सत्यनिष्ठा एवं पारदर्शिता : भ्रष्ट तथा बेईमान लोक सेवकों के अभियोजन की आवश्यकता

प्रश्न: जहाँ भ्रष्ट और बेईमान को तत्काल दंडित किया जाना चाहिए, वहीं किसी संगठन की दक्षता और प्रभावशीलता बढ़ाने हेतु दुर्भावनापूर्ण और अभिप्रेरित शिकायतों से ईमानदार लोक सेवकों की सुरक्षा की जानी चाहिए। चर्चा कीजिए। इन दो उद्देश्यों के बीच किस प्रकार सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है?

दृष्टिकोण

  • संक्षेप में बताइए कि लोक सेवकों से सत्यनिष्ठा एवं पारदर्शिता जैसे उच्च मानक मूल्यों की आवश्यकता क्यों होती है।
  • भ्रष्ट तथा बेईमान लोक सेवकों के अभियोजन की आवश्यकता पर चर्चा कीजिए।
  • ईमानदार लोक सेवकों पर दुर्भावनापूर्ण शिकायतों के प्रभावों की चर्चा कीजिए।
  • दोनों उद्देश्यों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने के लिए उपाय सुझाइये जैसे- दोषी को दंडित करना और ईमानदार लोक सेवकों की रक्षा करना।

उत्तर

लोक सेवकों को समाज द्वारा अनेक उत्तरदायित्व सौंपे गए हैं और ऐसे में उन्हें अपने कर्तव्यों के निष्पादन हेतु पर्याप्त शक्तियाँ भी प्रदान की जाती हैं। अतः एक लोक सेवक के पद पर लोक विश्वास का बना रहना आवश्यक है। निर्णय लेने की शक्ति को निष्पक्षता, वस्तुनिष्ठता और बिना किसी भय अथवा बिना किसी पक्षपात के प्रयोग किया जाना चाहिए। लोक सेवक के पद को गलत कार्य करने के आरोपों और उपहास का पात्र बनने से बचने तथा आत्मविश्वास को प्रेरित करने का प्रयास करना चाहिए। आरोपों का त्वरित अन्वेषण किया जाना चाहिए और दोषियों को दंडित किया जाना चाहिए। वस्तुतः न्यायिक प्रक्रिया तीव्रता से होनी चाहिए ताकि सार्वजनिक कार्यालय के साथ-साथ राज्य के प्रति भी विश्वास बनाए रखा जा सके।

ऐसा करने में विफल रहने से न केवल लोगों (अर्थात नागरिकों) तथा राज्य के मध्य विश्वास में कमी आ सकती है बल्कि लोग अन्य व्यक्तियों को लाभ से वंचित करने के साथ-साथ परिश्रमी व्यक्तियों को हतोत्साहित करने हेतु दुर्भावनापूर्ण कृत्यों द्वारा संपूर्ण व्यवस्था को खराब कर सकते हैं।

हालांकि, सिविल सेवकों द्वारा विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग किया जाता है, अतः समग्र रूप से देखें तो सदैव ही निर्णय में सुधार करने की संभावना बनी रहती है। यदि किसी भी सिविल सेवक को वांछित परिणामों की प्राप्ति न होने पर अपने द्वारा लिए गए सुविचारित निर्णय के लिए भविष्य में दंडित होने का भय होता है, तो यह सरकार में निर्णयन को हतोत्साहित कर सकता है। दर्भावनापूर्ण शिकायतें ईमानदार अधिकारी द्वारा आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन करने की क्षमता को प्रभावित कर सकती हैं। दंडित होने का भय निर्णयन को धीमा कर सकता है और विकास गतिविधियों के निष्पादन में भी व्यवधान उत्पन्न कर सकता है। इसके साथ ही इस प्रकार की शिकायतें समय पर पदोन्नति जैसे उनके प्रदर्शन के पारिश्रमिक पुरस्कारों में विलंब कर उन्हें निरुत्साहित कर सकती हैं।

एक सरकारी कर्मचारी की दक्षता एवं प्रभावशीलता उसके द्वारा निर्वाह किए जाने वाले कर्तव्यों को बिना किसी भय तथा पक्षपात के पूर्ण करने की मांग करती है। इसलिए, एक ईमानदार लोक सेवक की सुरक्षा न केवल उसके निजी हित के लिए बल्कि समाज के व्यापक हित के लिए भी अत्यावश्यक है।

वास्तव में एक दोषी अधिकारी को दंडित करने और दुर्भावनापूर्ण तथा अभिप्रेरित शिकायतों से निर्दोष अधिकारी की रक्षा करने के दोहरे उद्देश्यों के मध्य सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता है। भय द्वारा कार्यवाही के निर्धारण को प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए। हालांकि भ्रष्ट्राचार किए जाने की स्थिति में भय बना रहना चाहिए, परंतु ईमानदार बने रहने में भय को समाप्त किया जाना चाहिए। निम्नलिखित उपायों के माध्यम से इन उद्देश्यों के मध्य सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है:

  • पारदर्शिता को बढ़ावा देना- सूचना का अधिकार अधिनियम को सुदृढ़ करना तथा स्वत: संज्ञान प्रकटीकरण व्यवस्था की ओर स्थानांतरण।
  • लोक सेवकों को उनके द्वारा लिए गए निर्णयों की जवाबदेही लेने हेतु प्रोत्साहित करना।
  • पूर्व स्वीकृति लेने की आवश्यकता- उदाहरणार्थ भ्रष्टाचार रोकथाम अधिनियम को संशोधित कर केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) जैसी सरकारी एजेंसियों के लिए लोक सेवकों के विरुद्ध जांच प्रारंभ करने से पूर्व सरकार से अनुमोदन प्राप्ति को अनिवार्य करना चाहिए।
  • कुछ मामलों में न्यायालय को संज्ञान लेने से वंचित करना- उदाहरणार्थ CrPC की धारा 197 लोक सेवकों द्वारा अपने कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान किए गए अपराधों को न्यायालय द्वारा संज्ञान में लेने से प्रतिबंधित (सरकार के पूर्व अनुमोदन प्राप्त होने की स्थिति को छोड़कर) करती है।
  • सुविचारित दुर्भावनापूर्ण शिकायतों के लिए दंडित करना- उदाहरणार्थ लोकपाल और लोकायुक्त अधिनियम के अंतर्गत दुर्भावनापूर्ण और अभिप्रेरित शिकायतकर्ताओं को कारावास एवं जुर्माने के माध्यम से दंडित किये जाने का प्रावधान है।

ध्यातव्य है कि उत्तरदायित्व मानकों को यथार्थवादी होना चाहिए और दोषी को दंडित करने तथा ईमानदार की रक्षा करने के बीच के अंतराल को सावधानीपूर्वक समाप्त करने की आवश्यकता है। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि ‘ ईमानदार और गंभीर अधिकारियों’ को लोक हित में लिए गए सदाशयी निर्णय लेने हेतु कष्ट न उठाना पड़े।

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