साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद : सैद्धान्तिक परिप्रेक्ष्य

इसमें साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के स्वरूप पर विस्तृत चर्चा प्रस्तुत की गयी है। साथ ही यह प्रयत्न किया गया है कि यह चर्चा दो सौ सालों के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान भारत के ऐतिहासिक विकास की मूलभूत विशेषताओं को समझने में किस प्रकार सहायक हो सकती है।

इसके अध्ययन के बाद आप जान सकेंगे:

  • उपनिवेशवाद की प्रकृति व विभिन्न अवस्थाएँ क्या है?
  • उपनिवेशवाद तथा विश्व पूंजीवादी व्यवस्था के मध्य संबंध क्या है?
  • उपनिवेशवाद में किस प्रकार भारतीय अर्थव्यवस्था तथा समाज पूर्णतया ब्रिटिश अर्थव्यवस्था व राजनीतिक नियंत्रण के अधीन थे?

साम्राज्यवाद, पूंजीवादी विकास की उस प्रक्रिया की ओर संकेत करता है, जो संसार के पूर्व-पूंजीवादी देशों पर विजय प्राप्त करने और उन पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए पूंजीवादी देशों को प्रेरित करती है।

इस भाग में हम विकसित पूंजीवादी देशों में पूंजीवाद के विकास, उनके पारस्परिक संबंध, तथा पूंजीवादी देश द्वारा पूर्व-पूंजीवादी देशों के दमन पर विचार करेंगे। (इसे यहाँ महानगरी या महानगरीय देश भी कहा गया है)

संक्षेप में साम्राज्यवाद शब्द का प्रयोग महानगर देश तथा अधीनस्था देश के बीच राजनीतिक व आर्थिक प्रभुत्व के संबंधों को बताने के लिए किया गया है। वह देश जो महानगरीय पूंजीवादी देश के अधीन हो उपनिवेश कहा जाता है, और उपनिवेश में जो घटित होता है वह उपनिवेशवाद कहलाता है।

एक पूर्व-पूंजीवादी देश पर पूर्ण रूप से साम्राज्यवादी प्रभुत्व ही उपनिवेशवाद है। साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद का अध्ययन परस्पर संबंधित है और आगे हम दोनों पर चर्चा करेंगे। परन्तु यहाँ हम उपनिवेशवाद के अध्ययन पर अधिक ध्यान केंद्रित करेंगे तथा पूंजीवाद के विकास के अध्ययन में साम्राज्यवाद के मुख्य पहलुओं पर ध्यान देंगे।

उपनिवेशवाद : विभिन्न दृष्टिकोण

उपनिवेशवाद का क्या अर्थ है? क्या यह एक देश द्वारा दूसरे देश पर केवल राजनीतिक नियंत्रण है, या यह एक देश द्वारा दूसरे देश के आर्थिक दमन की प्रक्रिया को भी निर्दिष्ट करता है? उपनिवेशवाद की व्याख्या विभिन्न विद्वान भिन्न-भिन्न प्रकार से करते है। इस भाग में हम उपनिवेशवाद के विभिन्न दृष्टिकोणों तथा साथ ही अन्य संबंधित पहलुओं से आपका परिचय करायेंगे।

  • बड़ी संख्या में समाजशास्त्रियों, राजनीतिक वैज्ञानिकों व अर्थशास्त्रियों द्वारा यह विचार प्रस्तुत किया जाता है कि औपनिवेशिक समाज मूल रूप से एक परंपरागत समाज था या दूसरे शब्दों में, उपनिवेशवाद ने पूर्व-औपनिवेशिक समाज के मूल सामाजिक-आर्थिक तत्वों तथा संरचनाओं को बनाए रखा। उत्तर-औपनिवेशिक समाज परंपरागत सामाजिक-आर्थिक ढाँचे से आधुनिकीकरण की तरफ बढ़ने लगा। अन्य कुछ उपनिवेशवाद को एक ऐसे परिवर्ती समाज के रूप में देखते हैं जो कि आर्थिक, सामाजिक, व राजनीतिक रूप से एक परंपरागत व पूर्व-औपनिवेशिक समाज से आधुनिक पूंजीवादी समाज में परिवर्तित हो रहा था।
  • तथापि अन्य कई लेखकों का मानना है कि उपनिवेशवाद एक दोहरा समाज प्रस्तुत करता है जिसमें एक क्षेत्र आधुनिक व पूंजीवादी है, जबकि दूसरा क्षेत्र परंपरागत व पूर्व-पूंजीवादी। दोनों क्षेत्र साथ-साथ विद्यमान रहते हैं तथा दोनों ही इतने मजबूत नहीं होते कि एक दूसरे को दबा सकें या हटा सकें। कुछ लेखकों ने दोहरे स्वरूप की अधिक उग्रवादी व्याख्या का अनुसरण किया है। उनके अनुसार उपनिवेशवाद आधुनिकीकरण का कार्य प्रारंभ करता है, परंतु बीच मार्ग में ही छोड़ देने के कारण इसे पूरा करने में असफल होता है। यह औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था व समाज के “अवरूद्ध विकास” का कारण बनता है। इसीलिए कृषि की अर्द्ध-सामन्तवादी विशेषताएँ पूर्व-औपनिवेशिक काल की अवशेष मानी जाती हैं। उपनिवेशवाद इन अर्द्ध-सामन्तवादी लक्षणों को पोषित करने या कम से कम उनको उखाड़ फेंकने में असफल होने का दोषी पाया जाता है।
  • बहुत से लेखक उपनिवेशवाद को राजनीतिक प्रभुत्व अथवा विदेशी राजनीतिक शासन से अधिक कुछ नहीं मानते। व्यक्तिगत औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा अनुसरण की गयी नीतियों की कमजोरियाँ ही उपनिवेशवाद की कमजोरियों जानी जाती है।

उपनिवेशवाद की प्रकृति

उपनिवेशवाद ने एक ऐसे समाज को जन्म दिया जो कि न तो ब्रिटेन की तरह पूंजीवादी था और न ही पूर्व-औपनिवेशिक अथवा पूर्व-पूंजीवादी । इसलिए उदाहरण स्वरूप ब्रिटिश शासन में भारत न तो पूंजीवादी ब्रिटेन के समान था और न ही मूल रूप से मुगल भारत के समान था । भारत, मिस्र व इण्डोनेशिया उपनिवेशों में कृषिक संबंधों का विकास इस पक्ष को बिल्कुल स्पष्ट कर देता है।

उदाहरण के लिए ब्रिटिश भारत के जमींदारी व रैयतवारी दोनों क्षेत्रों में जमींदारी व्यवस्था एक नयी चीज थी जो कि मुगल भारत में विद्यमान नहीं थी। ये ब्रिटिश शासन की देन थी। ये औपनिवेशिक शासकों द्वारा भारतीय कृषि को परिवर्तित करने के प्रयासों का ही परिणाम था। भारतीय कृषि पूंजीवादी नहीं थी परंतु इसमें बहुत से पूंजीवादी तत्व थे। उदाहरण के लिए संपत्ति संबंध पूंजीवादी थे, जमीन अब व्यक्तिगत संपत्ति थी, जो बड़े पैमाने पर स्वतंत्र रूप से खरीदी व बेची जाती थी।

वस्तुतः हम कह सकते है कि उपनिवेशवाद में औपनिवेशिक समाज आधारभूत रूप में परिवर्तित हो गया। वह विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का अभिन्न अंग बन गया। उदाहरण के लिए भारत में उपनिवेशवाद उतनी ही आधुनिक घटना थी जितना कि ब्रिटेन में औद्योगिक पूंजीवाद – 18वीं शताब्दी के मध्य में दोनों एक साथ विकसित हुए थे। पूंजीवाद अपनी प्रकृति से विश्व व्यवस्था थी – जिसे संपूर्ण विश्व पर छा जाना चाहिए था परंतु यह इस तरह से संपूर्ण विश्व को आच्छादित नहीं करता; इसका एक रूप महानगरीय में तथा दूसरा उपनिवेश में रहता है । यह मैट्रोपोलिस (महानगरीय) को एक आधुनिक औद्योगिक देश के रूप में विकसित करता है और उपनिवेशों को अविकसित करता है।

वही पूंजीवादी प्रक्रिया जिसने महानगर में आर्थिक विकास को बढ़ाया और उसे विकसित पूंजीवादी देश बनाती है, उपनिवेशों में विकास को रोके रखती है तथा उन्हें औपनिवेशिक समाज में परिवर्तित करती है। उपनिवेशवाद पुराने समाज व अर्थव्यवस्था को नष्ट करता है, परंतु नया औपनिवेशिक समाज व अर्थव्यवस्था आधुनिक आर्थिक विकास के लिए उतनी ही बड़ी बाधा है जितना कि पुरानी पूर्व-पूंजीवादी अर्थव्यवस्था व समाज । उपनिवेश विश्व पूंजीवादी व्यवस्था का एक अभिन्न हिस्सा या अंग बन जाता है। परन्तुं उसकी पूंजीवादी उत्पादन के विकास तथा औद्योगिक क्रांति में कोई भूमिका नहीं होती। वास्तव में, उपनिवेशवाद उपनिवेश में आधुनिक पूंजीवाद के विकास को रोकता है।

उपनिवेश पर प्रभाव

आप उपनिवेशवाद की महत्वपूर्ण विशेषताओं को जानना चाहेंगेः मुख्य रूप से उपनिवेशवाद की दो विशेषताएँ हैं।

  • मैट्रोपोलिस (महानगरीय) अथवा साम्राज्यवादी शक्ति की आवश्यकताओं के अनुसार उपनिवेश का अधीनस्थ होना
  • उपनिवेश का आर्थिक शोषण अथवा महानगर द्वारा उपनिवेश के आर्थिक अतिरेक का विनियोग।

उपनिवेश में आर्थिक अतिरेक विभिन्न तरीकों से उत्पन्न किया जाता है, परंपरागत कृषि से आधुनिक खान व फैक्ट्री उत्पादन स्थापित आदि करके। परन्तु साम्राज्यवादी देश के विभिन्न वर्गों द्वारा इस अतिरेक का विनियोग ही उपनिवेशवाद का मूल है। अधीनस्थ होने का अर्थ है उपनिवेश के आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक विकास के मूल विषय उपनिवेश की स्वयं की  आवश्यकताओं के अनुसार निर्धारित न होकर महानगरीय अर्थव्यवस्था व महानगरीय पूंजीवादी वर्ग की आवश्यकताओं व इच्छाओं के अनुसार निर्धारित किये जाते हैं।

इस प्रकार उपनिवेशवाद सिर्फ राजनीतिक नियंत्रण व औपनिवेशिक नीतियाँ ही नहीं है बल्कि कुछ और भी है। इससे संरचना के. रूप में माना जाता है। औपनिवेशिक हित व नीतियाँ, औपनिवेशिक राज्य व प्रशासकीय संस्थाएँ, औपनिवेशिक संस्कृति व समाज, औपनिवेशिक विचार व विचारधाराएँ, ये सभी औपनिवेशिक ढाँचे के भीतर ही कार्य करते हैं।

उपनिवेशवाद की अवस्थाएँ

उपनिवेशवाद एक अविच्छिन्न या एकीकृत ढाँचा नहीं है। उपनिवेशवाद विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है । औपनिवेशिक देश का दमन व शोषण स्थिर रहता है, परंतु एक अवस्था से दूसरी अवस्था में दमन व शोषण के रूप बदलते रहते हैं।

उपनिवेशवाद को तीन अलग अवस्थाओं में बाँटा जा सकता है, जो शोषण या अतिरेक विनियोग के विभिन्न रूपों से संबंधित है। फलतः प्रत्येक अवस्था ने औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था, समाज व राज्य व्यवस्था के दमन के भिन्न प्रतिमानों को निरूपित किया और इसलिए औपनिवेशिक नीतियाँ, राजनीतिक व प्रशासकीय संस्थाएँ, विचारधाराएँ व प्रभाव भिन्न थे तथा औपनिवेशिक जनता की प्रतिक्रियाएँ भी भिन्न थीं।

यह आवश्यक नहीं कि विभिन्न उपनिवेशों के लिए उपनिवेशवाद की अवस्थाएँ समान हों, एक स्तरीय हों। अलग-अलग समय में अलग-अलग उपनिवेशों में अलग-अलग अवस्थाएँ पायी जाती हैं। अलग-अलग देशों में अलग-अलग समय में भिन्न अवस्थाएँ विद्यमान होती हैं। परंतु एक अवस्था की विषय वस्तु मोटे तौर पर समान रहती है चाहे वह जहाँ भी, जिस समय पाई जाएँ। हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि उपनिवेशवाद की अवस्था शुद्ध रूप में नहीं पायी जाती है और न ही एक अवस्था से दूसरी अवस्था के बीच सुस्पष्ट व पूर्ण विच्छेद होता है । अतिरेक विनियोग व शोषण के रूप तथा उपनिवेशवाद के अन्य लक्षण प्रारंभिक अवस्था से उत्तरकालीन अवस्था में भी बने रहते हैं। तथापि विभिन्न अवस्थाएँ विशिष्ट प्रमुख विशेषताओं द्वारा निर्दिष्ट की गई हैं – एक अवस्था से दूसरी अवस्था में गुणात्मक परिवर्तन होता है।

आधुनिक भारत में उपनिवेशवाद के इतिहास से उपनिवेशवाद की आधारभूत विशेषताएँ तथा इसकी विभिन्न अवस्थाएँ स्पष्ट की जा सकती हैं क्योंकि इतिहासकार भारत को एक आदर्श उपनिवेश के उदाहरण के रूप में मानने के लिए एकमत हैं । करीब 200 साल के अपने लम्बे इतिहास में ब्रिटिश शासन का मूल स्वरूप एक सा नहीं रहा है। विकासशील विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में ब्रिटिश स्थिति के बदलते प्रतिमान ने भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की प्रकृति में परिवर्तन किए जैसे शोषण के रूपों व औपनिवेशिक नीतियों, उनके प्रभावों व भारतीय प्रतिक्रियाओं में परिवर्तन । अन्तिम दो पहलुओं भारत पर उपनिवेशवाद का प्रभाव तथा भारतीय जनता की प्रतिक्रिया, पर अन्य इकाइयों में चर्चा की जाएगी। औपनिवेशिक नीतियों पर भी अन्य इकाइयों में बाद में विस्तृत चर्चा की जाएगी। परंतु अभी हम भारत में विभिन्न अवस्थाओं में उपनिवेशवाद की मूल विशेषताओं के साथ ही उपनिवेशवाद की एक अवस्था से दूसरी अवस्था में परिवर्तन के कारणों पर भी चर्चा करेंगे।

प्रथम अवस्था : एकाधिपत्य व्यापार तथा प्रत्यक्ष विनियोग

यह एकाधिपत्य व्यापार तथा प्रत्यक्ष विनियोग का काल कहलाता है (अथवा ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन काल, 1757-1813)। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत एक एकाधिपत्य व्यापारिक निगम – ईस्ट इंडिया कंपनी – द्वारा अपने अधीन कर लिया गया। इस अवस्था में कंपनी के दो मुख्य लक्ष्य थे।

  • पहला लक्ष्य था भारत के साथ व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त करना। इसका अर्थ था कि अन्य अंग्रेजी व यूरोपियन  व्यापारीयों व व्यापारिक कंपनियाँ भारतीय माल को खरीदने व बेचने में मुकाबला न कर सकें। और न ही भारतीय व्यापारी ऐसा कर सकें। इससे ईस्ट इंडिया कंपनी जितना सस्ता संभव हो सके उतना सस्ते में भारतीय माल खरीद सकेगी और जितने अधिक दामों में संभव हो सके विश्व बाजार में बेच सकेगी। इस प्रकार भारतीय आर्थिक अतिरेक एकाधिकार व्यापार द्वारा विनियुक्त होता था। ईस्ट इंडिया कंपनी ने ब्रिटिश सरकार को मजबूर किया कि वह उन्हें राजकीय अधिकार पत्र के द्वारा भारत व पूर्व के साथ व्यापार में एकाधिकार प्रदान करे तथा इस प्रकार अंग्रेज प्रतियोगियों को इस व्यापार में हिस्सेदार नहीं बनने दिया । यूरोपीय प्रतिद्वन्दियों के खिलाफे कंपनी ने जमीन तथा समुद्र पर लंबे तथा भीषण युद्ध लड़े। भारतीय व्यापारियों के ऊपर एकाधिकार प्राप्त करने व भारतीय शासकों को अपने व्यापार में हस्तक्षेप से रोकने के लिए तथा बढ़ते हुए राजनीतिक प्रभुत्व और देश के विभिन्न भागों पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए कंपनी ने मुगल साम्राज्य के विघटन का लाभ उठाया । राजनीतिक विजय के बाद कम्पनी ने भारतीय बुनकरों को रोजगार दिया। उस स्थिति में वे बाजार की कीमत से कम भाव में कपड़ा तैयार करने के लिए बाध्य किये गये।
  • इस अवस्था में उपनिवेशवाद का दूसरा मुख्य लक्ष्य राज्य सत्ता पर नियंत्रण द्वारा सरकारी राजस्व को प्रत्यक्ष रूप से विनियुक्त करना था। ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में समुद्र पर तथा यूरोपीय प्रतिद्वन्दियों व भारतीय शासकों के खिलाफ युद्ध करने के लिए एवं नौ सैनिक शक्तियों, किलों, वसेना को अपने व्यापारिक स्थानों के चारों तरफ बनाये रखने आदि के लिए प्रचुर आर्थिक साधन की आवश्यकता थी। ईस्ट इंडिया कंपनी के पास ऐसे साधन नहीं थे तथा ब्रिटिश सरकार के पास भी ऐसे स्रोत नहीं थे और न ही कंपनी के हितों को बढ़ाने के लिए उन्हें प्रयोग करने की इच्छुक थी। इसलिए अत्याधिक आवश्यक आर्थिक साधन भारत में भारतीय लोगों द्वारा जुटाए जाने थे। इसने भारत में विभिन्न क्षेत्रों पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा दी।

भारत में आर्थिक साधन किसी और कारण से जुटाने थे। भारतीय माल को खरीदने के लिए भारतीय धन की आवश्यकता थी। यह ब्रिटिश माल को भारत में बेचकर या सोने और चांदी का भारत में निर्यात द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता था। पहले तरीके का प्रयोग नहीं किया गया, क्योंकि ब्रिटिश ऐसा माल नहीं बना सके जिसे भारत में भारतीय उत्पादनों की प्रतिस्पर्धा में बेच सके। 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक ब्रिटिश औद्योगिक उत्पादन भारतीय हस्तशिल्प उत्पादन के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सका। ब्रिटिश सरकार जो वाणिज्यवाद के सिद्धांतों से अत्याधिक प्रभावित थी, ब्रिटेन से सोने व चाँदी के निर्यात पर प्रसन्न नहीं थी। सरकारी आय का विनियोग निश्चित रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी के लाभ तथा इसके हिस्सेदारों के लाभांश को बढ़ायेगा।

दोनों लक्ष्य व्यापार पर एकाधिकार तथा सरकारी राजस्व का विनियोग पहले बंगाल व दक्षिण भारत के भागों और फिर शेष वर्षों में सम्पूर्ण भारत पर विजय के साथ बड़ी तीव्र गति से पूरे किये गये थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय व्यापार व हस्तशिल्प उत्पादन पर एकाधिकारिक नियंत्रण प्राप्त करने के लिए अब अपनी राजनीतिक शक्ति का प्रयोग किया। भारतीय व्यापारियों को धीरे-धीरे प्रतिस्थापित तथा बरबाद कर दिया गया, जबकि बुनकर व अन्य शिल्पकार अपना माल कम मूल्यों पर बेचने के लिए या कंपनी के लिए कम वेतन पर काम करने के लिए बाध्य किये गये थे। यह ध्यान देने योग्य है कि इस अवस्था में ब्रिटिश उत्पादन का भारत में बड़े पैमाने पर आयात नहीं था, बल्कि इसका उल्टा हआ, जैसे भारतीय वस्त्र के निर्यात में बढ़ोत्तरी हुई आदि। उदाहरणार्थ बुनकर इस अवस्था में ब्रिटिश आयात द्वारा बर्बाद नहीं हुए बल्कि कंपनी के एकाधिकार के कारण तथा घाटे में कंपनी के लिए उत्पादन करने के लिए बाध्य किये जाने से उनका शोषण हुआ।

राजनीतिक विजय के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय राज्यों के राजस्व पर प्रत्यक्ष नियंत्रण प्राप्त कर लिया। इसके अतिरिक्त कंपनी तथा उसके कर्मचारियों ने भारतीय व्यापारियों, अधिकारियों, अभिजात शासक वर्ग, शासकों व जमींदारों से अवैध रूप से असीम धन खींच लिया। असल में उपनिवेशवाद की प्रथम अवस्था में लूटने व अतिरेक पर प्रत्यक्ष कब्जा करने का तत्व बहुत मजबूत था। धीरे-धीरे बड़ी मात्रा में अधिक वेतन पाने वाले अधिकारी भारत में नियुक्त किए गए तथा उनके वेतन व पेंशन अतिरेक विनियोग का एक रूप बन गये। भारत में की जाने वाली ब्रिटिश नियुक्तियों के लिए ब्रिटेन में और विशेष रूप से कुलीन वर्ग और उच्च कुलीन भूपति वर्ग में तीव्र संघर्ष था।

इस काल में उपनिवेशवाद की एक मुख्य विशेषता यह थी कि उपनिवेश में प्रशासन, न्यायिक व्यवस्था, परिवहन तथा संचार, कृषि का औद्योगिक उत्पादन के ढंग, व्यापार प्रबंध व आर्थिक संगठन के रूपों में (बंगाल में स्थायी व्यवस्था को छोड़कर जो वास्तव में उपनिवेशवाद की दूसरी अवस्था से संबंधित थी) कोई मूल परिवर्तन नहीं किये गए थे। और न ही शिक्षा व बुद्धिजीवी क्षेत्र तथा सांस्कृतिक व सामाजिक संगठन में कोई परिवर्तन किये गए थे। केवल दो नयी शैक्षिक संस्थाएँ प्रारंभ की गयी थीं – एक बनारस में संस्कृत सीखने के लिए तथा दूसरी कलकत्ता में फारसी व अरबी सीखने के लिए । यहाँ तक कि क्रिशचन मिशनरी ब्रिटिश पूंजीपति जो कि आधुनिक पश्चिमी विचारों के प्रसार में एक माध्यम का कार्य कर सकते थे भारत में ब्रिटिश आधिपत्य के क्षेत्र से बाहर रखे गए । केवल

  • मिलट्री संगठन व तकनीक जोकि समकालीन स्वतंत्र भारतीय शासक भी अपनी सशस्त्र सेनाओं से सन्निविष्ट कर रहे थे तथा
  • प्रशासन में राजस्व एकत्र करने के ढाँचे में ऊपरी पद पर ही परिवर्तन किए गए थे जिससे कि इसे कंपनी के लिए अधिक

उपयुक्त व लाभकारी बनाया जा सके। इस अवस्था में ब्रिटिश शासन परंपरागत भारतीय साम्राज्यों से बहुत अधिक भिन्न नहीं था क्योंकि वे भी भूमि राजस्व एकत्रीकरण में आस्था रखते थे।

ऐसा क्यों था? इतने कम परिवर्तन क्यों किए गए थे?

क्योंकि इस अवस्था में उपनिवेशवाद के दोनों मूल लक्ष्यों को भारत में मूल सामाजिक-आर्थिक-प्रशासनिक परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं थी। प्रथम अवस्था थी – उपनिवेशवाद उसके विद्यमान आर्थिक, सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक ढाँचे पर अध्यारोपित किया जा सकता था। ब्रिटिश शासकों ने अपने देशी भारतीय पूर्वाधिकारियों से अधिक गहराई से गाँवों में प्रवेश करने की आवश्यकता महसूस नहीं की जब तक कि उनको भूराजस्व एकत्र करने पर आय परंपरागत मशीनरी द्वारा सफलतापूर्वक मिलती रहती थी। इसलिए भारत के विद्यमान आर्थिक व राजनीतिक ढाँचे और प्रशासनिक व सामाजिक संगठन तथा सांस्कृतिक व वैचारिक गठन को अस्त-व्यस्त करने की कोई आवश्यकता नहीं थी।

यह परिवर्तन का अभाव प्रशासकों की विचारधारा में भी प्रतिबिम्बित था । परंपरागत भारतीय सभ्यता, धर्म, कानून, जाति-प्रथा, पारिवारिक संरचना आदि की आलोचना करने की कोई आवश्यकता अनुभव नहीं की गयी क्योंकि औपनिवेशिक शोषण की उस अवस्था में वेबाधाओं के रूप में नहीं देखे गये थे। उनको सहानुभूतिपूर्वक समझने की आवश्यकता थी ताकि राजनीतिक नियंत्रण व आर्थिक शोषण भारतीयों की धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक विचारों का विरोध किए बिना सरलता से आगे बढ़ सकें।

इस काल ने बड़ी मात्रा में भारत से धन निष्कासन को प्रभावित किया। ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति के लिए धन की व्यवस्था करने में इस धन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय भारत से निष्कासित धन ब्रिटेन की राष्ट्रीय आय का 2 से 3 प्रतिशत भाग था।

द्वितीय अवस्था:  व्यापार के द्वारा शोषण का काल

यह व्यापार के द्वारा शोषण का काल था और इसे 19वीं शताब्दी में मुक्त व्यापार का उपनिवेशवाद भी कहा गया है। भारत के अधिकांश भागों पर ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन स्थापित होने के तुरन्त बाद ब्रिटेन में यह निर्धारित करने के लिए कि यह नया उपनिवेश किसके हितों की पूर्ति करेगा, तीव्र संघर्ष शुरू हो गया। सन् 1750 के बाद से ब्रिटेन औद्योगिक क्रान्ति के दौर से गुजर रहा था । नवविकसित औद्योगिक पूंजीपतियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी तथा इसके भारत के शोषण के रूपों पर आक्रमण प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने मांग की कि भारत में औपनिवेशिक प्रशासन व नीति को अब उनके हितों की पूर्ति करनी चाहिए जो कि ईस्ट इंडिया कंपनी के हितों से बहुत भिन्न थे।

उन्हें भारतीय माल में एकाधिकार व्यापार तथा भारतीय आमदनियों पर कम्पनी के नियंत्रण से कुछ अधिक प्राप्त नहीं हुआ। वे चाहते थे कि भारत उनके यहाँ के निर्मित माल विशेष रूप से कपड़े के बढ़ते हुए उत्पादन के लिए एक बाजार के रूप में कार्य करे । उन्हें भारत से कच्चे माल और विशेष रूप से, कपास व खाद्यान्न की भी आवश्यकता थी। इसके अतिरिक्त भारत अधिक ब्रिटिश माल तभी खरीद सकता था जब वह अपना निर्यात बढ़ाकर विदेशी मुद्रा प्राप्त करे। ईस्ट इंडिया कम्पनी के लाभांशों को ताकत के बल पर प्राप्त करने के लिए तथा ब्रिटिश व्यापारियों के लाभों एवं ब्रिटिश अधिकारियों की कमाई और पेंशन ब्रिटेन को हस्तान्तरित करने के लिए भी अधिक निर्यात की आवश्यकता थी।

परन्तु भारत क्या निर्यात कर सकता था? वर्षों से अंग्रेज भारतीय वस्त्र को ब्रिटेन में आयात होने के इच्छुक नहीं थे और बाद में उनका निर्यात लाभकारी नहीं था। भारत से इन निर्यातों में केवल कृषि का कच्चा माल तथा अन्य अनिर्मित कच्चा माल था। दूसरे शब्दों में, ब्रिटिश औद्योगिक पूंजीपतियों की सुविधा के अनुकूल होने के लिए भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद को अपनी दूसरी अवस्था में प्रवेश करना चाहिए। भारत को ब्रिटेन का अधीनस्थ व्यापारिक भागीदार बनना चाहिए एक ऐसे बाजार के रूप में जिसका शोषण हो सके तथा एक ऐसे आधीन उपनिवेश के रूप में जो ब्रिटेन की आवश्यकतानुसार कच्चा माल व खाद्य पदार्थ भेजे व बनाया करे । भारत की आर्थिक बचत ऐसे व्यापार के माध्यम से विनियोग होनी थी जो असमानता पर आधारित था ।

परिणामस्वरूप ब्रिटेन ने ऐसा माल बनाया व निर्यात किया जो कि कारखानों में विकसित तकनीक व कम श्रम शक्ति का प्रयोग करके बनाया गया था इसमें उत्पादकता व वेतन का स्तर बहुत ऊँचा था । दूसरी तरफ भारत ने उत्पादन के पिछड़े हुए तरीकों से अधिक श्रम शक्ति का प्रयोग करते हुए कृषि सम्बंधी कच्चा माल बनाया जो कि कम उत्पादकता व कम वेतन का कारण बना। श्रम का यह अर्न्तराष्ट्रीय विभाजन भारत के लिए न केवल अत्यन्त प्रतिकूल था बल्कि अप्राकृतिक व बनावटी भी था तथा औपनिवेशिक शासन द्वारा बल पूर्वक प्रारम्भ व कायम रखा गया था। परिवर्तन की शुरुआत सन् 1763 के रेगुलेटिंग एक्ट तथा सन् 1784 के पिट्स इंडिया एक्ट के पास होने के साथ हुई जो कि ब्रिटिश शासक वर्गों में प्रारम्भिक रूप से तीव्र संघर्ष का परिणाम थे। सन् 1789 के बाद फ्रेंच क्रान्तिकारी युद्धों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को कुछ राहत और सुरक्षा प्रदान की । परन्तु कंपनी धीरे-धीरे आधार खोने लगी। सन् 1813 में जब दूसरा चार्टर एक्ट पास किया गया तब कंपनी भारत में अपनी अधिकतर राजनीतिक व आर्थिक शक्ति खो चुकी थी, अब वास्तविक शक्ति ब्रिटिश सरकार के पास थी जिसने ब्रिटिश पूंजीपति वर्ग के सामूहिक हितों के लिए भारत पर शासन किया।

भारत अपनी विद्यमान आर्थिक, राजनीतिक, प्रशासनिक तथा सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था में नये तरीके से शोषित नहीं किया जा सकता था इसलिए इस व्यवस्था को छिन्न-भिन्न करना तथा पूर्ण रूप से बदलना था। ब्रिटिश भारतीय सरकार ने 1813 के बाद ऐसा करना प्रारंभ किया। आर्थिक क्षेत्र में इसका अर्थ भारत की औपनिवेशिक अर्थ-व्यवस्था को ब्रिटिश व विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ना था। इसका मुख्य यंत्र मुक्त व्यापार को प्रारंभ करना था। भारत में सभी आयात कर या तो पूर्ण रूप से हटा दिये गए या बहुत कम कर दिए गए। इस प्रकार ब्रिटिश उत्पादों के भारत प्रवेश पर कोई रोक-टोक नहीं रह गयी। भारत में चाय, कॉफी, तथा नील के बागानों, व्यापार, परिवहन, खान व आधुनिक उद्योग-धंधे विकसित करने । के लिए ब्रिटिश पूँजीपतियों को बिना रोक-टोक प्रवेश की अनुमति दी गयी थी। ब्रिटिश भारतीय सरकार ने इन पंजीपतियों। को सक्रिय राज्य सहायता दी।

स्थायी तथा रैयतवारी बंदोबस्त व्यवस्थाओं के माध्यम से भारत के कृषि संबंधी ढाँचे को पूँजीवादी दिशा में परिवर्तित करने के लिए कोशिश की गयी थी। बड़ी मात्रा में आयात व उनके आंतरिक विक्रय के लिए तथा और अधिक मात्रा में कच्चे माल का निर्यात करने एवं देश में लंबी दूरी के बंदरगाहों पर उनके संग्रह के लिए परिवहन और संचार के लिए एक सस्ती व आसान व्यवस्था की आवश्यकता थी। ऐसी व्यवस्था के बिना भारत बड़ी मात्रा में विदेशी व्यापार के लिए नहीं खोला जा सकता था इसलिए सरकार ने नदियों व नहरों का विकास किया, नदियों में वाष्प-चालित जहाज चलाने के लिए उत्साहित किया और सड़कें बढ़ायी। इन सबसे अधिक 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इसने भारत के बड़े शहरों व बाजारों को बंदरगाहों से जोड़ने वाली रेलवे लाइन बिछाने के लिए प्रोत्साहित किया और आर्थिक सहायता दी। 1905 तक करीब 45,000 किलोमीटर रेलवे लाइन बन चुकी थी। इसी प्रकार आर्थिक लेन-देन को आसान बनाने के लिए आधुनिक डाक व टेलीग्राफ व्यवस्था को अधिक विकसित किया गया।

प्रशासनिक क्षेत्र में अब बहुत से परिवर्तन लाए गए। प्रशासन अधिक विस्तृत व व्यापक बनाया गया अब यह देश के गाँवों वदूरस्थ क्षेत्रों तक पहुँचा जिससे ब्रिटिश माल इसके भीतरी व दूरस्थ गाँवों में पहुँच सके और वहाँ से भी कृषि-उत्पादन प्राप्त किया जा सके । पूंजीवादी व्यापारिक संबंधों को बढ़ाने के लिए तथा कानून व व्यवस्था बनाये रखने के लिए भारत के कानूनी व न्यायिक ढाँचे में परिवर्तन किए गए। फिर भी अपराधी कानून, अनुबंध कानून व कानूनी प्रक्रियाएँ, पर्सनल लॉ जिसमें विवाह व उत्तराधिकार से संबंधित कानूनों से संबंधित परिवर्तन अधिकांश रूप में अछूते ही छोड़ दिए गये क्योंकि अर्थव्यवस्था के औपनिवेशिक परिवर्तन को यह किसी भी रूप में प्रभावित नहीं कर रहे थे।

इसके अतिरिक्त 1830 व 1840 में भारत में अंग्रेजी ने फारसी के स्थान पर राजभाषा का स्थान ले लिया था।6 मार्च 1835 के लार्ड विलियम बैंटिक के प्रस्ताव में कहा गया “शिक्षा के लिए विनियुक्त कोष केवल अंग्रेजी शिक्षा में अच्छी तरह से प्रयोग किया जाएगा।”

आधुनिक शिक्षा अब मौलिक रूप से नयो, विस्तृत रूप से फैली हुई प्रशासनिक मशीनरी बनाने के लक्ष्य से प्रारंभ की गयी थी। परन्तु भारत के समाज और संस्कृति को बदलने में इससे सहायता की भी आशा की गयी थी। इस परिवर्तन की दो कारणों से आवश्यकता थी। इससे आशा की गयी :

  • परिवर्तन व विकास का वातावरण बनाने की
  • शासकों के प्रति वफादारी की संस्कृति पैदा करने की।

यह ध्यान देने योग्य है कि इसी काल के लगभग अनेक भारतीय बुद्धिजीवियों जैसे राजा राममोहन राय ने विभिन्न कारणों से और मुख्य रूप से राष्ट्रीय पुर्नरूत्थान के लिए सामाजिक व सांस्कृतिक आधुनिकीकरण के लिए कार्य करना प्रारंभ किया।

उपनिवेशवाद की दूसरी अवस्था ने अनेक ब्रिटिश राजनेताओं व प्रशासकों के मध्य उदार साम्राज्यवादी विचारधारा को जन्म दिया । भारतीय लोगों को प्रजातंत्र व स्वशासन की कलाओं में प्रशिक्षण देने के लिए उन्होंने विचार किया। इस समय ब्रिटेन संसार की कार्यशाला था- तीव्रगति से औद्योगीकृत देश केवल यही था। परिणामस्वरूप ब्रिटेन में बहुतों का यह विश्वास था कि भारत के साथ इस रूप में व्यापार बनाये रखा जा सकता है, चाहे ब्रिटेन भारत पर अपना प्रत्यक्ष राजनीतिक व प्रशासकीय नियंत्रण हटा ले, जब तक वहाँ कानून व व्यवस्था, मुक्त व्यापार तथा व्यापार अनुबंध सुरक्षित बने हुए हैं। यहाँ तक कि उदार साम्राज्यवादियों ने भी विश्वास किया कि इन गुणों को प्राप्त करने में भारतीयों को सौ या अधिक वर्ष लगेंगे और इसलिए आने वाली शताब्दियों के लिए ब्रिटिश शासन बनाये रखा जाना चाहिए और उसे मजबूत बनाया जाना चाहिए।

यदि भारत के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को मूलतः परिवर्तित करना था तो इसकी विद्यमान संस्कृति व सामाजिक संगठन को अनुपयुक्त व पतनशील घोषित करना था। भारतीय संस्कृति व समाज अब तीव्र आलोचना के विषय थे। तथापि इस आलोचना में कोई नस्लवाद सम्मिलित नहीं था क्योंकि साथ-साथ यह भी माना गया था कि भारतीय धीरे-धीरे यूरोपीय स्तर तक उठाए जा सकते हैं।

इस अवस्था में अतिरेक धन की निकासी के प्रारंभिक रूप बने रहे। यही नहीं बल्कि महंगा प्रशासन और आर्थिक परिवर्तन के लिए प्रयत्न भी करारोपण में मनमानी बढ़ोत्तरी किसानों पर बोझ का कारण बनी । सैनिक तथा नागरिक प्रशासन को बनाए रखने के लिए तथा रेलवे निर्माण के लिए धन की कमी के कारण और भूमि करों की अपनी सीमाओं के कारण औपनिवेशिक शासन निरंतर आर्थिक अभाव में रहा । फलतः अन्य क्षेत्रों में आधुनिकीकरण का रूप अंशतः अनुपात में कम कर दिया गया। इस अवस्था में ब्रिटिश पूंजीवाद के विकास में भारत ने निर्णायक भूमिका अदा की ।

ब्रिटिश उद्योग-धंधे विशेष रूप से वस्त्र निर्यात पर बहत निर्भर थे। 1860-80 के दौरान भारत ने ब्रिटिश निर्यात का 10 से 12 प्रतिशत और ब्रिटेन के वस्त्र निर्यात का करीब 20 प्रतिशत आत्मसात कर लिया। 1850 के बाद भारत भी इंजन, डिब्बों, रेल लाइनों तथा अन्य रेलवे सामानों का एक मुख्य आयातकर्ता था। इसके अतिरिक्त एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश उपनिवेशवाद फैलाने में भारतीय सेना ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस अवस्था में शुरू से अंत तक भारतीय धन व पूंजी का ब्रिटेन द्वारा निष्कासन जारी रहा।

तृतीय अवस्था: विदेशी लागत और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा

यह उपनिवेशों के लिए विदेशी लागत और अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा का युग कहा जाता है। लगभग 1860 से भारत में उपनिवेशवाद की एक नयी अवस्था प्रारंभ की गयी थी। यह विश्व अर्थव्यवस्था में अनेक मुख्य परिवर्तनों का परिणाम था

  • यूरोप के अनेक देशों जैसे अमेरिका व जापान में औद्योगीकरण के प्रसार के साथ संसार में ब्रिटेन की औद्योगिक सर्वोच्चता का अंत आ गया।
  • उद्योग के लिए वैज्ञानिक ज्ञान के प्रयोग के परिणामस्वरूप औद्योगीकरण का तीव्रीकरण हुआ। आधुनिक रासायनिक उद्योग-धंधे, आंतरिक दहन इंजन के लिए पैट्रोलियम का इंधन के रूप में प्रयोग तथा औद्योगिक उद्देश्यों के लिए बिजली का प्रयोग इस काल में विकसित हुए।
  • अंतर्राष्ट्रीय परिवहन के साधनों में क्रांति के कारण विश्व बाजार का और अधिक एकीकरण हुआ।

अनेक औद्योगीकृत देशों में नये उद्योग-धंधों ने विशाल मात्रा में कच्चा माल उपभोग किया। तीव्र औद्योगिक विकास की शहरी जनसंख्या के निरंतर विकास का कारण बना जिसे अधिक से अधिक भोजन की आवश्यकता थी। अब यहाँ नये सुरक्षित व विशिष्ट बाजारों तथा कृषक व खनिज कच्चे माल के स्रोतों और खाद्य पदार्थों के लिए तीव्र संघर्ष शुरू हो गया।

इसके अतिरिक्त आंतरिक व्यापार तथा उद्योग के विकास और उपनिवेशों व अर्द्ध-उपनिवेशों के विस्तृत शोषण ने पूंजीवादी देशों में बड़ी मात्रा में पूंजी का संचयन किया। साथ ही पूंजी का केन्द्रीकरण तथा बैंकिंग (साहूकारी) पूंजी का औद्योगिक पूंजी के साथ विलय कम से कम निगमों, व्यापार संघों व उत्पादक संघों में हुआ। इस पूंजी के लिए बाजारों की खोज करनी थी। इसने बड़ी मात्रा में पूंजी के निर्यात को प्रेरित किया। एक बार फिर विकसित पूंजीवादी देशों ने उन क्षेत्रों के लिए खोज व प्रतिस्पर्धा प्रारंभ कर दी जहाँ वे अपनी अतिरिक्त पूंजी को लगाने का एकमात्र अधिकार प्राप्त कर सकें।

इस प्रकार पूंजी निवेश के लिए बाजार, कच्चा माल और क्षेत्रों की अपनी खोज में पूंजीवादी देशों ने अपने बीच विश्व का विभाजन व पुर्नविभाजन प्रारंभ कर दिया।

इस अवस्था में उपनिवेशवाद ने भी मैट्रोपॉलिस (साम्राज्यवादी देश) में महत्वपूर्ण राजनीतिक व वैचारिक उद्देश्यों को पूरा किया। साम्राज्य के गुणगान पर आधारित अंध देश भक्ति व आक्रामक राष्ट्रवाद का प्रयोग देश में सामान्य हितों पर जोर डालकर सामाजिक विभाजनों को कम करने के लिए किया जा सकता था। उदाहरणार्थ उन श्रमिकों के मध्य गर्व व संतोष का भाव फैलाने के लिए जिनके गंदे घरों में वास्तविक जीवन में बिरले ही सूर्य निकलता था, ब्रिटेनवासियों ने “ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य कमी अस्त नहीं होता” का नारा लगाया। फ्रांसीसियों ने अपने “सिविलाइजिंग मिशन” पर जबकि जापान ने अखिल एशियावाद (पैन-एशियनिज्म) पर चर्चा की और एशियाई लोगों का समर्थक होने का दावा किया।

इस अवस्था के दौरान संसार में ब्रिटेन की स्थिति को प्रतिद्वन्दी पूंजीवादी देशों द्वारा लगातार चुनौती दी गयी थी तथा कमजोर की गयी थी। भारत पर अपना नियंत्रण दृढ़ करने के लिए अब इसने सशक्त प्रयत्न किए। उदार साम्राज्यवादी नीतियाँ अब प्रतिक्रियात्मक साम्राज्यवादी नीतियों में बदल गयीं । यह लिटन, डफरिन, लांसडाउन तथा कर्जन के वायसराय काल में प्रतिबिम्बित हुआ। प्रतिद्वन्दियों को बाहर रखने के लिए ब्रिटिश पूंजी को भारत में आकृष्ट करने के लिए तथा इसे सुरक्षा प्रदान करने के लिए भारत में औपनिवेशिक शासन मजबूत करना आवश्यक था। 1850 के बाद ब्रिटिश पूंजी की बहुत बड़ी रकम भारत में रेलवे, भारतीय सरकार के ऋण, व्यापार व कुछ हद तक बागान, कोयला खान, जूट कारखाने, जहाजरानी (शिपिंग) तथा बैंकिंग में लगाई गयी थी।

भारत ने भी ब्रिटेन के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। संसार के विभाजन और पुनर्विभाजन के संघर्ष में ब्रिटेन के प्रतिद्वन्दियों से लड़ने के लिए इसकी सेना-लोग व आर्थिक स्रोत प्रयोग किए जा सकते थे। असल में अफ्रीका और एशिया में ब्रिटिश साम्राज्य की सुरक्षा, विस्तार और दृढ़ीकरण के लिए भारतीय सेना मुख्य यंत्र थी। परिणाम था एक महँगी व स्थायी सेना जिसने 1904 में भारतीय उत्पादन का 52 प्रतिशत समाविष्ट कर लिया।

राजनीतिक व प्रशासनिक रूप से उपनिवेशवाद की तृतीय अवस्था का अर्थ था भारत पर नवीकृत तथा अधिक तीव्र नियंत्रण। इसके अतिरिक्त पहले की अपेक्षा अब यह अधिक महत्वपूर्ण था कि औपनिवेशिक शासन भारत के हर स्थान और कोने में । पहुँचना चाहिए । प्रशासन पहले की अपेक्षा अब नौकरशाही के रूप में अधिक मजबूत, कार्यकुशल व व्यापक हो गया। रेलमार्ग भी अब बहुत तेजी से बनाये गये।

उपनिवेशवाद की विचारधारा में अब एक मुख्य परिवर्तन आ गया। भारतीय लोगों को स्वशासन के लिए प्रशिक्षण देने की सभी बातें समाप्त हो गयीं (भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दबाव के परिणामस्वरूप 1918 के बाद 20वीं शताब्दी में यह दोहराया गया) इसके अतिरिक्त ब्रिटिश शासन का उद्देश्य भारतीय लोगों पर स्थायी प्रशासन घोषित कर दिया गया था। भारतीय जनता स्थायी रूप से अपरिपक्व या अव्यवस्थित जनता घोषित कर दी गयी थी जिसे ब्रिटिश नियंत्रण या न्यायिता की आवश्यकता थी। भूगोल, “जाति”, वातावरण, इतिहास, धर्म, संस्कृति व सामाजिक संगठन ऐसे तत्वों के रूप में उद्धृत किए गए थे जिन्होंने स्वशासन व प्रजातंत्र के लिए भारतीयों को स्थायी रूप से अनुपयुक्त बना दिया। इसलिए ब्रिटेन को उन पर आने वाले शताब्दियों के लिए सद्भावनापूर्ण तानाशाही का प्रयोग करना था।

इस काल में भारत के परिवर्तन के प्रयास यद्यपि एक बार फिर छुटपुट परिणामों के साथ जारी रहे । यह आंशिक रूप से पहले चर्चित आर्थिक अभाव और राष्ट्रीय आंदोलन के उदय के कारण था। फिर भी इन सीमित परिवर्तनों ने बुद्धिजीवी वर्ग को जन्म दिया जिसने उपनिवेशवाद का विरोध करना प्रारंभ कर दिया तथा औपनिवेशिक शोषण के तंत्र का विश्लेषण किया। परिवर्तन के किसी भी प्रयास में सम्मिलित इसे एक गंभीर संकट के रूप में देखा गया था। ब्रिटिश प्रशासक सामाजिक व सांस्कृतिक प्रश्नों पर तटस्थ बने रहे, और फिर सामाजिक व आर्थिक प्रतिक्रियावादियों को देशी संस्थाओं को सुरक्षित रखने के नाम पर सहायता देना शुरू कर दिया।

सारांश

उपनिवेशवाद में भारतीय अर्थव्यवस्था तथा समाज पूर्ण रूप से ब्रिटिश अर्थव्यवस्था के अधीन थे। परिणाम यह हुआ कि सन् 1760 के तुरन्त बाद के वर्षों में जब ब्रिटेन संसार के प्रमुख पूंजीवादी देश के रूप में विकसित हो रहा था उस समय भारत के विकास की गति बहुत धीमी रही और अंत में वह एक पिछड़े हुए उपनिवेश के रूप में परिवर्तित हो गया।

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