पोषण सुरक्षा

(Nutrition Security)

संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2017 के लिए “विश्व में खाद्य सुरक्षा एवं पोषण की स्थिति” पर अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की है।

पृष्ठभूमि

  • इस वर्ष की रिपोर्ट संधारणीय विकास लक्ष्य-2 एवं संधारणीय विकास लक्ष्य-16 के मध्य संबंधों, अर्थात् संघर्ष, खाद्य सुरक्षा
    और शांति के मध्य संबंधों पर ध्यान केन्द्रित करती है
  • यह रिपोर्ट प्रदर्शित करती है कि संघर्ष खाद्य सुरक्षा और पोषण को कैसे प्रभावित करता है और बेहतर खाद्य सुरक्षा एवं
    अधिकाधिक लचीली ग्रामीण आजीविकाएं संघर्ष का निवारण कर स्थाई शांति में किस प्रकार योगदान कर सकती हैं।

रिपोर्ट के मुख्य संदेश

  •  कुपोषण में वृद्धि: विश्व में गम्भीर रूप से अल्पपोषित लोगों की संख्या वर्ष 2015 में 777 मिलियन थी जो वर्ष 2016 में
    बढ़कर 815 मिलियन हो गई। लंबे समय तक गिरावट के पश्चात् (वर्ष 2000 में 900 मिलियन), हाल में हुई इस वृद्धि से प्रवृत्तियों में उलटफेर का संकेत मिल सकता है।

स्टंटिंगः यद्यपि स्टंटिंग के मामलों में कमी आई है किन्तु वैश्विक रूप से पांच वर्ष से कम आयु के 155 मिलियन बच्चे
अभी भी इस समस्या से पीड़ित हैं।

वेस्टिंग: 2016 में पांच वर्ष से कम आयु के प्रत्येक बारह में से एक बच्चा (52 मिलियन या 8%) इससे प्रभावित था।
वेस्टिंग से प्रभावित बच्चों के आधे से अधिक (27.6 मिलियन) दक्षिणी एशिया में निवास करते हैं।

  • बहुल कुपोषण (multiple malnutrition) की सह-विद्यमानता: बच्चों के मध्य कुपोषण, महिलाओं के मध्य रक्ताल्पता, और वयस्कों में मोटापे के मामले एक साथ पाए गए हैं।  2016 में पांच वर्ष से कम आयु के 41 मिलियन बच्चे अधिक वजन के (ओवरवेट) थे।

प्रभावित क्षेत्र:

उप सहारा अफ्रीका के क्षेत्र, दक्षिण-पूर्वी एशिया और पश्चिमी एशिया सर्वाधिक प्रभावित हैं तथा संघर्ष और सूखे, बाढ़ या जलवायु (एल नीनो और ला नीना के कारण) सम्बंधित आघातों से संयोजित संघर्ष की परिस्थितियों में स्थिति और अधिक खराब हो जाती है।

  • अनुमानित रूप से 815 मिलियन कुपोषित लोगों में से 489 मिलियन एवं अनुमानित रूप से ठिगनेपन से पीड़ित 155
    मिलियन में से 122 मिलियन बच्चे संघर्ष से प्रभावित देशों में निवास करते हैं।
  • गंभीर खाद्य असुरक्षा का सर्वोच्च स्तर अफ्रीका में देखा गया है जहां इसका स्तर जनसंख्या के 27.4% तक के स्तर पर है। यह वर्ष 2016 में किसी अन्य क्षेत्र की तुलना में लगभग 4 गुना है।
  • एशिया में गंभीर खाद्य असुरक्षा की व्यापकता में वर्ष 2014 और 2016 के बीच कुछ कमी आई है और यह समग्र रूप से 7.7 से घटकर 7.0 % हो गई है। यह कमी मुख्य रूप से मध्य एशिया और दक्षिण एशिया में दर्ज की गयी कमी से प्रेरित

वैश्विक स्तर पर और साथ ही दुनिया के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं के बीच खाद्य असुरक्षा की व्यापकता अपेक्षाकृत थोड़ी
अधिक थी।  संघर्ष-प्रभावित स्थितियों में खाद्य असुरक्षा और कुपोषण से निपटने के लिए तत्काल मानवीय सहायता, दीर्घकालिक विकास
और शांति बनाए रखने की आवश्यकता होती है।

संघर्ष, खाद्य सुरक्षा व पोषण को किस प्रकार प्रभावित करता है?

  • संघर्ष के कारण गम्भीर आर्थिक मंदी उत्पन्न हो सकती है, मुद्रास्फीति की दर बढ़ सकती है, रोजगार बाधित हो सकते हैं और
    सामाजिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य देखभाल की वित्त व्यवस्था नष्ट हो सकती है। इसके फलस्वरूप बाजारों में भोजन की
    उपलब्धता और उस तक पहुंच पर प्रभाव पड़ सकता है और अंततः स्वास्थ्य और पोषण को क्षति पहुँच सकती है।
  • यदि अर्थव्यवस्था और लोगों की आजीविकाएँ कृषि पर अत्यधिक निर्भर रहती हैं तो खाद्य व्यवस्थाओं पर गम्भीर प्रभाव पड़
    सकता है, क्योंकि इसके प्रभाव उत्पादन, संचयन, प्रसंस्करण, परिवहन, वित्तपोषण और विपणन समेत संपूर्ण खाद्य-मूल्य श्रृंखला पर अनुभव किए जा सकते हैं।
  • संघर्ष से प्रतिरोधकता कमजोर पड़ जाती है और यह व्यक्तियों और परिवारों को प्राय: परिस्थितियों का सामना करने की उत्तरोत्तर विनाशकारी और अनुत्क्रमणीय रणनीतियों को अपनाने के लिए विवश करता है। ये रणनीतियां उनके भविष्य की
    आजीविका, खाद्य सुरक्षा और पोषण को संकटग्रस्त बना देती हैं।

2014-16 के मध्य संयुक्त राष्ट्र द्वारा भारत का आकलन

  • कुल जनसंख्या का 14.5% कुपोषित है।
  • 2016 में पाँच वर्ष से कम आयु के 21.5% बच्चे शारीरिक दुर्बलता की समस्या से पीड़ित हैं।
  • पाँच वर्ष से कम आयु के 38.5% बच्चे ठिगनेपन की समस्या से पीड़ित हैं।
  • प्रजनन आयु की 51.4% महिलाएं रक्ताल्पता से ग्रसित हैं।
  • वयस्कों के के बीच मोटापा 3.6% के स्तर पर पहुंच गया है और निरंतर बढ़ रहा है।
  • बच्चों को एक निश्चित समय तक केवल स्तनपान कराने की प्रवृत्ति तेज़ी से बढ़ रही है और लगभग 64.9% बच्चों को पहले 6
    महीनों में केवल स्तनपान कराया जाता है।

ऐसे परिदृश्य के उत्तरदायी कारण:

  • स्थूल और सूक्ष्म पोषक तत्वों के अपर्याप्त अंतर्ग्रहण से कुपोषण होता है। चूंकि भारत में खाद्य सुरक्षा मुख्य रूप से केवल चावल
    और गेहूं प्रदान करने पर केंद्रित है इसलिए भोजन में अन्य आवश्यक पोषक तत्वों की कमी हो जाती है और इसके परिणाम स्वरुप शारीरिक दुर्बलता इत्यादि रोग उत्पन्न होते हैं।
  • केवल 17% बच्चों को भोजन की विविधता का न्यूनतम स्तर प्राप्त होता है।
  • आदिवासी और ग्रामीण परिवारों में तीव्र खाद्य असुरक्षा वन आजीविका पर उनकी पारंपरिक निर्भरता की हानि एवं राज्य के गहराते कृषि संकट के कारण है।
  • जन पोषण कार्यक्रमों में प्रणालीगत मुद्दों और कमजोरियों ने समस्या को और अधिक बढ़ा दिया है। उदाहरण के लिए अनेक आदिवासी परिवारों को राशन नहीं मिलता (सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से), क्योंकि उनके पास राशन कार्ड नहीं कई राज्यों में बजट के प्रतिशत के रूप में पोषण व्यय में गम्भीर गिरावट आई है।

क्या खाद्य असुरक्षा और कुपोषण संघर्ष को सक्रिय कर सकते हैं?

  • विश्व खाद्य कार्यक्रम (WFP) के अनुसार, कुपोषण सशस्त्र संघर्ष की घटनाओं के महत्वपूर्ण निर्धारकों में से एक है और निर्धनता की स्थिति से संयुक्त होकर, खाद्य असुरक्षा; सशस्त्र संघर्ष की संभावना और तीव्रता को बढ़ा देती है।
  • निम्न सामाजिक-आर्थिक संकेतकों जैसे- बाल मृत्युदर, निर्धनता, खाद्य असुरक्षा व कुपोषण के उच्च स्तर वाले देशों में संघर्ष का खतरा अधिक होता है।
  • खाद्य कीमतों में तीव्र वृद्धि, राजनीतिक अशांति और संघर्ष के जोखिम को और अधिक बढ़ा देती है। यह 2007-08 और 2011 के दौरान देखा गया जब 40 से अधिक देशों में खाद्य दंगे (अरब क्रान्ति) भड़क उठे थे।
  • गम्भीर सूखे की स्थिति स्थानीय खाद्य सुरक्षा को संकटग्रस्त कर देती है और यह मानवीय परिस्थितियों को और अधिक विकृत कर देती है। इसके परिणाम स्वरुप बड़े पैमाने पर मानवीय विस्थापन होता है और संघर्षों को बढ़ावा मिलता है, जैसा कि सीरिया के गृहयुद्ध में देखा गया।.
  • प्राकृतिक संसाधनों के लिए प्रतिस्पर्धा सुभेद्य ग्रामीण परिवारों की खाद्य सुरक्षा के लिए क्षतिकारक हो सकती है। यह प्रतिस्पर्धा संभावित रूप से संघर्ष में परिणत हो सकती है, जैसा कि दारफुर और ग्रेटर हॉर्न ऑफ़ अफ्रीका में देखा गया।

संघर्षरत क्षेत्रों में खाद्य सुरक्षा और पोषण में समाविष्ट लैंगिक आयाम

  •  घर परिवार के स्तर पर पर्याप्त खाद्य और पोषण सुनिश्चित करने में पुरुषों और महिलाओं की प्रायः भिन्न-भिन्न भूमिकाएं और | जिम्मेदारियाँ होती हैं। संघर्षों में लैंगिक भूमिकाओं एवं सामाजिक मानकों को परिवर्तित करने की प्रवृत्ति होती है
  • पुरुषों के संघर्ष में संलग्न रहने के कारण घर के सदस्यों हेतु भोजन की उपलब्धता, पोषण और स्वास्थ्य देखभाल के लिए परिवार की आजीविका को बनाए रखने की अधिकाधिक जिम्मेदारी महिलाओं के ऊपर आ जाती है।
  • संघर्ष की स्थितियों में प्रायः महिलाओं को लक्ष्य बनाकर की जाने वाली यौन हिंसा में वृद्धि का अभिलक्षण विद्यमान रहता है।
  • संकट की स्थितियों में और शरणार्थियों के मध्य प्रजनन आयु की प्रत्येक पांच महिलाओं में से एक के गर्भवती होने की संभावना होती है। संघर्षों के कारण यदि स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली लड़खड़ाती है और खाद्य सुरक्षा की स्थिति बिगड़ती है, तो इन महिलाओं और उनके शिशुओं के लिए जोखिम और अधिक बढ़ जाता है
  • ग्रामीण महिलाओं को प्राय: संसाधनों और आय की उपलब्धता कम होती है, जो उन्हें और अधिक सुभेद्य बना देती है। इसलिए उनके द्वारा अधिक जोखिमपूर्ण रणनीतियों का सहारा लेने की संभावना बढ़ जाती है जो उनके स्वास्थ्य को और अंततः सम्पूर्ण घर-परिवार को प्रभावित कर सकती हैं।
  • संघर्ष के परिणामस्वरुप विशेष रूप से कम कुशल कार्य हेतु श्रम में महिलाओं की भागीदारी बढ़ जाती है। यह उन्हें असुरक्षित और अनिश्चित रोजगार की स्थिति के प्रति सुभेद्य बना सकता है।
  • संघर्ष के दौरान बाल श्रम अपने सर्वाधिक निकृष्ट रूपों में देखा जाता है
  • बदलती लैंगिक भूमिकाओं का घर-परिवार के कल्याण पर लाभकारी प्रभाव भी पड़ सकता है, जिनमें महिलाओं को संसाधनों का अधिक नियंत्रण प्राप्त होता है, घरेलू भोजन की खपत बढ़ जाती है और बाल पोषण में सुधार होता है। उनका आर्थिक सशक्तिकरण घर और समुदाय से संबंधित निर्णय लेने में उनके मत को और अधिक महत्ता दे सकता है, जैसा कि सोमालिया, कोलंबिया, नेपाल आदि में देखा गया है।

भारत में शहरी पोषण (Urban Nutrition In India)

शहरी पोषण पर अर्बन हंगामा (HUNGaMA) (हंगर एंड मॉलन्युट्रिशन) रिपोर्ट, 2014 में कुपोषण के विरुद्ध नागरिकों के गठबन्धन द्वारा किए गए सर्वेक्षण के आधार पर जारी की गई।

विवरण

  •  अर्बन हंगामा (HUNGaMA) सर्वेक्षण 2014 भारत के 10 सबसे बड़े शहरों में 0-59 महीने की आयु के बच्चों के आवश्यक पोषण आंकड़ों को संग्रहित करने हेतु किया गया था।
  • सर्वेक्षण में संग्रहित किए आंकड़े पोषण (वजन, ऊंचाई, 7.40 आयु) एवं परिवार (माता-पिता की स्कूली शिक्षा के Prevalence (%) of
    वर्षों, धर्म, सेवाओं तक पहुँच) से संबंधित थे।

शहरी पोषण संबंधी समस्याएं

शहरी पोषण संबंधी समस्याओं से मोटापे से लेकर कुपोषण तक परिणामों की एक विस्तृत श्रृंखला प्राप्त होती है।

  • कई निर्धनों के लिए, भोजन की कमी मुख्य समस्या नहीं है बल्कि यह कमी स्वयं और अपने परिवार को भूख से बचाने के लिए उपभोग किए जाने वाले सस्ते खाद्य पदार्थों में पोषक तत्वों की कमी से उत्पन्न होती है।
  • निम्न स्तरीय पोषण की इन “लागतों” के कारण स्वास्थ्य देखभाल संबंधी लागतों में और अधिक वृद्धि होती है, जिसके कारण वे उत्तरोत्तर गरीबी के चक्र में फंसते चले जाते हैं।
  • इसके अतिरिक्त, शहरी जीवनशैली में शारीरिक गतिविधियों की कमी होती है और साथ ही ऊर्जा का अत्यधिक उपभोग किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप अधिकतर शहरों में बढ़ते मोटापे और आहार-संबंधी दीर्घकालिक रोगों की समस्या उत्पन्न हो जाती है।
  • शहरी आहारों में अधिक ऊर्जा और वसा घनत्व वाले खाद्य पदार्थों को सम्मिलित करने की प्रवृत्ति पाई जाती है, जिनसे
    दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।

भारत में बढ़ते शहरीकरण के कारण पोषण से जुड़ी चुनौतियों की संभावना व्यापक पैमाने पर बनी रहती है, जिसका अध्ययन सर्वेक्षण में किया गया है।

रिपोर्ट के मुख्य बिन्दु

  • इसने कुपोषण से संबंधित सभी संकेतकों के लिए लड़के और लड़कियों के मध्य निम्न अंतराल को प्रदर्शित किया है। इस प्रकार
    यह रिपोर्ट लड़के और लड़कियों के मध्य बहुत ही कम अंतराल को प्रदर्शित करती है: कुपोषण के प्रत्येक मापन के अंतर्गत लड़कियों की तुलना में लड़के अधिक कुपोषित पाए गए थे।
  • इस निष्कर्ष में ऐसे बच्चों के मध्य कुपोषण का पर्याप्त उच्च प्रसार हुआ हैं, जिनकी माताओं ने निम्न या बिल्कुल भी स्कूली शिक्षा प्राप्त नहीं की थी।
  • निम्न सम्पत्ति वाले परिवारों की तुलना में उच्च सम्पत्ति वाले परिवारों के मध्य बाल कुपोषण की व्यापकता पर्याप्त रूप से कम थी। जबकि अति-पोषण के मामले में, उच्च सम्पत्ति वाले परिवारों के बच्चों की संख्या अधिक थी।
  • सर्वेक्षण के पूर्ववर्ती माह में केवल 37.4% परिवारों ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली का उपयोग किया था, जो सूरत में सबसे कम (10.9%) और कोलकाता में सबसे अधिक (86.6%) था।
  • चार बच्चों में एक से भी कम बच्चे को ऐसा आहार प्रदान किया गया था जो स्वस्थ वृद्धि और विकास के लिए न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

राष्ट्रीय पोषण रणनीति

(National Nutrition Strategy)

नीति आयोग के तहत एक उच्च स्तरीय पैनल ने 10-बिंदु की पोषण कार्य योजना तैयार की है जिसमें “कुपोषण मुक्त भारत विजन 2020” के दृष्टिकोण के अनुरूप अभिशासन में सुधार सम्मिलित हैं। भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय पोषण मिशन के आरंभ की मंजूरी प्रदान की गयी है।

मिशन के बारे में

इसका नोडल मंत्रालय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय (WCD) होगा। इसके साथ ही इसे पेयजल एवं स्वच्छता
मंत्रालय तथा स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के सहयोग से क्रियान्वित किया जाएगा।

कार्यान्वयन और लक्ष्य

  • इस मिशन में प्रतिवर्ष ठिगनेपन (स्टंटिंग), कुपोषण और जन्म के समय अल्पभार वाले बच्चों में 2% और एनीमिया में 3% तक कमी लाने का लक्ष्य तय किया गया है।
  • इसका उद्देश्य मुख्य रूप से 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं और किशोरियों पर ध्यान केंद्रित करना है।
  • यह 2022 तक ठिगनेपन या अल्पविकास के मामलों में 38.4% (NFHS-4) से 25% तक कमी लाने का प्रयास करेगा (2022 तक मिशन 25)।
  • यह तीन चरणों में लागू किया जाएगा: 2017-18, 2018-19 और 2019-20)। ‘अत्यधिक बोझ वाले’ 315 जिलों को पहले चरण, 235 को अगले और शेष को आखिरी चरण में शामिल किया जाएगा।

विशेषताएँ

  • एक शीर्ष संस्था के रूप में राष्ट्रीय पोषण मिशन (NNM) निगरानी, पर्यवेक्षण एवं लक्ष्यों को निर्धारित करेगा तथा पोषण संबंधी हस्तक्षेपों को निर्देशित करेगा।
  • कुपोषण के सन्दर्भ में योगदान करने वाली विभिन्न योजनाओं की मैपिंग।
  • ICT (सूचना और संचार प्रौद्योगिकी) आधारित वास्तविक समय निगरानी प्रणाली।
  • लक्ष्यों को पूरा करने के लिए राज्यों/संघ शासित प्रदेशों को प्रोत्साहित करना।
  • आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं (AWW) को IT आधारित उपकरणों का उपयोग करने और रजिस्टरों के उपयोग की आवश्यकता को समाप्त करने हेतु प्रोत्साहित करना। आंगनबाड़ी केंद्रों पर बच्चों की लम्बाई का मापन।
  • बच्चों की स्वास्थ्य प्रगति की निगरानी हेतु सामाजिक लेखा परीक्षा।
  • पोषण संसाधन केंद्र की स्थापना।

सम्बंधित प्रावधान

  • संविधान के अनुच्छेद 47 के अनुसार- “पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करना तथा लोक स्वास्थ्य में सुधार करना राज्य का कर्तव्य है।”
  • कोपेनहेगन सहमति (Copenhagen Consensus) के अंतर्गत उन संभावित पोषण हस्तक्षेपों की पहचान की गयी है, जो कि सभी संभव विकास आकलनों में से सर्वाधिक लाभदायक हैं।
  • 2010 में भारत की पोषण संबंधी चुनौतियों पर प्रधानमंत्री की राष्ट्रीय परिषद की अनुशंसा पर 2014 में राष्ट्रीय पोषण मिशन को प्रारंभ किया गया। इसका उद्देश्य देश में माताओं एवं शिशुओं के कुपोषण की समस्याओं का समाधान करना
  • सरकार ने हाल ही में राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति, 2017 का निर्माण किया है, जो अन्य मुद्दों के साथ कुपोषण और सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी का समाधान करने के लिए बाल एवं किशोर स्वास्थ्य और हस्तक्षेपों के संबंध में भी प्रावधान करता है।

राष्ट्रीय पोषण रणनीति प्रावधान

  • 2030 के अंत तक कुपोषण के सभी रूपों को कम करना।
  • पोषण रणनीति में एक फ्रेमवर्क की परिकल्पना की गई है जिसमें पोषण के चार अनुमानित निर्धारक अर्थात् स्वास्थ्य
    सेवाएँ, भोजन, पेयजल और स्वच्छता तथा आय और आजीविका को बढ़ावा देना शामिल हैं। ये भारत में कुपोषण को तीव्रता से समाप्त करने के लिए एक साथ कार्य करते हैं।
  • विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण- इसके साथ रणनीति का उद्देश्य पोषण पहलों पर PRIs और शहरी स्थानीय निकायों के स्वामित्व को सुदृढ़ करना है ,क्योंकि PRIs को आवंटित विषयों में वे शामिल हैं जो स्वच्छता और जल जैसे कुपोषण के तत्काल और अंतर्निहित निर्धारकों का समाधान करते हैं।
  • रणनीति में कल्पित अभिशासन संबंधी सुधारों में शामिल हैं: (i) ICDS, NHM और स्वच्छ भारत के लिए राज्य और जिला कार्यान्वयन योजनाओं का अभिसरण, (ii) बाल कुपोषण के उच्चतम स्तर वाले जिलों में सर्वाधिक सुभेद्य समुदायों पर ध्यान केंद्रित करना, और (i) प्रभाव के साक्ष्य के आधार पर सेवा वितरण मॉडल।
  • बच्चों और उनकी स्वास्थ्य प्रगति पर निगरानी रखने के लिए पोषण सामाजिक लेखा परीक्षा ( Nutrition Social Audit) शुरू की जानी चाहिए।
  • राष्ट्रीय पोषण निगरानी प्रणाली- देश के अल्पपोषित स्थानिक क्षेत्रों के ‘उच्च जोखिम और सुभेद्य जिलों की पहचान करने | के लिए उनका मानचित्रण किया जाएगा। साथ ही बच्चों में अल्प पोषण के गंभीर मामलों को रूटीन डिजीज रिपोर्टिंग सिस्टम में शामिल किया जाना चाहिए।
  • संस्थागत व्यवस्था- क्रमशः महिला और बाल विकास मंत्री और मंत्रालय के सचिव की अध्यक्षता में नेशनल न्यूट्रीशन मिशन स्टीयरिंग समूह (NNMSG) और एम्पॉवर्ड प्रोग्राम कमिटी (EPC) जैसी संस्थाओं का गठन करना चाहिए।
  • राष्ट्रीय पोषण मिशन- रणनीति का लक्ष्य राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के समान राष्ट्रीय पोषण मिशन शुरू करना है। यह महिलाओं और बाल विकास, स्वास्थ्य, भोजन और सार्वजनिक वितरण, स्वच्छता, पेयजल और ग्रामीण विकास जैसे क्षेत्रों में पोषण से संबंधित हस्तक्षेपों के एकीकरण को सक्षम बनाता है

रणनीति में बच्चों में स्वास्थ्य देखभाल और पोषण में सुधार लाने तथा मातृ देखभाल को बेहतर बनाने पर ध्यान देने के साथ हस्तक्षेप करने का प्रस्ताव दिया गया है।

आगे की राह

  • आर्थिक अपवर्जन, शोषण करने वाली या हिंसक प्रकृति की संस्थाओं, असमान सामाजिक सेवाओं, प्राकृतिक संसाधनों तक पहुँच एवं उनके उपयोग के मुद्दे, खाद्य असुरक्षा और जलवायु संबंधी आपदाओं जैसे संघर्ष के मूल एवं तात्कालिक कारणों का समाधान करते हुए संघर्ष को रोकना।
  • सरकार और मानवीय संगठनों द्वारा समय पर हस्तक्षेप।
  • सामाजिक संरक्षण के स्तर को बढ़ाना, काम के बदले नकद एवं परिसम्पत्तियों के बदले भोजन कार्यक्रम, महत्वपूर्ण उत्पादक अवसंरचनाओं जैसे-सड़कों या सिंचाई प्रणालियों का निर्माण या पुन:स्थापना।
  • संघर्ष से विस्थापित किसानों को नए आजीविका कौशलों में प्रशिक्षित किया जा सकता है। इन कौशलों के माध्यम से वे | शिविर व्यवस्थाओं में आय अर्जित कर सकते हैं।
  • पशुधन के संघर्ष प्रभावित क्षेत्रों में पहुँच जाने के जोखिम को टालने के लिए पशुपालन क्षेत्रों के सुरक्षित भागों में जल आपूर्ति स्थल निर्मित किए जा सकते हैं।
  • आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों, शरणार्थियों एवं पूर्व-लड़ाकों को घर लौटने और उत्पादक गतिविधियाँ आरम्भ करने के लिए बीज, उपकरण, पशुधन, या कौशल प्रशिक्षण आदि समर्थन प्रदान प्रदान किए जा सकते हैं।

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