स्वराज पार्टी के गठन का संक्षिप्त वर्णन
प्रश्न: जहाँ विधायिकाओं में स्वराजियों की गतिविधियां हर तरह से असाधारण थीं, वहीं उन्होंने कुछ ऐसी चुनौतियों का सामना किया, जिन्होंने उनकी सफलता सीमित कर दी। टिप्पणी कीजिए।
दृष्टिकोण
- स्वराज पार्टी के गठन का संक्षिप्त वर्णन करते हुए उत्तर को प्रारंभ कीजिए।
- विधायिका में उनकी गतिविधियों पर चर्चा कीजिए तथा उनकी सफलताओं की व्याख्या कीजिए।
- उनके द्वारा सामना की गई चुनौतियों का उल्लेख कीजिए
उत्तर
महात्मा गांधी द्वारा असहयोग आंदोलन को वापस लेने और तत्पश्चात उनकी गिरफ्तारी से कांग्रेस के नेताओं के मध्य विधान परिषद् में प्रवेश के मुद्दे पर उभरे राजनीतिक मतभेद के बाद चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरू ने 1923 में स्वराज पार्टी का गठन किया था। 1923 के चुनावों में स्वराजियों को मध्य प्रांत में स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ।
विधायिकाओं में गतिविधियां:
- साझा राजनीतिक मोर्चा: उन्होंने इंडिपेंडेंट दल के सदस्यों, उदारवादियों और स्वतंत्र प्रतिनिधियों के साथ एक साझा राजनीतिक मोर्चा बनाकर सरकार को 1928 के सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक जैसे विभिन्न मुद्दों पर हराया।
- मोंटेंग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों की कमजोरियों को उजागर किया: कार्यपालिका, विधायिका के नियंत्रण से बाहर थी तथा किसी भी कानून को प्रमाणित कर सकती थी भले ही वह क़ानून विधायिका में अस्वीकृत ही क्यों न कर दिया गया हो।
- स्वराजवादियों ने सरकार पर कानून को प्रमाणित करने के लिए दबाव बनाकर उनकी कमियों को उजागर किया।
- स्वराजी नेता विठ्ठलभाई पटेल 1925 में केंद्रीय विधानसभा के अध्यक्ष चुने गए।
- प्रथम सत्र में ही मोतीलाल नेहरू द्वारा एक नए संविधान के निर्माण की राष्ट्रीय मांग को उठाया गया।
- विभिन्न विनियमों के अंतर्गत बजटीय अनुदान की मांग पर बार-बार सरकार के विरुद्ध मतदान किये जाने से सरकार को अपमान का सामना करना पड़ता था।
- उग्र भाषणों के माध्यम से तीन प्रमुख मुद्दों को उठाया गया:
- स्व-शासन के लिए संवैधानिक प्रगति;
- नागरिक स्वतंत्रता, राजनीतिक कैदियों की रिहाई तथा दमनकारी कानूनों को रद्द करना; और
- स्वदेशी उद्योगों का विकास।
इस प्रकार, विधायिका में स्वराजवादियों की गतिविधियां उल्लेखनीय थीं। यद्यपि, उन्हें कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ा जैसे:
- 1925 में सी.आर.दास के निधन से क्षति
- स्वराजवादियों के मध्य सांप्रदायिक मतभेद की स्थिति
- विधायिका के नीतिगत कार्यों और बाहर के सार्वजनिक कार्यों के मध्य समन्वय का अभाव
- गठबंधन साझीदारों के साथ रणनीतिक मतभेद
- आंतरिक मतभेदों के कारण प्रतिक्रियावादियों और गैर-प्रतिक्रियावादियों में विभाजन।
स्वराज पार्टी ने इन चुनौतियों का सामना करते हुए नवंबर 1926 में आयोजित चुनावों में एक अव्यवस्थित (अत्यधिक कमजोर और हतोत्साहित) पार्टी के रूप में भाग लिया। ये 1923 की भांति विधायिकाओं में राष्ट्रवादी गठबंधन का निर्माण करने में भी असफल रहे। अंततः 1930 में कांग्रेस के लाहौर प्रस्ताव और सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रारंभ होने के परिणामस्वरूप स्वराजियों ने विधायिकाओं की सदस्यता का त्याग कर दिया।
यद्यपि, उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि उस समय के राजनीतिक शून्य को भरना थी जब राष्ट्रीय आंदोलन अपनी शक्ति को पुनः प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था। उन्होंने सिद्ध किया कि आत्मनिर्भर साम्राज्यवाद विरोधी राजनीति को बढ़ावा देने के साथ-साथ विधायिकाओं को रचनात्मक प्रयोग संभव है।
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