दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी का संघर्ष

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान उसकी विचारधारा, दिशा और स्वरूप को परिवर्तित करने में महात्मा गांधी ने अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय राजनीति में उनके आगमन के उपरांत संघर्ष का एक नया दौर प्रारंभ हुआ। अंग्रेजों के विरुद्ध जनता को लामबंद करना अब इस संघर्ष का आधार बना। इस समय से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक गांधी जी  राष्ट्रीय आंदोलन पर छाये रहे।

इस इकाई के अंतर्गत हम आपको दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी द्वारा छेड़े गये संघर्ष से अवगत कराएंगे। यह एक ऐसा काल है जिसे गांधी जी की धारणाओं की प्रारंभिक अवस्था का काल कहा जा सकता है- एक ऐसी अवस्था जिसमें गांधी जी भारत के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ को समझने का प्रयास कर रहे थे। इस युग में ही गांधी जी ने संघर्ष के नये तरीकों का प्रयोग किया।

दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी का संघर्ष

मोहनदास करमचंद गांधी, जो कि महात्मा गांधी के नाम से लोकप्रिय हुए, का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 के दिन पोरबंदर (काठियावाड़, गुजरात) में एक परंपरागत हिन्दू परिवार में हुआ था। 1881 में शिक्षा ग्रहण करने के लिए गांधी जी इंग्लैंड गये, उन्होंने लंदन में मैट्रीक्यूलेशन पास किया और वकील बनने की योग्यता प्राप्त की। 1891 में यह युवा वकील भारत लौटा और बंबई के उच्च न्यायालय में वकालत प्रारंभ की। एक वकील के रूप में जब उसे सफलता नहीं मिली तो उसने राजकोट जाकर अर्जी लिखने का कार्य प्रारंभ किया जिससे कि उसे लगभग 300 रुपये महीने की आमदनी होती थी।

1893 में गाँधी जी डरबन गये। यह यात्रा उन्होंने भारतीय फ़र्म दादा अबदुल्ला एण्ड कंपनी के मुकदमें के संदर्भ में की थी। यह कंपनी दक्षिण अफ्रीका में व्यापाररत थी। यद्यपि गांधी जी केवल एक वर्ष के लिए वहाँ पर गये किन्तु वे 1914 तक (इस बीच वे दो बार भारत भी आये) वहाँ रहे! दक्षिण अफ्रीका में गाँधी जी ने रंग भेद के खिलाफ संघर्ष किया। वास्तव में वहाँ की सरकार की रंग भेद नीति के कारण भारतीय समुदाय को कोई भी ऐसा मानवीय अधिकार प्राप्त नहीं था जो कि एक सभ्य जीवन जीने के लिए आवश्यक था।

भारतीयों की स्थिति

उन दिनों लगभग दो लाख भारतीय, दक्षिण अफ्रीका में रहते थे। इनमें से अधिकांश अनबंधित मज़दूर और स्वतंत्र मज़दूर थे। कुछ व्यापारी थे और कुछ उनके क्लर्क और सहायक। खेत बागान मालिक अनुबंधित मजदूरों के साथ अर्ध दासों जैसा व्यवहार करते थे। अन्य भारतीयों को रंग भेद की नीति से उत्पन्न अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था, जो कि नागरिक अधिकार, व्यापारिक और सम्पत्ति के अधिकार से संबंधित थीं। अपने दैनिक जीवन में उन्हें अनेक प्रकार के अपमानों का सामना करना पड़ता था :

  • प्रत्येक भारतीय को बिना किसी फर्क के कली कहकर पकारा जाता था,
  • भारतीयों को फुटपाथ पर चलने की अनुमति नहीं थी और रात में वे बिना परमिट के नहीं निकल सकते थे,
  • भारतीय रेलगाड़ी में प्रथम और द्वितीय श्रेणी में यात्रा भी नहीं कर सकते थे और अक्सर उन्हें रेल के डिब्बे के पायदान पर ही खड़े होकर यात्रा करने पर बाध्य किया जाता था,
  • जो होटल पूर्णतः यूरोपियों के लिए आरक्षित थे उनमें भारतीयों को जाने की अनुमति नहीं थी,
  • ट्रांसवाल में भारतीयों को रहने के लिए और व्यापार के लिए एक निश्चित क्षेत्र दिया गया था। यह क्षेत्र स्वास्थ्य की दष्टि से हानिकर थे न तो वहाँ पानी और बिजली की ही उचित व्यवस्था थी और न ही नालियों की,
  • इसके अतिरिक्त जो पहले अनुबंधित मजदूर रह चुके थे उन्हें तीन पाऊंड मतगणना का कर देना पड़ता था।

अभियान-1

रंग भेद की इस नीति का अनुभव गांधी जी को दक्षिण अफ्रीका पहुँचते ही हो गया था। डरबन के एक न्यायालय में यरोपीय न्यायाधीश ने गांधी जी को अपनी पगडी उतारने का हुक्म दिया था, परंतु गांधी जी ने ऐसा करने से इनकार कर दिया और विरोध में कमरे से बाहर चले गये। इसी प्रकार परेडोरिन जाते हुए गांधी जी को प्रथम श्रेणी में यात्रा करने की अनुमति नहीं दी गयी और उनसे वैन वाले डिब्बे में जाने को कहा गया। जब गांधी जी ने ऐसा करने से इनकार किया तो उन्हें बलपूर्वक डिब्बे से बाहर फेंक दिया गया। परंतु नैटल की सरकार ने जब एक ऐसा विधेयक प्रस्तावित किया जो कि प्रवासी भारतीयों से मताधिकार वापस ले लिए जाने का सुझाव रखता था तो गांधी जी दक्षिण अफ्रीका में संघर्ष छेड़ने के लिए तत्पर हो गये।

जब विदाई के समय गांधी जी के सम्मान में एक भोज दिया गया तो उस समय गांधी जी ने उपर्यक्त प्रस्तावित बिल को पारित किये जाने के संदर्भ में खबर पढ़ी। गांधी जी इससे उत्तेजित हो उठे और उन्होंने यह कहा कि “हमारे कफन में यह पहली कील है।” भारतीय व्यापारियों ने इस बिल के विरुद्ध गांधी जी से सहयोग माँगा। गांधी जी ने भारत लौटने के अपने इरादे को स्थगित कर दिया। वास्तव में यह विदाई समारोह, बिल के विरुद्ध संघर्ष की एक सभा के रूप में बदल गया।

संघर्ष को मज़बूत करने के लिए गांधी जी का पहला प्रयास यह था कि नैटल में रहने वाले भारतीय समदाय के विभिन्न घटकों को एकता के सत्र में बाँध सकें। इस उद्देश्य से प्रेरित हो 1893 में उन्होंने इंडियन नैटल ओरगेनाइजेशन नामक सभा की स्थापना की। इसके साथ-साथ गांधी जी का यह भी प्रयास था कि भारतीयों के कष्टों का अधिक से अधिक प्रचार किया जा सके जिससे कि उन्हें भारत और इंग्लैंड की स्त्रियों और जनता से मदद मिल सके। भारत में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस विधेयक के विरोध में एक प्रस्ताव पारित किया और इसी प्रकार इंग्लैंड में भी कुछ अखबारों और गणमान्य व्यक्तियों ने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के हितों की रक्षा के लिए किये जा रहे संघर्ष के प्रति सहानुभूति प्रकट की।

नैटल में रह रहे लगभग 400 भारतीयों ने उक्त विधेयक के विरुद्ध सरकार को अर्जी दी, परंतु नैटल की विधान सभा ने बिल पारित कर दिया और यहाँ तक कि वहाँ के राज्यपाल ने भी उस पर सहमति दे दी। गांधी जी ने लगभग 10 हज़ार भारतीयों से हस्ताक्षर करवा कर एक लंबी अर्जी इंग्लैंड के औपनिवेशिक सचिव को भेजी जिसमें यह अपील की गयी थी कि महारानी विक्टोरिया इस विधेयक को सहमति न दें।

इस प्रकार सशक्त विरोध के कारण  लंदन के औपनिवेशिक कार्यालय ने इस बिल को इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि यह अंग्रेजी साम्राज्य के एक हिस्से के बाशिदों के विरुद्ध साम्राज्य के दसरे हिस्से में भेद करता है। लेकिन इसका नैटल में रहने वाले यरोपियों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उन्होंने कुछ परिवर्तन कर बिल को पारित कर दिया। अब इस परिवर्तित बिल के अनसार किसी भी गैर यूरोपीय देशों के व्यक्ति को जिन देशों में कि अभी तक ऐसा संगठन नहीं है, जो कि संसदीय मताधिकार प्रणाली पर स्थापित हो, मतदान का अधिकार नहीं दिया जाएगा. जब तक की उसे गर्वनर जरनल से जाकर न मिल जाये। इस परिवर्तित विधेयक को मान्यता दे दी गयी

गांधी जी ने रंग भेट के विसद्ध अपना संघर्ष लेख आदि लिखकर जारी रखा क्योंकि वे जनता की सहायता प्राप्त करना चाहते थे। इससे दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले कई यूरोपीय उत्तेजित हो उठे। 1886 में जब गांधी की अपने परिवार के साथ जल पहुँचे तो उनका विरोध करने के लिये लगभग 4,000 यूरोपियों का समूह वहाँ था! कुछ लोगों ने उनपर हमला भी किया परंतु एक उच्च सैनिक अधिकारी की पत्नी द्वारा गाधी जी बचा लिये गये। यह घटना भी गांधी जी को अपना संघर्ष जारी रखने से निम्साहित नहीं कर पायी। अपनी अगली भारत यात्रा में गांधी जी ने क्वेटा में कांग्रेस के आधवेशन में हिस्सा लिया और इस अधिवेशन में उन्हान दाक्षण अफ्रीका में भारतीयों की स्थिात पर एक प्रस्ताव पास कराने में सफलता प्राप्त का।

1902 में गांधी पुनः दक्षिण अफ्रीका लौटे और 12 वर्ष तक वहाँ पर रह कर उन्होंने रंग भेद के विरुद्ध संघर्ष किया। 1903 में उन्होंने इंडियन ओपीनियन’ नामक एक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया जिसके द्वारा उनके संघर्ष का प्रचार किया जाता था। 1904 में गांधी जी अपने कुछ अनुयायियों के साथ डरबन के निकट फौनिक्स नामक स्थान पर रहने लगे। यहाँ के लोग अत्यंत ही साधारण तरीके से अपना जीवन व्यतीत करते थे। फीनिक्स की महत्ता यह है कि आगे चलकर इसके सभी निवासियों ने गांधी जी के सत्याग्रह में हिस्सा लिया।

गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश हाई कमिश्नर को एक बार यह बताया था कि :

हम भारतीय राजनैतिक स्वतंत्रता नहीं चाहते हैं, परंत हम यह चाहते हैं कि हम अन्य ब्रिटिश बाशिंदों के साथ शांति और भ्रातत्व के साथ मम्मानपूर्वक रह सके ! परंतु भारतीयों को अपमानित करने के लिये 1906 में ट्रांस्वल की सरकार ने एक और कानन पारित किया। इस कानून के द्वारा प्रत्येक भारतीय के लिये, जो कि 8 वर्ष की आय से ऊपर था, यह आवश्यक था कि वह अपना पंजीकरण कराये और पंजीकरण फार्म पर अपने अंगूठे और उँगलियों की छाप दे। पंजीकरण कराने के लिए एक निश्चित तारीख दी गयी थी और उस तारीख तक यदि कोई अपना पंजीकरण नहीं कराता है तो उसे एक अपराध मानते हुए सजा दी जा सकती थी या देश से निकाला भी जा सकता था।

भारतीयों से किसी भी समय पंजीकरण सर्टिफिकेट दिखाने को कहा जा सकता था और पुलिस अधिकारियों को यह अधिकार दिया गया था कि वह किसी भी भारतीय के घर में घस कर उसके कागजात देख सकते थे। इस बिल का विरोध करने के लिए गांधी जी ने जोहन्सबर्ग के अंपायर थियेटर में एक सभा आयोजित की। अपने सम्मान और प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए भारतीय किसी भी प्रकार के संघर्ष के लिए तत्पर थे। इस सभा में गांधी जी ने कहा था कि :

“मेरे जैसे लोगों के लिए केवल एक ही रास्ता सामने है, हम मर सकते हैं लेकिन ऐसे कानून के आगे झकेंगे नहीं। शायद यह रास्ता न अपनाना पड़े, परंतु यदि और लोग पीछे हटते हैं और मैं अकेला भी रह जाता हूँ तो भी मैं अपनी प्रतिज्ञा को नहीं छोडूंगा।”

अंततः इस सभा में हिस्सा ले रहे प्रत्येक भारतीय ने भगवान को साक्षी मानते हुए यह शपथ ली कि यदि इस विधेयक को कानन बनाया गया तो वे इसके आगे नहीं झकेंगे।

भारतीयों के कड़े विरोध के बावजूद ट्रांसवाल की विधानसभा ने इस बिल को पारित कर दिया। इस समय गांधी जी एक प्रतिनिधि मंडल लेकर इस उद्देश्य से इंग्लैंड गये कि वे अंग्रेज़ी सरकार से इस बिल को अस्वीकार (वीटो) करवा देंगे, परन्तु यह प्रयास असफल रहा। यह । घोषणा की गई कि अप्रैल, 1907 से यह नया कानून लागू होगा। इस विधेयक के विरुद्ध संघर्ष के लिए गांधी जी ने आंदोलन की एक नई तकनीक-सत्याग्रह-अपनाई। पैसिव रेसिसटेन्स ऐसोसिएशन नामक संगठन की स्थापना की गयी। इस संगठन ने भारतीय मल के लोगों से यह अपील की कि वे पंजीकरण कार्यालयों का बहिष्कार करें। ट्रांसवाल सरकार के सभी प्रयासों के बावजूद 30 नवम्बर 1907 तक केवल 519 भारतीयों ने अपने को पंजीकृत कराया। पंजीकरण विधेयक का विरोध करने के कारण गांधी जी को 2 माह की साधारण कैद की सज़ा दी गयी।

इस समय गांधी जी ने जनरल स्मट्स से मुलाकात करना स्वीकार किया और उनके एक मित्र अलबर्ट कार्टराइट ने इस मलाकात का आयोजन किया। इस मलाकात के दौरान जनरल स्मट्स ने गांधी जी को यह आश्वासन दिया कि यदि भारतीय स्वैच्छिक रूप से पंजीकरण कर लें तो इस कानून को रद्द कर दिया जाएगा। गांधी जी ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और इस पर विचार करने के लिए भारतीयों की एक सभा बलाई। कई भारतीयों ने गांधी जी द्वारा इस प्रस्ताव को स्वीकार किये जाने पर आपत्ति प्रकट की, क्योंकि उन्हें जनरल स्मट्स से किसी भी प्रकार के न्याय की आशा नहीं थी। कछ भारतीयों ने तो गांधी जी पर यह आरोप भी लगाया कि उन्हें जनरल स्मट्स ने कोई लालच दे दिया था। अगले दिन जब गांधी जी स्वैच्छिक रूप से अपना पंजीकरण कराने के लिए पंजीकरण कार्यालय की ओर जा रहे थे तो एक पठान ने उन पर हमला भी किया।

शीघ्र ही स्मट्स अपने शब्दों से पीछे हट गया और उन्होंने कानून को रद्द करने से इंकार कर दिया। भारतीयों ने स्वैच्छिक पंजीकरण के लिए जब अपनी अर्जी सरकार से वापस मांगी तो सरकार ने उन्हें देने से इंकार कर दिया। गांधी जी ने पुनः सत्याग्रह आंदोलन प्रारंभ किया। उन्होंने यह घोषणा की कि भारतीय अपना पंजीकरण सर्टिफिकेट जलाएंगे और इसके जो भी परिणाम निकलें उन्हें शांति के साथ भोगेंगे। अनेक भारतीयों ने पंजीकरण सर्टीफिकेट को आग की लपटों के हवाले कर दिया। इसी समय ट्रांसवाल सरकार ने एक अप्रवासी कानून बनाया जिसका उद्देश्य भारत से आकर बसने वाले नये लोगों को रोकना था। गांधी जी ने यह घोषणा की कि सत्याग्रह आंदोलन इस कानून के विरुद्ध भी होगा।

नैटल में रह रहे अनेक भारतीयों ने सत्याग्रह आंदोलन में हिस्सा लिया और उन्हें सरकार द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया। जेल में सत्याग्रहियों से कड़ा श्रम कराया गया। जेल में गांधी जी के साथ भी दुर्व्यवहार किया गया। परंतु ट्रांसवाल सरकार की दमनकारी नीति गांधी जी और उनके आंदोलन को कमजोर करने में असफल रही। सत्याग्रही छोटे-छोटे समूहों में गिरफ्तारियाँ देते रहे। उनके परिवारों को सत्याग्रह फंड द्वारा आर्थिक सहायता दी गयी। वास्तव में सत्याग्रह सभा को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारत के कई अन्य धनिक, जैसे कि रतन, टाटा, हैदराबाद के निज़ाम आदि पैमा दे रहे थे। आगे चलकर सत्याग्रही टालस्टाय फार्म नामक स्थान पर रहने लगे, यहाँ पर वे साधारण जीवन व्यतीत करते थे और वह सब सीखते थे, जो कि एक सच्चे सत्याग्रही के लिए आवश्यक था।

अभियान-2

1913 में एक और प्रकोप भारतीयों पर हआ। दक्षिण अफ्रीका के सप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय के द्वारा उन सभी शादियों को रद्द घोषित कर दिया जो कि ईसाई धर्म विधि से नहीं हुई थीं और जिनका विवाह कार्यालय में पंजीकरण नहीं हुआ था। दूसरे शब्दों में इस निर्णय के द्वारा समस्त हिन्दू-मुस्लिम और पारसी शादियाँ अवैध हो गयीं और इस प्रकार इन शादियों से उत्पन्न संतान भी अवैध हो जानी थी। गांधी जी ने इस निर्णय के दुष्परिणामों के विरुद्ध अपील की और कानून में परिवर्तन लाने को कहा, परंतु तत्काल इसका कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला। अत: गांधी जी ने अपने संघर्ष को तीव्र कर दिया। अनेक भारतीय महिलाओं ने, जिनका सम्मान दाव पर लगा हुआ था, विरोध कार्यक्रम में हिस्सा लिया। 6 नवम्बर, 1913 के दिन गांधी जी ने ट्रांसवाल की सीमा को पार करने के लिए एक यात्रा प्रारंभ की। उनके साथ जो सत्याग्रही थे उनमें 127 स्त्रियाँ, 57 बच्चे और 237 पुरुष थे। गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया गया।

सरकार की दमनकारी नीति के बावजद आंदोलन में किसी प्रकार की कमजोरी नहीं आई। भारत में इस समय गोपाल कृष्ण गोखले ने इस उद्देश्य से सारे देश का दौरा किया कि गांधी जी के आंदोलन के लिए सहयोग जुटाया जा सके। भारत के वायसराय लार्ड हार्डिंग ने भी इस समय यह माँग की कि दक्षिण अफ्रीका की सरकार के विरुद्ध अत्याचार करने का जो आरोप है, उसकी निष्पक्ष जाँच की जाए। इस प्रकार लार्ड हार्डिंग की लंदन और प्रेटोरिया में आलोचना की गयी।

अंततः स्मट्स ने समझौता करना चाहा। वार्तालाप प्रारंभ हुआ और एक ऐसे प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किये गये जो कि भारतीयों की मुख्य समस्याओं का निदान करता था। स्वतंत्र श्रमिकों पर से 3 पाउंड का कर हटा लिया गया। भारतीय तौर तरीकों से किये गये विवाहों को मान्यता प्राप्त हुई और केवल दक्षिण अफ्रीका में आने के लिए ही आदिवासी सर्टिफिकेट पर अंगठे का निशान लगाया जाना था। इस प्रकार लगभग 8 वर्ष तक चलने वाले सत्याग्रह को वापस ले लिया गया।

गांधी जी को ब्रिटिश साम्राज्य से सहानुभूति थी और 1906 तक उनकी अंग्रेजी न्याय में अत्यधिक आस्था थी। 1899 में बोअर युद्ध के दौरान उन्होंने इंडियन एम्बुलैंस कार्पस संगठित कर अंग्रेजी सरकार की सहायता भी की थी परंतु शीघ्र ही अंग्रेजों के प्रति उनका यह मोह दूर होने लगा क्योंकि उन्होंने यह महसूस किया कि उनकी याचना के प्रति अंग्रेजों का रवैया बाहरी व्यक्ति का था। अपने साथियों और सहयोगियों के कष्टों को दूर करने के लिए सत्याग्रह उनके लिए एक अंतिम विकल्प था। परंतु अंग्रेजी साम्राज्य के प्रति उनकी सहानुभूति समाप्त नहीं हुई। उनकी सहानुभूति इस आशा पर आधारित थी कि एक न एक दिन अंग्रेज उन नियमों को व्यावहारिक रूप अवश्य देंगे जिनको कि सैद्धांतिक आधार पर मानते थे।

दक्षिण अफ्रीका में हुए संघर्ष ने गांधी जी के जीवन और हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को कई प्रकार से प्रभावित किया। उदाहरण के लिए अहिंसात्मक सत्याग्रह की तकनीक गांधी जी का मुख्य अस्त्र बन गयी जिस पर आगे चलकर गांधी जी और कांग्रेस ने भारत में अंग्रेजी शासन के । विरुद्ध संघर्ष किया। अंग्रेज इतिहासकार ज्युडिथ ब्राउन ने यह धारणा व्यक्त की कि सत्याग्रह गांधी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में अपनाया गया मात्र एक चतराई से परिपूर्ण हथियार था। लेकिन यदि हम गांधी जी के संघर्ष पर संपूर्ण दृष्टि डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि गांधी जी को सत्याग्रह में पूर्ण आस्था थी और यह किसी विशिष्ट परिस्थिति में अपनायी गयी रणनीति मात्र नहीं थी।

गांधी जी के अनुभवों का एक अन्य महत्वपूर्ण प्रभाव यह महसूस करना था कि हिंदू और मुस्लिम एकता अति आवश्यक है और इसे प्राप्त करना सम्भव भी है। इसी कारण उन्होंने भारत में अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में हिंदू-मुस्लिम एकता को अत्यधिक महत्व दिया। इसके अतिरिक्त दक्षिण अफ्रीका के संघर्ष ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि गांधी जी किसी एक क्षेत्र के या किसी धार्मिक सम्प्रदाय के प्रतिनिधि नहीं थे वरन वे संपूर्ण भारतीय जनता के नेता थे। वास्तव में यह इस प्रकार की उनके प्रति धारणा का बन जाना ही था जो कि भारतीय राजनीति में उनके आगमन में सहायक सिद्ध हुआ।

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