“अंधेरे में” कविता का विश्लेषण

  • यह इकाई मुक्तिबोध की सबसे महत्वपूर्ण और लंबी कविता “अंधेरे में” के विश्लेषण से संबंधित है। इस इकाई का अध्ययन करने के बाद आप :
    “अंधेरे में’ कविता के कथ्य को समझ पाएँगे, 
  • “अंधेरे में’ कविता का विश्लेषण कर पाएँगे
  • मुक्तिबोध की काव्यगत विशेषताओं से भी परिचित हो सकेंगे

इस इकाई से पूर्व की दो इकाइयों में हमने क्रमश: “मुक्तिबोध की जीवन दृष्टि और रचना-प्रक्रिया” तथा ‘फैंटेसी” के शिल्प के संदर्भ में उनकी काव्यगत विशेषताओं पर विस्तार से विचार कर लिया है। यहाँ हम ‘अंधेरे में ‘ कविता की विशेषताओं पर विचार-विमर्श करेंगे। यह कविता मुक्तिबोध की सर्वाधिक चर्चित कविता है। अत: इसके विवेचन-विश्लेषण में भी पर्याप्त मतभेद दिखायी देता है।

मक्तिबोध की अधिकांश कविताओं में आत्म-संघर्ष से आत्म-साक्षात्कार और फिर जगत-साक्षात्कार की प्रक्रिया का अत्यंत स्पष्ट संकेत मिलता है। उनके यहाँ आत्म-संघर्ष नयी कविता के अधिकांश कवियों से भिन्न एक निश्चित उद्देश्य से प्रेरित है। इसके अन्तर्गत अपने अंतर-बाह्य का व्यापक सर्वेक्षण ही नहीं, “आत्म’ का संशोधन-संपादन अर्थात् आत्मालोचन का स्वर भी प्रमुखता से उपलब्ध होता है, जो. अन्तत: आत्मविस्तार-संस्कार से लेकर सामाजिक साक्षात्कार की ओर उन्मुख हो जाता है। इस • “आत्म” को कहीं वे “मैं” और “वह’ में विभक्त करते हैं तो कहीं अन्तरमन और बाह्य मन के द्वन्द्व के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जो द्वन्द्व सामाजिक अन्तर्विरोधों के द्वंद्व का एक अनिवार्य अंग बन जाता है। आपके पाठ्यक्रम में निर्धारित “भूल गलती”, “ब्रह्मराक्षस”, “चकमक की चिनगारियाँ”, “ओ काव्यात्मन् फणिधर’ आदि के अलावा “अंधेरे में’ कविता के अन्तर्गत भी उक्त तथ्य को लक्षित किया जा सकता है। “भूल गलती’ का ‘वह” “कैद कर लाया गया ईमान” है, जो “जिंदगी की शर्म की सी शर्त को नामंजूर कर’ अपनी “खुद-मुख्तारी” का (स्वतंत्रचेता होने का) परिचय देता है, जिससे “मैं” के संभल कर जागने की क्रिया सम्पन्न होती है। इस कविता में “वह’ को “संकल्पधर्मा चेतना का रक्त प्लावित स्वर’ और “हमारे ही हृदय का गुप्त स्वर्णाक्षर” के रूप में प्रस्तुत किया गया है। “चकमक की चिनगारियाँ” में मुक्तिबोध ने “वह” को ‘गुप्त मन” या अन्तरात्मा का प्रतिनिधि माना है, जो अन्त:करण की “अंधेरी दूरियों से उभर कर दुनियादार मन ”मैं’ की “कनपटी पर जोर का । आघात कर” उसे आगाह करता है कि “अरे’ कब तक रहोगे आप अपनी ओट, कहाँ मिल पाओगे उनसे कि जिनमें जनम ले निकले।’ इससे स्पष्ट है कि मुक्तिबोध के यहाँ आत्म संघर्ष-आत्मबद्धता की दशा के परिहार के लिए है, “आत्म” के समाजीकरण के उद्देश्य से है। “ब्रह्मराक्षस’ का ”वह’ स्वयं ब्रह्मराक्षस है, जो “अंधेरी बावड़ी की घनी गहराइयों में” आत्मशोध करते हुए ”मैं” को अपना “सजल उर शिष्य बनने के लिए विवश करता है।

उपर्युक्त कविताओं के “मैं” और “वह’ के संदर्भ को यदि ध्यान में रखें तो आप के सामने ‘अंधेरे में’ कविता के “मैं’ और ‘वह’ की स्थिति स्पष्ट हो जाएगी। वस्तुत: इस कविता में ”वह’ के माध्यम से ”मैं” के बाह्यीकरण और ”मैं’ के माध्यम से “वह” के अभ्यंतरीकरण की प्रक्रिया का विस्तृत उद्घाटन हुआ है। इस कविता में यह प्रक्रिया अत्यंत उलझी हुई है, जो एक विशाल सामाजिकराजनीतिक पटल पर फैंटेसी के शिल्प में प्रस्तुत की गई है। लेकिन “चकमक की चिनगारियाँ’ में यह प्रक्रिया अपेक्षाकृत अधिक सरल और स्पष्टता के साथ इस प्रकार अंकित हुई है :

“अरे। जन-संग ऊष्मा के

बिना, व्यक्तित्व के

स्तर जुड़ नहीं सकते।

तुम्हारी मुक्ति उनके

प्रेम से होगी।

कि अपनी मुक्ति के रास्ते।

अकेले में नहीं मिलते।’

यहाँ “वह” के रूप में गुप्त मन का (अंतरात्मा का) ‘मैं’ के लिए निर्देश प्रस्तुत किया गया है। फलस्वरूप ‘मैं” अपनी मध्यवर्गीय सीमाओं का अतिक्रमण कर व्यक्तित्वांतरण की विधि का इस प्रकार आश्रय लेता है :

“कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में

उमग कर

जन्म लेना चाहता फिर से

कि व्यक्तित्वांतरित होकर

नये सिर से समझना और जीना

चाहता हूँ सच।”

अपने व्यक्तित्व का रूपान्तरण ही “फिर से जन्म लेना” है। ऐसी स्थिति में पहँच कर ही सच को, वास्तविक यथार्थ को (जिसकी प्रकृति मूलत: सामाजिक होती है) ठीक से समझा और जिया जा सकता है। यहाँ “समझना” और “जीना” दो अलग क्रियाएँ हैं। सच को समझ कर भी उसे जीना, जीवन में उतार लेना आवश्यक नहीं। “अंधेरे में” कविता का काव्य-नायक “मैं’ ‘वह” की आहट सुनता है, देख लेता है, जान और पहचान भी लेता है, लेकिन आरंभ में अपनी मध्यवर्गीय सीमाओं के कारण “वह’ द्वारा प्रस्तुत सच्चाई को जीने से आनाकानी करता है। अन्तत: “वह” के वर्चस्व को स्वीकार कर उसका अनुशासित शिष्य बन जाता है।

मुक्तिबोध के यहाँ व्यक्तित्वांतरण आत्म-साक्षात्कार का अनिवार्य सोपान है और आत्म-साक्षात्कार अपनी सामाजिक अस्मिता (आयडेण्टिटी) का साक्षात्कार है, जो व्यक्ति के समाजीकरण का मार्ग प्रशस्त करता है। इसलिए उन्होंने काव्य को केवल व्यक्तिगत प्रक्रिया न मानकर, सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया भी माना है, जिसमें सामाजिक-सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के साथ ही आत्म-संस्कार भी निहित है। यह आत्म-संस्कार आत्म विस्तार के साथ ही बृहत्तर समाज के साथ व्यक्ति का तादात्म्य करता है। “अंधेरे में’ कविता के अन्तर्गत “मैं’ की आत्मबद्धता ‘वह’ के संपर्क से टूटती है और जन के साथ एकीकृत होकर “मैं” जनक्रांति की अनिवार्यता का अनुभव करता है। वर्तमान पूंजीवादी सत्ता और उसकी आतंककारी व्यवस्था से सामान्य जन की मुक्ति उसका उच्च मानवीय आदर्श बन जाता है, अतः सामान्यजन की मुक्ति की कठोर शर्त पर अपनी मुक्ति की संभावना “अंधेरे में’ कविता का मूल प्रतिपाद्य माना जा सकता है। लेकिन इस प्रतिपाद्य तक पहुंचने के लिए कविता में आत्म-निरीक्षण परीक्षण से लेकर व्यापक सामाजिक-राजनीतिक सर्वेक्षण तक का सहारा लिया गया है। इसलिए यह कविता स्वातंत्रयोत्तर भारतीय सामाजिक-राजनीतिक जीवन का एक कलात्मक दस्तावेज बन गयी है। इस तथ्य को “अधेरे में” कविता के विवेचन-विश्लेषण द्वारा आप अच्छी तरह समझ सकते हैं।

“अंधेरे में’ विश्लेषण

अंधेरे में कविता का आरंभ अत्यंत नाटकीय और रहस्यात्मक ढंग से फैंटेसी के सहारे ”मैं’ के रूप में एक मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी की इस चिंता से होता है :

“जिंदगी के …..|

कमरों में अंधेरे

लगाता है चक्कर।

कोई एक लगातार,

आवाज पैरों की देती सुनाई

बार-बार …

वह नहीं दीखता..

किंतु रहा घूम

तिलस्मी खोह में गिरफ्तार कोई एक

अस्तित्व जनाता

अनिवार कोई एक

और मेरे हृदय की धकधक

पूछती है – वह कौन ।

सुनाई जो देता, पर नहीं देता दिखायी।”

यहाँ काव्य-नायक या वाचक ”मैं” के साथ “कोई एक” की स्थिति स्पष्ट है। लेकिन “मैं’ और “वह” की वास्तविक स्थिति की जानकारी आपको तब तक नहीं हो सकती जब तक अंधेरे कमरों या तिलस्मी खोह के मूल आशय को नहीं समझ लेते। वस्तुत: यहाँ ‘अंधेरे कमरे’ या “तिलस्मी खोह” अपना ही अन्तर्जगत है, जहाँ “कोई एक” या “वह’ के रूप में अपना ही अंत:संवेदन या संवेदनात्मक उद्देश्य कैद है। सोलहवीं इकाई में, रचना-प्रक्रिया के संदर्भ में आपके सम्मुख इसकी भूमिका को विस्तार से स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। इसके संबंध में मुक्तिबोध ने अपने “नये साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र’ शीर्षक ग्रंथ में लिखा है कि “संवेदनात्मक उद्देश्य विद्युत की वह धारा है, जो अन्तर्व्यक्तित्व से प्रसूत होकर जीवन-विधान करती है, अभिव्यक्ति-विधान करती है। आत्मचरितात्मक और सृजनशील ये संवेदनात्मक उद्देश्य हृदय में स्थित जीवन अनुभवों को संकलित कर उन्हें कल्पना के सहयोग से उद्दीप्त और मूर्तिमान करते हुए एकं ओर प्रवाहित कर देते हैं।’ (पृ0 95) प्रस्तुत काव्यांश में संवेदनात्मक उद्देश्य से प्रेरित ”मैं” का अन्तर्गमन होता है, जहाँ वह अपने “स्व” के, अपने ‘अहं’ के दायरे से मुक्त होकर आत्म साक्षात्कार करता है। मुक्तिबोध के यहाँ आत्म-साक्षात्कार आत्म-सत्य से साक्षात्कार है। सच्चा कलाकार आत्म-सत्य का अन्वेषण अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों में ही नहीं, वरन् उन अनुभूतियों के मूलों (स्रोतों) में करता है, जो समाज और संस्कृति की परम्परा में समायी रहती हैं। आत्मान्वेषण, आत्म-साक्षात्कार और फिर जगत-साक्षात्कार की यह प्रक्रिया इस कविता में आरंभ से अंत तक दिखायी देती है।

प्रस्तुत काव्यांश में जिंदगी के अंधेरे कमरों में चक्कर लगाने वाले के पैरों की आवाज़ मात्र सुनाई देती है, वह स्वयं दिखायी नहीं देता। और अधिक अंतर्मथन के बाद उभरते हुए चेहरे, नुकीली नाक, भव्य ललाट, दृढ़ हनु (ठुड्डी) आदि के साथ उसकी आकृति भी दिखायी देती है, लेकिन जो पहचान में नहीं आती। इसके लिए काव्यनायक का प्रश्न होता है, “कौन मनु ? यहाँ विचारणीय है कि यह मनु कौन है? पूरी कविता में “वह की स्थिति को देखते हुए निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है यह “कामायनी” का प्रसादकृत मनु न होकर मुक्तिबोध का ही मनु (मन) है, जो सामान्यीकृत होकर जन-जन का भी मन है। ‘कामायनी’ के मनु की अहंग्रस्तता से मुक्त होकर यह पूरी तरह जनोन्मुख मनु है और काव्य नायक “मैं” को भी जनोन्मुख बनाता है। “वह’ मुसकरा कर अपनी पहचान भी बताता है, फिर भी काव्य-नायक “मैं’ समझ नहीं पाता| कविता के तीसरे बंद में तिलस्मी खोह का शिलाद्वार एक झटके के साथ खुल जाता है और अंधेरे के बावजूद लाल-लाल मशाल के प्रकाश में रक्तालोक में नहाया हुआ दिव्य-पुरुष साक्षात रहस्य के रूप में प्रकट हो जाता है। यहाँ भी “वह पहचाना तो जाता है लेकिन समझ में नहीं आता”| चौथे बंद में भी ”मैं’ को अपने संभावित स्नेह के समान गौर वर्ण, भव्य ललाट, प्रकाश युक्त नेत्र और सौम्य मुख वाले व्यक्ति को देखकर विलक्षण आशंका और गहन संदेह बना ही रहता है।

प्रथम खंड

इस आशंका और संदेह के बाद प्रथम खंड के पाँचवें बंद में वह रहस्यमय व्यक्ति ”मैं” की समझ में आ जाता है :

“वह अब तक न पायी गयी मेरी अभिव्यक्ति है,

पूर्ण अवस्था वह

निज संभावनाओं, निहित प्रभावों, प्रतिमाओं की

मेरे परिपूर्ण का आविर्भाव

हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव वह

आत्मा की प्रतिभा।”

इससे ”मैं’ के साथ “वह’ का रिश्ता स्पष्ट हो जाता है। यहाँ ‘वह’ के लिए प्रयुक्त सारी संज्ञाएं ”मैं’ के लिए विशेषण के रूप में आयी हैं। मुक्तिबोध के यहाँ यही आत्म-साक्षात्कार है, जिसमें ”मैं’ और ‘वह’ का द्वैत समाप्त हो जाता है, अन्तरमन और बाह्यमन में एक रागात्मक संबंध स्थापित हो जाता है। लेकिन यह कोई स्थायी स्थिति नहीं है। इसके लिए निरंतर आत्म-संघर्ष करना पड़ता है, अपने आत्म (बाहरी और भीतरी दोनों) का संशोधन-संपादन, काट-छाँट करते रहनी पड़ती है। ऐसा न होने पर ”मैं” जो समझौता परस्त और दुनियादार भी होता है, “वह’ से द्वैत भी स्थापित कर सकता है। इसका संकेत पाँचवें बंद की अंतिम पंक्तियों में इस प्रकार हुआ है :

“प्रश्न थे गंभीर

शायद खतरनाक भी ।

इसीलिए बाहर के गुंजान

जंगलों से आती हई हवा ने

फूंक मार एका-एक मशाल ही बुझा दी

कि मुझको यों अंधेरे में पकड़ कर

मौत की सज़ा दी।’

“मैं” और “वह’ की एकीभूत स्थिति से कुछ ऐसे गंभीर और खतरनाक प्रश्न सामने आते हैं, जिनसे ”मैं’ बचना चाहता है। अत: “बाहर के गुंजान जंगल से आती हुई हवा” से संवेदनात्मक ज्ञान की मशाल बुझ जाती है और ”मैं” फिर आत्मस्थ (अपने “स्व” के दायरे में कैद) हो जाता है। यहाँ जंगल की हवा, बाहर की दुनिया के, समझौतापरस्ती के तकाज़े हैं, जो ”मैं’ को अपने “निज” के दायरे से बाहर नहीं जाने देते। लेकिन प्रखर आत्मालोचन वाले ”मैं’ के लिए अपने में बंद रह पाना सर्वथा संभव नहीं हो पाता। इस तथ्य का उद्घाटन प्रस्तुत कविता के दूसरे खंड में होता है।

दूसरा खंड

अपने आप में बंद काव्य-नायक “मैं” के सूनेपन में एक सिहरन से कविता के दूसरे खंड का आरंभ होता है। “अंधेरे में ध्वनियों के बुलबुले -स्वर की सलवटें उभरती हैं, जो अत्यन्त मीठी किंतु दुःसह हैं।” काव्य-नायक ‘मैं’ को लगता है कि कोई बाहर दरवाजे पर दस्तक दे रहा है, जो “मेरी ही किसी महत्वपूर्ण बात को मुझे बताने के लिए बुला रहा है। ”मैं” को जिज्ञासा होती है कि आखिर वह कौन है, जो आधी रात के अंधेरे में मिलने आया है। उसके आग्रह अनुरोधों से ”मैं” को पता लग जाता है कि “यह वही व्यक्ति है, जो मुझे तिलस्मी खोह में मिला था।’ काव्य-नायक ”मैं’ की सुविधाओं का तनिक भी ख्याल किए बिना, वह समय-असमय उपस्थित होता रहता है, समझाता है, हृदय को बिजली के झटके देता है। उसे देख कर काव्य-नायक के हृदय में प्यार उमड़ आता है और वह चाहता है :

“दरवाजा खोल कर बाहों” में कस लूँ

हृदय में रख लूँ

घुल जाऊं मिल जाऊं, लिपट कर उससे”

लेकिन अपनी मध्यवर्गीय स्थिति और दुनियादारी के दबावों में वह ऐसा नहीं कर पाता। उसकी इस विवशता को कोष्ठक में स्पष्ट करते हुए कवि ने लिखा है :

“(यह भी तो सही है कि

कमज़ोरियों से ही लगाव है मुझको)। 

इसीलिए टालता रहता हूँ उस मेरे प्रिय को

कतराता रहता,

डरता है उससे”

क्योंकि वह “ऊंचे शिखर के खतरनाक कगार पर बैठा कर’

आदेश देता है कि ”पार करो पर्वत-संधि के गह्वर

रस्सी के पुल पर चल कर

दूर उस शिखर कगार पर पहुँचो।”

इस कठिन उत्तरदायित्व के निर्वाह से घबरा कर काव्य-नायक “मैं” एक क्षण के लिए सोचता है :

“बजने दो सांकल

वह जन वैसे ही चला जाएगा,

आया था जैसे।’

लेकिन यह मनोदशा क्षणिक सिद्ध होती है। दूसरे क्षण “मैं निश्चय करता है कि “नहीं’ नहीं उसको मैं छोड़ नहीं सकूँगा। सहना पड़े मुझे चाहे जो भले ही। क्योंकि उस महान प्रकाशमान पुरुष, आत्मा की प्रतिभा द्वारा की गयी जगत-समीक्षा, उसका विवेक-विक्षोभ, उसके द्वारा तैयार किया गया उज्ज्वल भविष्य का नक्शा “मैं’ को बराबर बेचैन करता है। अत: आत्म-चेतस ”मैं” को जंग खायी हुई सिटकनी को जबरन खोलकर केवल बाहर झांकने मात्र से “उस अपने प्रिय’ का साक्षात्कार संभव नहीं है। अत: उसे बाहर सूना ही नजर आता है, “बाहर कोई नहीं, कोई नहीं बाहर।”

कविता के दूसरे खंड के अंतिम बंद में अंधियारे सूने में रात का पक्षी-चीख कर कहता है :

“वह चला गया है

वह नहीं आएगा 

अब तेरे द्वार पर

वह निकल गया है

गाँव में, शहर में।

उसको तू खोज अब

उसका तू शोध कर

वह तेरी पूर्णतम परम अभिव्यक्ति,

उसका तू शिष्य है (यद्यपि पलातक)।

वह तेरी गुरु है. गुरु है…!”

यहाँ रात के पक्षी की आवाज़ वह ज्ञानात्मक संवेदन है, जो रहस्य पुरुष “वह’ द्वारा की गयी जगत समीक्षा और भविष्य के नक्शे से ”मैं’ को प्राप्त हुआ है। यह ज्ञानात्मक संवेदन “मैं’ को व्यक्तिवादी आत्म-संघर्ष से हटाकर सामाजिक संघर्ष का स्वप्न प्रदान करता है। अत: उसे अपनी “पूर्णतम परम अभिव्यक्ति’ के लिए “तिलस्मी खोह” (आत्मबद्धता) से निकल कर व्यापक समाज के मध्य आना पड़ता है और जनजीवन को समझ कर उसके संघर्ष में कल्पनाशील सहानुभूति के माध्यम से भागीदार बनना पड़ता है।

तीसरा खंड

कविता के तीसरे खंड में समकालीन वास्तव से जुड़कर फैंटेसी एक नया मोड़ लेती है। “मैं’ अपने अंधेरे कमरे से निकल कर बाहर गैलरी में आता है। वहाँ उसे समकालीन सामाजिक यथार्थ, उसके आतंककारी स्वरूप का अहसास होता है। अपने सिविल लाइंस के कमरे में पड़ा हुआ ‘मैं” स्वयं को एक विचित्र स्थिति में पाता है :

‘पीटे गए बालक सा मार खाया चेहरा .

…. स्लेट-पट्टी पर खींची गयी तसवीर

भूत जैसी आकृति

क्या वह मैं हूँ

मैं हूँ।

वह खिड़की खोलकर ”किसी अनपेक्षित-असंभव घटना” के भयावह संदेह से ग्रस्त हो जाता है। तभी उसे “सहसा तालस्ताय या तॉलस्तायनुमा कोई व्यक्ति दिखायी देता है, जो उसके ”अपने भीतरी धागे का आखिरी छोर’ या ‘अनलिखे उपन्यास का केंद्रीय संवेदन दबी हाय-हाय नुमा” – प्रतीत होता है। यहाँ तॉलस्ताय के गहन अनुभव को वह अपना केंद्रीय संवेदन बना कर उनकी मानवतावादी परम्परा की प्रेरणा से समाज के साक्षात्कार की ओर उन्मुख होता है। इस प्रक्रिया में उसे वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था के क्रूरतम फ़ासिस्ट रूप का साक्षात्कार होता है। उसे “नगर के मध्य रात्रि-अंधेरे के सुनसान में किसी प्रोसेशन के साथ बैण्ड-दल की आवाज़ निकट आती हुई सुनाई देती है और अधिक निकट आने पर वह जुलूस किसी “मृत्युदल की शोभा यात्रा’ में बदल जाता है।

वस्तुत: यह प्रोसेशन वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के फासिस्ट रूप के अत्यंत क्रूर और अमानवीय स्वरूप का यथार्थ चित्र है। आधी रात के इस जुलूस में बैण्ड दल, कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल, सेनापति के साथ ही बहुत सारे कवि, आलोचक, पत्रकार, मंत्री, उद्योगपति, विद्वान आदि ही नहीं, वरन् शहर के माफिया ग्रुप का सरगना कुख्यात हत्यारा डोमाजी उस्ताद भी सम्मिलित है। इस जुलूस में सम्मिलित लोगों के यथार्थ चरित्र का पर्दाफाश करते हुए काव्य-नायक के माध्यम से मुक्तिबोध ने लिखा है :

“गहन मृतात्माएँ इसी नगर की

हर रात जुलूस में चलतीं,

परन्तु दिन में

बैठती हैं मिलकर, करती हुई षडयंत्र

विभिन्न दफ्तरों-कार्यालयों, केन्द्रों,घरों में।’

पूँजीवाद-समर्थक व्यवस्था के अमानवीय-चरित्र को बेनकाब करते हुए यहाँ मुक्तिबोध ने उसकी तामझाम में कैद कवि-कलाकारों, बुद्धिजीवियों, चिन्तकों-आलोचकों, पत्रकारों की हीनतर स्थिति को भी रेखांकित किया है। इसे बेनकाब करने वाले चिंतकों को क्रूर व्यवस्था की जिस यातना से . गुज़रना पड़ता है, उसका भी यथार्थ अंकन इस कविता के छठे खंड में हुआ है। इस बंद के अंत में उस यातना का आभास मात्र ”मैं” को होता है :

“हाय-हाय। मैंने उन्हें देख लिया नंगा

इसकी मुझे सजा मिलेगी।”

चौथा खंड

कविता के चौथे खंड में काव्य-नायक “मैं’ की एक नयी यात्रा आरंभ होती है। इसमें वह एक ओर “मार्शल ला” लगे नगर में “दम छोड़ भागता है तो दूसरी ओर जमाने का निरीक्षण-परीक्षण भी करता है। इस क्रम में उसे नगर के चौराहे पर खड़ा विशालकाय बरगद दिखायी देता है, जो “समस्त गरीबों और वंचितों का आश्रय-स्थल है। वहाँ काव्य-नायक “मैं’ की पुन: ”वह” से भेंट होती है, जो “तिलस्मी खोह’ से भागकर नगरों-गावों में लोगों के बीच चला गया था। इससे स्पष्ट है कि विशालकाय बरगद साधारणजन की वर्गीय चेतना का प्रतीक है। इस खंड के तीसरे बंद में ”वह” को “सिरफिरा पागल’ की संज्ञा दी गयी है। लेकिन यह सिरफिरा पागल कोई और नहीं संवेदनात्मक उद्देश्य है, जिसे नगर के सैनिक प्रशासन की चिंता नहीं है। अत: उसे यहाँ “जागरित बुद्धि, प्रज्ज्वलित धी (विवेक) की भी संज्ञा दी गयी है। वह आत्म-साधना के नाम पर समस्त सुख सुविधाओं का भोग करने के बाद भी अनात्म बन जाने वाले मध्यवर्गी बुद्धिजीवियों के साथ ही “मैं’ को अपनी निस्संगता और आत्मलीनता के लिए धिक्कारता हुआ करूणापूर्ण रसाल गीत गाता है :

“ओ, मेरे आदर्शवादी मन ।

ओ, मेरे सिद्धान्तवादी मन

अब तक क्या किया?  जीवन क्या जिया?

ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम

मर गया देश अरे, जीवित रह गए तुम …।”

वस्तुत: पागल के गीत का यह अंश काव्य-नायक “मैं” की व्यक्ति बद्धता पर ही कटाक्ष न होकर तत्कालीन नयी कविता के तथाकथित कवियों-चिन्तकों के मध्यवर्गीय निस्संग चरित्र पर भी गहरा कटाक्ष है। इसे नयी कविता का मुक्तिबोध कृत आलोचनाशील (क्रिटीक) भी माना जा सकता है। समाज से समुचित पोषण प्राप्त कर अनात्म बन जाना, भूतों की शादी में कनात सा तनना है। अर्थात् भ्रष्टाचार और शोषण पर परदा डालना है। किसी भ्रष्टाचारी का बिस्तर बनना, उसके मार्ग को सुगम करना है। अपने निजी दुखों को तमगे (विजय चिह्न) की तरह प्रदर्शित करना, रात-दिन अपने ख्यालों में डूबे रहना, असंग बुद्धि और एकाकीपन को गौरवान्वित करना ज़िंदगी को निष्क्रिय तलघर बनाना है। लोक-हित रूपी लोहित पिता और जन-मन की करुणा के समान माता को घर से (हृदय) निकाल देना आत्मबद्धता की चरम अमानवीय परिणति है, जो अपने कीचड़ में ही डुबो देती है। भावना से कर्तव्य को हटा देना, हृदय के रागात्मक मन्तव्यों को मार डालना, अपने आप की हत्या करना है। इस प्रकार यह गीत मात्र आत्मप्रतारणा ही न होकर तत्कालीन नयी भावधारा की आत्मघाती प्रवृत्ति के प्रति मुक्तिबोध की तीव्र मानसिक प्रतिक्रिया भी है।

सिरफिरे पागल का अत्यंत उदबोधमय गीत काव्य-नायक में गहरी बेचैनी पैदा करने के साथ ही उसे आत्मलोचन और अपराध-बोध की ओर उन्मुख करता है। उसे लगता है :

“मानो मेरी ही निष्क्रिय संज्ञा ने संकट बुलाया .

..आज उस पागल ने मेरी चैन भुला दी।”

वस्तुत: यह पागल “मैं” का ही अंत:स्थित संवेदन है :

“व्यक्तित्व अपना अपने से खोया हुआ

वही अकस्मात मिला था

रात में पागल था दिन में।’

इस पागल को ही कविता के पहले खंड में “रक्तालोक स्नात पुरुष, अपने परिपूर्ण का आविर्भाव”, ‘आत्मा की प्रतिभा”, “ज्ञान का तनाव’ आदि संज्ञाओं से अभिहित किया गया है।

 पाँचवा खंड

कविता के पाँचवे खंड में बरगद के नीचे स्थित काव्य-नायक के कंधे पर एक बरगदपात टूट कर गिरता है, जिससे वह चौंक जाता है। उसे लगता है कि जैसे किसी ने उसके कंधे पर हाथ रख कर एक इशारा या संकेत किया है। इस संकेत से प्रेरित होकर काव्य-नायक :

‘भागता है दम छोड़

घूम गया कई मोड़।”

इस क्रम में वह अपनी आंतरिक गुहा में पहुँच जाता है, उसका अंतर्गमन होता है। वहाँ उसे अपने अनुभव-विवेक, वेदना-निष्कर्ष से परिपूर्ण प्रकाशमान मणियाँ, रेडियो-एक्टिव रत्न दिखायी पड़ते हैं। वस्तुत: ये सब उसी के अपने महत्वपूर्ण अनुभव, जो अंत:करण में संचित हैं, जिनका अब तक कोई उपयोग नहीं हो सका है।

छठा खंड

कविता का छठा खंड काव्य-नायक की इस चिंता से आरंभ होता है कि उसने अपनी अमूल्य रत्न राशि अर्थात् महत्वपूर्ण जीवनानुभवों को :

“गुहावास दे दिया।

लोक-हित क्षेत्र से कर दिया वंचित

जनापयोग से वर्जित कर

खोह में डाल दिया”

अब उन्हें लेकर वह कर्तव्य-पथ पर अग्रसर होता है – “यह न समय है, जूझना ही तय है।” यहाँ से फैंटेसी एक नया मोड़ लेती है। जमाने का निरीक्षण-परीक्षण करते हुए काव्य-नायक तिलक की पाषाणमूर्ति के निकट पहुँचता है, इसके बाद उसकी भेंट अति दीन-दशा में पहुँचे महात्मा गांधी से होती है। मुक्ति संग्राम के इन दोनों योद्धाओं के सकारात्मक तत्वों को ग्रहण कर काव्य-नायक को एक नयी ऊर्जा मिलती है, जिसे वह व्यापक जनमुक्ति के मार्ग का पाथेय बनाता है। वर्तमान स्थिति को देखकर इन दोनों सेनानियों के हृदय पर कैसा आघात लगा है, इसका खुलासा करते हुए काव्य-नायक के माध्यम से मुक्तिबोध ने पहले तिलक के संबंध में लिखा है :

“भव्य ललाट की नासिका में से

बह रहा खून जाने कब से

मानो कि अतिशय चिन्ता के कारण

मस्तक-कोष ही फूट पड़े सहसा

‘ तिलक की मूर्ति को सान्त्वना प्रदान करते हुए काव्य-नायक कहता है :

“हाय-हाय, पित: पित: ओ

चिन्ता में इतने न उलझो

हम अभी ज़िन्दा हैं, ज़िन्दा।”

और आगे बढ़ने पर काव्य-नायक को सर्दी में बोरा ओढ़ ठिठुरते-कांपते हुए गांधी जी मिलते हैं, जो कहते हैं :

“भाग जा, हट जा

हम हैं गुज़र गये जमाने के चेहरे

आगे तू बढ़ जा”

जनता के गुणों से ”भावी के उद्भव” की शिक्षा देते हुए अपने बाजू में चुपचाप सोये हुए शिशु को गांधी जी काव्य-नायक के हवाले करते हुए कहते हैं :

”मेरे पास चुपचाप सोया हुआ यह था

संभालना इसको सुरक्षित रखना”

इससे स्पष्ट है कि गांधीवादी दर्शन और उनकी अहिंसावादी नीति अब “गुज़र गए ज़माने की बात है। यहाँ गांधी की गोद में सोया हुआ शिशु भारतीय जन-गण का भविष्य है, जिसे सुरक्षित रखने और आगे बढ़ाने का दायित्व काव्य-नायक को मिलता है।

काव्य-नायक के कंधे पर स्थित शिशु फूलों का गुच्छा बन जाता है, एक दम हलका और प्रिय। उसे लेकर जब वह गलियों में पहुँचता है तब पुष्प-गुच्छ कंधे पर वजनदार रायफल में बदल जाता. है। अहिंसा का स्थान सशस्त्र क्रांति ले लेती है। शिशु के इस रूपान्तरण से काव्य-नायक का भी व्यक्तित्वान्तरण होता है। उसका मध्यवर्गीय विशुद्ध कलाकार मर जाता है :

“ओफ्फो !!

एकान्त प्रिय यह मेरा

परिचित व्यक्ति है

वही हाँ,

सचाई थी सिर्फ एक अहसास

पर कार्यक्षमता से वंचित व्यक्ति

…संदेहास्पद समझा गया और मारा गया बधिकों के हाथ।”

मुक्तिबोध का यह विश्वास कई स्थलों पर व्यक्त हुआ है कि युग-संधि पर कलाकार नहीं कार्यकर्ता पैदा होते हैं। यहाँ काव्य-नायक कलाकार से कार्यकर्ता बन जाता है। क्रांतिकारी कार्यकर्ता के साथ पूँजीवादी व्यवस्था जैसा बर्ताव करती है, वह काव्य-नायक के साथ भी होता है। जिस क्षण वह निर्णय करता है:

“फिजूल है इस वक्त कोसना खुद को

एकदम ज़रुरी दोस्तों को खोजें

पाऊं मैं नये-नये सहचर’

85

प्रगतिशील काव्य

इसके तुरंत बाद वह आततायी सत्ता के सम्मुख चारों तरफ अपने को घिरा पाता है। उसे यातना-कक्ष में ले जाया जाता है, जहाँ :

“टूटे से स्टूल में बिठाया गया है

शीश की हड्डी जा रही तोड़ी।

X X X X

शीश का मोटा अस्थि-कवच ही निकाल डाला

देखा जा रहा –

मस्तक-यंत्र में कौन-कौन विचारों की कौन सी ऊर्जा

X X X X

कहाँ-कहाँ क्षोभक-स्फोटक सामान ..

.तलघर अंदर

छिपे हुए प्रिंटिंग प्रेस को खोजो

जहाँ कि चुपचाप ख्यालों के परचे

छपते रहते हैं, बांटे जाते हैं

इस संस्था के सेक्रेटरी को खोज निकालो

शायद, उसका ही नाम हो आस्था

कहाँ है सरगना इस टुकड़ी का

कहाँ है आत्मा? .

..स्क्रीनिंग करो मिस्टर गुप्ता

क्रास एक्जामिन हिम थारोली।”

यहाँ मुक्तिबोध ने पूँजीवादी सत्ता के अमानवीय हथकंडों का प्रतीकात्मक-बिम्बात्मक संकेत मात्र प्रस्तुत किया है। वह वैचारिकता से लेकर आस्था और आत्मा तक को रौंदते हुए चिंतकों, बुद्धिजीवियों और कलाकारों को अपना अनुचर बना लेती है। लेकिन यह भी सही है कि एक दृढ़ निश्चयी चिंतक को अपना अनुचर बनाने में वह अपने समूचे प्रयास के बावजूद असफल सिद्ध होती है। ऐसे चिंतक और विचारक उसके हर मायावरण के जाल को छिन्न-भिन्न कर उसके चरित्र को बेनकाब करने में सफल भी हुए हैं। इस कविता में भी भयानक यातना आत्मा को खरीद नहीं पाती, उसे कुचल नहीं पाती, “यह आत्मा बहुत कुशल है। वह समूची आंतरिक संवेदना को एकत्र कर अंतत: बाह्य जगत में फैलाने में सफल हो जाती है। यही कवि का आस्थावादी स्वर है, जो उसे लक्ष्योन्मुख बनाता है।

सातवाँ खंड

कविता का सातवां खंड यातना-गृह से काव्य नायक की रिहाई से आरंभ होता है। इसके दूसरे बंद में “मुझे अब खोजने होंगे साथी’- की समस्या को सुलझाने के लिए ”मैं” बाहर की ओर नहीं अपने भीतर की ओर उन्मुख होता है :

“काले गुलाब और स्याह सिवन्ती

स्याम चमेली

संवलाए कमल जो खोहों के जल में

 भूमि के भीतर पाताल तल में

खिले हुए कब से भेजते हैं संकेत”

ये संकेत काव्य-नायक के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण बन जाते हैं और “काव्य चमत्कार रंगीन किंतु ठंडा पड़ जाता है। अरे, इन कागज के फूलों से मेरा काम नहीं चलेगा।”

सातवें खंड के तीसरे बंद में काव्य-नायक एक निर्णय की स्थिति में आता है :

‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे

उठाने ही होंगे

तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब

पहुँचना होगा दुर्गम पहाड़ों के पार

तब कहीं देखने को मिलेंगी बाहें

जिसमें कि प्रतिपल कांपता रहता

अरुण कमल एक”

86

अंधेरे में कविता का विशलेषण

यहाँ अभिव्यक्ति के खतरे कलात्मक अभिव्यक्ति के खतरे नहीं हैं। मठ और गढ़ भी कलावादीसाहित्यिक मठ और गढ़ नहीं है। ये क्रूर शोषण और उत्पीड़न पर आधारित पूँजीवादी सत्ता के वैचारिकसांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक गढ़ हैं। इन गढ़ों को तोड़ने के खतरे वस्तुत: सामाजिक संघर्ष के खतरे हैं, जिनका उद्देश्य एक नयी समाज व्यवस्था की स्थापना है। इस खतरे को उठाने के बाद ही, अरुण कमल से युक्त बाहें देखने को मिलेंगी। यह सामाजिक संघर्ष की, क्रांति की परम सिद्धि है। इन गढ़ों को मुक्तिबोध ने अपनी अनेक कविताओं में “प्रतापी सूर्य”, “सियाह चक्रव्यूह’, ‘शोषण की सभ्यता के नियमों के अनुसार बना हुआ दुर्ग’ आदि की संज्ञा दी है। इस खंड के अंतिम बंद में भी उन्होंने ”सूर्यों के प्रांगण” के रूप में इस गढ़ का संकेत इस प्रकार किया है :

“सचमुच मुझको तो ज़िन्दगी की सरहद

सूर्यों के प्रांगण पार जाती सी दीखती!!

कविता में कहने की आदत नहीं, पर कह दूँ

वर्तमान समाज में चल नहीं सकता ।

पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता

स्वातंत्र्य व्यक्ति का वादी

छल नहीं सकता मुक्ति के मन को

जन को।”

यहाँ “सूर्यों के प्रांगण पार’ से कवि का अभिप्राय है, पूँजीवाद के अकाट्य लगने वाले सिद्धांत, जो पूँजीवादी तंत्र और उसकी व्यवस्था का पोषण करते हैं। लेकिन सामाजिक व्यवस्था इसकी सरहद के पार भी जाती है- समाजवादी और साम्यवादी व्यवस्था के रूप में। अपनी “अंत:करण का आयतन” कविता में इसे मुक्तिबोध ने अत्यन्त स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है :

“सुकोमल काल्पनिक तल पर

नहीं है द्वन्द्व का उत्तर

तुम्हारी स्वर्णवीथी कर सकेगी क्या?

समन्वय झूठ है

सब सूर्य फूटेंगे

व उनके केन्द्र टूटेंगे

उड़ेंगे. खंड

बिखरेंगे गहन ब्रह्माण्ड में सर्वत्र

उनके नाश में तुम योग दो”

प्रस्तुत कविता के अंतिम बंद में भी कवि ने इसी निष्कर्ष को प्रस्तुत किया है कि नयी सामाजिक रचना के लिए पूँजीवाद की समाप्ति अनिवार्य है, जो जन क्रांति से ही संभव हो सकती है। इसे आठवें खंड में फैंटेसी के माध्यम से स्वप्न-कथा के रूप में घटित होते हुए दिखाया गया है।

आठवाँ खंड

कविता के आठवें खंड में काव्य-नायक ऐसा कुछ विशेष देखता है, जिससे उसका हृदय एकाएक धड़क कर रूक जाता है, यहाँ से स्वप्न-कथा के रूप में फैंटेसीबद्ध क्रांति शुरु होती है। उसे दिखायी देता है कि नगर में भयानक धुंआ उठ रहा है। “कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई’ – पंक्तियाँ सात बार इस खंड में दुहराई गई हैं लेकिन इनके मध्य प्रस्तुत होने वाले कल्पना-बिम्ब भिन्न-भिन्न हैं। पहले बंद में काव्य-नायक को वातावरण में ‘अदृश्य ज्वाला की गरमी का आवेग” और “जनमन उद्देश्य’ की एकता दिखाई देती है। क्रांति की इन परिस्थितियों में निष्क्रिय और तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग की प्रतिक्रिया का अंकन कवि ने इस प्रकार किया है : ।

‘सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक

चिन्तक शिल्पकार, नर्तक चुप हैं

उनके खयाल से यह सब गप है

 मात्र किंवदती

रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल बद्ध ये सब लोग नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे

प्रश्न की उथली सी पहचान

राह से अनजान

x    x    x

बौद्धिक वर्ग है क्रीत दास

किराये के विचारों का उद्भास”

लाभ-लोभ की भावना पर आधारित पूँजीवादी समाज-व्यवस्था में बौद्धिक समुदाय की कला और चिंतन की यही स्थिति है। वे क्रांति को समाजवादियों की एक वैचारिक बहस मान कर जाने-अनजाने पूँजीवादी व्यवस्था की सुरक्षा के लिए एक झूठे दर्शन का सहारा लेते हैं। इस खंड के चौथे बंद में “एक स्प्लिट सेकेण्ड में शत साक्षात्कार” के माध्यम से क्रांति के प्रभाव का अंकन हुआ है। लेकिन पाँचवें बंद में क्रांति का अपेक्षाकृत अधिक यथार्थ अंकन हुआ है। क्रांतिरत राह के पत्थर, मिट्टी के ढेले, धूल के कण संघर्षशील जन शक्ति के प्रतीक बन जाते हैं। इन प्रतीकों के साथ यथार्थ वस्तुएँ भी एकमेक कर दी गयी हैं :

“दादा का सोटा भी करता है दाव-पेंच

नाचता है हवा में

गगन में नाच रही कक्का की लाठी

यहाँ तक कि बच्चे की पे में भी उड़ती

तेज़ी से लहराती घूमती सलेट-पट्टी’

इन पंक्तियों के संदर्भ में डॉ० रामविलास शर्मा की टिप्पणी है – “शहर में लाठी और सलेट-पटटी से हथियारबंद दमनकारियों का मुकाबला नहीं किया जा सकता। इस तरह क्रांति नहीं हो सकती।” यहाँ रामविलास जी ने इस तथ्य की उपेक्षा कर दी है कि यह क्रांति नहीं, वरन् क्रांति का प्रतीकात्म बिम्ब है, जिसमें “एक एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है| ये परमास्त्र हैं, प्रक्षेपास्त्र हैं, यम हैं’। अत: यहाँ क्रांति की अपराजेय इच्छा और संभावित क्रांतिकारी शक्तियों के दृढ़ संकल्प की ओर एक कलात्मक संकेत मात्र है। इस प्रकार के अतिरंजनापूर्ण वर्णन में यह मुक्तिबोध की फैंटेसीबद्ध विशिष्ट शैली है, जिसका सार्थक और सफल प्रयोग उन्होंने “चकमक की चिनगारियाँ’ कविता में इस प्रकार किया है :

“विलक्षण भोग अपनी वेदना के क्षण

मिलाते सुर हवाओं से

कि बिल्डिंग गूंजती है, कांप जाती है

दीवालें ले रही आलाप

पत्थर गा रहे हैं तेज

तूफानी हवाएँ धूम करती गूंजती रहतीं

उखड़ते चौखटों में ही खड़ाखड़ खिड़कियाँ नचतीं

भड़ाभड़ सब बजा करते खड़े बेडौल दरवाजे

X      X     X       X

अचानक हो गयी बरखास्त आज

अत्याचार की सरकार।”

यहाँ भी क्रांति की प्रसरणशील सहानुभूति का कल्पना-चित्र प्रस्तुत किया गया है, जिसमें वस्तुस्थिति को देखते हुए समाज का पूरा ढांचा चरमराता हुआ लगता है। अत: दादा का सोटा, कक्का की लाठी और बच्चे की स्लेट-पट्टी अपना लाक्षणिक अर्थ रखती है, जो जन क्रांति में सार्वजनिक भागीदारी को प्रतीकित करती है। इस सार्वजनिक क्रांति में एक-एक वस्तु परमास्त्र, प्रक्षेपास्त्र और बम का काम करती है। इस प्रकार की क्रांति का एक जीता जागता उदाहरण वियतनाम है।

इस खंड के सातवें बंद में क्रांति की ठोस तैयारी – भौतिक मानसिक दोनों – का संकेत है। आठवें बंद में काव्य-नायक अपनी सहानुभूतिशील कल्पना के माध्यम से क्रांति की अनिवार्यता और वांछनीयता को रेखांकित करता है। यह समूचा कार्यकलाप फैंटेसी के माध्यम से भाव-विह्वल स्वप्न-कथा के रूप में घटित होता है।

नौवा खंड

इस खंड के नवें बंद का आरंभ काव्य-नायक के स्वप्न भंग से होता है :

”एकाएक फिर स्वप्न भंग

बिखर गये चित्र कि मैं फिर अकेला’

अपने अकेलेपन में भी वह अपने स्वप्नों का आशय ढूंढ़ता है, जिससे उसके मन में अर्थों की वेदना घिरती है। उसे लगता है कि :

“मानों की कल रात किसी

अनपेक्षित क्षण में ही सहसा

प्रेम कर लिया हो

जीवन भर के लिए

x           x           x

अज्ञात प्रणयिनी कौन थी,

कौन थी।

इसका स्पष्ट उत्तर है वह क्रांति थी, जिसे “चकमक की चिनगारियाँ” कविता में उन्होंने “मनो-आकार चित्रा वह सुनेत्रा” और “अंत:करण का आयतन’ में प्रतेजस आनना/ लावण्य-श्री मित्रस्मिता, की संज्ञा दी है। प्रस्तुत कविता में, “हाय यह वेदना स्नेह की गहरी जाग गयी क्यों कर’ के माध्यम से कवि ने इस आशय को व्यंजित किया है कि क्या कभी क्रांति का यह स्वप्न साकार भी हो सकेगा।

क्रांति का यह स्वप्न काव्य-नायक ”मैं’ में एक आह्लाद जगाकर ही समाप्त नहीं हो जाता। उसके “कमरे में सुबह की धूप फैल जाती है और गैलरी में सुनहला प्रकाश भर जाता है।” कमरे से जब वह गैलरी में आता है, पुन: उसे उस जन का दर्शन होता है, जिसे उसने तिलस्मी गुफा में पहली बार देखा था। काव्य-नायक ‘मैं” उसे बुलाना चाहता है, “लेकिन वह फिर खो गया किसी जनयूथ में।” उसका परिचय और उसके साथ अपना रिश्ता बताते हुए काव्य-नायक कहता है :

“अनखोजी निज समृद्धि का वह परम उत्कर्ष

परम अभिव्यक्ति

मैं उसका शिष्य हूँ

वह मेरी गुरु है, गुरु है।”

इस प्रकार “वह स्वयं “जन’ में रूपान्तरित होकर जनक्रांति का अग्रदूत बन जाता है और ”मैं” अब “पलातक शिष्य” (भागने वाला शिष्य) न रह कर पूर्ण अनुशासित शिष्य बन कर अपने को जन के साथ एकाकार करने का प्रयास करता है :

“इसीलिए मैं हर गली में

और हर सड़क पर

झांक-झांक देखता हूँ एक-एक चेहरा,

प्रत्येक गतिविधि

प्रत्येक चरित्र

व हर एक आत्मा का इतिहास

हर एक देश व राजनैतिक परिस्थिति

जहाँ मिल सके मुझे

मेरी वह खोयी हुई

परम अभिव्यक्ति

आत्म-संभवा।’

इस प्रकार ‘अंधेरे में’ कविता का अंत तक सार्थक खोज की अनिवार्यता से होता है।

सारांश

मुक्तिबोध के अधिकांश समीक्षकों ने “अंधेरे में” कविता की व्याख्या करते हुए इसे परम अभिव्यक्ति की खोज, अपनी अस्मिता या सामाजिक अस्मिता की तलाश, अपने को साधारण जन में विलय करने के मार्ग की तलाश आदि से ही अधिक सम्बद्ध करके देखा है। (इससे सम्बद्ध वाद-विवाद, खंडन-मंडन और “अंधेरे में’ कविता की विस्तृत व्याख्या के लिए आप डॉ० बच्चन सिंह द्वारा संपादित पुस्तक “अंधेरे में : इतिहास, संरचना और संवेदना’ अवश्य देख लें। इसमें ग्यारह समीक्षकों द्वारा “अंधेरे में” कविता की व्याख्या संकलित है।) इस इकाई के आरंभ में प्रस्तावना के अंतर्गत इस तथ्य को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है कि मुक्तिबोध आत्म-संघर्ष और आत्म-साक्षात्कार के कवि हैं। लेकिन उनका यह संघर्ष और साक्षात्कार नयी कविता के अधिकांश कवियों की तरह केवल ‘आत्म” या “स्व” तक सीमित न होकर सामाजिक संघर्ष और जगत साक्षात्कार की ओर भी उन्मुख होता है। उनकी दृष्टि से यही आत्म-संघर्ष की सार्थकता भी है। ऊपर उद्धृत ‘अंधेरे में’ कविता की अंतिम पंक्तियाँ :

(जहाँ मिल सके

मेरी वह खोयी हुई परम अभिव्यक्ति

आत्म संभवा’)

केवल सामान्य अभिव्यक्ति और अस्मिता की तलाश को ही संकेतित नहीं करती। एक सचेत और जागरूक कलाकार अपनी अस्मिता की तलाश या आत्म-साक्षात्कार अपनी व्यक्तिगत अनुभूतियों में ही नहीं, वरन उन अनुभूतियों के मूलों (स्रोतों) में भी करता है, जो समाज और संस्कृति की परंपरा में समायी रहती हैं। इसलिए काव्य-नायक के माध्यम से मुक्तिबोध बाह्य जगत का व्यापक निरीक्षणपरीक्षण करते हैं। प्रत्येक देश और उसकी राजनीतिक स्थिति-परिस्थिति का जायजा लेने के बाद ही वे अपनी अस्मिता का निर्धारण करते हैं, उसे विकसित और प्रशस्त करते हुए इस क्रम में वे स्वयं के ही नहीं, वरन दूसरों के स्वानुभूत आदर्शों, “विवेक-प्रक्रिया और क्रियागत परिणामों’ पर भी विचार करते हैं। इस निष्ठापूर्ण और श्रमसाध्य कार्य के बाद ही आत्म-साक्षात्कार होता है, परम अभिव्यक्ति की प्राप्ति होती है।

“अंधेरे में’ कविता के आरंभ में परम अभिव्यक्ति को अपने परिपूर्ण के आविर्भाव, पूर्ण अवस्था, हृदय में रिस रहे ज्ञान का तनाव, आत्मा की प्रतिभा आदि कह कर कवि ने परम अभिव्यक्ति के अभिप्राय के संबंध में किसी शंका का अवकाश नहीं छोड़ा है। लेकिन इन विशेषज्ञों से परम अभिव्यक्ति का अर्थगत ताल-मेल बिठाने में दिक्कतें भी आ सकती हैं। इस कविता में यदि अपनी अस्मिता को जनसाधारण में विलय करने का संबध यदि परम अभिव्यक्ति है तो इसे मुक्ति के साथ जोड़कर देखना अधिक प्रासंगिक होगा। मुक्तिबोध ने कई स्थलों पर बहुसंख्यक साधारण जनता के साथ अपने “स्व” के विलय को ही वास्तविक मुक्ति माना है। अत: परम अभिव्यक्ति, जो “आत्मा की प्रतिभा’ भी है, को मुक्ति-कामना से जोड़कर देखना आवश्यक प्रतीत होता है। अपनी “चकमक की चिनगारियाँ’ कविता में इस तथ्य की ओर अत्यन्त स्पष्ट संकेत मुक्तिबोध ने किया है :

“अरे कब तक रहोगे आप अपनी ओट

कहाँ मिल पाओगे उनसे कि जिनमें जन्म ले निकले

अरे, जन-संग ऊष्मा के बिना व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते

तुम्हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी।

कि तद्गत लक्ष्य में से ही हृदय के नेत्र जागेंगे

व जीवन लक्ष्य उनके प्राप्त करने की क्रिया में से

उभर ऊपर

विकसते जाएँगे

निज के तुम्हारे गुण

कि अपनी मुक्ति के रास्ते अकेले में नहीं मिलते।”

अत: मुक्तिबोध की दृष्टि से यही व्यक्ति की “पूर्ण अवस्था’ या “परिपूर्ण का आविर्भाव” है, जिसे यहाँ परम अभिव्यक्ति की संज्ञा उन्होंने दी है। “अंधेरे में’ कविता का अध्ययन करते हुए आप देखेंगे कि इसमें आरंभ से अंत तक आत्म मुक्ति से लेकर विश्व की बहुसंख्यक शोषित-उत्पीड़ित जनता की मुक्ति का तीखा अहसास प्रकट हुआ है। “चकमक की चिनगारियाँ” कविता के उपर्युक्त उद्धरण में काव्य नायक ”मैं” के समक्ष ‘वह’ के रूप में अंतरात्मा या “गुप्त मन” का निर्देश प्रस्तुत हुआ है, जिसमें व्यक्तिबद्धता से उबरने, अपने ”स्व” के दायरे को तोड़कर सर्वसाधारण के साथ एकमेक होने का आग्रह किया गया है। मुक्तिबोध ने अपनी मुक्ति के लिए जन मुक्ति की शर्त को अनिवार्य माना है। अपने जीवन लक्ष्यों को साधारण जनों के लक्ष्यों के साथ एकमेक करने में ही वे व्यक्ति मानव की सार्थकता मानते हैं।

उन्होंने एक स्थल पर लिखा है कि हर युग के मनुष्य में अपनी मुक्ति की कामना होती है। परम्परागत मुक्ति की अवधारणा के ऐतिहासिक महत्व को रेखांकित करते हुए पुराने जमाने में अपने को सांसारिक मोहमाया से हटाकर परम सत्ता में लय हो जाने में ही मुक्ति मानी जाती थी। आज के संदर्भ में वह परम सत्ता विश्व की बहुसंख्यक जनता ही है, जिसमें अपने को विलय करके ही मुक्ति का अनुभव किया जा सकता है। इस विलयन का मतलब जनता के उद्धार-उपायों में भागीदार बनना है।

यह गंभीर और कठिन कार्य अपने “स्व” के दायरे को तोड़े बिना, अपनी आत्मबद्धता से मुक्त हुए बिना संभव नहीं है। मुक्तिबोध ने इसे निर्वैयक्तिकता की संज्ञा दी है, जो तथाकथित नये कवि-चिन्तकों की भांति तटस्थता की परिचायक न होकर परम तत्लीनता की स्थिति है – आत्म पक्ष से तटस्थता और पर पक्ष से तल्लीनता की स्थिति। अत: निर्वैयक्तिकता उनके यहाँ सामाजिकता का प्रथम और अनिवार्य सोपान है। इस तथ्य को “अंधेरे में” कविता के अंतर्गत स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। इस निर्वैयक्तिकता की उपलब्धि के लिए काव्य-नायक को आरंभ में कठोर संघर्ष करना पड़ता है। उसकी निजबद्धता “वह” के संपर्क से टूटती है और उसी की प्रेरणा से काव्य नायक का व्यक्तित्वांतरण तथा जन के साथ एकीकरण होता है।

इस एकीकरण के बाद जन क्रांति का अगला अध्याय शुरु होना है, अभी शुरु नहीं हुआ है। कारण अब भी पूँजीवादी शोषण की स्थितियाँ मौजूद है। सत्ता और उसके तंत्र का वही आतंक, क्रांतिकारी उभार का वैसा ही दमन, बुद्धिजीवी कलाकारों-चिंतकों की वही चुप्पी अब भी बरकरार है। अत: क्रांति की अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए काव्य नायक “परम अभिव्यक्ति” अर्थात् सामान्य जन की संघर्षशील चेतना-शक्ति के अन्वेषण में भी लगा हुआ है। इस अन्वेषण की पूर्णता पर ही जन क्रांति की संभावना दृढ़ होगी।

अपनी अन्य कविताओं की भांति ही मुक्तिबोध ने “अंधेरे में” कविता में भी कोई उपसंहार या समाधान नहीं दिया है। वे क्रांति के महत्व और क्रांतिकारी परिस्थितियों से सिर्फ परिचित कराते हुए उसकी अनिवार्यता को ही रेखांकित करते हैं। इस क्रम में वे पूंजीवादी सत्ता के शोषण और आतंक से सर्व साधारण की मुक्ति के मानवीय आदर्श को अपने सम्मुख रखते हैं। इसके लिए वे आत्म विकास और अपने ज्ञानात्मक आधार को भी निरंतर विकसित करते रहने पर जोर देते हैं। इस ज्ञान के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने लिखा है कि “ज्ञान का अर्थ केवल वैज्ञानिक उपलब्धियों का बोध ही नहीं है, वरन् समाज की उत्थानशील तथा ह्रासोन्मुख शक्तियों का बोध भी है।” बोध के इस स्तर पर पहुँच कर वे कवि-कलाकार के सम्मुख अपना आग्रह प्रस्तुत करते हैं, “क्या लेखक के लिए यह परम आवश्यक नहीं है कि वह विश्व जनता के अभ्युत्थान को देखे और समाज का उत्पीड़न करने वाली शक्तियों से सचेत हो और उसके प्रति विद्रोह करने वाली ताकतों से सहानुभूति रखे।” 

यह कार्य “अंधेरे में’ कविता के अंतर्गत मुक्तिबोध ने सफलतापूर्वक सम्पन्न किया है। इस कविता में वे “अपनी” खोयी हुई जिस “परम अभिव्यक्ति की तलाश” की समस्या को सामने रखते हैं, वह जन साधारण की अपार परिवर्तकारी क्षमता की तलाश है, जिसके साथ अपनी अस्मिता का विलय करना उनका उद्देश्य है। इस संबंध में उन्होंने अपने “नयी कविता का आत्म संघर्ष तथा अन्य निबंध’ शीर्षक . ग्रंथ में लिखा है कि “आज एक ऐसे कवि-चरित्र की आवश्यकता है, जो मानवीय वास्तविकता का बौद्धिक और हार्दिक आकलन करते हुए सामान्य जनों के गुणों और उनके संघर्ष से प्रेरणा और प्रकाश ग्रहण करे, उनके संचित जीवन-विवेक को स्वयं ग्रहण करे तथा उसे और अधिक निखार कर कलात्मक रूप से उन्हीं की चीज को उन्हें लौटा दे| सामान्य जनों की अपार आध्यात्मिक और बौद्धिक क्षमता में यदि हमारा विश्वास है, हमारी आस्था है तो हम अपने ही पिता के सच्चे पुत्र होंगे।

अपने युग की विवेक-चेतना को मूर्तिमान करने का यह कार्य जितना गंभीर और कठिन है, उतना ही प्रेरणाप्रद है, क्योंकि उससे तो हम अपने ही जीवन के मूल उत्सों के अमृत-रस का पान करेंगे और अपनी सृजनशील अनुभूति और कल्पना द्वारा उस जीवन की साहित्यिक-कलात्मक पुनर्रचना करेंगे कि जो जीवन अपने आलोक में इतना प्रिय है। कवि-चरित्र के विकास का हमारा यह संघर्ष, युग की विवेकचेतना बनने का हमारा यह मौन प्रयास अपने आप में आध्यात्मिक महत्व रखता है, इससे कौन इनकार करेगा” कवि चरित्र के प्रति यह आग्रह-अनुरोध ही “अंधेरे में” कविता का केंद्रीय अनुरोध है। इससे यह भी स्पष्ट है कि “वह” के रूप में “परम अभिव्यक्ति” अंतरात्मा की पुकार है, जो जन जीवन को समझने, उसके साथ तन्मय करने और उसकी मुक्ति में ही अपनी मुक्ति तलाश करने का भव्य प्रयास है। “अंधेरे में” ही नहीं, उनकी अन्य कविताओं को भी उक्त दोनों उद्धरणों के प्रकाश में आप अच्छी तरह समझ सकते हैं।

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