केंद्र-राज्य सम्बन्ध: सहयोग की प्रणालियाँ

भारत एक संघ-आधारित लोकतंत्र है। सरकार के एक से अधिक स्तरों वाले किसी भी देश को इन स्तरों के मध्य अपनी शक्तियों, उत्तरदायित्वों तथा संसाधनों के सहभाजन की आवश्यकता होती है। भारत में संघीय शक्तियों के विभाजन को तीन भिन्न श्रेणियों के अंतर्गत रखा जा सकता है, ये हैं – विधायी, कार्यपालिका तथा वित्तीय

श्रेणी केंद्र और राज्य के मध्य विभाजन केंद्र-राज्य संबंधों में मुद्दे
विधायी क्षेत्रीय विभाजन: संसद सम्पूर्ण भारतीय राज्य क्षेत्र या उसके
किसी भाग हेतु विधि का निर्माण कर सकती है तथा राज्य, सम्पूर्ण राज्य या उसके किसी भाग हेतु विधि निर्माण कर सकता
विधायी विषयों का तीन सूचियों में विभाजन, जहाँ संसद को संघ सूची हेतु विधि निर्माण की अनन्य शक्ति प्राप्त है तथा राज्यों को राज्य सूची के विषयों के संबंध में यह शक्ति प्राप्त है। समवर्ती सूची के विषयों हेतु दोनों विधि निर्माण कर सकते हैं।
राज्य सूची का असाधारण परिस्थितियों जैसे कि आपातकाल में केंद्र द्वारा अतिक्रमण।

राज्य विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रखने हेतु राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ।

एक राज्य की क्षेत्रीय सीमा को पुनर्निर्मित करने की केंद्र में निहित शक्ति।

प्रशासनिक | कार्यपालिका
  • तीन सूचियों के विषयों के संबंध में क्षेत्रीय विभाजन: संघ सूची। हेतु केंद्र की कार्यपालिका शक्ति का सम्पूर्ण भारत तक तथा राज्य सूची हेतु राज्यों की कार्यपालिका शक्ति का उनके संबंधित क्षेत्रों । तक विस्तार होता है
  • समवर्ती सूची के अधीन विषयों पर कार्यपालिका शक्ति राज्यों में निहित है। अपवादस्वरूप उन परिस्थितियों को छोड़कर जब संविधान या संसद द्वारा अन्यथा निर्देशित किया गया हो।
केंद्र द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति और पदच्युति।राष्ट्रपति शासन का अधिरोपण

राज्यों में कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने हेतु केन्द्रीय बलों की तैनाती।

अखिल भारतीय सेवाओं, केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो इत्यादि के अधिकारियों पर केंद्र का नियंत्रण।

वित्तीय करारोपण शक्तियाँ: संसद और राज्य विधानमंडल, दोनों को अपनी संबंधित सूचियों में उल्लिखित विषयों पर करों के अधिरोपण की शक्ति प्राप्त है। समवर्ती सूची के विषयों हेतु दोनों करों का आरोपण कर सकते हैं, परन्तु करारोपण की अवशिष्ट शक्ति संसद में निहित है।
  • केंद्र और राज्यों के मध्य वित्त का आवंटन। उदाहरणार्थ, कई राज्य विशेष श्रेणी दर्जे की मांग कर रहे हैं।
  • केंद्र द्वारा निश्चित वित्त आयोग के कार्यक्षेत्र के माध्यम से राज्यों को वित्तीय आवंटन में भेदभाव।

सहयोग की प्रणालियाँ (Mechanisms of Co-Operation)

नीति आयोग (Niti Aayog)

नीति आयोग के बारे में

राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्था (The National Institution for Transforming India: NITI आयोग) का गठन 1 जनवरी, 2015 को केन्द्रीय मंत्रिमंडल के एक प्रस्ताव के माध्यम से किया गया था।

यह भारत सरकार के एक प्रमुख नीतिगत “थिंक टैंक” के रूप में उभरा है, जो सहकारी संघवाद की भावना को बढ़ावा देता है।सहकारी संघवाद” को संदर्भित करने वाले प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं:

  • राष्ट्रीय उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुए राज्यों की सक्रिय भागीदारी के साथ राष्ट्रीय विकास प्राथमिकताओं, क्षेत्रकों तथा रणनीतियों का एक साझा दृष्टिकोण विकसित करना।।
  •  सशक्त राज्य ही सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकता है। इस तथ्य की महत्ता को स्वीकारते हुए राज्यों के साथ सतत आधार पर संरचनात्मक सहयोग की पहल और तंत्र के माध्यम से सहयोगपूर्ण संघवाद को बढ़ावा देना।

इसके अन्य उद्देश्यों में शामिल हैं:

  • ग्रामीण स्तर पर विश्वसनीय योजना तैयार करने के लिए तंत्र विकसित करना और उसे उत्तरोत्तर उच्च स्तर तक समेकित करना।
  • आर्थिक प्रगति के लाभों से वंचित समाज के सुभेद्य वर्गों पर विशेष ध्यान केन्द्रित करना।
  •  रणनीतिक और दीर्घकालिक नीति की रूपरेखाओं का निर्माण तथा उनकी प्रगति एवं क्षमताओं की। निगरानी करना।।
  • राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों, पेशेवरों तथा अन्य हितधारकों के एक सहयोगात्मक समुदाय के माध्यम से ज्ञान, नवाचार और उद्यमिता समर्थन प्रणाली का सृजन करना।

योजना आयोग से भिन्नता

  • इसकी संरचना योजना आयोग के समान है, परंतु इसका कार्य केवल नीतिगत थिंक-टैंक के रूप में कार्य करने तक ही सीमित होगा। साथ ही इसे दो महत्वपूर्ण कार्यों (पंचवर्षीय योजनाओं का निर्माण तथा राज्यों को धन आवंटन) से मुक्त रखा गया है।
  • नीति आयोग तथा योजना आयोग के मध्य योजना निर्माण करने के दृष्टिकोण में प्रमुख अंतर है यह कि नीति आयोग राज्यों की अधिकाधिक भागीदारी को प्रोत्साहित करता है, जबकि योजना आयोग ने ‘वन-साइज़-फिट्स-ऑल’ पद्धति के साथ ‘टॉपडाउन’ दृष्टिकोण को अपनाया था।

नीति आयोग का महत्व

  • सहकारी संघवाद: नीति आयोग की कार्यप्रणाली में राज्य सरकारों को प्रमुखता प्रदान की गई है तथा यह केन्द्रीय मंत्रालयों तथा राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों के मध्य मुद्दों के समाधान की प्रक्रिया को भी गति प्रदान की है।
  • प्रतिस्पर्धात्मक संघवाद: नीति आयोग द्वारा विकसित सूचकांकों में राज्यों के मध्य बेहतर प्रदर्शन हेतु प्रतिस्पर्धा विद्यमान है। ये सूचकांक महत्वपूर्ण सामाजिक क्षेत्रों जैसे कि डिजिटल परिवर्तन सूचकांक, नवाचार सूचकांक, स्वास्थ्य सूचकांक इत्यादि में वृद्धिशील वार्षिक परिणामों का मापन करते हैं।
  • समावेशी विकास पर फोकस: इसने 115 आकांक्षी जिलों के रूपांतरण पर ध्यान केन्द्रित करते हुए एक विशेष पहल प्रारम्भ की है। नीति आयोग सतत विकास लक्ष्यों के कार्यान्वयन की निगरानी हेतु यह एक नोडल निकाय भी है।
  • साक्ष्य आधारित नीति निर्माण: यह पर्याप्त आंकड़ों पर आधारित नीति निर्माण पर ध्यान केन्द्रित करता है। जैसे कि इसने तीन-वर्षीय कार्य एजेंडा, समग्र जल प्रबंधन सूचकांक, भौगोलिक सूचना तंत्र (GIS) इत्यादि पर आधारित योजना निर्माण को प्रोत्साहन दिया
  • आर्थिक सुधार: इसने कृषि उत्पाद विपणन समिति अधिनियम (APMC Act), उर्वरक क्षेत्र के कायाकल्प, किसानों की आय में वृद्धि, मॉडल एग्रीकल्चर लैंड लीजिंग एक्ट आदि में सुधारों पर नीतिगत दस्तावेज प्रकाशित किया है।
  • ज्ञान एवं नवाचार केंद्र: यह एक सूचना कोष (रिपोजिटरी) के रूप में कार्य करता है क्योंकि यह सभी राज्यों में सर्वोत्तम कार्यप्रणालियों के संकलन, संचारण तथा अनुकरण करवाने में संलग्न है। इसके द्वारा अटल इनोवेशन मिशन भी लॉन्च किया गया है। नीति आयोग द्वारा वैश्विक उद्यमिता शिखर सम्मेलन, 2017 का भी आयोजन किया गया था।
  • संतुलित क्षेत्रीय विकास: जैसे कि उत्तर-पूर्व जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केन्द्रित करना। उदाहरणार्थ: पूर्वोत्तर हेतु नीति फोरम, जिसका उद्देश्य पूर्वोत्तर क्षेत्र (NER) के त्वरित, समावेशी और सतत आर्थिक विकास के मार्ग में आने वाले विभिन्न अवरोधों की पहचान करना है। इस नीति फोरम की सह-अध्यक्षता नीति आयोग के उपाध्यक्ष द्वारा की जाती है।

नीति आयोग के समक्ष चुनौतियाँ

  • निष्कर्ष कार्यों का अतिव्यापन: सौंपे गए कार्यों के निर्वहन में नीति आयोग के कार्यक्षेत्र का अंतर-राज्य परिषद् के कार्यक्षेत्र के साथ अतिव्यापन हो जाता है। ध्यातव्य है कि अंतर-राज्य परिषद् एक संवैधानिक निकाय है। वर्तमान में अंतर-विभागीय समन्वय की जिम्मेदारी कैबिनेट सचिव के कार्यालय पर होती है और उसके लिए एक समन्वय प्राप्त करना मुश्किल हो जाता है।
  • समृद्ध राज्यों का पक्ष: प्रतिस्पर्धात्मक संघवाद को प्रोत्साहन देने से पहले से ही समृद्ध राज्यों को अधिक लाभ हो सकता है जबकि पिछड़े राज्यों को हानि हो सकती है।
  • सांविधिक प्रकृति का अभाव: इसे एक कार्यपालिका प्रस्ताव द्वारा स्थापित किया गया है, जिससे इसमें सरकारी हस्तक्षेप की अत्यधिक संभावना विद्यमान है।
  • सक्रिय कार्यवाही योग्य लक्ष्यों का अभाव: इसे कुछ चुनौतियों के समाधान हेतु (जिनका आज भारत सामना कर रहा है) सक्रिय उपाय करने की आवश्यकता है जैसे कि रोजगार के अवसरों का सृजन, आर्थिक विकास में वृद्धि आदि। यहाँ तक कि इसका तीनवर्षीय कार्यवाही एजेंडा भी आसन्न चुनौतियों हेतु अतिविस्तारित दृष्टिकोण रखता है।
  • कार्यान्वयन पर सीमित फोकस: यह अपनी अनुशंसाओं के व्यावहारिक पहलुओं पर पर्याप्त ध्यान नहीं देता है जैसे कि नौकरशाहों के उत्तरदायित्वों का निर्धारण, सरकार-नागरिक अंतःक्रिया इत्यादि। ये इसके द्वारा प्रस्तुत उकृष्ट अनुशंसाओं के लिए अत्यावश्यक हैं।किन्तु इन पहलुओं पर ध्यान न दिए जाने से ये अनुशंसाएं मात्र दस्तावेजों में दर्ज़ रह जाती हैं।

निष्कर्ष

सहकारी संघवाद से आगे बढ़ते हुए अब यह ‘प्रतिस्पर्धात्मक सहकारी संघवाद’ है जो केंद्र और राज्यों के मध्य संबंधों को परिभाषित करता है। इसके तहत नीति आयोग ने भारत में परिवर्तन के संचालन का दायित्व राज्यों को सौंपा है। भारत सतत विकास लक्ष्य, 2030 (SDGs 2030) प्राप्त करने के मार्ग में कई चुनौतियों का सामना कर रहा है।

केंद्र सरकार ने कई मिशन मोड कार्यक्रम प्रारम्भ किए हैं, जैसे कि स्मार्ट सिटी, कौशल भारत-कुशल भारत, स्वच्छ भारत, सभी के लिए आवास और विद्युत इत्यादि। इन सभी की सफलता केंद्र और राज्यों के मध्य सक्रिय सहयोग एवं स्वस्थ प्रतिस्पर्धा पर निर्भर करती है। नीति आयोग इस सहयोग की प्राप्ति में उत्प्रेरक की भूमिका निभाने हेतु तैयार है।

 अंतर्राज्यीय परिषद (Inter-State Council)

संविधान का अनुच्छेद 263 एक अन्तर्राज्यीय परिषद (ISC) के गठन का प्रावधान करता है।  न्यायमूर्ति आर. एस. सरकारिया की अध्यक्षता में गठित आयोग ने 1988 में अपनी रिपोर्ट में अनुशंसा की थी कि:

  •  अनुच्छेद 263 के अंतर्गत अंतर सरकारी परिषद (IGC) नामक एक स्थायी अन्तर्राज्यीय परिषद को स्थापित किया जाना चाहिए।
  •  IGC को सामाजिक-आर्थिक योजना और विकास के अतिरिक्त, अनुच्छेद 263 के खंड (b) और (c) में निर्दिष्ट दायित्वों को सौंपा जाना चाहिए।

 इस प्रकार, 1990 में अन्तर्राज्यीय परिषद की स्थापना हुई।

अन्तर्राज्यीय परिषद : अनुच्छेद 263

अनुच्छेद 263, राष्ट्रपति को निम्नलिखित मुद्दों पर जाँच, चर्चा और सलाह देने के लिए एक अन्तर्राज्यीय परिषद स्थापित करने की शक्ति प्रदान करता है:

  1. विवाद, जो राज्यों के मध्य उत्पन्न हो गए हों;
  2. उन विषयों पर, जिनमें कुछ या सभी राज्यों अथवा संघ और एक या अधिक राज्यों के समान हित हों; या
  3. लोक हित के किसी विषय पर अनुशंसा करने और विशिष्टतया उस विषय के संबंध में नीति और कार्यवाही के अधिक बेहतर समन्वयन के लिए अनुशंसाएं करने।
  • इसकी स्थापना 1990 में सरकारिया आयोग की अनुशंसाओं के आधार पर एक राष्ट्रपति आदेश द्वारा की गई थी।
  • इसमें परिषद प्रधानमंत्री (अध्यक्ष), सभी राज्यों एवं संघ शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री, जिन संघ शासित प्रदेशों में विधानसभाएं नहीं हैं उनके प्रशासक तथा प्रधानमंत्री द्वारा मनोनीत छह केन्द्रीय कैबिनट मंत्री (गृह मंत्री सहित) शामिल होते हैं।
  • इसके कार्य उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 131 के तहत प्रदत्त, सरकारों के मध्य कानूनी विवादों के निर्णयन के क्षेत्राधिकार के पूरक यह अंतरराज्यीय, केंद्र-राज्य तथा केंद्र एवं संघ शासित प्रदेश संबंधों से संबंधित मुद्दों पर एक परामर्शदात्री निकाय है।
  • यह एक स्थायी संवैधानिक निकाय नहीं है परन्तु यदि राष्ट्रपति को ऐसा प्रतीत होता है कि इस परिषद की स्थापना लोकहित के लिए आवश्यक है, तब इसे किसी भी समय स्थापित किया जा सकता है।

ISC स्थायी समिति के संबंध में

1996 में परिषद के विचारार्थ मामलों पर सतत परामर्श और निपटान हेतु परिषद की स्थायी समिति की स्थापना की गयी थी। इसमें निम्नलिखित सदस्य शामिल होते हैं

  • केंद्रीय गृह मंत्री (अध्यक्ष)
  • पाँच केंद्रीय कैबिनेट मंत्री
  • नौ मुख्यमंत्री

1991 में परिषद की सहायतार्थ एक अन्तर्राज्यीय परिषद सचिवालय की स्थापना की गयी जिसका प्रमुख भारत सरकार का एक सचिव होता है।

ISC का महत्व

  • संवैधानिक समर्थन- केंद्र सरकार के सहयोग हेतु अन्य मंचों के विपरीत, ISC को संवैधानिक समर्थन प्राप्त है जो राज्यों की स्थिति को मजबूत करता है।
  • सहकारी संघवाद- केंद्र और विभिन्न राज्यों में अलग-अलग राजनैतिक दलों के शासन के दौरान परस्पर संवाद व वार्ता की आवश्यकता बढ़ जाती है। इस प्रकार, ISC राज्यों को अपनी चिंताओं पर चर्चा करने हेतु एक मंच प्रदान करता है।
  • राज्य-राज्य तथा केंद्र-राज्य से संबंधित विवादों का समाधान करना– इसके द्वारा वर्ष 2015 और 2016 में क्रमशः 82 एवं 140 मुद्दों का समाधान किया था।
  •  निर्णयन प्रक्रिया को विकेंद्रीकृत बनाना – अधिक विकेन्द्रीकृत राजनीति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सरकार के विभिन्न स्तरों के  मध्य वार्ता की आवश्यकता होती है। इस दिशा में अंतर्राज्यीय परिषद पहला महत्वपूर्ण कदम है।
  • सरकारों को अधिक जवाबदेह बनाती है- वार्ता एवं चर्चा हेतु एक मंच होने के कारण, यह केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सरकारों को अपने कार्यों के प्रति और अधिक जवाबदेह बनाती है।
  • एक सुरक्षा वाल्व- यह परिषद केंद्र और राज्यों के मध्य विश्वास की कमी को दूर करने में सहायता करती है। हालाँकि यह हमेशा समस्या का समाधान नहीं कर पाती है, फिर-भी इसने कम से कम एक सुरक्षा वाल्व के रूप में कार्य किया है।
  • अन्य उपायों का अभाव: कुछ मुद्दों हेतु क्षेत्रीय परिषद जैसे अन्य संवैधानिक उपबन्ध भी उनके भौगोलिक दायरे के संदर्भ में सीमित

ISC की कार्य पद्धति से संबंधित मुद्दे

  •  इसे केवल वार्ता मंच के रूप में देखा जाता है। इस प्रकार इसके द्वारा यह दर्शाने की आवश्यकता है कि यह आगे की कार्यवाही कर सकता है।
  •  इसकी अनुशंसाएं सरकार पर बाध्यकारी नहीं होती हैं।
  •  इसकी बैठक नियमित रूप से नहीं होती जैसे कि हाल ही में इसकी बैठक 12 वर्षों के अन्तराल के पश्चात् हुई थी।

ISC को सशक्त बनाने हेतु क्या किये जाने की आवश्यकता है?

  • केंद्र में बहुमत से एक-दलीय सरकार की वापसी हुई है। इससे संघीय ढाँचे के सामंजस्यपूर्ण ढंग से कार्य करने हेतु, ISC जैसी  व्यवस्थाओं के माध्यम से अंतर-सरकारी तंत्र को सुदृढ़ करने की आवश्यकता पुनः प्रबल हुई है।
  • सरकारिया आयोग ने अनुशंसा की थी कि इसे संविधान में परिकल्पित सभी शक्तियाँ प्रदान करने की आवश्यकता है। ज्ञातव्य है कि संविधान का अनुच्छेद 263(a) जो इसे अंतर्राज्यीय विवादों की जाँच करने की शक्ति प्रदान करता है परन्तु इसे 1990 के राष्ट्रपति आदेश में सम्मिलित नहीं किया गया था।
  • सिविल सोसायटी इंस्टीट्यूशंस और कॉर्पोरेट क्षेत्र को ISC के अंदर अपना प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए अधिक अवसर प्रदान किए जाने चाहिए।
  •  इसके अतिरिक्त, इसके सचिवालय को केंद्रीय गृह मंत्रालय से राज्यसभा सचिवालय में स्थानांतरित किया जा सकता है ताकि वह केंद्रीय गृहमंत्री के स्थान पर, (एक तटस्थ संघीय कार्यकर्ता) भारत के उपराष्ट्रपति के निर्देशन में संचालित हो सके।
  • इसे केंद्र और राज्यों के मध्य न केवल प्रशासनिक बल्कि राजनीतिक और विधायी आदान-प्रदान के एक मंच के रूप में सुदृढ़ करना चाहिए। उदाहरणार्थ राज्य सूची से समवर्ती सूची में स्थानांतरित किए गए विषयों (जैसे शिक्षा एवं वन) पर कानून बनाते समय केद्र को राज्यों से अधिक व्यापक रूप से परामर्श करना चाहिए तथा उन्हें इन विषयों के संबंध में अधिक नम्यता प्रदान करनी चाहिए।

पुंछी आयोग

पुंछी आयोग की कुछ निम्नलिखित अनुशंसाओं पर भी विचार किया जाना चाहिए।

  •  अंतर्राज्य परिषद की राज्यों के साथ उचित परामर्श के पश्चात् विकसित एजेंडे पर आधारित वर्ष में कम से कम तीन बैठकें अवश्य होनी चाहिए।
  •  परिषद के संगठनात्मक ढांचे में अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों के अतिरिक्त विधि, प्रबंधन तथा राजनीति विज्ञान से संबंधित विषयों के विशेषज्ञों को भी शामिल किया जाना चाहिए।
  •  परिषद को एक पेशेवर सचिवालय के साथ कार्यात्मक स्वतंत्रता दी जानी चाहिए। सचिवालय सीमित अवधि हेतु प्रतिनियुक्ति पर आए केंद्र और राज्य अधिकारियों द्वारा समर्थित प्रासंगिक ज्ञान के क्षेत्र के विशेषज्ञों से गठित होना चाहिए।
  •  ISC को नीति विकास तथा विवाद समाधान हेतु एक जीवंत एवं वार्ता मंच बनाने के पश्चात् राष्ट्रीय विकास परिषद के कार्यों को ISC को स्थानांतरित करने पर विचार किया जा सकता है।

यद्यपि प्रधानमंत्री, चयनित कैबिनेट मंत्रियों तथा मुख्यमंत्रियों सहित समान सरंचना से युक्त नीति आयोग की शासी परिषद् जैसे अन्य निकाय भी विद्यमान हैं। परन्तु, नीति आयोग के विपरीत ISC को संवैधानिक समर्थन प्राप्त है। नीति आयोग के पास केवल एक कार्यकारी शासनादेश है। यह केंद्र-राज्य संबंधों में सुधार के लिए आवश्यक सहयोगात्मक परिवेश के निर्माण में राज्यों को अधिक ठोस आधार प्रदान करता है।

 राज्यपाल (Governor)

  •  इस संदर्भ में यह प्रश्न उठा कि क्या राज्यपाल द्वारा सरकार बनाने और सदन में अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए चुनाव में सर्वाधिक सीटें प्राप्त करने वाले सबसे बड़े दल को आमंत्रित करना चाहिए, या चुनाव के बाद निर्मित ऐसे गठबंधन को जिसकी सीटों की संख्या सबसे बड़े दल से अधिक है।
  • संविधान के अनुच्छेद 164 (1) के अनुसार मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि अनुच्छेद 164 (1) में मुख्यमंत्री पद हेतु कोई अर्हता वर्णित नहीं की गयी है और इसे 164 (2) में वर्णित सामूहिक उत्तरदायित्व के साथ पढ़ा जाना चाहिए। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने निर्धारित किया है कि मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए एकमात्र शर्त उसे “सदन में बहुमत का समर्थन प्राप्त होना” है।
  • परन्तु राज्यपालों द्वारा मुख्यमंत्री की नियुक्ति से संबंधित अपनी विवेकाधीन शक्ति का दुरुपयोग किया गया है। यह विधायकों की हॉर्स ट्रेडिंग (खरीद-फरोख्त) के प्रोत्साहन, दसवीं अनुसूची की मूल भावना के विरुद्ध दल परिवर्तन तथा राज्यपाल पद के सम्बन्ध में लोक विश्वास में कमी का कारण बन सकता है।
  • कर्नाटक के विपरीत गोवा, मणिपुर और मिजोरम राज्यों के मामलों में, सबसे बड़े दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया था। अतः इस घटना ने राज्यपाल की भूमिका पर प्रश्न चिह्न लगा दिया एवं सर्वोच्च न्यायालय को इस मुद्दे का संज्ञान लेने हेतु बाध्य किया।

राज्यपाल के पद का महत्व

संवैधानिक योजना के तहत राज्यपाल का अधिदेश महत्वपूर्ण है जैसे कि

  • सरकार के गठन का पर्यवेक्षण करना,
  •  राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता पर प्रतिवेदन देना,
  •  केंद्र और राज्य के मध्य समादेश और साथ ही साथ प्रभावी संचार की श्रृंखला को बनाए रखने,
  •  राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर अपनी अनुमति आरक्षित रखना तथा
  •  आवश्यकतानुसार अध्यादेश जारी करना।

एक नाममात्र शासक के रूप में राज्यपाल राज्य में संवैधानिक संकट के समय शासन की निरन्तरता को सुनिश्चित करता है, सरकार के विभिन्न स्तरों में अनौपचारिक रूप से विवादों के समाधान में उसकी भूमिका एक तटस्थ मध्यस्थ तथा समुदाय के
एक शान्ति रक्षक की होती है।

राज्यपाल की भूमिका से संबंधित मुद्दे –

विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग:

  •  अनुच्छेद 200 और 201: जब कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो वह विधेयक पर अनुमति देता है या रोक सकता है अथवा उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रख सकता है। राज्यों ने आरोप लगाया है कि इस प्रावधान का राज्यपाल द्वारा प्राय: दुरुपयोग किया जाता है, ऐसे मामलों में राज्यपाल केंद्र सरकार के आदेश पर कार्य करता है।
  • अनुच्छेद 356: एक राज्य में संवैधानिक आपातकाल के अधिरोपण हेतु अनुशंसा करना। वर्तमान समय तक केंद्र सरकार द्वारा राजनीतिक लाभ हेतु इस शक्ति का 120 से अधिक बार दुरुपयोग किया गया है। हालाँकि एस.आर.बोमई बनाम भारत संघ वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया था कि केन्द्रीय कार्यपालिका का राज्य कार्यपालिका पर नियंत्रण संबंधी ऐसा व्यवहार भारतीय संविधान की मूल संरचना के विपरीत है।

केंद्र द्वारा नियुक्त:

  • तत्कालीन सरकार के प्रति राजनीतिक रूप से निष्ठावान बनने हेतु इस पद को राजनीतिज्ञों के लिए एक सेवानिवृत्ति पैकेज के रूप में बदल दिया गया है। इसके परिणामस्वरूप एक राजनीतिक विचारधारा से जुड़े एक उम्मीदवार द्वारा संवैधानिक रूप से अधिदिष्ट निष्पक्ष स्थान की आवश्यकताओं के प्रति समायोजन करना कठिन हो सकता है।

कार्यकाल की समाप्ति से पूर्व स्वेछाचारी पदच्युति:

यद्यपि बी.पी.सिंघल बनाम भारत संघ वाद में उच्चतम न्यायालय के निर्णय द्वारा राज्यपालों हेतु उनके कर्तव्यों के सम्पादन में तटस्थता तथा निष्पक्षता को प्रोत्साहित करने हेतु एक निश्चित कार्यकाल की मांग की गई थी। परन्तु इस मांग को व्यावहारिक रूप से क्रियान्वित नहीं किया जा रहा है।

सुझाव

सरकारिया आयोग की रिपोर्ट और रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ, 2005 के बाद में संवैधानिक खंडपीठ के निर्णय में कहा गया कि:

  • विधानसभा में सर्वाधिक समर्थन प्राप्त दल या दलों के गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए।
  • यदि कोई चुनाव-पूर्व गठबंधन उपस्थित है, तो उसे एक राजनीतिक दल माना जाएगा तथा इस गठबंधन को बहुमत प्राप्त होने की स्थिति में गठबंधन के नेता को राज्यपाल द्वारा सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाएगा।

चुनाव में किसी दल या चुनाव-पूर्व गठबंधन को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होने की स्थिति में राज्यपाल को निम्नलिखित प्राथमिकताओं के आधार पर मुख्यमंत्री का चयन करना चाहिए:

  •  सर्वाधिक सीटें प्राप्त करने वाले विभिन्न दलों का चुनाव-पूर्व गठबंधन।
  •  निर्दलीय सदस्यों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश करने वाला सबसे बड़ा दल।
  •  चुनाव-पश्चात् का गठबंधन जिसके सभी दलों की सरकार में हिस्सेदारी हो।
  •  चुनाव-पश्चात् का गठबंधन जिसमें कुछ दल सरकार बनाएं और शेष बाहर से समर्थन दें।

एम.एम. पुंछी आयोग द्वारा वर्णित किया गया है कि त्रिशंकु विधानसभा के मामले में राज्यपाल को “संवैधानिक परम्पराओं” का पालन करना चाहिए।

अन्य सुझाव

  • हालाँकि एस आर बोम्मई वाद मूलतः त्रिशंकु विधानसभा से संबंधित न होकर राज्यपाल के विवेकाधिकार से संबंधित था, तथापि इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण निर्णय दिए गए। इसके अनुसार सदन में बहुमत सिद्ध करने (फ्लोर टेस्ट) हेतु 48 घंटों का समय (हालांकि इसे 15 दिनों तक बढ़ाया जा सकता है) दिया जाना चाहिए ताकि विधायिका द्वारा इस सन्दर्भ में निर्णय लिया जाए तथा राज्यपाल की विवेकाधिकार शक्तियाँ केवल एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य करें।
  •  एक संभावित समाधान यह होगा कि पेशेवर राजनीतिज्ञों को मनोनीत नहीं किया जाए तथा जीवन के अन्य क्षेत्रों में प्रख्यात व्यक्तियों का चयन किया जाना चाहिए। सरकारिया तथा एम.एम.पुंछी दोनों आयोगों द्वारा इस ओर संकेत किया गया था।
  • उच्चतम न्यायालय द्वारा राज्यपाल की रिपोर्ट में दुराशय से कृत दावों की जांच की जाती है। उच्चतम न्यायालय के इस क्षेत्राधिकार को सरकार बनाने के लिए निमंत्रण प्रक्रिया में राज्यपाल के ऐसे दावों को कवर करने हेतु विस्तारित किया जा सकता है।
  • सरकार के गठन को शासित करने वाले नियम संविधान में स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किए जाने चाहिए, क्योंकि राज्यपाल को केंद्र सरकार की इच्छानुसार राजनीतिक प्रक्रिया को संचालित करने हेतु पर्याप्त विवेकाधीन शक्तियाँ प्राप्त हैं।
  • राज्यपाल को अपने पद की शपथ के अनुसार कार्य करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके द्वारा मुख्यमंत्री पद हेतु आमंत्रित व्यक्ति राज्य में एक उत्तरदायी और पर्याप्त रूप से स्थायी सरकार बनाने में सक्षम हो। भारतीय संविधान के शिल्पी डॉ बी.आर. अम्बेडकर ने अपने भाषण में कहा था कि राज्यपाल को अपने विवेकाधिकार का उपयोग “दल के प्रतिनिधि” के रूप में नहीं बल्कि “सम्पूर्ण राज्य की जनता के प्रतिनिधि” के रूप में करना चाहिए।

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