1937 के चुनाव तथा कांग्रेस मंत्रिमंडल

1935 के ऐक्ट के द्वारा किस तरह संवैधानिक सुधार लागू किये गये। इन सुधारों के बारे में कांग्रेसियों में मत भिन्नता थी। 

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • संवैधानिक सधारों के मसले पर कांग्रेसियों के बीच प्रचलित विभिन्न मतों के बारे में जानेंगे
  • 1937 के चुनाव और उनसे संबंधित विभिन्न पक्षों के बारे में जानेंगे,
  • 1937-39 के दौरान बहुत से प्रांतों में पदारूढ़ कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के कार्य-कलापों के बारे में जानेंगे,
  • इस दौरान कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के सामने आई समस्याओं को समझेंगे, और
  • इन मंत्रिमंडलों के इस्तीफे के कारणों को समझ सकेंगे।

यह इकाई वर्ष 1936-39 के दौर के राजनीतिक घटनाक्रम पर प्रकाश डालती है। यह वह दौर था जब कांग्रेस ने आंदोलन और जन संघर्षों का रास्ता छोड़ दिया था, और दूसरी बार संवैधानिक राजनीति के चरण में प्रवेश किया था। लेकिन, पहले के स्वराजवादी चरण के विपरीत, इस बार कांग्रेस का इरादा संवैधानिक तरीकों का परीक्षण करना था। इसी के । अनुरूप कांग्रेसियों ने अपनी सफलता के लिए काम किया। परंतु इसका मतलब यह नहीं है । कि संवैधानिक तरीका अपनाने के सवाल पर कांग्रेसियों में मतभेद नहीं थे।

दरअसल कांग्रेस द्वारा लिए गये किसी भी निर्णय पर अमल से पहले जोरदार बहस होती थी। हालांकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध लड़ाई के मूल सवाल पर सहमति थी, फिर भी इस लड़ाई के लिए अपनाये जाने वाले तरीकों को लेकर कांग्रेसियों में विवाद था। यह वही समय था जब वामपक्ष कांग्रेस के भीतर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था। वामपक्ष और दक्षिणपक्ष विभिन्न मसलों पर वाद-विवाद और बहस करते थे। एक उत्तेजक बहस के बाद कांग्रेस ने 1937 में चुनाव लड़ने का फैसला किया और उसे सात प्रांतों में सरकार बनाने में सफलता मिली।

कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने दो वर्ष से कुछ ही अधिक समय तक काम किया। सत्ता में रहने की अल्पावधि में उन्हें कई समस्याओं से जूझना पड़ा। अलग-अलग सामाजिक वर्गों की कांग्रेस से अलग-अलग अपेक्षाएं थीं, इसलिए जब कांग्रेस सत्ता में आयी तो उनकी महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ गयीं। कांग्रेस जिन सिद्धांतों के लिए प्रतिबद्ध थी, उनमें से कुछ निश्चित सिद्धातों को अमल में लाने में सफल हई। लेकिन ऐसे भी मसले थे जिन पर कांग्रेस भीतर से विभाजित थी।

हालांकि कांग्रेस मंत्रिमंडला ने सितम्बर, 1939 में इस्तीफा दे दिया, इसका दो साल तक सत्ता में बना रहना, स्वतंत्रता संग्राम के लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हुआ।

संवैधानिकता की ओर

नागरिक अवज्ञा आंदोलन के दूसरे चरण ने (1932 से आगे) लोगों को उस तरह आंदोलित नहीं किया जैसा कि पिछले चरण ने किया था। यह साफ दिखाई देने लगा था कि इस बार का जन आंदोलन अधिक दूर तक नहीं खिंचेगा। जन आंदोलन की इस शिथिलता से कांग्रेस के भीतर से संवैधानिक तरीकों की ओर लौटने की आवाजें उठने लगीं। कुछ हिस्सों में । स्वराजपार्टी को पुनर्जीवित करने की बात भी चलाई गयी। आसिफअली और एस. सत्यमूर्ति इस सवाल को आंदोलन के दौरान ही गांधीजी के सामने उठा चके थे। एक और प्रमख कांग्रेसी डा. एम. ए. अंसारी परिषद में प्रवेश के पक्षधर थे। 1933 में सत्यमूर्ति ने मद्रास स्वराज पार्टी का गठन किया। के. एम. मंशी, बी. सी. राय, और रामास्वामी आयंगर ने भी स्वराज पार्टी की पुनर्स्थापना के लिए गांधीजी की सहमति प्राप्त करने की कोशिश की। लेकिन, इस बिंदु पर गांधीजी संवैधानिक तरीके पर लौटने के विचार के पक्ष में नहीं थे। मगर उन्होंने इन लोगों से कहा :

‘अगर इस कदम (संवैधानिक तरीके की ओर वापसी) में आपका भरोसा है, तो आप इसका समर्थन करने के लिए स्वतंत्र हैं।”

कुछ कांग्रेसी परिषद प्रवेश के पक्ष में थे तो आचार्य नरेन्द्रदेव और पुरुषोत्तमदास टंडन जैसे अन्य लोग इसके विरोध में थे। इससे कांग्रेस के भीतरी मतभेदों का खुलासा होता है। प्रत्येक पक्ष कांग्रेस की नीति को प्रभावित करने और अपनी ओर झुकाने के लिए उत्सुक था। लेकिन दोनों ही पक्ष यह काम गांधीजी की सहमति से ही करना चाहते थे। जैसे ही नागरिक अवज्ञा-आंदोलन को वापस लिया गया, गांधीजी ने प्रत्येक पक्ष को यह कह के मन मुताबिक कदम उठाने के लिए स्वतंत्र कर दिया :

“मैं चाहता हूँ कि सभी वर्ग सभी दिशाओं में एक ही लक्ष्य की ओर बिना एक दूसरे की आलोचना किये अपने-अपने तरीकों से काम करें।”

जो वर्ग इस समय परिषद प्रवेश (council entry) का समर्थन कर रहा था वह ठीक उन तर्कों पर नहीं चल रहा था जो इससे 12 वर्ष पूर्व स्वराजवादियों ने प्रस्तुत किये थे। जैसा कि आपने  पढ़ा है कि स्वराजवादियों ने परिषदों में प्रवेश संविधान को अंदर से ध्वस्त करने के लिए किया था और उन्होंने पद स्वीकार नहीं किये थे। लेकिन इस बार राजगोपालाचारी जैसे नेता जिस परिषद प्रवेश की बात कर रहे थे वह स्वराजवादियों से दो रूपों में अलग था :

  • इसका उद्देश्य संविधान को ध्वस्त करना था। इसके सहज काम करने में रुकावटें खड़ी करना नहीं था। उनका उद्देश्य संविधान को कार्य योग्य बनाना था।
  • बहुमत हासिल कर लेने की स्थिति में शासन भार स्वीकार करना और मंत्रिमंडलों का गठन करना था।

दूसरी ओर समाजवादी झुकाव वाले कांग्रेसी थे जो परिषद प्रवेश के विरोधी थे और संविधान को काम करने योग्य बनाने के पक्ष में नहीं थे। आप पहले ही पढ़ चके हैं कि समाजवादियों ने कांग्रेस के अंदर ही कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन करके खुद को किस प्रकार संगठित किया था। यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि ये मतभेद हालांकि सैद्धांतिक झुकावों से प्रेरित-नियंत्रित थे, फिर भी ये कांग्रेस के अंदर आंतरिक मसले समझे जाते थे। जहां तक ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध कांग्रेस के रवैये का सवाल था, यह हमेशा एक स्वर में प्रकट किया जाता था। उदाहरण के लिए, 1935 ऐक्ट के आपत्तिजनक खंडों की भर्त्सना कांग्रेस ने सभी वर्गों के पूरे समर्थन से की ।

कांग्रेस के सामने प्रमुख मसला यह निर्णय लेना था कि आगामी चुनावों में भाग लिया जाय और पद भार स्वीकार किया जाय या नहीं। हम अगले भाग में देखेंगे कि इन मसलों के संदर्भ में कांग्रेस ने अपनी नीति को किस तरह गढ़ा।

चुनाव

इससे पहले हम 1937 के चुनाव और उनसे संबधित घटनाओं के विश्लेषण को आगे बढ़ायें,. हम उस समय की आम राजनीतिक स्थिति और कुछ पूर्व-चुनावों की संक्षेप में चर्चा करेंगे। काफी बहस और वाद-विवाद के बाद कांग्रेस ने अपने 1936 के लखनऊ अधिवेशन में प्रांतीय परिषदों के लिए होने वाले आगामी चुनावों में भाग लेने का फैसला किया। लेकिन इससे पहले अक्टूवर 1934 में गांधीजी ने कांग्रेस की 4 आने की सदस्यता को त्याग कर खुद को कांग्रेस से हटा लिया था। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि कांग्रेस में उनका प्रभाव कम हो गया था या उन्होंने कांग्रेस की नीति को निर्देशित करना बंद कर दिया था। चाहे गांधीजी कांग्रेस के चार आने वाले सदस्य रहे हों या न रहे हों, काग्रेस में उनका वर्चस्व लगातार बना रहा।

स्थानीय निकायों के चुनाव

जैसा कि पहले कहा जा चुका है गांधीजी ने सभी वर्गों को अपने-अपने ढंग से काम करने की आज़ादी दे दी थी बशर्ते कि वे एक ही लक्ष्य को लेकर यानी ब्रिटिश शासन के विरोध में काम करें। इस प्रकार 1934 से कांग्रेस ने विधानसभा या स्थानीय निकायों के चुनावों में जब भी, जैसे भी हुआ भाग लेना शुरू किया। ये चुनाव निम्न दृष्टिकोणों से लाभदायक साबित हुए:

  • चुनाव परिणामों के माध्यम से कांग्रेस अपने जनाधार की परीक्षा कर सकती थी।
  • इन चुनावों ने कांग्रेस को चुनावों के संगठन, नियोजन और प्रबंध के मामले में बहुत बड़ा अनुभव दिया।
  • कांग्रेस, निर्वाचन राजनीति में आवश्यक कोष के लिए अपने सहयोगियों की परीक्षा ले सकती थी।

यहां हम मद्रास प्रेसीडेंसी में हुए चुनावों का उल्लेख कर सकते हैं। मई 1935 में स्थानीय चुनावों के लिए पार्टी उम्मीदवारों के चयन के उद्देश्य से एक कांग्रेस नागरिक बोर्ड (civic board) का गठन किया गया। उम्मीदवारों को परिषद द्वारा प्रस्तत कार्यक्रम के प्रति निष्ठा की शपथ लेनी पड़ी (देखिये डेविड आरनाल्इ द कांग्रेस इन तमिलनाडु) इसमें निम्न काम करना शामिल था :

  • स्वदेशी को प्रोत्साहन,
  • भ्रष्टाचार दूर करना
  • चिकित्सा और शिक्षा संबंधी सुविधाओं में सुधार, इत्यादि।

इन स्थानीय चुनावों के परिणाम कांग्रेस के लिए उत्साहवर्धक थे। मदुरई में नगरपालिका (अक्तूबर 1935) में कांग्रेस ने 36 में से 21 सीटों पर विजय प्राप्त की और एक वर्ष बाद (अक्टूबर 1936) मद्रास में 40 में से 27 सीटें कांग्रेस ने जीतीं। इसी प्रकार केन्द्रीय । विधानसभा के चुनावों में कांग्रेस ने मद्रास में मतदाताओं के सामने निम्न मुद्दे उठाये:

  • कांग्रेस को वोट देकर उन्हें कांग्रेस के प्रति अपना निरंतर समर्थन ज़ाहिर करना चाहिए,
  • सरकार को यह दिखाना चाहिए कि तमाम दमन के बावजूद कांग्रेस जीवंत बनी हुई है,
  • वे चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ रहे हैं।

जब परिणामों की घोषणा हुई तो कांग्रेस ने इस प्रांत में जिन सात सीटों पर चुनाव लड़ा था, सभी को जीत कर जस्टिस पार्टी का सफाया कर दिया। राष्ट्रीय स्तर पर कल 76 सीटों में से कांग्रेस के उम्मीदवार 55 सीटों पर खड़े हए और 44 पर जीते। कल मतदान 650,000 था और कांग्रेस को 375,000 मत मिले।

कांग्रेस ने प्रांतीय परिषदों के चनावों में भाग लेने के पक्ष में निर्णय लेने में लम्बा समय लगाया। कांग्रेस कार्य समिति ने अपनी अगस्त 1975 की बैठक में फैसला किया कि चनावों में भाग लेने का मसला लखनऊ अधिवेशन में हल किया जायेगा।

कांग्रेस का लखनऊ अधिवेशन

लखनऊ में कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की। उनके अध्यक्षीय भाषण में समाजवाद की वकालत की गई थी जिसे वे “विश्व की समस्याओं और भारत की समस्याओं के लिए एकमात्र हल” मानते थे। उन्होंने कांग्रेस की सीधी कार्रवाई के संघर्षों में लोगों की भूमिका की सराहना की लेकिन आत्म आलोचना की टिप्पणी के रूप में उन्होंने कहाः

“हमारी राजनीति और विचार बड़ी सीमा तक जनता के बहुत बड़े भाग की आवश्यकताओं के विचार से नहीं बल्कि मध्यवर्गीय दृष्टिकोण से नियंत्रित होते हैं । उनके अनुसार लोगों तक पहुंचने का रास्ता यह था कि “जनता के दिन-प्रतिदिन के संघर्ष उनकी आर्थिक मांगों और अन्य परेशानियों के आधार पर चलाये जाने चाहिए”। नेहरू ने तीन समाजवादियों जयप्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्रदेव और अच्युत पटवर्धन को कांग्रेस कार्य समिति में शामिल किया। इस अधिवेशन में बहुत से प्रस्ताव पारित किये गये। उनमें से प्रमुख ये थेः

  • “राज्यों (देशी रियासत-रजवाड़े) की जनता को भी आत्मनिर्णय का वही अधिकार होना चाहिए जो कि शेष भारत की जनता को है और यह कि कांग्रेस भारत के सभी भागों के लिए समान राजनीतिक, नागरिक, और लोकतांत्रिक स्वतंत्रताओं का समर्थन करती है”। लेकिन कांग्रेस ने कहा कि राज्यों के लोगों को “अपनी आजादी का संघर्ष, स्वयं चलाना चाहिए” (इसके बारे में अधिक जानकारी)
  • कांग्रेस की प्रान्तीय इकाइयों से कहा गया कि वे किसानों की समस्या संबंधी जानकारी प्राप्त करें ताकि इसके आधार पर अखिल भारतीय कांग्रेस समिति (ए० आई० सी० सी०) को अखिल भारतीय कृषि कार्यक्रम तैयार करने में सहायता मिल सके।

सबसे महत्वपूर्ण निर्णय यह था कि कांग्रेस ने एक घोषणा पत्र के आधार पर चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। तथापि, पद स्वीकार करने का निर्णय स्थगित रखा गया। यह ऐसा मसला था जिस पर कांग्रेस के भीतर काफी तेज़-तीखी बहसें हुईं। उदाहरण के लिए, टी० प्रकाशम। और सत्यमूर्ति ने पद स्वीकार करने की जोरदार वकालत की। जबकि एम० आर० मसानी ने इसे अस्वीकार करते हुए कहाः

“हमसे कहा जाता है कि कांग्रेसी मंत्रिमंडल सरकारी स्कूलों और अन्य संस्थाओं में राष्ट्रीय झंडा फहराने में कामयाब होगा। जिस दिन राष्ट्रीय झंडा यूनियन जैक के नीचे फहराया जायेगा, हमारा झंडा प्रदूषित हो जायेगा हमें नये राष्ट्रीय झंडे की खोज करनी पड़ेगी।”

वास्तव में चुनाव लड़ने और पद स्वीकारने को स्थगित करने का निर्णय, पद स्वीकार करने के पक्षधरों और चुनाव का बहिष्कार करने की मांग करने वालों के बीच एक प्रकार का समझौता था। फिर भी नेतृत्व का एक ऐसा वर्ग था जिसका विश्वास था कि पद स्वीकारने पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। मद्रास में मुदलियार और सत्यमूर्ति और मध्यप्रांत (सेंट्रल प्राविन्स) में डॉ. खरे और बहत से अन्य नेता सोचते थे कि पद स्वीकारने संबंधी घोषणा से चुनाव जीतने की सम्भावनायें बढ़ जायेंगी। कुछ हिस्सों में पद स्वीकारने और भावी मुख्य मंत्रियों संबंधी बातचीत भी शुरू हो गयी थी। लेकिन जैसा कि राजगोपालाचारी ने कहाः

“कांग्रेस ने एक बार फिर एक संयुक्त मोर्चे के रूप में अपनी क्षमता प्रदर्शित कर दी है। वाद-विवाद में बने पक्षों को विभाजन नहीं समझा जाना चाहिए। वे सामूहिक चिंतन के सामान्य उपकरण हैं।”

चुनाव घोषणा पत्र

यह संसदीय समिति का काम था कि वह कांग्रेस के चुनाव घोषणा पत्र का प्रारूप तैयार करे। इस घोषणा पत्र का लक्ष्य कांग्रेस की राजनीतिक और आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों को। स्पष्ट करना था। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी द्वारा अगस्त, 1936 में स्वीकार किये गये घोषणा पत्र की प्रमुख विशेषताओं को हम यहां बता रहे हैं।

  • घोषणा पत्र में यह स्पष्ट कहा गया था कि कांग्रेसियों को मंत्रिमंडल में भेजने का उद्देश्य सरकार से सहयोग करना नहीं, बल्कि 1935 के ऐक्ट के विरुद्ध लड़ना और इसे समाप्त करना है। ब्रिटिश साम्राज्यवाद को “भारत में अपनी जड़ें मजबूत करने के प्रयासों” से रोका जाना चाहिए।
  • इसने भारतीय जनता, विशेषकर किसानों, मज़दूरों और कारीगरों की गरीबी को प्रमुखता से प्रस्तुत किया और कहा “अपने देश के करोड़ों लोगों के लिए राष्ट्रीय स्वतंत्रता प्राप्त करने का लक्ष्य हमें अपनी आर्थिक, सामाजिक समस्याएं हल करने और अपनी जनता की गरीबी दर करने का अधिकार दे सकता है।”
  • कांग्रेसी प्रतिनिधियों का काम भारतीय जनता का दमन करने वाले विभिन्न कानूनों, अध्यादेशों और अधिनियमों को समाप्त करने के लिए हर सम्भव कदम उठाना था।

उन्हें ये काम करने थेः

  • नागरिक स्वतंत्रता की स्थापना।
  • राजनीतिक कैदियों और नज़रबंदों की मुक्ति।
  • किसानों के प्रति किये गये अन्याय का निराकरण करना इत्यादि

औद्योगिक मज़दूरों के संबंध में कांग्रेस की नीति, उनके लिए निम्न स्थितियां प्राप्त करना था।

  • बेहतर जीवन स्तर।
  • काम के घंटे निश्चित करना।
  • श्रम की दशाओं में सुधार लाना।

इनके साथ ही ये बातें भी शामिल थीं:

  • संगठन (यूनियन) बनाने का अधिकार।
  • मालिकों के साथ विवादों को निपटाने के लिए उचित तंत्र विकसित करना।
  • वृद्धावस्था के कारण आर्थिक दुष्परिणामों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करना इत्यादि।

घोषणा पत्र में अन्य अनेक वादे किये गये थे, जैसे कि

  • छुआछूत दूर करना
  • महिलाओं के लिए समान अधिकार।
  • खादी और ग्रामोद्योगों को प्रोत्साहन।
  • साम्प्रदायिक समस्याओं का संतोषजनक समाधान इत्यादि।

पद स्वीकार करने के मसले को चुनाव के बाद तय किया जाना था। इस तरह कांग्रेस स्वयं को चुनावों के लिए तैयार कर रही थी और प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया शुरू कर दी गयी।

लखनऊ अधिवेशन एक अन्य दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण था। इसी अधिवेशन के दौरान अखिल भारतीय किसान सभा की पहली बैठक स्वामी सहजानंद सरस्वती की अध्यक्षता में हुई।

फैजपुर अधिवेशन

कांग्रेस का अगला अधिवेशन फैज़पुर में दिसम्बर, 1936 में दुबारा जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में हआ। इस अधिवेशन में बहत से मसले उठाये गये। ये अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय दोनों ही स्थितियों से संबंधित थे। नेहरू ने अपने भाषण में फासीवाद पर हमला किया और कांग्रेस ने एबीसीनिया पर इटली के हमले और चीन पर जापान के हमले की निंदा करते हए प्रस्ताव पारित किए। कांग्रेस ने विश्वयुद्ध की स्थिति में भारत के संस्थानों को ब्रिटिश द्वारा उपयोग में लाने के विरुद्ध लोगों को चेतावनी दी। राष्ट्रीय मसलों पर नेहरू ने स्पष्ट किया कि:

“कांग्रेस की नीति की तार्किक परिणति केवल यह है कि उसे पद और मंत्रिमंडल से कुछ लेना-देना नहीं। इस नीति से किसी भी तरह अलग हटने का मतलब होगा भारतीय जनता के शोषण में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का सहभागी होना”।

इस अधिवेशन में कांग्रेस ने अपना स्वयं का संविधान तैयार करने के लिए संविधान सभा के निर्माण की मांग उठायी। पद स्वीकार करने के सवाल को फिर से टाल दिया गया। फैज़पुर अधिवेशन में जो सबसे महत्वपूर्ण कदम कांग्रेस ने उठाया वह था एक कृषि कार्यक्रम को स्वीकृति देना। इस कार्यक्रम की प्रमुख विशेषताओं में निम्न बातें शामिल थीं।

  • लगान और माल गुज़ारी में 50 प्रतिशत की कमी,
  • अनउपजाऊ जमीन को लगान और भृमि कर से मुक्त करना,
  • कृषि अव पर कर लगाना,
  • सामंतो उगाही और जबरिया मज़दरी का उन्मूलन,
  • सहकारी खेती, बकाया लगान को समाप्त करना
  • बेदखली कानूनों को आधुनिक बनाना,
  • किसान संगठनों (किसान सभा) आदि को मान्यता देना।

यह कार्यक्रम जमींदारी और तालुकेदारी प्रथाओं के उन्मूलन के मामले पर चुप्पी साध गया था। किसान सभा के नेताओं ने आमतौर पर इस कार्यक्रम का स्वागत किया। लेकिन ज़मींदारी उन्मूलन के सवाल पर इसकी आलोचना की क्योंकि वे ज़मींदारी और तालुकेदारी जैसी प्रथाओं को किसानों के शोषण का मल कारण मानते थे।

जयप्रकाश नारायण जैसे । समाजवादी नेताओं ने उनका समर्थन किया। यहां यह बताना ज़रूरी है कि कांग्रेस का दक्षिण पक्ष जमींदारी उन्मलन के पक्ष में नहीं था। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि कृषि कार्यक्रम एक प्रगतिशील कदम था और जैसा कि हम बाद में जानेंगे, इसने किसानों को कांग्रेस के पीछे लाने में दरगामी भूमिका निभायी।

इस समय तक कांग्रेस की सदस्यता में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई थी। उदाहरण के लिए, मई 1936 में कांग्रेस के 4,50,000 सदस्य थे, जो दिसम्बर, 1936 तक बढ़कर 6,36,000 हो गये थे।

1937 के चुनाव

कांग्रेस ने एक बार चुनाव लड़ने का फैसला किया तो प्रत्येक कांग्रेसी, कांग्रेसी प्रत्याशियों की सफलता के लिए तन-मन से जुट गया।

उम्मीदवारों का चयन

अब हम एक नज़र इस पर डालें कि कांग्रेस ने अपने उम्मीदवारों का चयन किस प्रकार किया। एक सामान्य प्रक्रिया यह थी कि प्रान्तीय कांग्रेस कमेटियां अपनी सिफ़ारिश के साथ उम्मीदवारों के नाम कांग्रेस संसदीय बोर्ड के पास भेजेंगी, और बोर्ड इस मामले में अंतिम निर्णय लेगा। ऐसा करने के लिए प्रदेश कांग्रेस कमेटियों ने एक मानदंड अपनाया जिनमें शामिल था कि एक प्रत्याशी को:

  • कांग्रेस के अनुशासन का पालन करना चाहिए।
  • कांग्रेस के कार्यक्रम का पालन करना चाहिए और उसके लिए काम करना चाहिए।

इन दो आधारभूत गणों के अलावा प्रदेश कांग्रेस कमेटियों ने कुछ अन्य बातों पर भी ध्यान दिया जैसे कि प्रत्याशी की:

  • कांग्रेस के लिए की गयी सेवाएं,
  • लोगों के बीच उसकी लोकप्रियता, और
  • चुनाव का खर्चा स्वयं उठा सकने की उसकी क्षमता।

उपरोक्त शर्तों के आधार पर सर्वश्रेष्ठ प्रत्याशियों के चयन के लिए किये गये उनके गम्भीर प्रयासों के बावजूद, कुछ मामलों में जाति ने अपनी भूमिका निभायी। जाति की इस भूमिका के बारे में राजेन्द्र प्रसाद ने इस प्रकार लिखा :

“कांग्रेस जैसे संगठन के लिए ऐसा करना लज्जाजनक है, लेकिन चुनावों में सफल होना हमारा पहला लक्ष्य था, और दूसरे, इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए कि कांग्रेस एक व्यापक संगठन है जिसमें सभी जातियों के लोग शामिल हैं।”

कुछ मामलों में चयन को लेकर विवाद भी हुए। उदाहरण के लिए, स्वामी सहजानंद सरस्वती बिहार में यह देखकर दुःखी थे कि जिन व्यक्तियों का चुनाव लड़ने के लिए चयन किया गया है उनमें से कुछ वास्तव में अवसरवादी थे। जिनका इससे पहले कांग्रेस से कुछ भी लेना-देना नहीं था। इसी प्रकार बम्बई में भी के० एफ० नरीमन और वल्लभ भाई पटेल के बीच मतभेद पैदा हो गये थे। आंध में, एन० जी० रंगा ने, आंध रैयत (Ryots) सघ की ओर से बोलते हुए, कांग्रेसी प्रत्याशियों से एक शपथ लेने का आग्रह किया था।

यह शपथ प्रत्याशियों को विधानमंडल के अंदर और बाहर किसानों के हित के लिए काम करने से बांधती थी। बहत से कांग्रेसी प्रत्याशियों ने इस शपथ पर हस्ताक्षर किये मगर वल्लभ भाई पटेल ने इस कदम की आलोचना की। रंगा ने यह स्पष्ट किया कि यह कदम किसी भी तरह कांग्रेस के अनुशासन के विरुद्ध नहीं है बल्कि इससे कांग्रेसी संगठन मज़बूत होगा। लेकिन पटेल अड़े हुए थे, इसलिए रंगा को यह शपथ वाला कदम वापस लेना पड़ा।

चुनाव अभियान

एक जबरदस्त चुनाव अभियान चलाकर कांग्रेस ने चुनाव में विजय प्राप्त करने की भरपूर कोशिश की। नेहरू ने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को सलाह दी कि फैजपुर कृषि कार्यक्रम को हमारे चुनाव अभियान में महत्वपूर्ण स्थान मिलना चाहिए। स्वयं नेहरू ने सारे देश का दौरा किया। इलाहाबाद के ग्रामीणों में प्रचार करते हुए उन्होंने कहा :

“भारत में केवल दो दल हैं-एक जो लोगों के हित के लिए लड़ रहा है, और दूसरा इसके विरुद्ध।’ कांग्रेस, खान बहादुरों, राजा बहादुरों और नवाबों को जो कि सरकार के साथ रहे हैं, बाहर करने के लिए परिषदों में प्रवेश कर रही है।”

लोगों में एक आम भावना घर कर रही थी कि बहुत जल्दी कांग्रेसी राज, ब्रिटिश राज की जगह पर आ जायेगा। यू०पी० के गवर्नर ने कांग्रेस के अभियान के बारे में वाइसरॉय को लिखा:

‘कांग्रेसी कार्यकर्ता अपने साथ कापियां लेकर घूम रहे हैं और काश्तकारों से पूछते हैं कि वे इस समय कितना लगान दे रहे हैं? काश्तकार कहते हैं शायद दो रुपया प्रति बीघा।” कांग्रेस आने कर दिया जायेगा।” “वह इसे अपनी कापी में दर्ज कर लेता है ।”

बिहार में चुनाव ने “किसान बनाम ज़मींदार” का मोड़ ले लिया। देहात में तब तक लोकप्रिय चुनाव गीत था “मगर कोठरी में बदल जायेंगे” (इसका अर्थ यह था कि वोट डालने वाले कमरे में अपना निर्णय बदल देंगे) और यह गीत उन लोगों के द्वारा गाया जाता था जिन्हें गैर-कांग्रेसी प्रत्याशी अपने पक्ष में मतदान करने के लिए बाध्य कर रहे थे। मद्रास में, कांग्रेसी प्रत्याशियों के प्रचार के लिए सत्यमूर्ति ने 9,000 मील का दौरा किया।

यहां प्रचार यह था कि “पीले बक्से में मत डालें क्योंकि व्यवहारिक तौर पर सभी कांग्रेसी प्रत्याशियों ने पीले रंग की मतपेटियों का चुनाव किया था। यह बहुत साफ था कि ‘जस्टिस पार्टी‘ चुनाव हार जायेगी। देश भर में मतदाताओं में भारी उत्साह था। फिर भी, कुछ स्थानों पर कांग्रेस की हालत नाजुक थी। उदाहरण के लिए, बंगाल में, “प्रजा कृषक पार्टी” काफी लोकप्रिय थी, और लगभग इसी स्थिति में “यूनियनिस्ट पार्टी” पंजाब में थी। यू० पी० में ज़मींदारों ने चुनाव लड़ने के लिए जल्दबाजी में “नेशनलिस्ट एग्रीकल्चरिस्ट पार्टी” का गठन किया लेकिन यह पार्टी मतदाताओं को प्रभावित नहीं कर सकी। इन क्षेत्रीय दलों के अलावा कांग्रेस को मस्लिम लीग और हिन्द महासभा जैसी साम्प्रदायिक आधार पर राजनीति चलाने वाली पार्टियों की चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा।

चुनाव परिणाम

विभिन्न प्रांतों में विभिन्न तिथियों में चुनाव हुए थे। चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए बहुत ही उत्साहवर्धक रहे। बंगाल, पंजाब और सिंध को छोड़कर बाकी क्षेत्रों में कांग्रेस ने बहुत अच्छी स्थिति दर्शायी। पांच प्रांतों में इसे स्पष्ट बहुमत मिला।

बंगाल में उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत, असम और बंबई में कांग्रेस अकेली सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर आयी, जबकि पंजाब और सिंध में इसकी स्थिति कमज़ोर थी।

जहां तक सुरक्षित सीटों का सवाल है हम कांग्रेस की स्थिति के कुछ उदाहरण यहां दे रहे हैं (सभी 11 प्रान्तों में)

  • मजदूरों के लिए सुरक्षित 38 सीटों में से कांग्रेस ने 20 पर चुनाव लड़ा और 18 पर विजय प्राप्त की।
  • 482 सीटें, मुस्लिम सीटों के रूप में आरक्षित थीं। कांग्रेस ने 58 पर अपने उम्मीदवार खड़े किये और 26 पर वे जीते इनमें से 19 उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत की थीं। बम्बई, यू० पी०, सी० पी०, सिंध और बंगाल में कांग्रेस एक भी मुस्लिम सीट प्राप्त नहीं कर सकी। फिर भी, यहां यह उल्लेखनीय है कि मुस्लिम लीग का प्रदर्शन भी बेहतर नहीं था। यह उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांत में एक भी सीट नहीं जीत सकी। पंजाब में 84 आरक्षित सीटों में से इसे केवल दो सीटें प्राप्त हुई। 
  • वाणिज्य और उद्योग के लिए 56 सीटें आरक्षित थीं। कांग्रेस ने 8 पर चुनाव लड़ा और केवल 3 सीटें जीतीं।
  • भस्वामियों के लिए 37 सीटें आरक्षित थीं। कांग्रेस ने 8 पर चनाव लड़ा और 4 पर विजय प्राप्त की।

इस तरह सुरिक्षत चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस का प्रदर्शन सिवाय मजदूर सीटों के संतोषप्रद नहीं था, मगर सामान्य सीटों पर कांग्रेस का प्रदर्शन बहत अच्छा था। अपनी चुनावी जीत पर कांग्रेस कार्य समिति ने लोगों को निम्न संदेश दियाः

‘कांग्रेस कार्यसमिति हाल के चुनावो में कांग्रेस के आह्वान पर, कांग्रेस की नीतियों के प्रति जन समर्थन का प्रदर्शन करने वाले शानदार प्रत्युत्तर के लिए राष्ट्र को बधाई देती है।”

पद स्वीकरण (Office Acceptance)

जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, पद स्वीकार करने का निर्णय कांग्रेस के आंतरिक मतभेदों के कारण लम्बित छोड़ दिया गया था। इस मामले पर विचार करने के लिए मार्च, 1937 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक हई। राजेन्द्र प्रसाद ने पद के ‘सशर्त स्वीकरण’ का एक प्रस्ताव रखा जिसे स्वीकार कर लिया गया। जोड़ी गयी शर्त यह थी कि मंत्रिमंडलों के कामकाज में हस्तक्षेप करने के लिए गवर्नर अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल नहीं करेंगे यहां जयप्रकाश नारायण ने पद को पूरी तरह अस्वीकार करने का एक प्रस्ताव रखा लेकिन मतदान कराये जाने पर यह प्रस्ताव नामंजूर हो गया (पक्ष में 78 और विरोध में 135 मत) कांग्रेस के अंदर यह दक्षिण पक्ष की बड़ी विजय मानी गयी। स्वयं गांधीजी पद के सशर्त स्वीकरण के पक्ष में थे।

इस बार फिर पद स्वीकरण के पक्ष और विपक्ष में तर्क दोहराये गये। मंत्रिमंडल गठित करने के पक्ष में एक मुख्य तर्क यह था कि इसके माध्यम से कांग्रेस किसान और मजदूरों को कुछ राहत दे सकेगी। लेकिन एन० जी० रंगा, सहजानंद सरस्वती, इंदुलाल याजनिक जैसे नेताओं ने पद स्वीकार करने को साम्राज्यवाद के साथ असहयोग की मूल कांग्रेसी नीति से पीछे हटना बताया। सहजानंद ने महसूस किया कि पद स्वीकारने के पक्षधर अपने आप को निरुत्तर महसूस कर रहे हैं और वे “किसानों का बहाना लेकर बचने की कोशिश कर रहे हैं’ और जैसा कि वल्लभ भाई पटेल ने इसे स्पष्ट किया :

“संसदीय मानसिकता लोगों में घर करने लगी थी”

उन 6 प्रांतों में जहां कांग्रेस बहुमत में आयी थी, गर्वनरों द्वारा इसके नेताओं को मंत्रिमंडल गठित करने के लिए आमंत्रित किया गया। लेकिन कांग्रेस द्वारा रखी गयी शर्तों पर गवर्नरों द्वारा आश्वासन देने से इंकार किये जाने पर इस आमंत्रण को ठकरा दिया गया। सरकार का अगला कदम इन प्रांतों में अंतरिम सरकारों का गठन करना था। उदाहरण के लिए, नवाब छतारी ने य० पी० में अपने मंत्रिमंडल का गठन किया और बम्बई में धनजीशाह कपूर ने मंत्रिमंडल बनाया।

यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि ये ऐसे मंत्रिमंडल थे जिनका विधान मंडलों में बहमत नहीं था। इसलिए ये 6 महीने से ज़्यादा सत्ता में नहीं रह सके। बम्बई में बहुत से कांग्रेसी जो पदस्वीकरण के पक्ष में थे, सरकार के इस कदम से समझौता नहीं कर सके। कुछ यह भी महसूस करते थे कि कायदे से जो उन्हें मिलना चाहिए था उसे दसरों को दे दिया गया था। इसलिए उन्होंने कार्य समिति पर पद स्वीकार करने के पक्ष में दबाव डालने के लिए जोरदार प्रयास किए।

इसी प्रकार की स्थिति राजगोपालाचारी के नेतृत्व में मद्रास में भी पैदा हो गयी। राजगोपालाचारी इस समय तक सत्ता संभालने के प्रबल पक्षधर हो चके थे। बिहार में, किसान जांच समिति का काम फिर से शरू कर दिया गया, लेकिन सभाओं में जो बात कही जा रही थी, वह पद स्वीकार करने की थी। यू० पी० में किसानों को लगान न देने के लिए उत्साहित किया गया था, इस आश्वासन के आधार पर कि जब कांग्रेस मंत्रिमंडल का गठन करेगी तो सारा बकाया लगान माफ़ कर देगी।

कम मामलों में गवर्नरों ने (जैसे कि मद्रास के गवर्नर लार्ड एरिस्किन) वाइसरॉय के सामने “विधानमंडलों को भंग करने का प्रस्ताव रखा लेकिन, लिनलिथगो महसूस करते थे कि कांग्रेस जल्दी ही घटने टेक देगी और यह थोड़े ही समय का मसला है। साथ ही उसे यह भी मालूम था कि जो कांग्रेसी पद स्वीकरण के पक्ष में थे उन्होंने कांग्रेस हाईकमान के फैसले का पालन करने में असाधारण अनुशासन प्रदर्शित किया था।

20 जून को वाइसरॉय ने मंत्रियों की तुलना में गवर्नरों के विशेषाधिकारों के संबंध में सरकार की स्थिति का स्पष्टीकरण दिया। तब वर्धा में जुलाई के पहले सप्ताह में कांग्रेस कार्य समिति की बैठक हुई और इस बैठक में पद स्वीकार करने की अनुमति प्रदान कर दी गई।

यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि भारत के अधिकांश पूँजीपति कांग्रेस द्वारा पद स्वीकार किए जाने के पक्ष में थे। जी० डी० बिड़ला इस दिशा में लगातार प्रयास करते रहे। और निरंतर कांग्रेसी नेताओं के सम्पर्क में थे। जब गांधीजी ने अंतिम रूप से पद के लिए – अपनी सहमति प्रकट कर दी तो बिड़ला ने महादेव देसाई को लिखा था:

मेरा मन मुझे यह भरोसा करने के लिए गुदगुदा रहा है कि बापू के मन को प्रभावित करने में मेरे पत्रों का भी कुछ योगदान रहा होगा।

सरकार को कांग्रेस के निकट लाने के लिए बिड़ला इतने अधिक उत्सुक थे कि उन्होंने गांधीजी के वक्तव्य के बारे में स्टेट सेक्रेटरी लार्ड जैटलैंड को सूचित किया था कि “पदस्वीकरण एक ओर तो खूनी क्रान्ति को और दूसरी ओर व्यापक नागरिक अवज्ञा को रोकने का प्रयास था”।

अंतरिम मंत्रिमंडलों के पद त्याग के बाद कांग्रेसी मंत्रिमंडलों का गठन किया गया। यह स्वतंत्रता के संघर्ष में एक नये युग की शुरुआत थी।

बंगाल में मिली-जुली सरकार बनाने में सहयोग करने के लिए कांग्रेस को आमंत्रित किया। कांग्रेस ने इंकार कर दिया तो हक ने मस्लिम लीग के साथ हाथ मिला लिया। सिंध में कांग्रेस ने गलाम हसैन हिदायत उल्ला के मंत्रिमंडल को और असम में बरदोलाई के मंत्रिमंडल को समर्थन दिया। पंजाब में कांग्रेस कोई महत्वपर्ण भमिका निभाने की स्थिति में नहीं थी।

कांग्रेस ने पद स्वीकार करने के फैसले में 6 महीने का विलम्ब किया था। रविधवन शंकर दास के अनुसार (द फर्स्ट कांग्रेस राज 1982) इस विलम्ब से कांग्रेस को निम्नलिखित लाभ हुए:

  • इस विलम्ब में चुनाव के समय के कांग्रेस विरोधी इस प्रोपेगैंडा को झुठला दिया कि कांग्रेसी पद के भूखे हैं, और मंत्रिमंडल बनाने का पहला मौका मिलते ही इसे लपक लेंगे।
  • कांग्रेस की एकता बनी रही और यह लोगों के सामने आयी।
  • गवर्नरों और मंत्रियों के सामने यह बात स्पष्ट हो गयी कि कांग्रेस हाईकमान का निर्णय ही सर्वोच्च था।
  • मंत्रियों के कामकाज में दखल देने से पहले गवर्नरों को कई बार सोचना पड़ता था। ,

कांग्रेस मंत्रिमंडलों का कामकाज

कांग्रेस के सामने जो काम था वह बहुत विशाल था। खासतौर से उन अपेक्षाओं के कारण जो लोग कांग्रेस से उम्मीद रखते थे। कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के एक-एक दिन का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने के बजाए हम यहां विषयगत रूप से यह बताना चाहेंगे कि अपने लगभग ढाई वर्ष के कार्यकाल में कांग्रेस ने क्या किया।

राजनीतिक कैदी और नागरिक स्वतंत्रताएं

कांग्रेस अपने चुनाव के घोषणा पत्र के माध्यम से, राजनीतिक कैदियों और नज़रबंदियों की रिहाई के लिए वचनबद्ध थी। इनमें से बहुत से बिना मुकद्दमा चलाये जेलों में रखे जा रहे थे। अडंमान के कैदियों ने गांधीजी को लिखा था कि उनका अब हिंसा के रास्ते में विश्वास नहीं रहा । सबसे अधिक राजनीतिक कैदी बंगाल में थे, जो एक गैर कांग्रेसी शासन वाला प्रांत था। उनकी मुक्ति की बातचीत के लिए गांधीजी स्वयं कलकत्ता गये। 3 सप्ताह की लम्बी बातचीत के बाद उन्हें 1100 नज़रबंदियों की रिहाई कराने में सफलता मिली। यू०पी० में बहुत से कैदियों को मुक्त किया, जिनमें से प्रमुख थे, काकोरी कांड के बंदी। इन कैदियों के स्वागत में व्यापक जन प्रदर्शन हुए लेकिन अंग्रेज़ सरकार को यह सब पसंद नहीं आया। गांधीजी, गोविन्द वल्लभ पंत, और जवाहरलाल नेहरू ने कैदियों की रिहाई का स्वागत किया। मगर उनके स्वागत आयोजनों की आलोचना की।

पंत का मानना था जनता का इस प्रकार का प्रत्युत्तर अन्य कैदियों की रिहाई में बाधा पैदा कर सकता था और हुआ भी यही। य०पी० और बिहार के गवर्नरों ने कैदियों की मुक्ति पर रोक लगा दी। हरीपुरा अधिवेशन (मार्च, 1938) से ठीक पहले इन प्रांतों के प्रधानमंत्रियों ने इस मुद्दे पर त्यागपत्र दे दिए। हरीपुरा में कांग्रेस की स्थिति स्पष्टता से रखी गयी कि वह हिंसात्मक अपराध के मामले में कार्रवाई करने में झिझकेगी नहीं, लेकिन क्योंकि कैदी हिंसा को त्याग चके थे। इसलिए उन्हें मुक्त करने में कोई खतरा नहीं था।  अंततः सरकार को झुकना पड़ा।

कांग्रेस ने रासबिहारी बोस, पृथ्वी सिंह, मौलवी अब्दुल्ला खान, अबाली मुखर्जी इत्यादि राजनीतिक निर्वासितों के भारत आने पर लगे प्रतिबंध को हटाने के लिए भी कोशिशें की, परंतु कांग्रेस इस दिशा में ज्यादा कछ नहीं कर सकी।

कांग्रेस अहिंसा के दायरे में नागरिक स्वतंत्रताओं से भी प्रतिबद्ध थी। सितम्बर, 1938 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने प्रस्ताव पारित कियाः ।

‘कांग्रेस जनता को चेतावनी देती है कि नागरिक स्वतंत्रता के अंतर्गत हिंसात्मक कृत्य, हिंसा के लिए उकसाने, या खुले झूठ के प्रचार आदि के काम नहीं आते” यह स्पष्ट कर दिया गया कि कांग्रेस अपनी परम्पराओं के अनुकूल उन उपायों का समर्थन करेगी जो कांग्रेस सरकारों द्वारा जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए अपनाये जा सकते हैं”

कांग्रेस का वामपंथी धड़ा इस प्रकार के दृष्टिकोण का विरोधी था, और, इस प्रस्ताव को कांग्रेस में वामपंथियों की हार के रूप में लिया गया।

किसानों का सवाल

किसानों की समस्या एक ज्वलंत सवाल के रूप में मौजूद थी। जवाहरलाल नेहरू ने कहा था “भारत की एकमात्र सबसे बड़ी समस्या किसान समस्या है। बाकी सब दूसरे नम्बर पर आता है।” उनका विश्वास था कि कांग्रेस मंत्रिमंडलों का गठन होने से किसानों में नयी उम्मीदें जागी हैं, जबकि “बड़े ज़मींदार और ताल्ल्केदार किसानों को उनका न्यायपूर्ण हक मिलने से रोकने के लिए संगठित हो रहे हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि अपने वादों के प्रति वफ़ादार रहना चाहिए और किसानों की उम्मीदों को पूरा और संतुष्ट करना चाहिए।

किसान सभा ने 1935 में कांग्रेसी अध्यक्ष के इस प्रकार के वक्तव्य का स्वागत किया। कांग्रेस शासित सभी प्रांतों में काश्तकारी विधेयक लाया गया। दक्षिणपंथी गुट ज़मींदारों से बातचीत किये बिना इस मामले में आगे नहीं बढ़ना चाहता था। यह स्थिति हर प्रांत में भिन्न थी। उदाहरण के लिए, बिहार में काश्तकारी विधेयक के प्रावधानों को लेकर कांग्रेस ने ज़मींदारों के साथ एक समझौता किया।

इस समझौते को सम्पन्न कराने में मौलाना आज़ाद और राजेन्द्र प्रसाद की प्रमुख भूमिका रही। बिहार किसान सभा की पूरी तरह उपेक्षा कर दी गयी। इस विधेयक की न केवल वामपंथी धड़े ने कटु आलोचना की बल्कि किसान हितों से सहानुभूति रखने वाले दूसरे कांग्रेसियों ने भी इसकी आलोचना की। प्रसाद ने दरभंगा के महाराज को लिखा था कि “उनकी न केवल किसान सभा द्वारा भारी आलोचना की जायेगी बल्कि आमतौर पर कांग्रेस और शायद हाईकमान द्वारा भी आलोचना की जायेगी।”

यही वह समय था जब कांग्रेसियों के किसान सभा की गतिविधियों में भाग लेने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। बिहार में कांग्रेस की नीति एक हद तक ज़मींदारी समर्थक थी। ज़मींदारों को भरोसा था कि उनकी खातिर ही कांग्रेस द्वारा किसान आंदोलन को दबाया जा रहा है। दूसरी ओर, किसान सभा में कांग्रेस को फैजपुर कृषि कार्यक्रम लागू करने की याद दिलाने के लिए क्षेत्रीय स्तर पर कई संघर्ष शुरू कर दिये।

यू० पी० में हालत बिहार से भिन्न थी। यू० पी० कांग्रेस में वामपक्ष का अधिक बोलबाला था। जो काश्तकारी विधेयक यहां पारित हआ, उसे इसके पारित किये जाने के दो साल बाद तक भी गवर्नर का अनुमोदन नहीं मिला।

बम्बई में कांग्रेस उस भूमि को जो नागरिक अवज्ञा आंदोलन के “लगान नहीं’ अभियान के परिणामस्वरूप नये स्वामियों को बेच दी गयी थी, उसे उनके मूल स्वामियों को वापस दिलाने में कामयाब हुई।

सभी प्रांतों में किसानों को साहूकारों से बचाने और सिंचाई सुविधाएं बढ़ाने के प्रयास किये गये। लेकिन अधिकांश क्षेत्रों में ज़मींदार मज़बूत स्थिति में रहे। उदाहरण के लिए, उड़ीसा में कालीकोट के ज़मींदार ने रिज़र्व पलिस के लॉरी सवार जवानों की परेड, किसानों को यह चेतावनी देने के लिए करवायी गयी कि वह कांग्रेसी शासन में भी उतना ही ताक़तवर है जितना कि पहले था लेकिन कुल मिलाकर यह किसानों के बीच ज़बरदस्त जागृति का समय था, और ये किसान कांग्रेस के पीछे थे।

मज़दूर

कांग्रेस ने श्रमिक वर्ग से बेहतर कार्य दशाओं का वादा किया था। मगर इसकी श्रमनीति वामपक्ष और दक्षिणपक्ष के बीच परस्पर संबंधों से प्रभावित थी। दक्षिणपक्ष का विश्वास था कि मज़दूरों और पूंजीपतियों का रिश्ता न्यासिता (ट्रस्टीशिप) के गांधीवादी सिद्धांत पर आधारित होना चाहिए, लेकिन वामपक्ष इस रिश्ते को वर्गीय समीकरण पर आधारित करता था। अक्तूबर, 1937 में कांग्रेस द्वारा नियुक्त मज़दूर समिति (लेबर कमेटी) ने एक कार्यक्रम दिया जिसे ए.आई.सी.सी. (अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी) द्वारा स्वीकार कर लिया गया। इस कार्यक्रम में निम्नलिखित बाहें शामिल थीं:

  • वेतन सहित छुट्टियां
  • रोज़गार बीमा
  • बीमारी के दौरान सवेतन अवकाश
  • न्यूनतम वेतन निर्धारण का रास्ता खोजना
  • शांतिपूर्ण और वैधानिक तरीकों की नीति पर चलने वाले श्रमिक संगठनों (ट्रेड यूनियनों) को राज्य से मान्यता दिलवाना।

तथापि, बम्बई ही अकेला ऐसा प्रांत था, जहां श्रम संबंधी विधेयक लाया गया। मंत्रिमंडल ने जहां तक संभव हआ हड़ताल और तालाबंदी रोकने के उद्देश्य से औद्योगिक विवाद विधेयक प्रस्तुत किया। मजदूरों के अनुसार इसका मतलब केवल हड़तालों पर रोक लगाना था क्योंकि तालाबंदी मज़दूरों के शोषण के लिए पूंजीपतियों के तरकश का सबसे तीखा तीर था। जिसके विरुद्ध सरकार कुछ भी नहीं कर सकती थी। इसे लेकर मज़दूरों ने हड़ताल की जिसे कांग्रेस सरकार ने पुलिस की मदद से कुचल दिया। पुलिस कार्रवाई में करीब 20 मज़दूर मारे गये।

इसी समय कानपुर में मजदूरों की व्यापक हड़ताल हुई। यहाँ अगस्त, 1934 में 24,000 मज़दूरों ने अधिक वेतन और बेहतर जीवन स्थितियों की मांग को लेकर काम ठप्प कर दिया। इस हड़ताल की भी कांग्रेस द्वारा आलोचना की गई। जब मज़दूरों ने धरना शुरू किया तो नेहरू ने कहाः

अगर हिंसा का सहारा लिया जाता है तो यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि सरकार हस्तक्षेप नहीं करेगी और सेना या पुलिस को नहीं बुलाया जाएगा। मजदूरों को याद रखना चाहिए सरकार बहुत शक्तिशाली है और हिंसा को दबा देगी और यह कि मज़दूरों का कुछ ही देर में दमन कर दिया जाएगा।

अंत में यह विवाद मंत्रिमंडल द्वारा निपटाया गया। दूसरी तरफ बंगाल में कांग्रेस ने जूट मिलों की हड़ताल (मार्च-मई, 1937) का समर्थन किया। बंगाल पी० सी० सी० (प्रदेश कांग्रेस कमेटी) ने हक सरकार जो कि एक गैर कांग्रेसी सरकार थी, के द्वारा जूट मज़दूरों के दमन की निंदा की। जमशेदपुर में टिसको (टाटा इस्पात कंपनी) श्रमिकों की हड़ताल के दौरान नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने टाटा और मज़दरों के बीच पंच की भूमिका निभाई। इस दौर में वामपंथ ने मजदूरों पर अपने प्रभाव में वृद्धि की।

रचनात्मक कार्यक्रम

सभी कांग्रेस शान्ति प्रांतों में मद्यनिषेध लागू करने, शिक्षा को प्रोत्साहित करने और ग्रामोद्योगों को बढ़ावा देने के लिए गहन प्रयास किए गए। इनमें कुछ प्रमुख काम थेः

  • मद्यनिषेध यानी नशाबंदी के पक्ष में जोरदार अभियान चलाना।
  • मद्रास मंत्रिमंडल द्वारा खादी और हाथ की कताई के कपड़े के लिए दो लाख रुपये का अनुदान दिया जाना।
  • अस्पतालों में मानद चिकित्सा अधिकारियों की नियुक्ति।
  • सार्वजनिक इमारतों के निर्माण में निवेश को पर्याप्त रूप से कम करना।

शिक्षा के क्षेत्र में सार्थक कदम उठाया गया। वर्धा में (22 और 23 अक्तूबर, 1937 को, एक अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में एक योजना तैयार की जिसमें निम्न बातें शामिल थीं:

  • देश भर में 7 वर्ष के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाए।
  • शिक्षा का माध्यम मातृभाषा को बनाया जाए।
  • व्यावसायिक और दस्तकारी प्रशिक्षण पर जोर दिया जाए।

इन दिशा निर्देशों के आधार पर कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के क्रियान्वयन के लिए डॉ० जाकिर हुसैन ने प्राथमिक शिक्षा की एक योजना प्रस्तुत की (2 दिसम्बर, 1937) इस योजना में मान्य दस्तकारी, मातृभाषा का उचित ज्ञान, आधारभूत शिक्षा शामिल थी। कई प्रांतों में इस योजना को लागू करने का प्रयास किया गया। कांग्रेस की शिक्षानीति के परिणामस्वरूप विद्यार्थियों के साथ-साथ शिक्षण संस्थाओं की संख्या में भी वृद्धि हुई। उदाहरण के लिए, बम्बई प्रांत में 1936-37 में शिक्षण संस्थाओं की संख्या 14,609 थी और 1939-40 तक यह बढ़कर 18,729 हो गई थी। इसी प्रकार 1936-37 में विद्यार्थियों की संख्या 13,35.889 थी जो 1939-40 में बढ़कर 15,56,441 हो गई।

कांग्रेसी मंत्रिमंडलों की अन्य प्रमुख उपलब्धियां इस प्रकार थीं:

  • मंत्रियों के वेतन में कटौती,
  • मूल अधिकारों की घोषणा,
  • जेलों की स्थितियों में सुधार,
  • आदिवासियों के लिए कल्याणकारी योजनाएं,
  • दमनकारी कोयला कानन की समाप्ति
  • वाणिज्य और आर्थिक सर्वेक्षण कराना।

इस युग की एक महत्वपूर्ण विशेषता सरकारी अधिकारियों के रुख में परिवर्तन था। अब उन्हें नेताओं के अधीन काम करना पड़ा जिन्हें वे पहले गिरफ्तार किया करते थे।

कांग्रेस के सामने आई कुछ समस्याएं

सांप्रदायिक पार्टियों द्वारा कांग्रेस के विरुद्ध दुष्प्रचार किया गया था। उन्होंने कांग्रेस पर अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव बरतने का आरोप लगाया लेकिन दुष्प्रचार तथ्यों पर आधारित न होकर राजनीतिक और साम्प्रदायिक कारणों पर खड़ा किया गया था। साथ ही, इस समय पद का लाभ उठाने की गरज़ से बहुत से अवसरवादी कांग्रेस में शामिल हो गए। कांग्रेस ऐसे तत्वों को पहचानती थी और गांधीजी ने कांग्रेस के इस भ्रष्टाचार के बारे में अपने अखबार (हरिजन) में स्पष्टता से लिखा था। कई क्षेत्रों में कांग्रेस को ऐसे तत्वों से मुक्त कराने का अभियान भी चलाया गया। इस समय कांग्रेस के दो अधिवेशन हुए। 51वां अधिवेशन हरिपुरा में फरवरी, 1938 में सुभाषचंद्र बोस की अध्यक्षता में हुआ।

इस अधिवेशन ने राष्ट्रीय मामलों और अंतर्राष्ट्रीय मसलों से संबधित कई प्रस्ताव पारित किए। लेकिन कांग्रेस ने असली संकट का सामना त्रिपुरा अधिवेशन में किया। इस बार अध्यक्ष पक्ष के लिए चुनाव हए और सभाषचंद्र बोस ने पट्टाभिसीतारमैय्या को 1337 के मुकाबले 1580 मतों से पराजित किया। इसे वामपक्ष की विजय माना गया क्योंकि दक्षिण पक्ष ने सीतारमैय्या को एकजट समर्थन दिया था। स्वयं गांधीजी ने भी दस हार को अपनी दार माना था। इससे कार्यसमिति के गठन करने में परेशानियाँ आई तब आखिर में बोस ने अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया।

कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने नवम्बर, 1939 में सरकार से इस आधार पर त्याग पत्र दे दिया कि वाइसरॉय ने बिना कांग्रेस से पूछे अपनी मर्जी से ही भारत को सम्राज्यवादी यद्ध में भागीदार बना देता था।

सारांश

इस इकाई में हमने पढ़ा है कि किस तरह कांग्रेस ने एक लम्बी बहस के बाद चुनाव लड़ने का निर्णय किया, और किस तरह वह पांच प्रांतों में विजयी हुई। कांग्रेस की जीत का श्रेय इसकी जन-समर्थक नीतियों को दिया गया। कई मामलों में ज़मीदारों और साम्प्रदायिक ताकतों ने कांग्रेस का विरोध किया। हालांकि कांग्रेसियों के बीच चुनावों में भाग लेने और बाद में पद स्वीकरण के सवाल पर मतभेद थे, परंतु जब एक बार निर्णय ले लिया जाता था तो सभी दृढ़ता से उसका पालन करते थे।

कांग्रेसी मंत्रिमंडलों ने कुछ सीमाओं के बीच काम लिया, परन्तु उन्होंने लोगों को राहत दिलवाने के श्रेष्ठतम प्रयास किए। इस दौर में रचनात्मक कार्यक्रम को बढ़ावा मिला। कांग्रेसी मंत्रिमंडलों के गठन को लोगों ने अपने खुद के “राज” के रूप में लिया। उनको पूरा भरोसा हो गया था कि अब ब्रिटिश राज के दिन गिने चुने हैं यद्यपि कांग्रेस के भीतर वामपक्ष काफ़ी मखर था, फिर भी पार्टी में दबदबा दक्षिण पक्ष का ही था।

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