गुप्त साम्राज्य

इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप

  • चौथी सदी ई. के प्रारंभ में भारत के राजनैतिक हालात के विषय में जान सकेंगे
  • उन परिस्थितियों से स्वयं को अवगत करा पायेंगे जिनके कारण गुप्त शक्ति का उदय हुआ
  • गुप्त साम्राज्य के प्रसार एवं सुदृढ़ीकरण के बारे में समझ सकेंगे
  • गुप्त शासकों के उत्तराधिकार के क्रम और सैनिक योग्यताओं के विषय में जान पायेंगे
  • गुप्तों के पतन की प्रक्रिया की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे

इस इकाई में चौथी सदी की राजनैतिक स्थिति का संक्षेप में विवेचन करने के बाद हम उस ऐतिहासिक स्थिति का अध्ययन करेंगे जिसने गुप्त वंश के प्रादुर्भाव का मार्ग प्रशस्त किया। इस समय की राजनैतिक रूपरेखा का विवेचन करने का भी प्रयास किया जाएगा। हमने उन विवादों को भी दृष्टि में रखा है जो गुप्त राजाओं के उत्तराधिकार से संबंधित हैं और इसी के साथ-साथ उनकी उन उपलब्धियों का विवेचन भी किया गया है जिन्होंने उनके साम्राज्य के निर्माण एवं सुदृढ़ीकरण में सहायता की।

समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त-II, कुमारगुप्त और स्कन्दगुप्त जैसे राजाओं का साम्राज्य के.इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इस इकाई में उन समस्याओं के विषय में भी लिखा गया है जिनका सामना गुप्त राजाओं ने किया तथा उन कारणों का भी जो गुप्त शासन के पतन के लिये उत्तरदायी थे।

राजनैतिक पृष्ठभूमि

चौथी सदी ई. के प्रारंभ में भारत में कोई बड़ा संगठित राज्य अस्तित्व में नहीं था। आप खंड छह एवं सात में पढ़ चुके हैं कि उत्तर-मौर्य काल में उत्तर-भारत और दक्खन में दो राज्यों का उदय हुआ। ये उत्तर भारत में कुषाणों का राज्य और दक्खन में सातवाहनों का राज्य थे।. यद्यपि कुषाण एवं शक सरदारों का शासन चौथी सदी ई. के प्रारंभिक वर्षों तक जारी रहा, लेकिन उनकी शक्ति काफी कमजोर हो गयी थी और

सातवाहन वंश का शासन तीसरी सदी ई. के मध्य से पहले ही लुप्त हो गया था। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भारत में पूर्ण राजनीतिक रिक्तता पैदा हो गई। इस समय कोई बड़ी राजनीतिक शक्ति सत्ता में नहीं थी परन्तु छोटी-छोटी शक्तियों का शासन कायम था और नवीन परिवारों के शासकों का उद्भव हो रहा था। इस राजनीतिक स्थिति में गुप्त नाम के वंश ने चौथी शताब्दी ई. के प्रारंभिक समय से अपने साम्राज्य को बनाना प्रारंभ किया। इस वंश की उत्पत्ति के विषय में निश्चित मत नहीं हैं। इस साम्राज्य के इतिहास की रूपरेखा प्रस्तुत करने से पूर्व हम विभिन्न क्षेत्रों को अलग-अलग लेकर उस समय की राजनीतिक स्थिति की समीक्षा करेंगे।

उत्तर-पश्चिमी और उत्तरी भारत

तीसरी सदी ईसवी के मध्य से पूर्व ही ईरान में ससैनियनों का राज्य स्थापित हो गया था और ससैनियन शासकों ने कुषाण राजाओं पर अपना प्रभुत्व स्थापित करना प्रारंभ कर दिया। इसके परिणामस्वरूप उत्तरपश्चिम भारत के शक्तिशाली कुषाण राजा ससैनियन राजाओं के अधीन उनके सरदार मात्र बनकर रह गये और ससैनियन राजाओं का अधिपत्य हो सिन्ध एवं अन्य क्षेत्रों तक फैल गया।

काफी बड़ी संख्या में ऐसे सिक्के जो प्रारंभिक कुषाण राजाओं के सिक्के पर आधारित हैं, अफगानिस्तान एवं पंजाब से पाये गये हैं। इन सिक्कों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया है कि इस क्षेत्र में कुषाण शासकों का शासन बना रहा। अफगानिस्तान, काश्मीर और पश्चिमी पंजाब में किदार कुषाण एवं उसके उत्तराधिकारियों के सिक्के प्राप्त हुए हैं जिससे यह सम्भावना है कि इनमें से कुछ कुषाण शासक प्रारंभिक गुप्त शासकों के समकालीन थे।

पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के कुछ अन्य भागों से प्राप्त हुए पुराने सिक्के यह दर्शाते हैं कि इन क्षेत्रों में – कई गणतंत्रीय राज्यों का अस्तित्व था। ये वे राज्य थे जिन पर किसी एक राजा का राज्य नहीं था। सम्भवतः उन पर कई सरदारों का शासन था, यह केवल संयोगवश होता था कि कोई-कोई सरदार स्वयं को एक कबीले के शासक के रूप में आरोपित करता था। जिन गणतंत्रों को गुप्त शासक समुद्रगुप्त ने विजित किया । उनमें मद्रक, पंजाब में स्थित था, बहुत शक्तिशाली यौधेय वर्तमान हरियाणा में केन्द्रित थे और मालव राजस्थान में स्थित था। इसी भांति के अन्य गणतंत्र राज्य अस्तित्व में थे और उनमें से कुछ के नामों को गुप्त । प्रमाणों में उल्लिखित किया गया है।

नागाओं की बहुत सी शाखाओं का भी उल्लेख हुआ है जो कुषाणों के पतन के बाद मथुरा तथा अन्य केन्द्रों पर उत्तर भारत में काफी शक्तिशाली हो गये। उत्तर भारतीय जिन शासकों को समुद्रगुप्त ने पराजित किया उनमें से कुछ निश्चित रूप से नागा जाति के थे।

पश्चिम और मध्य भारत

आप खंड 6 में पढ़ चुके हैं कि उत्तर-मौर्य काल में क्षत्रय शासकों की एक शाखा ने स्वयं को पश्चिम भारत के शासकों के रूप में स्थापित किया। शास्तन शाखा ने जिसका प्रसिद्ध शासक शक क्षत्रय रुद्रदमन था 304 ईसवी तक शासन किया और तत्पश्चात नये शासकों की शाखा ने शासन करना शुरू किया। फिर भी क्षत्रय शासन का अन्त चौथी सदी ई. के अन्तिम वर्षों में उस समय हुआ जबकि गुप्त शासक चन्द्रगुप्त-II ने उनको विजित किया और उनके क्षेत्रों का अधिग्रहण कर लिया। प्राचीन विदर्भ के क्षेत्र में जिसका केन्द्र बिन्दु उत्तरपूर्वी महाराष्ट्र में स्थित नागपुर था, तीसरी शताब्दी ईसवी के मध्य में एक नयी राज शक्ति का उदय हुआ। यह शक्ति वाकाटक थी और शासकों की इस नवीन धारा का प्रारंभ विन्ध्याशक्ति के द्वारा किया गया था। वाकाटक राज्य शीघ्र ही शक्तिशाली हो गया और उसकी एक शाखा की स्थापना वस्त गुल्म (अकोला जनपद में आधुनिक बसिम) में भी की गई। बाद में वाकाटक वंश के गुप्तों के साथ वैवाहिक संबंध हो जाने के बाद घनिष्ठ संबंध कायम हो गये।

दक्खन और दक्षिण भारत

सातवाहन राज्य के पतन के साथ-साथ दक्खन के विभिन्न भागों में कई राजतंत्रीय परिवारों का उदय हुआ। आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र में इक्ष्वाकु, सलान्काय और दूसरे राजवंशों का राज्य कायम हो गया। कर्नाटक में सबसे महत्वपूर्ण शाही परिवार कदम्ब था। कदम्ब राज्य की स्थापना ब्राह्मण मौर्य सर्मन द्वारा की गयी थी और उसका तालगुण्डा शिलालेख, उन महत्वपूर्ण परिस्थितियों की जानकारी देता है जिनके अन्तर्गत कदम्ब राज्य की स्थापना एवं उसका प्रसार हुआ। पल्लवों का शासन तमिलनाडु में 9वीं शताब्दी ईसवी तक कायम रहा और वे तमिलनाडु में विशेष शक्तिशाली राजवंश बन गया तथा उनके प्रमाणों से प्राप्त साक्ष्यों से यह स्पष्ट है कि उनका शासन तीसरी सदी ई. के मध्य से शुरू हुआ। प्रारंभिक पल्लव शासकों के अभिलेख प्राकृत भाषा में लिखे गए थे और वे तांबे की प्लेटों के रूप में थे। उनको 250 ई. से 350 ई. के बीच के समय का माना गया है। इस वंश के शिवंदावर्मन ने चौथी सदी ई. के प्रारम्भ में शासन किया। वह एक शक्तिशाली शासक था तथा उसने अपने राज्य में आन्ध्र प्रदेश, कर्नाटक एवं तमिलनाडु के कुछ भागों को शामिल किया। तमिलनाडु के शिंगलिपट जनपद में स्थित कांची या कांचीपुरम को पल्लवों ने अपने राज्य की राजधानी बनाया।

जब गुप्त शासक समुद्रगुप्त ने दक्षिण में अपना सैनिक अभियान किया तो उसने पल्लेव नरेश विश्मिगोप को कांची में पराजित किया। उपरोक्त संक्षिप्त विवरण में बहुत से क्षेत्रों एवं राजतंत्रीय परिवारों का वर्णन नहीं किया गया है केवल उनके विषय में ही लिखा गया है जो तत्कालिक रूप से महत्वपूर्ण थे। यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि बंगाल, उड़ीसा, मध्य प्रदेश के जंगलों एवं अन्य क्षेत्रों में पहली बार राज्यों का उदय हो रहा था। यह एक नयी विशेषता थी जो बाद के राजनैतिक इतिहास के लिये बड़ी ही महत्वपूर्ण है।

गुप्तों का प्रादुर्भाव

गुप्त वंश की वंशावली और प्रारंभिक इतिहास के बारे में बहुत कम जानकारी है जिसके फलस्वरूप बहुत सारी शंकायें उठ खड़ी हुई हैं। उनके नामों के बाद में गुप्त शब्द का प्रयोग होने से यह भी तर्क दिया गया है कि सातवाहन शिलालेख में प्रयोग हुए “शिवगुप्त” के साथ उनके वंश की उत्पत्ति का संबंध है। परंतु इस प्रकार के सुझाव स्थिति को जटिल बना देते हैं। विभिन्न विद्वान, उनकी उत्पत्ति के स्थान के विषय में विभिन्न स्थानों का नाम बताते हैं, कुछ उसको बंगाल में, कुछ बिहार में, मगध में और अन्य कुछ उत्तर प्रदेश को उनकी उत्पत्ति का स्थल बताते हैं। निम्नलिखित तर्कों के आधार पर इस समय हम यह कह सकते हैं कि गुप्तों की उत्पत्ति का स्थल पूर्वी उत्तर प्रदेश थाः

  • इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख जिसमें गुप्त के वंश के प्रारंभिक शासक की उपलब्धियों को उल्लेखित किया गया है, इसी क्षेत्र में स्थित है। इस क्षेत्र में पाये जाने वाले गुप्त शासकों के सिक्कों के भण्डार से भी ऐसा प्रतीत होता है।
  • प्रारंभिक गुप्तों के क्षेत्रों के विषय में पुराणों में जो विवरण दिया गया है उससे भी इसका संकेत मिलता है।

यह भी संभव है कि तीसरी सदी ई. के अंतिम दशकों में कुषाण शासकों की एक शाखा के सहायकों के रूप में उत्तर-पश्चिम भारत में गुप्त शासक शासन करते हों। साहित्यिक एवं पुरातात्विक स्रोतों से स्पष्ट है कि वे चौथी सदी ई. के दूसरे दशक में स्वतंत्र शासक हो गये।

अभिलेख हमको बताते हैं कि श्रीगुप्त प्रथम राजा था और उसके बाद घटोत्कच राजा हुआ। चन्द्रगुप्त-I पहला स्वतंत्र राजा था जिसने महाराजाधिराज की उपाधि को धारण किया। मगध में अपनी स्वतंत्रता को घोषित करने के बाद लिच्छिवियों के साथ वैवाहिक संबंधों की मदद से उसने अपने राज्य का प्रसार किया। इस संबंध की जानकारी हमें एक विशेष प्रकार के सिक्कों से होती है। इन सिक्कों के अनुभाग पर चन्द्रगुप्त और उसकी रानी कुमारदेवी का चित्र बना हुआ है। और इनके दूसरे भाग पर लिच्छवायह (अर्थात् लिच्छवी) की कहानी से संबंधित बैठी देवी का चित्र बना है। ये सिक्के सोने के बने हुए हैं। गुप्तों ने सिक्कों के वजन के लिए कुषाण प्रणाली के सोने के सिक्कों का अनुसरण किया जिससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि गुप्त शासक कुषाण शासकों के क्षेत्रों से संबंधित थे।

चंद्रगुप्त के राज्य की सीमा निर्धारण के लिए कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। परंतु ऐसा माना जाता है कि उसके राज्य के अंतर्गत उत्तर प्रदेश, बिहार एवं बंगाल के भाग थे|

चंद्रगुप्त-I ने भी 319-320 ई. से नये वर्ष का प्रारम्भ किया। यह किसी भी प्रमाण से स्पष्ट नहीं है कि उसने वास्तव में नये वर्ष का प्रारम्भ किया जिसको गुप्त संवत के नाम से जाना जाता है परन्तु चन्द्रगुप्त-I ने महाराजाधिकार की उपाधि धारण की थी, इसीलिए ऐसा माना जाता है कि उसने एक नवीन वर्ष का प्रारम्भ किया। उसके पुत्र समुद्रगुप्त के शासन काल में गुप्त साम्राज्य का काफी प्रसार हुआ।

समुद्रगुप्त

इलाहाबाद में स्थित अशोक के स्तम्भ पर एक अभिलेख (बाद की तारीख में) खुदा हुआ है (जिसको प्रयाग प्रशस्ति नाम से भी जाना जाता है) जो समुद्रगुप्त के सिंहासना रोहण और विजयों के विषय में सूचनायें देता है। हरिषेण नाम के एक महत्वपूर्ण राज्यधिकारी ने 33 पंक्तियों को संकलित किया था और उन्हीं को इस स्तम्भ पर खुदवाया गया है। अभिलेख में उद्धत है कि महाराजाधिराज चन्द्रगुप्त-I ने अति भावनात्मक आवाज में अपने पुत्र समुद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। यह सभी दरबारियों के आनन्द की अनुभूति और बहुत से राज्य परिवार वालों की ईर्ष्या का कारण बना।

इससे यह भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि जो राज कुमार राजा बनने का दावा पेश कर रहे थे उनको इस घोषणा के द्वारा शांत कर दिया गया। कच्छ के नाम से जारी किये गये कुछ सोने के सिक्कों की प्राप्ति ने इस संबंध में विवाद को एक नया मोड़ दिया। यह विवाद इस लिये उत्पन्न हुआ क्योंकि I) कच्छ के सिक्के बिल्कुल समुद्रगुप्त के सिक्कों के ही समान हैं II) कच्छ का नाम गुप्त शासकों की अधिकृत सूची में शामिल नहीं है जैसे कि वह गुप्त शासकों के अन्य अभिलेखों में वर्णित है। इस सन्दर्भ में बहुत से तर्क प्रस्तुत किये गये हैं :

  • एक परिभाषा यह दी जाती है कि समुद्रगुप्त के भाइयों ने उसके विरुद्ध विद्रोह कर दिया और सबसे बड़े भाई कच्छ को सिंहासन पर बैठा दिया। किन्तु उत्तराधिकार की लड़ाई में वह मारा गया।
  • दूसरा विचार यह है कि समुद्रगुप्त ने अपने भाई की स्मृति में इन सिक्कों को जारी किया।
  • तीसरे विचार के अनुसार समुद्रगुप्त का प्रारंभिक नाम कच्छ था और दक्षिण की विजय करने के बाद उसने समुद्रगुप्त नाम को धारण किया।

इस विवाद का कोई हल नहीं है क्योंकि प्रत्येक विचार के समर्थन एवं विरोध में तर्क दिये जा सकते हैं। हम केवल यही कह सकते हैं कि कच्छ के सिक्के इतनी कम संख्या में पाये गये हैं कि अगर वह सिंहासन पर बैठा तो बहुत थोड़े समय के लिये। यह भी है कि चन्द्रगुप्त की उद्घोषणा के बावजूद भी समुद्रगुप्त ने सिंहासन के उत्तराधिकार के संबंध में समस्या का सामना किया हो किन्तु अंततः उसने इस पर विजय प्राप्त की।

प्रसार एवं सुदृढीकरण

गुप्त शक्ति के प्रसार एवं सुदृढ़ीकरण के लिये समुद्रगुप्त ने विजयों की आक्रामक नीति को अपनाया। इससे उस प्रक्रिया का श्रीगणेश हुआ जिसकी पराकाष्ठा गुप्त साम्राज्य के निर्माण के रूप में हुई। हमें इस वास्तविकता को भी रेखांकित करना चाहिये कि कुछ क्षेत्रों में विशेषकर दक्षिण में, उसने उन राजाओं को पुनः स्थापित किया जिनको उसने पराजित किया था तथा उन क्षेत्रों पर अपने शासन को कायम भी रखा। वास्तव में उन शासकों ने उसके अधिपात्य को स्वीकार किया और उसको उपहार भेंट किये।

इस प्रकार की नीति का अनुसरण उन क्षेत्रों के लिये किया गया जो काफी दूरी पर थे और इससे सम्पर्क की समस्या का हल कर लिया गया तथा यह नीति काफी लाभदायक सिद्ध हुई और इससे कारगर नियंत्रण भी कायम रखा जा सका। इस नीति से कुछ समय के लिये स्थायित्व भी स्थापित हो गया। अब हम संक्षेप में समुद्रगुप्त द्वारा विभिन्न क्षेत्रों में अपनायी गई आक्रामक नीति की विवेचना करेंगे। यह तथ्य हम पुनः बता दें कि समुद्रगुप्त के जिन सभी सैनिक अभियानों का विवरण हम प्रस्तुत कर रहे हैं कि वे सभी हरिषेण की प्रयाग प्रशस्ति पर आधारित है।

आर्यव्रत में सैनिक अभियान

कुछ इतिहासकारों का मानना है कि समुद्रगुप्त ने आर्यव्रत में केवल एक बार अपना सैनिक अभियान किया। परन्तु कुछ अन्य इतिहासकारों का कहना है कि प्रयागप्रशस्ति में समुद्रगुप्त की विजयों का विवरण समयानुसार दिया गया है। जिसका यह अर्थ निकलता है कि समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत में दो अभियान चलाये। ऐसा इसलिये है कि पहले आर्यव्रत के तीन राजाओं का नाम उद्धत है और फिर उसके दक्षिण अभियान को उद्धत किया गया है तथा फिर आर्यव्रत के नौ राजाओं के नामों को उद्धत किया गया है ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के उत्तराधिकार के संघर्ष में फंसा हुआ होने के कारण कुछ शासकों ने अपने आधिपत्य को स्थापित करने का प्रयास किया।

इस संदर्भ में यह भी हो सकता है कि समुद्रगुप्त ने अच्युत नागसेन और काय-कुलजा को पराजित किया हो। इन विजयों के विषय में कोई विस्तृत विवरण उपलब्ध नहीं है और न ही उन विशेष क्षेत्रों की विशेष जानकारी है जिन पर ये शासक शासन करते थे। फिर भी इतिहासकारों का कहना है कि अच्युत अहिच्छत्र पर, नागसेना ग्वालियर क्षेत्र पर और कोटा-कुलजा या कोटा परिवार पूर्वी पंजाब और दिल्ली क्षेत्रों के उपर शासन कर रहे थे। यद्यपि इन क्षेत्रों की स्पष्टतः पहिचान करने पर भिन्नातायें हैं परन्तु यह स्पष्ट है कि समुद्रगुप्त ने उनको पराजित कर न केवल गंगा घाटी पर अपना अधिकार कर लिया बल्कि उसके आस-पास के क्षेत्र भी उसके नियंत्रण के अंतर्गत आ गये।

दक्षिण में अभियान

प्रयाग प्रशस्ति में दक्षिणपथ या दक्षिण भारत के 12 शासकों के नाम दिये गये हैं जिनको समुद्रगुप्त ने पराजित किया था। ये निम्नलिखित थे

  • कोसल (रायपुर, दुर्ग, सम्बलपुर, और बिलासपुर जिले) के शासक महेन्द्र।
  • महाकन्दरा (उड़ीसा प्रदेश का जेयपुर जंगल) के शासक व्याधराज।
  • कोरता (संभवतः मध्य प्रदेश का सोनपुर क्षेत्र या महेन्द्र पहाड़ी का उत्तर-पूर्वी मैदानी भाग) का शासक मन्तराज।
  • पिष्टपुर (पिठा सुरम, पूर्वी गोदावरी जिला) का महेन्द्रगिरि।
  • कोटूरा (गंजाम जिला) का स्वामीदत्ता)
  • सरंदपल्ला (चिकाकोले या पश्चिमी गोदावरी जिला) का दमन।
  • कांची (चिंग्लेपुट् जिला) का विष्णुगोपा
  • अवामुक्ता (गोदावरी घाटी) का नीलराज।
  • वेंगी (कृष्णा-गोदावरी डेल्टा में सिलोर) का हस्तीवमंन
  • पालक्का (नोललोर जिला) का अग्रसेन।
  • देवराष्ट्रा (विशाकापट्टम जिले में ये ललामं चीती) का कुबेर।
  • कुस्थलपुर (संभवतः तमिलनाडु के उत्तरी अरकोट मे) का धानज्य।

पुनः इन राजाओं और इनके राज्यों की पहिचान को लेकर इतिहासकारों के बीच मत भेद है। प्रयागप्रशस्ति बताती है कि समुद्रगुप्त ने दक्षिणपथ के राजाओं के प्रति अपनी सहानुभूति को दिखाया क्योंकि पहले तो उसने उनको पकड़ (ग्रहण) लिया और फिर उनको छोड़ (मुक्त कर) दिया।

समुद्रगुप्त ने आर्यव्रत या उत्तरी भारत के राजाओं की अपेक्षा दक्षिण पथ के राजाओं के प्रति पूर्णतः भिन्न नीति का अनुसरण किया। उसने आर्यव्रत के राजाओं को न केवल पराजित किया बल्कि उनके राज्य गुप्त साम्राज्य के अभिन्न अंग बन गये| उत्तरी भारत में पराजित राजा इस प्रकार थेः रूद्रदेव, मतिला, नागदत्त, चन्द्रवर्मा, गणपति नाग, नागसेन, अच्युत, नन्दी, बलवर्मा और अन्य। उन सबकी पहचान करना असंभव है, लेकिन यह निश्चित है कि वे सब उत्तरी भारत के विभिन्न क्षेत्रों पर शासन कर रहे थे। उनमें से कुछ निश्चित रूप से नागराजा थे जो गुप्तों से पूर्व बहुत से क्षेत्रों में शक्तिशाली थे। कुछ शासक जैसे कि चन्द्रवर्मा जो ।

पश्चिमी बंगाल के क्षेत्र पर शासन करता था, नये वंशों का प्रतिनिधित्व करते थे। प्रशस्ति में आगे विवरण है कि वन क्षेत्रों के सभी राज्यों को समुद्रगुप्त ने सेवकों जैसी स्थिति में पहुंचा दिया। दूसरी श्रेणी में सीमावर्ती राज्यों जैसे कि सामतट (दक्षिण-पूर्वी बंगाल), कामरूप (असम), नेपाल आदि, गणतांत्रिक राज्यों जैसे कि मालवा, योधेय, मद्रक, अमिर आदि का वर्णन है।

इन राज्यों ने वस्तुओं के रूप में भेंट और नजराना दिया, उसकी आज्ञाओं का पालन किया और उन्होंने उसकी उपासना की। अन्य श्रेणी के राज्यों के शासकों ने उसकी सम्प्रभुता को दूसरे रूपों में स्वीकार किया। उन्होंने “स्वयं को समर्पित करके, अपनी पुत्रियों को विवाह के लिये प्रस्तुत किया और स्वयं अपने राज्यों एवं जिलों का प्रशासन करने के लिये उससे प्रार्थना की”। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वे अधीनस्थ राज्य थे और उनको अपनी स्वतंत्रता के लिये समुद्रगुप्त की स्वीकृति प्राप्त करनी पड़ती थी। इस श्रेणी में उत्तर पश्चिम भारत के विदेशी शासकों जैसे कि अन्तिम कुषाणों और शकों को तथा इसमें विभिन्न द्वीपों जैसे कि सिहला या श्रीलंका के शासकों को भी शामिल किया जा सकता है।

प्रयागप्रशस्ति के संकलनकर्ता हरिषेण के द्वारा दिये गये इस विवरण में कुछ को बहुत बढ़ा-चढ़ा कर लिखा गया है परन्तु कुछ इनमें उचित ही हैं। परन्तु यह निश्चित है कि गुप्त साम्राज्य की सैनिक आधारशिला । समुद्रगुप्त द्वारा रखी गयी और उसके उत्तराधिकारियों ने इसी आधारशिला पर गुप्त साम्राज्य का निर्माण किया।

चन्द्रगुप्त-II

मुप्त अभिलेखों में उद्धत है कि समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त-II था। लेकिन कुछ साहित्यिक स्रोतों और तांबे के सिक्कों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी रामगुप्त था। विशाखदत्त ने अपने नाटक देवीचन्द्रगुप्तम में लिखा है कि चन्द्रगुप्त-II ने अपने बड़े भाई रामगुप्त की हत्या की। उसने ऐसा इसलिये किया कि रामगुप्त की शकों के हाथों पराजय होने वाली थी और अपने राज्य को बचाने के लिये वह अपनी पत्नी को शक राजा को समर्पित करने के लिये सहमत हो गया।

चन्द्रगुप्त ने इसका विरोध किया और वह भेष बदलकर ध्रुवंदेवी के भेष में शक राजा के कैम्प में गया। उसने शक राजा के विरुद्ध सफलता प्राप्त की परन्तु इसी घटनाक्रम में अपनी भाई के प्रति शत्रुता के कारण उसने उसकी भी हत्या कर दी और ध्रुवदेवी के साथ विवाह कर लिया। कुछ अन्य ग्रन्थों जैसे कि हर्षचरित, काव्यमीमांसा आदि में भी इस घटनाक्रम का वर्णन है। रामगुप्त के नाम से खुदे कुछ तांबे के सिक्के पाये गये हैं और विदिशा से प्राप्त हुई जैन मूर्तियों के आधार पर खुदे अभिलेखों में महाराज रामगुप्त का नाम है। इसी प्रकार, वैशाली की एक मोहर पर ध्रुवदेवी को गोविन्दगुप्त (चन्द्रगुप्त का पुत्र) की माता के रूप में उद्धृत किया है। हम कह सकते हैं कि चन्द्रगुप्त सिंहासन पर उस समय बैठा जबकि पुनः गुप्त साम्राज्य के सम्मुख समस्यायें पैदा हो गई थी और दोबारा गुप्त सार्वभौमिकता को स्थापित करने के लिये उसे सैनिक अभियान का संचालन करना पड़ा।

उसने नागा राजकुमारी कुबेरनाग के साथ विवाह करके नागाओं के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किये और बाद में उसकी बेटी प्रभावती का विवाह उसने बाकाटक वंश के राजा रूद्रसेन-II के साथ किया। यद्यपि उसके शासनकाल की घटनाओं का उल्लेख प्रयागप्रशस्ति के रूप में नहीं हुआ है फिर भी हमें चन्द्रगुप्त के अभियानों, एवं सफलताओं की सूचनायें कुछ निश्चित अभिलेखों, साहित्यिक स्रोतों और सिक्कों से निम्नलिखित प्रकार से प्राप्त हैं:

उसने शक नरेश रूद्रसिंह-III को पराजित किया और उसके राज्य का अधिग्रहण कर लिया। इससे पश्चिमी भारत में शक क्षत्रय शासन का अंत हो गया और गुजरात, काठियावाड़ तथा दक्षिण मालवा गुप्त साम्राज्य के अंग बन गये। चन्द्रगुप्त के शकों के विरुद्ध अभियान की विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है। उसके नागाओं और वाकाटकों के साथ वैवाहिक संबंधों का अभियानों की तैयारी के लिये विशेष महत्व है। सांची के पास विधागिरि की गुफाओं के अभिलेख तथा सांची के एक अभिलेख में चन्द्रगुप्त-II, उसके अधीनस्थ राजाओं एवं सैनिक अधिकारियों का संदर्भ है जिससे यह निष्कर्ष निकाला जा गया है कि अपने अभियानों की तैयारी के लिये वह कुछ समय के लिये पूर्वी मालवा में ठहरा। एक अभिलेख में उसको उद्धृत करते हुए कहा गया है कि वह सम्पूर्ण भू-भाग को विजयी करने की आकांक्षा रखता था।” शक शासकों के प्रदेशों की उसके द्वारा विजय लगभग सम्पूर्ण थी क्योंकिः

  • इस काल के बाद शकों द्वारा जारी किये गये सिक्के प्राप्त नहीं होते यद्यपि बिना किसी अवरोध के उनके द्वारा जारी किये गये/पहली चार शताब्दियों के सिक्के मिलते हैं।
  • इस क्षेत्र के लिये गुप्त शासकों ने चन्द्रगुप्त के समय से ही शकों के सिक्कों की भांति के चांदी के सिक्के जारी किये। उन्होंने इन सिक्कों में केवल अपने विशेष चिन्हों को जोड़ा अन्यथा ये सिक्के शकों के सिक्कों के जैसे ही थे। यह निश्चित रूप से यह दर्शाता है कि शक-क्षेत्रों को चन्द्रगुप्त-II ने अपने नियंत्रण में कर लिया।
  • बाद में चलकर चन्द्रगुप्त-II की शकों के विरुद्ध यह सफलता शकारी विक्रमादित्य परम्परा मे बदल गई जिसका अर्थ है कि”विक्रमादित्य’ शकों का शत्रु था।
  • महरौली के लोह स्तम्भ पर अंकित अभिलेख में जो दिल्ली में कुतुब मीनार प्रांगण में स्थित है, “नरेश चन्द्र” की तुलना भी विद्वानों के द्वारा चन्द्रगुप्त द्वितीय के साथ की है। इस अभिलेख के अनुसार चन्द्रगुप्त ने सात नदियों के सिंधु क्षेत्र को पार कर वालहिकाओं (इसकी पहिचान बैक्ट्रिया के रूप में की गई है) को पराजित किया। कुछ विद्वानों ने चन्द्रगुप्त-II की तुलना कालिदास के नाटक रघुवंश के मुख्य पात्र रघु के साथ की है क्योंकि रघु की विजयों की तुलना चन्द्रगुप्त-II की विजयों से की जा सकती है।
  • महरौली अभिलेख में बंगा (बंगाल) के शत्रुओं पर चन्द्रगुप्त की विजय का उल्लेख है।

इन प्रमाणों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने गुप्त साम्राज्य की सीमाओं को पश्चिम, उत्तर पश्चिम और पूर्वी भारत की सीमाओं तक बढ़ा दिया।

इस समय की सबसे महत्वपूर्ण घटना है कि चीनी यात्री फाह्यामीन बौद्ध, धर्म के ग्रंथों की खोज में भारत आया था। उसने अपने संस्मरणों के अन्तर्गत उन विभिन्न स्थानों का विवरण किया है जहां भी वह गया और उसने इसमें उस समय की कुछ निश्चित सामाजिक एवं प्रशासनिक विशेषताओं का भी उल्लेख किया है। परन्तु उसने अपने संस्मरणों में उस, समय के राजा के नाम का उल्लेख नहीं किया है। परन्तु उसने मध्य देश के जो उस समय गुप्त शासक के सीधे नियंत्रण में था, राजा की बड़ी प्रशंसा की है और उसके अधीन जनता सम्पन्न एवं प्रसन्न थी।

चन्द्रगुप्त-II के विद्वानों को भी संरक्षण प्रदान किया। उसने 415-16 ई. तक शासन किया।

कुमारगुप्त-I

चन्द्रगुप्त द्वितीय का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कुमारगुप्त था। उसके विषय में हमें कुछ निश्चित अभिलेखों एवं सिक्कों से सूचनायें प्राप्त होती हैं। जो इस प्रकार हैं:

  • उसके प्रारंभिक काल का अभिलेख वह है जो बिलसाड़ (एटा जिला) से प्राप्त हुआ है और जिसकी तिथि 415 ई. (गुप्ता तिथि 96) है। 
  • करमदंद (फैजाबाद) से प्राप्त उसके मन्त्री के अभिलेख (436 ई.) में उल्लेख है कि उसकी प्रसिद्धि चारों समुद्रों तक फैल गई।
  • मन्दसौर से प्राप्त शिला अभिलेख (436 ई.) में उल्लेख है कि कुमारगुप्त का शासन सम्पूर्ण भू-भाग पर था।
  • दामोदरपुर ताम्र प्लेट अभिलेखों (443 ई. और 447 ई.) में उसका उल्लेख महाराजाधिराज के साथ हुआ है और उसने स्वयं को अपने साम्राज्य के सबसे बड़े प्रशासनिक क्षेत्र पुण्डरवर्धन मुक्ति (प्रांत) का राज्यपाल (उपारिका) नियुक्त किया।
  • कुमारगुप्त की अंतिम तिथि की जानकारी उसके चांदी के सिक्के 445 ई. (गुप्ता संवत् 136) से प्राप्त होती है।

उसके अभिलेख विशाल क्षेत्र में वितरित थे जिससे स्पष्ट है कि उसका शासन पूर्व में मगध एवं बंगाल तक और पश्चिम में गुजरात तक फैला हुआ था। उसने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। ऐसा कहा जाता है कि उसके शासन के अंतिम वर्षों में विदेशी आक्रमण हुआ जिसको उसके पुत्र स्कन्दगुप्त के प्रयत्नों के फलस्वरूप रोका जा सका। उसके वाकाटक शासकों के साथ मधुर संबंध थे जिनको पहले ही वैवाहिक संबंधों के द्वारा स्थापित किया गया था।

स्कन्दगुप्त

स्कन्दगुप्त, कुमारगुप्त का उत्तराधिकारी बना और तो संभवतः गुप्त वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक था। अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिये उसका पुष्यमित्रों के साथ संघर्ष करना पड़ा और इसी समय देश की उत्तर-पश्चिमी सीमाओं के पार हूणों के आक्रमणों का सामना करना पड़ा। स्कन्दगुप्त ने सफलतापूर्वक हूण आक्रमण को पीछे ढकेल दिया। ऐसा प्रतीत होता है कि इन युद्धों के कारण साम्राज्य की अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा और स्कन्दगुप्त के द्वारा जारी किये गये सोने के सिक्के इस बात का स्पष्ट प्रमाण है।

प्रारम्भिक शासकों के द्वारा जारी किये गये सोने के सिक्को की तुलना में स्कन्दगुप्त के द्वारा जारी किये गये सिक्को में सोने की मात्रा काफी कम थी। यद्यपि उसके द्वारा जारी किये गये सिक्कों में सोने की मात्रा काफी कम थी। यद्यपि उसके द्वारा जारी किये गये सिक्कों का वजन प्रारंभिक सोने के सिक्कों से अधिक था किन्तु उसके सिक्कों में सोने की मात्रा पहले सिक्कों से काफी कम थी। यह भी प्रतीत होता है कि गुप्त वंश का वह अंतिम शासक था जिसने पश्चिमी भारत में चांदी के सिक्कों को जारी किया था।

उसके जूनागढ़ अभिलेख में उल्लेख है कि उसने अपने शासन काल में जनहित के कार्यों को भी किया। सुदर्शन झील (जिसका निर्माण मौर्य काल में हुआ था) भारी वर्षा के कारण फट गयी थी परन्तु उसके शासन के प्रारंभिक वर्षों में उसके गवर्नर परनदत ने इसकी मरम्मत करायी। इससे स्पष्ट है कि राज्य ने जनहित के कार्यों को भी किया। स्कन्दगुप्त की अंतिम तिथि 467 ई. के बारे में जानकारी उसके चांदी के सिक्कों से प्राप्त होती है।

स्कन्दगुप्त के बाद के गुप्त शासक

यह बहुत स्पष्ट नहीं है कि स्कन्दगुप्त के उत्तराधिकारियों ने किस क्रम में शासन किया। स्कन्दगुप्त भी स्वयं सिंहासन का उचित अधिकारी नहीं था, इसलिये उसको सिंहासन प्राप्त करने के लिये अन्य दावेदारों के साथ संघर्ष करना पड़ा। यही कारण है कि एक मोहर अभिलेख में स्कन्दगुप्त के बाद शासकों के क्रम को स्कन्दगुप्त से नहीं अपितु कुमारगुप्त -I और उसके पुत्र पुरूगुप्त से उल्लेखित किया गया है। दुसरे, यह भी संभव है कि गुप्त साम्राज्य का विभिन्न क्षेत्रों में विघटन स्कन्दगुप्त के शासन के अंतिम वर्षों में ही प्रारंभ हो गया हो । इसी कारणवश पश्चिम मालवा से प्राप्त एक अभिलेख में जो उसके शासन काल के अंतिम वर्ष का है स्कन्दगुप्त के नाम का उल्लेख नहीं है परन्तु इसका प्रारंभ अन्य शासकों के नाम जैसे कि चन्द्रगुप्त-II के नाम से होता है।

अभिलेखों में स्कन्दगुप्त के जिन उत्तराधिकारियों का उल्लेख हुआ है वे इस प्रकार थेः बुद्धगुप्त, वैन्यगुप्त, भान-गुप्त, नरसिंहम गुप्त बालादित्य, कुमारगुप्त-II और विष्णु गुप्त। इसकी कोई संभावना नहीं है कि इन । शासकों ने विशाल साम्राज्य पर प्रारंभिक काल के गुप्त शासकों चन्द्रगुप्त-II और कुमारगुप्त-I की भांति शासन किया हो। गुप्तों का शासन 550 ई. तक जारी रहा परन्तु उनकी ह्रास होती शक्ति का कोई महत्व नहीं रह गया था।

गुप्त साम्राज्य का विघटन

इस भाग में हम उन कारणों का विवरण करेंगे जो गुप्त साम्राज्य के पतन के लिये उत्तरदायी थेः

हुण आक्रमण

कुमारगुप्त-I के शासन काल से ही उत्तरी-पश्चिमी सीमाओं को हुणों ने आक्रांत करना शुरू कर दिया। हुण सेन्ट्रल एशिया का एक कबीला था जो सफलतापूर्वक विभिन्न दिशाओं में बढ़ रहा था और जिसने उत्तरीपश्चिम, उत्तरी और पश्चिमी भारत में कई स्थानों पर अपने राज्यों की स्थापना कर ली थी। परन्तु इस समय में उनके आक्रमणों को निष्क्रिय कर दिया गया था। परन्तु पांचवीं सदी ई. के अंत में हुण सरदार तोरमण ने पश्चिमी एवं केन्द्रीय भारत के अधिकतर भागों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। उसके बेटे मिहिरकुल ने अपने आधिपत्य को ओर आगे बढ़ाया। इस प्रकार हुणों का आक्रमण विशेषकर उत्तरी-पश्चिमी और दक्षिणी क्षेत्रों में गुप्ता प्रभुत्व के लिये बहुत घातक साबित हुआ।

प्रशासनिक कमजोरियां

जिन पराजित राजाओं ने गुप्त शासकों के सामन्तीय प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया उन स्थानीय सरदारों या राजाओं को पुनः स्थापित करने की नीति का अनुसरण गुप्त राजाओं ने किया। वास्तव में, इन क्षेत्रों पर कठोर और प्रभावकारी नियंत्रण को स्थापित करने के लिये कोई प्रयल नहीं किये गये। इस प्रकार यह स्वाभाविक ही था कि जब कभी भी उत्तराधिकार के प्रश्न या कमजोर राजा को लेकर गुप्त साम्राज्य में कोई संकट होता तो इसके अन्दर ही स्थानीय सरदार अपने स्वतंत्र प्रभुत्व को पुनः स्थापित कर लेते इससे प्रत्येक गुप्त सम्राट के लिये एक समस्या होती और उसे अपने प्रभुत्व को पुर्नस्थापित करना पड़ता।

लगातार सैनिक अभियानों के कारण राज्य के कोष पर अतिरिक्त भार पड़ता था। पांचवी सदी ईसवी के अंत और छठी सदी ई. के प्रारंभ में, कमजोर सम्राटों का लाभ उठाते हुए बहुत सी स्थानीय शक्तियों ने पुनः अपने प्रभुत्व को स्थापित कर लिया और समय मिलने पर अपनी स्वतंत्रता को घोषित कर दिया। इन शक्तियों के विषय में आप उत्तर भारत में गुप्त काल के बाद के राज्य में पढ़ेंगे।

इनके अलावा ओर भी अन्य कारण थे जिन्होंने गुप्त साम्राज्य की शक्ति को क्षीण किया उदाहरण के लिये यह तर्क दिया जाता है कि गुप्त शासकों ने ब्राह्मणों के भूमि दान के पत्र जारी किये और इस प्रक्रिया के दौरान उन्होंने अपने राजस्व एवं प्रशासनिक अधिकारों को दान मिलने वालों के पक्ष में समर्पित कर दिया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि सामंत व्यवस्था के अंतर्गत सामंतों ने जो केन्द्रीय शक्ति के सहायक के रूप में शासन करते थे, गुप्त काल में अपनी शक्ति को मजबूत करना शुरू कर दिया।

इसी के कारण गुप्त शासकों का प्रशासन कमजोर होने लगा। इस विषय में भिन्न-भिन्न मत हैं कि इस व्यवस्था की उत्पत्ति कैसे हुई और इस व्यवस्था की विस्तृत जानकारी के संबंध में भी विभिन्न मत हैं। परन्तु गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत बडी संख्या में सामंतों की उपस्थिति यह स्पष्ट करती है कि उन्होंने गुप्त अधिपत्य से स्वतंत्र रूप से अपनी शक्ति को मजबूत किया।

इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि शाही परिवार के आंतरिक विभाजनों ने स्थानीय सरदारों या गवर्नरों के हाथों में शक्ति के सुदृढ़ीकरण और साम्राज्य की कमजोर प्रशानिक व्यवस्था ने गुप्त साम्राज्य के विघटन में योगदान किया।

सारांश

चौथी सदी ईसवी के प्रारंभ में उत्तरी भारत बहुत से छोटे-छोटे राज्यों एवं रियायतों में विभाजित था। ये राज्य जो विभिन्न क्षेत्रों में थे अक्सर एक दूसरे से संघर्ष करते रहते थे। इस प्रकार अराजनैतिक परिस्थितियों में गुप्त वंश ने शक्ति को प्राप्त किया और क्रमशः एक साम्राज्य की स्थापना की। इस वंश के कई राजाओं ने विभिन्न क्षेत्रों में सैनिक अभियानों का संचालन किया।

शाही शक्ति को समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त-II के शासन काल में सही प्रकार से संगठित किया गया। गुप्तों की शक्ति स्कन्दगुप्त के शासन काल के समय तक काफी मजबूत थी परन्तु उसके बाद विघटन की प्रक्रिया का प्रारंभ हो गया। बहुत से कारणों जैसे कि विदेशी आक्रमण, शासक परिवार के अंतर्गत मतभेद, स्थानीय सरदारों के द्वारा पुनः अपनी शक्ति को स्थापित करना, प्रशासनिक कमजोरी आदि ने साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया को और तेज किया।

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