प्राचीन काल में विदेशों में भारतीय संस्कृति
प्रश्न: विविध साधनों के साथ-साथ, व्यापार ने भी प्राचीन काल में विदेशों में भारतीय संस्कृति के प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण
- भारतीय संस्कृति के महत्त्व और संपूर्ण विश्व में इसके प्रसार का उल्लेख कीजिए।
- चर्चा कीजिए कि किस प्रकार व्यापार विदेशों में भारतीय संस्कृति के विस्तार में सहायक सिद्ध हुआ।
- सांस्कृतिक प्रसार के अन्य तरीकों को रेखांकित करने के साथ-साथ इस बात पर बल देते हुए निष्कर्ष प्रस्तुत कीजिए कि व्यापार सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एकमात्र साधन नहीं था, हालाँकि यह एक महत्वपूर्ण माध्यम अवश्य था।
उत्तर
भारतीय दर्शन का “वसुधैव कुटुम्बकम” अर्थात् ‘संपूर्ण विश्व एक परिवार है’ का विचार प्राचीन काल से ही भौगोलिक विस्तार के माध्यम से भारतीय संस्कृति के प्रसार और अन्य संस्कृतियों के साथ इसके अंतर्मिश्रण को प्रदर्शित करता है। व्यापार, विश्वविद्यालयों और मिशनरियों, बौद्ध धर्म के प्रचार, भारतीय महाकाव्यों के प्रभाव, भारतीय दर्शन, भारतीय प्रशासन और विधि जैसे विभिन्न साधनों के माध्यम से भारतीय संस्कृति का प्रसार अन्य देशों में हुआ। भारतीय संस्कृति के इस प्रसार में व्यापारिक संबंधों का प्रभाव सर्वोपरि रहा है।
व्यापार के माध्यम से भारतीय संस्कृति के अन्य संस्कृतियों के साथ एकीकरण के उदाहरण निम्नलिखित हैं:
- राजनीतिक संरक्षण तथा व्यापार और संस्कृति का प्रसार: सम्राट अशोक के शासनकाल के दौरान कलिंग साम्राज्य के श्रीलंका के साथ व्यापारिक संबंध थे। इससे श्रीलंका में बौद्ध धर्म के प्रसार में सहायता मिली, जिसे अशोक द्वारा भेजे गए धर्मप्रचारकों ने और अधिक सुदृढ़ किया।
- भारत की सामुद्रिक रूप से केन्द्रीय स्थिति: भारत की भौगोलिक स्थिति (जो तीनों ओर से समुद्र से घिरी हुई है) ने भारतीयों को विदेशी व्यापार एवं वाणिज्य के माध्यम से सांस्कृतिक आदान-प्रदान करने हेतु सहयोग और प्रोत्साहन प्रदान किया। भारत ने पूर्व एवं पश्चिम के मध्य एक संपर्क केंद्र के रूप में कार्य किया, जिसके परिणामस्वरूप लोगों, संस्कृति, धार्मिक मूल्यों तथा विचारों का आदान-प्रदान हुआ।
- रेशम मार्ग (सिल्क रूट): भारत ने इस मार्ग के माध्यम से चीन, मध्य एशिया, पश्चिम एशिया और रोमन साम्राज्य के साथ वाणिज्यिक संबंधों को बनाए रखा। इस मार्ग ने तत्कालीन विश्व की मौजूदा संस्कृतियों के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में प्रसार हेतु एक व्यापक माध्यम के रूप में कार्य किया था।
- समृद्धि के लिए सांस्कृतिक आदान-प्रदान पर निर्भरता: देश को समृद्धि प्रदान करने के अतिरिक्त, वाह्य और आंतरिक व्यापार ने संस्कृति, कला रूपों एवं साहित्य, धार्मिक विकास तथा विभिन्न मिशनरियों (जो व्यापारियों के साथ या स्वतंत्र रूप से व्यापारिक मार्गों द्वारा यात्रा करते थे) के विकास के लिए पर्याप्त समय और सुविधाजनक परिस्थितियां भी प्रदान की।
हालांकि व्यापार ही सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एकमात्र माध्यम नहीं था, जो निम्नलिखित द्वारा स्पष्ट होता है:
- प्रवासन के माध्यम से सांस्कृतिक आदान-प्रदान: भारतीयों के कुछ समूह विदेशों में घुमंतुओं के रूप में यात्रा करते थे। इन्हें यूरोप में रोमा या जिप्सी कहा जाता था।
- युद्ध में विजय के माध्यम से संस्कृति का प्रसार: भारतीय राजाओं द्वारा नए स्थानों को विजित कर नए साम्राज्यों (विशेषतः हिन्द-चीन क्षेत्र में) की स्थापना की गई। इसके फलस्वरूप इस क्षेत्र में भारतीय संस्कृति का विस्तार हुआ।
- शैक्षणिक प्रभाव एवं उत्कृष्टता के केंद्र: नालंदा और विक्रमशिला जैसे विश्वविद्यालय, सांस्कृतिक अंतःक्रिया के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केंद्र थे। इन विश्वविद्यालयों के छात्रों और शिक्षकों द्वारा विदेशों में अपने ज्ञान एवं धर्म के साथ-साथ भारतीय संस्कृति का भी प्रसार किया गया था।
व्यापार वर्तमान में भी सांस्कृतिक आदान-प्रदान का एक बहुत महत्त्वपूर्ण साधन बना हुआ है। अभी भी व्यापार के माध्यम से सांस्कृतिक आदान-प्रदान की यह परंपरा वैश्वीकरण और अर्थव्यवस्थाओं के उदारीकरण के रूप में संचालित है। उदारीकरण मूल रूप से वस्तुओं और लोगों के साथ-साथ विचारों का मुक्त प्रवाह ही है।
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