स्कन्दगुप्त में इतिहास दृष्टि और राष्ट्रीय चेतना

‘नाटक और अन्य गद्य विधाएँ’ नामक इस पाठ्यक्रम के इस पहले खंड में आप भारतेंदु के नाटक अंधेर नगरी का अध्ययन कर चुके हैं। आप जयशंकर प्रसाद के नाटक स्कंदगुप्त के बारे में पढ़ रहे हैं। इस पाँचवीं इकाई में स्कंदगुप्त नाटक में इतिहास दृष्टि, राष्ट्रीय भावना और चरित्र चित्रण की विशेषताओं का अध्ययन करेंगे।

स्कंदगुप्त इतिहास पर आधारित नाटक है। इस नाटक की रचना में इतिहास का किस हद तक निर्वाह हुआ है और कल्पना का संयोजन इतिहास के साथ किस रूप में हुआ है, इस पर विचार किया गया है।

स्कन्दगुप्त नाटक की कथा-वस्तु ऐतिहासिक होते हुए भी वह इस अर्थ में समकालीन है कि उसे प्रसाद के समय की राष्ट्रीय स्थितियों से प्रेरित होकर लिखा है। राष्ट्रोत्थान की भावना इस नाटक की भी मूल चिंता है। पराधीनता से राष्ट्र की मुक्ति और इसके लिए सामूहिक प्रयत्न को उन्होंने स्कन्दगुप्त के समय के संदर्भ में प्रस्तुत किया है। इकाई में इसी कारण नाटक में व्यक्त राष्ट्रीय भावना और प्रसाद के समय की विशिष्टता पर विचार किया गया है।

प्रसाद के नाटकों में घटना की बहुलता होते हुए भी उन्हें घटना-प्रधान नाटक नहीं कहा जा सकता। प्रसाद के नाटकों को आम तौर पर चरित्र-प्रधान नाटक माना जाता है। चरित्र-चित्रण की पद्धति और पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं पर विचार करना प्रसाद के नाटकों को समझने के लिए जरूरी है। इस इकाई में इस महत्वपूर्ण पक्ष पर भी विचार किया गया है। इकाई के अध्ययन द्वारा उपर्युक्त तीनों पक्षों को समझने में आपको मदद मिलेगी।

इस इकाई में आप स्कंदगुप्त में व्यक्त लेखक की इतिहास दृष्टि और राष्ट्रीय भावना का अध्ययन करेंगे। आप अगर प्रसाद की रचनाओं से गुज़रे होंगे तो आपने पाया होगा कि उनकी अभिरुचि इतिहास के प्रति बहुत गहरी है। उनकी प्रायः सभी रचनाएँ या तो ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित हैं, या पौराणिक आख्यानों (माइथोलॉजी) पर या ऐतिहासिक कल्पना पर। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि उनकी वर्तमान में कोई रुचि नहीं है। इसके विपरीत, इतिहास की ओर जाने की वजह वर्तमान ही है। यह उनकी रचनात्मकता की खास विशेषता है कि वे इतिहास के माध्यम से वर्तमान की समस्याओं को समझना और उनको हल करना चाहते हैं।

जयशंकर प्रसाद के समय भारत अंग्रेज़ों की दासता में था और राष्ट्रीय मुक्ति ही उसका सबसे बड़ा लक्ष्य था। प्रसाद की रचनाधर्मिता इसी लक्ष्य से अनुप्रेरित थी। लेकिन राष्ट्रीय मुक्ति की भावना का दायरा राजनीति तक ही सीमित नहीं था। उनकी नज़र में सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में भी राष्ट्रीय जागरण की आवश्यकता उतनी ही जरूरी थी। इसके लिए वे भारतीय इतिहास के ऐसे कालखंडों का चयन करते हैं जब लगभग इसी तरह के संघर्ष घटित हुए होंगे। स्कंदगुप्त नाटक के लिए उन्होंने पाँचवीं सदी के भारत के ऐसे ही कालखंड की कथा-वस्तु को आधार बनाया है, जिनमें लगभग वे सभी समस्याएँ रही हैं, जो प्रसाद के समय में थीं।

स्कंदगुप्त के समय के इतिहास पर बहुत सामग्री नहीं मिलती। लेकिन जितनी भी सामग्री प्रसाद के समय तक प्राप्त हुई है, उन्हीं से उन्होंने स्कंदगुप्त के समय के घटनाक्रमों को एक नाटक का रूप प्रदान किया है। स्वयं स्कंदगुप्त ऐतिहासिक चरित्र है और इनके अलावा भी कई ऐसे चरित्र हैं जिनका उल्लेख इतिहास में मिलता है। लेकिन नाटक के कई पात्र और कई घटनाओं को उन्होंने कल्पना द्वारा स्था है। कल्पना के प्रयोग के बिना पाँचवीं सदी के कालखंड पर नाटक की रचना करना मुमकिन नहीं था। इसलिए ‘स्कंदगुप्त’ में इतिहास दृष्टि पर विचार करते हुए यह जरूरी हो जाता है कि हम उसमें कल्पना की भूमिका को भी अच्छी तरह समझ लें।

जैसा कि हम पहले ही संकेत कर चुके हैं, प्रसाद की मुख्य चिंता राष्ट्रीय चेतना के विस्तार की थी। राष्ट्रीय भावना के इस संदर्भ को ध्यान में रखकर ही हम स्कंदगुप्त को समझ सकते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में राष्ट्रीयता की भावना धीरे-धीरे पनप रही थी। विभिन्न भाषाई, धार्मिक और क्षेत्रीय समुदायों में बंटे इस विशाल देश को राष्ट्रीयता के एकसूत्र में बाँधना आसान काम नहीं था। प्रसाद जी ने राष्ट्रीय जीवन की इन्हीं समस्याओं को स्कंदगुप्त में भी उठाया है। इस इकाई में हम ‘स्कंदगुप्त’ में । व्यक्त राष्ट्रीय भावना और रचनाकार के अपने समय से उसके संबंध को समझने का प्रयास करेंगे। इकाई में स्कंदगुप्त में व्यक्त चरित्र-सृष्टि और जीवन-मूल्य पर भी गहनता से विचार किया गया है। प्रसाद के इस नाटक में बहुत अधिक पात्र हैं, लेकिन उनका चित्रण अत्यंत प्रभावशाली ढंग से किया गया है। प्रसाद अपने पात्रों के बाह्य जीवन को राष्ट्रीय जीवन की गतिविधियों और परिप्रेक्ष्य के संदर्भ में रखकर देखते हैं और आंतरिक जीवन को व्यक्ति के मनोवैज्ञानिक सत्य के संदर्भ में। इन दोनों का वे इस प्रकार संयोजन करते हैं कि इतिहास और वर्तमान, व्यक्ति और समाज नितांत विलक्षण रूप में हमारे सामने उभर आते हैं।

प्रसाद के इस प्रख्यात नाटक के उक्त पक्षों के विवेचन का अध्ययन करने से पूर्व नाटक को आप पूरी सजगता से अवश्य पढ़ें।

स्कन्दगुप्त’ में इतिहास

स्कंदगुप्त कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य के शासनकाल के अंतिम दिनों में साम्राज्य के अंतर्बाह्य संघर्षों से ग्रस्त ऐतिहासिक परिदृश्य को लक्ष्य करके लिखा गया एक रोमाण्टिकधर्मी ऐतिहासिक नाटक है। अतीत भारत के इतिहास के इस विशेष कालखंड में गुप्त-साम्राज्य गृह-कलह (विघटनकारी आंतरिक तत्वों) एवं विदेशी आक्रमणों का शिकार बन गया था। भिलसद के स्तम्भ-लेख, मन्दसोर और करमदण्डा के शिलालेख तथा गुप्तकाल की मुद्राओं में इस ऐतिहासिक स्थिति के उल्लेख मिलते हैं। इनमें राजपुरुषों और उनकी उपाधियों के जो नाम मिलते हैं, उनका उपयोग करते हुए प्रसाद ने नाटक की। ऐतिहासिकता को अक्षुण्ण रखा है और इस प्रकार इसे ख्यात इतिवृत्तमूलक रूप दिया है। इतिहास के परिदृश्य को अक्षुण्ण रखते हुए ही प्रसाद ने अपनी सर्जनात्मक कल्पना से उसमें मानवीय संबंधों एवं संवेदनाओं, तथा भारतीय दर्शन और संस्कृति के आधारभूत जीवन-मूल्यों को अभिव्यक्त करने के लिए काल्पनिक प्रसंगों को भी बड़ी कुशलता के साथ अवतरित किया है। इन प्रसंगों के अवतरण से । इतिहास का मूल परिदृश्य खण्डित नहीं होता है। इसीलिए आलोचक यह मानते हैं कि ”स्कंदगुप्त’ में इतिहास और कल्पना का सुंदर समन्वय हुआ है। इस समन्वय के फलस्वरूप ही इतिहास आत्मवान् या प्राणवान प्रतीत होता है। इतिहास के क्षीण कलेवर को कल्पना से सजीव तो किया है, किंतु ऐतिहासिक निष्ठ की क्षति नहीं होने दी है। इसके कारण ही नाटक के कथ्य का मर्मिक प्रभाव पड़ता है। स्कंदगुप्त के कथ्य को हम केवल ऐतिहासिक परिदृश्य की अभिव्यक्ति तक ही सीमित नहीं पाते। उसमें जाति को सतत जीवित बनाए रखने वाले तत्वों का भी कुशल विनियोग हुआ है।

यही कारण है कि स्कंदगुप्त ऐतिहासिक नाटक होते हुए भी राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना से दीप्त प्रतीत होता है। नाटक की कल्पनात्मकता पर विचार करते समय प्रसाद की इन सर्जनात्मक भंगिमाओं को ध्यान में रखना जरूरी  है।

यह इतिहास-प्रसिद्ध है कि गुप्त-साम्राज्य के शासक कुमारगुप्त विक्रमादित्य की दो रानियाँ थीं। अनन्त देवी छोटी रानी थी, जिसके नाम का उल्लेख इतिहास में मिलता है। लेकिन बड़ी रानी के नाम का उल्लेख इतिहास में नहीं मिलता। अतः प्रसाद ने अपनी कल्पना से उसे देवकी नाम दिया है तथा चारित्रिक गुणों को इतिहास-सम्मत रखा है। वह महादेवी हैं, स्कंदगुप्त विक्रमादित्य की माता हैं, मर्यादा, औदार्य और क्षमा की प्रतिमूर्ति है। अनन्तदेवी छल-छद्मशील कुटिल नारी है, जो अपने पुत्र पुरगुप्त को सम्राट बनवाने के लिए षड्यंत्र करती है और गृह-कलह को जन्म देती है। वह क्रूर प्रकृति की नारी है, किंतु रूपवती है। अपने सौंदर्य और शृंगारिक प्रवृत्तियों से वह विलास-जर्जर वृद्ध कुमारगुप्त को अपने वश में कर लेती है। बड़ी रानी देवकी को बन्दी बना देती है। भटार्क से मिलकर वह वृद्ध कुमारगुप्त की हत्या करवाती है तथा कुचक्र करके यह घोषित करवा देती है कि मृत्यु से पूर्व कुमारगुप्त ने पुरगुप्त को गुप्त-साम्राज्य का सम्राट मनोनीत किया है, स्कंदगुप्त को नहीं। यद्यपि देवकी (बड़ी रानी) का पुत्र होने के कारण स्कंदगुप्त गुप्त-साम्राज्य का स्वाभाविक उत्तराधिकारी है, किंतु उत्तराधिकार के विषय में गुप्त-साम्राज्य के नियम अस्थिर हैं। नाटक में इसे नाटकीयता के साथ निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया गया है:

चक्रपालित- पिताजी! प्रणाम। कैसी बात है?

पर्णदत्त – कल्याण हो, आयुष्मन! तुम्हारे युवराज अपने अधिकारों से उदासीन हैं। वे पूछते हैं ‘अधिकार किसलिए?’

चक्रपालित – तात। इस ‘किसलिए’ का अर्थ मैं समझता हूँ।

पर्णदत्त – क्या?

चक्रपालित – गुप्तकुल का अव्यवस्थित उत्तराधिकार-नियम।

गृह कलह के इस परिप्रेक्ष्य में नाटक की कथा-वस्तु का नाटकीय सौंदर्य के साथ विधान किया गया है। नायक स्कंदगुप्त के आंतरिक पक्ष के रूप में व्यक्त गृह-कलह के साथ बड़े स्वाभाविक ढंग से बाह्य घटनाचक्र को संयुक्त किया गया है। गृह-कलह जनित दुरभिसंधि का ही परिणाम है कि स्कंदगुप्त को पुष्यमित्रों से युद्ध करने के लिए उज्जयिनी भेजा गया है। उसके पक्ष के सभी लोग किसी-न-किसी। कारणवश राजधानी से दूर हो गए हैं या बाहरी आक्रमणकारियों – शक-हूणों – से युद्ध करने के बहाने से दूर कर दिए गए हैं।

नाटक में स्कंदगुप्त इन्हीं प्रतिपक्षों से घिरा हुआ बाह्य संघर्ष और अंतर्द्वद्व से ग्रस्त दिखलाई पड़ता है। इस संघर्ष का कार्य या फल बाहरी आक्रमणकारियों और गृह कलह जनित आंतरिक विघटन के तत्वों से राष्ट्र-जीवन को निरापद करना है। इसी कार्य की सिद्धि के लिए नाट्य-वस्तु की योजना की गई है, जिसकी अपनी एक मौलिक नाट्य-शैली है। इस नाट्य-शैली में भारतीय रसवादी नाट्य-रीति और पाश्चात्य संघर्षमूलक तत्वों का सुंदर समन्वय है।

प्रसाद की इतिहास दृष्टि और वर्तमान संदर्भ

प्रसाद ने ऐतिहासिक नाटकों का सृजन साभिप्राय किया। अपने ऐतिहासिक नाटकों में अतीत के जीवनादर्शों एवं देश-भक्त के स्वरूप धर्म, चिरंतनत्व को गौरव-गायन अपने युग की राष्ट्रीय चेतना को प्रेरित करने के लिए ही किया है। उन्होंने छायावादी रोमांस-प्रवणता के साथ स्कंदगुप्त के प्रेम के स्वरूप-धर्म को उसी रूप में रूपायित किया है, जैसा उनके अपने युग में था। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है यद्यपि प्रसाद के नाटक ऐतिहासिक हैं, पर उनमें आधुनिक आदर्शों और भावनाओं का आभास इधर-उधर बिखरा मिलता है। स्कंदगुप्त और चन्द्रगुप्त दोनों में स्वदेश-प्रेम, विश्व-प्रेम और आध्यात्मिकता का आधुनिक रूप-रंग बराबर मिलता है।’ कामना, स्कंदगुप्त, चन्द्रगुप्त, अजातशत्रु, ध्रुवस्वामिनी आदि नाटकों में आधुनिक युग की जिन समस्याओं का चित्रण हुआ है, उनसे यह विदित होता है जैसे प्रसाद अतीत के इतिहास में अपने समय की राष्ट्रीय-जातीय चिंताओं तथा स्वातंत्र्य के प्रयत्नों और व्यवधानों को प्रतिबिंबित करने का प्रयास कर रहे थे।

प्रसाद जी वस्तुतः अतीत को वर्तमान से कटा हुआ काल-खण्ड नहीं मानते थे। वे इतिहास की इस प्रक्रिया को समझते थे कि कैसे इतिहास की पुनरावृत्ति हुआ करती है। इस प्रक्रिया को दृष्टि में रखकर ही प्रसाद ने ऐतिहासिक नाटक रचे हैं। उनकी इतिहास संबंधी धारणा सभ्यता और संस्कृति की धारणा से मिली हुई है, अतः व्यापक है। इतिहास विषयक अपनी इस समझ का संकेत देते हुए ‘अजातशत्रु’ की भूमिका में वे लिखते हैं – ‘इतिहास से प्रायः घटनाओं की पुनरावृत्ति होते देखी जाती है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि उसमें कोई नई घटना होती ही नहीं। किंतु असाधारण नई घटना भी भविष्य में फिर होने की आशा रखती है। मानव-समाज की कल्पना का भण्डार अक्षय है, क्योंकि वह इच्छा-शक्ति का विकास है। इन इच्छाओं का, कल्पनाओं का मूल सूत्र बहुत ही सूक्ष्म और अपरिस्फुट होता है। जब वह इच्छा-प्राप्ति किसी व्यक्ति या जाति के केंद्रीभूत होकर अपना सफल विकसित रूप धारण करती है, तभी इतिहास की सृष्टि होती है।’ इसी नज़रिए से इतिहास को देखते हुए, वे किसी जाति को अपना आदर्श संगठित करने के लिए इतिहास के आइने का उपयोग अपेक्षित मानते हैं। ‘विशाख’ की भूमिका में उन्होंने लिखा है – ‘….इतिहास का अनुशीलन किसी जाति को अपना आदर्श संगठित करने के लिए अत्यंत लाभदायक होता है……हमारी गिरी दशा को उठाने के लिए हमारी परंपरा के अनुकूल जो हमारी जातीय सभ्यता है, उससे बढ़कर उपयुक्त और कोई भी आदर्श हमारे अनुकूल होगा कि नहीं, इसमें हमें पूर्ण संदेह है।

मेरी इच्छा भारतीय इतिहास के अप्रकाशित अंश में से उन प्रकाण्ड घटनाओं का दिग्दर्शन कराने की है जिन्होंने हमारी वर्तमान स्थिति को बनाने का बहुत-कुछ प्रयत्न किया है।’ इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रसाद ऐतिहासिक इतिवृत्त में जातीय जीवन को स्पदित करने वाले उन परंपराशील आत्मिक प्रेरकों से हमारा साक्षात्कार कराना चाहते हैं, जो हमारे अपने वर्तमान जीवन को संस्कार देते हुए हमारी जातीय जय-यात्रा को अग्रसर करते हैं। केवल युद्धों का वर्णन ही उनकी ऐतिहासिक दृष्टि की सीमा नहीं है।

प्रसाद के समय का भारत (सन 1930 के आसपास) विषम सांस्कृतिक-राजनीतिक संकट का काल था। भारत में जैसे-जैसे विदेशी शासकों का प्रभाव बढ़ता जा रहा था, यह दुष्प्रचार भी ज़ोरों से होने लगा कि भारतीय लोग अर्द्ध-सभ्य हैं तथा सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से काफी हीन और पिछड़े हुए हैं। उनका न कोई गौरवपूर्ण इतिहास रहा है, न सभ्यता या संस्कृति। उसकी तुलना में अंग्रेज़ी सभ्यता और संस्कृति बहुत महान् है। इस प्रचार का भारतीय जन-मानस पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ रहा था। अंग्रेज़ों का भारत पर अपना सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापित करने का यह एक कलुषित षड्यंत्र था। ऐसे ही विषम संकट-काल में प्रसाद ने भारतीय सांस्कृतिक-आध्यात्मिक चेतना के स्वर को अपने ऐतिहासिक नाटकों के माध्यम से बड़ी प्रखरता के साथ व्यंजित किया था। उनके नाटकों में व्यंजित सांस्कृतिक प्रेरकों को देखकर ही यह कहा जाता है कि ‘प्रसाद के नाटक काल्पनिक और स्वतंत्र नहीं वे ऐतिहासिक और सांस्कृतिक हैं। ऐतिहासिक नाटकों की रचना करते हुए भी देश के तत्कालीन संपूर्ण वार्तावरण का भी उन्होंने ध्यान रखा है। वहाँ भी युग की वस्तु से भिन्न कोई वस्तु वे नहीं लाए हैं।

उनके नाटकों में इसी कारण एक भास्वरता और सम्पन्नता है।’ आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी का यह कथन इस बात को स्पष्ट करता है कि प्रसाद ने अपने ऐतिहासिक नाटकों में बड़ी कुशलता के साथ अपने समय की वर्तमान राष्ट्रीय जीवन की समस्याओं का जो चित्रण किया है उनसे वर्तमान की चेतना को नवजागरण का आलोक मिलता है। प्रसाद के नाटक स्पेनिश कवि और नाटककार लोर्का के इस विचार से मेल खाते हैं कि ‘रंगमंच किसी देश के आत्मिक उन्नयन के सर्वाधिक उपयोगी एवं सार्थक साधनों में से है – वह तापमापक यंत्र है जो उसके उत्थान-पतन को अंकित करता है। इसीलिए जातीय संस्कृति के साथ उसके अपने रंगमंच का अटूट रिश्ता होना जरूरी होता है। प्रसाद के नाटकों में अपने जातीय रंगमंच की संस्कृति व्यक्त हुई है। उनमें (नाटकों में) राष्ट्र के प्रति त्याग, और आत्मोत्सर्ग की जो भावना व्यंजित है, वह परंपराशील सांस्कृतिक प्रेरकों और आदशों से रची गई है। प्रसाद के नाटक ऐसे हैं जिसमें राष्ट्र अपने सम्राट को उद्धास्युद्ध में सेनानी बनने के लिए पुकारता है, जिनमें वीर विदेशी आक्रमण का सामना करते हैं और ‘स्कंदगुप्त’ नाटक के बंधुवर्मा की तरह अपने प्राणों की आहुति देते हैं, जिनमें क्षेत्रीयता और साम्प्रदायिकता का खण्डन कर राष्ट्रीय एकता की प्रतिष्ठा की जाती है। स्कंदगुप्त नाटक के अंक-2, दृश्य-5 में यह मंतव्य बहुत मुखर है।

किसी भी समय के इतिहास का एक देशकाल होता है। उस देशकाल का स्वरूप और विकास तीन तत्वों के योग से होता है। एक तत्व चिरंतन मूल्यों या जीवनादशों का होता है, जो मनुष्य की मनुष्यता को निर्धारित करता है। मनुष्यता की पहचान कराने वाले मूल्य जितना एक समय में महत्व रखते हैं, उतना ही दूसरे समय के भिन्न ऐतिहासिक स्थिति में भी सार्थक प्रतीत होते हैं। तप, त्याग, सहिष्णुता, पर दुःखकातरता, क्षमाशीलता, हृदय का औदार्य, पारस्परिक प्रेम-भावना, सेवा-धर्म आदि जीवन की ऐसी विशेषताएँ और व्यवहार होते हैं जिनको सभी समय का नागरिक या सांस्कृतिक समाज महत्व देता है। ये ही मनुष्यता की उच्च-भूमि के बोधक मूल्य हैं जिन्हें प्रसाद के नाटक अत्यंत सशक्त रूप में अभिव्यक्त करते हैं। इस प्रकार की मनुष्यता ही भारतीय जीवन-पद्धति का सांस्कृतिक आधार है, जिन्हें सामने लाना प्रसाद के नाट्य-विधान का प्रधान उद्देश्य है।

देश-कालगत कुछ मूल्य ऐसे होते हैं जिनका महत्व तात्कालिक ही होता है। जीवन के आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक कुछ ऐसे विधान होते हैं, जो देश-काल तक ही सीमित होते हैं; एक विशेष देशकाल में तो उनका महत्व होता है, बाद में वे मूल्य सार्थक नहीं होते हैं। ऐतिहासिक नाटकों की रचना करते हुए प्रसाद ने देशकाल के तत्कालीन वातावरण एवं मूल्यों का भी पूरा ध्यान रखा है। इसके कारण उनके नाटक अधिक समयानुकूल अतः प्रासंगिक प्रतीत होते हैं। प्राचीन काल की राजनीतिक व्यवस्था में पदों के नामोल्लेख, उन पदों को संभालने वाले व्यक्तियों के प्रति सम्मानसूचक सम्बोधनों में, व्यक्तियों के सलूक का चित्रण करने में, ब्राह्मण धर्म एवं बौद्ध धर्म की तत्कालीन प्रचलित रूढ़ियों और टकराव के अशोभन एवं काम्य रूपों के चित्रण में, प्रसाद ने तत्कालीन वातावरण । एवं मूल्यों का सुंदर निर्देश किया है। देशकाल की निर्मिति में एक तीसरा तत्व वैयक्तिक अनुभूति-जनित राग-विराग का होता है। व्यक्तियों के चरित्र में कुछ नैसर्गिक भावनाएँ ऐसी होती हैं जो उसके जीवन के सम-विषम, या रस-विरस रूप २ को व्यक्त करती हैं।

प्रसाद के नाटकों में चरित्र-चित्रण इस प्रकार घटित होता है जिसमें वैयक्तिक अनुभूति की खोज का भाव अधिकाधिक सामने आता है। स्कंदगुप्त में तो इस केंद्र-विशेष से ही चरित्रचित्रण सम्पन्न हुआ है। नारी-पुरुष के प्रेम-संबंधों के मूल्य की खोज उसकी वैयक्तिक अनुभूति के भीतर से ही की गई है। इस प्रेम के मूल्य-चित्रण में प्रसाद स्वार्थ-लिप्त भोग-परायण रूप को नहीं, अशरीरी रोमाण्टिक भावना को महत्व देते हैं। स्कंदगुप्त में देवसेना का चरित्र इसीलिए विशिष्ट लगता है क्योंकि उसमें अशरीरी रोमाण्टिक भावना की प्रधानता है, अनंतदेवी और विजया का चरित्र इसीलिए कुरूप लगता है क्योंकि उनकी प्रेमानुभूति स्वार्थ-लिप्सा युक्त एवं भोगोन्मुखी है।

निष्कर्ष यह कि प्रसाद के नाटक ऐतिहासिक देशकाल को उसकी समग्रता में प्रस्तुत करते हैं। उनका ऐतिहासिक बोध एक समय की कुछ लड़ाइयों तक ही सीमित नहीं होता। उस युग-विशेष के व्यक्तिसमाज, आर्थिक दशा, गृह कलह आदि सभी स्तरों पर नाट्य-वस्तु को विकसित करते हुए जीवन के ऐसे मूल्य प्रस्तुत करते हैं जो उनके अपने युग की स्वतंत्रता-संग्राम की चेतना और सांस्कृतिक नवजागरण के मूल्यों की दृष्टि से सशक्त आधार प्रदान करते हैं। इस अभिप्राय की अभिव्यक्ति करके स्वतंत्रता संग्राम में संलग्न देशवासियों के लिए राष्ट्रवादी मूल्यों का ठोस आधार प्रस्तुत करते हैं। क्या कुछ राष्ट्र को संगठित करता है और क्या कुछ उसे विघटित करता है, इससे वे हमें अवगत कराते हैं। इस रूप में प्रसाद के नाटकों की समसामयिक सार्थकता है।

‘स्कन्दगुप्त’ में इतिहास और कल्पना

स्कंदगुप्त का कथानक निर्मित करते हुए प्रसाद ने इतिहास और कल्पना के समन्वय में भी अपनी मौलिकता का परिचय दिया है। प्रसाद इतिहास को अतीत की स्थूल घटनाओं का उल्लेख ही नहीं मानते, अपितु उन घटनाओं के संदर्भ में मानवात्मा की जय-यात्रा का संधान भी करते हैं। इसी अन्वेषण में तत्पर प्रसाद की सर्जनात्मक कल्पना स्कंदगुप्त की स्थूल घटनाओं के ताने-बाने के बीच से ही अंतर्वस्तु के नाना-विध रूप-रंगों को संयाजित करती रहती है। यही उनके नाट्य-वस्तु-विधान की निजी मौलिकता है। उनके नाट्य-विधान में अंतर्वस्तु का चमत्कार एवं विस्तार बाह्य वस्तु-योजना (स्थूल ऐतिहासिक घटनाओं के क्रम-विकास) से अधिक या विशिष्ट है। नाटक में अंतर्वस्तु कहीं दर्शन और संस्कृति की अन्तःप्रेरणा के दिग्दर्शन के रूप में संयोजित है (इस दृष्टि से स्कंदगुप्त का अंक 5 दृश्य 2 और अंक 2 का दृश्य 1 द्रष्टव्य है); कहीं रहन-सहन की पद्धतियों और उन्नति-अवनति के कारणों के विश्लेषण में प्रत्यक्ष होती है; मनोभावों या अंतर्द्वद्वों के चित्रण में प्रकाशित होती है; विचारधाराओं और सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं की स्थितियों के चित्रण के रूप में नियोजित हुई है। अंतर्वस्तु के दबाव के कारण ही एक अंक में अनेकानेक दृश्यों को अवतरित करना पड़ा है। अंतर्वस्तु की योजना बाह्य घटना-व्यापार से बिल्कुल अलग-थलग पड़ी हुई तो नज़र नहीं आती, किंतु इससे कथा-वस्तु का अतिरिक्त विस्तार अवश्य हुआ है। अंतर्वस्तु को रंग-प्रयोग में समेट कर दिखलाना दुष्कर अवश्य प्रतीत होता है।

‘स्कन्दगुप्त’ के कथानक का ऐतिहासिक स्रोत और उसमें कल्पना के रूप-रंग

प्रस्तुत नाटक की कथा-वस्तु अतीत भारत का स्वर्ण-युग कहे जाने वाले गुप्त-साम्राज्य के उस कालखण्ड से संबंधित है, जब उसमें विघटन की स्थितियाँ पैदा हो गई थीं। पाँचवीं शताब्दी में कुमारगुप्त । महेन्द्रादित्य, गुप्त-साम्राज्य का सम्राट बना। वह विलासी प्रकृति का शासक था। उसकी दो रानियाँ थीं – देवकी और अनन्तदेवी। देवकी बड़ी रानी थी। इतिहास में बड़ी रानी का नामोल्लेख प्राप्त नहीं है, किंतु कोई नाम होना तो स्वाभाविक है, अतः नाटक में प्रसाद ने उसे अपनी कल्पना से देवकी नाम दे दिया है। देवकी उदारमना नारी थीं। उनका यह इतिहास-सम्मत चरित्र नाटक में बरकरार है। स्कंदगुप्त उन्हीं का पुत्र था। महादेवी (महारानी) का पुत्र होने के नाते गुप्त-साम्राज्य का उत्तराधिकारी भी था। किंतु छोटी रानी अनन्तदेवी एक महत्वाकांक्षिणी नारी थी। अपने जीवन के अंतिम दिनों में कुमारगुप्त पूरी तरह अनन्तदेवी के अधीन हो गया था। अनन्तदेवी अपने पुत्र पुरगुप्त को गुप्त साम्राज्य का उत्तराधिकारी बनाने के लिए कृतसंकल्प थी। इसके फलस्वरूप देवकी एवं स्कंदगुप्त के विरुद्ध षड्यंत्रों और गृहकलह का सिलसिला शुरू गया था। यह एक इतिहास-प्रसिद्ध तथ्य है कि अनन्तदेवी और भटार्क भिन्नभिन्न कारणों से स्कंदगुप्त के विरोधी थे। इतिहास में इस बात का जिक्र नहीं मिलता कि अनन्तदेवी के स्कंदगुप्त-विरोधी षड्यंत्र में भटार्क भी सम्मिलित था। प्रसाद ने नाटकीय संघर्ष को तीव्रता प्रदान करने के हेतु उनके सहयोग की कल्पना कर ली है।

इतिहास के साक्ष्यों को सुरक्षित रखते हुए प्रसाद अपनी सर्जनात्मक कल्पना से ऐसे पात्रों और प्रसंगों की उद्भावना कर लेते हैं जिनसे नाटक का देशकाल और ऐतिहासिक बोध प्रणवान हो उठता है। स्कंदगुप्त में बहुत-से ऐसे पुरुष-पात्रों, स्थानों, प्रसंगों को अवतरित किया गया है जो काल्पनिक हैं। किंतु वे इतिहास के देशकाल और वातावरण के विपरीत होने का आभास नहीं देते। वे देशकाल और वातावरण की सामान्य दशा एवं सांस्कृतिक वैचारिकता को व्यक्त करने के माध्यम हैं। वे मानवीय जीवन के उस पक्ष को सामने रखते हैं, जिनके विषय में इतिहास मौन रहता है। इस नाटक में खिंगल, प्रपंचबुद्धि, मुद्गल, प्रख्यातकीर्ति आदि पुरुष-पात्र प्रसाद की कल्पना की ही उपज हैं। नारी-पात्रों में जयमाला, देवसेना, विजया, कमला, रामा, मालती भी कल्पित पात्र हैं। इसी प्रकार मालव द्वारा स्कंदगुप्त से सहायता माँगना, मालव पर हूणों का आक्रमण, अनन्तदेवी, प्रपंचबुद्धि एवं भटार्क के षड्यंत्र से जुड़े प्रसंग जैसे श्मशान भूमि का प्रसंग, कुमा की रणभूमि में स्कंदगुप्त का लहरों में बह जाना, देवसेना तथा विजया का स्कंदगुप्त की ओर आकृष्ट होना, मातृगुप्त और कालिदास का एक ही पात्र होना, मातृगुप्त और मालिनी का प्रेम-प्रसंग आदि नाटक के कथानक में गूंथे हुए काल्पनिक प्रसंग ही हैं।

उनका संबंध किसी-न-किसी रूप में (पक्ष या प्रतिपक्ष के पात्र के रूप में) स्कंदगुप्त के साथ जुड़ा हुआ है। ये प्रासंगिक कथाओं के रूप में नाटक में आते हैं। नाटक के साध्य को निखारने में, उद्देश्य को रेखांकित करने में तथा नायक की फल-प्राप्ति में बाधक या साधक बनकर नाटक के अंतर्बाह्य संघर्षों को गति देने में इनका अपना योगदान है। मूल कथा-वस्तु का ताना-बाना इतिवृत्तप्रधान बना रहता है। कल्पित पात्र और प्रसंग उसमें कोई ऐसी बाधा पैदा नहीं करते जिससे ऐतिहासिकता को क्षति होती हो। अपितु वे देशकाल के वातावरण को सजीव बनाते हैं, इतिहास के भीतर निहित संस्कृति को प्रकाशित करते हैं। इसीलिए कहा जाता है कि प्रसाद के ‘ऐतिहासिक नाटक सांस्कृतिक हैं।’ स्कंदगुप्त इसका ज्वलंत उदाहरण है।

नाटक के वस्तु-तत्व को प्रभावित करने वाला एक अन्य संदर्म प्रेम-प्रसंगों का है। इस प्रसंग की अंतर्वस्तु नाटक के मुख्य क्रिया-व्यापार को कहीं अनुकूल तो कहीं प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती हई प्रारंभ से अंत तक सग्रंथित है। नाटक में प्रणय-प्रसंगों से जुड़े मनोभावों को चित्रित करने में प्रसाद की गीतिधर्मी कल्पना-शक्ति बहुत उद्वेलित हो उठती है। कथा-वस्तु की गत्यात्मकता की उपेक्षा करके भी वे प्रणयानुभूतियों और प्रेमादर्शों को चित्रित करने के लोभ का संवरण नहीं कर पाते हैं।

‘स्कंदगुप्त’ के प्रायः सभी अंकों में युद्ध के साथ प्रेम-प्रसंग तथा गृह कलह की कथा-व्यथा लिपटी हुई है। प्रसाद का यह विश्वास रहा है कि मानव-जीवन के श्रेष्ठ गुण, मान या मूल्य नारी के कारण ही पृथ्वी पर टिके हुए हैं। इसीलिए प्रस्तुत नाटक में नारी-चरित्रों के प्रेमादशों के माध्यम से प्रसाद ने भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल आदर्शों को, मूल्यों को प्रकाशित करने का प्रयास किया है। नारियों के प्रेम में जो उत्सर्ग, तप, त्याग, उच्चता, सौम्यता और क्षमताशीलता मिलती है, वह भारतीय संस्कृति का प्राण-तत्व है। नाटक के नारी-पात्र कमला, रामा, देवसेना, देवकी आदि के चरित्र में जो उत्सर्ग, उच्चता और सौम्यता लक्षित है, वे प्रसाद की दृष्टि में भारतीय संस्कृति के आधारभूत तत्व हैं। नाटक में विजया और अनन्तदेवी के रूप-गर्व और वासनात्मक प्रेम का असत् रूप चित्रित करके सत् प्रेम को अधिकाधिक निखारने का प्रयत्न किया गया है। स्कंदगुप्त के पाँचवें अंक की योजना के अन्य उद्देश्यों के साथ एक उद्देश्य यह भी है कि असत् नारी पात्रों (विजया, अनन्तदेवी) और पुरुष-पात्रों (भटार्क, शर्वनाग) का हृदय-परिवर्तन करके उन्हें राष्ट्र-हित और राष्ट्रोद्धार के कार्यों में लगाया जा सके। स्कंदगुप्त में स्वयं स्कंदगुप्त जब मोह-ग्रस्त होते हुए देवसेना से कहता है – ‘देवसेना। एकान्त में किसी कानन के कोने में, तुम्हें देखता हुआ, जीवन व्यतीत करूँगा। साम्राज्य की इच्छा नहीं। एक बार कह दो। ‘तो देवसेना अपनी श्रेयगर्भित प्रेम-भावना का परिचय देती हुई कहती है – ‘…..तब तो और भी नहीं। मालव का महत्व तो रहेगा ही, परंतु उसका उद्देश्य भी सफल होना चाहिए। आपको अकर्मण्य बनाने के लिए देवसेना जीवित न रहेगी।’

प्रसाद के सभी ऐतिहासिक नाटकों में इसी ढर्रे का रोमांस-प्रवण प्रेमादर्श प्रकट हुआ है। स्कंदगुप्त में . शृंगारमूलक प्रेम की जो अंतर्धारा बही है, उद्देश्यों से उच्च मानव प्रेरित है, राष्ट्र प्रेम की संवदेना को तीव्र करने की हेतु है। इस धुरी से हटा हुआ प्रेम प्रसाद की नज़र में प्रेम का बेसुरा राग है।

‘स्कन्दगुप्त’ में चरित्र-चित्रण की विशिष्टता

प्रसाद की नाट्य-कला का मूलभूत सौंदर्य चरित्र-चित्रण में निहित है। चरित्र-चित्रण को विशेष महत्व देने के कारण प्रसाद ने इतिहास के चरित्रों में तीव्र मानीय अंतर्द्वद्व की सृष्टि की है। उन्होंने पात्रों के अंतर्द्वद्व एवं मानसिक संघर्ष को मनोवैज्ञानिक कुशलता के साथ स्पष्ट किया है। इस प्रकार उन्होंने व्यक्तित्व-सम्पन्न चरित्रों की सशक्त एवं प्राणवान सष्टि की। उनके नाटकों में चरित्र-सृष्टि वैविध्यपूर्ण है एवं प्रत्येक पात्र की अपनी अलग पहचान बनती है। यहाँ तक कि विदूषक पात्रों का भी गंभीर दार्शनिक व्यक्तित्व प्रकट हुआ है। वे परंपरागत विदूषक से सर्वथा भिन्न दिखलाई पड़ते हैं। वे परिहासप्रिय, किंतु चिंतनशील पात्र होते हैं।

प्रसाद के नाटकों में नियति जैसे अव्यक्त पात्र की भी अपनी एक विशिष्ट रंग-भूमिका होती है। पात्रों की विवशताओं, कथनों और क्रियाओं में उसके जीवित हस्तक्षेप का अहसास सुलभ होता है। प्रसाद ने नियति की कल्पना एक ऐसी दैवी शक्ति के रूप में की है जो अध्यात्म और इहलोक के समन्वय में .. सतत सजग और तत्पर रहती है। वह विश्व-भर के हित को लक्ष्य करके पात्रों की क्रियाओं को संयमित करती है। जनमेजय का नाग यज्ञ में व्यास का कथन वस्तुतः प्रसाद की नियति संबंधी अवधारणा को ही प्रकाशित करता है। व्यास कहते हैं – ‘नियति कर्त्तव्य मद से मत्त मनुष्यों की कर्मशक्ति को अनुचरी बनाकर अपना कार्य कराती है।…….नियति नियंत्रित इस क्रियात्मकता में व्यक्तिगत इच्छा-पूर्ति या उपलब्धियों को महत्व नहीं मिलता; ‘सर्वभूतहित’ की कामना ही पर लक्ष्य होता है।’ इस प्रकार प्रसाद की नियतिवादी कल्पना में आनंदवाद की छाप है। प्रसाद के नाटकों में क्रिया-व्यापार की भंगिमा का मर्म समझने के लिए नियति के हस्तक्षेप का उक्त स्वरूप समझना भी जरूरी है। प्रसाद का नियतिवाद निष्क्रियता और निश्चेष्टता की ओर नहीं ले जाता, बल्कि वह कर्म करने की प्रेरणा जगाता है। वह कोई ऐसा भाग्यवाद या प्रारब्धवाद नहीं है जो पुरुषार्थ के प्रतिकूल पड़ता हो। नियतिवाद की इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर ही स्कंदगुप्त में भटार्क के हृदय-परिवर्तन का मर्म समझा जा सकता है और स्कंदगुप्त के अंतर्द्वद्ध-ग्रस्त मन की कर्ममूलक दिशा का रहस्य समझ में आ सकता है।

स्पष्ट है कि प्रसाद के नाटकों में नियति एक अदृश्य पात्र की तरह आती है और नाटक के रंग-व्यापार को नियंत्रित करने में अपनी भूमिका अदा करती है। नियति रंग-व्यापारों को या नाटक के क्रियाव्यापारों पर बड़ी कठोरता से नियंत्रण करती है। नियति का यह अंकुश ही पात्रों के व्यवहार को स्वेच्छाचारिता से बचाता है तथा उन्हें समष्टि-मात्र के लिए प्रसन्नता लाने वाले कर्मों में नियोजित .. करता है। प्रसाद के नाटकों में हम बराबर यह देखते हैं कि जहाँ अविवेक है, मोहान्धता है, व्यवहार में बेसुरापन है, वहाँ नियति के सचेतन हस्तक्षेप की तरह कुछ ऐसा घटित होता है कि हमारी संवेदना स्वेच्छाचारों के प्रति सहम उठती है। नियति की इस रंग-भूमिका को ध्यान में धारण किए बिना प्रसाद के नाटकों में व्यक्त संयोगों और अकस्मात् घटने वाले रंग-व्यापारों का मर्म समझ में नहीं आ सकता। स्कंदगुप्त में स्कंदगुप्त को झकझोरती हुई नियति उसे कर्मयोगी बनाए रखती है; कुत्सित कर्मों में लगे हुए भटार्क, अनन्तदेवी और विजया को क्षमा माँगने और हृदय में परिवर्तन लाने के लिए बाध्य करती है। प्रथम अंक के चौथे दृश्य में प्रपंचबुद्धि के अभिचार पर विश्वास करके जिस अनन्तदेवी ने यह कहा था – ‘सूचीभेद्य अंधकार में छिपने वाली रहस्यमयी नियति का – प्रज्ज्वलित कठोर नियति का – नील आवरण उठाकर झाँकने वाला (प्रपंचबुद्धि)।’ उसमें कितनी नाटकीय विडम्बना है, इसे चौथे-पाँचवे अंक में घटित घटनाओं को देखकर समझा जा सकता है। नियति उनके अहंकार पर व्यंग्य करती हुई उन्हें किस दयनीय स्थिति को प्राप्त कराती है, यह सहज ही द्रष्टव्य है। नियति उनके अभिचार और कुघातों का फल चखाती है। उसके इस हस्तक्षेप का मर्म जान लेने पर दर्शक कुनीतियों और कुचालों से अनायास ही सहम उठता है। उसे यह बोध होता है कि नियति समष्टि की प्रसन्नता की बड़ी सजग प्रहरी है; उसकी भृकुटी-विलास से स्वार्थान्ध व्यक्ति बच नहीं सकता। नियति के हस्तक्षेप का ही। परिणाम है कि आलोच्य नाटक का अंत नितांत भिन्न रूप में हुआ है और इसे प्रसादांत कह सकते हैं। अन्यथा चौथे अंक के सातवें दृश्य में नायक (स्कंदगुप्त) को जिस निराशा, एकाकीपन और दुःखमय स्थिति में हम पाते हैं, वह नाटक को दुःखांत ही बना देती।

ऐसी स्थिति में स्कंदगुप्त के पक्ष में संयोगों के जो चमत्कार सहसा घटित होने लगते हैं, वह नियति की ही लीला हो सकती है। राज्य के भीतरी शत्रुओं का हृदय-परिवर्तन होता है, बाहरी आक्रमणकारी पराजित होते हैं, साम्राज्य की रक्षा की दृष्टि से स्कंदगुप्त विजयी होता है। आर्यावर्त को हर तरह से निष्कण्टक करना ही नाटक के नायक का अभीष्ट फल है, गुप्त-साम्राज्य का शासक होना नहीं। इस दृष्टि से स्कंदगुप्त फल का भोक्ता भी बनता है। . नायक के लिए फल का भोक्ता होनो भी जरूरी है। लेकिन स्कंदगुप्त आर्यावर्त को सभी प्रकार के बाहरी-भीतरी शत्रुओं से निष्कंटक बनाकर उदा-भाव से पुरगुप्त को सौंप देता है। व्यक्तिगत रूप से तो वह अंत में हतभाग्यशाली और अकेला स्कंदगुप्त’ ही रह जाता है। इसमें रोमाण्टिक-धर्मी अवसाद की संवेदना जाग्रत होती है। नाटक की मूल संवेदना भी यही है।

समष्टिगत स्तर पर तो स्कंदगुप्त राष्ट्रोद्धार की संवेदना जाग्रत करता है, किंतु व्यक्तिगत स्तर पर वह अंतर्द्वद्वों से पीड़ित, निराशा से ग्रस्त हो जाने वाला सहज मनुष्य लगता है। भरत-वाक्य की तरह व्यक्त देवसेना के इस कथन में यह संकेतित है – ‘कष्ट हृदय की कसौटी है, तपस्य अग्नि है। सम्राट! यदि इतना भी न कर सके तो क्या! सब क्षणिक सुखों का अंत है। जिसमें सुखों का अंत न हो, इसलिए सुख करना ही न चाहिए। मेरे इस जीवन के देवता और उस जीवन के प्राप्य! क्षमा।’ (अंक 5, दृश्य 6)

प्रसाद के नाटकों में चारित्रिक वैविध्य, मनोवैज्ञानिकता, मानवीय क्रियाकलापों के अभीष्ट मंतव्य को लक्ष्य करके ही आलोचकों ने उनके नाटकों को चरित्र-प्रधान नाटक माना है। आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी लिखते हैं – ‘……..प्रसाद जी कवि थे, इसलिए वस्तु-विन्यास उनकी विशेषता नहीं है। चरित्रों की सजीवता और बहुरूपता उनका सर्वप्रथम गुण है। व्यक्ति के चित्रों के अंकन में उन्हें अधिक। सफलता मिली है। चरित्र-निर्माण संबंधी उनकी दूसरी विशेषता यह है कि उन्होंने सभी पात्रों में अलग व्यक्ति-योजना का ध्यान रखा है।…….प्रसाद जी के नाटकों में चरित्र-चित्रण प्रधान होने के कारण, उसके अंगभूत मनोवैज्ञानिक पक्ष का सुंदर निरूपण हुआ है।’ डॉ. नगेन्द्र भी प्रसाद की नाट्य-सृष्टि के  इस महत्व को रेखांकित करते हैं – ‘….स्पष्टतः ये नाटक चरित्र के द्वंद्व को लेकर चले हैं। उनकी सबसे बड़ी विशेषता चरित्र-निर्माण में है।’ (आधुनिक हिंदी नाटक)

नाट्य-सृजन में चरित्र-चित्रण की प्रधानता को सूचित करने वाला तत्व अंतर्द्वद्व है। अंतर्द्वद्व मानवीय । चरित्र को सजीव बनाता है। इस तत्व की समुपस्थिति से ही पात्र सहज और जीवित मनुष्य लगते हैं। तथापि, प्रसाद का अंतर्द्वद्ध-विधान द्विजेन्द्र लाल राय (बंगला साहित्य के ऐतिहासिक नाटकों के नाटककार) से तत्वतः भिन्न है। द्विजेन्द्र लाल राय ने पात्रों के अंतर्द्वद्व को अति-नाटकीय भावातिरेक के साथ व्यक्त किया है, जो अतिरिक्त संवेगात्मक संलापों और अकारण उच्छवासों के रूप में फूट पड़ा है। राय की चरित्र-सृष्टि (शाहजहाँ, नूरजहाँ, चाणक्य आदि) में तीव्र अंतर्द्वद्व का उन्मादकारी उद्वेलन परिलक्षित है। प्रसाद का अंतईद-विधान अंतर्द्वद्व का चमत्कार-मात्र प्रदर्शित करने के लिए नहीं है, अपितु मनुष्य जीवन की विषमता में समता, अथवा मानवीय भावनाओं, विचारों एवं क्रियाओं के बेसुरे रागों को उभारते हुए जीवन की चिर आनंदमयी लय की व्यंजना के हेतु नियोजित है। स्कंदगुप्त में विजया के अंतर्मन की अलयात्मक वासना की भाग-दौड़ को लक्ष्य करके जब देवसेना यह कहती है कि ‘…..विजया! प्रत्येक परमाणु के हिलने में एक लय है, मनुष्य ने अपना स्वर विकृत कर रक्खा है; इसी से तो उसका स्वर विश्व-वीणा में शीघ्र नहीं मिलता। पाण्डित्य के मारे जब देखो, जहाँ देखो, बेतालबेसुरा बोलेगा’ – तब वह अंतईद्व के भीतर से ही जीवन की आनंदमयी लय की प्राप्ति की सार्थकता का ही महत्व प्रकट करती है। इससे यह स्पष्ट है कि व्यक्तियों के अंतर्द्वद्व का निरूपण करते हुए प्रसाद नागरिक जीवन में कहीं भी उच्छृखलता, अहमन्यता, असहिष्णुता, अंध-रूढ़ि के ढंग से शास्त्रीय लीक पीटने वाले अनुभव-विहीन पाण्डित्य के चमत्कार को महत्व नहीं देते। उनका मानवीय सोच सामाजिक है; नितांत व्यक्ति-वैचित्र्यपरक नहीं है। उनके अंतर्द्वद्व विधान के भीतर प्रज्ञा या अनुभव-सापेक्ष समझदारी से देश-काल और परिस्थिति के स्वरों को पहचानने की प्रक्रिया अक्षुण्ण रहती है। अपने नाटकों में प्रसाद राष्ट्र-प्रेम, स्त्री-पुरुष के सहज प्रेम-प्रवाह, तथा नागरिक रिश्तों के टूटने और बनने की स्थितियाँ सामने लाते हैं। वे समरसतावादी विचारक थे और इसी परिप्रेक्ष्य में अंतर्द्वव-चित्रण को एक अर्थवान रूप में ढालते हैं। इस प्रकार प्रसाद के पात्रों में अंतर्द्वद्व की अभिव्यक्ति इस पद्धति के अनुरूप है, उसमें द्विजेन्द्र लाल राय की तरह संशय की आतुरता ही नहीं, रस व्यंजकता भी है। इसीलिए यह कहा जाता है कि प्रसाद के नाटकों में रस और अंतर्द्वद्व का समन्वय हुआ है।

पात्रों का शील-निरूपण आशावादी भूमि का है। द्विजेन्द्र लाल राय की तरह त्रासदी-बोध सुलभ निराशा एवं संशय की दृष्टि नहीं अपनाई गई है। द्विजेन्द्र लाल राय के शाहजहाँ, चन्द्रगुप्त, दुर्गादास, नूरजहाँ आदि नाटकों में नायक के प्रयत्नों की असफलता और असिद्धि ही प्रकट होती है। किंतु प्रसाद के नाटकों – चन्द्रगुप्त, स्कंदगुप्त, अजातशत्रु, विशाख, ध्रुवस्वामिनी आदि में नायक के प्रयत्न सफलता प्राप्त करते हैं। अतः उनमें रस-निष्पत्ति सुलभ है। चरित्र-चित्रण को मनोवैज्ञानिक रूप देने के लिए प्रसाद ने पात्रों के अंतर्द्वद्व को विरोधी स्थितियों के बीच निर्मित किया, किंतु उसे नितांत निराश और संशय-ग्रस्त भी नहीं होने दिया है। नैराश्य व्यंजक अंतर्विरोधों, संशय-ग्रस्त संघर्षों के बावजूद प्रसाद के नाटकों में नायक कार्य की सिद्धि तक अम्लान अंतश्चेतना के साथ संलग्न रहता है। मलिनता अथवा निराशा से पराभूत या हतचेत नहीं होता है। दृढ़ता से कार्य-सिद्धि में जुटता है। स्कंदगुप्त में आशावादी दृष्टि से चरित्र-चित्रण का एक कलात्मक प्रभावशाली रूप दिखाई देता है।

चरित्र-चित्रण में स्वच्छंद चेतना का संयोजन परिलक्षित है। जैसा कि पाश्चात्य आलोचक ई.एम.फार्टर का मत है – ‘यदि किसी लेखक की चेतना रोमाण्टिक-धर्मी है तो वह मानवीय संबंधों को सुंदर रूप में ही देखेगा। उसके अंदर दिखलाई पड़ने वाले पारस्परिक घृणा-द्वेष भी कुत्सित नहीं होते।’ यही कारण है कि प्रसाद के नाटकों में दुष्ट-मति पात्रों की मोहान्ध दुर्बलता के भीतर लुप्त-सुप्त सवृत्तियाँ अवसर पाकर उभर आती हैं। उनके चरित्र में भी एक प्रकार की सौम्यता और उच्चता का विकास सुलभ होता है। अजातशत्रु में समुद्रदत्त, चन्द्रगुप्त में आम्भीर, स्कंदगुप्त में पुरगुप्त, भटार्क, विजया और अनन्तदेवी के चरित्र इसी शैली में रूपायित हैं। उनके चरित्र का प्रभाव हमारे ऊपर इस रूप में नहीं पड़ता कि वे सर्वथा खल-पात्र हैं, अपितु इस रूप में पड़ता है कि वे नायक के प्रतिपक्ष में खड़े मोहान्ध पात्र हैं; नायक की करुणा और सहानुभूति पाकर उनके चरित्र में उच्चता और सौम्यता का विकास होता है।

‘स्कन्दगुप्त’ में रस-विधान और जीवन मूल्य

चरित्र-चित्रण में प्रसाद ने रस-विधान को महत्व तो दिया है, किंतु उस रूप में नहीं जिस रूप में भारतीय नाटक में अपेक्षित होता है। रस की अव्यावहारिक और एकतान अभिव्यक्ति की अपेक्षा चरित्रचित्रण की मनोवैज्ञानिकता एवं परिस्थितियों की जटिलता नाटककार के ध्यान को अधिक आकृष्ट करती हैं। केवल रस की विशेषता रखने वाले नाटकों में स्थिति और कार्य का साधारणीकृत रूप ही प्रकट हो पाता है।

प्रसाद के नाटकों को रस-प्रधान इसलिए भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वे आदि से अंत तक किसी एक स्थायी भाव के केंद्र से ही विभावन व्यापार का संयोजन नहीं करते हैं। केवल रस को प्रधानता देने वाले नाटककार चरित्रों के व्यक्तिगत मनोविज्ञान तथा विशेष-विशेष सामाजिक परिस्थितियों के अंतर्भाव का ध्यान नहीं रखते हैं। प्रसाद चरित्रों और परिस्थितियों की व्यक्तिगत विलक्षणता को भी सामने लाते चलते हैं। वे पात्र के सामाजिक स्वरूप के साथ उसके वैयक्तिक द्वंद्व को भी प्रदर्शित करते हैं। उसके चरित्र का द्विधा-विभक्त संशय-ग्रस्त रूप भी दर्शक के सामने आता है। रसवादी नाटकों के साधारणीकृत चरित्र-चित्रण में इस प्रकार की व्यक्तिगत विलक्षणता देखने को नहीं मिलती।

प्रसाद के नाटकों में चरित्र-चित्रण का आधार विरोध है, किंतु स्थूल विरोध नहीं, चरित्र की व्यक्तिगत विशिष्टता से उत्पन्न सूक्ष्म विरोध है। एक पात्र का दूसरे पात्र से विरोध का आधार अधिकतर चारित्रिक विषमता ही है। पुरगुप्त और स्कंदगुप्त का विरोध, विजया का अनायास ही स्कंदगुप्त का विरोधी हो जाना वस्तुतः चारित्रिक विषमता के कारण ही है, उसका कोई तार्किक आधार नहीं है। स्कंद. विजया और देवसेना के बीच भी सजीव विरोध व्यंजित है; परंतु परिस्थितियों को इस प्रकार रूपा. किया गया है जिससे उन दोनों का विरोध नाटक में आद्यन्त आकर्षण का केंद्र बना रहता है।

प्रसाद के नाटकों में जीवन-मूल्य

प्रसाद के नाटकों में राष्ट्र-प्रेम और राष्ट्रीय जागरण की भावना तो अभिव्यक्त हुई ही है; उनमें भारतीय जीवन के सांस्कृतिक मूल्यों अथवा जीवनादर्शों का स्वरूप भी व्यापक रूप से प्रकट हुआ है। जातीय जीवन के सभी पक्षों और रिश्तों को लक्ष्य कर भारतीय जीवन मूल्यों या आदर्शों को प्रकाशित करने के अवसरों को प्रसाद की नाट्य-चेतना बराबर ढूँढती रहती है। वे नाट्य-वस्तु को ऐसा घुमाव देते हैं जिससे व्यक्तिगत जीवन, घरपरिवार के रिश्तों से राष्ट्रीय-जीवन के व्यापक सामाजिक रिश्ते तथा उनकी विषमताएँ और अपेक्षाएँ प्रकट होती हैं। चरित्र-चित्रण के भीतर से इन रिश्तों के सूत्रों को विकसित कर वे दर्शक को जीवन के अभीष्ट या काम्य मूल्यों के प्रति संवेदनशील बनाने का निरंतर प्रयत्न करते हैं। इसीलिए आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं कि …….प्रसाद के नाटकों से भारतवर्ष की अंतश्चेतना के दर्शन का सिंहद्वार अनावृत्त हो गया है।’

सारांश

आपने स्कंदगुप्त से संबधित इकाई 5 का अध्ययन कर लिया है। आपने यह समझ लिया होगा कि इस नाटक में इतिहास की अभिव्यक्ति किस रूप में हुई है। स्कंदगुप्त नाटक गुप्त साम्राज्य के प्रसिद्ध सम्राट स्कंदगुप्त से संबंधित है जिन्होंने पाँचवीं सदी में उज्जैन पर शासन किया था और भारत के उत्तर तथा पश्चिम के क्षेत्रों से विदेशी आक्रमणकारियों, शकों और हुणों के राज्यों को समाप्त किया था। वह समय एक ओर विदेशी हमलावरों से त्रस्त था, तो दूसरी ओर भारत के विभिन्न प्रांत आंतरिक कलह से ग्रस्त थे। इसी स्थिति का लाभ उठाकर शकों और हुणों ने भारत के काफी बड़े क्षेत्रों पर अपना राज्य स्थापित करने में सफलता अर्जित कर ली थी।

स्कंदगुप्त ने विदेशी आतताइयों से मुक्ति इसीलिए प्राप्त की क्योंकि उसके मन में राज्य-प्राप्ति की लालसा नहीं थी, वरन् राष्ट्र की सेवा करने और उसे दासता से मुक्त कराने की थी। इसके लिए उसने विभिन्न समुदायों और प्रांतों को एकजुट किया। प्रसाद के इस नाटक में इतिहास का यह चित्रण वर्तमान समय की चुनौतियों से प्रेरित था। देश में राष्ट्रीय चेतना के विस्तार के लिए जरूरी था कि लोग धर्म, क्षेत्र, भाषा और जातिगत भेदभावों से ऊपर उठे। बौद्ध और ब्राह्मण धर्म के कलह का लाभ जिस प्रकार हूणों ने उठाया, वैसा ही लाभ हिंदू-मुस्लिम कलह का अंग्रेज़ उठा रहे थे। राष्ट्रीय चेतना के इसी संदर्भ का विश्लेषण इस इकाई में किया गया है।

इतिहास की स्वना के लिए प्रसाद ने कल्पना का सहयोग लिया। विभिन्न पात्रों की सृष्टि में और घटनाओं के निर्माण में इस कल्पनाशीलता के बल पर वे ऐसा प्रभावशाली नाटक लिख सके जिसका कथा-संयोजन ही नहीं वरन् चरित्र-चित्रण भी अत्यंत विशिष्ट ढंग का है।

प्रसाद नाटके में रस को काफी महत्व देते हैं। लेकिन उनके नाटक, संस्कृत नाटकों की तरह रस-प्रधान नहीं हैं। उनमें किसी एक स्थायी भाव की प्रधानता नहीं है। रस को महत्व देने का तात्पर्य सिर्फ इतना ही है कि वे नाटक को न तो सुखांत और न ही दुखांत रूप में रचते हैं। स्कंदगुप्त में भी यही विशेषता देखते हैं। विदेशी आतताइयों से राष्ट्र को मुक्त कराने में जो सफलता स्कंदगुप्त को हासिल होती है, उसके बावजूद उसके जीवन में अवसाद अंत तक बना रहता है। एक तरह की नियति पहले से निश्चित प्रतीत होती है। नियति का यह प्रभाव प्रसाद के नाटकों में किस रूप में है, ‘स्कंदगुप्त’ के संदर्भ में इस पर भी इस इकाई में विचार किया गया है।

अभ्यास

  1. स्कंदगुप्त के आधार पर प्रसाद की इतिहास दृष्टि की विवेचना कीजिए।
  2. “स्कंदगुप्त में इतिहास दृष्टि और राष्ट्रीय चेतना
  3. स्कंदगुप्त की ऐतिहासिक कथावस्तु का राष्ट्रीय संदर्भ क्या है? इस पहलू पर विचार करते हुए प्रसाद की राष्ट्रीय चेतना का उल्लेख कीजिए।
  4. स्कंदगुप्त चरित्र प्रधान नाटक है। इस कथन के संदर्भ में स्कंदगुप्त की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।

Add a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *


The reCAPTCHA verification period has expired. Please reload the page.