दक्षिण भारत में आरम्भिक राज्य की उत्पत्ति (तमिल क्षेत्र)

इस इकाई को पढ़ने के बाद आप यह समझ सकेंगे किः

  • आरंभिक काल में दक्षिण भारत या तमिल क्षेत्र किन-किन भौगोलिक प्रदेशों या जलवायु क्षेत्रों में बंटा था
  • किस प्रकार जीवनयापन के विभिन्न तरीके एक साथ अस्तित्व में थे और उनमें कैसे आदान-प्रदान होता था
  • किस प्रकार विभिन्न प्रकार के मुखियातंत्र कार्य करते थे
  • कैसे वे राजनीतिक नियंत्रण के विभिन्न स्तरों का प्रतिनिधित्व करते थे

आप सातवाहनों के अधीन दक्खन में आरंभिक राज्य उत्पत्ति की जानकारी प्राप्त कर चुके हैं। इस काल के दौरान तमिल क्षेत्र में उसी प्रकार की स्थिति नहीं थी। इस क्षेत्र में केवल मुखियातंत्र विद्यमान था, राज्य शक्ति जैसी चीज का नामोनिशान नहीं था। राज्य के लिए एक क्षेत्र विशेष में केंद्रीकृत राजनीतिक शक्ति का होना अनिवार्य माना जाता है। क्षेत्र के विभिन्न स्त्रोतों पर नियंत्रण स्थापित होने पर ही किसी राजनीतिक शक्ति का अधिकार कायम होता है। इसके अतिरिक्त राज्य के लिए एक नियमित कराधान व्यवस्था और व्यवस्थित सेना का होना आवश्यक है। इस कराधान और सेना को व्यवस्थित करने के लिए राज्य के पास नौकरशाही या विभिन्न स्तरों के अधिकारियों का एक दल होना चाहिए। दूसरी तरफ मुखियातंत्र में ऐसी व्यापक व्यवस्था नहीं होती है।

मुखियातंत्र वंशानुगत अधिकार पर आधारित एक ऐसा समाज होता है, जिसमें एक मुखिया का शासन होता है। उसके अधिकार क्षेत्र में वे लोग होते हैं जो उसके साथ संबद्ध कबीले के नियमों और सगोत्रता के सूत्र में बंधे होते हैं। मुखिया अपने लोगों के सगोत्रीय संबंधों का संस्थागत रूप होता है। इस प्रकार की व्यवस्था में लोगों से राजस्व के तौर पर नियमित रूप से कर नहीं वसल किया जाता है. बल्कि स्वेच्छा से लोग समय-समय पर नजराना दिया करते हैं। इस इकाई में आप बिभिन्न प्रकार के मखियाई अधिकारों और उनके राजनीतिक विकास के स्तर की जानकारी प्राप्त करेंगे।

क्षेत्र विशेष

वेंकटम पहाड़ियों और कन्याकुमारी के बीच के भू-क्षेत्र को तमिलहम याने तमिल क्षेत्र कहते हैं। इसके अंतर्गत सम्पूर्ण आधुनिक तमिलनाडु और केरल आ जाते हैं। इस क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की भौगोलिक परिस्थितियाँ तथा जलवायु पाई जाती है। यहाँ वनों से आच्छादित पहाड़ियाँ, हरे मैदान, चरागाह, शुष्क प्रदेश, नम भूमि और लम्बे समद्री तट भी हैं। तीन प्रमख मखियातंत्रों चेर, चोल और पांड़यों का भीतरी भ-भाग के साथ-साथ समद्र तट पर भी नियंत्रण था। चेरों का भीतरी भू-भाग में करूर पर और पश्चिमी तट पर स्थित प्रसिद्ध प्राचीन बंदरगाह मकीरी पर अधिकार था। भीतरी भू-क्षेत्र में उर्जेयुर पर और कोरामंडल तट में पुहार पर चोलों का आधिपत्य था।

इसी प्रकार पांड्यों का भू-क्षेत्रीय मुख्यालय महुरई और तटीय मुख्यालय कोरकर था। ये इस क्षेत्र के प्रमुख राजनीतिक केंद्र थे।

पाँच पारिस्थितिकी प्रदेश और जीवनयापन का तरीका

प्राचीन तमिल काव्य में प्रदेश की प्राकृतिक विभिन्नता का सुंदर समन्वय हुआ है। यह ऐंतिणे या पाँच विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्रों की अवधारणा के रूप में व्यक्त हआ है। तमिलहम को पाँच तिणे का समुच्चय बताया गया है, यह पाँच तिणें हैं कुरिजि (पहाड़ी वन क्षेत्र), पलै (शुष्क प्रदेश), मुल्लै (चारागाह क्षेत्र), मरूतम (नम भूमि) और नेयतल (समुद्र तट)। कुछ प्रदेश ऐसे भी थे, जहाँ एक से अधिक तिण का अस्तित्व था। पर आमतौर पर अधिकांश तिणें चारों तरफ बिखरे पड़े थे। भौगोलिक स्थितियों के कारण प्रत्येक तिण में मनुष्य के जीवनयापन का तरीका अलग-अलग था। सामाजिक समूह भी अलग-अलग थे। कुरिजि प्रदेश में रहने वाले लोग शिकार और फल-फूल इकट्ठा कर अपनी जिंदगी बसर करते थे। पालै की सखी भूमि के कारण, वहाँ के लोग कछ उपजा नहीं सकते थे,अतः यहाँ के लोग जानवरों को चराकर और लोगों को लटकर अपना भरण-पोषण करते थे। मल्ले के लोग पशुपालन और झूम खेती करते थे।

मरूतम में हल से खेती की जाती थी और नेयूतल में मछली मारना और नमक बनाना जीवनयापन का मुख्य साधन था। इस प्रकार तमिलहम के पाँच तिण में भौगोलिक प्रभावों के कारण जीवन यापन के भिन्न-भिन्न तरीके अपनाये जाते थे। एक तिणे के लोग दूसरे तिणें के लोगों से वस्तुओं का आदान-प्रदान करते थे। जैसे पहाड़ियों में रहने वाले लोग मैदानी इलाके में अपने वन्य उत्पादों जैसे शहद, मांस, फल आदि के साथ आते थे। तटीय प्रदेश में रहने वाले लोग उनके इन पदार्थों के बदले मछली और नमक की आपूर्ति करते थे।

कृषि प्रदेश सभी को आकर्षित करते थे। छोटे आत्मनिर्भर तिण का इस प्रकार के आदान-प्रदान और आपसी निर्भरता से अपेक्षाकृत बड़े भौगोलिक प्रदेशों में विकास हआ। इनमें से कुछ प्रदेशों में उत्पादन की दृष्टि से स्थिति अनकल थी और कछ प्रदेशों में प्रतिकल। बेहतर उत्पादन वाले इलाके में अपेक्षाकृत विकसित सामाजिक श्रम विभाजन अस्तित्व में था। कम उत्पादन वाले इलाके में सामाजिक संरचना सरल थी और वह गोत्रों से मिलकर बनी थी।

कुल मिलाकर तमिलहम असमान रूप से विकसित तत्वों से मिलकर बने एक जटिल समाज का प्रतिनिधित्व करता था जिनकी सांस्कृतिक विरासत एक समान थी। इस समाज में कई प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाएँ थीं, जिसमें गोत्रों पर आधारित सरल मुखियातंत्र से लेकर राजघरानों द्वारा शासित जटिल मुखियातंत्र का अस्तित्व था। पूर्णविकसित राज्य का निर्माण होना अभी बाकी था।

राजनीतिक समाज का उद्भव

विभिन्न कलों के मखियातंत्र से राजनीतिक समाज का उद्भव माना जा सकता है। कुलों का यह मखियातंत्र बड़ा भी होता था और छोटा भी। कविताओं में कल मखियातंत्र के मखियाओं को श्रेष्ठ (पेरू-मकन) या मुखिया पुत्र (को-मकन) कहा गया है, इससे कुल के सदस्यों और मखिया के बीच संबंध का भी पता चलता है। वस्तुतः इससे सगोत्रीय आधार का पता चलता है। इसमें से कुछ मुखियातंत्रों ने दूसरे कुलों पर विजय प्राप्त करके उन्हें अपने कल में मिलाकर, सगोत्रीय आधार का अतिक्रमण भी किया होगा। अपेक्षाकृत जटिल प्रकृति के बड़े . मखियातंत्रों का निर्माण आक्रमणों और दसरों के इलाकों पर कब्जा जमाकर ही हआ है। मुखियाओं की वैवाहिक संधियों के कारण भी बड़े मुखियातंत्रों का निर्माण हुआ, पर मुखियातंत्रों के विकास का मुख्य आधार उनकी सम्पत्ति थी।

जिनके पास अधिक खेतिहर इलाके थे, वे मखियातंत्र अधिक शक्तिशाली थे। समकालीन तमिल क्षेत्र में इस प्रकार के मुखियातंत्रों में चेर, चोल और पांड्य सर्वप्रमुख थे। ये मुखियातंत्र राज्य के उद्भव के पूर्व के ‘ चरण का प्रतिनिधित्व करते थे।

विभिन्न प्रकार के मुखियातंत्र

तमिल क्षेत्र में तीन प्रकार के मुखियातंत्र थे। इन्हें किलार (छोटे मुखिया), वेलीट (बड़े । मुखिया)और वेंतर (सबसे बड़े मुखिया) कोटि में विभक्त किया जाता था। किलार छोटे गाँवों (उर) के मुखिया होते थे, जहाँ सगोत्रता का अधिपत्य था। काव्यों में कई किलारों का उल्लेख किया गया है। उनके आगे उनके अपने गाँव का नाम जुड़ा होता था जैसे अंरंकंटुर-किलार या उरंदर किलार। इनमें से कुछ प्रदेशों को बड़े मखियातंत्रों ने हड़प लिया था और उन्हें । (किलार) बड़े मखियातंत्रों के अभियान में साथ देना पड़ता था। काव्य में इस बात का उल्लेख है कि किलारों को बड़े मुखियातंत्रों जैसे चेर, चोल और पांड्य के सैनिक अभियानों में विदतोलिल (अनिवार्य सेवा) करनी पड़ती थी। इसके बदले में बड़े मखियातंत्र किलारों को बतौर इनाम कछ गाँवों का नियंत्रण सौंप देते थे। वेलीर मख्यतः पहाड़ी क्षेत्र पर नियंत्रण रखते थे, पर इनमें से कछ मैदानी इलाकों में भी जमे हुए थे।

पहाड़ियों पर स्थित मखियातंत्रों के मुखिया मुख्यतः शिकारी प्रमुख होते थे, जिसे वेडर कोमान या कुरवर-कोमान या नेडु वेट्टवन के नाम से जाना जाता था। वेडर-करवर और वेट्टवर पहाड़ी इलाके के प्रमुख कल थे, जिसमें वेलीर का वर्चस्व था। इस काल के मुखियातंत्रों के प्रमुख केंद्र बैंकटमलै (वेंकटम की पहाड़ियाँ), नांजिलमलै (त्रावणकोर की दक्षिणी पहाड़ी), परमपरलाई (संभवतः पोल्लाच्ची के समीप आधुनिक परम्पिकुल्लम आरक्षित वन), पोट्टिलमलै (महुरै जिले की पहाड़ियाँ) आदि थे। बड़े मखियातंत्रों की श्रेणी में चेर, चोल और पांड्य प्रमुख राजघराने थे। इन्हें मवेंदर के नाम से जाना जाता था। इन राजघरानों का बड़े हिस्सों पर नियंत्रण था।

चेरों का नियंत्रण पश्चिमी घाट में स्थित करिजों पर था। चोलों का कावेरी क्षेत्र पर और पांड़यों का दक्षिण-मध्य समुद्री इलाके पर नियंत्रण था। उनके अधीन कई छोटे-मोटे सरदार थे, जो नजराना पेश किया करते थे। उस समय तक राज्य क्षेत्र का कोई निश्चित सीमा-निर्धारण नहीं हो सकता था। इस युग में राजनीतिक अधिकार का कार्यान्वयन जनता के माध्यम से होता था न कि मूलभूत स्त्रोतों पर अधिकार जमाकर। जैसे कि कुरवर या वेतर या वेंट्टवर जैसे लोगों पर नियंत्रण स्थापित कर ही कोई मुखिया सरदार बन पाता था। इन लोगों का सामूहिक तौर पर पहाड़ी या मैदानी इलाकों पर अधिकार होता था। मुखिया या सरदार सगोत्रता पर आधारित समाज से ही अधिकार प्राप्त करता था।

विभिन्न स्त्रोतों पर किसी व्यक्ति विशेष का अधिकार न होकर बल्कि पूरे समदाय का अधिकार होता था, यह उनका वंशानुगत अधिकार होता था। यह वंशपरम्परा पर आधारित समदाय था और वे स्वेच्छा से अपने मखिया को नजराना देते थे। नियमित और निश्चित समय पर करों का भगतान करना प्रचलन में नहीं था। फिर प्रमुख मखिया की शक्ति अपने क्षेत्र की उत्पादकता और उपजाउपन पर आधारित होती थी। पशुपालक या शिकारी समुदाय के सरदार की शक्ति खेतिहर इलाके के सरदार से कम होती थी। शक्तिशाली सरदार कमजोर सरदार के इलाकों पर कब्जा जमा लेते थे और उनसे नजराना वसूल करते थे। इस काल में लूटमार कर धन इकट्ठा करना एक आम प्रचलन था।

लूटमार और लूट के माल का बंटवारा

अपने लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए बड़े और छोटे सरदार अक्सर लूटमार किया करते थे। ये सरदार अपने सगोत्रों के अलावा लट के माल का हिस्सा सैनिकों, भाटों, और चिकित्सकों को भी दिया करते थे। कोडै संस्था (उपहार प्रदान करने की संस्था) लट के माल के पुनर्वितरण की प्रथा का एक अंतरिम हिस्सा थी। उपहार प्रदान करना किसी भी सरदार का महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व माना जाता था। परनानरू (एटटत्तोगै) की परम्परा में संकलित एक काव्य) की अधिकांश कविताओं में सरदार की उदारता की प्रशंसा की गयी है। इन कविताओं के अनुसार बहादरी और उदारता को सरदारों का प्रमुख गुण माना जाता था।

स्थानीय स्त्रोतों के अभाव में लटमार आय का प्रमख स्त्रोत बन जाता था। परनानूरू में संकलित एक काव्य में ऊर्तरकिन्तार नाम के सरदार का उल्लेख है, जिसके पास आय के स्रोत काफ़ी कम थे। जब भी कोई व्यक्ति उससे उपहार माँगने जाता था, तो वह अपने लोहार को बुलाकर नया बल्लम बनाने का आदेश देता था ताकि वह लूटमार करके धन एकत्र कर उसे उपहार के तौर पर अपने आश्रितों को दे सके। इस प्रकार लटमार और प्राप्त माल का । पुनर्वितरण उस समय की राजनीतिक व्यवस्था का एक अंग बन चुका था। सरदार एक दूसरे को लूटा करते थे। लूटमार के अभियान में छोटे सरदार बड़े सरदारों का साथ देते थे और लूट के माल के समय इनकी नजर ज्यादातर पशधन और अनाज की ओर होती थी।

इस काल के भाटों ने अपने गायन में हाथी, घोड़े, स्वर्ण कमल, रथ, हीरे-जवाहरात और मलमल के कपड़े आदि उपहारों की चर्चा की है। कभी-कभी बड़े सरदार अपने आक्रमण के दौरान दूसरे सरदारों के भू-क्षेत्र पर भी अधिकार कर लेते थे। इन अधिकृत भू-क्षेत्रों को बड़े सरदार अपने सहायक छोटे सरदारों के बीच बाँट दिया करते थे। यह स्मरणीय है कि नियंत्रण वहाँ की जमीन पर नहीं. बल्कि वहाँ रहने वाले लोगों पर स्थापित होता था।

मूवेंदर और राजनीतिक नियंत्रण के विभिन्न स्तर

प्रधान शासक समुदाय के रूप में मवेंदर की पुरातनता मौर्यकाल तक जाती है। अशोक की राजविज्ञप्तियों/फरमानों में उनका जिक्र मिलता है। भाट मवेंदर की स्तुति एक “राजा” के रूप में करते हैं, और उनके अनुसार मवेंदर का अधिकार परे तमिल क्षेत्र पर था। पर “राजा के उल्लेख का यह मतलब नहीं है राज्य की स्थापना हो चकी थी। एक राज्य के निर्माण के । लिए स्थायी सेना, नियमित कर व्यवस्था, नौकरशाही और स्थानीय प्रशासनिक निकायों का होना अनिवार्य है। अभी तक इनकी उत्पत्ति नहीं हो सकी थी। इसके बावजूद मूवेंदर अन्य सरदारों से बिल्कल भिन्न था। लगातार छोटे सरदारों को अपने अधीन लाने का प्रयत्न करते रहे। तीनों शासक समुदाय – चेर, चोल और पांड्य का एक ही प्रमुख मकसद था, वेलीर (बड़े सरदारों) को अपने अधीन करना। वेलीर सरदार की परम्परा भी काफी प्राचीन थी।

अशोक के फरमान में चेर, चोल और पांड्यों के साथ-साथ सत्यपुत्रों या अदिकैमान सरदारों का भी उल्लेख हुआ है। सत्यपुत्र वेलीर सरदारों की श्रेणी में आते थे। उनका ऊपरी कावेरी की पहाड़ियों पर स्थित लोगों पर नियंत्रण था। अन्य वेलीर सरदारों का अधिकार क्षेत्र । भ-वेंदर की सीमा से लगी हुई ऊँची भूमि और समुद्री तट तक फैला हआ था।

वेलीर सरदारों के नियंत्रण में पहाड़ी और मैदानी इलाके थे, इनमें प्रमुख हैं: धर्मपुरी, नीलगिरि, मदुरई, उत्तरी आर्कोट, त्रिचिनापल्ली, पटुकोट्टइ आदि आधुनिक जिले। तमिल क्षेत्र में लगभग पन्द्रह महत्वपूर्ण वेलीर मुखियातंत्र अस्तित्व में थे। इनमें से कुछ वेलीरों का नियंत्रण व्यापारिक स्थल, बंदरगाह पहाड़ियों के मुहाने और पहाड़ी बस्तियों जैसे महत्वपूर्ण केंद्रों में रहने वाले लोगों पर था। स्थान और स्रोतों से उनकी शक्ति का निर्धारण होता था भारतीय-यूनानी व्यापार की शुरुआत होने के बाद महत्वपूर्ण स्थानों और व्यापारिक माल पर नियंत्रण से सरदारों का महत्व बढ़ गया। कविताओं में परंबुमैल के पारी (पोल्लाची के समीप), पोडियल के अरियार (मदुरई), नाजिमैल के आंदीरन (श्रावणकोर के दक्षिण), कोडुम्बै के इरुङ्गोवेल (पदुक्कोट्टई) आदि प्रमुख वेलीर सरदारों का जिक्र किया गया है। ऐसे सामरिक महत्व के क्षेत्रों के वेलीर सरदारों को बार-बार भ-वेंदर जैसे बड़े सरदारों का आक्रमण झेलना पड़ता था। इस भाग-दौड़ में कभी-कभी कमजोर सरदारों का विनाश भी हो जाता था।

भू-वेंदर द्वारा परबनाड़ के वेलीर सरदार की सारी रियासत का नाश इसी प्रकार का उदाहरण है। युद्ध के अतिरिक्त विवाह के माध्यम से भी बड़े सरदार वेलीर रियासत तक पहुँचने की कोशिश करते थे। चेर, चोल और पांड्यों द्वारा वेलीरों की लड़की से शादी करने के कई उदाहरण मिलते हैं, सामरिक महत्व के क्षेत्र के सरदार पर बड़े सरदार सैन्य नियंत्रण रखते थे। उनका दमन करके बड़े सरदार उन्हें अपने अधीन कर लेते थे। भ-वेंदर के नियंत्रण में ऐसे कई पराधीन सरदार थे, जो लूटमार के अभियान में उनका साथ देते थे।

यह स्पष्ट है कि समकालीन तमिल क्षेत्र में भू-वेंदर सर्वशक्तिमान राजनीतिक सत्ता थी। इसके बाद वेलीर का स्थान आता था। जबकि किलार के ग्रामीण सरदार राजनीतिक शक्ति का प्राथमिक स्तर थे। इन्हें देखकर एक राजनीतिक पदानुक्रम का आभास होता है पर राजनीतिक शक्ति के इन तीन स्तरों को सूत्रबद्ध करने के लिए राजनीतिक नियंत्रण की कोई कड़ी नहीं बन पायी थी। भू-वेंदर द्वारा युद्ध और विवाह के माध्यम से छोटे सरदारों को अपने अधीन करने की प्रक्रिया जारी थी, पर अभी भी एक एकीकृत राजनीतिक व्यवस्था का अभाव था।

सगोत्रीय आधार पर संगठित कलों पर परम्परागतं अधिकार ही इस काल के राजनीतिक नियंत्रण का आधार था। परम्परागत ज्येष्ठ लोगों की सभा प्रतिदिन के सभी कार्यकलापों को; संपादित करती थी। सभी स्थल को मरम कहा जाता था अर्थात् किसी पेड़ के नीचे बैठने के लिए बनाया गया चबूतरा इसे पोतियिल भी कहते थे। सरदार की सहायता के लिए ज्येष्ठों की एक सभा होती थी, जिसे अवै (सभा) कहा जाता था, इसकी संरचना बनावट और कार्य का अभी तक पूर्ण ब्यौरा प्राप्त नहीं हआ है। आरंभिक तमिल राजनीतिक व्यवस्था के दो और निकायों की प्रायः चर्चा की जाती है, इसे ऐमरगल या पाँच बड़े समह और एणपेरायम या आठ बड़े समूह के नाम से जाना जाता है। संभवतः इन निकायों का विकास ततीय शताब्दी ई. के आसपास हुआ था, यह काफी बाद की गतिविधि है। इन निकायों की संरचना और कार्यों का भी कुछ निश्चित पता नहीं चला है।

सारांश

इस इकाई में आपने तमिल क्षेत्र की विभिन्न भौगोलिक इकाइयों की जानकारी प्राप्त की। इसके अतिरिक्त वहाँ जीवनयापन के विभिन्न तरीकों और सरदार तंत्र स्तर के राजनीतिक स्वरूप से परिचित होने का भी आपको अवसर मिला। आप इस बात से भी अवगत हुए कि उस काल की राजनीतिक व्यवस्था में लटमार और लटमार के माल के विवरण का महत्वपूर्ण स्थान था।

इसके अतिरिक्त आप को यह भी जानकारी मिली कि इस काल की राजनीतिक सत्ता का आधार गोत्र और कल था। ततीय शताब्दी ई. के बाद राजनीतिक संगठन के सतत विकास की प्रक्रिया से भी आप अवगत हो गये होंगे।

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.