भारत में गांधी जी का आगमन और राजनीति में प्रादुर्भाव

भारत आने से पहले गांधी जी इंग्लैंड गये और इसी बीच प्रथम विश्व युद्ध प्रारंभ हो गया। ऐसी स्थिति में गांधी जी ने अंग्रेजी सरकार की सहायता करना अपना कर्तव्य समझा। उन्होंने भारतीयों का एक एम्बूलेंस दल संगठित करने का निर्णय लिया परंतु कुछ समय उपरांत अंग्रेज अधिकारियों से मतभेद उत्पन्न होने के कारण वे इससे अलग हो गये। 1915 में उन्हें अंग्रेजी सरकार द्वारा केसर-ए-हिंद का खिताब भी दिया गया। 9 जनवरी 1915 के दिन जब गांधी जी भारत लौटे तो उनका भव्य स्वागत किया गया।

गोपाल कृष्ण गोखले भारत में उनके राजनीतिक गुरू थे। गोखले चाहते थे कि गांधी ‘सर्वेन्ट्स ऑफ इंडियन सोसाइटी’ में शामिल हों पर इस सोसाइटी के कछ सदस्यों के कडे विरोध के कारण गांधी जी इसके सदस्य नहीं बन पाए। गोखले ने गांधी से इस समय यह वादा लिया कि भारत में राजनीतिक विषयों पर वे एक वर्ष तक अपना मत जाहिर नहीं करेंगे।

वायदे का पालन करते हुए 1915 और 1916 में गांधी जी ने अपना अधिकांश समय भारत के विभिन्न स्थानों का दौरा करने में बिताया। वे सिन्ध, रंगन, बनारस और मद्रास आदि स्थानों पर गये। उन्होंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शांतिनिकेतन की भी यात्रा की और वे हरिद्वार तथा कौमुदी मेले में भी गये। इन सब यात्राओं से यह लाभ हुआ कि गांधी जी को भारतीयों और उनकी स्थिति के संदर्भ में अत्यधिक जानकारी हासिल हुई। 1915 में ही गांधी जी ने अहमदाबाद में साबरमती नदी के किनारे अपने आश्रम की स्थापना की थी। यहाँ पर वे अपने निकट सहयोगियों के साथ रहते थे जिनको एक सच्चे सत्याग्रही का प्रशिक्षण दिया जाता था।

इस समय गांधी जी राजनीतिक मुद्दों में अधिक दिलचस्पी नहीं ले रहे थे। अधिकांश सभाओं में वे केवल अपने दक्षिण अफ्रीका के अनुभवों और जो विचारधारा उनकी वहाँ पर बनी थी, के बारे में ही बोलते थे। जिस समय एनीबेसेंट ने गांधी जी से “होम रूल लीग” की स्थापना में सहयोग देने के लिए कहा तो उन्होंने यह कह कर इनकार कर दिया कि वे युद्ध के दौरान अंग्रेजी सरकार को परेशान नहीं करना चाहते। गांधी जी ने 1915 के कांग्रेस अधिवेशन में भी हिस्सा लिया, लेकिन इस समय स्वायत्त शासन जैसे महत्वपर्ण विषय पर बोलने को उन्होंने टाल दिया।

कांग्रेस में गरम दल को वापस शामिल करने के जो एकता के प्रयास हो रहे थे उनका गांधी जी ने स्वागत किया, लेकिन इसके साथ-साथ उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वे किसी गट में नहीं हैं। उन्होंने संगठित कांग्रेस के अधिवेशन में हिस्सा लिया, परंतु ऐसे मुद्दों पर बोलने से इनकार कर दिया जिनसे यह अभिप्राय लगाया जा सकता था कि वे किसी विशिष्ट गुट से संबद्ध हैं। यहाँ पर उन्होंने केवल अनुबंधित मजदूरों की भर्ती के संबंध में भाषण दिया और इस प्रथा की समाप्ति की माँग के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया।

भारतीय राजनीति में प्रादुर्भाव

भारतीय राजनीति में गांधी जी का सक्रिय प्रादुर्भाव 1917-18 के काल में हुआ जो कि तीन स्थानीय समस्याओं से संबंधित था। ये समस्याएँ थीं; चंपारन और खेड़ा में किसानों का संघर्ष और अहमदाबाद में मजदूरों का संघर्ष। यहाँ पर गांधी ने सत्याग्रह की तकनीक का इस्तेमाल किया और अंततः इन्हीं स्थानीय संघर्षों के माध्यम से वे संपूर्ण भारत के नेता के रूप में उभर कर आये।

चंपारन

उत्तरी बिहार के तिरहुत मंडल में चंपारन एक ऐसा स्थान था जहाँ पर कि एक लंबे समय से कृषकों में असंतोष फैला हुआ था। यूरोपीय बागान मालिकों ने इस क्षेत्र में 19वीं शताब्दी के प्रारंभ से नील के बागान और फैक्टरियाँ स्थापित की थीं। 1916-17 में चंपारन का अधिकांश क्षेत्र केवल तीन भ-स्वामियों के आधीन था। ये भ-स्वामी-बेतिया, राम नगर और मंधुबन जागीरों के मालिक थे। इनमें बेतिया की जागीर सबसे बड़ी थी और उसमें लगभग 1500 गाँव आते थे। भू-स्वामी स्वयं जागीर की देखभाल न कर उसे ठेके पर दे देते थे और ठेकेदारों में सबसे प्रभुत्वशाली वर्ग यूरोपीय बागान मालिकों का था।

यहाँ पर असंतोष का मख्य कारण यह था कि किसानों को भमि पर स्थाई अधिकार प्राप्त नहीं था। उन्हें बागान मालिकों से जमीन के पट्टे लेने होते थे और ऐसे पट्टे उन्हें इस शर्त पर दिये जाते थे कि वे एक निश्चित भू-भाग पर केवल नील की ही खेती करेंगे। इसके बदले में बागान मालिक किसानों को कुछ अग्रिम धन राशि भी देते थे।

जिस व्यवस्था के अन्दर नील की खेती की जाती थी वह “तिन-कथिया” कहलाती थी। इसमें किसान को अपनी भूमि के 3/20 हिस्से पर केवल नील की ही खेती करनी होती थी और अधिकांशतः उसकी भूमि के सबसे अधिक उपजाऊ हिस्से पर उसे नील की खेती करने के. लिए बाध्य किया जाता था। तिन-कथिया व्यवस्था में यद्यपि 1908 में कछ सधार लाने की कोशिश की गयी थी, परंतु इससे किसानों की गिरती हुई हालत में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था।

बागान मालिक किसानों को अपनी उपज एक निश्चित धनराशि पर केवल उन्हें ही। उपजाने के लिए बाध्य करते थे और यह धनराशि बहुत कम होती थी। इस समय जर्मनी के वैज्ञानिकों ने कृत्रिम नीले रंग का उत्पादन कर लिया था, जिसके परिणामस्वरूप विश्व के बाजारों में भारतीय नील की माँग गिर गयी थी। चंपारन के अधिकांश बागान मालिकों ने यह महसस किया था कि नील के व्यापार से अब उन्हें अधिक मुनाफा नहीं होगा। परंतु मुनाफे को बनाये रखने के लिए उन्होंने अपने घाटे को किसानों पर लादना शुरू कर दिया।

इसके लिए जो रास्ते उन्होंने अपनाए उसमें किसानों से यह कहा गया कि यदि वे उन्हें एक बड़ा मुआवजा दे दें तो किसानों को नील की खेती से मुक्ति मिल सकती थी। इसके अतिरिक्त  उन्होंने लगान में अत्यधिक वृद्धि कर दी और कई प्रकार के अवैध कर किसानों पर लगाये।

जब 1916 में लखनऊ में हो रहे कांग्रेस अधिवेशन में चंपारन के किसानों की समस्याओं का जिक्र किया गया तो गांधी जी ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। परंतु अंततः चंपारन के एक किसान राजकमार शक्ल ने गांधी जी को चंपारन आने के लिए बाध्य किया। जब गांधी जी मोतीहारी (चंपारन का जिला-कार्यालय) पहँचे तो उनकी उपस्थिति को जन शांति के लिए एक खतरा समझा गया। उन्हें चंपारन छोड़ने का आदेश दिया गया, परंतु गांधी जी ने वहाँ की जनता के प्रति अपने दायित्व को समझते हुए इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया। तत्काल ही उन्हें गिरफ्तार कर उन पर जिला न्यायालय में मुकदमा चलाया गया।

परंतु बिहार सरकार ने कमिश्नर और जिला न्यायालय को यह आदेश दिया कि इस मकदमे को । वापस ले लिया जाए और गांधी जी को जानकारी हासिल कराने में सहायता दी जाए। इसके साथ-साथ गांधी जी को भी यह चेतावनी दी गयी कि वे कोई बखेड़ा खड़ा न करें। परंतु उन्हें किसानों के कष्टों के बारे में जानकारी हासिल करने की पूर्ण स्वीकृति दे दी गयी।

सरकार ने “चंपारन एगरेरियन कमेटी” का गठन किया। गांधी जी भी इस कमेटी के एक सदस्य थे। इस कमेटी ने यह सिफारिश की कि तिन-कथिया व्यवस्था समाप्त कर दी जाये और इसके साथ ही कई अन्य प्रकार के कर भी समाप्त कर दिये जाएँ जो कि किसानों को देने पड़ते थे। बढ़ाये गये लगान की दरों में कमी की गयी और जो वसूली अवैध रूप से किसानों से की गयी थी उसका 25 प्रतिशत किसानों को लौटाया जाना था। कमेटी की इन सिफारिशों को 1919 के ‘चंपारन एगरेरियन एक्ट’ के रूप में पारित किया गया।

यद्यपि यह आंदोलन किसानों की समस्याओं से संबंधित था परंतु गांधी जी के अधिकांश सहयोगी शिक्षित मध्यम वर्ग से थे, जैसे कि राजेन्द्र प्रसाद, गोरख प्रसाद, आचार्य कृपलानी आदि। स्थानीय महाजनों और गाँवों के वस्तियारों ने भी गांधी जी को सहयोग दिया था। लेकिन सर्वाधिक सहयोग किसानों और उनके स्थानीय नेताओं ने दिया था। गांधी जी ने स्वयं वहाँ पर बहुत ही साधारण जीवन व्यतीत किया। वे पैदल या बैलगाड़ी पर यात्रा करते थे और किसानों से उन्हीं की भाषा में बातचीत करते थे।

खेडा

किसानों के पक्ष में गांधी जी ने दूसरी बार हस्तक्षेप गुजरात के खेड़ा जिले में किया। यहाँ पर उनकी सत्याग्रह की तकनीक को वास्तव में एक इम्तहान से गजरना पड़ा। खेड़ा अधिक उपजाऊ क्षेत्र था और यहाँ पर उगने वाली खाद्य फसलों, तंबाक, और रूई को अहमदाबाद में एक सुलभ बाजार प्राप्त था। यहाँ पर कई धनी किसान थे जो कि पट्टीदार कहलाते थे। इसके अतिरिक्त कई छोटे किसान और भूमिहीन कृषक भी यहाँ पर रहते थे।

1917 में अधिक बारिश के कारण खरीफ की फसल को नकसान हआ। इसी समय मिट्टी का तेल, लोहा, कपड़ों और नमक की कीमतों में भी वृद्धि हुई जिसने कि किसानों के जीवन स्तर को प्रभावित किया। किसानों ने इस समय यह माँग की कि परी फसल न होने के कारण लगान माफ किया जाए। लगान कानून के अंतर्गत ऐसा प्रावधान मौजूद था कि यदि कुल उपज सामान्य उपज के मकाबले केवल 25 प्रतिशत हो तो परा लगान माफ़ किया जा सकता था।

बंबई के दो वकीलों: श्री वी.जे. पटेल और जी.के. पारख ने इस संबंध में छान-बीन की और वे इस नतीजे पर पहुँचे कि उपज का एक बड़ा हिस्सा नष्ट हो चुका था, परंतु सरकार इससे सहमत नहीं थी। खेड़ा के कलक्टर ने यह निर्णय लिया कि लगान माफ करने की मांग का कोई औचित्य नहीं है। सरकारी धारणा यह थी कि किसानों ने यह मांग नहीं कि थी वरन् इसके लिए उन्हें बाहर के लोगों ने भड़काया था जो कि होम रूल लीग और गुजरात सभा से संबंध रखते थे। गांधी जी स्वय इस समय गजरात सभा के अध्यक्ष थे। सच्चाई यह थी कि यहाँ आंदोलन प्रारंभ करने की पहल न तो गांधी जी ने ही की थी और न ही अहमदाबाद के राजनीतिज्ञों ने। यह मांग तो वास्तव में मोहन लाल पाण्डे जैसे स्थानीय गाँव के नेताओं ने उठायी थी।

छान-बीन करने के बाद गांधी जी ने यह धारणा व्यक्त की कि सरकारी अफसरों ने उपज का बढ़ा-चढ़ा कर मूल्य लगाया था और किसानों का यह वैध अधिकार था कि वे लगान न दें।

इसमें उन्हें कोई सुविधा नहीं प्रदान की जा रही थी लेकिन सरकार ने इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया। कुछ हिचकिचाहट के बाद गांधी जी ने यह निर्णय लिया कि 22 मार्च, 1918 से सत्याग्रह का प्रारंभ नदियाद में एक सभा करके किया गया। इस सभा में गांधी जी ने किसानों को यह राय दी कि वे अपना लगान न दें। किसानों के उत्साह को बढ़ाने के लिए और उनके हृदय से सरकार का भय निकालने के लिए गांधी जी ने अनेक गाँवों का दौरा किया।

इस सत्याग्रह में इन्दलाल याज्ञिक, बिट्ठल भाई पटेल और अनसइया साराभाई ने भी गांधी जी की मदद की। 21 अप्रैल के दिन सत्याग्रह अपनी चरम सीमा पर पहँचा। 2,337 किसानों ने यह शपथ ली कि वे लगान नहीं देंगे। अधिकांश पट्टाधारियों ने सत्याग्रह में हिस्सा लिया परंत सरकार ने अपनी दमनकारी नीति के द्वारा कछ गरीब किसानों को लगान देने के लिए बाध्य किया। इस समय रबी की फसल अच्छी हुई जिससे कि लगान न देने का महा कछ कमजोर पड़ा। गांधी जी यह समझने लगे थे कि किसान सत्याग्रह से थकने लगे हैं।

जब सरकार ने यह आदेश जारी किया कि लगान की वसली केवल उन्हीं किसानों से की जानी चाहिए जो कि उसको दे सकते हैं और गरीब किसानों पर इसके लिए दबाव नहीं डाला जाना चाहिए, तो गांधी जी ने सत्याग्रह को समाप्त करने की घोषणा की। वास्तव में इस सत्याग्रह का सब गाँवों पर समान असर नहीं पड़ा था। खेड़ा के 559 गाँवों में से केवलं 70 गाँवों में ही यह सफल रहा था और यही कारण था कि गांधी जी ने केवल थोड़ी सी रियायत मिलने पर ही सत्याग्रह वापस ले लिया था लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि इस सत्याग्रह के द्वारा गजरात के ग्रामीण क्षेत्र में गांधी जी के सामाजिक आधार का विकास हुआ था।

अहमदाबाद

गांधी जी ने अपना तीसरा अभियान अहमदाबाद में छेड़ा, जब उन्होंने मिल मालिकों और श्रमिकों के मध्य संघर्ष में हस्तक्षेप किया। अहमदाबाद, गजरात के एक महत्वपूर्ण औद्योगिक नगर के रूप में विकसित हो रहा था परंतु मिल मालिकों को अक्सर श्रमिकों की कमी का सामना करना पड़ा था और उन्हें आकर्षित करने के लिए वे मजदूरी की ऊँची दर देते थे। 1917 में अहमदाबाद में प्लेग की महामारी फैली। अधिकांश श्रमिक शहर छोडकर गाँव जाने लगे। श्रमिकों को शहर छोड़कर जाने से रोकने के लिए मिल मालिकों ने उन्हें “प्लेग बोनस’ देने का निर्णय किया जो कि कभी-कभी साधारण मजरी का लगभग 75% होता था।

जब यह महामारी समाप्त हो गयी तो मिल मालिकों ने इस भत्ते को समाप्त करने का निर्णय लिया। श्रमिकों ने इसका विरोध किया। श्रमिकों कि धारणा थी कि यद्ध के दौरान जो महंगाई हई थी, यह भत्ता उसकी भी पूर्ति करता था। मिल मालिक 20% की वृद्धि देने को तैयार थे, परंतु मूल्य वृद्धि को देखते हुए श्रमिक 50% की वृद्धि माँग रहे थे।

गुजरात सभा के एक सचिव गांधी जी को अहमदाबाद की मिलों में कार्य करने की दशाओं के बारे में सचित करते रहते थे। एक मिल मालिक अम्बालाल साराभाई से उनका व्यक्तिगत परिचय था, क्योंकि उसने गांधी के आश्रम के लिए धनराशि दी थी। इसके अतिरिक्त । अम्बालाल की बहन अनसइया साराभाई गांधी जी के प्रति आदर भाव रखती थी। गांधी जी ने अम्बालाल साराभाई से विचार-विमर्श करने के उपरांत इस समस्या में हस्तक्षेप करने का निर्णय लिया।

श्रमिक और मिल मालिक इस बात पर सहमत हो गए कि परी समस्या को एक मध्यस्थता कराने वाले बोर्ड के ऊपर छोड़ दिया जाए जिसमें कि तीन प्रतिनिधि मजदूरों के हों और तीन मिल मालिकों के। अग्रेज़ कलेक्टर इस बोर्ड के अध्यक्ष होने थे। गांधी जी इस बोर्ड में श्रमिकों के प्रतिनिधि के रूप में मौजद थे, परंत अचानक मिल मालिक बोर्ड से पीछे हट गये। इसका कारण उन्होंने यह बताया कि गांधी जी को श्रमिकों की तरफ से कोई अधिकार नहीं दिया गया था और इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि श्रमिक इस बोर्ड के निर्णय को स्वीकार करेंगे। 22 फरवरी से मिल मालिकों ने ताला बंदी की घोषणा की।

ऐसी परिस्थिति में गांधी जी ने पूरी स्थिति का विस्तृत रूप से अध्ययन करने का निर्णय लिया। उन्होंने मिलों की आर्थिक स्थिति के बारे में जानकारी हासिल की और उनके द्वारा दी जा रही मजरी की दरों की तलना बंबई में दी जा रही मजरी की दरो से की। इस अध्ययन के उपगत गांधी जी ने यह निष्कर्ष निकाला कि मजदरों को 50 के स्थान पर 35% बढ़ोत्तरी की मांग करनी चाहिए। गांधी जी ने मिल मालिकों के विरुद्ध सत्याग्रह प्रारंभ किया। श्रमिकों से यह शपथ लेने को कहा गया कि जब तक मजरी में 35% बुद्धि नहीं होती। वे काम पर नहीं जाएंगे और शांतिपर्वक सत्याग्रह करते रहेंगे। अनेक स्थानों पर सभाएँ हईं और गांधी जी ने इनमें भाषण दिये। इस स्थिति के ऊपर उन्होंने कछ लेख भी लिखे।

12 मार्च के दिन मिल मालिकों ने यह घोषणा की कि वे ताला बंदी हटा रहे हैं और उन श्रमिकों को कार्य पर वापस लेंगे जो कि 20% वृद्धि स्वीकार करते हैं। इसके विपरीत 15 मार्च को गांधी जी ने यह घोषणा की कि जब तक कोई समझौता नहीं होता वे भूख हड़ताल पर रहेंगे। इस समय गांधी जी का उद्देश्य यह था कि जो मजदूर अपनी शपथ के बावजद काम पर वापस जाने की सोच रहे थे उन्हें उससे रोका जा सके। अंततः 18 मार्च के दिन एक समझौता हुआ, इसके अनुसार, श्रमिकों को उनकी शपथ को देखते हए पहले दिन की मजरी 35% वृद्धि के साथ हासिल होनी थी और दूसरे दिन उन्हें 20% की वृद्धि, जो कि मिल मालिकों द्वारा प्रस्तावित की जा रही थी, मिलनी थी। तीसरे दिन ही तब तक; जब तक कि एक मध्यस्थता के द्वारा निर्णय नहीं लिया जाता उन्हें 279% की वृद्धि मिलनी थी। अंततः मध्यस्थ ने गांधी जी के प्रस्ताव को मानते हुए मजदूरों के पक्ष में 35% की वृद्धि का निर्णय दिया।

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