शिकायतों, स्थानीय प्रकृति, संगठन और नेतृत्व के संदर्भ में, 19वीं और 20वीं शताब्दी के किसान विद्रोहों की प्रकृति और विशेषताओं का वर्णन
प्रश्न: ब्रिटिश नीतियों के विरुद्ध किसानों द्वारा आरंभ किए गए अधिकतर विरोध प्रदर्शन, विद्रोह और आंदोलन स्थानीय शिकायतों से उत्पन्न हुए थे, ये स्थानीय ही बने रहे तथा इनका न तो कोई नियमित संगठन था और न ही नेतृत्व। उदाहरणों के साथ चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण
- शिकायतों, स्थानीय प्रकृति, संगठन और नेतृत्व के संदर्भ में, 19वीं और 20वीं शताब्दी के किसान विद्रोहों की प्रकृति और विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
- ‘इन कृषक आंदोलनों में से सभी स्थानीय प्रकृति के नहीं थे बल्कि कुछ का लक्ष्य अधिक व्यापक भी था’, इस तथ्य की पुष्टि करते हुए उत्तर को समाप्त कीजिए।
उत्तर
ब्रिटिश शासन के दौरान, मुख्य रूप से जमींदारी क्षेत्रों में, लगान की उच्च दरों, जबरन बेदखली और अवैतनिक श्रम (बेगार) के परिणामस्वरूप उत्पन्न किसानों की दुर्दशा, कृषक आन्दोलनों का प्रमुख कारण थी। ये भू-स्वामित्व और भूमि वितरण के मुद्दों पर केंद्रित थे। हालांकि, इनका विकास, इनकी माँगों और भौगोलिक पहुँच की प्रकृति के संदर्भ में, क्रमिक रूप से हुआ।
चरण-1 (19वीं शताब्दी)
प्रारंभ में, अधिकांश कृषक विद्रोहों की प्रकृति स्थानीय थी, इनका कोई संगठित नेतृत्व नहीं था और ये स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित थे। इनकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित थी:
- वे केवल अपनी स्थानीय माँगों के लिए विद्रोह करते थे। उस समय राष्ट्रवादी भावना पूर्णतः विकसित न होने के कारण, उपनिवेशवाद उनका मुख्य लक्ष्य नहीं था। ये विद्रोह उनके निकटतम (immediate) शत्रुओं, जैसे बगान मालिकों, साहूकारों और स्वदेशी जमींदार के विरुद्ध निर्देशित थे। उदाहरण के लिए, नील विद्रोह (1859-60) केवल विदेशी बागान मालिकों के विरुद्ध नील उत्पादकों के हितों की रक्षा के लिए किया गया था। इसी प्रकार, दक्कन विद्रोह (1870 के दशक में) केवल दक्कन क्षेत्र तक ही सीमित रहा और यह स्थानीय साहूकारों के विरुद्ध था।
- इन आन्दोलन के उद्देश्य विशिष्ट और विशेष शिकायतों के निवारण तक ही सीमित होते थे। उदाहरण के लिए, पाबना संघ (1870-80 के दशक में) स्थानीय जमींदारों द्वारा काश्तकारों पर किए जा रहे शोषण के विरुद्ध गठित हुए थे।
- इन आन्दोलनों की क्षेत्रीय पहुँच केवल घटना से संबद्ध क्षेत्र तक ही सीमित होती थी। उदाहरण के लिए, 1857 के विद्रोह के दौरान भारतीय मुख्य भूमि के आधे से भी कम भाग में कृषक विद्रोह की कोई घटना नहीं घटी।
- इन विद्रोहों को सार्थक दिशा प्रदान करने हेतु कोई औपचारिक स्थायी संगठन नहीं था।
इन विद्रोहों के नेतृत्व में उपनिवेशवाद के चरित्र की पर्याप्त समझ और भविष्य के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक कार्यक्रमों के संदर्भ में स्पष्ट विचारधारा का भी अभाव था। परिणामस्वरूप, यह प्रकृति में उग्र होने के बावजूद, लंबे समय तक संघर्ष करने में असफल रहे।
चरण-2 (1905-1947)
स्वदेशी आंदोलन के प्रारंभ के साथ, इन आंदोलनों की नीतियों में स्पष्ट परिवर्तन हुए। ये आन्दोलन राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से व्यापक रूप से प्रभावित हुए और इन्होंने राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव डाला।
- ये किसान सभा आंदोलनों के माध्यम से, स्थायी नेतृत्व के अंतर्गत सशक्त हुए। उनकी विभिन्न मांगों को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध निर्देशित किया गया। उदाहरण के लिए, होमरूल के कार्यकर्ताओं के प्रयासों के कारण, संयुक्त प्रान्त में गौरी शंकर मिश्रा और मदन मोहन मालवीय जैसे राष्ट्रवादियों के नेतृत्व में किसान सभाओं का आयोजन किया गया।
- इन आंदोलनों में एक समान शत्रु के विरुद्ध आपस में भाईचारे की भावना अपेक्षाकृत अधिक सशक्त थी। उदाहरण के लिए, 1921 का एका आंदोलन विभिन्न सामाजिक पृष्ठभूमियों के किसानों के सामूहिक हितों के लिए किया गया था।
- इन्होंने जनमत जुटाने हेतु एक माध्यम के रूप में कार्य किया। उदाहरण के लिए, 1926 में जनमत को संगठित करने के लिए बारदोली सत्याग्रह पत्रिका आरंभ की गयी।
इस चरण के दौरान, विशेषकर राजनीतिक परिदृश्य में गांधी जी के आगमन के साथ, कृषक आंदोलनों ने जन सामान्य को संगठित करने के माध्यम के रूप में कार्य किया। इनके द्वारा राष्ट्रवादी नेताओं और जन सामान्य के मध्य एक कड़ी की भूमिका भी निभायी गयी।
इस प्रकार, एक ओर जहाँ इन कृषक आंदोलनों ने किसानों की समस्याओं का प्रतिनिधित्व किया, वहीं दूसरी ओर उन्होंने उपमहाद्वीप में राष्ट्रवादी आंदोलन के आधार को व्यापक बनाने के एक माध्यम के रूप में भी कार्य किया। वास्तव में, तेभागा और तेलंगाना जैसे आंदोलनों ने स्वतंत्रता के पश्चात् कृषि सुधारों के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण किया। बाद में, इन आंदोलनों द्वारा भू-स्वामी वर्ग के वर्चस्व को समाप्त करने और विद्यमान दमनकारी कृषि संरचना में परिवर्तन के लिए मार्ग प्रशस्त किया गया।
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