हड़प्पा सभ्यता – Part V

इस इकाई को पढ़ने के बाद आपको निम्नलिखित के विषय में जानकारी मिलेगी :

  • हड़प्पा सभ्यता के ह्रास को समझ पाने में विद्वानों के समक्ष आई समस्याएं,
  • हड़प्पा के ह्रास के विषय में विद्वानों द्वारा दिये गये विभिन्न मत, विद्वानों के अने से हड़प्पा के ह्रास के कारण खोजना क्यों बंद कर दिया है, और
  • अब विद्वान हड़प्पा सभ्यता के काफी समय तक बने रहने के साक्ष्य खोज रहे हैं

पिछली इकाइयों में हमने हड़प्पा सभ्यता के उद्भव और संवृद्धि के विभिन्न पहलुओं पर विचार-विमर्श किया था। तथापि इसकी परिपक्वता के विभिन्न पहलुओं जैसे लेखन, नगर नियोजन आदि का प्राचीन भारत के बाद के चरण में लप्त हो जाना एक रहस्य ही है। इस इकाई में हम इस रहस्य को सुलझाने की दिशा में प्रस्तुत विभिन्न तर्कों की परीक्षा करेंगे।

हड़प्पा का हास : पुरातात्विक साक्ष्य

हडाप्पा, मोहनजोदड़ो और कालीबंगन जैसे नगरों का नगर नियोजन और निर्माण में क्रमिक हास हुआ। पुरानी जीर्ण ईंटों से बने और घटिया निर्माण वाले घरों ने नगरों की सड़कों और गलियों पर भी कब्जा कर लिया। पतली विभाजक दीवारों से घरों के आंगनों का उपविभाजन कर दिया गया। शहर बड़ी तेजी से तंग बस्तियों में बदल रहे थे। मोहनजोदड़ो के वास्तुकला के विस्तृत अध्ययन से पता चलता है कि विशाल स्नानागार के अनेक प्रवेश मार्ग अवरुद्ध हो गए थे। कुछ समय बाद “विशाल स्नानागार” और “अन्न भण्डार” का उपयोग पूर्णतः समाप्त हो गया। इसी समय मोहनजोदड़ो में अपेक्षाकृत बाद के निवास स्थानों में मूर्तियों और लघुमूर्तियों मनकाओं, चूड़ियों और पछचीकारी की संख्या में स्पष्ट कमी दिखाई देती है।

अन्त में मोहनजोदड़ो नगर मूलतः पच्चासी हेक्टेयर से सुकड़ कर मात्र तीन हैक्टेयर की छोटी सी बस्ती रह गया।

हड़प्पा के परित्याग से पहले लगता है एक और जन समूह आया था जिनकी जानकारी हमें उनकी मर्दो को दफनाने की पद्धतियों से चलता है। वे मिट्टी के जिन बर्तनों का इस्तेमाल करते थे वे बर्तन हड़प्पा निवासियों के बर्तनों से भिन्न थे। उनकी संस्कृति को “सिमेटरी-एच” (कब्रिस्तान-एच) संस्कृति कहा जाता है। कालीबंगन और चंहुदाड़ो जैसे स्थानों में भी हास की प्रक्रिया स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रही थी। हम देखते हैं कि शक्ति और विचारधारा से सम्बद्ध और भव्यता प्रदर्शन के सामान अधिक से अधिक दुर्लभ हो रहे थे। बाद में हड़प्पा और मोहनजोदड़ो जैसे नगरों का पूर्ण परित्याग हो गया।

बहावलपुर क्षेत्र में हड़प्पा कालीन और परवर्ती हड़प्पा कालीन स्थानों के शहरी नमूने के अध्ययन से भी ह्रास की प्रवृत्ति लक्षित होती है। नदी के हाकंड़ी तटों के साथ परिपक्व काल में जहां 174 बस्तियां थी, वहां उत्तरबर्ती हड़प्पा काल में बस्तियों की यह संख्या घटकर 50 रह गई। इस बात की संभावना है कि अपने जीवन के बाद के दो-तीन सौ वर्षों में हड़प्पा सभ्यता के मूल प्रदेश में बस्तियों का हास हो रहा था।

जन समूह या तो नष्ट हो गए थे या अन्य क्षेत्रों में चले गए थे। जहां हड़प्पा, बहावलपुर और मोहनजोदड़ो के त्रिभुज में बस्तियों की संख्याओं में ह्रास हुआ वहीं गुजरात, पूर्वी पंजाब, हरियाणा और ऊपरी दोआब के दूरस्थ क्षेत्रों में बस्तियों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई। इससे इन क्षेत्रों में लोगों की संख्या में अपूर्व वृद्धि का संकेत मिलता है। इन क्षेत्रों की जनसंख्या में आकस्मिक वृद्धि का कारण हड़प्पा के मूल क्षेत्रों से लोगों का आना हो सकता है।

हड़प्पा सभ्यता के दूरस्थ क्षेत्रों में जैसे, जेरात, राजस्थान और पंजाब के प्रदेश में लोग रहते रहे। लेकिन उनके जीवन में परिवर्तन आ गया था।हड़प्पा-सभ्यता से संबद्ध कुछ महत्वपूर्ण लक्षण जैसे लेखन, तोलने के समान बाट, हड़प्पा कालीन मिटटी के बर्तन और वास्तुकला शैली-लुप्त हो गए थे।

सिंधु नदी के नगरों का परित्याग स्थूल रूप से लगभग 1800 ई. पू. में हुआ। इस तारीख का समर्थन इस तथ्य से होता है कि मेसोपोटामिया साहित्य में 1900 ई. प. के अंत तक मेलहा का उल्लेख समाप्त हो गया था। तथापि आज भी हड़प्पा कालीन नगरों के अंत का कालानुक्रम स्थाई नहीं है। हम आज तक यह नहीं जान सके कि मुख्य बस्तियों का परित्याग एक ही समय हआ अथवा भिन्न-भिन्न अवधियों में हआ। तथापि यह अवश्य निश्चित है कि मुख्य नगरों के परित्याग और अन्य बस्तियों के विनगरीकरण से हड़प्पासभ्यता के हास का संकेत मिलता है।

आकस्मिक हास के सिद्धांत

विद्वानों ने इस प्रश्न के विभिन्न उत्तर दिए हैं कि यह सभ्यता नष्ट क्यों हुई? कुछ विद्वानों ने जिनका विश्वास है कि सभ्यता का नाटकीय अंत हो गया। उन्होंने आकस्मिक विपत्ति के ऐसे साक्ष्य खोजे हैं जिससे शहरी समुदायों का सत्यानाश हो गया। हड़प्पा-सभ्यता के ह्रास के लिए कुछ अपेक्षाकृत अधिक मुक्ति युक्त सिद्धांत निम्न हैं

  • यह भयंकर बाढ़ से नष्ट हो गई।
  • हास नदियों का रास्ता बदलने से और घग्घर-हाकड़ नदी तंत्र के धीरे-धीरे सूख जाने ‘के कारण हुआ।
  • बर्बर आक्रमणकारियों ने शहरों को बर्बाद कर दिया।
  • केन्द्रों की बदली हुई मांगों तक क्षेत्र की पारिस्थितिकी भंग हो गई और उसे संभाला नहीं जा सका।

आइए, इन स्पष्टीकरणों पर उनके गुण-दोषों के आधार पर चर्चा करें।

बाढ़ और भूकम्प

हड़प्पा सभ्यता के ह्रास के लिए विद्वानों ने जो कारण बताए हैं, उनमें उन्होंने मोहनजोदड़ो में बाढ़ आने के साक्ष्य भी शामिल किए हैं। प्रमुख खुदाई करने वालों के अभिलेखों तक पता चलता है कि मोहनजोदड़ो में रिहाइश की विभिन्न अवधियों में अत्यधिक बाढ़ के साक्ष्य मिले हैं, यह निष्कर्ष इस तथ्य से निकाला जा सकता है कि मोहनजोदड़ो में मकानों और सड़कों पर इसके लम्बे इतिहास में अनेक बार कीचड़युक्त मिट्टी भरी पड़ी थी और टूटे हुए भवनों की सामग्री और मलबा भरा पड़ा था।

लगता है कीचड़युक्त यह मिट्टी उस बाढ़ के पानी के साथ आई जिस पानी में सड़कें और मकान डूब गए थे। बाढ़ का पानी उतर जाने के बाद मोहनजोदड़ो के निवासियों ने पहले के मकानों के मलबे के ऊपर फिर से मकान और सड़कें बना लीं। इस प्रकार की भयंकर बाढ़ और मलबे के ऊपर पुनःनिर्माण का सिलसिला कम से कम तीन बार चला।

रिहाइशी क्षेत्र में खुदाई से पता चला है कि 70 फुट ऊँचाई तक रिहाइशी तलों का सिलसिला था। यह ऊँचाई के बराबर है। आवासी क्षेत्र मिट्टी भर जाने के कारण अलग-अलग हो गए थे। आज के भूतल से 80 फुट ऊँचाई तक कई स्थानों पर मिट्टी के ढेर मिले हैं। इस प्रकार, कई विद्वानों का विश्वास है कि ये मोहनजोदड़ो में विनाशकारी बाढ़ आने के साक्ष्य हैं। इन बाढ़ों के कारण अपने पूरे इतिहास काल में शहर बार-बार अस्थायी रूप से वीरान हुआ और फिर बसा।

यह बाढ़ महा भंयकर थी। यह इस बात से प्रमाणित होता है कि नदी की मिट्टी के ढेर आज के भूतल से 80 फुट ऊँचाई तक मिले हैं जिसका अर्थ है कि बाढ़ का पानी इस क्षेत्र में इस ऊँचाई तक पहुँचा। मोहनजोदड़ो के हड़प्पा निवासी इन बार-बार आने वाली बाढ़ों का मुकाबला करने में हिम्मत हार गए। एक अवस्था ऐसी आई जब कंगाल हड़प्पा निवासी इसे और सहन न कर सके और इन बस्तियों को छोड़कर चले गए।

रेईक्स (Raikes) की प्राक्कल्पना

महा भंयकर बाढ़ के सिद्धांत का विख्यात जलविज्ञानी आर.एल. रेईक्स ने भी समर्थन किया है। उसका मत है कि ऐसी बाढ़ जो बस्ति के भूतल से 30 फुट ऊँचे भवनों को छ सकती थी, सिंधु नदी में सामान्य बाढ़ आने का परिणाम नहीं हो सकती। उसका विश्वास है कि हड़प्पा सभ्यता का ह्रास भयंकर बाढ़ के कारण हुआ। जिससे सिंधु नदी के तट पर स्थित नगर बहुत समय तक डूबे रहे। उसने बताया है कि भू-आकृति विज्ञान की दृष्टि से क्षेत्र अशान्त भूकम्प क्षेत्र है। भूकम्पों से हो सकता है, निम्न सिंधु नदी के बाढ़ मैदानों का स्तर ऊंचा हो गया हो। सिंधु नदी से लगभग समकोण पर एक धुरी के साथ-साथ मैदान के इस उत्थान से नदी का समुद्र की ओर मार्ग अवरुद्ध हो गया।  इससे सिंधु नदी में पानी इकट्ठा होने लगा। उस क्षेत्र में एक झील सी बन गई जहां कभी सिंधु नदी के शहर आबाद थे। और इस प्रकार, नदी के बढ़ते हुए पानी के स्तर में मोहनजोदड़ो जैसे शहर डूब गए।

यह बताया जा चुका है कि करांची के पास बालाकोट और मकरान तट पर सतकागदौड़ और सतका-कोह जैसे स्थान हड़प्पा निवासियों के समुद्री तट थे। तथापि आजकल ये समुद्र तट से दर स्थित हैं। ऐसा संभवतः उग्र भूकम्प के कारण समुद्र तट पर भूमि के उत्थान के परिणामस्वरूप हुआ। कुछ विद्वानों का मत है कि ऐसे उत्थान दूसरी सहस्त्राब्दि ई. पू. में किसी समय हुए। इन उग्र भूकम्पों से जिन्होंने नदियों को अवरुद्ध कर दिया और शहरों को जला दिया, हड़प्पा-सभ्यता नष्ट हो गई। इससे नदी पर आधारित वाणिज्यिक गतिविधियों और तटीय संचार भंग हो गया।

आलोचना

हड़प्पा सभ्यता के महा भंयकर विनाश का महान सिद्धांत कई विद्वानों को मान्य नहीं है। एच.टी. लैमब्रिक (H.T. Lambrick) का कहना है कि यह विचार कि एक नदी भूकम्पीय उत्थानों से इस प्रकार अवरुद्ध हो जाएगी, निम्नलिखित दो कारणों से सही नहीं है :

  • यदि किसी भूकम्प से अनुप्रवाह पर एक कृत्रिम बंद बन भी गया था, तो भी सिंधु नदी के अत्यधिक मात्रा में जल से वह आसानी से टूट गया होगा। सिंध में हाल ही में 1819 के भूकम्प से जो टीला बन गया था, वह सिंधु की एक छोटी नदी नारा से उत्पन्न पहली बाढ़ में ही बह गया था।
  • जमा हो गई गाद (कीचड़) परिकल्पित झील में पानी के उठते हुए तल के समान्तर हो गई होती। यह नदी के पिछले मार्ग के तल के साथ जमा होगी। इस प्रकार मोहनजोदड़ो की गाद बाढ़ के कारण इकट्ठी नहीं हुई थी। इस सिद्धांत की दसरी आलोचना यह है कि इस सिद्धान्त में सिंधु नदी तंत्र के बाहर की बस्तियों के हांस का स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है।

सिंधु नदी का मार्ग बदलना

लैमब्रिक ने इस हास के लिए अपना स्वयं का स्पष्टीकरण दिया है। उसका मत है कि सिंधु नदी के मार्ग में परिवर्तन मोहनजोदड़ो नगर के विनाश का कारण हो सकता है। सिंधु नदी एक अस्थिर नदी तंत्र है जो अपना तल बदलता रहता है, स्पष्टतः सिंध नदी मोहनजोदड़ो से लगभग 30 मील दूर चली गई। शहर और आसपास के खाद्यान्न उत्पादक गांवों के लोग इस क्षेत्र से चले गए क्योंकि वे पानी के लिए तरस गए थे। मोहनजोदड़ो के इतिहास में ऐसा अनेक बार हुआ। शहर में देखी गई गाद वास्तव में हवा के कारण इकट्ठी हुई है क्योंकि हवा से बड़ी मात्रा में रेत और गाद उड़कर यहां आई। इस गाद और विधारित कीचड़, कच्ची ईंटों और पकी ईंटों की सरचनाओं तक वह गाद बन गई जिसे गल्ती से बाढ़ से उत्पन्न गाद मान लिया गया।

इस सिद्धांत से भी हड़प्पा-सभ्यता के पूर्णतः हास के कारण स्पष्ट नहीं होते। अधिक से अधिक यह सिद्धांत मोहनजोदड़ो का वीरान हो जाना स्पष्ट कर सकता है और यदि मोहनजोदड़ो के निवासी नदी के मार्ग में इस प्रकार के बदलाव से परिचित थे तो वे स्वयं ही किसी नई बस्ती में जाकर क्यों नहीं बस सकते थे और मोहनजोदड़ो जैसा दूसरा शहर क्यों नहीं बसा सकते थे। स्पष्टतः ऐसा लगता है कि इसके कुछ और ही कारण थे।

वर्धित शुष्कता और घग्घर का सूख जाना

डी.पी. अग्रवाल और सूद ने हड़प्पा सभ्यता के हास के लिए एक नया सिद्धान्त बताया है। उनका मत है कि हड़प्पा-सभ्यता का ह्रास उस क्षेत्र में बढ़ती हुई शुष्कता के कारण और घग्घर नदी-हाकडा-के सूख जाने के कारण हुआ। संयुक्त राज्य अमरीका, आस्ट्रेलिया और राजस्थान में किए गए अध्ययनों के आधार पर निष्कर्ष निकालते हुए उन्होंने बताया है कि द्वितीय सहस्त्राब्दि ई. पू. के मध्य तक शुष्कता की स्थितियों में बहुत वृद्धि हो गई थी। हड़प्पा जैसे अर्ध शुष्क क्षेत्रों में भी नमी और जल उपलब्धता में थोड़ी सी कमी के भी भयंकर परिणाम हो सकते थे। इससे कृषि उपज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता और इसके परिणामस्वरूप नगर की अर्थव्यवस्था पर बहुत दबाव पड़ता।

उन्होंने पश्चिम राजस्थान में अस्थिर नदी तंत्रों की समस्या पर चर्चा की है। जैसा पहले बताया जा चुका है। घग्घर-हाकड़ा क्षेत्र हड़प्पा सभ्यता का एक मूल क्षेत्र था। घग्घर एक शक्तिशाली नदी थी जो समुद्र में गिरने से पहले पंजाब, राजस्थान और कच्छ के रन में से होकर बहती थी।

सतलुज और यमुना नदियां इस नदी की सहायक नदियां हुआ करती थीं। कुछ विवर्तनिक विक्षोभों के कारण सतलुज सिंध नदी समा गई तथा यमुना नदी गंगा नदी में मिलने के लिए पूर्व की ओर रास्ता बदल गई। नदी क्षेत्र में इस प्रकार के परिवर्तन से जिससे घग्घर जल विहीन हो गई, इस क्षेत्र में अवस्थित नगरों के लिए भयंकर उलझने हुई होंगी। स्पष्टतः बर्धित शुष्कता तथा जल निकासी स्वरूप में हुए परिवर्तन से आए पारिस्थितिक विक्षोभों से हड़प्पा सभ्यता का ह्रास हुआ।

यह सिद्धांत रोचक तो है, पर इसमें कुछ समस्याएं भी हैं। शुष्कता की परिस्थितियों के संबंध में सिद्धांतों का पूर्णतः अध्ययन नहीं किया गया है और इस संबंध में और सूचनाएं अपेक्षित हैं। इसी प्रकार घग्घर नदी सूख जाने का काल अभी तक उचित रूप से निर्धारित नहीं किया जा सका।

बर्बर आक्रमण

वीलर का मत है कि हड़प्पा सभ्यता आक्रमणकारी आर्यों ने नष्ट की थी। जैसा पहले बताया जा चुका है, मोहनजोदड़ो में आवास के अन्तिम चरणों में जनसंहार के साक्ष्य मिलते हैं। सड़कों पर मानव कंकाल पड़े मिले हैं। ऋग्वेद में इनके स्थानों पर दासों और दस्युओं के किलों का उल्लेख मिलता है। वैदिक देवता इन्द्र को पुरन्दर कहा जाता है, जिसका अर्थ है “किलों को नष्ट करने वाला”

ऋग्वेद कालीन आर्यों के आवास के भौगोलिक क्षेत्र में पंजाब तथा घग्घर-हाकड़ा क्षेत्र शामिल थे। चूकि इस ऐतिहासिक चरण में किसी अन्य संस्कृति समूहों के किले होने के कोई अवशेष नहीं मिलते। वीलर का मत है कि ऋग्वेद में जिसका उल्लेख है वे हड़प्पा के नगर ही हैं।

वस्तुतः ऋग्वेद में एक स्थान का उल्लेख है जिसे हरियूपिया कहा गया है। यह स्थान रावी नदी के तट पर अवस्थित था। आर्यों ने यहां एक युद्ध लड़ा था। इस स्थान के नाम से हड़प्पा नाम के बहत समान ध्वनि निकलती है। -इन साक्ष्यों से वीलर ने निष्कर्ष निकाला कि हड़प्पा के शहरों को नष्ट करने वाले आर्य आक्रमणकारी ही थे।

यह सिद्धांत आकर्षक तो है, पर अनेक विद्धानों को मान्य नहीं है। उनका कहना है कि हड़प्पा सभ्यता के ह्रास का अनुमानित समय 1800 ई. पू. माना जाता है। पर इसके विपरीत आर्य यहां लगभग 1500 ई. पू. से पहले आए नहीं माने जाते। जानकारी की आज की स्थिति के अनुसार दोनों में से किसी भी समय को बदलता कठिन है और इसलिए संभावना यही है कि हड़प्पा निवासी, हड़प्पा निवासियों और आर्यों का कभी एक दूसरे से मिलन नहीं हुआ।

साथ ही, न तो मोहनजोदड़ो में और न ही हड़प्पा में किसी सैन्य आक्रमण के साक्ष्य मिले हैं। सड़कों पर मनुष्यों के शव पड़े मिलने का साक्ष्य महत्वपूर्ण है। तथापि ऐसा आस-पास के पहाड़ी स्थानों से आए लुटेरों के हमलों से हो सकता है। बहरहाल बड़े शहरों का तो पहले से ही अपकर्ष, हो रहा था। इसके लिए आक्रमण प्राक्कल्पना उचित स्पष्टीकरण नहीं हो सकता।

पारिस्थितिक असंतुलन

फेयर सर्विस जैसे विद्वानों ने हड़प्पा सभ्यता का हास पारिस्थितकी की समस्याओं के रूप में स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उसने हड़प्पा नगरों की आबादी की गणना की है और । नगर निवासियों की खाद्य जरूरतों का हिसाब लगाया है। उसने गणना की है कि इन क्षेत्रों में ग्राम निवासी अपनी उपज की लगभग 80% खपत स्वयं करते हैं और लगभग 20% बाजार में बिकने के लिए बचती हैं। यदि कृषि का सही प्रतिमान पहले भी विद्यमान रहा होता तो मोहनजोदड़ो जैसे नगर को, जिसकी आबादी लगभग 35 हजार थी, खाद्यान्न । उगाने के लिए बहुत बड़ी संख्या में ग्राम निवासियों की आवश्यकता थी।

फेयर सर्विस की गणना के अनुसार इन अर्ध शुष्क क्षेत्रों में नाजुक पारिस्थितिक संतुलन इस लिए बिगड़ रहा था क्योंकि इन क्षेत्रों में मनुष्यों और मवेशियों की आबादी अपर्याप्त जंगलों, खाद्यान्न और ईंधन के स्रोतों को तेजी से समाप्त कर रही थी। हड़प्पा के नगर निवासियों, किसानों और पशुचारकों की सम्मिलित आवश्यकताएं इन क्षेत्रों में सीमित उत्पादन क्षमताओं से अधिक थीं। इसलिए मनुष्यों और पशुओं की बढ़ती हुई आबादी के कारण जिसे अपर्याप्त स्रोतों का सामना करना पड़ रहा था, प्रकृति की छटा मद्धम पड़ने लगी।

जंगल और घास के मैदान धीरे-धीरे लुप्त होते जाने के कारण अब अधिक बाढ़ आ रही थी और अधिक सखा पड़ रहा था। जीविका के इस आधार के नष्ट हो जाने के कारण इस सभ्यता की समस्त अर्थव्यवस्था पर बहुत दबाव पड़ा। लगता है कि धीरे-धीरे लोग उन क्षेत्रों में बसने के लिए जाने लगे जहां जीविका की बेहतर संभावनाएं थी। यही कारण है कि हड़प्पा समुदाय सिंधु से दूर गुजरात और पूर्वी क्षेत्रों की ओर चले गए। अब तक जिन सिद्धांतों पर चर्चा हई है, उन सभी में से फेयर सर्विस का सिद्धांत सर्वाधिक यक्ति-यक्त लगता है। संभवतः नगर नियोजन और जीवन स्तर में क्रमिक ह्रास हड़प्पा निवासियों का जीविका आधार समाप्त हो जाने के कारण था। हास की यह प्रक्रिया आस-पास के समदायों के आक्रमणों और छापों से पूरी हुई। तथापि पर्यावरण संकट के सिद्धांत में भी कुछ समस्याएं हैं।

  • भारतीय उपमहाद्वीप की भूमि की उर्वरता बाद के सहस्त्राब्दों तक बनी रही, इससे इस क्षेत्र में भूमि की क्षमता समाप्त होने की प्राक्कल्पना उचित सिद्ध नहीं होती।
  • साथ ही हड़प्पा निवासियों की जरूरतों की गणना अल्प सूचनाओं पर आधारित है और हड़प्पा निवासियों की जीविका संबंधी अपेक्षाओं की गणना करने के लिए काफी अधिक और सूचना अपेक्षित है।

इस प्रकार हड़प्पा निवासियों की आवश्यताओं की एकता अल्प अपर्याप्त सूचना पर आधारित गणना तब तक मात्र प्राक्कल्पना ही रहेगी जब तक इसके पक्ष में और अधिक साक्ष्य नहीं जुटाए जा सकेंगे।

हड़प्पा-सभ्यता के आविर्भाव में नगरों कस्बों और गांवों, शासकों, किसानों और खानाबदोशों के बीच संबंधों का नाजक संतलन था। उनका पड़ौस के क्षेत्रों के उन समदायों से भी दर्बल लेकिन महत्वपूर्ण सम्बंध थे। इसी प्रकार, उनका समकालीन सभ्यताओं और संस्कृतियों से भी संपर्क बना हुआ था। इसके अतिरिक्त, हमें प्रकृति से संबंध के लिए पारिस्थितिक घटक पर भी विचार करना होगा। संबंध की इन शृंखलाओं की कोई भी कड़ी टूटने से नगरों के हास का पथ प्रशस्त हो सकता था।

परम्परा बाद में भी जीवित रही

सिंधु-सभ्यता का अध्ययन करने वाले विद्वान अब इसके ह्रास के कारण नहीं खोजते। इसका कारण है कि जिन विद्वानों ने हड़प्पा-सभ्यता का अध्ययन 1960 के दशक तंक किया था। उनका मत था कि सभ्यता का अंत अचानक हुआ। इन विद्वानों ने अपना कार्य नगरों, नगर नियोजन और बड़ी संरचनाओं के अध्ययनों पर ही केन्द्रित किया। ऐसी समस्याएं, जैसे हड़प्पा नगरों के समकालीन गांवों से संबध और हड़प्पा-सभ्यता के विभिन्न तत्वों की निरन्तरता अनदेखी कर दी गई। इस प्रकार हड़प्पा-सभ्यता के हास के कारणों के संबंध में वाद-विवाद अधिक से अधिक अमूर्त बनता गया।

1960 के दशक के अन्तिम चरण में । जाकर ही मलिक और पौसेल जैस विद्वानों ने अपना ध्यान हड़प्पा परम्परा की निरन्तरता के विभिन्न पहलओं पर केंद्रित किया। इन अध्ययनों के परिणाम हड़प्पा-सभ्यता के हास के कारणों के संबंध में वाद-विवाद से मकाबला कहीं अधिक उत्तेजक निकला है। यह सत्य है कि हड़प्पा और मोहनजोदड़ो को उनके निवासी खाली कर गए थे और नगर चरण समाप्त हो गया था। तथापि यदि हम हड़प्पा सभ्यता के सम्पर्ण भौगोलिक प्रसार के परिप्रेक्ष्य में देखें तो काफी वस्तुएं उसी पुरानी शैली में चलती दिखाई देंगी। पुरातात्विक दृष्टि से कुछ परिवर्तन ध्यान देने योग्य हैं।

कुछ बस्तियां तो खाली कर दी गई पर अधिकतर और बस्तियों में रिहाइश जारी रही। तथापि, एकरूप लेखन, मुहर बांट और मिट्टी के बर्तनों की परम्परा समाप्त हो गई। दूर-दराज की बस्तियों के बीच घनिष्ठ अंतःक्रिया सूचक वस्तुएं नष्ट हो गईं। अन्य शब्दों में नगर केंद्रित अर्थव्यवस्थाओं से संबद्ध कार्यकलाप समाप्त हो गए। इस प्रकार जो परिवर्तन आए वे केवल नगर चरण की समाप्ति के ही सूचक थे। छोटे-छोटे गांव और कस्बे तब भी बने रहे और इन स्थानों की पुरातात्विक खोजों में हड़प्पा सभ्यता के अनेक तत्व मिले हैं।

सिंध में अधिकतर स्थानों में मुद्भांड परम्परा में कोई अंतर दिखाई नहीं पड़ता। वस्तुतः गजरात, राजस्थान और हरियाणा क्षेत्र के बाद के कालों में प्रवासी कृषि समुदायों का बहुत बड़ी संख्या में आविर्भाव हुआ। इस प्रकार क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य में नगर चरण के बाद का काल समृद्ध गांवों का काल था। जिसमें नगर चरण के मुकाबले कहीं अधिक गांव थे। यही कारण है कि विद्वान आज सांस्कृतिक परिवर्तन, क्षेत्रीय प्रवयप और बसने और जीविका के तंत्र में संशोधन जैसे विषयों पर चर्चा करते हैं। तथापि कोई भी प्रारम्भिक मध्यकालीन भारत में प्राचीन भारतीय सभ्यता नष्ट होने के बारे में बात नहीं करता जबकि गंगा घाटी के अधिकतर नगरों का ह्रास हआ था। आइए देखें नगर चरण की समाप्ति के बाद भी किस प्रकार के पुरातात्विक अवशेष विद्यमान थे।

सिंध

सिंध में, आमरी और चान्हदाड़ों झकर जैसे हड़प्पा कस्बों में लोग ऐसे ही रहते रहे जैसे पहले रहते थे। वे अब भी ईंटों के मकानों में रहते थे पर उन्होंने सुनियोजित विन्यास त्याग दिया था। वे मामूली भिन्न मृद्भांड उपयोग में ला रहे थे जिसे भूकर मृद्भांड कहा जाता था। यह पांडुबतैन थे जिनमें लाल पट्टी थी और काले रंग में चित्रकारी थी। हाल ही के अध्ययनों से पता चला है कि यह “मृद्भांड प्रौढ़ हड़प्पा” मृद्भांड से विरासत किए गए थे और इसलिए इसे कोई नई चीज नहीं माना जाना चाहिए। झकर में कुछ विशिष्ट धातु की वस्तुएं मिली हैं जो ईरान के साथ व्यापार संबंधों की सूचक हो सकती हैं और इससे अधिक इस बात की भी संभावना प्रदर्शित करती हैं कि ईरानी अथवा मध्य एशिया प्रभावों वाले प्रवासियों का बड़ी संख्या में आगमन हुआ। दंड विवर, कुल्हाड़ियां, और तांबे की पिनें, जिनके सिरे कड़लाकार अथवा अलकृत थे, जैसी यहां मिली हैं वैसी ईरानी वस्यिातको में भी मिली हैं। पत्थर अथवा प्रकाशित वस्तु की गोलाकार मुहरें और कांस्य प्रसाधन जार सिंधु के पश्चिम की संस्कृतियों से सम्पर्क के सूचक हैं।

भारत-ईरानी सीमांत प्रदेश

सिंधु नदी के पश्चिम के क्षेत्र-बलूचिस्तान और भारत-ईरानी सीमांत प्रदेश में भी उन लोगों के रहने के प्रमाण मिले हैं जो ठप्पेदार ताम्रमुद्रा और ताम्र दंड विवर कुल्हाड़ियां इस्तेमाल करते थे। शाही टम्प मुंडीगाक, नौ शहरों और पीराक जैसे स्थलों पर लोगों के ईरान से आवागमन और सम्पर्कों के प्रमाण मिले हैं। दुर्भाग्यवश हम बस्तियों का काल निर्धारण अभी तक स्पष्ट रूप से नहीं किया जा सका है।

पंजाब, हरियाणा और राजस्थान

पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के क्षेत्रों में ऐसी अनेक बस्तियों की सूचना मिली हैं जहां नगरों के हास के बाद भी लोग उसी पराने तरीके से रहते आ रहे थे। तथापि, मदभांड परम्परा पर हड़प्पा-सभ्यता के प्रभाव धीरे-धीरे क्षीण हो रहे थे और स्थानीय मदभांड परम्पराओं ने हड़प्पा मृदभांड परम्परा का पूरी तरह स्थान ले लिया। इस प्रकार, इन क्षेत्रों में प्रादेशिक परम्पराओं के अक्षुण्ण बने रहने से नगर रूप का हास प्रतिबिम्बत होता है। मीराथल, बाड़ा, रोपड़ और सीसवाल के स्थल सप्रसिद्ध हैं। बाड़ा और सीसवाल में ईंटों के मकान मिले थे। इनमें से कई स्थलों में गैरिक मदभांड मिले हैं। प्राचीन भारत में अनेक प्रारंभिक ऐतिहासिक स्थलों में ऐसे मृद्भांड मिले हैं इसलिए पंजाब, हरियाणा और राजस्थान की ये ग्राम्य संस्कृतियां परवर्ती हड़प्पा परम्परा से संबद्ध हैं और प्रारंभिक भारतीय परम्परा का पूर्व ज्ञान कराती हैं। इन पर परवर्ती हड़प्पा प्रभाव अल्प मात्रा में दिखाई देते हैं। यह केन्द्र भारतीय सभ्यता के बाद के चरण का केन्द्र बिन्दू बना।

कच्छ और सौराष्ट्र

कच्छ और सौराष्ट्र में नगर चरण का अंत रंगापुर और सोमनाथ जैसे स्थानों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। नगर चरण में भी उनकी हड़प्पा मृद्भांड परम्परा के सह अस्तित्व में स्थानीय मृत्तिका परम्परा थी। यह परम्परा बाद के चरणों में भी बनी रही। रंगापुर जैसे कछ स्थल बाद के काल में अधिक समृद्ध हो गए प्रतीत होते हैं। वे जिन मुद्भांडों का उपयोग करते थे उन्हें “चमकीले लाल भांड” कहा जाता है तथापि लोगों ने दूरस्थ क्षेत्रों से आयातित औजार तथा सिंधु कालीन बाट और लिपी का उपयोग बंद कर दिया। अब वे स्थानीय रूप से उपलब्ध पत्थरों से बने पत्थरों के औज़ार काम में ला रहे थे।

“प्रौढ़ हड़प्पा” चरण में गुजरात में 13 बस्तियां थी। परवर्ती हड़प्पा चरण में जिसका काल लगभग 2100 ई. प. है, बस्तियों की संख्या 200 या इससे और अधिक तक पहंच गई। बस्तियों की संख्या में यह वृद्धि जो जनसंख्या की वृद्धि की द्योतक है, केवल जैविक कारणों से ही नहीं हुई थी। पूर्व आधुनिक समाजों में जनसंख्या कुछ ही पीढ़ियों में इतनी अधिक नहीं बढ़ सकती थी कि 13 बस्तियाँ बढ़कर 200 या और अधिक हो जाएं। इस प्रकार इस बात की निश्चित संभावना है कि इन नई बस्तियों में रहने वाले लोग अन्य क्षेत्रों से आए होंगे। परवर्ती हड़प्पा बस्तियाँ महाराष्ट्र में भी बताई गई हैं जहां उनकी संस्कृति उभरने वाले कृषि समुदायों की संस्कृतियों में विलीन हो गई।

हड़प्पा परम्परा का प्रसार

नगरों की आमरप्ति का यह अर्थ नहीं था कि हड़प्पा समुदाय आसपास के कृषि समूहों में विलीन हो गए। तथापि राज्य व्यवस्था और अर्थव्यवस्था में केन्द्रीय निर्णायन कार्य समाप्त हो गया था। जो हड़प्पा समदाय नगर चरण के बाद भी बने रहे उन्होंने अवश्य ही अपनी पुरानी परम्पराओं को बनाए रखा होगा। इस बात की संभावना है कि हड़प्पा निवासी किसानों ने अपनी पूजा का रूप बनाए रखा होगा। हड़प्पा नगर केन्द्रों के परोहित अत्यन्त संगठित शिक्षित परम्परा के अंग थे। साक्षरता समाप्त हो गई थी, तब भी संभावना है, उन्होंने अपनी धार्मिक प्रथाएं बनाए रखीं होंगी। बाद के प्रारंभिक ऐतिहासिक काल के प्रभावी समुदाय ने अपने आप को “आर्य” कहा।

ऐसा लगता है कि इन लोगों की अपनी कोई शिक्षित परम्परा नहीं थी। संभवतः हड़प्पा निवासियों के पुरोहित समूह आर्यों के शासक समूहों के साथ घुल-मिल गए। इस प्रकार हड़प्पा कालीन धार्मिक परम्पराओं का ऐतिहासिक भारत में प्रसार हुआ। लोक समुदायों ने दस्तकारी की अपनी परम्पराएं भी बनाए रखी, जो मुद्भांड और औजार निर्माण परम्पराओं से स्पष्ट होता है। इस बार फिर जब शिक्षित नागर संस्कृति प्रारंभिक भारत में उदय हुई। इसने लोक संस्कृतियों के मूल तत्व समाविष्ट कर दिए। इससे हड़प्पा परम्परा के प्रसार का अधिक कारगर माध्यम मिला।

हड़प्पा सभ्यता के अवशेष

पशुपति (शिव) और मातृ देवी की उपासना और लिंग पूजा हम तक संभवतः हड़प्पा परम्पराओं से पहुँची है। इसी प्रकार पवित्र स्थानों, नदियों या वृक्षों या पवित्र पशुओं की उपासना स्पष्टतः भारत में बाद की ऐतिहासिक सभ्यता में भी जारी रही। कालीबंगन और लोथल में अग्नि पूजा बलि का साक्ष्य भी महत्वपूर्ण है। यह वैदिक धर्म के सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य थे। क्या आर्यों ने यह प्रथाएं हड़प्पा के पुरोहित वर्ग से सीखी थीं? इस प्राक्कल्पना के लिए और अधिक साक्ष्य की आवश्यकता है, पर ऐसा होने की संभावना तो है ही।

मकानों के नक्शे, जल-पूर्ति व्यवस्था और स्नान पर ध्यान जैसे घरेलू जीवन के अनेक पहलू इन बस्तियों में बाद के कालों में भी जारी रहे। भारत की पारम्परिक तोल और मुद्रा की प्रणाली जो इकाई के रूप में सोलह के अनुपात पर आधारित थी, हड़प्पा-सभ्यता काल में भी विद्यमान थी। ये उन्हीं से ली गई प्रतीत होती है। आधुनिक भारत में कुम्हार का चाक बनाने की प्रविधि हड़प्पावासियों द्वारा अपनाई गई प्रविधियों के समान ही है। आधुनिक भारत में इस्तेमाल की जाने वाली बैल गाड़ियाँ और नावें हड़प्पा के नगरों में भी विद्यमान थीं। अतः हम कह सकते हैं कि हड़प्पा-सभ्यता के अनेक तत्व परवर्ती ऐतिहासिक परम्परा में भी जीवित रहे।

सारांश

हमने देखा है कि विद्वानों ने हड़प्पा सभ्यता के आकस्मिक हास के विभिन्न सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं। लेकिन इन सभी सिद्धांतों को पर्याप्त साक्ष्य के अभाव में छोड़ना पड़ेगा। धीरे-धीरे विद्वानों ने हड़प्पा सभ्यता के हास के कारण खोजना बंद कर दिया है। अब हड़प्पा-सभ्यता के परवर्ती चरण को समझने पर ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है। इसका इसलिए अध्ययन किया जा रहा है ताकि हड़प्पा सभ्यता की वे निरन्तरताएं प्रकाशित की जा सकें जो उस समय के समृद्ध कृषि समुदायों में जीवित रही होंगी। और निस्संदेह हड़प्पा सभ्यता की कुछ ऐसी विशेषताएं थीं जो ऐतिहासिक चरण में भी चलती रहीं।

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