राज्यसभा की संरचना एवं कार्यप्रणाली : भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित राज्यसभा की भूमिका और उद्देश्य

प्रश्न: राज्यसभा की संरचना एवं कार्यप्रणाली से संबद्ध आलोचना के प्रकाश में, क्या आप मानते हैं कि इसका अस्तित्व केवल संसद के एक द्वितीयक सदन के रूप में है?(250 words)

दृष्टिकोण

  • भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित राज्यसभा की भूमिका और उद्देश्य के संक्षिप्त परिचय के साथ उत्तर प्रारंभ कीजिए।
  • राज्यसभा की संरचना और कार्यप्रणाली से संबद्ध विभिन्न मुद्दों पर प्रकाश डालिए।
  • कारण प्रस्तुत करते हुए स्पष्ट कीजिए कि राज्यसभा संसद का केवल एक द्वितीयक सदन क्यों नहीं है।

उत्तर

भारतीय संविधान निर्माताओं ने एक ऐसी संस्था के रूप में राज्यसभा की भूमिका की परिकल्पना की थी जिसके माध्यम से भारत संघ के राज्यों के हितों का केंद्रीय स्तर पर प्रतिनिधित्व और संरक्षण किया जा सके। यह एकसदनीय विधायिका के प्रभुत्व के विरुद्ध आवश्यक नियंत्रण और संतुलन प्रदान करती है। हालांकि, राज्यसभा की कार्यप्रणाली और संरचना की वर्षों से आलोचना की जाती रही है, यहां तक कि इसके उन्मूलन की मांग भी की गई है।

इसकी संरचना से संबंधित मुद्दे:

  • वर्तमान में राज्यसभा में सीटों का वितरण असमान है। यह वितरण अपेक्षाकृत छोटे राज्यों की तुलना में बड़े राज्यों के पक्ष में है।
  • निवास सम्बन्धी अनिवार्यता (कुलदीप नायर वाद) को हटाने से राज्यसभा की संघीय भूमिका को आघात पहुंचा है।
  • राज्य सभा के सदस्यों की राज्यों के हितों (जैसे अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग आदि पर बहस) के बजाय स्व दल हितों को वरीयता देने के कारण आलोचना की जाती है।
  • यह सदन लोकसभा चुनाव में हारे उम्मीदवारों, क्रोनी कैपिटलिस्टों और पसंदीदा पत्रकारों को पार्श्व प्रवेश प्रदान करता है, इस प्रकार यह सदन लोकतांत्रिक साख को कमजोर करता है।
  • राज्यसभा की संरचना लगभग लोकसभा की संरचना के समान ही है क्योंकि लोकसभा में भी विभिन्न क्षेत्रीय दलों का प्रतिनिधित्व होता है।  यह तर्क दिया जाता है कि एक संघीय देश का पर्याप्त रूप से प्रतिनिधित्व करने वाली लोकसभा के साथ, दूसरे सदन की उपस्थिति राजकोष पर अनावश्यक बोझ के समान है।

इसकी कार्यप्रणाली से संबंधित मुद्दे:

  • राज्यसभा के सत्रों में निरंतर व्यवधान और विलंब की स्थिति उत्पन्न होती रहती है, परिणामतः उत्पादकता निम्न बनी रहती है।
  • राज्यसभा सत्र में सदस्यों की कम उपस्थिति के कारण बहस और चर्चा की गुणवत्ता निम्न स्तरीय रहती है। नामांकित सदस्य प्रायः सभी सत्रों में अनुपस्थित रहते हैं।
  • वास्तविकता से अनभिज्ञ होने के लिए भी इसकी आलोचना की जाती है। जहाँ एक ओर कुछ सदस्य अति आदर्शवादी और वैयक्तिक विचारों के कारण वास्तविकता से अलग-थलग हो जाते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ अन्य सदस्य प्रायः अल्प-सूचित होते हैं तथा बहस और चर्चा के प्रति पर्याप्त सक्षमता से रहित होते हैं।
  • धन विधेयकों और अविश्वास प्रस्ताव के संबंध में राज्यसभा की सीमित शक्तियाँ इसकी कार्यप्रणाली में बाधा उत्पन्न करती हैं क्योंकि महत्वपूर्ण मामलों पर इसकी उपेक्षा की जाती है।
  • राज्यसभा द्वारा प्रदान किए गए मंच का उपयोग राजनीतिक मुद्दों को निपटाने और विधायी प्रगति की गति को मंद करने के लिए भी किया जाता है। विधेयकों का उनके महत्व के बजाय दल के हितों के अनुरूप विरोध या समर्थन किया जाता है।

हालाँकि, इसे अभी भी संसद के मात्र एक द्वितीयक सदन के रूप में नहीं माना जा सकता है, जैसा कि निम्नलिखित तर्कों से स्पष्ट है।

  • यह सदन अल्पकालिक लोकलुभावनी नीतियों के विरुद्ध एक अवरोध का कार्य करता है और इस प्रकार के विधानों के पारित होने में विलंब उत्पन्न करता है। उदाहरण के लिए, अत्याचार निवारण विधेयक, 2010 के व्यपगत होने में राज्यसभा की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस विधेयक के तहत अत्याचार के विरुद्ध मौजूदा कानूनी सुरक्षा को कम करने की मांग की गई थी।
  • पुनर्विचार सदन के रूप में राज्यसभा की भूमिका महत्वपूर्ण है। हाल के दिनों में, अन्य विधेयकों के साथ राज्यसभा ने परिसीमन विधेयक 2002, राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन विधेयक, 2002, जन प्रतिनिधित्व (संशोधन) विधेयक, 2003 आदि में भी संशोधन किया है।
  • संसद के एक घटक के रूप में राज्यसभा अपनी विभिन्न समितियों के माध्यम से कार्यकारी जवाबदेही प्राप्त कर रही है। उदाहरण के लिए, इसने GST विधेयक पर एक प्रवर समिति का गठन किया और इसकी कई सिफारिशों को पारित विधेयक में शामिल किया गया।
  • एक स्थायी सदन होने के नाते राज्यसभा, संसद की विधायी कार्यप्रणाली को निरंतरता प्रदान करती है।
  • हाल के वर्षों में राज्यसभा के कई सदस्यों को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है। यह संसद में कुशल और प्रतिष्ठित पेशेवरों को शामिल करने हेतु एक प्रभावी साधन के रूप में उच्च सदन के महत्व को दर्शाता है।

इसलिए, राज्यसभा भारत की द्विसदनीय राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है, चूँकि द्विसदनीय राजनीति भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता है। इसके अतिरिक्त, अध्यक्ष की शक्तियों में वृद्धि करना, व्यवधानों के विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए आचार समिति को सुदृढ़ बनाना जैसे उचित प्रयोजन युक्त उपायों को लागू करने हेतु दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है ताकि राज्यसभा, निरंतर संविधान के संघीय चरित्र के अनुसार कार्य करे।

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