मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार

1916 तक भारत और बिटेन के लगभग सारे महत्वपूर्ण राजनैतिक दल यह सोचने लगे थे कि सरकार की संरचना में कुछ परिवर्तन आवश्यक है। इस समय तक भारतीयों की आकांक्षाएं भी बढ़ चुकी थीं।  विश्व युद्ध के दौरान भारत में राजनैतिक दबाव के कारण तथा भारतीय सहयोग को जीतने की इच्छा के परिणामस्वरूप, ब्रिटिश सरकार ने भारत में मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार की शुरुआत की।

मोंटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार की ओर ले जाने वाली परिस्थितियाँ

मोर्ले और मिन्टो शायद ही यह कल्पना कर सकते थे कि जिन संवैधानिक सुधारों को, उन्होंने विभिन्न स्तरों पर साढ़े तीन साल के श्रमसाध्य विचार विमर्श के उपरान्त साकार रूप दिया था, वे सात वर्ष के उपरान्त ही किसी को भी संतुष्ट करने में असफल सिद्ध होंगे। सन् 1916 तक भारत के सभी राजनैतिक दलों ने, यहाँ तक कि ब्रिटेन के भी सभी राजनैतिक दलों ने यह महसूस कर लिया कि भारत सरकार की संरचना में कुछ परिवर्तन आवश्यक है।

यह मुख्यतः, अगस्त 1914 में विश्व यद्ध छिड़ने से उत्पन्न परिस्थितियों का परिणाम था। युद्ध से भारत की सरक्षा पर तत्काल कोई संकट नहीं आया था। चूँकि भारत ब्रिटिश साम्राज्य का एक अंग था इसलिए स्वतः भारत को भी इसमें शामिल कर लिया गया था। इसके पश्चात् भारत ने युद्ध में अंग्रेजों की ओर से जन, धन तथा रसद के रूप में हर संभव योगदान दिया। चूँकि भारत ने ऐसे संकट के समय में ब्रिटिश साम्राज्य की सहायता की थी, इसलिए भारतीयों की अपेक्षाएँ बढ़ चली थीं।

ऐसा नहीं था कि वे अपने शासक को सेवाएँ प्रदान करने का इनाम चाहते थे। वास्तव में यरोपीय सैनिकों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने से भारतीयों में एक नया आत्मविश्वास उपजा था। वे चाहते थे कि अपना शासन उन्हें खुद चलाने का अवसर देकर उनकी योग्यता को मान्यता प्रदान की जाये। इन आकांक्षाओं को विश्व युद्ध के दौरान विकसित आदर्शों ने नया बल प्रदान किया। अमरीका के राष्ट्रपति वुडरो विल्सन ने कहा था कि यह यद्ध विश्व में लोकतंत्र की रक्षा के लिए लड़ा जा रहा था। एक आशा बंधी कि, इस कथन का यह आशय अवश्य होगा कि, भारत स्वशासन के मार्ग की ओर अग्रसर होगा।

बढ़ती हुई आकांक्षाओं की इस पृष्ठभूमि में संवैधानिक सुधारों की अनेक योजनाएँ सुझाई गई। स्वयं भारतीयों ने अनेक योजनाएँ पेश कीं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण योजना वह थी जो लखनऊ में सन् 1916 के कांग्रेस-मुस्लिम लीग के संयुक्त अधिवेशन में प्रस्तुत की गई थी। इसके महत्व को जानने के लिए यह जरूरी है कि हम कुछ पीछे जायें। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, कि मोर्ले-मिन्टो सुधारों के बाद मुसलमान सरकार के समर्थक नहीं बने, बल्कि वास्तविकता यह थी कि शासक वर्ग और प्रजा के बीच की खाई और भी गहरी हो गई थी। इसके लिए कई बातें ज़िम्मेदार थीं। सन् 1911 में बंगाल विभाजन रद्द कर दिया गया था। इससे मुसलमानों का सम्मांत राजनैतिक दल नाराज़ हो गया था। सन् 1912 में लार्ड हार्डिंग की सरकार ने अलीगढ़ में विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रस्ताव को नामंजूर कर दिया था। सन् 1913 में कानपुर में उस समय दंगा हो गया जब मस्जिद से लगे हुए एक चबूतरे को तोड़ा गया।

भारत से बाहर, ब्रिटेन ने इटली और बालकन युद्धों में तुर्की की सहायता करने से इंकार कर दिया था। धीरे-धीरे मुहम्मद अली, शौकत अली, हसरत मोहानी और फज़लुलहक जैसे प्रगतिशील और उदार व्यक्तियों के नेतृत्व में, मुस्लिम लीग ने, भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप, अपना लक्ष्य-“भारत के लिए स्वशासन” मान लिया। मुसलमान विश्व युद्ध की परिस्थितियों के कारण उत्पन्न आकांक्षाओं से अछूते नहीं रह सकते थे। मुस्लिम लीग ने भारत की भावी सरकार की योजना बनाने के लिए कांग्रेस से गठबंधन किया। इसी समय श्रीमती एनी बेसेंट ने, जो कि अब तक सिर्फ धार्मिक क्षेत्र तक अपना कार्यक्रम सीमित किए हुए थीं, होमरूल लीग या होमरूल आंदोलन प्रारंभ किया।

तिलक सन् 1914 में जेल से छूटे थे। उन्होंने पूना में एक अन्य होमरूल लीग की स्थापना की। युद्ध के बाद इन दोनों लीगों ने बड़े उत्साह से भारत के लिए होमरूल या स्वशासन प्रदान किए जाने की माँग का गोष्ठियों, देश में भ्रमण करके दिए गए भाषणों, तथा बड़े पैमाने पर ज्ञापनों की बिक्री कर प्रचार किया। इन दोनों लीगों की गतिविधियों ने सरकारी खेमे में हलचल मचा दी। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि गवर्नर जनरल चेम्सफ़ोर्ड ने भारत सचिव से सरकारी नीति के विषय में एक आम वक्तव्य प्रसारित करने की माँग की। उसने होमरूल आंदोलन का उल्लेख किया और साथ ही साथ रूस में ज़ार के शासन का तख्ता पलट दिए जाने का भारतीय राजनीति पर पड़ने वाले असर का भी जिक्र किया। इसी बीच, लखनऊ में नरमदल, गरमदल, होमरूल आंदोलनकारी और मुस्लिम लीग एक जुट हुए और उन्होंने सर्वसम्मति से एक समझौता किया जिसे लखनऊ समझौते (दिसम्बर 1916) के रूप में जाना जाता है। उन्होंने एक साथ मिलकर संवैधानिक सुधारों की एक योजना भी तैयार की।

अंग्रेज़ों में एक प्रभावशाली दल ने जो कि अपने को “राउण्ड टेबिल” कहता था (इस वर्ग का यह दृष्टिकोण था कि सभी विवादों को मिल बैठकर हल किया जाना चाहिए), सरकार की संरचना के मुद्दे को उठाया। इसके सदस्यों (लियोनेल कर्टिस, विलियम ड्युक आदि) ने यह अनुभव किया कि बिना कोई प्रशासनिक उत्तरदायित्व प्रदान किए हुए, विधान परिषदों में चुने हुए प्रतिनिधियों का बहुमत स्थापित करने से निरंतर विरोध की स्थिति उत्पन्न होगी। इसलिए उन्होंने प्रांतों में द्वैध शासन (Dyarchy) स्थापित किए जाने का प्रस्ताव रखा। “डाइआर्की’ शब्द ग्रीक मूल का है और इसका शाब्दिक अर्थ है-एक ऐसी सरकार जिसमें सर्वोच्च शक्ति संयुक्त रूप से, दो व्यक्तियों, या दो राज्यों या दो संस्थाओं को प्रदान की गई हो।

इस पृष्ठभूमि में जब कि भारत सरकार से युद्ध कोश में दस लाख पौंड का योगदान माँगा गया, तो यह अनुभव किया गया कि जनमत को संतुष्ट करने के लिए कुछ कदम उठाने पड़ेंगे। सरकार को अपने खर्चे के लिए भी अतिरिक्त राजस्व की नितांत आवश्यकता थी। अंततः इसे आयात पर तटकर लगाने की अनुमति मिल गई। सूती कपड़े पर साढ़े सात प्रतिशत आयात कर लगा दिया गया जबकि आबकारी कर को साढ़े तीन प्रतिशत पर बरकरार रखा गया। इस कर को मुख्य रूप से आर्थिक कारणों से लगाया गया था। लेकिन इसने भारतीय कपड़ा उद्योग को कछ संरक्षण प्रदान किया और इस तरह एक सीमा तक, भारतीय नेताओं की दीर्घकाल से की जाती रही माँग को स्वीकार कर लिया गया। यह भी । निर्णय लिया गया कि ब्रिटिश सरकार को भारत में अपने संभावित लक्ष्य के विषय में भी एक वक्तव्य जारी करना चाहिए।

यह अनुभव किया गया कि थोड़ा-थोड़ा देने की या अनमानित विकास संबंधी योजनाएँ अब भारतीयों को स्वीकार्य नहीं हैं। केवल अपने लक्ष्य की घोषणा करने में पहल करके ही अंग्रेज़ स्थिति पर नियंत्रण पा सकते हैं।

भारतीयों को अधिक राजनैतिक शक्ति और उत्तरदायित्व प्रदान किए जाने की नीति मुख्य  रूप से भारत में राजनैतिक दबाव के कारण अपनाई गई थी। यह भारतीयों का समर्थन प्राप्त करने की एक युक्ति थी। इन्हीं परिस्थितियों में 20 अगस्त, 1917 को लॉर्ड मोन्टेग्य ने जो कि भारत के सचिव थे, ब्रिटिश संसद में निम्न वक्तव्य दिया:

“महामहिम की सरकार की यह नीति है कि प्रशासन की हर शाखा में भारतीयों का संयोजन बढ़ता जाये और स्वायत शासित संस्थाओं का इस बात को ध्यान में रखकर विकास किया जाये कि ब्रिटिश साम्राज्य के अविभाज्य अंग के रूप में भारत में उत्तरदायी शासन की स्थापना करना सरकार का लक्ष्य है।”

इस घोषणा में यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जो प्रगति होगी वह क्रमिक चरणों में होगी और इस दिशा में प्रभावशाली कदम तरंत उठाए जाएंगे। इस विषय में कब और कितनी प्रगति होगी, इसका निर्णय ब्रिटिश संसद द्वारा लिया जाएगा। इस प्रकार के मामलों में संसद का निर्णय भारतीयों द्वारा कार्यकुशलता के प्रदर्शन के आधार पर संचालित होना था। मोंटेग्य ने स्वयं भारत आने और संवैधानिक परिवर्तन की एक योजना तैयार करने का निश्चय किया। नवंबर 1917 में, लॉर्ड मोन्टेग्य भारत आए और उन्होंने वाइसरॉय लॉर्ड चेम्सफ़ोर्ड, केंद्रीय तथा प्रांतीय सरकारों के अधिकारियों तथा भारतीय नेताओं के साथ विचार विमर्श किया।

इन विचार विमर्शों के आधार पर भारतीय संवैधानिक सुधारों पर एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई जिसे मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट या सिर्फ मोन्टफ़ोर्ड रिपोर्ट (जुलाई 1918) कहा गया। कुल मिलाकर अगस्त 1917 की घोषणा का भारत में स्वागत ही हुआ। लेकिन जो योजना इस रिपोर्ट में पेश की गई उसे नरमदल के कुछ नेताओं को छोड़कर, शेष भारतीय नेताओं ने अपनी आशाओं से बहुत कम पाया। श्रीमती एनी बेसेंट ने इस प्रावधान को कि सत्ता हस्तांतरण धीरे-धीरे किया जाये, अंग्रेजों द्वारा दिए जाने के, और भारतीयों द्वारा स्वीकार किए जाने के, सर्वथा अयोग्य मानकर अस्वीकृत कर दिया।

बबंई में अगस्त 1918 में इस रिपोर्ट पर विचार करने के लिए कांग्रेस का विशेष अधिवेशन बलाया गया। इस अधिवेशन में इस योजना को अपर्याप्त, असंतोषजनक, और निराशापूर्ण बताते हुए इसकी भर्त्सना का एक प्रस्ताव पारित किया गया।

दूसरी ओर नरमदल के नेता यह मान चुके थे कि यह प्रस्ताव विद्यमान परिस्थितियों की तलना में काफी हद तक प्रगतिशील है और इसमें निहित सदविचारों का सम्मान करना चाहिए। मोंटेग्य जो कि इस काल में अपनी योजना के लिए समर्थकों की तलाश में थे, ने अपनी डायरी में लिखाः

“सरकार की हर संभव मदद से हमारे प्रस्तावों के प्रचार हेतु भारतीयों का एक नया संगठन बनाया जाएगा और हमारी मदद करने के लिए शिष्ट मंडल इंग्लैंड भेजा जाएगा।”

नरमदल ने बंबई के कांग्रेस अधिवेशन में भाग नहीं लिया और नवंबर, 1918 में बंबई में ही वे ऑल इंडिया कान्फ्रेंस में सम्मिलित हए। अपने अध्यक्षीय भाषण में रेन्द्रनाथ बनर्जी ने अपने दल की इस प्रकार व्याख्या की – “सुधारों को मित्र और क्रांति का शत्र।” मई, 1919 में सरेन्द्रनाथ बनर्जी ने संयक्त संसदीय समिति (ज्वाइंट पार्लियामेंटरी कमेटी) के समक्ष गवाही देने के लिए इंग्लैंड भेजे गए भारतीय शिष्ट मंडल का नेतृत्व किया। मोन्टफोर्ड रिपोर्ट के आधार पर ही गवर्नमेंट ऑफ इंडिया बिल तैयार किया गया और फिर उसे ब्रिटिश संसद में पेश किया गया। यह दिसम्बर, 1919 में ऐक्ट बन गया। इस ऐक्ट की प्रस्तावना अगस्त, 1917 की घोषणा पर आधारित थी।

केंद्रीय सरकार में परिवर्तन

मुख्य प्रशासनिक सत्ता गवर्नर जनरल के ही पास रही जो कि भारत सचिव के माध्यम से (न कि भारतीय विधान परिषद के माध्यम से) ब्रिटिश संसद के प्रति उत्तरदायी था। गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी का गठन किंचित परिवर्तन के साथ किया गया जबकि भारतीय विधान सभा के संगठन में काफी परिवर्तन किए गए। लेकिन यह स्पष्ट कर दिया गया कि इसका लक्ष्य, सदन की शक्ति में वृद्धि करना नहीं है बल्कि इसे और अधिक प्रतिनिधित्वपूर्ण बनाना और सरकार पर प्रभाव डालने के और अवसर प्रदान करना है।

प्रशासन की हर शाखा में भारतीयों के बढ़ते हुए संयोजन की नीति को कार्यान्वित करने के लिए, यह व्यवस्था की गई कि गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी परिषद् के कल छह सदस्यों में से तीन भारतीय होंगे। हालाँकि यह उल्लेखनीय है कि इन सदस्यों को अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण विभाग यथा कानून, शिक्षा, श्रम, स्वास्थ्य या उद्योग दिए गए। वे गवर्नर जनरल के प्रति जवाबदेह थे और उसके माध्यम से भारत सचिव को, न कि भारतीय विधान सभा (या परिषद) को।

ऐक्ट ने केंद्र में द्विसदनीय विधान सभा की व्यवस्था की। ये दो सदन थे काउंसिल ऑफ स्टेट तथा लेजिसलेटिव एसेम्बली। काउंसिल ऑफ स्टेट में कुल 60 सदस्य थे जिनमें से कम-से-कम 33 निर्वाचित सदस्य होने थे। मनोनीत सदस्यों में से अधिक से अधिक 20 सरकारी हो सकते थे। लेजिसलेटिव एसेम्बली के कुल 145 सदस्यों में से 104 निर्वाचित सदस्य होने थे, 30 का चुनाव मुसलमानों में से, 2 का चनाव सिक्खों में से, 7 का चुनाव ज़मींदारों में से, 9 का यरोपियों में से तथा 4 का इंडियन कॉमर्शियल कम्यनिटी अर्थात् भारतीय व्यापारिक संघ में से होना था। सांप्रदायिक निर्वाचक मंडल में सिक्खों को भी शामिल कर लिया गया था। यह उल्लेखनीय है कि प्रान्तों में इन स्थानों का वितरण उनकी जनसंख्या के आधार पर नहीं बल्कि उनके तथाकथित महत्व पर आधारित था। सदन का कार्यकाल तीन वर्ष का था परन्तु इसे गवर्नर जनरल द्वारा बढ़ाया जा सकता था।

विधान सभा की शक्तियाँ और कार्य करीब-करीब पहले की तरह ही रहे। केवल एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हआ कि प्रांतीय तालिका में उल्लिखित विषयों पर किसी विधेयक को प्रस्तुत करने के लिए गवर्नर जनरल की पूर्व स्वीकृति आवश्यक कर दी गई। गवर्नर जनरल की शक्ति का विस्तार किया गया। किसी भी विधेयक पर निषेधाधिकार का प्रयोग करने के अतिरिक्त गवर्नर जनरल को प्रमाणित करने की शक्ति (पॉवर ऑफ सर्टिफिकेशन) भी थी, अर्थात् वह किसी भी ऐसे विधेयक को कानून बना सकता था जो उसकी दृष्टि में आवश्यक था, भले ही उसे सदन ने नामंजूर कर दिया हो। वह ऐसा यह प्रमाणित करके कर सकता था कि यह विधेयक ब्रिटिश भारत की या उसके किसी भाग की सरक्षा, शांति या हितों के लिए अत्यावश्यक है। सवाल पूछने के कार्यक्षेत्र को बढ़ाया गया और सभी सदस्यों को पूरक प्रश्न करने का अधिकार प्रदान कर दिया गया।

मोंटफोर्ड योजना के अंतर्गत प्रांतों में आंशिक रूप से उत्तरदायी सरकार बनाई गई। इसके कारण केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के कार्यक्षेत्रों का सीमा निर्धारण आवश्यक हो गया। इसलिए दो तालिकाएँ तैयार की गई। यह विभाजन इस आधार पर किया गया कि जो विषय पुरे भारत से सम्बद्ध हैं या एक से अधिक प्रान्त से सम्बद्ध हैं उन्हें केंद्रीय तालिका में रखा जाना चाहिए ।

जबकि उन विषयों को जोकि केवल प्रान्तों से सम्बद्ध हैं उन्हें प्रांतीय तालिका में रखा जाना चाहिए। केंद्रीय विषयों में विदेश तथा राजनैतिक सम्बन्ध, सार्वजनिक ऋण, तटकर, सीमाशुल्क, राजकीय एकाधिकार पत्र, मुद्रा, संचार आदि सम्मिलित थे। प्रांतीय तालिका में स्थानीय स्वायत्त संस्थाएँ, स्वास्थ्य, सफाई, शिक्षा, सार्वजनिक कार्य, कृषि, वन, कानून, शांति व्यवस्था आदि विषय थे। शेष शक्तियाँ गवर्नर जनरल-इन काउंसिल में सन्निहित थीं।

यह अनुभव किया गया कि भारतीयों को आंशिक उत्तरदायित्व दिया जाना भी तभी सार्थक हो सकता है जबकि प्रांतीय विकास के लिए प्रांत भारत सरकार पर आश्रित न हों। इसलिए इस ऐक्ट में केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के लिए पृथक-पृथक राजस्व स्रोतों की व्यवस्था की गई।

प्रांतीय सरकारों में परिवर्तन

गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट 1919 के अंतर्गत प्रांतों में सरकार के कुछ कार्य भारतीयों को हस्तांतरित किए गए जबकि शेष ब्रिटिश नियंत्रण में सुरक्षित रखे गए। इस विभाजन के अधीन विषयों को दो समान भागों- “सुरक्षित” तथा “हस्तांतरित” में विभाजित किया गया। इसी के अनुरूप प्रांतीय सरकार भी दो समान भागों को मिलाकर गठित की गई थी। गवर्नर तथा उसकी कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों को सुरक्षित विषयों का प्रशासन करना था। हस्तांतरित विषयों को गवर्नर को मंत्रियों के साथ मिलकर प्रशासित करना था। प्रान्तों में प्रशासनिक शक्तियों का यह अभिनव वितरण द्वैध शासन के रूप में जाना गया। सरकार के दो पक्षों में एक दूसरे से संगठन के विषय में गवर्नर तथा विधान परिषद् के साथ उनके संवैधानिक सम्बन्धों के विषय में स्पष्ट रूप से अन्तर कर दिया गया।

मोटे तौर पर कहा जाये तो बार विषय, अर्थात स्थानीय स्वायत्त शासन, स्वास्थ्य, शिक्षा तथा कृषि से संबन्धित कुछ विषय हस्तांतरित विषयों में शामिल किए गए। शेष सभी विषय सुरक्षित विषय थे। इनमें पुलिस, न्याय, छापेखानों पर नियंत्रण, सिंचाई, भू-राजस्व, कारखाने आदि विषय सम्मिलित थे।

गवर्नर और कार्यकारिणी के सदस्य ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त किए जाते थे, और वे गवर्नर जनरल तथा भारत सचिव के प्रति संयुक्त रूप से उत्तरदायी होते थे। कार्यकारिणी पार्षदों की संख्या 4 से अधिक नहीं होती थी। मंत्रीगण जिनको कि हस्तांतरित विषय सौंपे गये थे, गवर्नर द्वारा नियुक्त किए गए। गवर्नर आमतौर पर मंत्रियों को विधान सभा के प्रमुख निर्वाचित सदस्यों में से ही चनते थे। व्यवहार में, प्रत्येक प्रान्त में दो या तीन मंत्री होते थे। नियमानुसार मंत्रीगणों का कार्यकाल गवर्नर की इच्छा पर निर्भर था लेकिन व्यवहार में वे अपने पद पर तब तक बने रहते थे जब तक उन्हें विधान सभा का विश्वास प्राप्त रहता था। प्रांतीय गवर्नरों तथा मंत्रियों के मध्य सम्बन्ध का आधार निर्देशन लेखपत्र था जो कि गवर्नरों को जारी किया गया था और जिसमें कहा गया थाः

“किसी मंत्री की राय पर विचार करते समय और उसकी राय से असहमत होने के औचित्य और अनौचित्य पर विचार करते समय आपको उस मंत्री और विधान सभा से उसके सम्बन्धों तथा जनमत का (जो कि विधान सभा में लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा व्यक्त है) ध्यान रखना पड़ेगा।”

इस निर्देशन लेखपत्र में गवर्नर के विशिष्ट उत्तरदायित्व की व्याख्या भी की गई थी जिसमें उसे मंत्रियों द्वारा लिए गए निर्णयों को अस्वीकार करने की विस्तृत शक्ति दी गई थी। यह विचार कि मंत्रीगण अपने कार्यों के लिए संयुक्त रूप से उत्तरदायी हों, उस समय बहस का विषय तो बना परन्तु अंततः इस सिद्धान्त का पालन करना अनिवार्य नहीं बनाया गया।

गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट मूलतः आठ प्रान्तों, मद्रास, बंबई, बंगाल, संयुक्त प्रांत, पंजाब बिहार और उड़ीसा. मध्यप्रान्त और आसाम में लागू किया गया। सन् 1923 में इसकी व्यवस्थाओं का विस्तार बर्मा और कुछ समय बाद उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत तक भी कर दिया गया।

इन सभी प्रान्तों में एक सदनीय विधान सभा का, जिसे लेजिसलेटिव काउंसिल कहा जाता था, निर्माण किया गया।  इसमें गवर्नर की कार्यकारिणी, निर्वाचित सदस्य और मनोनीत सदस्य होते थे। यह भी व्यवस्था की गई कि काउंसिल के कम-से-कम 70 प्रतिशत सदस्य निर्वाचित हों और सरकारी सदस्य अधिक-से-अधिक 20 प्रतिशत । इन विधान सभाओं का आकार काफ़ी बढ़ा दिया गया और यह एक प्रांत से दूसरे प्रान्त में भिन्न-भिन्न था। अधिकतम सदस्य, बंगाल में कुल 140 थे तथा न्यूनतम, आसाम में कुल 53 थे।

निर्वाचित सदस्यों को सीधे चुनाव द्वारा चुना जाता था, अर्थात् प्राथमिक मतदाता ही सदस्यों को चनते थे। मताधिकार मख्य रूप से सम्पत्ति विषयक योग्यता पर आधारित था। सन 1920 में कल 24 करोड़ 17 लाख जनसंख्या में से केवल 53 लाख लोगों को अर्थात् 5 प्रतिशत (वयस्कों) से भी कम लोगों को मताधिकार मिला। महिलाओं को मताधिकार या चनाव में खड़े होने का अधिकार प्रदान नहीं किया गया। मै यहाँ आपका ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट करना चाहता हूँ कि ब्रिटेन में भी 1918 में महिलाओं को मताधिकार दिया गया था।

पृथक निर्वाचक मंडल के सवाल की जाँच करके मोंटेग्य-चेम्सफ़ोर्ड रिपोर्ट के समीक्षकों ने यह निष्कर्ष निकाला कि वे आत्मशासन या स्वशासन सिद्धान्त के विकास में गम्भीर बाधा हैं। उन्होंने इन निर्वाचक मंडलों को इतिहास से मिलने वाली शिक्षा के विरुद्ध बताया और यह भी कहा कि इनसे वर्ग विभाजन चिरस्थायी हो जाता है तथा विद्यमान सम्बन्धों में जड़ता आ जाती है। फिर भी उन्होंने इस पृथक निर्वाचक मंडल के उन्मलन की संस्तति नहीं की और उन्होंने इसे पंजाब में सिक्खों के लिए भी लागू कर दिया। बाद में जस्टिस पार्टी की गैर ब्राह्मणों के लिए स्थानों के आरक्षण की माँग को भी स्वीकार कर लिया गया। भारतीय ईसाइयों, एंग्लों इंडियनों और यूरोपीयों को भी पृथक निर्वाचक मंडल प्रदान कर दिया गया।

मोंटेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधार पर विचार

द्वैध शासन की संपूर्ण धारणा एक गलत सिद्धांत पर आधारित थी। किसी राज्य या सरकार के कार्यों को दो सर्वथा पृथक (एक दूसरे से पूर्ण स्वतंत्र) खंडों में विभाजित कर पाना बहुत कठिन है। इस तर्कहीन विभाजन से समस्या और भी जटिल हो गई। जबकि कृषि हस्तांतरित विषय था, भू-राजस्व और सिंचाई सुरक्षित विषय थे। सी.वी. चिंतामणि ने जो संयुक्त प्रांत में एक मंत्री थे, एक दिलचस्प मामले का हवाला दिया है। सन् 1921 में कृषि विभाग में कृषि भमि के विखण्डन के प्रश्न पर जाँच पड़ताल शुरू हुई। जब सन् 1922 में रिपोर्ट पेश की गई तो यह अनुभव किया गया कि इस प्रश्न को राजस्व विभाग को देखना चाहिए था अतः गवर्नर ने इस मामले को इस सरक्षित विभाग को सौंप दिया। सन 1924 में फिर यह पाया गया कि इस कार्य का एक अंश सहकारिता विभाग द्वारा किया जाना चाहिए। इसी प्रकार यरोपीयों और एंग्लों इंडियनों की शिक्षा, शिक्षा मंत्री के अधिकार क्षेत्र से बाहर थी।

इस प्रकार की पद्धति तभी कारगर हो सकती थी जब दोनों ही भागों में परस्पर विश्वास होता। जबकि मंत्रीगण अपने देशवासियों के हितार्थ थे, तो कार्यकारिणी के सदस्य और सामान्यतः सिविल सेवाओं के सदस्य ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों के रक्षार्थ थे। हस्तांतरित विभागों में भी मंत्रियों का सिविल सेवाओं के अधिकारियों पर कोई नियंत्रण नहीं था। विभागों के सचिवों की गवर्नर तक सीधी पहँच थी जिसकी वजह से मंत्रियों की स्थिति प्रतिकल हो गई थी। इसके अतिरिक्त मंत्रियों को दो मालिकों को खश करना पड़ता था। उसकी नियुक्ति गवर्नर के द्वारा की जाती थी जो उन्हें बर्खास्त भी कर सकता था लेकिन वे विधान सभा के प्रति भी जवाबदेह थे। इनमें सबसे प्रमुख बात यह थी कि तथाकथित राष्ट्र निर्माण के विभाग जो कि मंत्रियों को सौंपे गए थे, वे तभी कुछ कारगुजारी दिखा सकते थे जबकि उन्हें धन उपलब्ध हो। मंत्रियों ने यह शिकायत की कि हस्तांतरित विषयों की जरूरतों पर विचार-विमर्श किए बिना ही सरक्षित विभागों को इच्छानसार धन प्राप्त हो जाता था।

भारत में परिस्थितियाँ, सधार योजना का स्वागत करने के अनकल नहीं थी। सन् 1918-19 में अनावृष्टि और व्यापार में मंदी के फलस्वरूप जनता में असंतोष व्याप्त हआ। रॉलट विधेयकों में से एक विधेयक मार्च, 1919 में भारतीयों के समवेत विरोध के बावजूद ऐक्ट बन गया। 6 अप्रैल 1919 को गांधी जी ने हड़ताल का आह्वान किया जो बहुत सफल रहा। 3 अप्रैल, 1919 को जलियाँवाला बाग हत्याकांड हुआ जिससे अन्य घटनाओं के साथ मिलकर सरकार और जनता के बीच का सम्बन्ध तनावपर्ण हो गया। धीरे-धीरे सधार योजना के प्रति विरोध ने कठोर होकर अस्वीकरण का रूप ले लिया। मुसलमान अंग्रेजों के, तुर्की के शासक खलीफ़ा के प्रति अंग्रेजों के कठोर रवैये से क्षुब्ध थे। उन्होंने महात्मा गांधी के नेतृत्व में खिलाफत आन्दोलन प्रारंभ किया। 1 अगस्त 1920 को कांग्रेस ने प्रगतिशील, अहिंसक असहयोग की नीति अपनाने का निश्चय किया। इसी के साथ चनावों का बहिष्कार भी शुरू हुआ। ये चुनाव नवंबर 1920 में होने थे। काँग्रेस के बहिष्कार से नए संविधान को गहरी क्षति पहुँची।

सन् 1919 में लागू की गई संवैधानिक सुधार की योजना इतनी अलोकप्रिय हुई कि इसकी निंदा करना एक आम बात हो गई। फिर भी भारत में संसदीय लोकतंत्र के विकास में इसका खास महत्व है। यह उल्लेखनीय है कि सन 1919 में जो परिवर्तन किए गए वे सन् 1916 में सझाई गई योजनाओं से भी बहुत पिछड़े हए थे। इसके अलावा सरकार ने संवैधानिक परिवर्तनों के लक्ष्यों की घोषणा कर दी थी इसलिए वादे से फिर जाना नीति विरुद्ध बात थी। दसरे शब्दों में इस घोषणा ने और अधिक रियायतों को अवश्यंभावी बना दिया था। इस ऐक्ट ने केन्द्र और प्रान्तों में निर्वाचित वैधानिक संस्थाओं का निर्माण किया। इन संस्थाओं द्वारा भारतीयों की राय निरन्तर और स्पष्ट रूप से व्यक्त हई। इन बहसों ने राज की पक्षधर आदशात्मक दलीलों को और कमजोर बना दिया तथा तेजी से बढ़ती साम्राज्यवाद विरोधी भावना को और तेज कर दिया। इसी समय चनावों और संगोष्ठियों के आयोजन से भारतीय संसदीय शब्दावली और संस्थाओं से परिचित हुए और इस प्रकार इनके आयोजन ने भारत में संसदीय लोकतंत्र के सफल कार्यान्वयन में योगदान दिया।

आगामी वर्षों में राष्ट्रीय आन्दोलन का विस्तार हुआ और किसानों, व्यापारियों और औद्योगिक श्रमिकों का एक बड़ा वर्ग इसमें सम्मिलित हआ। यह आंशिक रूप से यद्धोपरांत आर्थिक संकट का परिणाम था और आंशिक रूप से यह विश्वव्यापी पँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध छेड़े जाने वाले आंदोलन का परिणाम था जिसका विकसित राष्ट्रों में पंजीपति विरोधी तथा उपनिवेशों में साम्राज्यवाद विरोधी स्वरूप था। इसने शिकायतों और आकांक्षाओं का ऐसा समन्वय उत्पन्न किया कि यदि उसे सही दिशा दी जा सकती तो राष्ट्रीय आन्दोलन को एक नया बल मिलता और वह विकास के उच्च शिखर पर पहँच जाता। खिलाफ़त के प्रश्न और पंजाब में हुए ब्रिटिश दमन चक्र को लेकर जो भावना और क्रोध का गबार उठा था वह इस अपूर्व समन्वय को और भी प्रखर और गतिशील बना गया। कुछ इतिहासकारों ने सन 1919 के सुधारों को दोहरी साम्राज्यवादी ज़रूरतों-आर्थिक अवमूल्यन तथा भारतीयों की व्यापक सहभागिता की आवश्यकता, से जोड़ा है।

हालांकि, अधिक विवादास्पद वह कारण-कार्य सम्बन्ध है जिसे कुछ इतिहासकारों ने सुधारों और जन-राजनीति के उदय के बीच खोजना चाहा है। यह तर्क दिया जाता है कि सन 1919 के ऐक्ट ने चूँकि निर्वाचक मंडल को विस्तृत किया था, अतः राजनीतिज्ञ अपेक्षाकृत अधिक लोकतांत्रिक तरीके विकसित करने के लिए बाध्य हुए। हालांकि, समित सरकार इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं है। उनके अनुसार इस दृष्टिकोण से विशिष्ट प्रकार की राजनीति और राजनीतिज्ञों के कार्यों की व्याख्या तो की जा सकती है परन्तु यह युद्धोपरान्त जन जागरण की, जिसकी अभिव्यक्ति चुनावों के बहिष्कार तथा 1919 से 1922 तक हए साम्राज्यवाद विरोधी जन आंदोलनों में हई, व्याख्या करने में और उसके आधारभूत तत्वों को बताने में शायद ही सफल होगा।

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