1857 का विद्रोह

पहले की इकाइयों में आपने साम्राज्यवाद तथा उपनिवेशवाद के विभिन्न पहलुओं की जानकारी प्राप्त की है। आप जानते हैं कि देश पर अपने शासन काल के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय जनता को शोषित तथा उत्पीड़ित किया। यद्यपि समय-समय पर भारतीय जनता के विभिन्न वर्गों ने अंग्रेजी हुकूमत का विरोध किया किंतु यह 1857 का महान् जागरण था जिसने अखिल भारतीय स्तर पर अंग्रेजी हुकूमत को जबरदस्त चुनौती दी, जिसे बहुधा प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहा जाता है। इस इकाई को पढ़ने के बाद आपः

  • 1857 के विद्रोह के कारणों का सुराग पा सकते हैं।
  • विभिन्न घटनाओं तथा संघर्षों तथा विभिन्न वर्गों और उनके नेताओं की भूमिका के विषय में जान सकते हैं।
  • उन क्षेत्रों का पता लगा सकते हैं जहाँ 1857 के विद्रोह में अंग्रेजी प्रभुसत्ता को सबसे गंभीर चुनौती मिली।
  • उन कारणों का पता लगा सकते हैं जिनसे यह विद्रोह विफल रहा।
  • इस प्रभाव को समझ सकते हैं और विद्रोह की प्रकृति के बारे में राय बना सकते हैं।

1857 का विद्रोह ब्रिटिश शासन से भारतीय जनता की मुक्ति के संघर्ष के इतिहास में सबसे महत्वपूर्ण अध्यायों में से एक है। इसने भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी और कई बार तो ऐसा लगने लगा कि भारतवर्ष में ब्रिटिश साम्राज्य का अंत हो जाएगा । यद्यपि यह एक महज सिपाही विद्रोह के रूप में शुरू हुआ था किंतु शीघ्र ही इसने उत्तर भारत के विस्तृत क्षेत्र की जनता एवं कृषक वर्ग को भी शामिल कर लिया।

इस विद्रोह ने इतना व्यापक रूप लिया कि उस समय के कुछ पर्यवेक्षकों ने इसे राष्ट्रीय विद्रोह की संज्ञा दी। फिरंगियों के प्रति घृणा का भाव इतना तीव्र एवं तीखा था कि एक पर्यवेक्षक डब्लू० एच० रसेल को बाध्य होकर लिखना पड़ा :

“गोरे लोगों की गाड़ी की ओर कोई दोस्ताना नजर से नहीं देखता ओह! उन आंखों की भाषा! कौन संदेह कर सकता है? कौन गलत समझ सकता है? सिर्फ इसी से मैने जाना कि गोरे लोगों से न सिर्फ लोगों में खौफ है बल्कि सभी इससे घृणा भी करते हैं।”

इस इकाई में हम आपको इस महान् विद्रोह के विभिन्न पहलुओं से परिचित कराएंगे।

कारण

यह विद्रोह कैसे भड़का? इसके कारण क्या थे? इसका मुख्य कारण अंग्रेजों द्वारा भारतीय जनता का अमानवीय शोषण था। ब्रिटिश शासन जिसका प्रारंभ विधिवत् रूप से 1757 में प्लासी युद्ध के बाद बंगाल में हुआ था, भारतीयों का शोषण कर ईस्ट इंडिया कंपनी का खजाना भरता रहा । ईस्ट इंडिया कंपनी सौदागरों और व्यापारियों द्वारा शासित थी जो स्वयं को समृद्ध करने के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। कंपनी सन् 1600 ई० में बनी और इसे महारानी एलिजाबेथ ने राजसी अधिकार पत्र दिया जिससे इसे पूर्व से व्यापार करने की विशेष सुविधा प्रदान की गयी । इनका मुख्य उद्देश्य भारत में व्यापार क्षेत्र में एकाधिकार प्राप्त करना था।

यह व्यापार करने वाली कोई साधारण कंपनी नहीं थी बल्कि इसके पास प्रशिक्षित सैनिक थे जिन्होंने पुर्तगाली तथा फ्रांसीसी व्यापारिक कंपनियों से 17वीं और 18वीं शताब्दियों में एकाधिकार प्राप्त करने के लिए लड़ाइयाँ लड़ी थीं। इन प्रतिद्वंद्वी शक्तियों को पराजित करने के पश्चात इन्होंने भारतीय व्यापारियों को, जो इनसे टक्कर ले रहे थे, परास्त कर दिया।

1757 में प्लासी युद्ध जीतने के बाद उन्होंने अपने अधिकार क्षेत्र में अपने व्यापारिक नीति को सफलतापूर्वक लागू कर दिया तथा भारतीय व्यापारियों की प्रतिद्वंद्विता को भी पूरी तरह समाप्त कर दिया, उन्होंने भारतीय कारीगरों पर दबाव डाला। कारीगरों के उत्पादन को ऐसे मूल्यों पर बेचने के लिए बाध्य किया जो उनके लिए बिल्कुल अलाभकारी थे। कारीगरों को अब इतनी कम मजदूरी मिलती थी कि वे मुश्किल से गुजारा कर पाते थे। किंवदंती तो यह है कि ईस्ट इंटिया कंपनी द्वारा इतनी कम मजदूरी देने के विरोध में ढाका के बुनकरों ने, जो मलमल की बारीक बुनाई के लिए मशहूर थे, अपने अंगूठे काट लिए ।

कृषकों का शोषण

यद्यपि व्यापार क्षेत्र में एकाधिकार से ईस्ट इंडिया कंपनी काफी समृद्ध हो गयी तथापि इनके आय का मुख्य स्रोत भूमि ही था। बंगाल में स्वयं को स्थापित करने के पश्चात इसने भारतवर्ष में अपनी शक्ति, युद्ध तथा संधियों के जरिए बढ़ायी। पैसा उगाहने के लिए जहाँ तक संभव हुआ भूमि व्यवस्था के नए उपाय निकाले । स्थाई, रैयतवारी, और महलवारी एक से बढ़कर एक दमनकारी। स्थायी भूमि व्यवस्था में जो बंगाल प्रेसीडेंसी तथा उत्तर भारत के बड़े हिस्से में लागू थी, कृषकों को भूमि पर वंशानुगत स्वामित्व अधिकार नहीं दिया गया जो उन्हें पहले प्राप्त था। राजभक्त जमींदार तथा राजस्व समाहर्ता को अब भूमि का स्वामित्व अधिकार दे दिया गया। कृषकों की हैसियत घटकर एक सामान्य काश्तकार की सी हो गयी। परन्तु नए भू-स्वामियों को भी पूर्ण अधिकार नहीं दिया गया। उनकी स्थिति को जानबूझकर अधर में लटकाए रखा गया।

कृषकों से प्राप्त लगान में से 10/11 वाँ हिस्सा उन्हें कंपनी को देना पड़ता था ऐसा नहीं कर पाने पर उनकी सम्पत्ति को दूसरों के हाथ बेच दिया जाता था।

अन्य भूमि व्यवस्था भी कोई बेहतर नहीं थी। हर स्थिति मे इन कृषकों को अपनी हैसियत से ज्यादा लगान भरना पड़ता था और अगर कभी कोई प्राकृतिक विपदा जैसे-सूखा व बाढ़ हुई तो उन्हें बाध्य होकर महाजनों से कर्ज लेना पड़ता था जो उनसे अत्यधिक सूद लेते थे। इससे खेतिहर कर्ज के बोझ से इतना ज्यादा दब जाते थे कि उन्हें बाध्य होकर अपनी भूमि इन महाजनों के हाथ बेच देनी पड़ती थी। यही कारण है कि ग्रामीण समाज में ये महाजन बहुत अधिक घृणा से देखे जाते थे। प्रशासन के निम्नस्तरीय अधिकारी भी कृषकों पर अत्याचार करते थे और छोटा से छोटा बहाना बनाकर इनसे पैसा ऐंठ लेते थे।

अगर ये खेतिहर न्याय की भिक्षा माँगने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाते थे तो उनकी पूर्ण बरबादी अवश्यम्भावी थी। जब फसल अच्छी होती थी तो खेतिहरों को पुराना कर्ज चुकाना होता था, और जब खराब होती तो कर्ज़ का बोझ दुगना हो जाता था। अधीनस्थ कर्मचारियों, न्यायालयों तथा महाजनों के बीच इस गठबंधन से ऐसी स्थिति पैदा हो गयी जिससे कृषक व्यग्र हो उठे और सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए किसी भी अवसर का स्वागत करने को तैयार हो गए।

मध्य तथा उच्च स्तरीय भारतीयों का अलगाव

महज कृषक वर्ग ही नहीं बल्कि उच्च तथा मध्य स्तरीय भारतीय भी अंग्रेजी शासन से असंतुष्ट थे। मुगल या यहाँ तक कि स्थानीय रियासतों और प्रधानों के शासन की अवधि में भारतीय हर स्तर-उच्च तथा निम्न पद पर कार्य करते थे। अब अंग्रेजी प्रशासन में भारतीय सिर्फ अधीनस्थ तथा अन्य निम्न स्तर के पद पर ही काम कर सकते थे। यहाँ तक कि प्रखर बद्धि व क्षमता के भारतीयों को भी औसत या उससे भी निम्न बुद्धि वाले उन ब्रिटिश अधिकारियों के अधीन काम करना पड़ता था जो सिर्फ अंग्रेज होने के नाते उच्च पदों के हकदार हो गए थे, फिर संस्कृति तथा कला के क्षेत्र में—कवि, नाटककार, लेखक तथा संगीतकार आदि जिन्हें देशी राज्यों में नियुक्त किया जाता था, उन्हें निकाल बाहर किया गया । धर्म के प्रतिनिधि जैसे पंडित और मौलवी भी अपनी पुरानी साख और प्रतिष्ठा खो बैठे।

रियासतों का विलय

ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने सहयोगियों को भी नहीं बख्शा । 1856 में नवाब वाजिद अली शाह के कुप्रशासन के बहाने अवध का देशी राज्य भी डलहौजी ने अंग्रेजी शासन में मिला लिया। इसके पहले 1848 में सतारा और 1854 में नागपुर तथा झांसी को इस बहाने मिला लिया था कि उनका कोई वंशानुगत उत्तराधिकारी नहीं था। इस विलय से इन राज्यों के शासक इतने क्षुब्ध हो उठे कि झांसी की रानी और अवध की बेगम अंग्रेजों के कट्टर दुश्मन बन गए। स्थिति और बदतर हो गयी जब अंग्रेजों ने नाना साहेब को जो पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे पेंशन देने से इंकार कर दिया । अवध के विलय से सिपाहियों में भी रोष था क्योंकि अधिकांश सिपाही अवध के ही निवासी थे। इस कार्रवाई से उनके देश प्रेम और गौरव को ठेस पहुँची। इसके अतिरिक्त चूँकि उनके रिश्तेदारों को अब भूमि-कर ज्यादा देना पड़ता था इससे सिपाहियों की आमदनी पर .” भी बुरा प्रभाव पड़ा।

अंग्रेजी शासन का विदेशीपन

ब्रिटिश शासन की अलोकप्रियता का दूसरा कारण था उनका परायापन। वे भारतीयों से कभी भी मेल-जोल नहीं बढ़ाते थे, यहाँ तक कि उच्च वर्ग के भारतीयों का भी वे तिरस्कार करते थे। वे भारतवर्ष में बसने नहीं आए थे बल्कि सिर्फ यहाँ से पैसा घर ले जाने आए थे। इस कारण भारतीय कभी भी उनके प्रति घनिष्ठता नहीं बढ़ा पाए ।

सिपाहियों पर प्रभाव

1857 की शुरूआत् सिपाही विद्रोह से हुई थी। ये सिपाही मुख्यतः उत्तर और उत्तर-पश्चिम भारत के कृषक वर्ग से आये थे। जैसा कि हमने देखा है, ईस्ट इंडिया कंपनी की शोषक नीतियों से कृषक वर्ग गरीबी तथा बरबादी की ओर अग्रसर हो रहा था। इसका प्रभाव सिपाहियों पर भी पड़ा । वस्तुतः इनमें से अधिकांश कृषि से प्राप्त आय की कमी को दूर करने के लिए सेना में भरती हुए थे जैसे-जैसे समय बीतता गया उन्होंने अनुभव किया कि ऐसा कर पाना उनके वश में नहीं है । उनको 7 से 8 रुपये का मासिक वेतन प्राप्त होता था जिसमें से उन्हें अपने भोजन, वर्दी तथा व्यक्तिगत सामानों के वहन के लिए भी चुकाना पड़ता था।

एक भारतीय सिपाही का निर्वाह व्यय भारत में ब्रिटिश सिपाही पर आने वाले व्यय से एक तिहाई था। उसके अलावा भारतीय सिपाहियों के साथ ब्रिटिश अधिकारी अभद्र व्यवहार करते थे। उन्हें हमेशा गाली दी जाती थी और अपमानित किया जाता था। भारतीय जवान अपनी बहादुरी और महान् युद्ध सामर्थ्य के बावजूद सूबेदार के पद से ऊपर नहीं जा पाते थे जबकि इंग्लैंड का एक नव-नियुक्त सैनिक सीधा पदोन्नति पा जाता था।

धर्म को खतरा

सेना सुविधाओं में आई गिरावट के अतिरिक्त एक और कारण भी था जिससे सिपाही बगावत पर उतर आए। उनको ऐसा लगने लगा कि ब्रिटिश शासन द्वारा उनके धर्म पर हमला हो रहा है। ऐसा संदेह आम जनता में भी पैदा हो रहा था। मिशनरियों के धर्मपरिवर्तन के रवैये तथा कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने लोगों के मन में यह डर पैदा कर दिया कि उनका धर्म खतरे में है। कई स्थानों से ईसाई धर्म में परिवर्तन के समाचार मिले। सरकार चर्च को अपने खर्च से चलाती थी और कई जगह मिशनरियों को पुलिस सुरक्षा भी प्रदान करती थी।

इसके बाद सिपाहियों को अपनी जाति चिह्न (तिलक आदि) लगाने पर पाबंदी लगा दी गयी और 1856 में एक ऐक्ट पास हुआ जिसके तहत नए भर्ती होने वाले जवानों को आवश्यकता पड़ने पर विदेश में भी सेवा करने की शपथ लेनी पड़ती थी। इन सबसे सिपाहियों की रूढ़िवादी मान्यताएँ हिल उठीं और उन्होंने कई बार इन नीतियों के विरूद्ध जोरदार प्रतिक्रिया व्यक्त की। जैसे उदाहरण के लिए 1824 में जवानों के 40 वें रेजिमेंट ने जो बैरकपुर में था, समुद्री रास्ते से बर्मा जाने से इंकार कर दिया क्योंकि उनका धर्म उन्हें समुद्र को पार करने की अनुमति नहीं देता था उसके जवाब में अंग्रेजों ने काफी बेरहमी दिखाई, रेजिमेंट को विघटित कर दिया तथा कुछ नेताओं को मौत के घाट उतार दिया।

1844 में सात बटालियनों ने वेतन और भत्ते के प्रश्न पर विद्रोह कर दिया। यहाँ तक कि 1837-1842 के अफगान युद्ध के समय सैनिक एकदम विद्रोह पर उतर आये थे। सिपाहियों की तरह भारत की आम जनता भी अंग्रेजों के दमनकारी शासन के विरुद्ध विद्रोह पर उतर आई। इनमें से कच्छ (1816-32), कोल (1831) तथा संथालियों (1855-56) के विद्रोह प्रमुख हैं। परन्तु 1857 के विद्रोह की विशेषता यह थी कि यह सैनिक तथा आम जनता का मिला जुला विद्रोह था। दोनों के परस्पर सहयोग ने इस विद्रोह को अत्यंत शक्तिशाली बना दिया।

तात्कालिक कारण

वातावरण इतना उत्तेजनापूर्ण था कि छोटी सी वजह भी विद्रोह का कारण बन सकती थी। ग्रीज लगे कारतूस का प्रसंग अपने आप में इतना गंभीर कारण था कि यह कारण अकेला ही विद्रोह की शुरूआत् कर सकता था। यह सूखी लकड़ियों के ढेर के समान था जिसे आग लगाने के लिए चिंगारी की आवश्यकता थी। नए एनफिल्ड राइफल की कारतूसें जिन्हें सेना में तुरंत लाया गया था उनको ढकने के लिए ग्रीज लगा पेपर होता था जिसे रायफल में भरने से पहले दाँत से काटना पड़ता था। कई बार ग्रीज गाय व सूअर की चर्बी से बना होता था। इससे हिन्दू और मुस्लिम सिपाही क्रुद्ध हो उठे और उन्हें विश्वास हो गया कि सरकार जानबूझकर उनके धर्म को नष्ट करना चाहती है। यही इस विद्रोह का तात्कालिक कारण बना।

संगठन

अंग्रेजों के विरूद्ध विद्रोहियों ने किस तरह का बनाया? इस प्रश्न पर इतिहासकारों में काफी मतभेद है । एक मत यह है कि यह एक विस्तृत और सुसंगठित षडयंत्र था जबकि दूसरा मत यह है कि यह पूर्ण रूप से स्वतः स्फूर्त था। सच तो ये प्रतीत होता है कि विद्रोह के समय किसी न किसी तरह की सुसंगठित योजना तो जरूर थी परन्तु यह पूर्णतया परिपक्व नहीं हुआ था।

चूँकि विद्रोहियों ने छिपे तौर पर सब कुछ नियोजित किया था इसलिए उन्होंने इस गुप्त संगठन की प्रकृति, कार्य तथा ढाँचे का कोई लेखा-जोखा नहीं रखा था । परन्तु जो कहानियाँ हमारे सामने आयी हैं उनसे पता चलता है कि लाल कमलों तथा चपातियों को जो क्रमशः स्वतंत्रता तथा रोटी के प्रतीक थे, एक गाँव से दूसरे गाँव तथा एक रेजिमेंट से दूसरे रेजिमेंट तक पहुँचाया जाता था। इसके अलावा भाषण भी दिए जाते थे तथा भ्रमणकारी संन्यासियों तथा फकीरों ने उपदेशों के जरिए लोगों को उपनिवेशवादी ताकतों के खिलाफ खड़ा किया। इन सब ने सिपाहियों को विद्रोह के लिए तैयार करने में सहायता की ।

विद्रोह

27 मार्च 1857 को बैरकपुर में तैनात एक युवा सैनिक मंगल पांडे ने अकेले ही ब्रिटिश अधिकारियों पर हमला करके बगावत कर दी। उसे फाँसी पर लटका दिया गया और इस घटना पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। परन्तु इससे सिपाहियों में फैले अंसतोष तथा क्रोध का पता चल गया । इस घटना के एक महीने के अंदर 21 अप्रैल को मेरठ में तैनात देशी घुड़सवार सेना के नब्बे लोगों ने चर्बी लगे कारतूसों को इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया। उनमें से 85 को बरखास्त कर दिया गया । तथा 9 मई को 10 साल के लिए जेल की सजा दे दी गई। इस पर शेष भारतीय सिपाहियों में जोरदार प्रतिक्रिया हुई और अगले दिन 10 मई को मेरठ में तैनात पूरी भारतीय फौज ने विद्रोह कर दिया। अपने साथियों को मुक्त कराकर तथा ब्रिटिश अधिकारियों को मार कर उन्होंने दिल्ली की ओर कूच करने का निर्णय लिया। इससे पता चलता है कि उनके दिमाग में ब्रिटिश शासन का कोई न कोई विकल्प था।

दूसरी बात जिससे यह साफ पता चलता है कि यह एक महज सिपाही विद्रोह ही नहीं था वह यह कि लोगों ने जैसे ही सिपाहियों के अधिकारियों पर गोली चलाने की आवाज सुनी, आस-पास के सैनिक बाजारों को लूटना शुरू कर दिया और अंग्रेजों के बंगलों पर आक्रमण कर उन्हें जला डाला। आस-पास के गाँवों के गुर्जर शहर में घुस आये और विद्रोह में शामिल हो गए। दूरसंचार के तार काट दिए गए तथा घुड़सवारों को जो संदेश लेकर दिल्ली जाते थे, रोक दिया गया। जैसे ही मेरठ के सैनिक दिल्ली पहुंचे वहाँ भी भारतीय सेना ने बगावत कर दी और विद्रोहियों में शामिल हो गए। उन्होंने वृद्ध बहादुर शाह ज़फर को भारत का सम्राट घोषित कर दिया। इस प्रकार 24 घंटे के अंदर एक मामूली विद्रोह से शुरू होकर यह पूरे तौर पर राजनीति बगावत में परिवर्तित हो गया।

अगले एक महीने में बंगाल की पूरी फौज ने बगावत कर दी। सारा उत्तर तथा उत्तर पश्चिम भारत शस्त्र लेकर अंग्रेजों के विरूद्ध खड़ा हो गया। अलीगढ़, मैनपुरी, बुलंदशहर, इटावा, मथुरा, आगरा, लखनऊ, इलाहाबाद, बनारस, शाहाबाद, दानापुर तथा पूर्वी पंजाब जहाँ भी भारतीय सैनिक थे, उन्होंने विद्रोह कर दिया।सेना के विद्रोह करने से पुलिस तथा स्थानीय प्रशासन भी तितर-बितर हो गया। इसके तुरंत बाद शहर तथा गाँवों में विद्रोह शुरू हो गये। लेकिन कई स्थान ऐसे भी थे जहाँ के लोग सेना के विद्रोह से पहले ही बगावत कर चुके थे। जहाँ भी विद्रोह भड़का सरकारी खजाने को लूट लिया गया, गोले बारूद जब्त कर लिए गए, बैरकों और न्यायालयों को जला डाला गया और कारागार के दरवाजे खोल दिए गए ।

गाँवों में कृषकों तथा बेदखल किए गए जमींदारों ने महाजनों तथा नए जमींदारों पर जिन्होंने उन्हें बेदखल किया था, हमला कर दिया। उन्होंने सरकारी दस्तावेजों तथा महाजनों के बही खातों को नष्ट कर दिया। उन्होंने अंग्रेजों के बनाए न्यायालयों, राजस्व कार्यालयों, राजस्व दस्तावेजों तथा थानों को नष्ट कर दिया। इस तरह विद्रोहियों ने उपनिवेशवादी शासन के सभी चिह्नों को मिटाने का प्रयास किया।

जिन क्षेत्रों के लोगों ने बगावत में सक्रिय भाग नहीं लिया उन लोगों ने भी अपनी सहानुभूति विद्रोहियों को दी और उनकी सहायता की । ये कहा जाता था कि विद्रोही सिपाहियों को अपने साथ भोजन नहीं ढोना पड़ता था क्योंकि गाँव वाले उन्हें भोजन खिलाते थे। दूसरी तरफ ब्रिटिश फौजों के प्रति जनता का विद्वेष भी स्पष्ट था। उन्होंने उन्हें किसी भी तरह की सहायता अथवा सूचना देने से इंकार किया और कई अवसर पर उन्होंने ब्रिटिश फौजों को गलत सूचना देकर गुमराह भी किया।

मध्य भारत में भी जहाँ कि शासक ब्रिटिश शासन के प्रतिवफादार थे, फौजों ने विद्रोह कर दिया। हजारों की संख्या में इंदौर सैन्यदल, इंदौर में विद्रोही सिपाहियों के साथ हो गए। इसी प्रकार से 20,000 से भी ज्यादा ग्वालियर की सैन्यदल तात्या टोपे तथा झाँसी की रानी के साथ चले गए । सारे उत्तर और मध्य भारत में ब्रिटिश शक्ति सिर्फ आगरा तथा लखनऊ तक ही सीमित हो गयी थी। अन्य जगह अंग्रेजी फौज तथा अंग्रेजी शासन ताश के पत्तों की तरह बिखर गए।

विद्रोह की सबसे ध्यान देने वाली बात हिन्दू-मुस्लिम एकता थी । मेरठ व दिल्ली के हिन्दू सिपाहियों ने एकमत होकर बहादुर शाह को सम्राट घोषित किया। सभी हिन्दू और मुस्लिम सिपाहियों ने सम्राट का आधिपत्य स्वीकार किया और विद्रोह के बाद “दिल्ली चलो” का आह्वान किया। हिन्दू और मुस्लिम ने साथ मिलकर लड़ाई लड़ी और साथ ही मरे । जहाँ भी सिपाही पहुँचते हिन्दू भावनाओं के प्रति आदर करते हुए गोहत्या पर प्रतिबंध लगा दिया जाता था।

नेतृत्व

विद्रोह की आँधी दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, बरेली, झाँसी और आगरा में केंद्रित थी। प्रारंभिक तौर पर इन स्थानों के नेता, पूरी तरह स्वतंत्र थे, इसके बावजूद आंदोलन के समय इन सभी ने बहादुर शाह का आधिपत्य स्वीकार किया।

बख्त खाँ

दिल्ली में बहादुर शाह नेता थे। लेकिन वास्तविक अधिकार सिपाहियों के पास था । बख्त खाँ जिसने कि सिपाहियों के विद्रोह
का बरेली में नेतृत्व किया था, 3 जुलाई 1857 को दिल्ली पहुँचा । उस तिथि से उसने वास्तविक अधिकार का संचालन प्रारंभ किया। उसने सिपाहियों के न्यायालय की स्थापना की जिसमें दोनों हिन्दू और मुस्लिम विद्रोही शामिल थे। परन्तु उससे पहले ही से सिपाहियों ने सम्राट के आदेशों के प्रति विशेष ध्यान नहीं दिया। बहादुर शाह ने सेना के अधिकारियों की उनके न्यायालय में बेढंगे वस्त्र में आने पर और शासन के प्रति उनके अनादर के प्रदर्शन के तरीकों की भर्त्सना की।

नाना साहेब और तात्या टोपे

कानपुर में नाना साहेब द्वारा विद्रोह का नेतृत्व किया गया जो कि पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र थे। विद्रोही सिपाहियों । ने भी नाना साहेब को सहयोग दिया और उनके नेतृत्व में सैनिक और नागरिक दोनों ने मिलकर युद्ध किया। उन्होंने अंग्रेजों को कानपुर से बाहर निकाल दिया और नाना साहेब को पेशवा घोषित किया जिन्होंने कि बहादुर शाह को भारत का सम्राट स्वीकारा । पर ज्यादातर लड़ाइयाँ तात्या टोपे के नेतृत्व में ही लड़ी गई और वह एक महान् देशभक्त और ब्रिटिश विरोधी नेता के रूप में चर्चित रहे।

अवध की बेगम

लखनऊ में अवध की बेगम ने नेतृत्व प्रदान किया और अपने लड़के बिरजिस कदर को अवध का नवाब घोषित किया। लेकिन यहाँ भी सबसे प्रसिद्ध नेता हए फैजाबाद के मौलवी अहमदुल्ला जिन्होंने विद्रोहियों को संगठित किया तथा अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी।

रानी लक्ष्मीबाई

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई भी बहुत लोकप्रिय नेता थी। उनका यह विश्वास था कि हिन्दू कानून का उल्लंघन कर उनके शासन अधिकारों को छीना गया है। हालांकि वे आरंभिक अवस्था में हिचक रही थीं परन्तु एक बार विद्रोह में शामिल होने के बाद उन्होंने बहादुरी से युद्ध किया।

कुंवर सिंह

लेकिन सबसे ज्यादा लोकप्रिय और विशिष्ट नेता आरा के कुंवर सिंह थे। उनके नेतृत्व में सैनिक और नागरिक विद्रोह पूरी तरह मिल गये थे और अंग्रेज उनसे सबसे ज्यादा भयभीत रहते थे। युद्ध दल के करीब 5,000 जवानों के साथ जिनमें कि दानापुर के 600 सिपाही और रामगढ़ के विद्रोही भी शामिल थे, कुंवर सिंह ने मिर्जापुर, बांदा और कानपुर के क्षेत्रों में कूच किये। वेरेवा राज्य तक पहुँचे और यह सोचा गया कि जितनी जल्दी रेवा विद्रोहियों के हाथ आ जाएगी, ब्रिटिश बाध्य होकर दक्षिण की ओर जायेंगे। लेकिन, किसी कारणवश कुंवर सिंह दक्षिण दिशा की तरफ नहीं बढ़े।वे बांदा लौट आये और वहाँ से आरा वापस पहुँचे जहाँ कि उन्होंने ब्रिटिश दल को परास्त किया। वे गंभीर रूप से घायल हो गए और अपने पैतृक घर । जगदीशपुर में 27 अप्रैल 1858 को उनकी मृत्यु हो गयी।

अज्ञात शहीद

अपनी वीरता और देश भक्ति के लिए याद किये जाने वाले इन नेताओं के अतिरिक्त, अनेक अज्ञात नेता सिपाहियों, कृषकों और छोटे-छोटे जमींदारों के बीच थेजो कि वीरता और शौर्य में किसी से कम नहीं थे। उन्होंने भी ब्रिटिश को भारत से बाहर निकालने के लिए अभूतपूर्व शौर्य के साथ युद्ध किया । कृषकों और सिपाहियों ने अपने धर्म और जाति के मतभेदों को भुलाकर और अपने संकीर्ण स्वार्थों से ऊपर उठकर देश की खातिर अपने जानों की कुर्बानी दी।

पराजय

अंग्रेजों ने 20 सितंबर 1857 को दिल्ली पर कब्जा किया। इससे पहले विद्रोहियों को कानपुर, आगरा, लखनऊ और कुछ अन्य जगहों पर मात खानी पड़ी। पर इन सब पराजयों से विद्रोहियों के जोश में कमी नहीं आई। लेकिन दिल्ली के पतन होते, ही उन्हें गहरा आघात लगा। इससे अब स्पष्ट हो गया कि अंग्रेजों का ध्यान सबसे अधिक दिल्ली पर क्यों केन्द्रित था।और इसके लिए उन्हें काफी जन और माल की हानि उठानी पड़ी। बहादुर शाह को दिल्ली में कैद कर लिया गया और उसके राजकुमारों को पकड़कर कत्ल कर दिया गया।

एक के बाद एक सभी विद्रोही नेताओं की हार होती गई। नाना साहेब कानपुर में पराजित हुए और उसके बाद 1857 के शुरू में नेपाल भाग गए। उनके बारे में उसके बाद कुछ पता नहीं चला। तात्या टोपे मध्य भारत के जंगलों में भाग गए। वहीं से गुरिल्ला युद्ध जारी रखा । अप्रैल 1857 में उनके एक जमींदार मित्र ने धोखे से सुप्तावस्था में उन्हें गिरफ्तार करवा दिया। उन. पर शीघ्र मुकदमा चलाकर उन्हें 15 अप्रैल 1858 को फांसी दे दी गयी। झांसी की रानी 17 जून 1858 को लड़ाई के मैदान में मारी गयीं। 1859 तक कुँवरसिंह, बख्त खाँ, बरेली के खान बहादुर खान, मौलवी अहमदुल्ला सभी मर चुके थे जबकि अवध की बेगम नेपाल भाग गयीं थीं। 1859 के अंत तक, अंग्रेजों का भारत के ऊपर फिर से पूरी तरह और दृढ़ता से प्रभुत्व कायम हो गया।

विफलता के कारण

इस शक्तिशाली विद्रोह के पतन के कई कारण थे। इनमें से हम कुछ के बारे में आपको बताएंगे।

एकरूप विचारधारा एवं कार्यक्रम का अभाव

1857 के विद्रोह ने ब्रिटिश सरकार और शासन प्रणाली को कुछ समय के लिए उखाड़ फेंका, लेकिन निटोही यह नहीं जानते थे कि इसकी जगह पर क्या विकल्प होना चाहिए। उनके दिमाग में कोई भी दूरदर्शी योजना नहीं थी इस कारण उन्हें पुरानी सामन्त व्यवस्था की ओर देखना पड़ा। यह व्यवस्था इतनी जर्जरित हो चुकी थी और उसमें इतनी शक्ति भी नहीं रह गई थी. जिससे कि अंग्रेजों का सामना कर पाए । इन शासकों की असफलता के कारण ही अंग्रेज सारे भारत को अधीन करने में सफल हो सके थे। इन लोगों पर भरोसा रखने के कारण विद्रोहियों को भारतीयों में एक नई चेतना जगाने में बाधा उपस्थित . हुई । केवल राष्ट्रीय एकता ब्रिटिश शासन का सक्षम विकल्प बना सकती थी।

भारतीयों में एकता का अभाव

जैसा कि बताया जा चुका है कि भारतीयों में कोई व्यापक एकता नहीं बन पाई थी। यद्यपि बंगाल के सिपाहियों ने विद्रोह में भाग लिया था किंतु सिख तथा दक्षिण भारतीय सिपाही अंग्रेजों की ओर से विद्रोहियों का दमन कर रहे थे। इसके अतिरिक्त पूर्व एवं दक्षिण भारत के अधिकतर क्षेत्रों में कोई विद्रोह नहीं हुए । सिखों ने भी विद्रोहियों का साथ नहीं दिया। इन वर्गों के विद्रोह में भाग नहीं लेने के निजी कारण थे। मुगल शासन के पुनरूत्थान की संभावना से सिखों में भय उत्पन्न हो गया था।

ये मुगलों के द्वारा बहुत सताए गए थे। इसी प्रकार राजस्थान के राजपूत राजाओं और हैदराबाद के निजाम मराठा शक्ति के पुनरूत्थान से आशंकित थे, मराठों ने इनके राज्यों में जा-जाकर लूटपाट मचायी थी। इसके अलावा, कृषकों के कुछ वर्गों ने जो ब्रिटिश शासन से लाभान्वित थे अंग्रेजों को विद्रोह के खिलाफ सहयोग दिया। बंगाल महाप्रांत के जमींदार, ब्रिटिश शासन के ही उपज थे और उनका सहयोग स्वाभाविक ही था । यही बात कलकत्ता, बंबई एवं मद्रास के बड़े व्यापारियों के साथ भी लागू होती है जो कि विद्रोहियों के साथ होने की बजाय अंग्रेजों के सहायक बने।

शिक्षित भारतीयों के सहयोग का अभाव

आधुनिक शिक्षित भारतीयों ने भी विद्रोह को सहयोग नहीं दिया क्योंकि उनके विचार से विद्रोह का रूप पिछड़ा हुआ था। यह शिक्षित मध्य वर्ग ब्रिटिश शिक्षा व्यवस्था की उपज थे और उनकी ऐसी धारण बन गयी थी कि देश को आधुनिकीकरण की ओर अग्रसर करने में अंग्रेज ही नेतृत्व प्रदान कर सकते हैं।

नेताओं में फूट

सबसे मुख्य समस्या विद्रोहियों के वर्ग में एकता के अभाव की थी। उनके नेता एक दूसरे के प्रति संदेहास्पद एवं इालू थे
और अक्सर छोटे झगड़ों में उलझते रहते थे। उदाहरण के लिए अवध की बेगम, मौलवी अहमदुल्ला के साथ और मुगल शासक, सेना प्रमुख के साथ झगड़ते रहते थे। नाना साहेब के राजनीतिक सलाहकार अजीमुल्लाह ने उन्हें दिल्ली नजाने की सलाह दी क्योंकि वे सम्राट बहादुरशाह के सामने छोटे पड़ जायेंगे इसलिए नेताओं के स्वार्थपन एवं संकीर्ण दृष्टिकोण ने विद्रोह को दुई बना दिया और इसके एकीकरण में रुकावट डाली।

ब्रिटिशों की सैनिक श्रेष्ठता

विद्रोह की विफलता का अन्य मुख्य कारण था अंग्रेजों के पास उत्कृष्ठ शस्त्रों का होना । दुनियाभर में अपनी शक्ति की ऊँचाई पर तथा ज्यादातर भारतीय शासकों एवं प्रधानों के द्वारा समर्थित ब्रिटिश साम्राज्यवाद विद्रोहियों के लिए सैन्य रूप से कहीं ज्यादा मजबूत था । जबकि विद्रोहियों में अनुशासन एवं केंद्रीय नियंत्रण का अभाव था, अंग्रेजी सेना को लगातार अनुशासित जवानों, युद्ध सामग्रियों और पैसों का स्रोत ब्रिटेन से मुहैया होता था। सिर्फ साहस से ही शक्तिशाली एवं निर्धारित शत्रु को, जिन्होंने अपनी युद्ध नीति चतुराई के साथ नियोजित की थी, नहीं जीता जा सकता था। अनुशासनहीनता के कारण ही मुठभेड़ में विद्रोहियों को अंग्रेजों की अपेक्षा अधिक जान माल की हानि उठानी पड़ी। अंग्रेजी सेना की श्रेष्ठता देखकर भारतीय सिपाहियों में से अधिकतर अपने गाँव वापस लौट गए।

प्रभाव

1857 विद्रोह की असफलता के बावजूद इसने भारत में ब्रिटिश प्रशासन को गहरा आघात पहुँचाया। विद्रोह के बाद के ब्रिटिश शासन की संरचना और नीतियों में भारी फेर-बदल किया गया।

सत्ता का हस्तांतरण

पहला मुख्य परिवर्तन यह था कि भारत का शासन 1858 एक्ट के द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश क्राउन के पास चला गया। अब भारत के लिए राजकीय सचिव (सेक्रेटी आफ स्टेट) जिसे एक परिषद् द्वारा सहयोग प्राप्त होगा, भारत में शासन के लिए जिम्मेवार था। पहले यह अधिकार कंपनी के निर्देशकों के पास हुआ करता था।

सैन्य संगठन में परिवर्तन

दूसरा मुख्य परिवर्तन सेना में किया गया । भविष्य में भारतीय सिपाहियों द्वारा कोई भी विद्रोह न हो इसके लिए कई कदम उठाए गए। प्रथमतः यूरोपीय जवानों की संख्या बढ़ा दी गयी और बंगाल की सेना में दो भारतीय सिपाहियों पर एक यूरोपीय, बंबई एवं मद्रास की सेनाओं में पांच भारतीय सिपाहियों पर दो यूरोपीय को नियुक्त किया गया यूरोपीयन फौज को प्रमुख भौगोलिक एवं सैन्य स्थितियों में रखा गया। सेना की प्रमुख शाखाओं जैसे तोपखानों को सिर्फ यूरोपियों के हाथों सौंप दिया गया। दूसरा सेना के भारतीय वर्गका संगठन “फूट डालो और शासन करो” की नीति पर आधारित था। जवानों में राष्ट्रीय भावना न जागे इसलिए जाति, समुदाय और क्षेत्र के आधार पर रेजिमेंटों की स्थापित हुई।

 फूट डालो और शासन करो

इस नीति को सामान्य जनता में भी लागू किया गया। चूंकि अंग्रेजों ने यह सोचा कि विद्रोह का षडयंत्र मुसलमानों द्वारा रचा गया था इसलिए इन्हें कठोर दंड दिए गए और उनके साथ लोक नियुक्तियों एवं कई अन्य क्षेत्रों में भेदभाव बरता गया। इस नीति को बाद में उलट दिया गया और मुसलमानों के लिए एक विलम्बित प्रसादन की शुरुआत हुई। 19वीं सदी के अंत में मुसलमानों को हिंदुओं से बेहतर सुविधा देने की योजना बनायी गयी जिससे कि भारतीयों में भेदभाव उत्पन्न करके आंदोलन को कमजोर किया जा सके। इन नीतियों ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में समस्यायें पैदा की और सांप्रदायिकता के विकास में योगदान देना।

रियासतों के प्रति नयी नीति

दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव ब्रिटिश नीतियों का रियासतों की तरफ था। विलय की पूर्व नीति को अब छोड़ दिया गया और शासकों को उत्तराधिकारी चुनने का अधिकार मिला। यह उन देशी शासकों को उपहार स्वरूप मिला जो कि विद्रोह के समय अंग्रेजों के साथ थे। हालांकि भारतीय शासकों का यह अधिकार एक निश्चित क्षेत्रों में पूर्णतया ब्रिटिश अधिकार के अधीनस्थ कर दिया गया और उनको सुविधा आश्रितों में बदल दिया गया।

 नए सहयोगियों की खोज

इन परिवर्तनों के अलावा, अंग्रेजों का ध्यान भारतीयों के सबसे ज्यादा प्रतिक्रियावादी वर्ग की तरफ गया जैसे जमींदार, राजकुमार और भूपति ताकि अपनी स्थिति को इस देश में और मजबूत बना सकें। दरअसल 1857 के विद्रोह ने ब्रिटिश शासन के वास्तविक प्रतिक्रियावादी स्वभाव को धरातल पर ला दिया।ज्यादातर भारतीयों को यह अहसास हो गया कि भारत में ब्रिटिश शासन वास्तविक रूप में जन विरोधी था और यह निश्चित रूप में दमनकारी और उनके देश हित का विरोधी था।

मूल्यांकन

विद्रोह के कई पहलुओं पर विचार करने के बाद अंत में हम लोग देखेंगे कि 1857 की घटनाओं की कैसे तात्कालीन अधिकारियों और उनके बाद के विद्वानों ने व्याख्या की है।

1857 के विद्रोह की प्रकृति के बारे में शुरू से ही मतभेद है । ब्रिटिश अधिकारिक व्याख्या यह थी कि केवल बंगाल की सेना ने ही बगावत की और नागरिक अशांति, कानून और व्यवस्था तंत्र के टूट जाने से पैदा हुई। कई अधिकारियों ने यह सोचा कि यह केवल एक सैनिक बगावत है। लेकिन इस विचार का बेंजामिन डिजरैली (Benjamin Disraeli) ने जो कि कन्सरवेटिव (Conservative) नेता थे। जुलाई 1857 में खंडन किया। उन्होंने कहा : “साम्राज्यों का पतन मात्र ग्रीज लगे कारतूसों द्वारा नहीं हो सकता। ऐसा निश्चित कारणों और निश्चित कारणों के एकत्रित होने के अवसर पर ही होता है।” फिर उन्होंने पूछा : “क्या यह एक सैनिक बगावत है अथवा राष्ट्रीय विद्रोह?”

इन सरकारी विचारों को भारत में एक ब्रिटिश समुदाय के वर्ग में भी चुनौती दी कर्नल जी.बी. मैलेसन (G.B. Melleson) जिन्होंने बाद में जे. डब्ल्यू. केय (J.W. Kaye) के “सिपाही युद्ध के इतिहास” को पूरा किया, अधिकारियों के सामान्य बगावत के सिद्धांत को चुनौती दी। “संकट आया : शुरू में प्रत्यक्ष रूप से एक सिपाही विद्रोह के रूप में, पर समय के साथ इसने अपना चरित्र बदल दिया और एक राष्ट्रीय विद्रोह बन गया।” वी.डी. सावरकर ने इस विद्रोह की राष्ट्रवादी व्याख्या की

और 1909 में कहा कि यह प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम था। वी.डी. सावरकर के मतों का एस.बी. चौधरी ने समर्थन किया जिन्होंने अपने लेखों में यह प्रदर्शित किया कि 1857 “जन जागरण’ था। वस्तुतः इतिहास लेखन की परंपरा में भारत और पाकिस्तान दोनों में इसी तर्क को जल्द ही स्वीकार लिया गया।

उपर्युक्त विचार से भिन्न आर.सी. मजूमदार ने विवरण लिखा। उन्होंने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम मानने से इंकार किया। उनका मत था कि “1857 के विद्रोह को राष्ट्रीय अथवा स्वतंत्रता संग्राम मानना 19वीं सदी के भारतीय जन इतिहास के सही ज्ञान के साथ धोखा करना है।”

कुछ इतिहासकारों ने मुसलमानों के विशिष्ट वर्ग को गड़बड़ी भड़काने के लिए जिम्मेदार ठहराया है ऊटरम (Outram)ने विद्रोह को “हिन्दुओं की शिकायतों की आड़ में मुसलमानों का षडयंत्र माना है । यद्यपि दूसरे विचारक विश्वास करते हैं कि विद्रोह के दौरान लोग सिर्फ ब्रिटिश शासन के खिलाफ नहीं बल्कि सामंती संरचना के खिलाफ भी लड़ रहे थे। इन सामंती प्रधानों के धोखा देने के कारण विद्रोह असफल हो गया। तलमीज खालदून ने लिखा है कि “धनी वर्ग के धोखे की वजह से यह आसानी से कुचल दिया गया।”

बाद के इतिहास लेखक ने हालांकि विद्रोह के जनप्रिय चरित्र को स्वीकारा परंतु इसके पिछड़े दृष्टिकोण पर बल दिया। बिपिन चंद्र ने इस बात पर बल दिया है : ”

सारे आंदोलन में एक एकरूपता और भविष्यगामी कार्यक्रम की कमी थी जो कि सत्ता के छिनने के बाद लागू किया जा सके।” ताराचंद ने इस बारे में ज्यादा स्पष्टता से लिखा कि “1857 का विद्रोह एक कमजोर व्यवस्था अपनी खोयी हुई मर्यादा को पाने का अंतिम प्रयास था।”

परसिवल स्पीयर (Percival Spear) ने कहा “और यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि यह पूर्णतया एक सैनिक विद्रोह था जो कि भारतीय सेनाओं की शिकायतों और अनुशासनहीनता तथा ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों की गलतियों के कारण पैदा हुआ था। यह कहना कि बगावत आधुनिक स्वतंत्रता की ओर पहला प्रयास था, सच में दोषपूर्ण है । बल्कि, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में ये पुराने रूढ़िवादी भारत का अंतिम प्रयास था।”

हालांकि यहाँ कुछ ही व्याख्यायें दी गयी हैं पर इस मुद्दे पर बहस जारी है। आशा करते हैं कि भविष्य में हम 1857 के विद्रोह पर होने वाले शोध से और प्रबुद्ध हो सकेंगे।

 सारांश

1857 की घटनाएँ जिसकी कि हमने इस इकाई में चर्चा की है वह सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण नहीं है कि उसने विदेशी शासन के विरूद्ध जन भावना के निश्चित रूप को प्रदर्शित किया बल्कि इसलिए भी कि इसने अन्य कई परिवर्तनों की भी शुरूआत की। ये परिवर्तन सिर्फ नीति निर्धारण और राजनैतिक संरचना से ही संबंधित नहीं थे बल्कि जन विश्वासों, भावनाओं और ब्रिटिश शासन के प्रकृति के प्रति दृष्टिकोण से भी संबंधित थे । ब्रिटिश शासन की अपराजेयता हमेशा के लिए चकनाचूर हो गयी और विदेशी शासन के खिलाफ एक लबे और संगठित संघर्ष के लिए तैयारी हो गयी। यहीं से राष्ट्रीय आंदोलन की शुरूआत हुई जो कि अंततः 1947 में विदेशी शासन को समाप्त कर देश में आजादी ला सका।

शब्दावली

  • पर्यवेक्षकः देखभाल या निगरानी करने वाला
  • किंवदंतीः उड़ती खबर, अफवाह
  • समाहाः राजकर उगाहने वाला अधिकारी
  • काश्तकारः कृषक, खेतिहर
  • तिरस्कारः अनादर, अपमान
  • उगाहनाः दूसरों से धन आदि लेकर इकट्ठा करना
  • सुप्तावस्थाः सोने की स्थिति, सोये हुए पुनरूत्थानः पतन होने के बाद फिर से उठना
  • अमानवीयः मनुष्य के स्वभाव, प्रकृति या आचरण के विरूद्ध प्रतिवी सामने आकर लड़ने या विरोध करने वाला
  • मलमलः एक प्रकार का महीन कपड़ा
  • विलयः किसी देशी रियासत या राज्य के आसपास के दूसरे बड़े राष्ट्र या राज्य में मिलकर एक हो जाना ।
  • स्वतःस्फूर्तः अपने आप किया हुआ प्रतिक्रियाः कोई क्रिया होने पर उसके विरोध में होने वाली क्रिया
  • आह्वानः बुलाना, राजा की ओर से बुलावे का पत्र ।

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