असहयोग और खिलाफत आंदोलन,1919-1922

इसे पढ़ने के बाद आप –

  • असहयोग तथा खिलाफत आंदोलनों को चलाने के कारणों को समझ पायेंगे,
  • इन आंदोलनों में अपनाई गई कार्य-योजनाओं से सुपरिचित हो सकेंगे,
  • इन आंदोलनों के प्रति भारतीय जनता की प्रतिक्रिया के बारे में जान पायेंगे,
  • इन आंदोलनों के प्रभावों को समझ सकेंगे।

सन् 1920-21 के दौरान भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने एक नए दौर यानी, जन-राजनीति और जनता को लामबंद करने के दौर में प्रवेश किया। ब्रिटिश शासन का विरोध दो जन-आन्दोलनों खिलाफ़त तथा असहयोग, के द्वारा हुआ। अलग-अलग समस्याओं से उभरने के बावजूद दोनों आंदोलनों ने एक समान कार्य-योजना को अपनाया। अहिंसात्मक संघर्ष की तकनीक राष्ट्रीय स्तर तक अपनाई गई। इस इकाई में हम इन आन्दोलनों को चलाने के कारणों, आंदोलनों के पक्षों, जनता तथा नेतृत्व की भूमिका की चर्चा करेंगे। यह इकाई क्षेत्रीय विभिन्नताओं तथा आंदोलनों के प्रभाव का भी विश्लेषण करेगी।

पृष्ठभूमि

प्रथम विश्व युद्ध, रॉलट ऐक्ट, जलियाँवाला बाग हत्याकांड तथा मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के प्रभाव ने इन आंदोलनों की पृष्ठभूमि तैयार की।

  • प्रथम विश्व युद्ध के बाद के समय में दैनिक जीवन की जरूरतों की चीजों के दाम तेजी से बढ़ गए थे जिससे आम जनता सबसे अधिक पीड़ित थी। आयात की मात्रा जो कि प्रथम विश्व युद्ध के दौरान घट गई थी युद्ध के अन्त तक फिर बढ़ गई। उत्पादन कम हो गया, बहुत-सी फैक्ट्रियां बंद हो र तवा इन सबका स्वाभाविक शिकार मजदूर बने। किसान भी लगान तथा करों के भारी बोझ से दबे हुए थे। अतः युद्ध के बाद के सालों में देश की आर्थिक स्थिति गंभीर हो गई। राजनीति के क्षेत्र में, जब अंग्रेजों ने लोकतंत्र के नए युग तथा जनता के आत्म निर्णय को लाने के बायदे को पूरा नहीं किया तो राष्ट्रवादियों का मोह भंग हुआ। इसने भारतीयों की ब्रिटिश शासन विरोधी प्रवृत्ति को मजबूत बनाया।
  • इस काल की दूसरी महत्वपूर्ण एवं ऐतिहासिक घटना मार्च 1919 में रॉलट एक्ट का पारित होना था। इस अधिनियम ने सरकार को किसी भी व्यक्ति को बिना मुकदमा चलाये कैद रखने का अधिकार दिया। इसका आधारभूत लक्ष्य राष्ट्रवादियों को अपने बचाब का मौका दिए बिना ही कैद करना था। गांधी जी ने सत्याग्रह के द्वारा इसका। विरोध करने का निर्णय लिया। मार्च व अप्रैल 1919 के महीने भारत में एक असाधारण राजनैतिक जागरूकता का समय था। रॉलट ऐक्ट के विरुख हड़ताल व प्रदर्शन हुए।
  • इसी समय अमृतसर के जलियांवाला बाग में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नग्न बर्बरता का भी अनुभव हुआ। 13 अप्रैल ! 19 को अपने जनप्रिय नेताओं डॉ. सैफुदीन किचल तथा डॉ. सत्यपाल की गिरफ्तारी के खिलाफ विरोध प्रकट करने के लिए निहत्थी मगर भारी भीड़ जलियाँवाला बाग में एकत्रित हुई थी। जलियांवाला बाग एक बड़ा खुला हुआ  स्थान वा जो तीन ओर से इरतों द्वारा घिरा हुआ था तथा उसमें एक ही निकास था। अमृतसर के कमाण्डर जन ल डायर ने अपनी सेना को उस निहत्थी भीड़ पर बिना चेतावनी दिए गोली चलाने का आदेश दे दिया। हजारों लोग मारे गए और घायल हुए। इस घटना ने पूरे विश्व को धक्का पहुंचाया। महान् कवि रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने अंग्रेज़ों द्वारा दी गई सर की उपाधि उतार फेंकी।
  • 1919 में भारत सरकार के अधिनियम के पारित होने से राष्ट्रवादियों का और भी अधिक मोह भंग हुआ। सुधार-सुझाव भारतीयों की अपनी सरकार की बढ़ती मांग को संतुष्ट करने में असफल रहे। ज्यादातर नेताओं ने यह कहते हुए इसकी निंदा की कि यह “निराशाजनक तथा असंतोषजनक’ है।
  • इन सभी विकासों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोकप्रिय जनांदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की। खिलाफ़त के उद्भव ने मुसलमानों के समर्थन को इस आन्दोलन के साथ जोड़ने में मदद पहुँचाई। गाँधी जी के नेतृत्व में इसको अंतिम रूप दिया गया। अब हम खिलाफ़त समस्या की चर्चा करेंगे जिसने शीघ्र ही आंदोलन को पृष्ठभमि प्रदान की।

खिलाफ़त की समस्या

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान तुर्की ब्रिटेन के खिलाफ़ जर्मनी व आस्ट्रिया के साथ मिल गया था। भारतीय मसलमान तर्की के सल्तान को अपने धार्मिक नेता “खलीफा’ के रूप में मानते थे। अतः स्वाभाविक रूप से उनकी सहानुभूति तर्की के साथ ही थी। युद्ध के बाद ब्रिटेन ने तुर्की में खलीफ़ा को सत्ता से हटा दिया। इस तरह खलीफ़ा को पुनर्स्थापित करने के लिए भारत में मुसलमानों ने ख़िलाफ़त आंदोलन शुरू किया। उनकी मुख्य माँगें निम्न थीं:

  • मुसलमानी धार्मिक स्थानों पर ख़लीफ़ा के नियंत्रण को वापिस लाया जाए।
  • युद्ध के बाद के क्षेत्रीय-समझौते में खलीफ़ा को पर्याप्त क्षेत्र मिलने चाहिए।

1919 के शुरू में, बंबई में एक ख़िलाफ़त कमेटी बनाई गई थी। पहल मुसलमान व्यापारियों द्वारा की गई और उनकी गतिविधियाँ सभाओं, खलीफ़ा के पक्ष में अर्जी देने व प्रतिनिधि मंडल ले जाने, तक सीमित थीं। फिर भी जल्दी ही आंदोलन के भीतर एक जझारू प्रवृत्ति उभरी। इस जझारू प्रवृत्ति के नेता संयमी विचारधारा से सन्तष्ट नहीं थे। उसके विपरीत उन्होंने देश-व्यापक आन्दोलन चलाने का प्रचार किया।

दिल्ली में 22-23 नवम्बर 1919 में हई अखिल भारतीय खिलाफ़त कान्फ्रेंस में उन्होंने पहली बार भारत में ब्रिटिश सरकार से असहयोग का समर्थन किया। यह वही कांफ्रेंस थी जहाँ हसरत मोहनी ने ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार करने का आह्वान किया। खिलाफ़त के नेतृत्वकारियों ने यह स्पष्ट रूप से बता दिया कि यदि युद्ध के बाद की शांति-शर्ते मसलमानों के अनकल न हईं तो वे सरकार से सभी प्रकार के सहयोग को बंद कर देंगे। अप्रैल 1920 में, शौकत अली ने अंग्रेजों को चेतावनी दी कि यदि सरकार भारतीय मुसलमानों को संतुष्ट करने में असफल रही तो, “हम हिन्दू मुसलमानों का संयुक्त असहयोग आंदोलन शुरू करेंगे।” इसके अतिरिक्त शौकत अली ने इस बात पर भी जोर दिया कि आंदोलन “महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति जिन्हें हिन्द तथा मुसलमानों दोनों का ही आदर प्राप्त है’ के नेतृत्व में शुरू होगा।

किन्तु खिलाफ़त समस्या को अपना समर्थन देने वाले अखिल भारतीय खिलाफ़त समिति के . अध्यक्ष होने के बावजूद, मई 1920 तक गांधी जी एक संयमी रवैया अपनाये रहे। तुर्की समझौते की शर्तों, जोकि तुर्की के प्रति बेहद कठोर पी, के प्रकाशन तथा मई 1920 में “पंजाब अशांति” पर हंटर कमेटी की रिर्पोट के प्रकाशन ने भारतीयों को क्रोधोन्मत कर दिया और तब गांधी जी ने एक खुला दृष्टिकोण अपनाया।

इलाहाबाद में पहली से तीसरी जून 1920 को केंद्रीय बिलाफ़त कमेटी की बैठक हुई। इस सभा में अनेक कांग्रेस तथा खिलाफत नेता उपस्थित हए। इस सभा में सरकार के प्रति असहयोग के कार्यक्रम को घोषित किया गया। जिसमें निम्न बातें शामिल थीं:

  • सरकार द्वारा दी गई उपाधियों का बहिष्कार,
  • लोक सेवाओं, सेना तथा पुलिस यानि सभी सरकारी नौकरियों का बहिष्कार, तथा 
  • सरकार को करों की बदायगीन करना।

पहली अगस्त 1920 को आंदोलन शुरू करने का निश्चय किया गया। गांधी जी ने जोर दिया कि जब तक पंजाब तथा खिलाफत की गलतियों को सधारा न जाएगा, सरकार के साथ असहयोग जारी रहेगा। चौकि इस आंदोलन की सफलता के लिए कांग्रेस का समर्थन जरूरी था। इसीलिए अब गांधी जी का यह प्रयास था कि कांग्रेस असहयोग कार्यक्रम को अपना ले।

असहयोग की ओरः कलकत्ता से नागपुर

गांधी जी के लिए पूरी कांग्रेस से राजनैतिक गतिविधियों के अपने कार्यक्रमों को सहमति दिलवाना कोई सरल कार्य नहीं था। प्रो. रविन्द्र कमार के अनुसार “गांधी जी द्वारा तिलक को सत्याग्रह के सद्गुणों तथा खिलाफ़त के मुद्दे पर मुसलमान समुदाय के साथ मिलने के औचित्य को मनवाने के लिए काफी चेष्टा करनी पड़ी” फिर भी. तिलक को “सत्याग्रह के राजनैतिक हथियार के रूप पर संदेह था।” वह “मुसलमान नेताओं के साथ धार्मिक समस्या” पर सन्धि के पक्ष में भी नहीं थे। तिलक ने तर्क दिया कि हिंदुओं तथा मुसलमानों के बीच सहयोग का आधार लखनऊ पैक्ट (1916) की तरह धर्म निरपेक्ष होना चाहिए। तिलक इस मुद्दे पर क्या रुख अपनाते यह बहुत कुछ तिलक के दृष्टिकोण पर निर्भर था- चाहे वह विरोध में हो या पक्ष में-किन्त ऐसा निर्णय लेने से पहले ही दुर्भाग्यवश पहली अगस्त 1920 को उनका देहांत हो गया। लाला लाजपतराय तथा सी.आर. दास ने गांधी जी के द्वारा परिषद् चुनावों के बहिष्कार के विचार का जोरदार विरोध किया। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा कि कांग्रेस के लगभग सभी पुराने समर्थकों ने गांधी जी के असहयोग प्रस्ताव का विरोध किया।

” फिर असहयोग तथा बहिष्कार का कार्यक्रम प्रांतीय कांग्रेस समितियों (प्रां.कां.स.) के सामने उनके विचारों को जानने के लिए रखा गया। संयुक्त प्रान्तों की प्रां.कां.स. ने एक लम्बी बहस के बाद असहयोग के सिवांत तथा सरकारी स्कूलों और कालेजों, सरकारी दफ्तरों में ब्रिटिश वस्तुमों के धीरे-धीरे बहिष्कार की सहमति दे दी।

बंबई प्रां.कां.स. ने असहयोग को संघर्ष के वैधानिक तरीके के रूप में स्वीकृति दे दी किन्तु इसने परिषद् के बहिष्कार पर आपत्ति की तथा पहले कदम के रूप में सिर्फ ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार की सिफारिश की। बंगाल प्रां.कां.स. ने असहयोग के सिद्धांत को स्वीकार किया किन्त यह परिषद के बहिष्कार से असहमत था। मद्रास प्रां.कां.स. ने असहयोग की नीति का समर्थन किया, किन्तु गांधी जी के कार्यक्रम को अस्वीकृत कर दिया।

जब गांधी जी के कार्यक्रम के प्रति भारतीय राजनीति के “पारंपरिक” आधार क्षेत्र में यह प्रवृत्ति थी, उस समय भारतीय राजनीति के तुलनात्मक रूप से गैर-पारंपरिक क्षेत्रों जैसे गजरात तथा बिहार ने गांधी जी के कार्यक्रम का पूरी तरह समर्थन किया। आंध और पंजाब प्रां.कां.स. असहयोग से सहमत थे किन्त गांधी जी के कार्यक्रम पर निर्णय को कांग्रेस की विशिष्ट बैठक तक टाल गए। कुछ प्रांतीय नेताओं का गांधी जी के कार्यक्रमों को समर्थन देने में दुविधा का कारण भविष्य में गांधी जी के आंदोलन की अनिश्चितता थी। इसी कारण परिषद् चुनावों के बहिष्कार के लिए तैयार नहीं थे।

यही वह परिस्थितियां थीं जिनके कारण सितंबर 1920 को कलकत्ता में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की विशिष्ट बैठक हुई। लाला लाजपतराय इसके अध्यक्ष थे। इस बैठक में गाँधी जी के कार्यक्रम के प्रति एक जोरदार विरोध की उम्मीद थी। किन्तु अधिकांश प्रतिष्ठा प्राप्त राजनीतिक नेताओं के इरादों के विपरीत बैठक शुरू होने से पहले ही गांधी जी कांग्रेस की खुली बैठक में अपने प्रस्ताव को 1000 वोटों की बढ़त से मंजूर करवाने में कामयाब हो गए।

गांधी जी के समर्थकों में मोती लाल नेहरू, सैफुद्दीन किचलु, जितेन्द्र लाल बनर्जी, शौकत अली, याकूब हसन तथा डॉ० अंसारी थे, जबकि उनके विरोधियों में पंडित मदन मोहन मालवीय, ऐनी बीसेंट इत्यादि शामिल थे। गांधी जी को यह सफलता मुख्यतः व्यापारी समूहों तथा मसलमानों के समर्थन के कारण मिल पाई।

कलकत्ता कांग्रेस ने निम्न कार्यक्रम को स्वीकृति दीः

  • उपाधियों की वापसी
  • विद्यालयों, अदालतों, विदेशी सामान तथा परिषदों का बहिष्कार, तथा
  • राष्ट्रीय विद्यालयों, पंच-अदालतों तथा खादी को बढ़ावा।

कांग्रेस ने गांधी जी की इस योजना का समर्थन किया कि सरकार के साथ तब तक असहयोग किया जाएगा जब तक पंजाब तथा दिलाफ़त की गलतियों को सुधारा नहीं जाता और स्वराज की स्थापना नहीं हो जाती। अंतिम निर्णय कांग्रेस की दिसम्बर 1920 को नागपर में होने वाली बैठक पर छोड़ दिया गया। हालांकि गांधी जी ने बताया कि यह “भारतीय जनता की इच्छाओं के अनुसार संसदीय स्वराज था।” नेहरू ने यह स्वीकार किया कि यह “बिना किसी स्पष्ट दृष्टिकोण के एक अस्पष्ट स्वराज था।” फिर भी स्वराज (जिसे गांधी जी लक्ष्य बना रहे थे) की सही प्रकृति उनके समकालिकों को स्पष्ट नहीं थी।

संशोधित मताधिकारों के अनुसार नवंबर 1920 में परिषद् चुनाब हुए। सभी कांग्रेस उम्मीदवारों ने चुनावों का बहिष्कार किया। गांधी जी के चुनावों का बहिष्कार करने के आह्वान पर विभिन्न प्रान्तों में बहुत अनुकूल प्रतिक्रिया हुई। ब्रिटिश सरकार के लिए यह चेतावनी का संकेत था। शहरी क्षेत्रों में केवल 27.3 प्रतिशत हिन्दू मतदाताओं और 12.1 प्रतिशत मुसलमान निर्वाचकों ने मतदान में हिस्सा लिया। ग्रामीण क्षेत्रों में 41.8 प्रतिशत हिन्दू तथा 28.3 प्रतिशत मुसलमानों ने मतदान किया।

गांधी जी के कार्यक्रम पर अनेकों अंतर्विरोध तथा विवादों के बीच 26 दिसम्बर 1920 को नागपुर में कांग्रेस की बैठक शुरू हुई।

नागपुर बैठक में बंगाल के सी.आर. दास में एक नाटकीय परिवर्तन दिखाई पड़ा। गांधी जी के कार्यक्रमों की आलोचना करने वाले सी.आर. दास ने नागपुर में असहयोग प्रस्ताव को । रखा। इसमें सिफारिश की गई कि असहयोग प्रस्ताव, जिसमें परी योजना घोषित की गई है कि, एक तरफ तो सरकार के साथ सभी स्वैच्छिक सहयोग का त्याग हो तथा दूसरी ओर, करों की अदायगी न की जाए। इस योजना को कांग्रेस द्वारा तय किए जाने वाले समय पर कार्यान्वित किया जाए। परिषदों से इस्तीफा, वकालत का त्याग, शिक्षा का राष्ट्रीयकरण, आर्थिक बहिष्कार, राष्ट्रीय सेवा के लिए मजदूरों को संगठित करना, राष्ट्रीय फंड को स्थापित करना तथा हिन्दू मसलमान एकता को कार्यक्रम के कदमों के रूप में सुझाया गया। नागपुर बैठक में कांग्रेस संगठन में क्रान्तिकारी परिवर्तन भी हुए। ये परिवर्तन निम्न थे:

  • 15 सदस्यों की एक कार्यकारी समिति का गठन,
  • 350 सदस्यों की एक अखिल भारतीय समिति का गठन,
  • शहर से ग्रामीण स्तर तक कांग्रेस समितियों का गठन,
  • प्रांतीय कांग्रेस समितियों का भाषीय आधार पर पुनर्गठन, तथा सभी स्त्री-पुरुष जिनकी उम्र 18 वर्ष से अधिक है को चार आना वार्षिक शुल्क देने पर कांग्रेस की सदस्यता प्राप्त हुई।

कांग्रेस की ओर से इसे वास्तविक जन-आधारित राजनैतिक पार्टी बनाने के लिए यह पहला सकारात्मक कदम था। इस दौर में पार्टी के सामाजिक संयोजन के साथ-साथ इसके दृष्टिकोण तथा नीतियों में भी एक मलभत परिवर्तन दिखाई पड़ा। गांधी जी सत्याग्रह के अपने अपूर्व हथियार के साथ कांग्रेस पार्टी में एक जन नेता के रूप में उभर कर सामने आए।

ऊपर की गई चर्चा से यह स्पष्ट हो जाता है कि असहयोग आंदोलन के कार्यक्रम के दो मुख्य पहलू थेः

  • रचनात्मक
  • विध्वंसक

पहली श्रेणी में निम्नलिखित बातें आती हैं:

  • शिक्षा का राष्ट्रीयकरण,
  • स्वदेशी सामान को बढ़ावा,
  • चरखे व खादी को लोकप्रिय बनाना, तथा
  • स्वयंसेवी सेना की भरती।

दूसरी श्रेणी में निम्नलिखित का बहिष्कार घोषित हुआः

  • कानूनी अदालतें,
  • शैक्षिक संस्थाएँ,
  • विधायकों के चुनाव,
  • दफ्तरी काम काज,
  • विटिश सामान के साथ-साथ ब्रिटिश सरकार द्वारा दिए गए सम्मान तथा उपाधियाँ।

असहयोग आंदोलन के मुख्य चरण

1921 के शुरू में ही असहयोग तथा बहिष्कार के लिए जोर-शोर से प्रचार शुरू हो गया था। हालांकि आन्दोलन के एक चरण से दूसरे चरण में केंद्रीय मुद्दे बदलते रहे। जनवरी से मार्च 1921 के प्रथम चरण में मुख्य बल विद्यालयों, कॉलेजों, कानूनी अदालतों के बहिष्कार तथा चरखे के प्रयोग पर था। छात्रों में व्यापक अशांति पी तथा वकीलों जैसे सी.आर. दास तथा मोतीलाल नेहरू ने वकालत को त्याग दिया। इस चरण के बाद अप्रैल 1921 में दूसरा चरण प्रारम्भ हुआ। दूसरे चरण का मूलभूत लक्ष्य, तिलक स्वराज कोष के लिए अगस्त 1920 तक एक करोड़ रुपये तथा 30 जून तक 20 लाख चरखे लगाना था। जुलाई से शुरू होने वाले तीसरे चरण में निम्न बातों पर जोर दिया गया : विदेशी कपड़ों का बहिष्कार, नवंबर 1921 में ब्रिटिश राजसिंहासन के उत्तराधिकारी प्रिंस ऑफ वेल्स की यात्रा का बहिष्कार, चरखे तथा खादी को लोकप्रिय बनाना, तथा कांग्रेस स्वयं सेवकों द्वारा जेल भरो आंदोलन।

अंतिम चरण में, नवंबर 1921 में उग्रता की ओर झकाव दिखाई पड़ रहा था। कांग्रेस स्वयं सेवकों ने जनता को लामबंद किया और देश क्रांति की कगार पर था। गांधी जी ने बरदोली में लगान नहीं देने का प्रचार तथा, बोलने, प्रेस और संस्थाओं की स्वतंत्रता के लिए एक बड़ा नागरिक अवज्ञा आंदोलन भी शुरू करने का निश्चय किया। किन्तु 5 फरवरी 1922 को । य.पी. के गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा में कछ किसानों द्वारा स्थानीय पलिस थाने पर हए हमले ने परीस्थिति को ही बदल दिया। गांधी जी ने इस घटना से स्तब्ध होकर असहयोग आंदोलन को वापिस ले लिया।

आंदोलन पर जनता की प्रतिक्रिया

इस आंदोलन के शुरू के दौर में नेतृत्व मध्यम वर्ग से आया। किन्तु मध्यम वर्ग को गांधी जी के कार्यक्रम के बारे में बहत सी शंकाएं थीं। कलकत्ता, बंबई, मद्रास जैसी जगहों में, जो कि कुलीन राजनीतिज्ञों के केंद्र थे, गांधी जी के आंदोलन पर बहुत सीमित प्रतिक्रिया हुई। सरकारी नौकरियों से इस्तीफा देने, उपाधियों का त्याग करने इत्यादि के आह्वान पर हई प्रतिक्रिया भी अधिक उत्साहवर्धक नहीं थी। यद्यपि आर्थिक बहिष्कार को भारतीय व्यापारिक समूह का समर्थन मिला क्योंकि राष्ट्रवादियों के स्वदेशी वस्त्र के प्रयोग पर जोर देने से कपड़ा उद्योग को फायदा हुआ। फिर भी बड़े व्यापारियों का एक भाग असहयोग आंदोलन का आलोचक ही रहा। उन्हें असहयोग आन्दोलन के फलस्वरूप खासकर फैक्ट्रियों में मजदूरों के असंतोष का डर था।

कुलीन राजनीतिज्ञों के अतिरिक्त भारतीय राजनीति में तुलनात्मक रूप से नए आए हुए लोगों को गांधी जी के आंदोलन में अपने हितों तथा महत्त्वाकांक्षाओं की अभिव्यक्ति मिली। बिहार में राजेन्द्र प्रसाद, गजरात में सरदार बल्लभ भाई पटेल जैसे नेताओं ने गांधी जी के आंदोलन को व्यापक समर्थन दिया। वास्तव में, उन्हें औपनिवेशिक सरकार से लड़ने के लिए आतंकवाद के बदले असहयोग के रूप में एक प्रत्यक्ष राजनैतिक हल मिला।

विद्यार्थियों तथा महिलाओं की प्रतिक्रिया बहुत प्रभावशाली थी। हजारों विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूलों व कालेजों को छोड़कर राष्ट्रीय स्कूलों व कालेजों में दाखिला लिया। नव स्थापित काशी विद्यापीठ, गजरात विद्यापीठ तथा जामिया मिलिया इस्लामिया जैसे अन्य राष्ट्रीय शिक्षण संस्थाओं ने बहुत से विद्यार्थियों को स्थान दिया जबकि अनेकों विद्यार्थियों को स्थान न मिलने के कारण निराश होना पड़ा। विद्यार्थी आंदोलन के गतिशील स्वयं सेवक बन गए। औरतें भी सामने आईं। उन्होंने पर्दा छोड़ दिया तथा अपने गहने तिलक फंड के लिए दे दिए। वे बड़ी संख्या में आंदोलन में शामिल हुईं और उन्होंने विदेशी कपड़ा व शराब बेचने वाली दुकानों के आगे होने वाले धरनों में सक्रिय रूप से भाग लिया।

इस आंदोलन के विकास का अत्यधिक महत्वपूर्ण बिन्दु इसमें किसानों तथा मजदूरों का शामिल होना था। इस आंदोलन के द्वारा मेहनती जनता को अंग्रेजों के साथ-साथ भारतीय मालिकों के विरुद्ध पुरानी शिकायतों तथा अपनी वास्तविक भावनाओं को अभिव्यक्त करने का मौका मिला। हालांकि कांग्रेस का नेतृत्व वर्ग-संघर्ष के खिलाफ़ था फिर भी जनता ने इस सीमा को तोड़ दिया। ग्रामीण इलाकों तथा कुछ अन्य स्थानों में, किसान जमींदारों व व्यापारियों के खिलाफ़ हो गए। इसने 1921-22 के आंदोलन को एक नया आयाम दिया।

आंदोलन का फैलाव, क्षेत्रीय विभिन्नताएँ।

असहयोग तथा बहिष्कार के आह्वान को भारत के विभिन्न भागों से भारी समर्थन मिला। 1921 और 1922 का साल भारत में ब्रिटिश राज के खिलाफ़ लोकप्रिय विरोधों से अंकित है। फिर भी, आंदोलन अधिकतर स्थानों पर स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार ही ढला था। यह जनता की स्थानीय शिकायतें थी जिन्हें इस आंदोलन के द्वारा अभिव्यक्ति मिली, तथा कांग्रेस नेतृत्व के आदेशों का सदा पालन नहीं हुआ। आइये असहयोग आंदोलन के संदर्भ में विभिन्न क्षेत्रों पर एक सरसरी दृष्टि डालते हैं।

बंगाल

विरोध के गांधीवादी तरीकों की भारी हिस्सेदारी को बंगाल में कम प्रोत्साहन मिला। रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने जनता में एक नई चेतना लाने के लिए गांधी जी की सराहना की। किन्तु उन्होंने गांधी जी की “संकीर्णता, रूढ़िवादिता” तथा चरखे पर आपत्ति की। कलकत्ता के कुलीनों ने कुछ गांधीवादी तरीकों की आलोचना की। किन्तु फिर भी असहयोग आंदोलन ग्रामीण तथा शहरी जनता में एक अलग तरह की एकता व जागरूकता लाया। हड़तालों, बन्द तथा जन-गिरफ्तारियों ने ब्रिटिश सरकार पर भारत के प्रति रवैये को बदलने के लिए भारी दबाव डाला।

गाँवों में जोरदार प्रचार किया गया और जैसा कि एक सरकारी रिर्पोट ने कहा कि “गाँधी जी के नाम पर जो कुछ कहा जा रहा है और किया जा रहा है यदि गांधी जी उसका एक अंश भी सुन लें, तो वह भद्रपुरुष काँप उठेगा।” मिदनापुर जिले के गाँवों में नई बनाई गई एकता समितियों तथा उनके द्वारा थोपे गए करों का विरोध किया गया। उत्तरी बंगाल के बाहरी जिलों की जनता ने सरकार या निजी जमींदारों को कर या कृषि लगान का भुगतान करने से इंकार कर दिया।

बिहार

बिहार में सार्वजनिक खाली पड़ी हुई सरकारी भूमि पर पशु चराने के अधिकार की माँग तथा निचली जातियों द्वारा जनेऊ धारण करने पर “निचली व ऊँची जातियों के बीच की लड़ाई” जैसी स्थानीय समस्याएँ असहयोग आंदोलन से जुड़ गई। गोरक्षा तथा किसानों के अधिकारों के मामलों पर भी ध्यान दिया गया। इस मेल-जोल के कारण, उत्तरी भारत, खासकर चम्पारन, सारन, मुजफ्फरपुर, व पूर्णियाँ जिले नवंबर 1921 तक आंदोलन के केन्द्र बने रहे। हाट (गाँव का बाजार) लूटना तथा पुलिस के साथ लड़ाई प्रतिदिन की घटना हो गई।

यू.पी. : संयुक्त प्रांत

गांधीवादी असहयोग आंदोलन का मजबूत आधार बन गया। संगठित रूप से असहयोग शहरों तथा छोटे कस्बों का काम था। गाँवों में इसने एक अलग रूप लिया। गाँवों में यह आंदोलन किसान आंदोलन के साथ मिल गया। कांग्रेस नेतृत्व की अंहिसा की निरंतर अपीलों के बावजूद, किसान न केवल ताल्ल्कदारों बल्कि व्यापारियों का भी विरोध करने के लिए उठ खड़े हुए। जनवरी व मार्च 1921 के बीच राय बरेली, प्रतापगढ़, फैजाबाद तथा सुल्तानपुर में बाबा राम चन्द्र के नेतृत्व में व्यापक किसान आंदोलन हुए। मुख्य मांगें 

  • जमीन से बेदखली नहीं, तथा
  • बेगार (जबरदस्ती लिया हुआ काम) तथा
  • रसद (जबरदस्ती लिया हुआ सामान), इत्यादि

1921 के अंत में मदारी उग्र नेता पासी के नेतृत्व में एक अन्य मजबूत किसान आंदोलन हुआ जिसे “एका” के नाम से जाना जाता है। उत्पादित लगान को रुपये में बदलना इनकी मुख्य माँग थी। एक अन्य महत्वपर्ण घटना थी जलाई 1921 में, पहाड़ी-जनजातियों द्वारा कमायँ क्षेत्र के हजारों एकड़ सुरक्षित वन को नष्ट कर देना। इसका कारण जनजातियों का वन-नियम का विरोध था।

पंजाब

पंजाब के शहरों में इस आंदोलन के लिए अधिक अच्छा समर्थन नहीं था। किन्त यहाँ के शक्तिशाली अकाली आंदोलन की गुरुद्वारों के सुधार तथा नियंत्रण की माँगें असहयोग आंदोलन से निकट रूप से जड़ गईं। हालाँकि गांधी जी ने इसे सिर्फ नियंत्रित सहमति दी थी फिर भी अकालियों ने उनकी असहयोग की नीतियों का लगातार प्रयोग किया। इसने सिक्खों, मुसलमानों तथा हिन्दुओं के बीच एक विशेष सांप्रदायिक एकता प्रदर्शन की।

महाराष्ट्र

महाराष्ट्र में असहयोग तुलनात्मक रूप से कमजोर रहा क्योंकि तिलकवादी गांधी जी के प्रति प्रोत्साहित नहीं थे और गैर-ब्राह्मणों ने महसस किया कि कांग्रेस चितपावन के नेतृत्व वाला मामला है। ऊँची जातियों ने उत्पीडित वर्ग के उत्थान के लिए गाँधी जी द्वारा किए गए प्रयत्न तथा असहयोग आंदोलन में उनकी हिस्सेदारी पर जोर देने को नापंसद किया । फिर भी कछ छट-पट स्थानीय घटनाएँ हईं। नासिक जिले के मालागाँव में कछ स्थानीय नेताओं की गिरफ्तारी की प्रतिक्रिया में कछ पलिस के आदमियों को जिन्दा जला दिया गया। पुणे क्षेत्र में कुछ किसानों ने सत्याग्रह के द्वारा अपने जमीन के अधिकारों की रक्षा करने का प्रयास किया।

असम

असम के दर के प्रांतों में असहयोग को भारी समर्थन मिला। असम के बागानों में मजदूर ‘गांधी महाराज की जय’ के नारे के साथ ऊँचे वेतन तथा बेहतर कार्य परिस्थितियों के लिए संघर्ष में जुट गए। किसानों के बीच लगान अदा न करने के आंदोलन के संकेत भी थे।

राजस्थान

बिहार तथा य.पी. की तरह राजस्थान के राजसी राज्यों में किसान आंदोलनों ने असहयोग आंदोलन को मजबूत बनाया। किसानों ने उपकर तथा बेगार के खिलाफ आवाज उठायी। मेवाड़ के बिजोलिया आंदोलन तथा मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में हुए भील आंदोलन ने असहयोग आंदोलन से ही प्ररेणा ली।

आन्ध्र

आन्ध्र में वन कानूनों के ख़िलाफ़ जनजातियों तथा अन्य किसानों की शिकायतें असहयोग आंदोलन से जुड़ गईं। इनमें से एक बड़ी संख्या में लोग अपने करों को कम कराने तथा वन संबंधी पाबंदियों को हटवाने के लिए सितंबर 1921 को कडप्पा में गांधी जी से मिले। वन अधिकारियों का बहिष्कार हआ। अपने अधिकारों को पक्का बनाने के लिए उन्होंने बिना चराई कर अदा किये अपने पशओं को जबरदस्ती जंगल में भेजा। वनों की सीमा पर स्थित पालांद इलाके में स्वराज की घाषणा की गई तथा पुलिस के दस्तों पर हमले हुए। प्रदर्शनकारियों का विश्वास था कि गांधी-राज आने ही वाला है। दिसंबर 1921 तथा फरवरी 1922 के बीच भूमि-लगान की अदायगी न करने का मजबत आंदोलन भी आन्ध में बढ़ा। आन्ध्र डेल्टा क्षेत्र में असहयोग आंदोलन को महान् सफलता मिली।

कर्नाटक

तुलनात्मक रूप से कर्नाटक के क्षेत्र आंदोलन से अप्रभावित रहे और मद्रास महाप्रांत के बहुत से इलाकों के उच्च व मध्यम वर्ग के पेशेवर समूह की आरंभिक प्रतिक्रिया सीमित थी। 682 उपाधि प्राप्त लोगों में से केवल 6 ने अपना सम्मान वापिस लौटाया तथा 36 वकीलों ने अपनी वकालत छोड़ी। पूरे महाप्रांत में 5,000 छात्रों के साथ 92 राष्ट्रीय विद्यालय शुरू किए गए। जुलाई से अक्टूबर 1921 के बीच बकिंघम तथा कर्नाटक कपड़ा मिलों में मजदूरों ने हड़ताल किया। उन्हें स्थानीय असहयोग आंदोलन के नेताओं से नैतिक समर्थन मिला।

इस तरह की प्रतिक्रिया अन्य क्षेत्रों में भी हुई। उदाहरण के लिए उड़ीसा के कनिका राज्य के पट्टेधारी ने कर देने से इंकार कर दिया। किन्तु गुजरात में आंदोलन शुद्ध गांधीवादी विचारधारा पर चला।

अंतिम चरण

सरकार आंदोलन के विकास को बहुत ध्यानपूर्वक देख रही थी और प्रांतों से आंदोलन की प्रगति के बारे में खुफिया रिर्पोट जमा कर रही थी। जब अंत में आंदोलन शरू हआ तो सरकार ने इसे दबाने का रास्ता अपनाया। कांग्रेस तथा खिलाफ़त स्वयं सेवक संगठनों को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। जन-सभाओं व प्रदर्शनों पर प्रतिबंध लग गया। अनेक स्थानों में पलिस ने सत्याग्रहियों पर गोलियां चलाईं। गिरफ्तारियाँ व लाठी चार्ज एक आम  बात हो गई।

1921 के अंत तक गांधी जी को छोड़कर सभी महत्वपूर्ण नेता जेल में डाल दिए गए। हिन्दू-मुसलमान एकता से चौकस होकर सरकार ने कांग्रेस तथा ख़िलाफ़त समर्थकों में फूट डालने की भी कोशिश की। इस तरह सरकारी-तंत्र आंदोलन को तोड़ने में पूरी तरह जुटा हुआ था।

अंग्रेजों के अत्याचार ने भारतीयों को अधिक तेजी से आंदोलन जारी रखने के संकल्प को और मजबूत बनाया। इस बीच वायसराय ने मदन मोहन मालवीय के द्वारा कांग्रेस नेताओं से समझौता करने की कोशिश की और राष्ट्रीय स्वयं सेवकों को मान्यता देने तथा राजनैतिक कैदियों को रिहा करने का प्रस्ताव रखा। मध्य जनवरी 1922 को गांधी जी ने सभी पार्टियों की सभा में असहयोग आंदोलन की स्थिति को स्पष्ट किया और उनके मूल्यांकन को आम स्वीकृति मिली। पहली जनवरी को उन्होंने वायसराय के पास अंतिम चनौती भेजी कि यदि राजनैतिक कैदियों को रिहा नहीं किया गया व अत्याचार के तरीकों को नहीं छोड़ा गया तो वे बड़े रूप में नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू करवा सकते हैं।

चूंकि पूरा देश नागरिक अवज्ञा के लिए तैयार नहीं था, इसलिए उन्होंने इसे 5 फरवरी से शुरू करने का निश्चय किया। य पी. के गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा में पुलिस ने कांग्रेस स्वयं सेवकों पर गोली चलाई जिससे उत्तेजित भीड़ ने 21 पुलिस कर्मियों को जान से मार दिया। इस हिसांत्मक घटना से गांधी जी को आघात पहँचा और उन्होंने असहयोग आंदोलन को रोक दिया। उन्होंने बारदोली में प्रस्तावित नागरिक अवज्ञा-उल्लंघन को भी स्थगित कर दिया। अनेकों कांग्रेसी गांधी जी के निर्णय से चकित व हत्प्रभ रह गये। उन्होंने इसका जोरदार विरोध किया। सभाष चन्द्र बोस ने इसे “राष्ट्रीय संकट” कहा। जवाहरलाल नेहरू ने इस निर्णय पर अपना “विस्मय व आश्चर्य” प्रकट किया। अपनी स्थिति को स्पष्ट करते हए गांधी जी ने नेहरू को जवाब दियाः

“अनजाने में आंदोलन अपने सही मार्ग से भटक गया था। हम अपने लंगर (डेरे) पर वापिस आ गए हैं और फिर से सीधे आगे जा सकते हैं।”

12 फरवरी 1922 को बारदोली में कांग्रेस की कार्यकारी समिति की बैठक ने चौरी-चौरा में भीड़ के अमानवीय बर्ताव की निन्दा की। इसने नागरिक अवज्ञा आंदोलन को स्थगित करने का समर्थन किया। गांधी जी ने उसी दिन से इस घटना के विरोध में उपवास शरू किया। इस तरह पहला असहयोग आंदोलन समाप्त हो गया। 10 मार्च 1922 को गांधी जी गिरफ्तार हए और उन्हें छह साल की कैद की सजा दी गयी।

तुर्की में कमाल पाशा के सत्ता में आने से खिलाफ़त समस्या की संदर्भता भी समाप्त हो गई। तुर्की के सल्तान से सभी राजनैतिक शक्ति छीन ली गई। कमाल पाशा तर्की का आधनिकीकरण करना चाहता था और इसे एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाना चाहता था ख़लीफ़ा के पद को समाप्त कर दिया गया जिससे खिलाफ़त आंदोलन का अंत हो गया

आंदोलन वापिस लेने के कारण

असहयोग आंदोलन को वापिस लेने के कारणों को समझाते हुए गांधी जी ने कहा था कि चौरी-चौरा की घटना ने उन्हें आंदोलन वापिस लेने के लिए मजबर किया। घटना ने यह सिद्ध किया कि देश ने अभी तक अंहिसा का पाठ नहीं सीखा है। गांधी जी के शब्दों में, ‘मैं आंदोलन को हिंसात्मक होने से बचाने के लिए हरेक अपमान, हरेक यातना, बहिष्कार यहाँ तक कि मृत्यु तक को झेल लूँगा।”

जहाँ तक किसानों का संबंध है, असहयोग आंदोलन धीरे-धीरे ज़मींदारों के खिलाफ़ लगान अदा न करने के आंदोलन के रूप में बदल रहा था। किन्त कांग्रेस नेतृत्व किसी भी तरह जमींदारों के कानूनी अधिकारों पर हमला करने में रुचि नहीं रखता था। गांधी जी का लक्ष्य विभिन्न भारतीय वर्गों को शामिल कर एक “नियंत्रित जन आंदोलन” चलाना था, न कि वर्ग क्रांति । इसीलिए वे उस आंदोलन के जारी रहने के विरुद्ध थे जो कि शायद वर्ग क्रांति में परिवर्तित हो सकता था। उन्होंने यह बिल्कुल स्पष्ट कर दिया कि वे इस अवस्था में किसी भी किस्म की हिंसा या आंदोलन के ख़िलाफ़ हैं। भारत में क्रांतिकारी परिस्थितियों के रहते हुए भी कोई वैकल्पिक क्रांतिकारी नेतृत्व नहीं था। यदि आंदोलन को स्थगित न किया जाता तो शायद वह अव्यवस्थित हो जाता क्योंकि नेतृत्व का स्थानीय आंदोलनों पर कोई नियंत्रण नहीं था।

प्रभाव

असहयोग आंदोलन के असफल हो जाने के बावजूद यह भारतीय इतिहास में न केवल राजनैतिक पहल से बल्कि सामाजिक पहल से भी विशेष महत्व रखता है। गांधी जी ने जाति-बंधनों, सांप्रदायिकता, छआ-छत, इत्यादि जैसी कप्रथाओं को हटाने की आवश्यकता पर जोर दिया था। प्रदर्शनों, बैठकों तथा जेलों में सभी जातियों व समदायों के लोगों ने मिल-जुलकर काम किया तथा एक-साथ मिलकर खाना भी खाया जिससे जातीय पृथकता कमजोर पड़ गई तथा सामाजिक गतिशीलता व सधार की गति में तेजी आयी। निम्न वर्ग बिना किसी डर के अपना सिर ऊँचा रख सकता था। इस आंदोलन ने हिंदू तथा मुसलमानों के बीच एक विशेष सद्भाव स्थापित किया। बहुत से स्थानों पर तो असहयोग, खिलाफ़त तथा किसान सभा की सभाओं में फर्क करना कठिन था।

बंगाल के विभाजन के बाद उत्पन्न हए 1905-8 के आंदोलन की अपेक्षा 1920-22 का आर्थिक बहिष्कार ज़्यादा प्रभावशाली था। 1905-8 में आयात किए गए 129 करोड़ 20 लाख गज ब्रिटिश सूती कपड़ों की अपेक्षा 1921-22 में सिर्फ 95 करोड़ 50 लाख गज कपड़ा ही आयात हुआ जिससे बिटिश पूँजीपतियों में घबराहट पैदा हो गई। भारतीय कपड़ा उद्योग को विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार से अत्यधिक फायदा हुआ। भारतीय मिल मालिकों का प्रभाव काफी बढ़ा। दूसरी ओर, 1921 की मज़दूर हड़ताल ने इन मिल-मालिकों में घबराहट फैला दी। चर्खे तथा करघे को लोकप्रिय बनाने, स्वयं सेवा पंचायतों द्वारा ग्रामीण पनर्निमाण कार्यक्रम से आर्थिक क्षेत्र में पुनर्जीवन का संचार हुआ तथा हथकरघे पर बने कपड़ों का उत्पादन बढ़ गया।

राजनैतिक क्षेत्र में, असहयोग तथा खिलाफ़त आंदोलनों में सभी समुदायों तथा वर्गों के शामिल होने के राष्ट्रीय आंदोलन में एक नया आयाम जोड़ दिया। राष्ट्रीय आंदोलन एक से अधिक तरीकों से मजबूत बना। एक नई राष्ट्रवादी जागरूकता उत्पन्न की गई तथा राष्ट्रीय आंदोलन देश के कोने-कोने में पहुँचा। पहली बार आम जनता राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा का अभिन्न अंग बनी। भारतीय जनता में स्वाभिमान तथा आत्मविश्वास बहुत अधिक बढ़ा। इससे कंठ तथा असहायता की जगह स्वतंत्रता की एक सच्ची भावना ने ले ली। इसने लोगों के उत्साह को बढ़ावा दिया तथा राष्ट्रीय गौरव को ऊँचा उठाया।

सारांश

स्वतंत्रता के लिए भारतीय संघर्ष की इतिहास यात्रा में असहयोग आंदोलन निस्संदेह एक मील का पत्थर था। रॉलट ऐक्ट के लाग होने, मोंटेग्य-चेम्सफ़ोर्ड सधारों, जलियाँवाला बाग हत्याकांड तथा ख़िलाफ़त समस्या ने असहयोग आंदोलन के लिए पृष्ठभूमि तैयार की।

गांधी जी ख़िलाफ़त समस्या का उपयोग ब्रिटिश सरकार के ख़िलाफ़ एक संयुक्त हिन्दू मसलमान आंदोलन के लिए करना चाहते थे। खिलाफ़त समस्या का राष्ट्रीय आंदोलन में विलय हो जाने से कुछ कांग्रेस नेताओं के आरंभिक आपत्ति के बावजूद अंत में गांधी ने उन्हें ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ असहयोग आंदोलन शरू करने के लिए राजी कर लिया।

आंदोलन के कार्यक्रम में सरकारी तथा शैक्षिक संस्थाओं, कानूनी अदालतों, विधायिकाओं का बहिष्कार तथा चरखे व खादी का प्रयोग इत्यादि शामिल थे। आंदोलन को भारत के विभिन्न भागों से भारी समर्थन मिला। सबसे अधिक ध्यान देने वाली बात आम जनता का राष्ट्रीय आंदोलन में पहली बार एक बड़ी संख्या में हिस्सा लेना था।

फिर भी 1921 के अंत तक आंदोलन धीरे-धीरे कांग्रेस नेतृत्व के नियंत्रण से बाहर हो गया, खासकर ग्रामीण इलाकों में। अंत में चौरी-चौरा घटना ने गांधी जी को सदमा पहुँचाया और उन्होंने आंदोलन वापिस ले लिया।

यह सत्य है कि आंदोलन अपने मुख्य लक्ष्यों ख़िलाफ़त की स्थापना तथा स्वराज की प्राप्ति को पाने में असफल रहा। किन्त गांधी जी के अनसार “आत्मिक शक्ति” तथा “भौतिक ‘शक्ति’ के बीच के संघर्ष से जनता में उनके राजनैतिक अधिकारों के प्रति एक नई जागरूकता आई। गांधी जी ने यह सही कहा था कि इस आंदोलन ने वह कुछ एक साल में पा लिया है जो पुराने तरीकों से तीस सालों में भी नहीं हो पाता। हमें असहयोग आंदोलन के बारे में सीमित राय के बावजूद यह मानना पड़ेगा कि ये दो साल भारतीय राष्ट्रवाद के तुफानी साल थे जब पूरा भारत पहली बार शक्तिशाली ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ उठ खड़ा हुआ।

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