शक्ति के पृथक्करण का सिद्धांत: ‘नियंत्रण और संतुलन’

प्रश्न: व्याख्या कीजिए कि शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत को लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक अनिवार्य घटक क्यों माना जाता है। साथ ही, भारत के संदर्भ में इस सिद्धांत पर चर्चा करते हुए, ‘नियंत्रण और संतुलन’ के सिद्धांत की भी व्याख्या कीजिए।

दृष्टिकोण:

  • शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत की अवधारणा और औचित्य के संबंध में संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
  • व्याख्या कीजिए कि किस प्रकार भारत में शक्तियों के कठोर पृथक्करण का अनुसरण नहीं किया जाता है।
  • ‘नियंत्रण और संतुलन’ के सिद्धांत को चिह्नित करने वाले कुछ दृष्टान्तों पर प्रकाश डालिए।

उत्तरः

शक्ति के पृथक्करण का सिद्धांत सरकार के तीन अंगों नामतः विधायिका, कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के मध्य पारस्परिक संबंधों की व्याख्या करता है। इसका तात्पर्य यह है कि सरकार के प्रत्येक अंग को अन्य अंगों से स्वतंत्र होकर कार्य करना चाहिए तथा एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। इस प्रकार विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका की शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकती; कार्यपालिका, विधायिका या न्यायपालिका की भूमिका का निष्पादन नहीं कर सकती तथा न्यायपालिका, विधायी या सरकार की कार्यकारी शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकती।

मॉन्टेस्क्यू के अनुसार शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य है, ‘सरकारी इच्छा एवं मर्जी के आधार पर शासन के स्थान पर विधि के शासन पर आधारित सरकार की उपस्थिति।’ यह इस पूर्वधारणा पर आधारित है कि किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह में शक्तियों के संकेद्रण के परिणामस्वरूप निर्णय निर्माण में सामान्यतः निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता परिलक्षित होने लगती है। इस प्रकार, शक्ति के पृथक्करण सिद्धांत को लोकतांत्रिक राजनीति के एक अपरिहार्य अंग के रूप में स्वीकार किया जाता  है

 हालांकि, भारत में शक्तियों के कठोर पृथक्करण का अनुसरण नहीं किया जाता है। उदाहरणार्थ:

  • राष्ट्रपति (जो कि कार्यपालिका का प्रमुख होता है) को प्रधानमंत्री, मंत्रिपरिषद, न्यायाधीशों इत्यादि की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त है। इसके अतिरिक्त, यह विधेयकों को अपनी स्वीकृति प्रदान करते हुए विधायी शक्तियों का भी उपयोग करता है।
  • यदि कोई कानून संवैधानिक प्रावधानों के प्रतिकूल होता है तो न्यायपालिका उस कानून को अवैध घोषित कर सकती है। यद्यपि, न्यायपालिका कभी-कभी विधि-निर्माण और कार्यान्वयन के क्षेत्र में भी हस्तक्षेप करती है। उदाहरण के लिए, दिल्ली-NCR क्षेत्र में चल रहे 10 वर्ष से पुराने डीजल वाहनों को प्रतिबंधित करना, राजमार्गों के निकट खुदरा बिक्री केन्द्रों पर शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगाना आदि।
  • कार्यपालिका संसदीय प्रणाली में विधायिका का एक भाग है। यह विधायिका द्वारा प्रत्यायोजित किए जाने पर अधीनस्थ विधि निर्माण की शक्तियों का प्रयोग कर सकती है। यह अधिकरणों की कार्यवाहियों में न्यायिक कृत्यों का भी निष्पादन करती है।

यद्यपि, राज्य के तीनों अंगों के मध्य सीमाएं अस्पष्ट हैं, फिर भी उनके कार्यों के निष्पादन में महत्वपूर्ण पृथक्करण विद्यमान है; तथापि यह नहीं कहा जा सकता कि शक्ति के पृथक्करण का सिद्धांत विद्यमान नहीं है। यह नियंत्रण और संतुलन’ के सिद्धांत के रूप में विद्यमान है, जैसे कि:

  • कार्यपालिका निम्न सदन (लोकसभा) के प्रति उत्तरदायी है। उदाहरणार्थ- कार्यपालिका द्वारा बजट को पारित करवाने तथा संचित निधि से भुगतान को प्राधिकृत करवाने हेतु विधायिका के अनुमोदन की आवश्यकता होती है।
  • न्यायपालिका संविधान के व्याख्याता तथा जनता के अधिकारों के संरक्षक के रूप में कार्य करती है। यह न्यायिक समीक्षा के माध्यम से कार्यपालिका और विधायिका को जनता के प्रति जवाबदेह बनाती है।
  • हालाँकि न्यायपालिका सर्वोच्च नहीं है, क्योंकि संसद न्यायाधीशों को उनके पद की गरिमा के अनुरूप व्यवहार न करने पर महाभियोग की प्रक्रिया के माध्यम से उनकी जवाबदेहिता को सुनिश्चित कर सकती है।

नियंत्रण और संतुलन’ के सिद्धांत को मिनर्वा मिल्स वाद के पश्चात् और अधिक महत्व प्राप्त हुआ। ध्यातव्य है कि इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि न्यायिक समीक्षा संविधान की एक मूलभूत विशेषता है। समग्र रूप से, शक्ति का पृथक्करण यह सुनिश्चित करता है कि राज्य का कोई भी अंग इतना अधिक शक्तिशाली न बन सके कि उसे संवैधानिक संरचना के तहत अन्य अंगों द्वारा नियंत्रित न किया जा सके।

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