स्वराज पार्टी: उदय, विचारधारा, योगदान तथा पतन

इस इकाई के अंतर्गत हम आपको राष्ट्रवादी राजनीति में एक नए रूझान के रूप में स्वराजवादियों के उदय की जानकारी देंगे। इस नए रूझान का प्रतिफलन मोतीलाल नेहरू और चितरंजन दास के नेतृत्व में स्वराज पार्टी के गठन के रूप में हुआ।

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • स्वराज पार्टी के उदय के प्रेरणा स्रोतों तथा पार्टी की विचारधारा से अवगत हो सकेंगे;
  • इसके कार्यक्रमों तथा बिखराव के कारणों से अवगत हो सकेंगे;
  • भारतवर्ष की राजनीति में इसके योगदान का मूल्यांकन कर सकेंगे;
  • असहयोग आंदोलन वापस लिए जाने के उपरांत के घटना चक्र का संक्षिप्त विवरण प्राप्त कर सकेंगे।

सन् 1922-29 का काल कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इस काल का आरम्भ असहयोग आंदोलन की समाप्ति तथा एक और आंदोलन के आरंभ के साथ हआ। इस काल के अंतर्गत राजनैतिक गतिविधियों में नए झकाव की शरुआत से भारत के स्वाधीनता संघर्ष को भी बल मिला। इस काल में देश के समक्ष परिषदों में प्रवेश तथा रचनात्मक कार्यों के रूप में दुहरे कार्यक्रम प्रकट हुए। इन्हीं वर्षों में विभिन्न विचारों के प्रवर्तक नए नेताओं का उदय हुआ। इसके अतिरिक्त इस काल के दौरान भारतीय स्वाधीनता संग्राम में नयी समस्याएँ, नये तनाव, नयी विधाएँ एवं रुकावटें भी प्रकट हई। इस इकाई के अंतर्गत आपको 1922-29 के वर्षों के इन तमाम पक्षों का परिचय दिया जायेगा।

पृष्ठभूमि

महात्मा गांधी के नेतृत्व में साम्राज्यवाद के विरुद्ध आवाज उठाने वाले सभी प्रकार की विचारधाराओं से संबन्धित लोगों के लिए एक शक्तिशाली मंच के रूप में कांग्रेस का उदय हआ। गाँधी जी के प्रथम आंदोलन (1920-22) के दौरान इस मंच की जड़ें सभी वर्गों के लोगों तक फैल गयीं। कांग्रेस द्वारा स्वराज्य को औपचारिक रूप में अपना लक्ष्य स्वीकार करने के साथ ही असहयोग आंदोलन जन आंदोलन में परिवर्तित हो गया। गांधी जी द्वारा दिए गए आकर्षक नारे “एक वर्ष में स्वराज्य’ ने जनसमूहों को रणक्षेत्र में उतार दिया। फरवरी 1922 में असहयोग आंदोलन के स्थगन ने निराशा का वातावरण पैदा कर दिया और परिणामस्वरूप कांग्रेस के नेतृत्व में स्पष्ट मतभेद उभर आये। सरकार ने स्थिति का लाभ उठाते हुए तुरन्त ही दमन की नीति अपनायी।

1816 का बंगाल अधिनियम-III पुनः लागू किया गया और तरंत गिरफ्तारी और विशेष आयक्त के समक्ष मकदमा चलाए जाने का अध्यादेश जारी किया गया। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री लॉयड जार्ज ने आई.सी.एस. काडरों की कार्यकशलताओं की प्रशंसा करते हए अपना ‘फौलादी शिकंजे’ वाला भाषण दिया। ऐसा अंग्रेजी नीति में परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए किया गया था। इसने स्वराज्य के सिद्धान्तों का खण्डन करते हुए बर्तानवी साम्राज्य को मजबूत बनाने में योगदान दिया।

ऐसी परिस्थिति में संघर्ष के दौरान गांधीवादी तरीकों की उपयुक्तता के प्रश्न पर लोगों के अंदर मोहभंग की भावना घर करने लगी। क्या लाखों-करोड़ों लोगों को अहिंसा के दर्शन का पाठ पढ़ाना सम्भव था? यदि ऐसा सम्भव भी था तो इसमें समय कितना लगता? इस दौरान गांधी जी जेल में थे और देश के समक्ष कोई निश्चित राजनैतिक कार्यक्रम नहीं था।

तथाकथित हिन्द-मस्लिम एकता तेजी से अदश्य होती जा रही थी और दोनों सम्प्रदायों के बीच तनाव और साम्प्रदायिक झगड़ों के शुरू होने के कारण देश की सारी शक्ति, सारे प्रयास इस समस्या के समाधान में लग रहे थे। कांग्रेस के रचनात्मक कार्य जो बनियादी तौर पर सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों में सुधार लाने से सम्बन्धित थे, उच्च मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों को आकृष्ट करने में असफल रहे उन्होंने राजनीति में गांधी जी की भावनात्मक और अमूर्त पहँच का कभी अनुमोदन नहीं किया। उनकी दृष्टि में राजनीति एक मूर्त यथार्थ थी और वे कांग्रेस तथा उसकी राजनीति को असहयोग आंदोलन के वापस लिए जाने के बाद उसमें पनपी हतोत्साहन की भावना से मक्त करना चाहते थे।

स्वराज पार्टी : गठन

ऐसी परिस्थिति में चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरू ने राजनीति में नई जान फंकी। जब सविनय अवज्ञा पर गठित कमेटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की जिसमें यह कहा गया था, देश अभी भी सविनय अवज्ञा कार्यक्रम आरम्भ करने के लिए तैयार नहीं है तथा रचनात्मक कार्यक्रमों में बहुत सीमित संख्या में लोगों ने हिस्सा लिया है, तो इन नेताओं ने विधान मण्डलों का बहिष्कार करने के बजाय असहयोग आंदोलन को विधान मण्डलों में ले जाने का सुझाव रखा। इन्होंने परिषद् में प्रवेश द्वारा सुधारों को अन्दर से तोड़ने के विचार को आगे बढ़ाया। इस सुझाव का कांग्रेसियों ने स्वागत किया लेकिन राजगोपालाचारी, राजेन्द्र प्रसाद और सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे परंपरागत गांधीवादियों ने इसका जमकर विरोध किया। परिवर्तन के विरोधियों और परम्परागत गाँधीवादियों ने परिषदों में प्रवेश के कार्यक्रम का विरोध करते हुए गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने पर बल दिया।

परिवर्तन के समर्थकों अथवा स्वराज्यवादियों ने रचनात्मक कार्यक्रम के विचार का विरोध तो नहीं किया लेकिन इस कार्यक्रम के साथ-साथ परिषदों में प्रवेश के राजनैतिक कार्यक्रम को भी साथ लेकर चलने का प्रस्ताव रखा। दिसंबर 1922 में कांग्रेस के गया अधिवेशन में यह मामला उभर कर सामने आया जहाँ राजगोपालाचारी ने परिषदों में प्रवेश के प्रस्ताव का विरोध करते हए चितरंजन दास को कांग्रेस की अध्यक्षता से त्याग पत्र देने के लिए मजबर किया। इसके बाद चितरंजन दास ने 31 दिसंबर 1922 को स्वराज पार्टी के गठन की घोषणा की जिसके वे स्वयं अध्यक्ष हए और मोतीलाल नेहरू उसके सचिव नियुक्त किये गये।

लेकिन गया कांग्रेस में परिवर्तन विरोधियों की विजय अधिक दिनों तक स्थिर न रह सकी। 1923 में हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों ने राजनैतिक माहौल को अंधकारमय कर दिया। यह भी स्पष्ट हो गया कि सविनय अवज्ञा को एक राष्ट्रीय कार्यक्रम के रूप में पुनः आरम्भ नहीं किया जा सकता। सितंबर 1923 को दिल्ली में हुए कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में, जिसकी अध्यक्षता मौलाना आज़ाद ने की थी, कांग्रेसियों को आने वाले चुनावों में भाग लेने की अनुमति दे दी गई। कोकानाडा के वार्षिक अधिवेशन में इस बात को समर्थन देते हुए कि असहयोग आंदोलन का कार्यक्रम परिषदों के अंदर रहकर भी चलाया जा सकता है, परिषदों में प्रवेश को मान्यता दे दी गई। तमाम कांग्रेस समर्थकों और सदस्यों से गांधी जी के रचनात्मक कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिए अपने प्रयास को दुगना कर देने का आह्वान किया गया। इस प्रकार कांग्रेस को टूटने से बचाया गया।

स्वराजवादी और गांधी

चुनाव हुए और उसमें कुछ प्रान्तों में स्वराजवादियों को भारी विजय मिली। कांग्रेस के अंदर उनके प्रभाव और शक्ति में काफी बढ़ोतरी हई। फरवरी 1924 में गांधी जी जेल से रिहा किये गये। उनके जेल से बाहर आते ही पाने झगड़ों को फिर से बल मिला और ऐसा प्रतीत हुआ कि कांग्रेस को टूटने से नहीं बचाया जा सकता। जून में गांधी जी ने “बहिष्कार” के मूल कार्यक्रम के पक्ष में घोषणा की, उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि वे लोग जो इस नीति का समर्थन नहीं करते हैं उन्हें अलग संगठन के रूप में कार्य करने की पूरी आजादी है। जून 1924 में अहमदाबाद में हुई अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की सभा में उनके प्रस्ताव बुनियादी तौर पर स्वराजवादियों को कांग्रेस से बाहर निकालने के लक्ष्य को लेकर रखे गये थे। एक प्रस्ताव में प्रत्येक कांग्रेसी से दो हजार गज सूत कातने का आह्वान किया गया था और प्रादेशिक कांग्रेस कमेटियों को यह अधिकार दिया गया था कि ऐसा न करने वालों के विरुद्ध वे उचित कार्यवाही करे।

परिषदों का बहिष्कार करने के विरोधियों को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी से त्याग पत्र दे देने को कहा गया था-मतदाताओं को कांग्रेस की नीति का विरोध करने वालों से सचेत रहने का आग्रह किया गया। ऐसी स्थिति में स्वराजवादियों का परेशान होना स्वाभाविक ही था क्योंकि चुनाव में उनकी जीत का बहुत बड़ा कारण कांग्रेस का प्रभाव और उसके संसाधन थे। उन्होंने इन प्रस्तावों का जमकर विरोध किया। चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू द्वारा विरोध के बाद गांधी जी ने प्रस्तावों में संशोधन किये और एक समझौते के द्वारा पदच्युत कर दिये जाने जैसे जुर्माने को प्रस्ताव से बाहर कर दिया। यह गांधी जी की प्रतिष्ठा के लिए बहुत बड़ा धक्का था। गांधी जी ने स्वयं खुलेआम यह माना कि यह उनकी हार थी और उन्हें नीचा देखना पड़ा। अब गांधी जी ने स्वराजवादियों को अपना सहयोग देना शुरू किया और उन्हें सरकार के साथ बातचीत करने में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में इस्तेमाल किया।

बेलगाम कांग्रेस ने, जिसकी अध्यक्षता स्वयं गांधी जी ने की थी, स्वराजवादियों और परिवर्तन तिरोधियों अथवा परम्परावादियों के बीच आपसी विश्वास की बुनियाद रखी। गांधी जी ने असहयोग आंदोलन के स्थगन (कवा विदेशों में बने कपड़ों को पहनने से इंकार करने को छोड़कर) को शामिल करते हए एक समझौता पेश किया जिसमें यह कहा गया था कि कांग्रेस के विभिन्न प्रकार के कार्य विभिन्न प्रकार के सदस्यों द्वारा किए जाने चाहिए। रचनात्मक कार्य, जिनमें चरखा चलाने और हिन्द-मुस्लिम एकता का समर्थन और अस्पृश्यता तथा शराबखोरी समाप्त किये जाने पर बल था, कांग्रेसियों के लिए स्वराज्य प्राप्त करने का मुख्य साधन उद्घोषित किया गया।

उद्देश्य एवं लक्ष्य

फरवरी 1923 में प्रकाशित हए अपने कार्यक्रम में स्वराज पार्टी ने अपने उद्देश्यों और लक्ष्यों की ओर इशारा किया था। इसका तात्कालिक उद्देश्य “शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण प्रभसत्ता का स्तर प्राप्त करना” था, जिसमें भारतीय परिस्थितियों और मानसिकता की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हए संविधान तैयार करने का अधिकार शामिल था। 14 अक्टबर, 1923 के इसके सो गा पत्र और परिषदों में इसकी माँगों के स्वरूप से यह स्पष्ट हो गया कि स्वराज पार्टी प्रादेशिक स्वायत्तता चाहती है जिसमें संविधान तैयार करने के अधिकार की दृष्टि से नौकरशाही तंत्र पर नियंत्रण आधारभत आवश्यकता है।

इसका अन्य उद्देश्य इस सिद्धांत को मान्यता दिलाना था कि नौकरशाही अपनी शक्ति जनसमूहों से ही प्राप्त करती है। घोषणा पत्र ने यह स्पष्ट कर दिया कि विधान मंडलों में प्रवेश करने पर इसके सदस्य सरकार से ‘सरकारी तंत्र और प्रणाली पर भारतीय जनता के अधिकार’ की माँग स्वीकार करने के लिए दबाव डालेंगे। साथ ही यह भी स्पष्ट था कि यदि सरकार ने इन माँगों पर ध्यान नहीं दिया तो “एकरूपी, निरंतर और स्थायी व्यवधान’ की नीति अपनाई जायेगी। 1923 में स्वराज पार्टी के तैयार किए गये संविधान में तब तक कई परिवर्तन सामने आते रहे जब तक कि दिसंबर 1924 में बेलगाम सम्मेलन में कांग्रेस के साथ स्वराज पार्टी के सम्बन्ध अन्ततः निश्चित नहीं हो गये। 1924 में पार्टी के संविधान में उसका उद्देश्य तमाम न्यायगत और शान्तिपूर्ण तरीकों से भारतीय जनता द्वारा स्वराज की प्राप्ति उल्लेखित किया गया। संविधान के अंतर्गत स्वराज के निश्चित स्वरूप की व्याख्या नहीं की गई।

कार्यक्रम

स्वराज पार्टी का निर्माण उन महत्वपूर्ण कांग्रेस नेताओं ने किया था, जिन्होंने गांधी जी के असहयोग आंदोलन की पद्धति को कभी भी समर्थन नहीं दिया। इन नेताओं ने गांधी जी के जन आंदोलन के कार्यक्रमों के प्रति किसी प्रकार की सहानभति का रवैया नहीं रखा लेकिन 1920 की परिस्थितियों के कारण वे इसका विरोध भी नहीं कर सके। कांग्रेस का एक अभिन्न हिस्सा होने और इसके एक विभाग के रूप में कार्य करने के कारण स्वराजवादियों के कार्यक्रम कांग्रेस के कार्यक्रमों से भिन्न नहीं रह सकते थे। कांग्रेस की छत्र-छाया में रहते हुए उसकी अनुमति से 1919 के संविधान को ध्वस्त करने की दृष्टि से स्वराज पार्टी ने अहिंसात्मक असहयोग के कार्यक्रम को परिषदों में ले जाने की घोषणा की। पार्टी ने निम्नलिखित कार्यक्रम अपनाने की घोषणा की :

परिषदों के अंदर

पार्टी ने निश्चय किया कि जब कभी भी संभव होगा पार्टी,

  • अपने अधिकारों को मान्यता दिलाने के लिए आपति और बजट को स्वीकार करने से इन्कार करेगी।
  • अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए नौकरशाही द्वारा प्रस्तावित सभी कानूनी प्रस्तावों को मानने से इन्कार करेगी।
  • स्वस्थ राष्ट्रीय जीवन के लिए आवश्यक प्रस्ताव पेश करेगी और साथ ही इससे संबंधित प्रावधानों और बिलों का प्रस्ताव और अनमोदन भी करेगी।
  • कांग्रेस के रचनात्मक कार्यक्रम में सहायता करेगी।
  • शोषण की ओर ले जाने वाली तमाम गतिविधियों पर कड़ी नजर रखते हुए एक निश्चित आर्थिक नीति अपनाएगी जिससे भारत से सार्वजनिक सम्पत्ति का इंग्लैण्ड की ओर बहाव रोका जा सके और राष्ट्रीय, आर्थिक, औद्योगिक और व्यापारिक हितों को बढ़ावा मिले।
  • कृषि और औद्योगिक मजदूरों के अधिकारों पर ध्यान आकर्षित करने की दिशा में कार्य करेगी और भूस्वामियों और काश्तकारों, पूँजीपतियों और मजदूरों के संबंधों में तालमेल बिठाने की दिशा में कार्य करेगी।

परिषदों के बाहर

परिषदों के बाहर निम्न गतिविधियाँ निश्चित की गयी,

  • हिन्दुओं, मुसलमानों, सिक्खों, तथा ब्राह्मणों एवं गैर ब्राह्मणों के बीच एक दूसरे के प्रति पूर्ण सामंजस्य की भावना लाने के लिए सांप्रदायिक एकता लाने की दिशा में कार्य करना।
  • अस्पृश्यता समाप्त करने और शोषित वर्गों के उत्थान के लिए कार्य करना।
  • ग्रामीण संगठन तैयार करना।
  • देश में औद्योगिक एवं कषि मजदरों, जिसमें रैयत एवं किसान भी शामिल थे, के संगठन तैयार करना जिससे इन वर्गों के हितों को सुरक्षित एवं प्रोत्साहित किया जा सके और स्वराज के लिए संघर्ष में इनकी उपयुक्त भमिका सनिश्चित की जा सके।
  • व्यापारिक और औद्योगिक विकास सहित देश का आर्थिक नियंत्रण प्राप्त करना।
  • स्थानीय एवं नगरपालिका संबंधी मामलों में नियंत्रण स्थापित करना।
  • कांग्रेस के रचनात्मक कार्यक्रमों में स्वदेशी, खद्दर, राष्ट्रीय शिक्षा और पंचायती बोर्डों के संबंध में आवश्यक पद्धति अपनाते हुए कार्यक्रमों को क्रियान्वित करना। कमेटी की राय से भारत से बाहर बने कछ ब्रिटिश उत्पादनों का बहिष्कार करना जिससे कि इसे स्वराज्य प्राप्ति में राजनैतिक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल किया जा सके।
  • एशियायी सद्भावना तथा व्यापार के क्षेत्र में आपसी सहयोग प्राप्त करने के लिए एशियायी देशों की फेडरेशन का गठन करना। भारत से बाहर राष्ट्रीय कार्य के प्रचार के लिए प्रचार समितियों का गठन करना और स्वराज के लिए संघर्ष में विदेशों का सहयोग और समर्थन प्राप्त करने के लिए कार्य करना।

स्वराजवादियों के कार्यक्रमों पर सरसरी दृष्टि डालने से स्पष्ट हो जाता है कि इनके कार्यक्रमों में किसी प्रकार की नवीनता और मौलिकता नहीं थी बल्कि उनका उददेश्य सभी वर्गों के लोगों को खुश करना था जिससे कि चुनावों में सफलता पायी जा सके। स्वराजवादी वर्ग संघर्ष की जगह वर्गों की सहिष्णुता में विश्वास रखते थे। उनके विचार में चूँकि हमारी सामाजिक व्यवस्था शताब्दियों पुरानी थी इसलिए यथास्थिति बनी रहनी चाहिए। यद्यपि वे किसानों के प्रति न्याय के समर्थक थे लेकिन साथ ही उनका यह भी विश्वास था कि भस्वामियों के प्रति कोई अन्याय, न्याय की दरिद्रता का द्योतक है।

स्वराजवादी समाज के धनी वर्गों को प्रसन्न रखना चाहते थे क्योंकि इनसे चुनावों में इन्हें काफी आर्थिक सहायता मिलती थी। रचनात्मक कार्यों के प्रति अपने समर्थन के दृष्टिकोण से स्वराजवादियों ने उनके क्रियान्वयन के साधन के रूप में विधान परिषदों की उपयोगिता स्वीकार की। तथापि विधान परिषदों से बाहर के उनके कार्यक्रम काफी स्थल थे। एशियायी देशों की फेडरेशन और विदेशों में प्रचार की ऐजेंसियों के गठन के कार्यक्रमों की व्यापकता को देखते हए उनके क्रियान्वयन की संभावना भी केवल वैचारिक स्तर तक रह सकती थी।

कार्य पद्धतियाँ

स्वराजवादियों की नीतियों की विशेषता सुधारों को अंदर से तोड़ने की कटिबद्धता में निहित थी। एक समय पंजाब के उपराज्यपाल के रूप में कार्यरत माइकल ओ डायर (Michael Odyer) ने लिखा था कि खुले विद्रोह की तुलना में अप्रकट ध्वंसकारी शक्तियों से निपटना कहीं अधिक कठिन है। सरकार के सभी कानूनों में अवरोध डालने की नीति के पीछे परिषदों की प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाना था जिन्होंने राष्ट्रीय स्वाभिमान का गला घोंट दिया था। 1926 में पार्टी द्वारा किए गए सदन त्याग के समय मोतीलाल नेहरू ने कहा, “हमारी समझ में अब हमारे लिए इन पाखण्डी संस्थानों का कोई फायदा नहीं रहा और देश की गरिमा और स्वाभिमान को बनाये रखने में हम कम से कम इतना तो कर ही सकते हैं कि इन संस्थाओं का बहिष्कार करें’।

हम उन्हीं साधनों का अनुमोदन करेंगे जो किसी सरकार को किसी राष्ट्र द्वारा उठायी गयी माँगों को मानने पर मजबूर करें। स्वराजवादी असहयोग आंदोलन को नौकरशाही तंत्र की जड़ों तक ले गये। उन्होंने परिषदों में अवरोध प्रस्तत किया, प्रदेशों में द्वैध शासन को व्यवधान पद्धति द्वारा निष्क्रिय कर दिया। स्वराजवादियों की दृष्टि में इस अवरोध का अर्थ विदेशी सरकार द्वारा स्वराज के रास्ते में उत्पन्न किए गए अवरोध का प्रतिकार था। 1925 में बंगाल विधान मंडल में अपने भाषण में चितरंजन दास ने कहाः

“हम उस व्यवस्था को ध्वस्त करना तथा उससे छुटकारा पाना चाहते हैं जिसने न तो कोई अच्छा कार्य किया है न ही कर सकती है। हम इसे इसलिए ध्वस्त करना चाहते हैं क्योंकि हम ऐसी व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं जिसे सफलतापूर्वक लागू किया जा सके और जो जनमानस की भलाई करने में हमारी सहायक हो।’

स्वराजवादियों की पद्धति का ध्वंसात्मक पक्ष बजट के मतदायी पक्षों एवं नौकरशाही द्वारा लाए जाने वाले प्रस्तावों को अस्वीकार करने पर बल देता था। वहीं दूसरी ओर रचनात्मक कार्य पक्ष के तहत स्वराजवादी स्वस्थ राष्ट्रीय जीवन को प्रोत्साहन देने तथा नौकरशाही के विस्थापन को तेज करने के प्रस्तावों को आगे बढ़ाते थे।

स्वराज पार्टी की आम परिषद ने विधान मंडलों में अपने सदस्यों की गतिविधियों से संबंधित विशिष्ट नियम तैयार किए थे। सदस्य सरकारी नामजदगी द्वारा किसी कमेटी के सदस्य नहीं हो सकते थे परिषदों के अंदर कार्य पद्धति की व्याख्या चितरंजन दास ने इस प्रकार की थी :

‘मैं चाहता हूँ कि आप परिषदों में पहँचे, बहमत प्राप्त करें और राष्ट्रीय मांगों को आगे बढ़ाएँ। यदि ऐसा स्वीकार नही किया तो मैं सरकार के हर कदम का विरोध करूँगा-भले ही वे अच्छे हों अथवा बरे या उदासीन और परिषदों के कार्य को अंसभव बना दूंगा।”

उन्होंने आगे कहा :

“यदि सरकार ने अपना कार्य प्रमाणीकरण के द्वारा किया तो स्वराजवादी इसे राजनैतिक मुद्दा बनाते हुए इस्तीफा दे देंगे। पुनर्निर्वाचन के बाद सभी सरकारी कार्यों में अवरोध डालने का कार्य फिर शरू करेंगे और यदि इसके बावजूद भी सरकार नहीं मानी तो मतदाताओं को यह सझाव दिया जाएगा कि वे करों का भगतान करना बंद कर दें और ‘सविनय अवज्ञा” आरंभ कर दें।”

इस प्रकार नौकरशाही की करता के विरुद्ध सविनय अवज्ञा अंतिम संभव कदम था।

स्वराजवादी एवं चुनाव

1919 के अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत क्रमशः 1920, 1923 और 1926 में कल त. चुनाव हुए। असहयोग आंदोलन के कारण कांग्रेस ने 1920 के चुनावों का बहिष्कार किया था और उदारवादियों तथा अन्य के समक्ष कांग्रेस की अनपस्थिति में चनाव क्षेत्र अपेक्षाकत आसान था। 1923 में हुए चुनावों के समय तक असहयोग आंदोलन की शक्ति क्षीण हो चुकी थी और परिषदों में प्रवेश के प्रश्न पर कांग्रेस में फट स्पष्ट हो चकी थी। चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू ने स्वराज पार्टी के झंडे तले परिषदों में प्रवेश के प्रोग्राम के साथ चुनावों में हिस्सा लिया।

चुनावों में उदारवादी अकेले ही स्वराजवादियों के समक्ष सशक्त विपक्ष के रूप में सामने आए। स्वतंत्र उम्मीदवार भी चनाव मैदान में थे जिनका स्थानीय महत्व तो था लेकिन उनके पास कोई राजनैतिक दिशा अथवा प्रतिष्ठा नहीं थी। उदारवादियों का पक्ष इसलिए कमजोर पड़हा था क्योंकि वे पार्षदीय सत्र में पहले से मौजद थे। इन्हें नगण्य तथा महत्वहीन मट्टों पर भी सरकार द्वारा महत्व नहीं दिया गया। विदेशी सरकार के साथ काम करने का कलंक उन पर लग चुका था। वहीं दूसरी ओर असहयोग आंदोलन के दौरान जेल जाने के कारण स्वराजवादियों को शहीद माना जा रहा था। उदारवादियों के पास मतदाताओं के समक्ष जाने के लिए ठोस उपलब्धियाँ भी नहीं थी जबकि स्वराजवादी “गांधी के साथी’ और स्वराज्य के लिए कटिबद्ध समझे जा रहे थे। अब वे स्वराज की लड़ाई लड़ने के लिए परिषदों में जा रहे थे क्योंकि यह लड़ाई परिषदों के बाहर असफल परिणामों के साथ खत्म हुई थी। सरकार के साथ खले टकराव की उनकी नीति मतदाताओं पर व्यापक प्रभाव डाल रही थी।

1923 के चुनावों में स्वराजवादियों की सफलता प्रभावशाली तो थी लेकिन उसे किसी भी रूप में उत्कृष्ट नहीं कहा जा सकता था। केवल मध्य प्रान्त (सेंट्रल प्रोविंसेज) की इसका अपवाद था।

केंद्रीय प्रांत, बंबई एवं बंगाल परिषदों में स्वराज पार्टी अकेली सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आयी। जबकि उत्तर प्रदेश विधान परिषद् में भी उसकी संख्या महत्वहीन नहीं थी। स्वराजवादी उदारवादियों के विरुद्ध तो सफल रहे लेकिन स्वतंत्र उम्मीदवारों के विरुद्ध उन्हें बहुत अधिक सफलता नहीं मिली जो कि अपने स्थानीय प्रभावों के कारण काफी सफल रहे। चुनावों में स्वराजवादियों की सफलता के कारण कांग्रेस में उनकी स्थिति परिवर्तन विरोधियों की तुलना में काफी मजबूत हो गयी। परिणामस्वरूप स्वराजवादी कांग्रेस के संसदीय दल के रूप में जाने लगे।

अधिकतर निर्वाचित सदस्य वकील एवं व्यापारी थे। तालिका (2) में निर्वाचित सदस्यों को व्यवसाय के आधार पर श्रेणीबद्ध किया गया है । इस तालिका से निर्वाचित सदस्यों के वर्ग का पता चल सकेगा।

1926 के चुनाव में स्वराजवादियों को बहुत बड़ा धक्का लगा। केवल मद्रास को छोड़कर जहाँ उन्हें कुछ सफलता मिली, विधान परिषदों में स्वराजवादियों की संख्या में काफी कमी आयी। हर जगह उन्हें काफी बड़ा नुकसान पहुँचा। उत्तर प्रदेश, केंद्रीय प्रांत और पंजाब परिषदों में उन्हें केवल एक सीट प्राप्त हुई। उत्तर प्रदेश में उनकी संख्या 31 से घटकर 19 तक रह गयी। केंद्रीय विधान मंडल में भी ऐसा ही अनुभव रहा और उनकी संख्या 42 से 35 हो गयी।

दरअसल 1926 के आम चनाव तक स्वराजवादियों का प्रभाव काफी कम हो गया था। 1925 में चितरंजन दास की आकस्मिक मृत्य के कारण स्वराजवादियों की शक्ति क्षीण होने लगी थी और साथ ही उनमें संगठनात्मक फट भी पनपने लगी दी। आपसी झगड़ों एवं अविश्वास की भावना उनकी प्रतिष्ठा को भी आघात पहुँचा रही थी। कुछ ऐसे स्वराजबादी जिन्हें चुनाव में पार्टी ने टिकट नहीं दिया, स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतर गए। लोगों में उनके प्रति यह आम राय बन गई थी कि वे अबसरबादी एवं स्वार्थी राजनीतिज्ञ है।। स्वाराजवादियों की अवरोध नीति भी उन्हें एक सूत्र में बांधे नहीं रख सकी और एक हिस्से द्वारा अनुक्रियाशील रुख अपनाने के कारण पार्टी की शक्ति में और कमी आयी और उक्त हिस्सा “अनुक्रियाशील स्वराजबादी” के रूप में उभरा।

हिन्दू-मुस्लिम तनाब तथा दोनों ही समुदायों के प्रतिक्रियावादी तत्वों की पार्टी में मौजूदगी, जो कि स्वयं को प्रत्यक्ष रूप में धर्मनिरपेक्ष सिद्ध करना चाहते थे, पार्टी के समक्ष कठिन चनौती पेश कर रही थी। हिन्दओं का मानना था कि कांग्रेस के हाथ में उनके हितों का भविष्य अंधकारमय है। हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं ने भी स्वराजवादियों की प्रतिष्ठा को धक्का पहुँचाया। कांग्रेस के साथ मुसलमानों के बिलगाव की जड़ें इतनी गहरी हो गयी कि मुसलमानों ने स्वाराजवादियों के रूप में चुनाव लड़ने के बजाए मुस्लिम उम्मीदवारों के रूप में चुनाव लड़े।

विधान मंडल एवं परिषदों में कार्य

विधान मंडल में मोतीलाल नेहरू स्वराजवादियों के शक्तिशाली दल का नेतृत्व कर रहे थे, चूंकि स्वराजबादी बहुमत में नहीं थे इसलिए यह आवश्यक हो गया था कि अबरोध की नीति के प्रभावपूर्ण क्रियान्वयन के लिए अन्य दलों का समर्थन प्राप्त किया जाय। 1924 में फरवरी के शुरू में सत्तर सदस्यों के साथ एक गठबंधन तैयार किया गया जिसने एकमत से यह स्वीकारा कि यदि सरकार तुरंत संवैधानिक प्रगति से संबंधित प्रस्तावों पर समुचित प्रतिक्रया नहीं दिखाती है तो अबरोध की नीति का सहारा लिया जाएगा। यह गठबंधन राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में जाना गया कित इस गठबंधन के सभी सदस्य स्वराजबादियों के मामल परिवर्तन से सहमत नहीं थे। यह गठबंधन 1924 में विधान मण्डल की प्रक्रिया का नियंत्रण अपने हाथ में लिए रहा।

इसने बजट की प्रथम चार मांगों को अस्वीकार कर दिया और विधान मण्डल में वित्त विधेयक लाए जाने की अनुमति नहीं दी। रांगाचटियार ने कासिल में गर्वनर जनरल से भारत की प्रादेशिक स्वायत्तता एवं संप्रभुता की प्राप्ति हेतु 1919 के अधिनियम संशोधन की मांग करते हुए एक प्रस्ताव पेश किया। पूर्ण उत्तरदायी सरकार की योजना की सिफारिश हेतु मोतीलाल नेहरू ने गोलमेज कान्फ्रेंस के समर्थन में एक संशोधन पेश किया। यह संशोधन विधान मण्डल में बहुमत से पास हुआ। संशोधन का प्रारूप निम्न था।

“यह परिषद् गर्वनर जनरल के समक्ष यह सिफारिश करती है कि वे पूर्ण उत्तरदायी भारतीय सरकार की स्थापना एवं निम्नलिखित उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार अधिनियम में संशोधन करें।

  • महत्वपूर्ण अल्पसंख्यकों के अधिकारों एवं हितों की रक्षा तथा, भारत के लिए संविधान की सिफारिश को ध्यान में रखते हुए शीघ्रातिशीष प्रतिनिधियों को गोलमेज कान्फ्रेंस के लिए आमंत्रित किया जाए, तथा
  • केंद्रीय विधानमंडल भंग करके उक्त योजना को नवनिवाचित भारतीय विधान मण्डल के समक्ष रखा जाए तदोपरांत उसे बर्तानवी संसद के कानून में शामिल करने के लिए पेश किया जाए।

सर अलेक्जेंडर मडीमैन (Sir Alexandar Muddiman) गृह सदस्य की अध्यक्षता में भारत सरकार एक आयोग बिछने पर मजबूर हो गयी। इस आयोग को 1919 के ऐक्ट की कमजोरियों एवं उनके निदान की जांच पड़ताल करने को कहा गया। आयोग ने, जिसमें तेज बहादुर सण, एम. ए. जिन्ना, आर. पी. पारांजपे, सर शिवस्वामी अय्यर, मोतीलाल नेहरू जैसे लोग शामिल थे, स्वराजवादियों के चले आ रहे सिद्धान्तों के मताबिक आयोग की मदद करने के सरकारी निवेदन को ठुकरा दिया।

स्वराजवादियों ने वाइसराय के साथ भेंट के सारे निमंत्रणों को भारतीय समस्याओं के समाधान न होने के विरोध में अस्वीकार कर दिया। जब विस्काउंट की अध्यक्षता में गठित किये गये ली आयोग की जन सेवाओं की स्थिति और उनके गठन की जांच पड़ताल से संबंधित रिपोर्ट विधान मंडल में स्वीकृति के लिए रखी गयी तो नेहरू ने उसमें एक संशोधन जोड़ा जो बहमत से पास हआ। इस अवसर पर मोतीलाल नेहरू ने सेवाओं के निवर्तमान संविधान की भर्त्सना करते हुए कहा कि सरकार भष्ट प्रशासन की बुनियाद पर संविधान में सुधार लाने का असंभव प्रयास कर रही है। 1924-25 में विधान मंडल में स्वराजवादियों को कई सफलताएँ प्राप्त हुई उन्होंने विधानमंडल में पेश किये गये बजट को खारिज करने में सफलता प्राप्त की, जिसके कारण सरकार को अपने प्रमाणन के अधिकार पर निर्भर होना पड़ा।

विधानमंडल के अधिनियम द्वारा बंगाल अध्यादेश को भंग करने की मांग करने के लिए रखे गए सी. डी. अयांगर का प्रस्ताव 45 के मकाबले 58 मतों से पारित हुआ। बी. जी. पटेल ने 1850 के राष्ट्रीय कैदी अधिनियम (स्टेट प्रिजनर ऐक्ट), 1867 के सीमांत अत्याचार अधिनियम तथा 1921 के राष्ट्रद्रोही गोष्ठी निरोधक अधिनियम (प्रिवेंशन ऑफ सेडिंशस मीटिंग्स) भंग करने के लिए एक बिल प्रस्तुत किया। सीमांत । अत्याचार अधिनियम बिल को छोड़कर सारे बिल पास हो गये।

भारत में मिलिटरी कॉलेज की स्थापना की माँग से संबंधित प्रस्ताव पर भी सरकार को हार का सामना करना पड़ा। सधार जाँच कमेटी पर बहुमत की रिपोर्ट मंजूर कराने के सरकारी प्रस्ताव का मोतीलाल नेहरू ने विरोध करते हुए उस पर संशोधन पेश किया जो कि 45 के मुकाबले 72 मतों से मान लिया गया। इस संशोधन में स्वराजवादियों ने अपना पराना संवैधानिक मत ही सामने रखा था। संवैधानिक प्रगति के अंतर्गत भारतीय प्रतिनिधियों की गोलमेज कांफ्रेंस द्वारा तैयार की गयी योजना के तहत पूर्ण उत्तरदायी सरकार की स्थापना का प्रस्ताव था।

सुधारों को अन्दर से तोड़ने की अपनी कटिबद्धता एवं प्रयासों में स्वराजबादी प्रायः सरकारी विधेयकों तथा अन्य योजनाओं में रुकावट डालने में सफल होते रहे। इन्होंने स्थगन प्रस्ताव लाने आरंभ कर दिए तथा विदेशी सरकार के ककर्मों का पर्दाफाश करने की दृष्टि से उसके समक्ष अटपटे प्रश्न रखने आरंभ कर दिए। किंतु सधारों को तोड़ने की पद्धति सरकारी क्रियाकलापों को कभी भी रोक नहीं सकी।

स्वतंत्र विधायकों ने अपनी इस समझ के तहत स्वराजवादियों के साथ शामिल होने से इंकार कर दिया कि स्वराजवादी केवल अपने स्वार्थों के लिए अवरोध की नीति अपनाए हए थे। राष्ट्रीय पार्टी सरकार के साथ अनक्रियाशील सहयोगी की भमिका निभा रही थी एवं स्वतंत्र उम्मीदवार स्वराजवादियों को पसन्द नहीं करते थे। अपने संसदीय दिनों में स्वराजवादी सरकारी नीतियों के प्रति विरोध प्रकट करने के लिए समय-समय पर बहिष्कार करने लगे। यह सिलसिला इतना नियमपूर्वक चलने लगा कि स्वराजवादी “भ्रमणशील देशभक्त और संचलनशील देशभक्त आदि नामों से जाने, जाने लगे”

केंद्रीय सरकार एवं बंगाल में स्वराजवादियों की सफलता प्रभावशाली थी। बंगाल की यह सबसे बड़ी पार्टी थी और 19 स्वतंत्र विधायकों के समर्थन के साथ स्वराजवादी “पूर्ण अवरोध” की स्थिति पैदा करने में सफल हो सके। बंगाल के गर्वनर लार्ड लिटन ने चितरंजन दास को ‘स्थानांतरण विभागों की जिम्मेदारी स्वीकार करने के लिए आमंत्रित किया जिसे चितरंजन दास ने ठुकरा दिया और सरकार का विरोध करने के लिए एक प्रभावपूर्ण गठबंधन संगठित किया। 1924 और 1925 में दो बार मंत्रियों के वेतन अस्वीकार कर दिए गए तथा वेतन प्रत्यावर्तन के निरंतर प्रयास कोई सफलता अर्जित न कर सके। गर्वनर को मजबूर होकर स्थानांतरण विभाग स्वयं अपने और कार्यकारिणी परिषद् के बीच बाँटने पड़े। जे. एम. सेनगप्त. द्वारा रखा गया राजनैतिक कैदियों की रिहाई से संबंधित ।

प्रस्ताव 41 के मुकाबले 72 मतों से पारित हुआ। इसके उपरांत व्योमकेश चक्रवर्ती द्वारा बंगाल नियमन ऐक्ट 1818, भारतीय अपराध कानून संशोधन अधिनियम और राष्ट्रद्रोही गोष्ठी निरोधक अधिनियम आदि कानून को समाप्त करने से संबंधित प्रस्ताव रखा गया। इस प्रस्ताव के पक्ष में 63 तथा विपक्ष में 43 मत पड़े। 1925 में चितरंजन दास के मृत्यु के साथ ही स्वराजवादियों ने अपना योग्यतम नेता खो दिया और उनकी स्थिति काफी कमजोर हो गयी। फिर भी सरकार मंत्रिमंडल का गठन न कर सकी। 1926 में स्वराजवादी यह घोषणा करते हुए कि द्वैध शासन अस्तित्व में नहीं रहा, कौंसिल से बाहर आ गए।

केंद्रीय प्रांत मे स्वराजवादी दल को पूर्ण बहमत मिल गया जिसके कारण वे सरकार को अक्रियाशील स्थिति में पहुँचाने में सफल हो सके। उन्होंने मंत्रिमंडल में जाना स्वीकार नहीं किया। सरकार ने गैर स्वराजवादियों को मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया। स्वराजवादियों ने मंत्रियों से इस्तीफा दे देने का निवेदन करते हए एक प्रस्ताव रखा जो कि कौंसिल में 24 के मुकाबले 44 मतों से पारित हुआ। गवर्नर के विशेषाधिकारों के बल पर केंद्रीय प्रांतों में, सरकार चल सकी। भारतीय सांविधिक आयोग ने, यद्यपि शिकायत पूर्ण लहजे में स्वराजवादियों की सफलता को निम्नलिखित रूप में स्वीकार किया।

“केवल एक ही ऐसी पार्टी है जो कि उपयुक्त रूप से संगठित है, अनुशासित है और उसके पास एक निश्चित कार्यक्रम (जो कि वास्तविक रूप में नकारात्मक है) हैं। यह पार्टी स्वराजवादियों की पार्टी है। केवल बंगाल और केंद्रीय प्रांतों में थोड़े समय के लिए वे द्विपक्षीय शासन व्यवस्था को अक्रियाशील बनाने के अपने प्रारंभिक उद्देश्य में सफल हुए। अन्य सभी प्रांतों में थोड़े बहुत फर्क के साथ स्वराजवादी एक संवैधानिक स्वरूप में विपक्ष के रूप में कार्य करते रहे और एक सजग आलोचक के रूप में कोई लाभदायक भूमिका नहीं निभाई।” ।

स्वराजवादियों की गतिविधियों ने देश में उत्तेजना पैदा कर दी और संविधान के अंतर्गत अपनी कार्य नीति के जरिए जो कछ भी अर्जित कर सकने की संभावना थी, उन्होंने अर्जित किया। बंगाल एवं केंद्रीय प्रांतो में द्विपक्षीय सरकार के अपदस्थ होते ही जनसाधारण में उत्साह की लहर दौड़ गयी। स्वराजवादियों की गतिविधियों ने नीरस राजनैतिक माहौल में नई जान फूंक दी। अवरोध की उनकी रणनीति ने सरकार की स्थिति काफी असमंजस पूर्ण बना दी। इस समय के संसदीय द्वंद्व संसदीय राजनीति के इतिहास में काफी महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

रचनात्मक कार्य

यद्यपि सधारों को अंदर से तोडने के लिए कौंसिलों में प्रवेश स्वराजवादियों का मख्य उददेश्य था किन्तु यह एकमात्र उद्देश्य न था। उनके पास सामाजिक-आर्थिक सुधारों अथवा उन्नतकारी गतिविधियों की समझ थी, जिसे गांधी जी ने रचनात्मक कार्यक्रमों की संज्ञा दी थी। गांधी जी का मानना था कि स्वतंत्रता संग्राम के रथ के दो पहिये हैं : रचनात्मक कार्यक्रम और राजनैतिक प्रचार। उनके अनुसार रचनात्मक कार्यक्रम अठारह बिंदुओं पर आधारित था जिसमें हिन्दू-मुस्लिम एकता, अस्पृश्यता उन्मूलन, मद्य निषेध, स्वदेशी एवं बहिष्कार मुख्य थे।

स्वराजवादी इन कार्यक्रमों की उपेक्षा नहीं कर सकते थे क्योंकि वे जानते थे कि उन्हें कौंसिल छोड़कर कभी भी उन लोगो के साथ सविनय अवज्ञा में शामिल होना पड़ सकता है जो कौंसिलों में शामिल नही हुए। उनकी राजनैतिक शक्ति का श्रेय गांधी एवं कांग्रेस के साथ उनके निरंतर सहयोग को जाता था। रचनात्मक कार्य कांग्रेस के दोनों गुटों, परिवर्तन विरोधी एवं स्वराजवादियों के लिए एक सामान्य मंच के रूप में उभरा। फिर भी रचनात्मक कार्यों को क्रियान्वयन करने में परिवर्तन विरोधी दल के मुकाबले में स्वराजवादी जो कौंसिलों में . प्रवेश एवं संसदीय राजनीति में अधिक व्यस्त थे, अधिक सफलता प्राप्त न कर सके।

स्वराजवादी स्वराज की प्राप्ति के लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता तथा राजनैतिक शिक्षा को अनिवार्य शर्त मानते थे। 1926 में कांग्रेस ने सांप्रदायिक एकता तथा स्वस्थ राष्ट्रीय जीवन के प्रति जनसाधारण को शिक्षित करने के लिए एक “स्थायी प्रचार ब्यूरो’ की स्थापना की। मोतीलाल नेहरू, मौलाना आजाद तथा सरोजनी नायड़ को इस दिशा में आवश्यक कार्यनीति तैयार करने के लिए अधिकृत किया गया। कांग्रेस के गोहाटी अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू ने लोगों को उनके राजनैतिक अधिकार के प्रति शिक्षा देने तथा रचनात्मक कार्यों द्वारा इन अधिकारों की प्राप्ति के लिए आवश्यक कार्य शक्ति प्राप्त करने की दिशा में प्रयत्न करने के लिए कार्यक्रम आरंभ किए जाने पर अपनी सारी प्रभाव शक्ति लगा दी।

भारतीय राजनीति में स्वराजवादियों का उदय उसी समय हआ जब भारतीय समाज में हिन्द-मुस्लिम तनाव की जड़ें फैल रही थी। आजादी, अखण्डता तथा सांप्रदायिकता विरोधी मल्यों के समर्थकों के लिए सांप्रदायिक दंगे एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरे। अन्य दलों की भाँति ही स्वराजवादी भी इस बदतर होती परिस्थिति को सुधारने के संबंध में केवल हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रति भाषण देने के अलावा कछ रचनात्मक कार्य न कर सके। गांधीवादी रचनात्मक कार्यक्रमों में स्वदेशी की संकल्पना एक महत्वपूर्ण स्थान बना चुकी थी।

गांधी जी के विचार से स्वदेशी का अर्थ केवल चरखा और खादी नहीं था बल्कि स्वदेशी उद्योग से संबंधित सभी पक्ष इसमें शामिल थे। उनके अनुसार खादी का अर्थ था पूर्ण स्वदेशी मानसिकता तथा जीवन की सभी आवश्यकताओं को भारत के अंदर ही प्राप्त करने की कटिबद्धता जो केवल ग्रामीण जनता के श्रम एवं बुद्धि के द्वारा ही उत्पन्न हो सकती थी।

स्वयं स्वराजवादी भी स्वदेशी, चरखा एवं खादी के कार्यक्रमों का पालन करने को वचनबद्ध थे लेकिन गांधी जी तथा उनके परंपरागत समर्थकों की भाँति इन कार्यक्रमों के प्रति उनकी इतनी गहरी रुचि न थी। गांधी जी ने स्वराजवादियों पर इस बात के लिए आरोप लगाया कि वे खद्दर के प्रयोग के मामले में गंभीर न थे और केवल छिटपट रूप से ही वे इसका प्रयोग करते थे एवं उनके घरों में विदेशी वस्त्रों का प्रयोग होता था।

खादी

स्वराजवादी गांधी जी के खद्दर तथा हाथ से कताई करने के विचार से पूर्ण रूप से सहमत नहीं थे। चितरंजन दास ने चरखा एवं खादी को भारतवासियों के आर्थिक जीवन में सुधार लाने के लिए उपयोगी माना किन्तु खादी की व्यापारिक उपयोगिता पर उनकी सहमति नहीं थी। उनके विचार में खादी का विश्व बाजार में कोई महत्व नहीं था। स्वराजवादी इस बात को मानने के लिए तैयार न थे कि केवल खादी चरखा एवं स्वदेशी उद्योग भारत को स्वतंत्रता दे सकेंगे। चितरंजन दास ने कहा, “ऐसा विचार व्यक्त किया गया है कि केवल खद्दर हमारे लिए स्वराज्य लाएगा। मैं अपने देशवासियों से पूछता हूँ कि केवल खद्दर से स्वराज्य की प्राप्ति किस प्रकार संभव है? स्वराजवादी खद्दर के इस्तेमाल पर अतिरिक्त बल नहीं देते थे। किंतु साथ ही उसके प्रचारित करने का कोई अवसर भी नहीं छोड़ रहे थे। स्वराजवादियों ने अपने तमाम सदस्यों को खादी पहन कर ही केंद्रीय विधान सभा तथा प्रादेशिक परिषदों में जाने का आदेश दिया।

स्वराजवादियों ने परंपरावादी गांधीवादियों और परिवर्तन विरोधियों के खद्दर तथा हाथ से कताई करने से संबंधित उत्साह का केवल सतही तौर पर ही विरोध नहीं किया बल्कि कांग्रेस के अंदर गांधीवादियों द्वारा रखे गए इस प्रस्ताव का जमकर विरोध किया कि चरखा कातना अथवा खादी कांग्रेस की सदस्यता का आधार बने। स्वराजवादियों ने गांधी जी के इस प्रस्ताव का भी विरोध किया कि कांग्रेस के सभी निर्वाचित संगठनों के सदस्यों के लिए कताई अनिवार्य बना दी जाए। इस कठोर विरोध को देखते हुए गांधी जी ने हाथ से कताई करने से संबंधित प्रस्ताव में जमाने के प्रावधान को समाप्त करने की व्यवस्था रखी।

हाथ से कताई से संबंधित प्रस्ताव पर स्वराजवादियों के रवैये को स्पष्ट करते हुए चितरंजन दास ने कहाः

“स्वराजवादियों को कताई करने में कोई आपत्ति नहीं और वे रचनात्मक कार्यों में अपने विश्वास को लगातार स्पष्ट करते रहे हैं। किंतु स्वराजवादी किसी भी चीज को उन पर लादे जाने के कट्टर विरोधी रहे हैं और यह (कताई) असंवैधानिक रूप में उन्हें कांग्रेस की कार्यकारिणी से बाहर किए जाने का प्रयास है।”

संक्षेप मे यह कहा जा सकता है कि स्वराजवादी खद्दर के इस्तेमाल को आगे बढ़ाने के लिए सदैव तैयार रहते थे लेकिन वे उस पर अतिरिक्त बल नहीं देते थे।

अस्पृश्यता

अस्पृश्यता भारतीय समाज पर कलंक थी। असहयोग आंदोलन प्रस्ताव में हाथ से कताई एवं बुनाई करने की प्रक्रिया को पुनः व्यवहार में लाने के लिए देश में आह्वान किया गया क्योंकि इससे भारतीय समाज के लाखों बुनकर परिवारों को लाभ होता। गांधी जी के अनुसार, असहयोग आंदोलन अंग्रेजों के लिए ही नहीं बल्कि भारतीयों के लिये भी हृदय परिवर्तन का एक जरिया था। कांग्रेस के नागपुर सत्र में उन्होंने हिन्दू धर्म से अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए विशेष प्रयास किए जाने की आवश्यकता पर बल दिया। दलित वर्गों के उत्थान के लिए कांग्रेस प्रतिबद्ध रही। स्वराजवादी भी इस प्रश्न पर लगभग वही समझ रखते थे जो कि गांधी जी की थी। वे 1924 में बेलगाम कांग्रेस में अस्पृश्यता से संबंधित पारित हुए प्रस्ताव से पूरी तरह सहमत थे। उनका दृढ़ मत था कि इस अभिशाप से भार समाज को पूरी तरह छुटकारा दिलाना अत्यावश्यक है।

भारत के कुछ हिस्सों में अस्पृश्यता की अभिव्यक्ति भयावह रूप में हुई। इस दौरान । अस्पृश्यता के अभिशाप से निपटने के लिए कई प्रकार के प्रयास किए गए। उदाहरण के लिए दक्षिण भारत में वाइकोम नामक स्थान में सुधारकों ने मंदिर की ओर जाने वाले आम मार्ग को “अछूतों” द्वारा इस्तेमाल किए जाने के उनके अधिकार के लिए सत्याग्रह आरंभ किया। इस पहल को गांधी जी तथा स्वराजवादी दोनों का ही पूर्ण समर्थन मिला।

स्वराजवादियों ने वाइकोम के सत्याग्रह के समर्थन में एक प्रस्ताव पारित किया। बेलगाम कांग्रेस ने सत्याग्रहियों की मांगों को मान्यता देते हुए सरकार से तुरंत सकारात्मक प्रतिक्रिया की माँग की। सरकार को यह मानने पर मजबूर किया गया कि हिंदू रूढ़िवादिता को सरकारी सहयोग देना अनुचित है।

सत्याग्रहियों के दबाव के कारण सरकार ने मंदिर की ओर जाने वाले रास्तों से तमाम अवरोध हटा लिए हालाँकि इस प्रश्न पर जनमत में एकरूपता नहीं थी। तारकेश्वर की घटना में महंत निरंकुशता के विरुद्ध स्वराजवादियों ने काफी रुचि ली। दो धार्मिक सुधारकों, स्वामी सच्चिदानंद एवं स्वामी विश्वनाथ ने एक स्वयंसेवी दल संगठित करते हुए मंदिर को जनसंपत्ति घोषित कर दिया तथा महंत की क्रूरता के विरुद्ध सीधी कार्यवाही आरंभ की। महंत के समर्थकों एवं स्वयं सेवियों के बीच झगड़ा भी हुआ। चितरंजन दास ने इस मददे पर सरकार की भूमिका की भर्त्सना करते हए महंत की गिरफ्तारी की मांग की।

चितरंजन दास द्वारा गठित कमेटी को मंदिर सौंप देने के लिए महंत पर दबाव डाला गया। तारकेश्वर के मुद्दे पर काफी उत्तेजना बनी हुई थी। काफी गिरफ्तारियाँ भी हुई और एक अवसर पर पुलिस को गोली भी चलानी पड़ी। स्वराजवादियों को अंततः अपनी शर्तों पर महंत के साथ एक समझौता करने में सफलता प्राप्त हुई। इस पूरी घटना से मंदिरों में पूजा से सम्बन्धित भेदभाव के विरुद्ध स्वराजबादियों की कटिबद्धता उभर कर सामने आयी। उन्होंने निचले वर्गों के लिए मंदिरों में प्रवेश पर अपना समर्थन जारी रखा। अंतर्जातीय भेदभाव समाप्त करने की दृष्टि से उन्होंने एक अंतर्जातीय भोज का भी आयोजन किया।

स्वराजबादी विधानसभा तथा प्रांतीय परिषदों में निचले वर्गों के अधिकारों के समर्थन में आवाज़ उठाने का कोई भी अवसर नहीं गंवाते थे। उनके द्वारा की गई। अस्पृश्यता विरोधी गतिविधियों ने सामाजिक जागरूकता तो पैदा की किन्त शताब्दियों से चली आ रही इस कुरीति को दूर करने के लिए और अधिक प्रयास आवश्यक थे।

सामाजिक समस्याएँ

शराब एवं अन्य नशीले पदार्थों के सेवन की बुराइयों की ओर भी कांग्रेस का ध्यान गया। कांग्रेस ने इस बुराई को दूर करने की आवश्यकता पर बल दिया तथा नशाबन्दी में अपना विश्वास दर्शाया। नशीले पदार्थों का सेवन अंग्रेजी राज्य के पहले से चला आ रहा था। अंग्रेजों ने नशीले पदार्थों को अपनी आय का साधन बना लिया था तथा सरकार के लिए आय की कमी के डर से नशाबंदी लागू करने के लिए वे तैयार न थे। राष्ट्रवादियों के समक्ष स्थिति स्पष्ट थी कि विदेशी सरकार की रुचि पैसा बनाने में है न कि सामाजिक कल्याण में।

देशभक्त नागरिक के रूप में यह उनका दायित्व बनता था कि वे सामाजिक उत्थान के लिए कार्य करें। अतः स्वराजवादियों ने अपने कार्यक्रम में नशाबंदी लाग करना भी शामिल कर लिया। राष्ट्रवादी यह भलीभाँति समझ रहे थे कि सरकार की वे नीतियाँ जो कि लोगों में शराब पीने तथा अन्य नशीले पदार्थों के सेवन की आदत को आय का साधन बना रही है, वे जनता की भलाई तथा राष्ट्रीय स्वास्थ्य के प्रति हानिकारक है। अतः वे इसे समाप्त करने के पक्षधर बने रहे।

1922 से लेकर 1929 तक कांग्रेस ने, जिसका स्वराजवादी अभिन्न अंग थे, रचनात्मक कार्यक्रमों को काफी महत्व दिया। महात्मा गांधी ने इसे जीवन के उद्देश्य का रूप दे दिया। उनके अनुसार वास्तविक आज़ादी रचनात्मक कार्यों से ही मिल सकती थी। स्वराजवादी रचनात्मक कार्यों को समर्थन देते रहे किन्त रचनात्मक कार्यों में गांधी की पूर्ण आस्था और आदर्शवादिता से सहमत नहीं थे। किन्तु रचनात्मक कार्यों से कांग्रेस को अपेक्षित सफलता न मिल सकी। फिर भी कांग्रेस के अनयायी सीमित रूप में ही सही, इस दिशा में कछ सफलता जरूर अर्जित कर सके।

हतोत्साहन और पतन

स्वराजवादियों में 1924 का उत्साह समाप्त हो चला था और 1925-27 के वर्षों में हतोत्साहन और अन्ततः पतन की प्रक्रिया शरू हो चली थी। विधानमंडल और विधान परिषदों में स्वराजवादी सतत, निरंतर और एकरूपी अवरोध की नीति को आगे बढ़ाने में विफल रहे। स्वराजवादियों की नीति 1919 के संविधान के खोखलेपन का पर्दाफाश करने के उद्देश्य में सफल रही किन्तु वे उसे सधारने अथवा समाप्त करने में विफल रहे। स्वराजवादियों के एक बड़े हिस्से ने यह महसूस करना शुरू कर दिया था कि सरकार की सभी नीतियों का ध्वंसात्मक विरोध सामाजिक रूप से लाभदायक सभी नीतियों को समाप्त कर देगा। अनुक्रियाशील सहयोग की भावना निरंतर मजबूत होती जा रही थी। यहाँ तक कि चितरंजन दास भी सहयोग में रुचि दिखाने लगे थे।

2 मई, 1925 को फरीदपुर में बंगाल की प्रांतीय सभा की अध्यक्षता करते हए उन्होंने बर्तानवी सरकार से एक उपयक्त समझौता करने की अपील की। उन्होंने कहा कि सरकार के साथ सहयोग की संभावना इस रूप में बन सकती है कि कुछ वास्तविक जिम्मेदारियाँ जनता को हस्तांतरित कर दी जाएं। उन्होंने सभी राजनैतिक कैदियों के लिए आम माफी दिए जाने का आह्वान किया और हृदय परिवर्तन को व्यवहार में प्रदर्शित किए जाने पर बल दिया। उन्होंने सरकार को विश्वास दिलाया कि स्वराजवादी क्रांतिकारी प्रचार को निरुत्साहित करने के सभी प्रयास करेंगे।

सहयोग की ओर

फरीदपुर घोषणा ने सरकार के साथ सहयोग की ओर जाने वाली बहाव प्रक्रिया को और तेज कर दिया। लार्ड बर्केनहेड ने 7 जुलाई 1925 के अपने भाषण में स्वराज पार्टी को “भारत की सबसे संगठित राजनैतिक पार्टी” के रूप में व्याख्यायित किया। यह वाक्य संभवतः स्वराजवादियों को काफी प्रभावित कर गया और वे मात्र अवरोधक राजनीति से परे हटाने की दिशा में बढ़ने की सोच सके। वास्तव में काफी संख्या में स्वराजवादी असहयोग की नीति से सहमत नहीं थे। परिषदों में प्रवेश कर लेने के बाद वे इसके लाभों से हाथ नहीं धोना चाहते थे। स्वराजवादी नेताओं ने पदों पर आसीन होना स्वीकार किया और विभिन्न समितियों में भी रहे। मोतीलाल नेहरू जिन्होंने कुछ समय पूर्व मडीमैन समिति में पदासीन होना अस्वीकार कर दिया था, अब स्कीन समिति में जाने पर सहमत हो गये।

विट्ठलभाई पटेल विधानमंडल के अध्यक्ष बने। रामास्वामी अयंगर ने पब्लिक एकाउंट्स कमेटी का नेतृत्व संभाला तथा सर बसिल ब्लैकेट ने विधानमंडल में मोतीलाल नेहरू के सहयोग की प्रशंसा की। उन्होंने पूछा, “इस्पात सुरक्षा बिल पारित करने, पिछले वर्ष का बजट पास करने एवं रेलवे वित्त को अलग करने के पीछे पंडित जी के सहयोग के अतिरिक्त और क्या उद्देश्य है, इस सदन की अध्यक्षता करते हए पटेल और क्या कर रहे हैं। उन्होंने पब्लिक एकांउट्स कमेटी में अयंगर की सेवाओं की भी प्रशंसा की।

सरकार स्वराजवादियों के साथ इस प्रकार की नीति अपनाकर उनसे सहयोग लेने में सफल रही। केंद्रीय प्रांतों में सरकार दो स्वराजवादी नेताओं, ताम्बे एवं राघवेंद्र राव को अपने पक्ष में लाने में सफल रही, इससे न केवल प्रांत में पार्टी का दो भागों में विभाजन हो गया, जिसमें एक भाग अनक्रियाशील तथा दूसरा भाग असहयोगियों का रहा, बल्कि समग्र पार्टी में भी विभाजन हो गया। एक अन्य स्वराजवादी ने ताम्बे द्वारा गवर्नर की कार्यकारिणी परिषद् की सदस्यता स्वीकार करने को उचित ठहराया। उनका प्रश्न था, “ताम्बे का यह कदम वी.जे. पटेल की गतिविधि से किस प्रकार भिन्न है ? अनुक्रियाशील पक्ष ने पार्टी के कार्यक्रम पर पनर्विचार की माँग को खलेआम उठाया। मोतीलाल नेहरू के कठोर अनशासन की नीति और इस कथन ने कि “स्वराज पार्टी के बीमार हाथ को काट दिया जाना चाहिए” अनुक्रियाशील दल को इस हद तक धक्का पहुँचाया कि वे केंद्रीय नेतृत्व के विरुद्ध खुलेआम विद्रोह करने लगे।

1926-27 के वर्षों में कौंसिल से सम्बन्धित कार्यों में और हतोत्साहन हुआ। हिन्दुओं और मुसलमानों में दरार आ जाने के कारण स्वराज पार्टी के बिखराव की स्थिति आ गयी मदनमोहन मालवीय और लाजपत राय ने स्वतंत्र कांग्रेसियों की एक नयी पार्टी संगठित की और अपने झंडे के नीचे हिन्दओं को एकत्रित किया। उनका मानना था कि सरकार के विरोध ने हिन्दुओं के हितों को नुकसान पहुँचाया है। बम्बई के स्वराजवादियों ने खुले तौर पर अनुक्रियाशील पक्ष का समर्थन किया। अब स्वराज पार्टी के अंदर मतभेद और फूट का माहौल गर्म हो चुका था।

31 दिसंबर, 1925 को एक सामान्य कार्य नीति निर्धारण करने के लिए कलकत्ता में हुई नेताओं की एक सभा में अनेक स्वराजवादियों ने हिस्सा लिया। यह स्पष्ट हो गया कि अनक्रियाशील, स्वतंत्रतावादियों और उदारवादियों के बीच कोई बनियादी मतभेद नहीं है। अप्रैल 1926 में तेज बहादुर सपू की अध्यक्षता में हुए बम्बई सम्मेलन में स्वराजवादियों ने हिस्सा लिया। स्वराज पार्टी के अंदर संकट और गहरा हो गया तथा मोती लाल नेहरू ने दोनों पक्षों के बीच समझौता कराने का प्रयास किया जिसके अंतर्गत उन्होंने साबरमती में एक सभा बुलाई। इस सभा में अनुक्रियाशीलता के सिद्धान्त लगभग तय कर लिये गये तथा पद ग्रहण करने की कुछ शर्ते भी तय कर ली गयीं। असहयोगियों ने समझौते पर कठोर प्रहार किया। अनुक्रियाशील पक्ष ने कांग्रेस के साथ अपने सम्बन्धों को कटु बना लिया जिसके कारणं परिषदों के अंदर असहयोग की नीति तय हो गयी। साबरमती समझौता स्वराज पार्टी को एकजुट न रख सका।

द्विपक्षी शासन जो कि बंगाल और केंद्रीय प्रान्त में ध्वस्त हो चुका था, 1927 में फिर बहाल हो गया। 1927 में मंत्रियों के वेतन की माँग बंगाल में 88 के मुकाबले 94 मतों से तथा केंद्रीय प्रांत में 16 के मुकाबले 55 मतों से पारित हो गयी। 1927 में यह लगभग स्पष्ट हो गया कि संसदीय राजनीति से बुरी तरह जड़ने के कारण स्वराज पार्टी 1919 के संविधान को ध्वस्त करने के बजाय स्वयं को ही ध्वस्त कर गयी।

विलय

1927 के अन्तिम महीनों में साइमन कमीशन की घोषणा तथा लार्ड बनहेड की इस चुनौती ने कि भारतीय स्वयं ऐसा संविधान तैयार करे जो भारत के सभी वर्गों के लिए स्वीकार्य हो, देश भर में नयी राजनैतिक संभावनाएँ पैदा कर दी। साइमन कमीशन की प्रतिक्रिया ने आम बहिष्कार को जन्म दिया जबकि मोतीलाल नेहरू ने बर्केनहेड की चनौती को स्वीकार करते हुए एक संविधान तैयार किया जो कि नेहरू रिपोर्ट के नाम से जाना जाता है। स्वराजवादी और परिवर्तन विरोधी एक दूसरे के निकट आने लगे। 1928 की कलकत्ता कांग्रेस ने यह तय किया कि यदि 31 दिसंबर, 1929 तक बर्तानवी सरकार ने नेहरू रिपोर्ट स्वीकार नहीं की तो कांग्रेस पूर्ण स्वतंत्रता को अपना उद्देश्य घोषित कर देगी। बदली हुई राजनैतिक परिस्थितियों में कौंसिल में प्रवेश का महत्व समाप्त हो गया। पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए सीधे जन प्रयास के नये दौर की तैयारी के साथ ही स्वराज पार्टी का कांग्रेस के साथ विलय हो गया।

विघटन

1924 में अपनी सफलता के बाद स्वराज पार्टी का हतोत्साहन और पतन मुख्यतः विस्तृत वैचारिक आधार की अनुपस्थिति के कारण हुआ। राष्ट्रवादी पार्टी की एकता अधिक दिन न चल सकी। सहयोग के पूर्व शर्त के रूप में तात्कालिक संवैधानिक प्रगति का स्वीकार किया जाना विपरीत मत और स्वतंत्र विचारों के लोगों को एक साथ रखने की दृष्टि से एक बहुत सीमित उद्देश्य था। राष्ट्रवादी पार्टी के गैर स्वराजवादी घटकों ने यह महसस किया कि स्वराजवादियों ने उनकी कीमत पर अपने हितों को बढ़ावा दिया है। इस मत के कारण राष्ट्रवादी पार्टी में फूट पैदा हुई और अन्ततः पार्टी टूट गयी। जिन्ना ने राष्ट्रीय गठजोड़ से अलग होकर स्वतंत्र पार्टी के नाम से एक नई पार्टी का गठन किया। 1926 के चुनावों से पूर्व राष्ट्रवादी पार्टी तीन स्पष्ट दलों में बँट गयी।

  • स्वराजवादी अथवा कांग्रेस पार्टी।
  • अनुक्रियाशील सहयोगी जिसमें कि हिन्दू महासभा और स्वतंत्र कांग्रेसी भी शामिल थे।इन लोगों ने लाजपत राय और मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में राष्ट्रवादी पार्टी का गठन किया।
  • जिन्ना के नेतृत्व वाली स्वतंत्र पार्टी। इसके बावजूद उनके राजनैतिक तथा मतदान के व्यवहार में विशेष अंतर नहीं आया।

पतन के कारण

यद्यपि स्वराजवादी कौंसिलों में जाने के अपने कार्यक्रम की पष्ठभमि में 1923 में काफी संभावनापूर्ण लगे और ऐसा लगा कि वे भारतीय राजनीति की दिशा बदल देंगे लेकिन वे बहुत जल्द ही पतन की और बढ़ते नजर आए और निश्चित रूप से 1929 तक उनका सारा प्रभाव समाप्त हो चुका था। इस पतन के कारण क्या थे? क्या पतन राजनैतिक परिस्थिति में निहित था अथवा ऐसा इनकी अपनी गलतियों के कारण हआ? अथवा ऐसा परिषदों में प्रवेश के कार्यक्रम की सीमाओं के कारण हुआ? इसके पूर्व आपने स्वराजवादियों के बिखराव के विषय में पढ़ा है, आइए अब इसके कछ कारणों पर चर्चा करें।

सांप्रदायिकता का उत्थान

देश में बढ़ती हुई सांप्रदायिकता घटनाचक्र का केंद्र बिंदु बन गयी। राजनीति के सांप्रदायिक रूप लेने के कारण स्वराजवादियों एवं हिन्दसभा के बीच का वैचारिक मतभेद कम हो गया। चूँकि स्वराजवादियों ने कांग्रेस पर आधिपत्य जमा रखा था इसलिए कांग्रेस की एक धर्मनिरपेक्ष संगठन के रूप में बनी छवि धूमिल हो चली थी। कांग्रेस से मुसलमानों के अलगाव ने निश्चित रूप से कांग्रेस को कमजोर बनाया। भतपर्व मसलमान स्वराजवादी मुसलमान उम्मीदवार के रूप में चुनाव भी लड़े। धर्म से भावनात्मक जुड़ाव धर्मनिरपेक्षता की कीमत पर मजबूत हुआ। दरअसल अधिकतर स्वराजवादी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवादिता के प्रति उतने चिंतित न थे जितने कि छोटे-छोटे लाभों के प्रति इसके परिणामस्वरूपं उन्होंने जनसेवाओं एवं विधान परिषदीय चुनावों में मुसलमानों के साथ सीटों के लिए गठजोड़ बनाए। जन आंदोलन का समाजवादी आधार ही भारत में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद का पुनर्निर्माण कर सकता था।

पदों की लालसा

स्वराजवादियों के पतन का अन्य कारण पदों की लालसा था। नौकरशाही के कठोर विरोध के घोषित उद्देश्य के आधार पर परिषदों में प्रवेश के साथ उनकी गतिविधियों की जोरदार शुरुआत हुई। शीघ्र ही विरोध की जगह सहयोग ने ले ली। वी.जे. पटेल विधानमण्डल के अध्यक्ष बन गए और मोतीलाल नेहरू ने स्कीन कमीशन की सदस्यता स्वीकार कर ली। निराधार अवरोध की नीति का प्रभाव धूमिल हो गया और पार्टी बिखराव की ओर बढ़ने लगी। पार्टी के अंदर मतभेद पैदा होने लगे तथा खुले विद्रोहों ने इसे और भी बुरी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया।

वर्ग-चरित्र

स्वराजवादी कांग्रेस के अंदर उच्च मध्यवर्गीय तत्वों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे जो सीधे जन आंदोलन का हमेशा ही विरोध करते रहे। उन्होंने राष्ट्रवादी संघर्ष में, संघर्ष को क्रांतिकारी जन आंदोलन न बनने देने के उद्देश्य से हिस्सा लिया था। वे असहयोग आंदोलन की धारा में स्वेच्छा के बजाए मजबूरी के कारण आए थे। आंदोलन की असफलता के साथ ही वे संसदीय राजनीति में आए और संवैधानिक विरोध निभाते हए ही काफी संतष्ट नजर आए। स्वराजी कम्युनिस्टों को छोड़कर देश के अंदर निवर्तमान सभी राजनैतिक पार्टियों एवं समूहों की तुलना में कहीं अधिक प्रगतिशील थे।

सारांश

स्वराज पार्टी का गठन कांग्रेस के उन उच्च मध्यवर्गीय बद्धिजीवियों द्वारा किया गया था जो महात्मा गांधी की सीधी जन कार्यवाही में विश्वास नहीं रखते थे। असहयोग आंदोलन के पतन के साथ ही स्वराजवादी परिवर्तन विरोधियों जो बहिष्कार तथा रचनात्मक कार्यों के समर्थक थे के जबरदस्त विरोध के बावजद, परिषदों में प्रवेश का नारा देने लगे। 1923 के चुनावों में स्वराजवादियों की सफलता ने उन्हें राजनैतिक रूप में काफी मजबूत बना दिया और इसे देखते हुए स्वयं गांधी जी को अपनी इच्छाओं के विरुद्ध उन्हें कांग्रेस के संसदीय दल के रूप में मान्यता देनी पड़ी। इसके बदले में स्वराजवादियों ने रचनात्मक कार्यों (खादी का प्रचार, अस्पृश्यता समाप्त करने, मद्यपान निषेध तथा हिन्द-मुस्लिम एकता) में विश्वास दर्शाने तथा उन्हें क्रियान्वित करने के प्रयास करने की इच्छा व्यक्त की किंतु रचनात्मक कार्यों में उनकी न तो वैसी श्रद्धा थी और न वैसा आदर्श जो परिवर्तन विरोधियों में था।

बंगाल एवं केंद्रीय प्रांत कौंसिल तथा विधान मंडल में स्वराजवादी थोड़े समय के लिए रुकावट डालने में सफल रहे जिसके कारण सरकार को अपने विशेषाधिकार पर निर्भर होना पड़ा। बंगाल और केंद्रीय प्रांत में उन्होंने द्विपक्षीय शासन को मरणासन्न स्थिति में ला दिया। परिषदों में उन्होंने इस उद्देश्य से प्रवेश किया था कि या तो स्वराज्य के हित में उन्हें परिवर्तित करेंगे अथवा उन्हें सर्वथा समाप्त कर देंगे। न तो वे ऐसा कर सके और न हीं औपनिवेशिक शासन के अंतर्गत इसकी संभावना थी। वे बर्तानवी उपनिवेशवादियों को उनकी साम्राज्यवादी नीति के क्रियान्वयन से भी न रोक सके।

यद्यपि उनके भाषण तथा कार्यनीति के कारण साम्राज्यवादी नीतियों का खोखलापन एवं जनतंत्र की खोखली बर्तानवी नीति का कछ हद तक पर्दाफाश हो सका। शीघ्र ही स्वराज पार्टी में अधिकारियों के साथ समझौते के अपने झुकाव की प्रवृत्तियों के कारण दरार पड़ने लगी। चितरंजन दास के फरीदपुर के भाषण के साथ ही सहयोग की ओर झुकाव आरम्भ हो गया। शीघ्र ही पार्टी अनुक्रियाशील स्वराजवादियों तथा असहयोगियों के दो गुटों में बँट गयी जिसमें से अनुक्रियाशील सहयोगियों ने पद भी स्वीकार किए।

पार्टी के अंदर हतोत्साहन एवं पतन का दौर शुरू हो गया। 1926 के विधान परिषदीय चुनावों में पार्टी ने कई सीटें खो दी और उसकी स्थिति काफी कमज़ोर पड़ गयी। इसके पतन के कई कारण थे। पार्टी का कार्यक्रम विरोधाभासों से ग्रस्त था तथा इसके पीछे कोई स्वस्थ वैचारिक आधार न था। स्वराजवादी जमींदार, किसान, पूँजीपति और मजदूर एकता की दहाई दे रहे थे जिनके हित आपस में टकरा रहे थे। हिन्दू-मुस्लिम तनाव ने दोनों ही समुदायों को पार्टी से दूर ला खड़ा किया। पदों की लालसा ने पतन की प्रक्रिया को और तेज कर दिया।

पार्टी राजनीति, परिषदों में कार्य तथा रचनात्मक कार्यों के प्रति अनमने सहयोग के इसके पूर्वाग्रहों के कारण स्वराज पार्टी तथा जनमानस के बीच एक लम्बी खाई खड़ी हो गयी। साइमन कमीशन की घोषणा, और उसके बाद हुए राजनैतिक उतार चढ़ाव के परिणामस्वरूप पार्टी का कांग्रेस में विलय हो गया। कांग्रेस असहयोग तथा सविनय अवज्ञा के नीति के पालन के प्रति कटिबद्ध थी और स्वराज पार्टी के साथ जुड़े सारे कार्यक्रम रद्द कर दिए गए। तथापि स्वराज पार्टी ने 1922-29 के दौरान शष्क राजनीतिक माहौल में गर्मी पैदा कर दी और इस दौर की राजनैतिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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