स्वतंत्र न्यायपालिका की अवधारणा
प्रश्न: एक स्वतंत्र न्यायपालिका के महत्त्व की व्याख्या करते हुए, उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता एवं निष्पक्ष कार्य पद्धति को सुरक्षित और सुनिश्चित करने वाले प्रासंगिक संवैधानिक प्रावधानों पर प्रकाश डालिए।
दृष्टिकोण:
- स्वतंत्र न्यायपालिका की अवधारणा की संक्षेप में चर्चा कीजिए।
- स्वतंत्र न्यायपालिका के महत्व की व्याख्या कीजिए।
- उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता एवं निष्पक्ष कार्यपद्धति को सुरक्षित और सुनिश्चित करने वाले प्रासंगिक संवैधानिक प्रावधानों पर प्रकाश डालिए।
उत्तरः
न्यायिक स्वतंत्रता का सिद्धांत ‘शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत’ का एक स्वाभाविक परिणाम (natural corollary) है और इसे न्याय प्रणाली की रक्षा के लिए अभिकिल्पित किया गया है, जिससे न्यायपालिका में लोगों का विश्वास और निष्ठा बनी रहे। एक स्वतंत्र न्यायपालिका विधायिका, कार्यपालिका और लोकप्रिय मतों के प्रभाव या नियंत्रण से मुक्त होती है।
स्वतंत्र न्यायपालिका का महत्व:
- स्वतंत्र और निष्पक्ष न्यायपालिका विधि के शासन को बनाए रखती है, जो एक लोकतांत्रिक सरकार के लिए अपरिहार्य है।
- यह एक प्रहरी (watch dog) के रूप में कार्य करती है और इसके द्वारा यह जाँच की जाती है कि कार्यपालिका और विधायिका एक-दूसरे के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किए बिना उचित रूप से कार्य कर रहे हैं या नहीं।
- यह केंद्र और राज्यों या राज्यों के मध्य के अंतर-विवादों का समाधान करके संविधान की सर्वोच्चता को बनाए रखती है।
- अंतिम व्याख्याकार (interpreter) और संविधान के संरक्षक के रूप में, न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है और उन्हें बिना किसी भय या पक्षपात के समान न्याय प्रदान करती है।
भारत में उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता एवं निष्पक्ष कार्यपद्धति को सुरक्षित और सुनिश्चित करने वाले प्रासंगिक संवैधानिक प्रावधान निम्नलिखित हैं:
- कार्यकाल की सुरक्षा: उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को संविधान में उल्लिखित प्रावधानों के आधार पर केवल राष्ट्रपति द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है।
- उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति: उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय कार्यपालिका को उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों से परामर्श करना आवश्यक होता है।
- सेवा की शर्ते: उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते संविधान द्वारा नियत किए गए हैं और ये भारत की संचित निधि पर भारित होते हैं।
- उच्चतम न्यायालय की शक्तियाँ: संसद उच्चतम न्यायालय की शक्तियों का विस्तार कर सकती है, किन्तु उच्चतम न्यायालय के क्षेत्राधिकार और शक्ति को कम नहीं कर सकती है (अनुच्छेद 138)।
- न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्करण: अनुच्छेद 50 यह निर्देश देता है कि राज्य की लोक सेवाओं में, न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिए राज्य द्वारा कदम उठाए जाएंगे।
- न्यायाधीशों के आचरण पर विधानमंडल में कोई बहस नहीं होगी: अनुच्छेद 121 के अनुसार महाभियोग प्रक्रिया के अतिरिक्त उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के अपने कर्तव्यों के निर्वहन में किए गए आचरण के विषय में न तो संसद में और न ही राज्य विधानमंडल में कोई बहस की जा सकती है।
- अवमानना पर दंड देने की शक्ति: उच्चतम न्यायालय को किसी भी व्यक्ति को अपनी अवमानना पर दंड देने की शक्ति प्राप्त है (अनुच्छेद 129)।
- सेवानिवृत्ति के बाद वकालत पर प्रतिबंध: अनुच्छेद 124 उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर किसी भी न्यायालय में या किसी भी प्राधिकार के समक्ष वकालत और कार्य करने पर प्रतिबन्ध लगाता है।
भारत जैसे देश के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका महत्वपूर्ण है। यह संवैधानिक सर्वोच्चता स्थापित करने और देश के सभी नागरिकों हेतु सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए एक नेतृत्वकर्ता (vanguard) के रूप में कार्य करती है।