‘मिट्टी के लाल के सिद्धांत’ : देशीय राजनीतिक दलों और आंदोलनों द्वारा “स्थानीय” लोगों को रोजगार की मांग
प्रश्न: देशीय राजनीतिक दलों और आंदोलनों द्वारा “स्थानीय” लोगों को रोजगार में प्राथमिकता देने की मांग ने कुछ निश्चित मुद्दों को उठाया है। भारत में ‘मिट्टी के लाल के सिद्धांत’ के संदर्भ में इस कथन का परीक्षण कीजिए। साथ ही, चर्चा कीजिए कि ऐसी मांगें कुछ राज्यों और शहरों में ही क्यों विकसित होती हैं, अन्य में नहीं।
दृष्टिकोण
- ‘मिट्टी के लाल के सिद्धांत’ का एक संक्षिप्त परिचय दीजिए।
- इस बात की व्याख्या कीजिए कि कुछ राज्यों या शहरों में ही ऐसी मांगें क्यों विकसित होती हैं, अन्य में नहीं।
- एक संक्षिप्त निष्कर्ष लिखिए।
उत्तर
‘मिट्टी के लाल का सिद्धांत’ एक प्रकार का क्षेत्रवाद है, जिसके अनुसार कोई राज्य विशेष रूप से उसमें रहने वाले मुख्य भाषाई समूह का ही है। वे सभी लोग जो वहां बसे हैं और राज्य की मुख्य भाषा ही जिनकी मातृभाषा नहीं है, उन्हें ‘बाहरी’ घोषित कर दिया जाता है।
यह विभिन्न मुद्दों को जन्म देता है:
- सरकार पर अपनी मांगों को पूरा करने का दबाव बनाना क्योंकि ऐसी अवस्था में प्रवासियों के विरुद्ध राजनीतिक लामबंदी अत्यधिक सरल हो जाती है जब किसी एक क्षेत्र या एक नस्ल के प्रवासियों का संकेंद्रण किसी एक स्थान पर हो रखा हो। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश और बिहार से मुंबई की ओर बढ़ते प्रवास के बीच मुंबई में उत्तर भारतीयों के विरुद्ध अभियान का चलाया जाना।
- भेदभाव: राजनीतिक दबाव के कारण, अनेक राज्य नौकरियों को आरक्षित करते हैं अथवा राज्य व स्थानीय सरकारों में नियोजित करने एवं शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश देने के उद्देश्य से वहां के स्थानीय निवासियों को प्राथमिकता देने लगते हैं।
- हिंसा: देशीय (Nativist) राजनीतिक दलों द्वारा राजनीतिक सत्ता प्राप्त करने के उद्देश्य से ‘मिट्टी के लाल’ संबंधी भावनाओं का प्रयोग किया जाता है। असम और तेलंगाना के ‘मिट्टी के लाल’ संबंधी आंदोलनों ने गंभीर व हिंसक रूप ले लिया था।
- ऐसी मांगे सामान्यत: वहाँ उठाई जाती हैं जहाँ संसाधनों को लेकर वास्तविक अथवा संभावित प्रतिस्पर्धा होती है। यह प्रतिस्पर्धा प्रवासियों तथा स्थानीय, शिक्षित व मध्यम वर्ग के युवाओं के बीच औद्योगिक और मध्यम-श्रेणी की नौकरियों को लेकर होती है। आर्थिक संसाधनों और आर्थिक अवसरों- शिक्षा, रोजगार आदि पर आधिपत्य प्राप्त करने के क्रम में इन्हें प्राय: भाषाई निष्ठा और क्षेत्रवाद से जोड़ दिया जाता है। यह समस्या शहरों या उन क्षेत्रों में अधिक बढ़ जाती है जहाँ राज्य की भाषा बोलने वाले लोग अल्पसंख्यक होते हैं अथवा उनका मामूली बहुमत होता है। उदाहरणस्वरुप मुंबई, बेंगलुरु आदि।
हालांकि, ऐसी मांगों को कुछ राज्यों या शहरों में उठाया जा रहा है तथा अन्य में नहीं, क्योंकि ये विभिन्न कारकों पर निर्भर करती हैं जैसे कि:
- प्रवासियों का अनुपात: एक बार जब प्रवासियों की संख्या का अनुपात एक निश्चित बिंदु से अधिक हो जाता है, उसके पश्चात देशीय राजनीतिक लामबंदी चुनाव की दृष्टि से व्यवहार्य नहीं रह जाती। उदाहरणस्वरुप दिल्ली में प्रथम पीढ़ी के प्रवासियों का प्रतिशत शहर की आबादी का लगभग 40% है और उनके विरुद्ध कोई राजनीतिक विरोध नहीं है।
- राष्ट्रीय दल की मजबूती: देशीय दलों की सफलता, राज्य एवं स्थानीय स्तर पर राष्ट्रीय दलों की मजबूती पर निर्भर है। यदि राष्ट्रीय दल कमजोर हैं, तब स्थानीय लोगों का समर्थन प्राप्त करने वाले राजनीतिक दल अधिक मुखर हो जाते हैं।
- वैचारिक प्रतिबद्धताएं: कम्युनिस्ट पार्टी जैसे राजनीतिक दलों ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण कोलकाता में अप्रवासी-विरोधी भावनाओं का उपयोग करने से मना कर दिया। इस प्रकार, शहर में ‘मिट्टी के लाल’ संबंधी कोई भी प्रमुख आंदोलन देखने को नहीं मिला।
- पारस्परिक विपरीत हित: ‘बाहरी लोग’ स्थानीय क्षेत्रों में प्राय: कृषि मजदूरों के रूप में अथवा कम भुगतान प्रदान करने वाले पारंपरिक उद्योगों में कार्य करते हैं। इन रोजगारों के लिए उनकी प्रतिस्पर्धा स्थानीय लोगों से नहीं होती, अत: इन ‘बाहरी लोगों के प्रति वैमनस्य कम होता है। उदाहरणस्वरुप, बिहार और उत्तरप्रदेश से मजदूरों का बड़े पैमाने पर पंजाब और हरियाणा की ओर होने वाले प्रवासन ने किसी संघर्ष को जन्म नहीं दिया।
‘मिट्टी के लाल के सिद्धांत’ द्वारा उत्पन्न समस्या अभी भी कुछ हद तक अपने सूक्ष्म रूप में मौजूद है क्योंकि केवल कुछ शहर और राज्य ही इसके उग्र रूप से प्रभावित हैं। इसने किसी भी स्तर पर देश की एकता पर खतरा उत्पन्न नहीं किया और भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव नगण्य रहा है। इसने देश के भीतर होने वाले प्रवास को नहीं रोका, अपितु वास्तविकता यह है कि अंतरराज्यीय गतिशीलता बढ़ रही है।
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