसने अपने संबंधियों और सहयोगियों को नियुक्त किया। इस तरह वह प्रांतीय पदाधिकारियों की वफादारी सनिश्चित कर लेना चाहता था। इन उपलब्धियों के बाद सआदत खां में इतना आत्मविश्वास आ चुका था कि उसने बगैर केन्द्रीय सत्ता की अनुशंसा के अपने दामाद सफदरजंग को उप गवर्नर नियुक्त कर दिया। यह अपष सुखे की स्वायत्तता का स्पष्ट प्रमाग था।
1735 तक अवध पर सआदत खों का नियंत्रण इतना जबरदस्त हो चुका था कि दिल्ली ने बेहिचक उसे कोरा जाहानाबाद की फौजदारी देदी और बाद में बनारस, जौनपुर, गाजीपुर और चुनारगद के राजस्व वसुली का काम सौंप दिया। फिर भी सआदत खों की ये उपलम्बियाँ केन्द्रीय राजनीति की देन थी. इसका संबंध क्षेत्रीय स्वायत्तता से नहीं था वस्तुत: सआदत खां अभी भी केन्द्रीय राजनीति पर अपने दावे से पूर्णत: मुक्त नहीं हुआ था। हालांकि उसने क्षेत्रीय राजनीतिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए ये और इससे केन्द्रीय नियंत्रण बाधित हुआ था पर अभी मी यह क्षेत्रीय स्वतंत्रता और नियंत्रण मुगल ढाँचे की परिधि में ही था।
लेकिन शीघ्र ही सआदत खां का केन्द्र के साथ टकराव शुरु हो गया। 1737 में सआदत खाँ ने मराठा आक्रमण का सामना करने के लिए अधिक बोत्रीय अधिकार और सैन्य नियंत्रण की मांग की पर मुगल दरबार ने उसे ठुकरा दिया। 1739-40 में उसने फारसी आक्रमणकारियों का सामना किया और इसके बदले मीर बख्मी के पद की मांग की। इसे मी मुगल दरबार ने नहीं माना। इसके साथ मुगल दरबार के साथ उसका अलगाव लगमग पुरा हो गया। 1739 में सखावत खाँ मजबूत सेना के साथ फारसी आक्रमणकारियों से मुगल बादशाह की रक्षा करने के लिए आगे आया। पर मुख्य फारसी सेना पर एकाएक आक्रमण से वाह स्वयं ही नादिरशाह का बन्दी बन गया। इसके बावजूद सआदत खां ने नादिरशाह को प्रभावित किया और फारसी सेना और मुगलों के बीच समझौता कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निमाई।
पर इसी समय फारसी दल में पापत्रमा और माहुत से लोग सेना छोड़ कर भाग खड़े हुए। इसके बड़े दुष्परिणाम हुए। सआदत अपने फारसी संबंध का उपयोग मुगल राजनीति में अपना हक स्थापित करने के लिए करना चाहता था। पर नादिरशाह का विश्वास अपने विश्वस्त पात्रों पर से उठ गया और उसने सआदत से अधिक से अधिक धनराशि की मांग की। इन गतिविधियों और केन्द्रीय राजनीति के खेल से निराश होकर सआदत ने अपने प्राण त्याग दिये।
सफदर जंग और अवध
सआदत खाँ ने एक अर्द स्वायत्तता प्रांतीय राजनीतिक व्यवस्था अपने दामाद और मनोनीत उत्तराधिकारी के लिए छोड़ी थी। अपने आंतरिक संगठन और कार्यकलाप में यह आन केन्द्रीय सत्ता के अधीन नहीं थी और दिल्ली दरबार को भेजे जाने वाले राजस्व में अनियमितता आ गयी थी। इसके अलावा, प्रांत को राजस्व व्यवस्था को पुनर्व्यवस्थित किया गया था दीवान का पद समाप्त कर दिया गया था और स्थानीय हिन्द लोगों को प्रशासन में शामिल किया गया था।
1739 और 1764 के बीच अवष अपने उत्कर्ष पर था और यहाँ पूर्ण स्वायत्तता कायम हो चुकी थी। ऊपरी तौर पर बादशाह के साथ अभी भी संबंध कायम Sr, उदाहरणस्वरूप
- उच्च पदों पर नियुक्ति के लिए बादशाह की औपचारिक अनुशंसा की जाती थी,
- केन्द्रीय राज्यकोष में राजस्व भेजा जाता था,
- आदेश. पदवी आदि मुगल बादशाह के नाम से जारी किए जाते थे।
इसके बावजूद, सफदर जंग ने साम्राज्यी घेरे के अंदर अवध में स्वायत्त राजनीतिक व्यवस्था के आधार को मजबूत करने का हर संभव प्रयास किया। उसने गंगा के मैदानी क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण स्थापित किया और रोहतास.चुनार के किलो और इलाहाबाद की सूबेदारी को विनियोजित किया। इन उपलब्धियों से मुगल दरबार में उसकी हैसियत बड़ी और उसे विजारत का पद प्राप्त हुआ। फरूखाबाद के अधिग्रहण और स्वायत्तता के उसके लगातार प्रयानों के कारण मुगल दरबार से उसका रिशता विच्छिन्न हुआ। सफदर जंग से बजीर का पद छीन लिया गया। हालांकि 1754 में दिल्ली पर मराठों के आक्रमण के दौरान मुगल दरबार में घोडे समय के लिए उसे जगह मिली, पर मुगल दरबार पर उसका प्रभाव वस्तुत: समाप्त हो चुका था।
शुजाउद्दौला और अवध
उत्तराधिकारी शुजाउदौला को प्रांत की विस्तृत सीमाओं को सड़द करने और अपनत्वजसने से मुगल साम्राज्य के साथ तालमेल बैठाने में अधिक सफलता प्राप्त हुई। उसने पूर्व में बढ़ती हुई अंग्रेजी शक्ति के खिलाफ संघियाँ की और इस कार्य में उसे सफलता भी मिली। इसी प्रकार राजस्व वसूली को व्यवस्थित किया गया, सैन्य शक्ति मजबूत की गयी और राज्यकोष में नियमित रूप से धन आने लगा।
प्रशासन और नौकरशाही में हिन्दू समुदाय को अच्छा प्रतिनिधित्व मिला। राजा ओनी माहादुर को नायम नियुक्ति किया गया और नवाब ने एक मराठी माषी बाहमण को अपना सचिव बनाया। नवाब के प्रमुख सेनानायकों में हिन्दुओं के साथ-साथ गोसाई साधु भी शामिल थे। अपने पूर्वाधिकारियों के पदचिहनों पर चलते हुए शुजाउचोला ने भी मुगल बादशाह से पूरी तरह से संबंध विच्छेद नहीं कर लिया।
अपने राज्यारोहण की अनुशंसा भी उसने बादशाह से। प्राप्त कर ली थी। उसने सफलतापूर्वक उत्तर भारत में बादशाह द्वारा सामाज्यी नियंत्रण स्थापित करने के प्रयत्न को निष्फल कर दिया। शुजाउगोला ने शाही-दरबार में अवध की सत्ता को पुनस्थापित किया और वजीर का पद हासिल किया। उसने 1761 के युद्ध में मराठों के खिलाफ अहमद शाह अब्दाली का पक्ष लिया और उत्तर भारत में मराठों को बढ़ने से रोका। इस प्रकार से 1764 में ईस्ट इंडिया कम्पनी के साथ युद्ध के पहले शुजाउद्यौला ने अपध में एक स्वायत्त राजनीतिक व्यवस्था कायम कर ली थी, जिसकी शुरुआत 18वीं शताब्दी के पूर्टिसे हो चुकी थी।
अवध: पराधीनता की ओर
अठारहवीं शताब्दी के उत्तराई के दौरान अमेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी का उत्तरी भारत में प्रभाव बड़ा और इसका जवष की अर्थव्यवस्था और राजनीति पर गहरा प्रमाण पड़ा। 1801 तक मध्यवती राज्य मफर स्टेट) के रूप में अवध की एक महत्वपूर्ण भूमिका यी और वह एक तरह से मराठों से बंगाल क्षेत्र की रक्षा करता था। अत: 19वीं शताब्दी में अपप बग्रेज़ी विस्तार के -रास्ते में रोड़ा बन गया। इस स्वतंत्र सूबे से अप्रेजों की बार-बार टकराहट हुई और अंतत: 1856 में यह प्रांत अग्ने जो राज्य में मिला लिया गया।
अवध: 1764-1775
बक्सर की लड़ाई में बंगाल के नाम मुगल बादशाह और शुजाउदौला के संयुक्त मोर्चे को अंग्रेजों ने हरा दिया। इससे अवध की शक्ति और प्रतिष्ठा को गाहरा धक्का लगा। बलाहामाद की संधि के बाद अवध अंग्रेजी जाल में फंस गया। इस संधि के अनुसार शुजाउगोला का अथष पर अधिकार बना रहा, पर कोरा और इलाबाद मुगल बादशाह को सौंपना पड़ा। शुजाउद्दौला को युव हर्जाने के रूप में 50 लाख रुपये वेने पड़े, और कम्पनी से यह भी संधि करनी पड़ी कि अवष और कम्पनी एक दुसरे के राज्य-क्षेत्रों की रक्षा करेंगे। मंगाल के नवाबों के समान अवध के नवाब मी अग्रेजों की शक्ति और मनसब से परिचित थे और वे अपने दावों को बिना संघर्ष के छोड़ने वाले नहीं थे। अत: अवध में अंग्रेजों की व्यापारिक घुसपैठ को । लगातार रोका गया। इसके साथ-साथ अवध की सेना को मजबूत और व्यवस्थित बनाने की कोशिश की जाती रही।
बक्सर की हार के बाद शुजाउदौला ने सैन्य सुधार आम किया। उसका उबेश्य अंग्रेज़ों को डराना या उनसे युद्ध करना नहीं था. बल्कि वह अपनी सत्ता को पुनस्थापित करना चाहता था, वह उस खोई दुई प्रतिष्ठा को पुन: प्राप्त करना चाहता था, जिसे विदेशी अंग्रेज़ी शक्ति ने घरका पाईचाया था। कम्पनी के लिए अवष इतना महत्वपूर्ण और लामदायक राज्य था, जिसे वे मजरलंदाज नहीं कर सकते थे। इस राज्य के अपार राजस्व का उपयोग कम्पनी की सेना को मजमूत बनाने के लिए किया जा सकता था। एक सुनियोजित तरीके से कम्पनी ने अपनी वित्तीय मांग बदानी शुरू की। 1773 ई. में जमे जी ईस्ट इंडिया कम्पनी और अषष के बीच पहली लिखित संधि हुई। इस संधि के मुताभिक नवाब को इलाहाबाव और अवध में स्थित कम्पनी की सेना के खर्च के लिए 2,10,000 रुपये प्रतिमा का भुगतान करना था। याही से अषघ कम्पनी का ऋणी बनता गया और यही से प्रांतीय राजनीतिक व्यवस्था में अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढ़ना शुरू हुआ।
अवधः 1775-1797
1775 में और उसके बाद नाबाजी की अमेयता पर प्रश्न चिहन लगा। विडंबना यह है कि इसी दौरान लखनऊ क्षेत्रीय सांस्कृतिक विरासत और दरबार के केन्द्र के रूप में पहले से अधिक मुखर हो उठा। फैजाबाद के स्थान पर लखनऊ अवष की नायी राजधानी बन चुका था। आसफुद्दौला के अधिकार को किसी खास चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा, थोड़ा सा अवरोध शुजाउद्दीन के दरबारियों और उसके भाई सआदत अली (रोहिल खंड का गवर्नर) के बल ने खड़ा किया। लेकिन शीघ्र ही मुर्तजा खा आसफुदौला का विश्वासपात्र, जिसे मुख्तार बोला का खिताब दिया गया) के नेतृत्व में पुरानी प्रशासनिक व्यवस्था में फेर बदल किया गया और पुराने सरदारो और सेनानायकों को हटा दिया गया।
मुख्तार ने अवध के नवाब की ओर से कम्पनी से संधि की, जिसके मुताबिक बनारस के आसपास के इलाके (जौनपुर के उत्तर और इलाहाबाद के पश्चिम का इलाका, जिस पर एक समय चैत सिह का अधिकार या अंग्रेजों को सौप दिये गये। इस संधि के अनुसार कम्पनी की सेना के लिए दी जाने वाली राशि बढ़ा दी गयी और भविष्य के अंग्रेजी नवाबी लेन देनों में मुगल बादशाह की मध्यस्यता समाप्त कर दी गयी। नवाब के दरबार में अंग्रेजों ने एक रेजिडेंट को नियुक्त किया, जिसे सभी कूटनीतिक और विदेशी संबंधों को नियंत्रित करना था।
राजनीतिक व्यवस्था के पतन, अवध के मामले में अंग्रेजों के बेबाक हस्तक्षेप और आसफुचौला की रोयाशी और राजनीतिक गतिविधियों से निरासक्ति ने अवध के सरदारों के बड़े हिस्से को चौकन्ना कर दिया। स्थिति तब और बिगड़ गयी जण सेना को बहुत दिनों से वेतन नहीं मिला और उन्होंने जगह-जगह बगावत कर दी। इस अव्यवस्था और गड़बड़ी का फायदा अंग्रेजों को मिला और उनकी पसपैठ का रास्ता आसान हो गया। 1770 के दशक में अग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगातार अवध की प्रभुसत्ता पर आक्रमण किया।
अंग्रेजी iff के लगातार जमाव ने नवाबी शासन को गहरा पक्का पहुंचाया और कम्पनी का हस्तक्षेप बढ़ता चला गया। पहली बार 1780 ई. में इसका विरोध हुआ। कलकत्ता में स्थित सर्वोच्च अंग्रेजी सरकार को यह सोचने के लिए विवश होना पड़ा कि अगर अवध के स्रोतों का सही और लाभदायक उपयोग करना है तो अमेजी रेजिडेंट के हस्तक्षेप को कम करना होगा। अत: 1784 में वारेन हेस्टिंग्स ने आसफुहोला से कई संघियां की. जिससे अवध के कर्ष का बोन घटाकर 50 लाख कर दिया गया और इससे अवध का बोझ कुछ कम हुआ।
आगे आने वाले डेढ दशक में अवध अर्दस्वायत्त प्रांतीय सत्ता के रूप में काम करता रहा और कम्पनी के साथ उसका सौहार्दपूर्ण संबंध बना रहा। यह स्थिति आसफ को मृत्यु (1797) तक कायम रही। आसफ की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने उत्तराधिकार के प्रश्न पर फिर हस्तक्षेप किया। उन्होंने आसफ द्वारा मनोनीत उत्तराधिकारी वजीर अली को पदच्युत कर दिया और सआदत अली को नवाबी सौप दी। इसके बदले में साकत अली ने 21 फरवरी, 1798 की अंग्रेजों से संधि की, जिसके मुताबिक उसे हर साल 76 लाख रूपये अंग्रेजों को देने थे।
अवधः 1797-1856
लाई बेलेस्ली ने, जो 1798 ई. में भारत आया था. एक कदम और आगे बढ़कर, अवध व्यवस्था को ही समाप्त कर दिया। नवाब ने अंग्रेजों की बढ़ी हुई वित्तीय मांगों के भुगतान में अपनी असमर्थता जाहिर की। वेलेस्ली को यह सुनहरा मौका मिला और उसने इसी आधार पर अवप हड़पने की नीति अपनाई। हेनरी वेलेस्ती सितम्बर 1801 में लखनऊ पहुंचा और पूरे राज्य के समर्पण की मांग की। लंबी बातचीत के बाद यह निश्चित किया गया कि अवध का अधिकार क्षेत्र रोहिलखंड, गोरखपुर और दोआब के इलाके तक सीमित रहेगा, जिसकी कुल आमदनी । करोड़ 35 लाख रूपये थी। 1801 की संधि के बाद अग्रेजी-अवध संबंध का एक नया आयाम शुरू हुआ। अब इस निरापद सूबे से कम्पनी के स्थायित्व को कोई खतरा नहीं था।
वस्तुत: अवध के नवामों ने भी इस काल में अमेजो के बढ़ते प्रभुत्व का विरोध नहीं किया। अपनी सेना और आधे से अधिक क्षेत्र छिन जाने के बाद नवाबों ने अपना ध्यान सांस्कृतिक क्षेत्र की ओर केन्द्रित किया। इस धोत्र में वे आसफजौला के पद चिहनों पर चल रहे थे, जिसने लखनऊ और उसके दरबार के चारों तरफ एक जीवंत सांस्कृतिक माहौला पैदा कर दिया था। दिल्ली के पतन के बाद कषि और शायर लखनऊ दरमार की ओर आकृष्ट होने लगे और लखनऊ दरबार में उन्हें शरण दी। इन शायरों में मिर्जा रफी सौदा (1713-86), मीर गुलाम हसन (1735-86) आदि उल्लेखनीय है।
गजियाला-दीन हैदर (1819) द्वारा बादशाही की दिखावटी हैसियत अपनाने और मुगल प्रभुसत्ता के औपचारिक अधिग्रहण के बाद अबध की दरबारी संस्कृति तेजी से फली-फुली। पर इसके साथ-साथ प्रशासन और प्रति पर नवाब को पका दीली होती गयी। कम्पनी द्वारा प्राप्त संरक्षण के लिए नवाम को मारी रकम चुकानी पड़ती थी, प्रशासनिक जिम्मेवारी मंत्रियों के हाथों में – चली गयी और अंग्रेज़ रेजिडेंट का हस्तक्षेप बढ़ता गया. इससे अवध की हालत खस्ता हो गयी।
यह अध:पतन नासिरुबीन-हैदर मोहम्मद अली शाह और अमजद अली शाह के शासन काल में भी जारी रहा (1827-47)। इनमें से कोई भी शासक प्रशासन पर नियंत्रण रखने और कम्पनी के राजनीतिक नियंत्रण से अपने को मुक्त रखने में सक्षम था। उनकी उपलब्धि केवल यही बी कि उन्होंने अवष को नाम के लिए स्वायत्त हैसियत दी और लखनक को एक सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विकसित किया। अमेज़ रेजिडेंट का प्रशासन पर पूर्ण अधिकार था और वह वैष या अप्रत्यक्ष शासन करता या। कम्पनी इस विरोधाभास से अपरिचित नहीं थी और बार-बार अवध के पूर्ण अधिग्रहण की बात सोची जाती थी। पर यह विचार इस आधार पर स्थगित कर दिया गया कि कम्पनी अमी अवध का प्रशासन सीधे तौर पर नहीं लेना चाहती थी।
अंतत: 1856 में वाजिद अली शाह को पदच्युत कर दिया गया और अवध अमेज़ी राज्य में मिला लिया गया। गवर्नर जनरल डलहौजी ने अपने अधिनायक को लिखा “आज से हमारी महारानी के अपीन लाख और लोग आ गये है और उनके विगत कल के राजस्व में 13 लाख रूपयों की वृद्धि हुई है।” इस प्रकार अवध की कहानी का अंत हुआ बुरहानुलमुल्क (सावत खा) के स्वतंत्र घराने का सुर्यास्त हुला। यह घराना लगातार दो साम्राज्यों-मुगल और अमेज़से संघर्ष करता रहा और उनके बीच पिस कर रह गया।
क्षेत्रीय राजनीतिक व्यवस्था का स्वरूप
पिछले मागों में बंगाल और अवध के संदर्भ में हमने क्षेत्रीय राजनीतिक शासनों की बनावट और कार्यकलाप पर बातचीत की। इस भाग में हम क्षेत्रीय राजनीतिक व्यवस्था के स्वरूप और प्रांतीय राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत कार्य कर रही विभिन्न शक्तियों की चर्चा करने जा रहे है। हालांकि बंगाल और अवध, दोनों ही राज्यों में स्वतंत्र अस्तित्व की स्थापना का प्रयास किया गया, पर औपचारिक रूप से मुगल संप्रभुता स्वीकार की जाती रही। अवध में, 1819 में जाकर गाजीउद्दीन हैदर के गद्दीनशीन होने के साथ-साथ मुगलं संप्रभुता को एकतरफा अस्वीकार कर दिया गया। मुगल सामाज्यी सता से पूरी तरह संबंध विस्थापित नहीं किया गया और मुगल प्रांतीय सरकार के स्वरूप में बहुत बदलाव नहीं आया। इस काल की उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि प्रांतीय शासक मजबूत होते गये और प्रांतीय शासकों पर केन्द्रीय सत्ता की पकड़ ढीली होती गयी। सत्रहवीं शताब्दी की तुलना में यह बिल्कुल बदली हुई परिस्थिति थी।
18वीं शताब्दी में प्रांतों की स्वतंत्र सत्ता स्थापित हुई इसमें जमींदारों, व्यापारियों आदि का सहयोग भी प्राप्त हुआ। व्यापारी और महाजन 18वीं शताब्दी में राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हो गये और इन्होंने क्षेत्रीय राजनीतिक व्यवस्था के उदय में माहत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 17वीं शताब्दी के दौरान इस वर्ग ने मुगल राजस्व व्यवस्था और कधीय उत्पाद तथा शिल्पगत वस्तुओं के व्यापार को स्थापित और विकसित किया। इसके बावजूद साम्राज्यी राजनीति में इनका दखल न के बराबर था। पर 18 वीं शताब्दी में केन्द्रीय सत्ता के कमजोर होने और मुगल राज्यकोष के दिवालिया होने पर इस व्यापारिक वर्ग ने विकसित हो रहे क्षेत्रीय राजनीतिक व्यवस्था को आर्थिक आधार प्रदान किया। वे शासको और सरदारों के आर्थिक मददगार बन गये। प्रशासन के कार्यकलाप में इन वाणिज्यिक और व्यापारिक समुदायों का प्रभाव मुखर हो उठा। सरकार ने इन व्यापारिक परानों से काफी मात्रा में बतौर कर्ष धन प्राप्त किया। बनारस में स्थापित राजस्व व्यवस्था पर अग्रवाल बैंकों का पूरा नियंत्रण था। वस्तुत: आसफुरौला के शासन काल (1755-97) में अषध पर कर्ज का बोझ इतना बढ़ गया कि अंग्रेज़ रेजिडेंटो को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा। बंगाल में जगत सेठों के घराने की प्रांत के प्रशासन मुख्य भूमिका हो गयी। इस प्रकार अठारहवीं शताब्दी में व्यापारियों और महाजनों की प्रांतीय प्रशासन व्यवस्था में उल्लेखनीय भूमिका स्थापित हो गयी।
व्यापारियों के साथ-साथ प्रांत में जमीदारों का बोलबाला भी बढ़ा। केन्द्रीय सत्ता की क्षीग होती हुई शक्ति और नियंत्रण के कारण स्थानीय स्तर पर जमींदारों ने अपनी स्थिति मजमुत की और अपने इलाकों में बाजारों तथा व्यापार पर कर लगाने लगे, मुगल प्रशासन के उत्कर्ष के दिनों में ऐसा करना उनके लिए समय न था। देहाती इलाकों में राजस्व की वसूली और कानून एवं प्रशासन की जिम्मेदारी जमादारों ने अपने कम्ले में ले ली। प्रांतीय राजनीतिक व्यवस्था का स्थायित्व जमीदारों के सक्रिय सहयोग पर निर्भरशील हो गया। जमीदार और व्यापारी एक दुसरे की मदद किया करते थे और बहुत से मामलों में जमींदार ही महाजन भी थे और वे वाणिज्य में पूंजी निवेश किया करते थे। इस परस्पर स्वार्थ ने उन्हें एक दूसरे पर निर्भरशील बना दिया। यह देख चुके हैं कि किस प्रकार राज्य पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए अबघ और बंगाल के नवाबों ने जमीवारों से अच्छे संबंध कायम किए।
बंगाल और अवष की राजनीतिक व्यवस्था की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि इनके राजस्व प्रशासन में काफी संख्या में हिंदुओं की नियुक्ति की गयी। अवध में आत्मा राम, राजा राम नारायण और अंगाल में राम दुलर्भ और अमीर चन्द जैसे हिन्दू पदाधिकारियों को राजस्व प्रशासन का मार सौपा गया था। हिन्दुओं द्वारा नवाब की सत्ता के प्रतिरोध को कम से कम करने के लिए राजस्व प्रशासन में हिंदू पदाधिकारियों की नियुक्ति को प्रोत्साहित किया गया। इस प्रकार राजस्व प्रशासन के अधिकारी के तौर पर और बतौर क्लर्क बहुत से हिंदुओं की नियुक्ति हुई।
18वीं शताब्दी के पांचवें छठे दशक के आसपास अग्नेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी का दखल बंगाल और अवध की प्रशासनिक व्यवस्था में धीरे-धीरे बढ़ने लगा। कम्पनी की बढ़ती आर्थिक और सैन्य शक्ति ने प्रांतीय राजनीतिक व्यवस्था पर उसके नियंत्रण को और मजबूत कर दिया। इस स्थिति का फायदा उठाकर उन्होंने विभिन्न गुटों को आपस में लड़ाया और प्रांत में अपनी स्थिति मजबूत की।
सारांश
इस इकाई को पढ़ने के दौरान हमने देखा कि अठारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ट में बंगाल और अवध में स्वतंत्र स्वायत्त राज्यों का उदय हुआ। इस क्षेत्रीय स्वायत्तता का जन्म एकाएक नहीं हुआ, बतिक यह प्रांतो पर मुगल सत्ता के कमजोर होते नियंत्रण का परिणाम था। बंगाल ने अपनी यह स्वायत्तता तीन दशकों (1757) तक कायम रखी और अवध 1801 तक स्वतंत्र राज्य के रूप में कार्य करता रहा।
अपनी सैन्य शक्ति के बल पर और प्रदेश के स्रोतों पर अधिकार जमाकर अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इन प्रदेशों पर अपना अधिकार जमा लिया। बंगाल में. आधी शताब्दी पहले ही अमेज़ों का प्रभुत्व कायम हो गया और उन्होंने एक ही झटके में ब्रिटिश पूर्व व्यवस्था को छिन्न भिन्न कर दिया। अवध के मामले में राजनीतिक व्यवस्था के कमजोर होने और अधिग्रहण की प्रक्रिया घोड़ी लंबी चली, पर उसका अंत मी लगभग वैसा ही हुआ।