दक्षिण में आरम्भिक राज्य निर्माण

इस इकाई को पढ़ने के बाद आपः

  • सातवाहन वंश के विषय में जान सकेंगे जिसने दक्खन में सबसे पहले राज्य की स्थापना की
  • सातवाहनों के अन्तर्गत प्रशासन की प्रकृति समझ सकेंगे
  • इस समय में समाज में हुए परिवर्तनों की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे

आपने उत्तर मौर्य काल में उत्तरी भारत में व्यापार के प्रसार के बारे में पढ़ा। इसका संबंध नगरों की संख्या में वृद्धि और कला एवं स्थापत्य कला के विकास से था। इस इकाई में आप दक्खन भारत में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन करेंगे। प्रथम सदी ई.पू. के आस पास दक्खन में जिस ताकतवर वंश का उदय हुआ वह सातवाहन वंश था। यहां पर हम सातवाहनों के अन्तर्गत दक्खन की राजनैतिक व सामाजिक व्यवस्था पर ध्यान केंद्रित करेंगे।

स्रोत

सातवाहन शासकों को दूसरे नाम आन्ध्राओं से भी जाना जाता है। इन राजाओं के नामों की सची पराणों में भी पायी जाती है। इन सूचियों को ऐतिहासिक स्रोतों के रूप में दूसरे साक्ष्यों के साथ आलोचनात्मक तुलना किये और उपयोग करने में बहुत सी कठिनाइयां होती हैं। उदाहरण के तौर पर, विभिन्न पुराणों में राजाओं के नाम एवं उनके शासनकाल में काफी अन्तराल है। इससे भी अधिक बड़ी समस्या यह है कि इन राजाओं के विषय में सूचना केवल कल्पित एवं किवदंतियों में निहित है। इसलिये वास्तविकता एवं किवदंतियों के बीच अन्तर करने के लिये इन स्रोतों का ध्यानपूर्वक अवलोकन करना चाहिये। यदि अन्य स्रोतों जैसे कि सिक्कों व शिलालेखों के साथ पुराणों का अध्ययन किया जाये तो वे काफी उपयोगी हैं। सातवाहनों ने काफी बड़ी संख्या में चांदी व तांबे के मिश्रित सिक्कों को ढलवाया।

उनके चांदी के सिक्कों पर राजा का चित्र एवं नाम खुदा हुआ है। बौद्ध गुफाओं में पत्थर पर खुदे लेख एवं दान पात्र प्राप्त हुए हैं जिनको सातवाहन राजाओं एवं रानियों के साथ-साथ बड़ी संख्या में साधारण लोगों ने बनवाया। इन विभिन्न स्रोतों से प्राप्त सचना का तलनात्मक अध्ययन करने के बाद सामान्यतः विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि सातवाहनों ने प्रथम सदी ई.पू. के आस पास अपना शासन करना प्रारंभ किया। उनका सबसे प्रारम्भ का साक्ष्य महाराष्ट्र राज्य के नासिक के पास एक गफा में पत्थर पर उत्कीर्ण लेख के रूप में पाया गया है।

राज्य की उत्पत्ति के विषय में

अब हम एक प्रश्न उठाते हैं राज्य क्या है और राज्य की उत्पत्ति ने समाज में कैसे परिवर्तन किये? राज्य की उत्पत्ति के कारणों के विषय में कई मत दिये जाते हैं। राज्य की उत्पत्ति के कारण एक क्षेत्र से दसरे क्षेत्र में भिन्न हैं। कछ विशेष मामलों में व्यापार के विकास एवं नगरों के फैलाव के कारण राज्य की उत्पत्ति हई। अन्य दसरे मतों के अनसार आबादी के दबाव एवं विजय के कारण उस समय की प्रचलित राजनैतिक व्यवस्था में परिवर्तन हुआ। सामान्यतः विद्वान लोग इस तथ्य से सहमत हैं कि बढ़ती जनसंख्या पर नियंत्रण करने के लिये राज्य एक सक्षम औजार है। एक राज्य भली भाँति परिभाषित एक क्षेत्र पर नियंत्रण रखता है और कर तथा राजस्व को एकत्रित करने के लिये एक प्रशासनिक मशीनरी को बनाकर रखता है। यह एक स्थायी सेना को भी रखता है जो कानन एवं व्यवस्था को बनाये रखने में मदद करती है। लेकिन इन सबके साथ-साथ समाज में असमानता एवं वर्ग विभेदण भी बढ़ता है। यहां शासक और शासित के मध्य स्पष्ट भेद है। शासन कत्र्ता अपने लाभ एवं उपयोग के लिये समाज के संसाधनों पर नियंत्रण रखते हैं।

दूसरी ओर शासित वर्ग शाही परिवार के सदस्यों, राज्य के कलीनों, बहत से अधिकारियों एवं सेना के रख-रखाव के लिये आवश्यक धन एवं राजस्व उपलब्ध कराते थे। इस प्रकार कबीलाई समाज एवं राज्य समाज में मल भत अन्तर राजनीति के नियंत्रण की प्रकृति में निहित है। राज्य व्यवस्था के अन्तर्गत विशेषज्ञात्मक प्रशासनिक व्यवस्था शासक एवं शासित को अलग करती है। कबीलाई समाज में सामान्यतः एक कबीले के द्वारा राजनैतिक शक्ति का उपयोग किया जाता है जिसके पास अपने निर्णयों को लाग करने के कोई अधिकार नहीं होते। कबीले की स्थिति सदस्यों की वफादारी पर निर्भर करती है इसलिये अधिकतर निर्णयों को एक साथ ही करना होता है।

पूर्ववर्ती कथायें

 दूसरी सहस्त्राब्दी ई.पू. में पश्चिम दक्खन में ताम्रपाषाण बस्तियों का प्रसार हुआ। बाद में प्रथम सहस्त्राब्दी ई.पू. के द्वितीय भाग में लोहे का प्रयोग करने वाली जातियों ने पूर्वी दक्खन पर अपना अधिकार कर लिया। ये मुख्य रूप से ग्रामीण बस्तियां थीं और जिनमें बहुत बड़ी तादाद में कबीलाई लोग वास करते थे। प्रारंभिक संस्कृत साहित्य विशेषकर महाकाव्यों एवं पुराणों में आन्धा, सबर, पुलिन्द आदि जैसी कबीलाई जातियों का वर्णन है जो दक्खन में रहते थे। इनमें से कई जातियों के दक्खन नामों को अशोक शिलालेखों में भी उद्धत किया गया है। परन्त इनमें से अधिक सन्दर्भ सामान्य प्रकृति के हैं और इनके आधार पर उस निश्चित क्षेत्र को परिभाषित करना कठिन है जहां दक्खन में वे रहते थे। दक्खन में परिवर्तन की प्रक्रिया का प्रारंभ शायद मौयों के प्रसार के साथ हुआ। मौर्य मुख्यतः दक्खन प्रायद्वीप के खनिज संसाधनों को शोषित करने में रुचि रखते थे।

आधुनिक कर्नाटक और आंध्र प्रदेश की खानों से प्राप्त किये गये सोने, हीरे एवं रत्नों को भूमि एवं समुद्र के किनारे वाले मार्गों के द्वारा उत्तर भारत में मगध को भेजा जाता था। इन मार्गों पर कई बाजार केंद्र विकसित हुए जैसे कि आंध्र प्रदेश के वर्तमान गंटूर जिले में कृष्णा नदी के किनारे धरनिकोटा और महाराष्ट्र के सतारा जिले में करद्। इर्द-गिर्द के अनेक स्थानों पर मराठों के । नाम से जाने वाले अनेक सरदार महत्वपूर्ण हो गये। लेकिन ये स्थानीय मराठा सरदार। सातवाहनों के अन्तर्गत ही थे तथा सातवाहनों एवं मराठों के बीच वैवाहिक संबंध थे और इस प्रकार सातवाहनों के रूप में दक्खन में प्रथम राज्य की उत्पत्ति हुई।

भौगोलिक पृष्ठभूमि

दक्खन प्रायद्वीप प्रठारीय क्षेत्र और पूर्वा एवं पश्चिमी किनारों के पर्वतीय श्रृंखलाओं के द्वारा तटीय मैदानों में विभाजित है। पश्चिम के कोंकण तटीय क्षेत्र की अपेक्षा आंध का तटीय क्षेत्र काफी चौड़ा है। इस पठारी क्षेत्र का सामान्यतः ढलान पश्चिम क्षेत्र से पर्व की ओर है तथा । जिसके कारणवश महानदी, गोदावरी और कृष्णा जैसी नदियों का बहाव पूर्व दिशा की ओर है जिससे कि वे बंगाल की खाड़ी में मिल जाती हैं। नदियों के डेल्टा एवं घाटियों में बस्तियों के लिये काफी उत्पादक भूमि उपलब्ध होती है। दक्खन की एक भौगोलिक विशेषता शायद इस तथ्य में निहित है कि पठार के पर्वतीय क्षेत्रों को केवल दरों के द्वारा ही पार किया जा सकता

सातवाहन वंश के इतिहास की रूपरेखा

पुराणों के अनुसार सिमुक सातवाहन ने सातवाहन शक्ति की स्थापना की। उसके भाई कन्हा या कृष्णा के विषय में हमें जानकारी नासिक के लेख से प्राप्त होती है। वंश के अनेक शासकों का विवरण रानी नायनिक के नानघाट शिलालेख से भी प्राप्त होता है जो राजा सतकर्णी की विधवा थी तथा जिसने वैदिक बलि यज्ञों का आयोजन किया था। नानघाट एक काफी बड़ा दरी था जो जनार के साथ समुद्र तट से जड़ा था और इस दर्रे के ऊपर एक गफा है जिसमें सातवाहन शासकों के चिन्ह खुदे हुए थे। दुर्भाग्य वश ये मर्तियां अब पूर्णतः नष्ट हो चुकी हैं और जो अवशेष बचे हैं उनके मस्तक के ऊपर के चिन्ह उनका नाम मात्र देते हैं।

सतकर्णी के बाद गौतमीपत्र सतकर्णी के शासन काल तक जिन शासकों ने शासन किया उनके विषय में हमें काफी कम जानकारी है। नासिक में एक गुफा के प्रवेश द्वार पर गौतमीपुत्र सतकर्णी की माता का एक लेख खुदा हुआ है जिससे उसके राज्य के फैलाव एवं उसके शासन काल की घटनाओं का विवरण प्राप्त होता है। गौतमीपुत्र सतकर्णी की मुख्य उपलब्धि यह थी कि उसने पश्चिम दक्खन एवं गजरात के क्षत्रणों को पराजित किया था। उसकी माता के इस लेख में इस तथ्य की प्रशंसा की गई है कि उसने पुनः सातवाहन गौरव को स्थापित किया था और इस तथ्य की पुष्टि मुद्रा साक्ष्यों से भी होती है।

अपनी विजय के बाद गौतमीपत्र सतकर्णी ने अपने विरोधी क्षत्रय नहापन की भांति अपनी वंश परम्परा एवं चिन्हों के साथ चांदी के सिक्कों को जारी किया। पेरिप्लस ऑफ दी ऐरिथरियन सी के अनसार सातवाहनों एवं क्षत्रणों के मध्य चलने वाले संघर्ष के कारण बम्बई के पास स्थित बन्दरगाह में ठहरे हुए ग्रीक जहाजों को सुरक्षा के अंतर्गत भडौच स्थित बन्दरगाह पर भेजा गया। शायद अति लाभदायक विदेशी व्यापार को लेकर इन दोनों के बीच संघर्ष था। ऐसा प्रतीत होता है कि गौतमीपत्र सतकर्णी शासन काल में ही शायद अच्छी प्रकार से सातवाहनों का शासन आंध्र प्रदेश तक फैल गया था।

गौतमीपत्र सतकर्णी के बाद उसका पत्र पलमावि शासक हुआ और इस समय तक सातवाहनों ने अपनी शक्ति का फैलाव पूर्वी दक्खन तक कर लिया था। हमें प्रथम बार सातवाहनों के लेख पश्चिम दक्खन से बाहर अमरावती में प्राप्त होते हैं। यज्ञनासरि सतकर्णी अंतिम महत्वपूर्ण सातवाहन शासक था और उसके बाद उनके साम्राज्य का विभाजन उसके उत्तराधिकारियों के बीच हो गया जिनकी एक शाखा ने आंध्र क्षेत्र में शासन किया बाद के सातवाहन शासकों ने द्विभाषा में लिखे हुए सिक्कों को जारी किया जिसमें राजा का नाम । प्राकृत भाषा में लिखा हुआ है और ऐतिहासिक लेख किसी एक दक्षिणी भाषा में। इस भाषा को लेकर विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ का मानना है कि यह तमिल में हैं तो कुछ के अनुसार यह तेलगू में हैं।

क्षत्रपों के साथ-साथ प्रारम्भिक सातवाहन शासक को उड़ीसा या कालिंग की खारवेल शक्ति के साथ संघर्ष करना पड़ा। खारवेल ने प्रथम शताब्दी ई.प. में कालिंग में अपनी शक्ति की स्थापना की थी। उसने सातवाहन शासक सतकर्णी की परवाह किये बगैर पश्चिम की ओर अपनी सेना को भेजा। ऐसा कहा जाता है कि सातवाहन शासक को क्षत्रपों और खारवेल नरेश के हाथों पराजय भोगनी पड़ी। इसको केवल गौतमीपुत्र सतकर्णी ने पुनःस्थापित किया।

सातवाहन इतिहास की यह भी एक समस्या है कि हमें सातवाहन शासकों ने एवं उन छोटे सरदारों के बीच के सम्बन्धों की जानकारी बहत कम है जो दक्खन प्रायद्वीप के अनेक क्षेत्रों में उनके शासन काल के दौरान फले फूले। उदाहरण के लिये एक लेख में सातवाहनों का मराठों एवं महाभोजों के बीच वैवाहिक सम्बन्धों का सन्दर्भ मिलता है – वास्तव में नानघाट के । अभिलेख में एक मराठी सरदार एक राजकमार पर अग्रता प्राप्त कर लेता है और नायनिका रानी स्वयं एक मराठी सरदार की पुत्री थी। मराठियों ने भी स्वयं स्वतंत्र रूप से दान किये – उनके अधिकतर अभिलेख कारले के आस-पास प्राप्त हुए हैं जबकि महाभोजियों के अधिकतर साक्ष्य पश्चिमी तट के क्षेत्र में मिलते हैं।

बस्तियों का प्रारूप

उनके प्रारंभिक अभिलेखों के प्राप्ति स्थान के आधार पर यह कहा जा सकता है कि . सातवाहनों ने अपने शासन का प्रारंभ पश्चिमी दक्खन से किया। गौतमीपुत्र सतकर्णी की माता का दूसरी सदी ई. का नासिक अभिलेख सातवाहनों के साम्राज्य प्रसाद की सूचना देता है। इस शिलालेख में यह भी सन्दर्भ है कि पश्चिमी एवं पूर्वी दोनों तट गौतमीपुत्र सतकर्णी के साम्राज्य के भाग थे जिसका तात्पर्य यह हुआ कि इस समय में सातवाहन शासन सम्पूर्ण दक्खन प्रायद्वीप पर था और यह अहार या जिलों में विभाजित था।

इस शिलालेख में हमें पांच अहार या जिलों के नाम इस प्रकार मिलते हैं – नासिक के आस-पास केन्द्रित गोवर्धन अहार पश्चिमी तट पर सोपारका-अहार, पुणे एवं सतारा जिलों के पर्वतीय क्षेत्रों को  मिलाकर ममला-अहार, सातवाहनिहारा कर्नाटक के जिले बल्लारी में और कपरशरा शायद गुजरात में था।

पश्चिमी तट

पश्चिमी तट पर भडौच, कल्याण, सोपरा और चोल एवं कोंकण तट पर दक्षिण में अनेक बन्दरगाहों की श्रृंखला थी। इन बंदरगाहों पर विक्रय वस्तओं को देश के आंतरिक केन्द्रों से पश्चिमी तट के दरों के बीच में लाया जाता था। प्रथम सदी ई. को एक महत्वपूर्ण ग्रंथ पेरिप्लस ऑफ दि इरीथीन सी जिसकी रचना ग्रीक के एक गमनाम नाविक ने की थी, इस समय की यात्रा एवं व्यापार की प्रकृति को समझने में बड़ी मदद करता है। अरब खाड़ी में भडौच की ओर जाने वाले ऐसे रास्तों का चित्रण यह ग्रंथ करता है जो काफी संकरी जगहों से होकर गुजरते थे। इसी कारणवश जिले के शाही मछवारे इन जहाजों को स्वयं चलाकर बंदरगाह के अन्दर ले जाते थे।

हमने पहले ही इस तथ्य का वर्णन किया है कि क्षत्रियों एवं सातवाहनों के बीच सामद्रिक व्यापार पर नियंत्रण करने और भडौच तथा कल्याण के बंदरगाहों के मध्य की प्रतियोगिता को लेकर युद्ध हुआ था।

 समुद्र तट से दूर की बस्तियां

पश्चिमी तटों से दूर मुख्य भूभाग की ओर कारले की 30 कि.मी. की परिधि के अन्तर्गत नासिक व जनार के आस-पास और आगे दक्षिण में कृष्णा के ऊपरी डेल्टा में कोल्हापुर के इर्द-गिर्द ये बस्तियां केन्द्रित थीं। यह माना जाता है कि ये सभी क्षेत्र कृषि के लिये काफी संपन्न एवं उपजा थे जिससे कि ये पश्चिमी तट पर स्थित बंदरगाहों के लिये संसाधन का आधार उपलब्ध कराते थे। इन बंदरगाहों के माध्यम से भ-मध्य सागर क्षेत्र एवं भारत के बीच व्यापार किया जाता था और इनका सम्पर्क भू-मार्ग के द्वारा दक्खन प्रायद्वीप के पूर्वी तट एवं आंध्र प्रदेश के व्यापारिक केंद्रों के साथ भी था। यह भडौच से पैथन व तेर एवं पूर्व को आगे की ओर आंध्र के केंद्रों तक जाता था। पैथन का प्राचीन क्षेत्र गोदावरी के इर्द-गिर्द 4 कि.मी. क्षेत्र में फैला हुआ था और जब कभी भी इस स्थल की खुदाई की गई तो वहां से बहत सी प्राचीन वस्तएं जैसे कि सिक्के, मिट्टी की बनी वस्तएं, परिकोटा एवं बर्तन प्राप्त हुए हैं। इन सबके बावजूद भी इस स्थल की कभी भी व्यवस्थित ढंग से खुदाई नहीं की गई है जिस के कारण हमें सातवाहनों के निर्माण संबंधी अवशेषों के विषय में बहुत कम ज्ञान है।

तेर दक्खन के कपास उत्पादक क्षेत्र में स्थित है। इस स्थल का उत्खनन करने पर यहां से लकड़ी के परिकोटे और रंगने वाले बर्तन प्राप्त हुए हैं जिससे ऐसा मालूम पड़ता है कि यहां पर कपड़ों की रंगाई का भी कार्य होता था। तेर को इसलिये भी भली भांति जाना जाता है कि वहां पर पायी जाने वाली हाथी दांत की बनी सन्दर तस्वीर पोमेयी से पायी जाने वाली प्रतिरूप के बहुत समान है। इस स्थल का सबसे महत्वपूर्ण अवशेष वह है जो ईंटों से निर्मित कुटी है और बाद में ब्राह्मणों के मंदिर के रूप में परिवर्तित हो गई।

दक्खन का दूसरा मार्ग वह था जो उज्जैन से नर्मदा पर स्थित महेश्वर से जड़ा था तथा अजन्ता एवं पितलखोरा की गफाओं पर से गुजरता हआ भोकरदान और पैथन को जोड़ता था। भोकरदान मोती बनाने का काफी बड़ा केंद्र था तथा उसको खोल एवं हाथी दांत के काम के लिये भी जाना जाता था। भोकरदान के निवासियों या भोगवनियों ने मध्य भारत में सांची एवं भरहत की गफाओं में अंकित लेखों के अनसार बौद्धों को दान दिया। दक्षिण में आगे की ओर कृष्णा नदी की ऊपरी घाटी में करद नाम का एक और अन्य नगर था जिसका वर्णन बौद्ध अभिलेखों में हुआ है। इसी क्षेत्र में कोल्हापुर भी स्थित था।

इस नगर के पश्चिमी भाग से तांबे की बनी वस्तुओं का ढेर प्राप्त हुआ है। इनमें से कुछ विशिष्ट आकृति वाली छोटी मूर्तियों का आयात किया गया जबकि गाड़ियां एवं तांबे की नावें स्थानीय स्तर पर निर्मित की गई थीं। पास के जिले बेलगाँव में वैदगाँव-माधवपुर के प्राचीन स्थल हैं जो बेलगाँव का एक उपनगर था तथा जिसकी खुदाई किये जाने पर बहुत बड़ी संख्या में सिक्के एवं दूसरी प्राचीन वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। यहाँ से जब दक्षिण में आगे की ओर बढ़ते हैं तो बनावसी का स्थल है। जहाँ से सातवाहनों का एक शिलालेख मिला है। यह सम्भवतः एक किलेबन्द बस्ती है क्योंकि यहां पर एक किले की दीवार एवं खाई के चिन्ह मिले हैं।

प्रायद्वीप के पार दक्खन से गजरते मार्ग पश्चिमी दक्खन में कृष्णा नदी की नीचे की घाटी में अमरावती जैसे इन स्थलों से जुड़े थे और आन्ध्र प्रदेश के करीमनगर तकं जाते थे। करीमनगर क्षेत्र में भरपूर रूप से फैले हुए बहुत से प्रारंभिक ऐतिहासिक स्थल हैं जिनमें से हैदराबाद से उत्तर पश्चिम की ओर लगभग 70 कि.मी. दूर कोंडापुर के नाम से एक महत्वपूर्ण स्थल है। इस स्थल का उत्खनन करने पर पर्याप्त मात्रा में सिक्के, परिकोटे एवं बहत से आकार की ईंटें मिली हैं जो गारा चना में लगी हैं। पेद्दा-बंकूर आजकल एक छोटा सा गाँव है परन्तु सातवाहन शासन काल में एक महत्वपूर्ण बस्ती थी जो 30 हैक्टेयर क्षेत्र में फैली थी। पेदा-बंकर से लगभग 10 कि.मी. दर शलि कट्टा नाम का स्थल किलेबन्द के रूप में था। यह एक कच्ची दीवार से घिरा था और इस स्थल का बहुत सा निर्माण ईंटों का है जिसकी अभी तक खुदाई नहीं की गई है। दूसरी बड़ी बस्ती कोटालिंगल थी जो सातवाहन शासन काल से पूर्व की है क्योंकि अभी हाल में प्राप्त वहां से सिक्के इसका प्रमाण हैं। सातवाहन कालीन बस्तियों की कच्ची दीवार से किलेबन्द की गई और विस्तृत रूप से वे ईंटों का निर्माण थीं।

उत्खनन स्थलों से बड़ी मात्रा में लोहे का कचरा एवं कच्ची धात प्राप्त हए हैं। करीमनगर क्षेत्र से रास्ता प्रारम्भ होकर नीचे कृष्णा घाटी में शाखाओं में विभाजित हो जाता था जहां पर प्रारंभिक ऐतिहासिक बस्तियाँ केंद्रित हैं। इनमें से अमरावती और धारनिकोटा विशेष रूप से मख्य हैं जो कृष्णा नदी के दोनों किनारों पर बसे हैं। धारनिकोटा नदी से नाव के रास्ते से जड़ा हआ था। इस स्थल पर प्रारंभिक निर्माण कार्य लकड़ी के घाट का था और बाद में जिसका स्थान ईंटों के निर्माण ने ले लिया। परन्तु नाव चलाने वाले स्थान पर रेत भर जाने के कारण चौथी सदी ई. में इस स्थल का परित्याग कर दिया गया। प्रायद्वीप के पार जाने वाले मार्गों में एक मार्ग विदर्भ होकर मध्य भारत को जाता था। उस काल के विदर्भ में पौनार, पौनि, मंथल, भाटकली और आदम बस्तियाँ थीं।

सातवाहन वंश के इतिहास की एक अन्य विशेषता यह भी है कि इस काल में दक्खन में किलेबन्द बस्तियों का विकास हुआ और उत्खनन से हमें जो प्रमाण उपलब्ध हुए हैं उनसे स्पष्ट है कि निर्माण की गुणवत्ता में काफी सुधार हुआ। किलेबन्दी एवं अन्य निर्माण कार्यों के लिये ईंट का काफी प्रयोग होने लगा। छतों के ऊपरी भागों को ठोस प्रकार से मिश्रित की गई मिटटी से बनाया जाने लगा। छत के निचले भाग को लकड़ी के खम्भों के सहारे एवं ऊपर से पत्थर के टुकड़ों की मदद से बनाया जाता था ।

प्राचीन काल में जिन मार्गों का उपयोग किया गया वर्तमान रेलवे लाइन भी उन्हीं मार्गों पर बिछायी गई हैं। भोर घाट केवल एक मात्र ऐसा दर्रा है जो पश्चिमी तटों को पार करते हए पुणे एवं मुम्बई को जोड़ता है तथा जिस पर प्रारंभिक बौद्ध गुफायें जैसे कि शैलारबदी, बंदसा, भाज, कारले, अम्बिाले एंव कोंडने पड़ती हैं।

प्रशासन

सातवाहन शासकों का प्रशासन मौर्य प्रशासन की अपेक्षा सरल था। शिलालेखों से ऐसे कई मन्त्रियों का विवरण मिलता है जिन पर विभिन्न कार्यों को पूरा करने का उत्तरदायित्व था। अन्य कार्यों के साथ-साथ वे कोषाधिकारी एवं भूमि संबंधी दस्तावेजों को रखने का भी कार्य करते थे। मंत्रियों की संख्या की वास्तविक जानकारी नहीं मिलती। इन मंत्रियों की नियुक्ति प्रत्यक्ष रूप से राजा के द्वारा की जाती थी और मंत्री का पद पैतृक नहीं होता था अर्थात् पिता के स्थान पर पुत्र मंत्री नहीं बनता था।

उनको राज्य द्वारा एकत्रित किये गये राजस्व से धन दिया जाता था। हमारे पास इसकी कोई निश्चित संख्या नहीं है कि कितना राजस्व एकत्रित किया जाता था लेकिन हम यह जानते हैं कि कर को व्यापार एवं कृषि दोनों से एकत्रित किया जाता था। सातवाहन शासकों ने प्रथम शताब्दी ई. में जिस प्रथा का प्रारंभ किया वह यह थी कि किसी एक गाँव से प्राप्त किये गये राजस्व को ब्राह्मण या बौद्ध संघ को दान के रूप में दे दिया जाता था। इस प्रथा का गुप्त शासकों के द्वारा व्यापक रूप से प्रयोग किया गया।

राजा के लिये भू-राजस्व के महत्व को इस नीति की स्पष्टता से अनुमानित किया जा सकता है दक्षिण में आरंभिक राज्य निर्माण कि भमि के दान को प्रमाणित किया जाता था। इन दोनों को प्रथम बार किसी सभा या निगम सभा के बीच घोषित किया जाता था। तब इसको किसी तांबे की प्लेट या कपड़े पर किसी अधिकारी या मंत्री के द्वारा लिखा जाता था। फिर इसको दान प्राप्त कर्ता या जिसको भूमि का अनदान किया जाता था, दिया जाता। दस्तावेजों को सरक्षित रखने वाला एक अधिकारी था जो इन दोनों के विस्तृत लेखे-जोखे को संभाल कर रखता था।

इस काल के शासक अधिक से अधिक भूमि कृषि योग्य बनाने के लिये उत्सुक रहते थे जिससे कि वे अतिरिक्त राजस्व प्राप्त कर सकें। ऐसा प्रतीत होता है कि जो जंगल को साफ करता था ‘-एवं उस खेत पर खेती करता था वही उस भूमि पर स्वामित्व का दावा प्रस्तुत कर सकता था। व्यापार से राजस्व प्राप्त करना राजस्व की आमदनी का एक दूसरा बड़ा स्रोत था। व्यापार के प्रसार के विषय में हम विस्तृत रूप से दूसरी इकाई में विवरण करेंगे। अधिकतर व्यापार पर नियंत्रण श्रेणियों का था जो बैंक का भी कार्य करती थी। व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिये राज्य विशेष कदम उठाता था। दूरस्थ व्यापार मार्गों को सुरक्षित बनाया गया था और उनके किनारे आराम गृहों का निर्माण भी किया गया।

समाज

दक्खन में सातवाहन शासकों के अन्तर्गत सामाजिक व्यवस्था की बहुत सी विशेषतायें उन से भिन्न थीं जिनका विवरण संस्कृत ग्रंथों जैसे कि मनुस्मृति में हुआ है। उदाहरणार्थ, सातवाहन शासकों के बहुत से शिलालेखों में पिता के नाम के स्थान पर माता के नाम का उल्लेख हुआ है, जैसे कि गौतमीपुत्र सतकर्णी या सतकर्णी गौतमी का पुत्र। यह धर्मशास्त्रों की उस परम्परा के साथ मेल नहीं खाता जिसके अनुसार मान्यता प्राप्त विवाह के बाद पत्नी के पिता का गोत्र लुप्त हो जाता है और वह पति के गोत्र को धारण करती है।

इन शिलालेखों में एक दूसरी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि सातवाहन स्वयं को ऐसे अनोखे ब्राह्मणों के रूप में प्रस्तुत करते हैं जिन्होंने क्षत्रियों के अभिमान को कुचल दिया। परन्तु ब्राहमणिक ग्रंथों के अनुसार केवल क्षत्रियों को ही शासन करने का अधिकार था। ये शिलालेख इसलिये भी उपयोगी हैं कि आबादी के विभिन्न वर्गों को दिये गये भू-दान के प्रमाण इनमें उल्लेखित हैं जिससे कि समाज के कुछ विशेष वर्गों की सम्पन्नता का अनुमान लगाया जा सकता है। दान करने वालों में व्यापारियों एवं सौदागरों का मुख्य रूप से संदर्भ आया है परन्तु लुहारों, मालियों एवं मछुवारों के नामों का उल्लेख भी महत्वपूर्ण है।

इनमें कोई संदेह नहीं कि इन कारीगरों एवं दस्तकारों को निश्चित रूप से दूरस्थ व्यापार से लाभ हुआ था। पर विशेष उल्लेखनीय यह है कि इन लोगों ने अपने नामों के साथ अपने व्यवसायों का उल्लेख किया है न कि अपनी जाति का। हमने पहले की इकाई में उद्धत किया था कि बौद्ध ग्रंथों में समाज के विभाजन का विवरण ब्राहमणिक ग्रंथों के विवरण से भिन्न है। यहां पर भिन्नता कार्य एवं दस्तकारिता पर आधारित थी और अधिकतर लोगों को उनके व्यवसाय के आधार पर जाना जाता था न कि जाति के आधार पर।

दान कर्ताओं की एक और श्रेणी थी जिनको यवनों के नाम से या विदेशियों के रूप में जाना  जाता है। यवन शब्द का प्रयोग अपने मूल शब्द में भारतीय यूनानियों से किया जाता था। किन्त प्रथम सदी ई. के आस-पास इस शब्द का प्रयोग बिना किसी भेदभाव के विदेशियों के लिये किया जाने लगा। बहुत से यवनों ने प्राकृत नामों को धारण किया और बौद्ध भिक्षुओं को दान दिये। महिलायें स्वतंत्र रूप से अपने आप या अपने पतियों या बेटों के साथ उपहार देती थीं। सातवाहन रानियों में से नायनिका नाम की एक रानी ने बौद्धिक बलि अनुष्ठानों का · आयोजन किया और ब्राह्मणों तथा बौद्ध भिक्षुओं को उपहार दान दिये। इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि दक्खन में समाज का संचालन जैसा कि इस काल के प्रमाणों से भी जाना जाता है, ब्राह्मणिक ग्रंथों में दिये गये नियमों के अनुसार नहीं होता था।

इस प्रकार प्राचीन सामाजिक संरचना का पुनर्निधारण करते समय ग्रंथों के संदर्भो का हमें ध्यानपूर्वक विश्लेषण करना चाहिये तथा उनके तथ्यों की तलना अन्य दसरे स्रोतों जैसे कि शिलालेखों एवं पुरातात्विक तथ्यों के साथ करनी चाहिए। जिन बौद्ध भिक्षुओं का विवरण इस काल के स्रोतों में हुआ है इससे स्पष्ट है कि उनके व्यवहार एवं जीवन में बद्ध के समय से काफी परिवर्तन हो चुका था। प्रारंभ में बौद्ध भिक्षओं को कछ व्यक्तिगत सामान रखने का अधिकार था। ये सामान कछ । ढीले-ढाले वस्त्रों एवं भिक्षा के पात्रों तक सीमित थे।

सारांश

दक्खन के इतिहास में सातवाहन काल इसलिये महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रायद्वीप भारत में प्रथम बार पहली सदी ई.प. में प्रारंभिक राज्य अस्तित्व में आया। राज्य का प्रशासन मौर्य प्रशासन की अपेक्षाकृत सरल था। सामुद्रिक एवं देश के अन्दर व्यापार का प्रसार इस काल के इतिहास का निर्णायक कारक था। इसके कारण शासकों के राजस्व में अतिरिक्त आमदनी का समावेश हुआ और बहुत से व्यावसायिक समहों में इसके कारण सम्पन्नता भी बढ़ी। इस सब का परिणाम यह भी हुआ कि सम्पूर्ण दक्खन प्रायद्वीप में इस काल में बहुत से नगरों एवं शहरों का विकास हुआ।

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.