भारत जैसे लोकतंत्र में सिविल सेवाओं की भूमिका

प्रश्न: भारत जैसे लोकतंत्र में सिविल सेवाओं की भूमिका की व्याख्या कीजिए। यह तर्क क्यों दिया जाता है कि वर्तमान वास्तविकताओं के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए सिविल सेवाओं में सुधार की आवश्यकता है?

दृष्टिकोण

  • भारत में सिविल सेवाओं द्वारा निभाई जाने वाली विभिन्न भूमिकाओं को सूचीबद्ध कीजिए।
  • भारत में सिविल सेवाओं के कार्यों से संबंधित प्रमुख मुद्दों को रेखांकित कीजिए।
  • हालिया उदाहरणों के साथ सुधारों का सुझाव दीजिए।

उत्तर

इंपीरियल सिविल सेवाओं ने भारत में औपनिवेशिक शासन के ‘स्टील फ्रेम’ के रूप में कार्य किया। हालाँकि स्वतंत्रता के पश्चात औपनिवेशिक नौकरशाही की व्यापक संरचना को यथावत बनाए रखा गया किन्तु उसकी नियंत्रणात्मक (पुलिसिंग) भूमिका को विकासात्मक भूमिका में परिवर्तित किया गया।

सिविल सेवाओं की भूमिका: 

  • सरकार का प्रमख अंग: ये प्रशासनिक मशीनरी को संचालित करती हैं। इसके साथ ही ये सरकार को समन्वय एवं सेवा वितरण के माध्यम से अपने कार्यक्रमों को निष्पादित करने में सहायता प्रदान करती हैं।
  • विचारधारा और नीति निर्माण के दौरान विशेषज्ञ राय प्रदान करती हैं। ये प्रत्यायोजित विधायन के लिए भी उत्तरदायी हैं।
  • सामाजिक-आर्थिक विकास: सार्वजनिक संसाधनों के संरक्षक होने के कारण सिविल सेवक प्रशासन के लगभग सभी क्षेत्रों में नेतृत्वकर्ता और निर्णयकर्ता के रूप में कार्य करते हैं।
  • सुशासन की निरंतरता: ये राजनीतिक संक्रमण के दौरान प्रशासन में निरंतरता प्रदान करती हैं।
  • भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में एकसमान प्रशासन और अभिशासन के मानकों को बढ़ावा देना।
  • संकट प्रबंधकर्ता: ये आपदाओं की स्थिति में प्रथम अनुक्रिया प्रदान करती हैं – चाहे प्राकृतिक आपदाएं (भूकंप, चक्रवात) हों या मानव निर्मित (कानून और व्यवस्था)।

प्रायः यह तर्क दिया जाता है कि ‘न्यू इंडिया’ के दृष्टिकोण को समझने के लिए वर्तमान वास्तविकताओं के साथ तालमेल बनाने हेतु हमारी सिविल सेवाओं में सुधार करना महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए:

  • राज्यों को प्रशासित करना किन्तु केंद्र के प्रति उत्तरदायी होना : सिविल सेवक राज्य में सभी महत्वपूर्ण पदों को धारण करते हैं तथापि मुख्य रूप से इन्हें केंद्र द्वारा ही अनुशासित किया जा सकता है। इस व्यवस्था को सहकारी संघवाद और विकेन्द्रीकरण की भावना के अनुरूप परिवर्तित किये जाने की आवश्यकता है।
  • विशेषज्ञता और प्रशिक्षण का अभाव: मूलभूत पाठ्यक्रम व मिड-करियर प्रशिक्षण प्राथमिक रूप से दल भावना (esprit de corps) पर केंद्रित हैं और वर्तमान चुनौतियों को पूरा करने या क्षेत्र-विशिष्ट विशेषज्ञता प्रदान करने के लिए इन्हें पुनर्गठित नहीं किया गया है। परिणामस्वरूप 21वीं शताब्दी की ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था में भी भारत के प्रयासों का नेतृत्व ‘सामान्यज्ञ’ ही करते हैं।
  • अनुच्छेद 311 जैसे संवैधानिक और वैधानिक रक्षोपाय, जो ईमानदार सिविल सेवकों को अनुरक्षण प्रदान करने के लिए बनाए गए हैं, वे अक्षमता एवं निष्क्रियता भी उत्पन्न करते हैं। यह अक्षमता और निष्क्रियता विकास एजेंडे को मंद करती है।
  • एकाधिकार और लाइसेंस-राज: यद्यपि 1991 में आधिकारिक रूप से लाइसेंस राज को समाप्त कर दिया गया था परन्तु यह अन्य रूपों में अभी भी जारी है। यह उदारीकरण के पश्चात भ्रष्टाचार, निम्नस्तरीय जवाबदेही तथा अपर्याप्त संसाधन आवंटन और उपयोग को बढ़ावा देता है। इससे सिविल सेवकों का जनता से अलगाव हो जाता है।
  • राजनीतिक हस्तक्षेप और प्रशासनिक अनुपालन तथा अस्थायी एवं मनमाने ढंग से किये गए स्थानान्तरण, संस्थानीकरण (institutionalization) में अवरोध उत्पन्न करते हैं।

सुधार की आवश्यकता को देखते हुए सरकार ने कुछ सकारात्मक कदम उठाए हैं:

  • अक्षमता के लिए अधिकारियों को बर्खास्त करने हेतु वर्तमान सेवा आचरण नियमों का उपयोग करना।
  • प्रमुख क्षेत्रों में दस विशेषज्ञों की लैटरल एंट्री (पार्श्विक प्रवेश)।
  • प्रौद्योगिकी, आवधिक समीक्षा तथा 360 डिग्री निष्पादन मूल्यांकन के उपयोग के माध्यम से उत्तरदायित्व में वृद्धि।
  • IAS जैसी कुछ सेवाओं के एकाधिकार की समाप्ति और केंद्रीय पोस्टिंगों में अन्य केंद्रीय सेवाओं के साथ न्यायसंगत साझाकरण को बढ़ावा देना।

हालाँकि, व्यापक आलोचना के बावजूद भी सिविल सेवक भारत में परिवर्तन के अग्रदूत रहे हैं।

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