पंथनिरपेक्षता की पाश्चात्य अवधारणा का संक्षिप्त वर्णन : भारतीय पंथनिरपेक्षता, सभी धर्मों के प्रति समान आदर सुनिश्चित करने हेतु राज्य और धर्म के कठोर पृथक्करण के विचार से परे है।
प्रश्न: भारत में पंथनिरपेक्षता, राज्य और धर्म के कठोर पृथक्करण के बजाय सभी धर्मों के प्रति समान आदर के विचार पर आधारित है। आलोचनात्मक चर्चा कीजिए।
दृष्टिकोण
- अंतर-धार्मिक तथा अन्तःधार्मिक समानता के संदर्भ में पंथनिरपेक्षता का आशय स्पष्ट कीजिए।
- पंथनिरपेक्षता की पाश्चात्य अवधारणा का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
- विश्लेषण कीजिए कि किस प्रकार भारतीय पंथनिरपेक्षता, सभी धर्मों के प्रति समान आदर सुनिश्चित करने हेतु राज्य और धर्म के कठोर पृथक्करण के विचार से परे है।
उत्तर
सामान्यत: पंथनिरपेक्षता राज्य से धर्म के पृथक्करण को संदर्भित करती है। यह एक ऐसे समाज के निर्माण का प्रयास करती है जो अंतर-धार्मिक तथा अन्तः-धार्मिक प्रभुत्व से मुक्त है। यह धर्मों के भीतर स्वतंत्रता तथा धर्मों के मध्य एवं उनके भीतर, समानता को प्रोत्साहित करती है।
पंथनिरपेक्षता की पाश्चात्य अवधारणा धर्म और राज्य के पारस्परिक अपवर्जन पर आधारित है। इसके अनुसार राज्य, धर्म के मामले में और धर्म, राज्य के मामले में हस्तक्षेप नहीं करता है। उदाहरण के लिए, राज्य धार्मिक समुदायों द्वारा संचालित शैक्षणिक संस्थानों को वित्तीय सहायता प्रदान नहीं कर सकता। इसी प्रकार, यदि कोई धार्मिक संस्थान किसी महिला के पादरी बनने पर रोक लगता है तो राज्य इस संबंध में कुछ खास नहीं कर सकता।
किन्तु पाश्चात्य पंथनिरपेक्षता के विपरीत भारतीय पंथनिरपेक्षता कठोर पृथक्करण की अवधारणा पर आधारित नहीं है।
भारत में राज्य निम्नलिखित आदर्शों को सुनिश्चित करने हेतु धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप कर सकता है:
- एक धार्मिक समुदाय दूसरे समुदाय पर प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, सरकार द्वारा 6 धार्मिक समदायों को अल्पसंख्यक समुदायों के रूप में मान्यता प्रदान की गई है। वे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 तथा 30 के तहत अल्पसंख्यकों से संबंधित अधिकारों का लाभ उठाते हैं।
- समान धार्मिक समुदाय के कुछ सदस्य अन्य सदस्यों पर प्रभुत्व स्थापित नहीं कर सकते। उदाहरण स्वरुप, भारतीय संविधान ‘निचली जातियों‘ के धर्म-आधारित अपवर्जन तथा भेदभाव को समाप्त करने हेतु अस्पृश्यता को प्रतिबंधित करता है।
भारतीय पंथनिरपेक्षता पाश्चात्य पंथनिरपेक्षता से आधारभूत रूप से भिन्न है क्योंकि यह गहन धार्मिक विविधिता तथा सहिष्णुता की भावना के संदर्भ में उत्पन्न हुई है जो पाश्चात्य आधुनिक विचारों एवं राष्ट्रवाद के आगमन से पूर्व घटित हुई थी। जैसा कि संविधान के भाग तीन में प्रतिष्ठापित किया गया है, भारतीय पंथनिरपेक्षता न केवल धर्म के राज्य से पृथक्करण पर बल्कि अंतर-धार्मिक समानता के विचारों पर भी ध्यान केन्द्रित करती है।
हालांकि, पाश्चात्य अवधारणा के विपरीत भारत में राज्य किसी विशेष धर्म को प्रवर्तित नहीं करता और न ही व्यक्तियों की धार्मिक स्वतंत्रता का अतिक्रमण करता है। भारतीय पंथनिरपेक्षता में राज्य को धर्म से कठोरतापूर्वक पृथक नहीं किया गया है, अपितु यह धर्म के विषय में एक सैद्धांतिक दूरी बनाए रखता है। इसका अर्थ है कि राज्य द्वारा धार्मिक मामलों में किया गया कोई भी हस्तक्षेप संविधान में निर्धारित आदर्शों पर आधारित होना चाहिए। यही कारण है कि सरकारी कार्यालय जैसे कि न्यायालय, पुलिस स्टेशन इत्यादि द्वारा किसी भी धर्म को प्रदर्शित या प्रोत्साहित किया जाना अपेक्षित नहीं है।
इस प्रकार, भारतीय पंथनिरपेक्षता ने धार्मिक समानता के अनुसरण में बहुत ही प्रगतिशील नीति को अंगीकृत किया है। यह इसे या तो पाश्चात्य पंथनिरपेक्षता की भांति धर्म से पृथक होने या आवश्यकतानुसार इसके साथ संलग्न होने की अनुमति प्रदान करती है।
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