संसदीय कार्यप्रणाली के विकृत स्वरूप के संभावित कारण : संसद की कार्य क्षमता में सुधार हेतु उपाय
प्रश्न: यह तर्क दिया जाता है कि वर्षों से एक जवाबदेह संस्था के रूप में संसद की प्रभावकारिता में निरंतर गिरावट आई है। विश्लेषण कीजिए और साथ ही, प्रासंगिक चिंताओं का समाधान करने हेतु उचित उपाय भी सुझाइए। (150 शब्द)
दृष्टिकोण
- संसद की प्रभावकारिता में निरंतर गिरावट के पक्ष में तर्क प्रस्तुत कीजिए। संसदीय कार्यप्रणाली के विकृत स्वरूप के संभावित कारणों पर चर्चा कीजिए।
- संसद की कार्य क्षमता में सुधार हेतु उपाय सुझाइए।
- लोकतंत्र में बहस, विचार-विमर्श तथा संवाद की प्रासंगिकता पर चर्चा करते हुए निष्कर्ष दीजिए।
उत्तर
भारत में संसद की ऐसी प्रतिनिधि संस्था के रूप में परिकल्पना की गयी थी, जो सामाजिक एवं राजनीतिक एकता में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करे। निर्वाचित निकाय होने के कारण, भारत की शासन संरचना में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका है। इसके द्वारा विधि निर्माण एवं कार्यपालिका की निगरानी से लेकर बजट की समीक्षा तक के कार्य किए जाते हैं। तथापि, हाल के दिनों में निम्नलिखित कारकों के परिप्रेक्ष्य में इस संस्था में आई गिरावट के संदर्भ में निराशा व्यक्त की गयी है :
- 1960 (120 दिन/वर्ष) से वर्तमान (65-70 दिन/वर्ष) तक औसत संसदीय बैठकों में 50% की कमी आई है।
- संसद में लगातार व्यवधान के कारण उत्पादक समय एवं संसाधनों की हानि।
- संसदीय समीक्षा की अवहेलना करके निरंतर अध्यादेशों का उपयोग किया जाना।
- विधेयकों एवं बजट पर कम समय देना तथा उन पर कम विचार-विमर्श किया जाना।
संसदीय प्रभावकारिता में गिरावट के कारण:
- दल-बदल विरोधी कानून एवं पार्टी-व्हिप: यह व्यक्तिगत सांसदों की सक्रिय भागीदारी को निरुत्साहित करते हैं। सांसदों को निरर्हता से बचने के लिए दल के हितों पर ध्यान देना पड़ता है।
- कार्यपालिका/सरकारी नियंत्रण: प्रत्येक सदन को आहूत करने और विचार-विमर्श के लिए विधायी कार्य संचालन पर सरकार का नियंत्रण, परिकल्पित कार्यपालिका पर संसदीय नियंत्रण के समक्ष बाधा उत्पन्न करता है।
- संसदीय समितियों की प्रभावकारिता में गिरावट: सांसद संसदीय समितियों पर ध्यान नहीं दे पाते हैं, क्योंकि सांसदों को अपने निर्वाचन क्षेत्र में ही अधिकांश समय व्यतीत करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त, इन समितियों के निष्पादन के नियमित मूल्यांकन के लिए कोई तंत्र उपलब्ध नहीं है। राजनीति के व्यावसायीकरण एवं अपराधीकरण तथा व्यक्तिगत सत्यनिष्ठा में होने वाली क्षति के कारण राजनीतिक नैतिकता तथा व्यावसायिकता का पतन।
- शोध कर्मियों का अभाव : यह विधि निर्माताओं को महत्वपूर्ण मुद्दों पर गहराई से शोध करने एवं सदन में रचनात्मक विचार-विमर्श में बाधा उत्पन्न करता है।
- लाइव कवरेज एवं मीडिया का ध्यान: इसके कारण सांसद अनुचित सार्वजनिक ध्यान आकर्षित करने हेतु अनावश्यक मुद्दों को उठाने के लिए प्रेरित होते हैं।
संसद की विश्वसनीयता को पुनः स्थापित करने हेतु निम्नलिखित उपायों को अपनाए जाने की आवश्यकता है:
- बैठकों की न्यूनतम संख्या को निश्चित करना: लोकसभा के लिए कम से कम 120 दिनों एवं राज्य सभा के लिए 100 दिनों की बैठक निश्चित करना, जैसा कि राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग द्वारा अनुशंसित किया गया था।
- सदन की बैठकों के लिए उन्नत वार्षिक कैलेंडर का निर्माण, जिसे संसद द्वारा तैयार किया जाना चाहिए एवं इस संदर्भ में कार्यपालिका का एकमात्र विवेकाधिकार नहीं होना चाहिए।
- छाया मंत्रिमंडल (शेडो कैबिनेट) की व्यवस्था को अपनाया जाना चाहिए, जिसमें विपक्षी सांसदों को भी पोर्टफोलियो प्रदान किया जा सके और वे विस्तारपूर्वक प्रगति की जांच तथा निगरानी कर सकें।
- अपराधीकरण, धन बल का दुरुपयोग तथा फ़र्जी समाचारों की कुव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए चुनाव सुधार किए जाने चाहिए।
- उत्तरदायी विपक्ष, जिससे उत्तरदायी विधि निर्माण को प्रोत्साहित करने हेतु रचनात्मक बहस को बढ़ावा मिले एवं कार्यवाही में न्यूनतम व्यवधान उत्पन्न हो।
- दल-बदल जैसे मुद्दों पर निर्णय लेने में चुनाव आयोग को महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की जानी चाहिए।
- संसदीय समितियों को सुदृढ़ किया जाना चाहिए।
- राइट टु रिकॉल जैसे उपायों पर विचार किया जाना चाहिए ताकि मतदाताओं को अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान किया जा सके।
भारत के उच्चतम विधायी निकाय के रूप में संसद परम संप्रभु अर्थात् भारतीय नागरिकों के प्रति उत्तरदायी है। रचनात्मक चर्चा, विचार-विमर्श, विवाद एवं संवाद भारतीय लोकतंत्र की आत्मा हैं। अतः लोकतंत्र की रक्षा के लिए संसद को आदर्श स्थापित करने की आवश्यकता है।
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