संघवाद और सहकारी संघवाद का एक संक्षिप्त परिचय

प्रश्न: क्या हम कह सकते हैं कि उदारीकरण के बाद की अवधि में भारत में सहकारी संघवाद सुदृढ़ हुआ है? अपने उत्तर के समर्थन में कारण प्रस्तुत कीजिए।

दृष्टिकोण

  • संघवाद और सहकारी संघवाद का एक संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  • तत्पश्चात्, उदारीकरण के बाद की अवधि में भारत में सहकारी संघवाद को सुदृढ़ बनाने वाले कारकों पर प्रकाश डालिए।
  • उदारीकरण के आलोक में सहयोग की आवश्यकता के संबंध में संक्षिप्त निष्कर्ष दीजिए।

उत्तर

संघवाद का निहितार्थ संघ और राज्यों के मध्य प्रशासनिक, वित्तीय और विधायी शक्तियों का विभाजन है, जबकि सहकारी संघवाद का निहितार्थ यह है कि संघ और राज्य वृहत्तर लोकहित में एक दूसरे के साथ सहयोग करते हैं और क्षैतिज संबंध साझा करते हैं।

स्वतंत्रता के बाद हमारी राजव्यवस्था सहकारी मॉडल पर आरंभ हुई थी, लेकिन केंद्र में मजबूत प्रधानमंत्रियों वाली उत्तरोत्तर सरकारों और कुछ राज्यों में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने टकराव वाले संबंध को जन्म दिया। हालांकि, 1990 के बाद या उदारीकरण के बाद की अवधि में, विभिन्न कारकों ने सहकारी संघवाद को सशक्त बनाया।

  • केंद्र में एकल दल के शासन के अंत से सरकार का प्रधानमंत्रीय स्वरूप कमजोर हुआ। इस प्रकार, अब केंद्र सरकारें उतनी शक्तिशाली नहीं रह गईं जितनी पहले हुआ करती थीं।
  • केंद्र में गठबंधन सरकार के उद्भव ने अनुच्छेद 356 आदि जैसे संवैधानिक प्रावधानों के स्वार्थपूर्ण राजनीतिक कारणों से किये जाने वाले दुरुपयोग को कठिन बना दिया है।
  • क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के समर्थन पर केंद्र सरकार की निर्भरता ने क्षेत्रीय नेताओं की अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य में और संघ की क्षेत्रीय दलों के दृष्टिकोण से सोचने में सहायता की है। इस प्रकार, कम टकराव और अधिक सहयोग का मार्ग प्रशस्त हुआ है।
  • राष्ट्रपति की सक्रियता – यदि मंत्रिपरिषद कभी स्वार्थपूर्ण राजनीतिक कारणों से संवैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग करती है तो 1990 के बाद से आने वाले राष्ट्रपतियों ने संवैधानिकता सुनिश्चित करने में सक्रियता दिखाई है और निर्भय होकर अपनी विवेकाधीन शक्तियों का उपयोग किया है।
  • न्यायिक सक्रियता- 1990 (उदाहरण के लिए, एस.आर. बोम्मई वाद) के बाद से न्यायिक सक्रियता ने यह सुनिश्चित किया है कि केंद्र सरकार संवैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग न करे। इसने राज्य सरकारों को सुरक्षा की भावना प्रदान की है।
  • 73वें और 74वें संवैधानिक संशोधनों का कार्यान्वयन –इससे पूर्व के केवल संघ-राज्य संबंधों के विपरीत इस संवैधानिक संशोधन ने संघ, राज्य और स्थानीय संबंधों पर भी ध्यान केंद्रित किया है। पहले राज्य स्थानीय सरकारों के लिए ऐसा किए बिना संघ से अधिक शक्तियों की मांग कर रहे थे, लेकिन अब राज्य संघ-राज्य संबंधों की जटिल गतिशीलता के प्रति अधिक उदार हुए हैं।
  • सक्रिय मीडिया – उदारीकरण के बाद से इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की सक्रियता और हाल के दिनों में हुए सोशल मीडिया के प्रसार से, किसी भी सरकार के लिए अब राज्य सरकारों को पदच्युत करने जैसा लोक-विरोधी उपाय अपनाना बहुत मुश्किल हो गया है।
  • बदली राजनीतिक संस्कृति – अपने अधिकारों को लेकर बढ़ती जागरूकता के साथ लोग राजनैतिक कारणों से केंद्र के प्रति टकराववादी दृष्टिकोण अपनाने वाली सरकारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, जिसने राज्य सरकारों को और अधिक उत्तरदायी तरीके से व्यवहार करने के लिए विवश किया है। वास्तव में, सरकार की हालिया पहले सहकारी संघवाद की दिशा में आगे बढ़ने की पुष्टि करती हैं।
  • योजना आयोग की जगह NIT आयोग का गठन, केंद्र और राज्यों के बीच सहयोग मजबूत बनाने का प्रतीक है।
  • GST का कार्यान्वयन कराधान में सहकारी संघवाद की दिशा में एक बड़ा कदम है। इस संदर्भ में GST परिषद संस्थागत रूपरेखा प्रदान करती है।
  • चौदहवें वित्त आयोग की अनुशंसाएं और उसके निहितार्थ भी राज्यों को अधिक राजकोषीय विस्तार और प्रतिनिधित्व प्रदान करके सहकारी संघवाद का शुभ संकेत देती हैं।
  • केंद्र प्रायोजित योजनाओं (CSS) का पुनर्गठन भी इस संदर्भ में व्यापक विकास के अनुरूप है।

संघ और राज्य दोनों आर्थिक सुधारों और सामाजिक योजनाओं को सफल बनाने के लिए एक साथ आने के लिए विवश हुए हैं। पुनः, सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति और ज्ञान क्रांति के साथ उदारीकरण का प्रभाव भारत के विविधतापूर्ण और बहु-सांस्कृतिक समाज को और भी जटिल और अन्योन्याश्रित बना रहा है।

वास्तव में, हम प्रतिस्पर्धी संघवाद की दिशा में बढ़ रहे हैं, जहां राज्य न केवल केंद्र के साथ सहयोग करते हैं, बल्कि अपने प्रदर्शन के आधार पर निवेश और बजटीय सहायता के लिए एक-दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा भी करते हैं। इस प्रकार, सुधारों की सफलता राजनीतिक स्थिरता, नीतिगत निश्चितता के साथ ही सरकारों के अनुकूलनीय दृष्टिकोण पर निर्भर करती है। साथ ही इसके लिए शासन के विभिन्न स्तरों के बीच एकसमान नीतियों की भी आवश्यकता है। इससे सहकारिता की अवधारणा वैकल्पिक नहीं बल्कि आवश्यक बनती है।

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