जल प्रदूषण(Water Pollution)

  • विश्व की कुल जनसंख्या का 16 प्रतिशत भाग भारत में निवास करता है। हालाँकि इसके पास वैश्विक जल संसाधनों का केवल
    लगभग 4% भाग उपलब्ध है।
  • भारत में जल प्रदूषण एक गंभीर समस्या है क्योंकि इसके 70% सतही जल संसाधन और भूजल भंडार का एक बड़ा भाग जैविक, विषाक्त, कार्बनिक और अकार्बनिक प्रदूषकों से दूषित है।
  • निष्कासित भू-जल के 89% भाग का उपयोग सिंचाई क्षेत्र में किया जाता है, इसके बाद घरेलू उपयोग (9%) और औद्योगिक उपयोग (2%) का स्थान आता है। शहरी जल आवश्यकताओं के 50% और ग्रामीण घरेलू जल आवश्यकताओं के 85% की पूर्ति भूजल द्वारा की जाती है।
  • कई मामलों में, ये स्रोत मानव उपभोग के साथ-साथ अन्य गतिविधियों जैसे सिंचाई और औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए असुरक्षित होते हैं।

100 मिलियन से अधिक लोग निम्न जल गुणवत्ता वाले क्षेत्रों में निवास करते हैं।  4,000 भू-जल कुएं में से आधे से अधिक में जल स्तर में कमी दर्ज की जा रही है।

  • यह दर्शाता है कि जल की निम्न गुणवत्ता जल अभाव की स्थिति में योगदान कर सकती है, क्योंकि यह मानव उपयोग और पारिस्थितिक तंत्र दोनों के लिए जल की उपलब्धता को सीमित करती है। 2014 में इंटर-गवर्मेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज
    (IPCC) ने सचेत किया था कि विश्व की लगभग 80% जनसंख्या की जल सुरक्षा के समक्ष गंभीर खतरा विद्यमान है।

भारत में जल प्रदूषण से संबंधित प्रमुख मुद्दे

राज्यों के मध्य समन्वय का अभाव: अंतरराज्यीय जल संबंधी विवादों में वृद्धि हो रही है, जो अकुशल राष्ट्रीय जल प्रशासन को
दर्शाता है।

जल संबंधी आंकड़ों का अभाव: देश में जल संबंधित डेटा सिस्टम अपने कवरेज, सुदृढ़ता और दक्षता में सीमित हैं:

सीमित कवरेजः घरेलू और औद्योगिक उपयोग जैसे विभिन्न महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लिए विस्तृत डेटा उपलब्ध नहीं है।

अविश्वसनीय डेटा: डेटा संग्रह में पुरानी पद्धतियों के उपयोग के कारण उपलब्ध डेटा प्रायः निम्न गुणवत्ता युक्त, असंगत और
अविश्वसनीय हो सकते हैं।

सीमित समन्वय और साझाकरण: जल क्षेत्रों में डेटा साइलो (silos) में उपस्थित हैं, जिससे दक्षता कम हो जाती है।

  • जलवायु परिवर्तन: उष्ण ग्रीष्मकाल और अल्प शीतकाल के परिणामस्वरूप हिमालयी हिमनदों का कम होना, अनियमित मानसून, निरंतर बाढ़ इत्यादि घटनाएं घटित हो रही हैं जो समग्र स्थिति को और खराब कर रही हैं।
  • भू-जल प्रदूषण: घरेलू और औद्योगिक स्रोतों से उचित अपशिष्ट जल उपचार के अभाव के कारण भू-जल प्रदूषण में वृद्धि हुई है, इससे स्वास्थ्य संबंधी खतरे उत्पन्न होते हैं।

इसके अतिरिक्त, सरकार द्वारा प्रदत्त निःशुल्क उपहारों के साथ अवैज्ञानिक कृषि पद्धति ने जल संसाधनों के अस्थिर और
अत्यधिक दोहन की समस्या उत्पन्न की है। उदाहरण के लिए, भारत में भू-जल 2002 से 2016 के मध्य प्रति वर्ष 10-25 मिमी
की दर से कम हुआ है।

6,607 आकलन इकाइयों (ब्लॉक, मंडल, तालुका और जिलों) के भू-जल के आधिकारिक आकलन के अनुसार, 1,071 इकाइयां | अति दोहित (सामान्यतः ‘डार्क जोन’ के रूप में जाना जाता है), 217 इकाइयां गंभीर, 697 इकाइयां अर्ध- गंभीर, 4,580 इकाइयां सुरक्षित और 92 इकाइयां लवणीय हैं।

भारतीय नदियों में विषाक्तता

  •  हाल ही में, केंद्रीय जल आयोग की रिपोर्ट ने यह इंगित किया है कि भारत में 42 नदियों में कम से कम दो विषाक्त भारी धातुएं
    अनुमन्य सीमा से अधिक मात्रा में हैं।
  • राष्ट्रीय नदी गंगा पांच भारी धातओं- क्रोमियम, तांबा, निकेल, सीसा और लौह से प्रदूषित पाई गई।
  •  यह एक समस्या है क्योंकि अधिकांश भारतीय अभी भी अपने घरेलू उपयोग के लिए सीधे नदियों से जल का उपयोग करते हैं।जनसंख्या में वृद्धि के साथ इन नदियों  पर दबाव और अधिक बढ़ेगा।
  •  रिपोर्ट के अनुसार, खनन, मिलिंग, प्लेटिंग और सतह परिष्करण उद्योग भारी धातु प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं और विगत कुछ दशकों में इस प्रकार की विषाक्त धातुओं का संकेंद्रण तेजी से बढ़ा है।

सूखे की आवृत्ति में वृद्धि: भारत के 1.3 अरब लोगों में से Cadmium || 3ug/L 800 मिलियन लोग आजीविका हेतु कृषि पर निर्भर हैं,
जिसमें से 53% कृषि वर्षा निर्भर होती है, जिससे किसानों के लिए सामाजिक-आर्थिक संकट उत्पन्न होता है।

नदी प्रदूषण के प्रमुख स्रोत

  • प्राकृतिक – चट्टानें, ज्वालामुखी विस्फोट, पवन वाहित धूल कण, समुद्री बौछार, एरोसोल।
  • कृषि – अकार्बनिक उर्वरक, कीटनाशक, सीवेज कीचड़ और फ्लाई ऐश, अपशिष्ट जल, कवकनाशी।
  • औद्योगिक- औद्योगिक अपशिष्ट, तापीय ऊर्जा, कोयला और कच्चे अयस्क खनन उद्योग, रासायनिक उद्योग, विभिन्न रिफाइनरियां
  • घरेलू – ई-अपशिष्ट, प्रयुक्त बैटरियां, अकार्बनिक और कार्बनिक अपशिष्ट, पुराने फ़िल्टर, बायोमास का दहन।
  • विविध- राख, खुले में डंपिंग, यातायात और अन्य उत्सर्जन, लैंडफिल, चिकित्सा अपशिष्ट।

विषाक्त धातुओं का स्वास्थ्य पर प्रभाव

  • भारी धातुएं विषाक्तता, अजैवनिम्नीकरण और जैव-संचय के कारण मनुष्यों और पर्यावरण के लिए एक गंभीर खतरा उत्पन्न करती हैं और इसके परिणामस्वरूप प्रजाति विविधता में कमी आ सकती है।
  • यह शारीरिक, मांसपेशी, और तंत्रिका संबंधी अपकर्षक प्रक्रियाओं का कारण बनती हैं जो अल्जाइमर रोग, पार्किंसंस रोग, कैंसर इत्यादि के समान हैं।

भारत में जलाभाव

  • हाल ही में शिमला में गंभीर जलाभाव से इस समस्या को समझा जा सकता है, जहां ग्रीष्मकाल में मई के अंतिम सप्ताह में नौटी-खड़ धारा में जल लगभग सूख गया था। देश के 54% भाग को अत्यधिक उच्च जल दबाव का सामना करना पड़ता है।

विश्व बैंक ने यह इंगित किया है कि 2030 तक भारत की प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता कम होकर आधी हो सकती है, जिससे देश मौजूदा ‘जल दबाव’ श्रेणी से ‘जल दुर्लभ’ श्रेणी में परिवर्तित हो जाएगा।

  • जल दबाव स्थिति: जब वार्षिक प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1700 घन मीटर से कम होती है।
  • जल दुर्लभ स्थिति: जब वार्षिक प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता 1000 घन मीटर से कम होती है।
  • प्रति व्यक्ति जल की उपलब्धता में कमी: यह 2001 के 1,820 घन मीटर से कम होकर 2011 में 1,545 घन मीटर हो गई है, जो 2025 में 1,341 घन मीटर तक कम हो सकती है।

लगभग 70% दूषित जल के साथ, भारत जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 देशों में से 120वें स्थान पर है।

भारत अपने इतिहास में सबसे खराब जल संकट की स्थिति से गुजर रहा है

  • भारत में 600 मिलियन लोग अत्यधिक जल दबाव की स्थिति का सामना करते हैं।
  • देश के 75% घरों में उनके परिसर में पेयजल उपलब्ध नहीं है।
  • 84% ग्रामीण परिवारों में पाइप के द्वारा जल की पहुंच नहीं है।
  • सुरक्षित जल तक अपर्याप्त पहुंच के कारण प्रत्येक वर्ष लगभग 2,00,000 लोगों की मृत्यु हो रही है।
  • 2030 तक भारत की 40% जनसंख्या की पेयजल तक पहुंच नहीं होगी।

बढ़ती जनसंख्या और बदलते जनसंख्या प्रतिरूप के कारण शहरों में जल की मांग में तीव्र वृद्धि से शहरी जलाभाव की स्थिति उत्पन्नहो रही है।

इसका प्रभाव

  • 2016 में विश्व बैंक ने भारत सरकार को चेतावनी दी है कि जिन देशों में पर्याप्त मात्रा में जल की कमी है, उनकी GDP में 2050
    तक 6% की गिरावट आएगी।
  • कृषि पर: जलाशयों के निम्न जल स्तर से पश्चिमी और केंद्रीय राज्यों में दालें, कपास, धान और बाजरा की बुआई में विलंब हो सकता है जो कृषि और खाद्य सुरक्षा के लिए विनाशकारी सिद्ध होगा। यह बटाईदारों और खेत श्रमिकों की आजीविका पर भी गंभीर प्रभाव डालेगा।
  • औद्योगिक क्षेत्र पर: वस्त्रों, खाद्य उत्पादों एवं पेय पदार्थों, पेपर मिलों, शीत भंडारण सुविधाओं और बर्फ उत्पादन जैसे क्षेत्रों में जल
    की कमी के कारण उत्पादन में कमी आने की संभावना है।
  • पेयजल की कमी: संयुक्त राष्ट्र आधारित अनुमानों के अनुसार, भारत का बेंगलुरू शहर “सर्वाधिक संभाव्यता” वाला पहला भारतीय
    शहरी क्षेत्र है जो पेयजल संकट की स्थिति में है।

जल प्रबंधन (Water Management)

जल राज्य सूची का विषय है और इसका इष्टतम उपयोग एवं प्रबंधन मुख्य रूप से राज्यों के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत शामिल है। हालांकि, केंद्र सरकार पर्यावरण से सम्बंधित मुद्दों पर कानून बना सकती है जिसमें भू-जल संरक्षण और सतत उपयोग को बढ़ावा देना शामिल है। अनुच्छेद 21 पेयजल तक पहुंच और सुरक्षित पेयजल का अधिकार प्रदान करता है।

सरकार ने जल प्रबंधन के संबंध में विभिन्न उपाय किए हैं:

  • राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम- इसे भारत निर्माण कार्यक्रम के तहत सभी ग्रामीण परिवारों और व्यक्तियों तक हैंड-पंप,पाइपलाइन इत्यादि के माध्यम से सुरक्षित एवं पर्याप्त पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित करने के उद्देश्य से प्रारंभ किया गया था। सतत
  • विकास लक्ष्य (SDG)-6 2030 तक सभी के लिए सुरक्षित और वहनीय पेयजल तक सार्वभौमिक पहुंच प्रदान करने का लक्ष्य निर्धारित करता है। (हर घर जल)

ड्राफ्ट नेशनल वाटर फ्रेमवर्क बिल 2016

उद्देश्य: जल प्रबंधन को विकेन्द्रीकृत करना तथा जल का बेहतर उपयोग कैसे किया जा सकता है, इसका निर्णय लेने करने के लिए पंचायतों एवं ग्राम सभा को अधिक शक्ति प्रदान करना।

  • यह प्रत्येक व्यक्ति को “सुरक्षित जल” का अधिकार देने का प्रावधान करता है, जबकि जल की “सुरक्षा” और संरक्षण हेतु राज्य
    को “बाध्य”(obliged) करता है।
  • घरेलू जलापूर्ति के लिए “ग्रेडेड प्राइसिंग सिस्टम” जिसके तहत, उच्च आय वाले समूहों के लिए पूर्ण लागत मूल्य वसूली , मध्यम
    आय समूहों के लिए “वहनीय मूल्य” और गरीबों को “कुछ निश्चित मात्रा तक नि:शुल्क आपूर्ति” का प्रावधान किया गया है
  •  प्रत्येक प्रकार के उपयोग हेतु बाध्यकारी राष्ट्रीय जल गुणवत्ता मानकों को आरंभ करना।
  • यह सरकारों को अविरल धारा (निरंतर प्रवाह), निर्मल धारा (अदूषित प्रवाह), और स्वच्छ किनारा (स्वच्छ और सौंदर्यपूर्ण
    नदीतट) सुनिश्चित करके नदी प्रणालियों के कायाकल्प के प्रयास का कार्य सौंपता है।

भूमिगत जल संसाधनों के लिए

  • मनरेगा की अनुसूची -1 के तहत, भूजल संवर्द्धन हेतु जल संरक्षण और जल संचयन संरचनाओं के निर्माण को मनरेगा कार्यों में
    विशेष फोकस क्षेत्र के रूप में स्थापित किया गया है।
  • इजमेंट एक्ट (Easement Act), 1882: प्रत्येक भूस्वामी को अपने क्षेत्र के भीतर भूमिगत और सतही सभी प्रकार के जल के
    संचयन और उसे उपयोग करने का अधिकार प्रदान करता है।
  • भूजल के विकास और प्रबंधन के विनियमन एवं नियंत्रण के उद्देश्य से पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986।
  • मॉडल बिल ऑफ़ ग्राउंड वाटर मैनेजमेंट 2011 इसका उदेश्य सहायकता के सिद्धांत (principle of subsidiarity) को लागू
    करना है जिसके तहत किसी गांव में पूर्णतया अवस्थित किसी जलस्रोत (aquifer) पर ग्राम पंचायत का प्रत्यक्ष नियंत्रण होगा।
  • केंद्रीय जल आयोग (CWC): यह भूजल संरक्षण और बांध एवं मध्यम स्तर के जलाशयों जैसी जल भंडारण संरचनाओं के
    निर्माण हेतु उत्तरदायी है। यह जल विद्युत संयंत्रों और सिंचाई हेतु जलापूर्ति करने वाले 91 प्रमुख जलाशयों की निगरानी करता है। साथ ही यह केंद्र एवं राज्य सरकारों को पेयजल, सिंचाई और औद्योगिक उद्देश्यों हेतु जल के उपयोग पर परामर्श देता है।

नदी पुनरुद्धार से सम्बंधित मुद्दे

अगस्त 2011 में गंगा नदी से संबंधित कार्ययोजना के निर्माण, प्रबंधन और कार्यान्वयन हेतु राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (NMCG) स्थापित किया गया था। इसके सन्दर्भ में CAG की एक रिपोर्ट में निम्नलिखित मुद्दों को चिन्हित किया गया:

  • फण्ड का कम उपयोग: मार्च 2018 तक राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (NCGM) के लिए आवंटित 1 20,000 करोड़ का केवल  पांचवां हिस्सा उपयोग किया गया था, जो लगभग गत वर्ष के समान था।
  • कार्य योजना को अंतिम रूप प्रदान नहीं करने के कारण विलंब : 2014-15 और 2016-17 के बीच विस्तृत परियोजना रिपोर्टों में से केवल 46% को स्वीकृति दी गई थी।
  • परियोजना को कार्यान्वित न किया जाना: 65 ‘प्रवेश-स्तर’ की परियोजनाओं में से केवल 24 (घाटों की सफाई एवं नए घाटों का । निर्माण और नदी के फ्रंट और नदी की सतह की सफाई से सम्बंधित परियोजनाओं) को पूरा किया गया है। वनस्पतियों और जीवों के संरक्षण और पारिस्थितिक प्रवाह (ecological flow) को बनाए रखने हेतु कोई ठोस कदम नहीं उठाए गए हैं।
  • NMGC को नदी संरक्षण क्षेत्र की पहचान करनी चाहिए और उन्हें मान्यता प्रदान करनी चाहिए। अभी तक केवल उत्तराखंड ने नदी संरक्षण क्षेत्र की पहचान हेतु पहल की है।
  • अन्य मुद्देः मानव संसाधन की कमी , यथा निर्धारित नियमित निगरानी बैठकों का आयोजित न होना एवं भुवन गंगा (परियोजनाओं के निष्पादन और निगरानी को सक्षम बनाने हेतु एक वेब पोर्टल) आदि का मंद कार्यान्वयन।

यमुना के बाढ़ के मैदान से सम्बंधित विशिष्ट मुद्दे

  • नागरिकों का अलगाव: दिल्ली के नागरिक अब पूर्णरूपेण अपनी नदी से पृथक हो गए हैं, एक कॉमन्स की अवधारणा के तहत
    सार्वजनिक स्थल की पूर्व की साझा चेतना से बड़े विचलन का हिस्सा मात्र हैं।
  • बाढ़ के मैदान में अतिक्रमण : पुल और अन्य बड़ी अवसंरचनाएँ बाढ़ के मैदान की प्रभावी चौड़ाई को कम कर नदी में प्रतिरोध उत्पन्न कर रही हैं। इसके कारण मानसून की बाढ़ के दौरान जल की गति बढ़ जाती है, जो कि संरचनाओं, तटबंधों को तोड़ कर, नदी का तलकर्षण और यमुना की विनाश प्रभाविता में वृद्धि करती है।
  • पर्यावरणीय प्रवाहः यमुना नदी परियोजना ने पर्यावरणीय प्रवाह के मुद्दे पर ध्यान केन्द्रित नहीं किया है। इस पर ध्यान दिया जाना नदी के संरक्षण हेतु महत्वपूर्ण है।

नदी पुनरुद्धार हेतु प्रमुख कार्यक्रम

  • असिता (ASITA) प्रोजेक्ट: यमुना के बाढ़ के मैदानों के पुनरुद्धार एवं पुनर्निर्माण और उन्हें दिल्ली के लोगों के लिए सुलभ
    बनाने हेतु दिल्ली विकास प्राधिकरण (DDA) द्वारा यमुना रिवर फ्रंट डेवलपमेंट (RFD) लागू किया जा रहा है। इस परियोजना के घटकों में ग्रीन बफर एरिया, ग्रीनवेज, रिवरफ्रंट पर पैदल पथ (यमुना के साथ लोगों का जुड़ाव विकसित करने के लिए) का निर्माण शामिल है।
  • यमुना रिवर प्रोजेक्ट : यह वर्जीनिया विश्वविद्यालय का एक अंतर्विषयक शोध कार्यक्रम है जिसका उद्देश्य नई दिल्ली में यमुना
    नदी की पारिस्थितिकी को पुनर्जीवित करना है।
  • लक्ष्य: यमुना और इसकी सहायक नदियों के तत्काल पुनरुद्धार हेतु मुख्य स्रोत के रूप में कार्य करना, सार्वजनिक रूप से सूचना
    की सुलभता और विशेषज्ञता सम्बन्धी तन्त्र का निर्माण, तथा एक वैकल्पिक भविष्य संबंधी दृष्टिकोण विकसित करना।
  • सजीव इकाई का दर्जा प्रदान करना : 2017 में उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने गंगा और यमुना नदियों को “सजीव मानवीय
    इकाई” का दर्जा प्रदान किया है।
  • यमुना एक्शन प्लान (YAP): यह 1993 में प्रारंभ किया गया था। इसके अंतर्गत सीवेरेज/नालियों का अवरोधन और दिशा
    परिवर्तन, सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट्स (STPs), कम लागत वाले स्वच्छ/सामुदायिक शौचालय परिसरों तथा विद्युत/लकड़ी का प्रयोग करने वाले उन्नत श्मशान से संबंधित विभिन्न कार्य शामिल किए गए थे। वर्तमान में YAP का चरण -||| कार्यान्वित
    किया जा रहा है।
  • नमामि गंगे कार्यक्रम (2015): यह वर्तमान में जारी प्रयासों को सुदृढ़ करने तथा भविष्य के लिए ठोस कार्ययोजना का निर्माण
    कर गंगा नदी और इसकी सभी सहायक नदियों को एक ही अम्ब्रेला योजना के तहत पुनर्जीवित करने का एक व्यापक दृष्टिकोण है।

तकनीकी विशेषज्ञता: केंद्रीय जल आयोग (CWC), बेहतर जल संसाधन प्रबंधन एवं बाढ़ प्रबंधन के लिए गूगल के साथ एक सहयोग समझौते में शामिल हुआ है। इसके तहत, गूगल कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI), मशीन लर्निग, भू-स्थानिक मैपिंग और जलविद्युत अवलोकन से सम्बंधित डेटा के विश्लेषण में तकनीकी विशेषज्ञता साझा करेगा। साथ ही बाढ़ भविष्यवाणी प्रणाली में सुधार, उच्च प्राथमिकता वाले अनुसंधान, भारत के नदियों पर ऑनलाइन प्रदर्शनियों के निर्माण आदि के लिए हाइड्रोलॉजिकल ऑब्जरवेशन डेटा का विश्लेषण करेगा।

राष्ट्रीय जल नीति (2012): यह संरक्षण, संवर्द्धन और जल की सुरक्षा का समर्थन करती है तथा इसमें वर्षा जल संचयन, वर्षा के जल का प्रत्यक्ष उपयोग एवं अन्य प्रबंधन उपायों के माध्यम से जल की उपलब्धता में वृद्धि की आवश्यकता को रेखांकित किया गया है।

राष्ट्रीय जल सूचना विज्ञान केंद्र (NWIC)

  • यह राष्ट्रव्यापी जल संसाधन डेटा का एक संग्रह होगा और सार्वजनिक क्षेत्र में GIS मंच पर वेब आधारित भारत जल संसाधन सूचना l प्रणाली (India-WRIS) के माध्यम से  नवीनतम और विश्वसनीय जल डेटा (वर्गीकृत  डेटा से भिन्न) उपलब्ध कराएगा।
  • यह चरम हाइड्रोलॉजिकल दशाओं में जल सम्बन्धी आपात स्थिति से निपटने में केंद्रीय  एवं राज्य संगठनों को तकनीकी सहायता
    प्रदान करने के लिए प्रमुख राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय शोध संस्थानों के साथ भी सहयोग करेगा।
  • यह राष्ट्रीय जलविद्युत परियोजना का एक घटक है तथा राष्ट्रीय जल मिशन के अनुरूप है।  राष्ट्रीय जल मिशन का उद्देश्य “जल संरक्षण, 2015-16 जल का अपव्यय कम करना और एकीकृत जल  संसाधन विकास एवं प्रबंधन के माध्यम से  इसके न्यायोचित वितरण को सुनिश्चित करना ।

नीति आयोग द्वारा विकसित समग्र जल प्रबंधन

सूचकांक राज्यों का मूल्यांकन उनकी जल उपयोग क्षमता (इन्फोग्राफिक देखें) के आधार पर करता है। केपटाउन में उत्पन्न जल संकट की समस्या विभिन्न भारतीय शहरों के समक्ष भविष्य में आने वाले जोखिमों और चुनौतियों को रेखांकित करता है। इन संकटों ने प्रभावी जल प्रबंधन को गति प्रदान की है।

  •  2015-16 और 2016-17 के मध्य, सूचकांक में शामिल राज्यों में से लगभग 60% (24 में से15) ने अपने स्तर में सुधार किया है। जलसंकट से जूझ रहे कई राज्यों जैसे गुजरात, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तेलंगाना ने सूचकांक में बेहतर प्रदर्शन किया है।

आगे की राह

शहरों में जलाभाव का प्रबंधन

हाल ही में, विश्व बैंक समूह द्वारा, “वॉटर स्कार्स सिटीज: श्राइविंग इन ए फाइनाइट वर्ल्ड” (Water
Scarce Cities: Thriving in a Finite World) नामक एक रिपोर्ट जारी की गई थी, जो वाटर स्कार्स सिटीज (WSC) पहल के माध्यम से अभिनव दृष्टिकोण को संकलित करने का प्रयास करती है साथ ही यह शहरों में जलाभाव की स्थिति में जल की सुरक्षा हेतु समग्र दृष्टिकोण प्रदान करती है।

प्रत्यास्थ (Resilient) शहरों में जलाभाव के प्रबंधन हेतु पांच प्रमुख सिद्धांत

  • युक्तिसंगत मांग के लिए प्रचुर मात्रा में जल को स्थानांतरित (Shift) करने की संस्कृति: जल की मांग को युक्तिसंगत बनाने की प्रक्रिया में दो संभावित समस्याओं को लक्षित किया जाना चाहिए – अकुशल जल प्रणाली, और जल का अपव्ययी उपभोग।
  • विविधतापूर्ण एवं गतिशील जल संसाधन पोर्टफोलियो के माध्यम से जोखिमों के विरुद्ध प्रतिरक्षा: अनुकूलनशील डिज़ाइन और संचालन: शहर के जल बजट और संबंधित चुनौतियों को व्यवस्था नियोजन (सिस्टम प्लानिंग) तथा निवेश के लिए आधारभूत सुचना के रूप में सूचीबद्ध करना।
  • उन समाधानों पर निर्भरता, जो जलवायु परिवर्तन के प्रति सुभेद्य न हों (जैसे विलवणीकरण और अपशिष्ट जल पुनर्चक्रण )
  • बाहरी प्रतिस्पर्धा हेतु सीमा के भीतर स्थित जलीय व्यवस्था, अर्थात उन जल संसाधनों को चिन्हित करना जिसका उपयोग शहर के भीतर किया जा सकता है और किया जाना चाहिए।
  • विलवणीकरण की योजना के माध्यम से अतिरिक्त जल को संग्रहित करने के लिए बांधों की श्रृंखला के समान अनुकूलित डिजाइन एवं कार्यक्रमों के माध्यम से अनिश्चितता और परिवर्तनशीलता से निपटना।

प्रकृति-आधारित समाधान

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र विश्व जल विकास रिपोर्ट 2018 को जल के लिए प्रकृति-आधारित समाधान(NBS) नामक शीर्षक से जारी किया गया था।

  • ये ऐसे समाधान हैं जो प्रकृति से प्रेरित एवं समर्थित हैं, या सामाजिक चुनौतियों से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए प्राकृतिक
    प्रक्रियाओं के उपयोग के साथ ही मानव कल्याण तथा जैव विविधता सम्बन्धी लाभ प्रदान करते हैं।
  • NBS को खाद्य सुरक्षा, जलवायु परिवर्तन, जल सुरक्षा, मानव स्वास्थ्य, आपदा जोखिम, सामाजिक एवं आर्थिक विकास जैसी
    प्रमुख सामाजिक चुनौतियों का समाधान करने हेतु डिज़ाइन किया गया है।

प्रशासनिक उपाय

  • योजना निर्माण : विश्वसनीय योजना निर्माण उपकरण के रूप में उभरने के लिए CWMI पद्धति में संशोधन करते हुए सूचकांक
    में 9 संकेतकों के अलावा जल उत्पादकता, जल उपयोग दक्षता, फसल सम्बन्धी जल की मांग, पेयजल आपूर्ति दर, आपूर्ति की गुणवत्ता, स्वास्थ्य संकेतक और पर्यावरणीय प्रभाव भी शामिल किए जाने चाहिए।
  • डेटा-आधारित निर्णयन प्रणाली को सक्षम बनाना : राज्यों को रियल टाईम निगरानी क्षमताओं के साथ मजबूत जल डेटा तंत्र के निर्माण की आवश्यकता है ताकि डेटा नीतिगत पहलों को लक्षित करने और व्यापक जल पारिस्थितिकी तंत्र में नवाचार को
    सक्षम बनाने हेतु उपयोग किया जा सके।
  • विनियमन: जल प्रदूषण नियंत्रण कानूनों एवं विनियमों के प्रभावी और कुशल कार्यान्वयन को प्रोत्साहन।
  • अभिशासन: राष्ट्रीय जल अभिशासन के लिए ढांचे को तैयार कर सहकारी और प्रतिस्पर्धी संघवाद को बढ़ावा देना, ताकि
    व्यापक जल पारिस्थितिकी तंत्र में अंतराज्य और अंतरा-राज्यीय सहयोग को बेहतर बनाया जा सके।
  • सामुदायिक भागीदारी को बढ़ावा देना : NGOs और अन्य प्रासंगिक संगठनों के साथ साझेदारी के माध्यम से वास्तविक
    प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करते समय राज्यों को जल आपूर्ति प्रणालियों से सम्बंधित समस्याओं और चुनौतियों का सामाधान
    स्थानीय ज्ञान के आधार पर करना चाहिए।
  • पर्याप्त क्षमता निर्माण और तकनीकी सहायता प्रदान करना: सामुदायिक प्रयासों को पर्याप्त वित्तपोषण, तकनीकी ज्ञान, वित्तीय
    प्रबंधन कौशल इत्यादि के रूप में समर्थन प्रदान किया जाना चाहिए।
  • निजी क्षेत्र की विशेषज्ञता का उपयोग : सरकारों द्वारा डेटा एवं निगरानी प्रणाली के त्वरित निर्माण और कुशल प्रबंधन को । सुनिश्चित करने के लिए निजी क्षेत्र की विशेषज्ञता (विशेष रूप से प्रौद्योगिकी और डेटा के क्षेत्र में) का उपयोग किए जाने की
    आवश्यकता है।

नदी प्रदूषण के लिए

  • वनीकरण, टिकाऊ कृषि प्रणालियों एवं सिंचाई के लिए अपशिष्ट जल के उपयोग आदि के माध्यम से कृषि जल अपवाह, शहरी
    अपवाह और पशुधन फार्म अपवाह संबंधी अपवाह प्रदूषण को नियंत्रित करना।
  • हाइड्रोलॉजिकल-बेसिन दृष्टिकोण को अपनाना: प्रशासनिक सीमा दृष्टिकोण के बजाय समग्र नदी बेसिन प्रबंधन (अनेक राज्यों
    की सीमाओं को पार करने वाली नदी घाटियाँ) के लिए हाइड्रोलॉजिकल-बेसिन दृष्टिकोण को अपनाना।
  • कठोर सरकारी नीति और विभिन्न भारतीय नदियों में कृषि और उद्योगों से अपवाहित होने वाले प्रदूषित जल को प्रवाहित
    करने की निगरानी। CWCने सिफारिश की है कि प्रतिवर्ष कम से कम चार बार जल की गुणवत्ता की निगरानी की जानी चाहिए।

जल संकट के समाधान में NBS की भूमिका:

  • बांधों जैसे परम्परागत ग्रे इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के बजाय जल भंडारण (प्राकृतिक आर्द्रभूमि, मृदा की नमी, भूजल के कुशल पुनर्भरण) और पर्यावरणीय अनुकूल कृषि प्रणालियों जैसे संरक्षण जुताई (कंजर्वेशन टिलेज) के माध्यम से जल उपलब्धता का प्रबंधन करना।
  • गाद भराव को कम करने हेतु वन, आर्द्रभूमि, घास के मैदानों, मिट्टी और फसलों का समुचित प्रबंधन, प्रदूषकों की पहचान एवं उन्हें नियंत्रित करने और पारिस्थितिक तंत्र सेवाओं की पुनर्बहाली के माध्यम से पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण एवं कृषि से नॉन-पॉइंट (डिफ्यूज) स्रोत के प्रदूषण में कमी करने (जिससे मृदा पोषक तत्वों के प्रबंधन में सक्षम होगी) आदि के माध्यम से जल की गुणवत्ता का प्रबंधन।
  • बाढ़ और सूखे जैसे जल संबंधित जोखिम एवं आपदाओं का प्रबंधन: बाढ़ प्रबंधन के लिए NBS में बहाव और धरातलीय अपवाह के प्रबंधन के माध्यम से जल धारण को शामिल किया जा सकता है, और इस तरह बाढ़ के मैदानों के माध्यम से जल भंडारण हेतु स्थान बनाया जा सकता है।
  • जल सुरक्षा बढ़ावा देना : जल की उपलब्धता एवं गुणवत्ता में सुधार द्वारा जल से संबंधित जोखिमों को कम करने और साथ ही
    अतिरिक्त सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय लाभ उत्पन्न करना।

चुनौतियां और सीमाएं

  • ग्रे इंफ्रास्ट्रक्चर समाधानों में निरंतर वृद्धि के कारण NBS के विरुद्ध एक ऐतिहासिक जड़ता बनी हुई है।
  • NBS के लिए प्राय: कई संस्थानों और हितधारकों के मध्य सहयोग की आवश्यकता होती है, जिसे प्राप्त करना कठिन हो सकता है।
  • NBS वास्तव में क्या प्रस्तावित कर सकता है, इसके सम्बन्ध में समुदायों से लेकर क्षेत्रीय योजनाकारों और राष्ट्रीय नीति निर्माताओं तक सभी स्तरों पर जागरुकता, संचार और ज्ञान की कमी है।
  • ग्रीन और ग्रे इंफ्रास्ट्रक्चर को एक पैमाने पर एकीकृत करने संबंधी समझ और जल के संदर्भ में NBS को लागू करने की समग्र क्षमता का अभाव विद्यमान है।
  • NBS के निष्पादन संबंधी सीमाएं विद्यमान हैं। उदाहरण के लिए, औद्योगिक अपशिष्ट जल उपचार संबंधी NBS विकल्प प्रदूषक के प्रकार और इसकी मात्रा पर निर्भर करते हैं।
  • हालांकि कुछ छोटे स्तर के NBS अनुप्रयोग कम या बिना किसी लागत के किये जा सकते हैं, कुछ NBS अनुप्रयोगों, विशेष रूप से बड़े स्तर के, में अधिक निवेश की आवश्यकता हो सकती है।

पेयजल की उपलब्धता

  •  भारत में भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) और इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (ICMR) द्वारा निगरानी तथा मानव
    संसाधनों के साथ-साथ पशुधन और सिंचाई के लिए विषैली धातुओं से सम्बंधित पेयजल मानकों का उचित प्रवर्तन।
  • बढ़ते शहरीकरण और आर्थिक विकास को बनाए रखने के लिए वाटरशेड प्रबंधन, वर्षा जल संचयन आदि के माध्यम से स्वच्छ
    पेयजल आपूर्ति के स्रोतों और उपचार प्रौद्योगिकियों का विस्तार करना।

जल का इष्टतम उपयोग

  • राष्ट्रीय सिंचाई प्रबंधन कोष (NIMF) का निर्माण: सिंचाई प्रबंधन के प्रदर्शन में सुधार के लिए राज्यों को वित्तीय प्रोत्साहन
    प्रदान करना।
  • “मोर क्रॉप एंड इनकम पर ड्राप ऑफ़ वाटर “ पर डॉ एम एस स्वामीनाथन की रिपोर्ट को लागू करना। इनकी कुछ सिफारिशों
    में शामिल हैं:

सिस्टम फॉर राइस इंटेन्सिफिकेशन प्रणाली (SRI) जिसके लिए कम मात्रा में बीज, कम नर्सरी क्षेत्र की आवश्यकता होती है। यह
जल और श्रम की बचत करती है और चावल एवं अन्य फसलों जैसे गन्ना की उपज में वृद्धि करती है। इसे लोकप्रिय बनाना चाहिए।

  • सुक्ष्म सिंचाई प्रौद्योगिकी उदाहरणस्वरूप ड्रिप और स्प्रिंकलर सिंचाई सहित कम जल वाली फसलों की उत्पादकता में वृद्धि हेतु ड्रिप फर्टिगेशन को भी सरकार के पर्याप्त समर्थन द्वारा लोकप्रिय बनाया जाना चाहिए। किसानों को उपकरणों की खरीद हेतु आवश्यक ऋण (क्रेडिट) संबंधी सुविधाएं उपलब्ध होनी चाहिए।
  • फसल उपज और किसानों की आय में वृद्धि हेतु उच्च मान परन्तु कम जल की आवश्यकता वाली फसलों सहित फसल विविधीकरण तथा जल के विविध उपयोगों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
  • फसल सम्बन्धी योजना जैसे जल संकट वाले क्षेत्रों में चावल की खेती पर प्रतिबन्ध, शुष्क भूमि कृषि को बढ़ावा देना इत्यादि। उत्तरपूर्वी क्षेत्र को बागवानी के लिए बारहमासी जल आपूर्ति और अनुकूल जलवायु के साथ संपन्न किया जाता है जिसे उचित नियोजन और बुवाई पैटर्न के माध्यम से जोता जा सकता है।
  • वास्तव में, हाल ही में सरकार ने पूर्वोत्तर क्षेत्र में विनाशकारी बाढ़ के बाद उत्तर-पूर्वी भारत के लिए जल संसाधनों के प्रबंधन हेतु रणनीति विकसित करने के लिए एक समिति की स्थापना की है।

पूर्वोत्तर राज्यों में जल संसाधन प्रबंधन की आवश्यकता

  • जलविद्युत – वर्तमान में संभावित जल विद्युत उत्पादन क्षमता का केवल 7% उपयोग किया गया है। देश की कुल क्षमता 145,000
    मेगावाट (मेगावाट) में उत्तर-पूर्वी राज्यों की हिस्सेदारी 58,000 मेगावॉट है, अरुणाचल प्रदेश में लगभग 50,064 मेगावाट की क्षमता  है।
  • जैव-विविधता और संरक्षण – विश्व के जैव विविधता हॉटस्पॉट्स में से एक होने के कारण इस क्षेत्र में वनस्पतियों, जीवों और संस्कृति के संरक्षण के लिए विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
  • बाढ़ के कारण होने वाले अपरदन की क्षति को कम करना – मेघालय जैसे कुछ राज्य भारी वर्षा और सतही जलप्रवाह की समस्या से अत्यधिक प्रभावित हैं।
  • अंतर्देशीय जल परिवहन – ब्रह्मपुत्र नदी वर्तमान में धुबरी से सदिया तक राष्ट्रीय जलमार्ग 2 की सुविधा प्रदान करती है। NER में लगभग 1800 किमी के अंतर्देशीय जलमार्गों का उपयोग नौवहन संबंधी परिवहन के लिए किया जा सकता है।

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