राज्यपालों की नियुक्ति : वर्तमान पद्धति के विरुद्ध दिए जाने वाले तर्क

प्रश्न: संविधान सभा ने निर्वाचित राज्यपाल होने की मूल योजना को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त राज्यपाल के पक्ष में क्यों प्रतिस्थापित कर दिया? साथ ही, राज्यपालों की नियुक्ति के वर्तमान तरीके के विरुद्ध दिए जाने वाले तर्कों का भी उल्लेख कीजिए।

दृष्टिकोण:

  • संविधान सभा ने निर्वाचित राज्यपाल होने की मूल योजना को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त राज्यपाल के पक्ष में क्यों प्रतिस्थापित कर दिया। चर्चा कीजिए।
  • राज्यपालों की नियुक्ति की वर्तमान पद्धति के विरुद्ध दिए जाने वाले तर्कों का भी उल्लेख कीजिए।
  • इस संबंध में विभिन्न समितियों की अनुशंसाओं का वर्णन कीजिए।
  • उपर्युक्त बिंदुओं के आधार पर निष्कर्ष प्रदान कीजिए।

उत्तरः

राज्यपाल भारत में किसी राज्य का मुख्य कार्यकारी प्रमुख (संवैधानिक प्रमुख) होता है। संविधान सभा में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया था कि राज्यपाल केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य (ब्रिटिश शासन के दौरान नियुक्त राज्यपालों के समान) करेगा। हालाँकि, प्रारम्भ में संविधान सभा, राज्यपाल के निर्वाचन की पद्धति और राज्य में उनकी भूमिका के संबंध में एकमत नहीं थी।

अंततः, संविधान सभा ने यह निष्कर्ष निकाला कि प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित राज्यपाल मुख्यमंत्री के प्राधिकारों के समक्ष चुनौती उत्पन्न करेगा। वे राज्य स्तर पर सत्ता के वैकल्पिक केंद्र नहीं चाहते थे। साथ ही, उनके द्वारा संसदीय कार्यकारी प्रणाली को अपनाया गया था, जिसमें राज्य और सरकार के प्रमुखों का निर्वाचन क्रमशः अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष रूप से किया जाता था। इसके अतिरिक्त, चूंकि राज्यपाल भारतीय संघीय प्रणाली की योजना को संतुलित करने में एक अद्वितीय भूमिका निभाता है। अतः इस प्रकार, इस बात पर सहमति हुई कि राज्यपाल को राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त और पदच्युत किया जाएगा, जो राष्ट्रपति के ‘प्रसाद पर्यन्त’ पद धारण करेगा।

राज्यपालों की नियुक्ति की वर्तमान पद्धति के विरुद्ध दिए जाने वाले तर्कों में निम्नलिखित शामिल हैं:

  • अस्थिरता (Instability): राज्यपालों की नियुक्ति और पदच्युति की प्रक्रिया को असंगत माना जाता है क्योंकि केंद्र में सरकार के परिवर्तित हो जाने पर प्रायः उन्हें भी परिवर्तित कर दिया जाता है। बी.पी. सिंघल बनाम भारत संघ वाद (2010) में, उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्दिष्ट किया गया था कि राज्यपालों को मनमाने तरीके से पदच्युत या स्थानांतरित नहीं किया जाना चाहिए।
  • भाई-भतीजावाद (Nepotism): सत्तारूढ़ दलों ने प्रायः निष्ठावान लोगों को प्रसन्न करने हेतु राज्यपाल के पद का उपयोग किया है और इस प्रकार यह राजनीतिज्ञों के लिए सेवानिवृत्ति के पश्चात् निर्वाह का साधन बन गया है।
  • संवैधानिक प्रावधानों का दुरुपयोग: ऐसे उदाहरण देखे गए हैं जब केंद्र सरकार के निर्देशों पर राज्यपालों ने राज्यों में मनमाने ढंग से अनुच्छेद 356 को लागू किया है। उदाहरण के लिए 2016 में उत्तराखंड में, 2018 में जम्मू और कश्मीर में अनुच्छेद 356 का आरोपण आदि।
  • केंद्र के प्रतिनिधि के रूप में देखा जाता है: राज्यपालों को राज्य सरकारों द्वारा ‘केंद्र का प्रतिनिधि’ समझा जाता है, क्योंकि राज्य सरकारों को ऐसा प्रतीत होता है कि वे राज्यों के हितों के विपरीत केंद्र के हितों को पूरा करते हैं।
  • विवेकाधीन शक्ति का दुरुपयोग: अनुच्छेद 163 के अंतर्गत प्रदत्त राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति का सीमित शक्ति होने के बावजूद दुरुपयोग किया गया है। 2016 में, उच्चतम न्यायालय ने अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल की विधानसभा सत्र आहूत करने संबंधी एकपक्षीय कार्रवाई को निरस्त किया और विधानसभा को असंवैधानिक घोषित करने का आदेश दिया था।

इस प्रकार, नियुक्ति के वर्तमान स्वरूप के विरुद्ध तर्क विवेकाधीन निर्णय लेने और इस प्रक्रिया में राज्य की कार्यपालिका को शामिल न करने संबंधी मुद्दे पर केंद्रित हैं। इस संदर्भ में, वेंकटचलैया और पुंछी आयोगों ने राज्यपालों के कार्यकाल की सुरक्षा और संविधान के अनुच्छेद 355 और 356 के अंतर्गत आपातकालीन प्रावधानों को सीमित करने हेतु तर्क दिया है।

इसी प्रकार, सरकारिया आयोग द्वारा कहा गया था कि राज्यपालों को पांच वर्ष के कार्यकाल को पूर्ण करना चाहिए तथा उसे अपरिहार्य (compelling) कारणों के अतिरिक्त पदच्युत नहीं किया जाना चाहिए। राजनीतिज्ञों के लिए सेवानिवृत्ति के बाद निर्वाह के साधन के रूप में राज्यपाल पद का उपयोग करने के बजाय स्वच्छ छवि वाले प्रतिष्ठित व्यक्तियों को ही राज्यपाल नियुक्त किया जाना चाहिए।

राज्यपाल राज्य का प्रमुख होता है। इसलिए, राज्यपालों की नियुक्ति से संबंधित वर्तमान स्वरूप से संबंधित मुद्दों का समाधान कर इस पद की अखंडता (integrity) को बनाए रखा जाना चाहिए।

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