सन् 1892 का इंडियन काउंसिल्स ऐक्ट

अब हम उन कारणों पर विचार करेंगे जिन्होंने ब्रिटिश सरकार को 1892 के इंडियन काउंसिल ऐक्ट पारित करने के लिए प्रेरित किया। इसके अतिरिक्त इस ऐक्ट की मुख्य विशेषताओं, कमियों तथा उपलब्धियों की भी विवेचना की जाएगी।

संवैधानिक परिवर्तनों की आवश्यकता

सरकार के दृष्टिकोण से सन् 1861 के ऐक्ट ने संतोषजनक ढंग से कार्य किया था। परन्तु परवर्तीकाल में भारत में राष्ट्रीय चेतना का अद्भुत विकास हुआ। शीघ्र ही इस भावना का विकास हुआ कि देशवासियों के बहुत से हित, आकांक्षाएँ और तकदीर एक समान हैं। खण्ड एक की इकाई 3 में आप इस भावना के उत्थान और विकास के कारणों का अध्ययन कर चुके हैं। आप यह भी जानते हैं कि अपने पहले ही अधिवेशन में कांग्रेस ने केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों में चुने हुए सदस्यों के सम्मिलन और उनके कार्यक्षेत्र में वृद्धि की मांग की थी। आगामी वर्षों में इन मांगों को दोहराया जाता रहा।

जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हई तब लॉर्ड डफरिन भारत के गवर्नर जनरल थे। उनके कार्यकाल में (1884-1888) भारत सरकार ने गृह सरकार से केंद्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों के आकार तथा उसके कार्यक्षेत्र में वृद्धि किए जाने की जोरदार सिफारिश की। स्वाभाविक रूप से यह सवाल उठता है कि, क्यों एक तानाशाह या एक निरंकुश सरकार विधान परिषदों में ज्यादा भारतीयों के सम्मिलन तथा उनके कार्यक्षेत्र में वृद्धि के विषय में विचार कर रही है ? यह सवाल तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब यह मालूम होता है कि इस बात के लिए न तो जनता की ओर से कोई दबाव पड़ रहा था और न ही ब्रिटिश राज का तख्ता पलटने के लिए कोई क्रांतिकारी आंदोलन ही चल रहा था। सरकार साफ़ तौर पर यह मानती थी कि शिक्षित भारतीय समुदाय भारतीय जनमत का प्रतिनिधित्व नहीं करता है और वह उनकी मांगों को भी शक की नज़र से देखती थी।

जैसा कि आप पढ़ चुके हैं कि यद्यपि प्रारंभ में सरकार ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अंशतः मान्यता दी थी पर जल्दी ही इसने अपनी संरक्षण की नीति वापस ले ली थी। शायद सरकार ने अनुभव किया था कि राष्ट्रीयता की भावना का विकास ब्रिटिश राज्य के हित में नहीं होगा। इन राष्ट्रवादी नेताओं की मांगें मुख्य रूप से इस बात पर आधारित थीं कि, भारत का शासन भारतीयों के कल्याण को दृष्टि में रखकर ही किया जाना चाहिए। दूसरी तरफ सरकार का प्राथमिक उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवादी हितों का संरक्षण तथा उनका विकास करना था। ऐसी परिस्थिति में अंग्रेजों के लिए यह जरूरी भ कि वे भारत में अपने समर्थन का आधार विस्तृत करें और ऐसा वे उन भारतीयों की आकांक्षाओं को पूरा करके कर सकते थे जो कि अपनी माँगों को एक संकुचित संवैधानिक ढाँचे के भीतर ही रखने को तैयार थे। संवैधानिक संरचना में परिवर्तन करके सरकार की सर्वग्राह्य तानाशाही को प्रतिकूल रूप से प्रभावित किए बिना ही, शिक्षित भारतीयों के असंतोष को दूर किया जा सकता था। इसी उद्देश्य से सन् 1892 में एक नया इंडियन काउंसिल्स ऐक्ट पारित किया गया।

अधिनियम की मुख्य धाराएँ

सन् 1892 का इंडियन काउंसिल्स ऐक्ट एक संशोधनात्मक ऐक्ट था। परिणामस्वरूप आधारभूत संवैधानिक धाराएँ वही रहीं जो सन् 1861 के ऐक्ट में थीं। मुख्यतः दो प्रकार के परिवर्तन किए गए:

  • वैधानिक संस्थाओं के संगठन में परिवर्तन
  • कार्यक्षेत्र में वृद्धि

केंद्रीय कार्यकारिणी परिषद् के अतिरिक्त सदस्यों की संख्या बढ़ाकर न्यूनतम दस और अधिकतम सोलह कर दी गई और 1861 के ऐक्ट की ही भांति इसमें कम-से-कम आधे सदस्य गैर सरकारी होने थे। इस बात की भी आशा थी कि चुनाव की प्रक्रिया भी प्रारंभ की जाएगी। लेकिन अन्ततः गवनर जनरल को इस बात के लिए अधिकृत कर दिया गया था कि वह विभिन्न भारतीय संस्थाओं को अपने-अपने प्रतिनिधि चुनने या भेजने का निमंत्रण दे और उनके मनोनयन के लिए नियम बनाए।

अन्तिम रूप से पारित नियमों के अधीन केंद्रीय विधान परिषद् में नौ अवकाश प्राप्त सरकारी कर्मचारी सदस्यों (गवर्नर जनरल, एक्जीक्यूटिव काउंसिल के छह सदस्य, सेनाध्यक्ष तथा उस प्रांत का प्रमुख जहाँ परिषद् की बैठक हो जैसे बंगाल या बिहार का लेफ्टिनेंट गवर्नर) के साथ-साथ छह अतिरिक्त सरकारी सदस्य और दस अतिरिक्त गैरसरकारी सदस्य थे। इन अतिरिक्त गैर सरकारी सदस्यों को बंगाल, बंबई, मद्रास तथा नॉर्थ वेस्टर्न प्राविन्सेज़ की विधान परिषदों के सदस्यों में से नामजद किया जाता था।

जब पंजाब और बर्मा में विधान परिषदों का गठन हो गया तब एक-एक सदस्य को वहाँ से भी केंद्रीय विधान परिषद् में शामिल किया गया। एक सदस्य की नियक्ति कलकत्ता चैम्बर ऑफ कॉमर्स की सिफारिश पर की गई। व्यवहार में ये संस्थाएँ अपने प्रतिनिधियों को चुनकर उनका नाम अग्रसारित कर देती थीं और ये नाम सदैव ही सरकार द्वारा स्वीकार कर लिए जाते थे। इस प्रकार वास्तव में ये प्रतिनिधि इन संस्थाओं द्वारा ही चने जाते थे। यद्यपि इस चयन सिद्धान्त को बहुत सावधानी के साथ लागू किया गया था। इस प्रकार की प्रक्रिया अपनाने के पीछे जो उद्देश्य था वह यह था कि विधान पगिरहों में सदस्यों का सम्मिलन, विशिष्ट संस्थाओं के प्रतिनिधियों के रूप में नहीं बल्कि गवर्नर जनरल द्वारा नामजद व्यक्तियों के रूप में देखा जाये। शेष नामजद गैर सरकारी सदस्य थे। सरकारी नामजद अधिकारी तथा अवकाश प्राप्त सरकारी कर्मचारी सदस्यों की संख्या मिलकर विधान परिषद् में सरकारी सदस्यों का बहमत बनाती थी।

इसी प्रकार के परिवर्तन प्रांतीय विधान परिषदों के संगठन में भी किए गए। कुल मिलाकर सभी प्रांतों की विधान परिषदों में सरकारी सदस्यों का बहमत बनाए रखा गया। जहाँ तक कार्यों का सम्बन्ध है, वैधानिक प्रस्तावों के अतिरिक्त, वार्षिक बजट पर भी सदस्यगण बहस कर सकते थे। हालांकि सरकार द्वारा प्रस्तत बजट एक अपरिवर्तनीय दस्तावेज़ के रूप में ही प्रस्तुत किया जाता था। सदस्यगण केवल अपनी टिप्पणी दे सकते थे जिसका प्रभाव आने वाले वर्षों के बजट पर पड़ सकता था परन्त तत्कालीन बजट पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता था। प्रान्तों में बहस, राजस्व और व्यय के उन्हीं अनुभागों तक सीमित रखी गई, जो कि प्रांतीय सरकारों के नियंत्रण में थे आंतरिक विषयों पर भी प्रश्न करने का अधिकार सदस्यों को था परन्तु परक प्रश्न करने की अनुमति उन्हें नहीं दी गई। इन नियंत्रणों के बावजद यह एक महत्वपूर्ण प्रयोग था क्योंकि उस समय तक ब्रिटिश हाउस ऑफ कामंस में भी “प्रश्नकाल’ का प्रावधान साकार रूप नहीं ले सका था।

सन 1892 और सन 1893 के भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों में इस ऐक्ट की आलोचना की गई क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष चुनाव की प्रणाली लागू नहीं की गई थी। लेकिन ये अधिनियम इतने उदार अवश्य थे कि गोपालकृष्ण गोखले, लालमोहन घोष, डब्ल्यू. सी. बनर्जी, सरेन्द्र नाथ बनर्जी और फीरोज़शाह मेहता जैसे अनेक राष्ट्रवादी नेतागण विधान परिषदों में प्रविष्ट हो सकें। गैर सरकारी सदस्यगणों ने बहस करने की कला और विधायक के रूप में योग्यता का भली भांति प्रदर्शन किया और उन्होंने भारतीय दृष्टिकोण प्रस्तत कर सकने के हर मौके का लाभ उठाया। कल मिलाकर ऐक्ट की व्यवस्थाओं ने राष्ट्रवादी नेताओं की आकांक्षाओं को संतष्ट किया क्योंकि सन 1894 से 1900 तक के कांग्रेस कार्यक्रम में विधान परिषदों में सुधार किए जाने की माँग को अधिक महत्व दिया गया। हालांकि संतोष की. यह भावना अधिक दिन नहीं रही क्योंकि इसी अवधि में विरोध की राजनीति उभर कर आई और सन् 1904 तक एक बार फिर से समवेत स्वरों में कांग्रेस और अधिक वैधानिक सधारों की माँग करने लगी थी।

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