मनुष्य के राजनीतिक प्राणी होने के संदर्भ में समाज में राज्य की भूमिका पर चर्चा
प्रश्न: “मनुष्य स्वभावतः एक राजनीतिक प्राणी है।” समाजिक जीवन में अरस्तू के राज्य संबंधी विचार के सन्दर्भ में व्याख्या कीजिए।
दृष्टिकोण
- प्रदत्त कथन के विभिन्न अर्थों को स्पष्ट कीजिए।
- अरस्तू द्वारा मनुष्य को स्वाभाविक रूप से राजनीतिक प्राणी के रूप में वर्णित करने के कारणों की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
- मनुष्य के राजनीतिक प्राणी होने के संदर्भ में समाज में राज्य की भूमिका पर चर्चा कीजिए।
- निष्कर्ष दीजिए।
उत्तर
अरस्तू के अनुसार मनुष्य विभिन्न प्रकार से पशुओं के समान हैं, किन्तु जिस विशिष्ट परिप्रेक्ष्य में वह उनसे भी ऊपर हैं – वह है राजनीति। दिए गए कथन के दो घटक हैं, एक “स्वभावतः”– जो जन्मजात विशेषता को प्रदर्शित करता है और दूसरा “राजनीतिक प्राणी” जिसका अर्थ है कि वे प्राणी जो एक व्यवस्था के अंतर्गत रहते हैं। इस कथन का अर्थ यह है कि साथ रहना तथा ऐसे विचारशील शासकीय निकायों का निर्माण करना मनुष्य की अंतर्निहित प्रकृति है जिनका उद्देश्य उसमें सम्मिलित सभी लोगों का भला करना हो। अर्थात् व्यक्ति स्वाभाविक रूप से सामाजिक होता है और अपनी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु प्राकृतिक रूप से विभिन्न राजनीतिक संगठनों के निर्माण की ओर उन्मुख होता है। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया केवल इसलिए संभव है क्योंकि मनुष्यों के पास वाक् और नैतिक तार्किकता की शक्ति है।
हम देखते हैं कि प्रत्येक नगर-राज्य एक प्रकार का समुदाय है। प्रत्येक समुदाय एक बेहतर स्थिति प्राप्त करने के लिए स्थापित किया जाता है (क्योंकि सभी लोग कुछ ऐसा प्राप्त करने का प्रयास करते जो उनकी दृष्टि में अच्छा हो) अतः यह स्पष्ट है कि प्रत्येक समुदाय का लक्ष्य कुछ अच्छा करना होता है और वह समुदाय जिसके पास उन सभी समुदायों में से सर्वाधिक प्राधिकार हो और जो अन्य सभी समुदायों को समाविष्ट करता हो, उसका लक्ष्य सर्वोच्च होता है। इसे ही नगर – राज्य या राजनीतिक समुदाय कहा जाता है। अरस्तू के अनुसार समाज या सामाजिक संरचना में राज्य उच्चतम पदसोपान पर स्थित होता है।
प्राकृतिक विकास राज्य की विशेषता है; किन्तु प्रगति के विभिन्न चरणों में, मानव निर्मित कानूनों और परम्पराओं के माध्यम से हस्तक्षेप होता रहता है। हालांकि लोग इससे लाभान्वित हुए हैं और राज्य की कार्यप्रणाली अधिक सुविधाजनक हो गयी है। वास्तविकता यह है कि सरकार, जनजातियों, राजा, अन्य समूहों आदि किसी न किसी रूप में राज्य का अस्तित्व बना रहा है। इनके अस्तित्व से यह सिद्ध होता है कि मनुष्य राजनीतिक रूप से कार्य करते हैं। मनुष्य की इस प्रकृति ने राज्य से जुड़े लोगों के लिए शांति और समृद्धि सुनिश्चित करने में मदद की है। चाहे वह तकनीकी प्रगति हो, समृद्ध और शांतिपूर्ण समाज के निर्माण की बात हो या करुणा, प्रेम, सम्मान, सहानुभूति, सहिष्णुता आदि के साझा मानव मूल्यों का विकास हो; मनुष्य ने एक साथ रहकर जो भी प्राप्त किया है उसे बिना संगठित हुए प्राप्त करना असंभव था।
- परन्तु समान राजनीतिक प्रकृति जिसने मानव को एकीकृत किया है उसी ने उन्हें भी विभाजित कर दिया है। राष्ट्र-राज्यों के उदय ने समाज को विखंडित करने के साथ-साथ उन्हें विभिन्न सामाजिक समूहों के रूप में बाँट दिया है और जनसंख्या के एक बड़े भाग को शेष के समक्ष अवांछित बना दिया है। इसने विभिन्न लोगों को उनकी संस्कृति और रीति-रिवाजों से पूर्णतया अलग कर दिया है और उन्हें उन राज्यों के निरंकुश आदेशों को स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया है जिनसे वे संबद्ध महसूस नहीं करते हैं। इसने युद्ध, अलगाव, विद्रोह, आतंकवाद और शरणार्थियों की समस्याओं को जन्म दिया है। वैश्विक स्तर पर अपने देश की रक्षा करने के छलावे के नाम पर, समाज को बेहतर बनाने के लिए निर्मित समूह ही हिंसा का प्रचार कर रहे हैं।
- यह सरकारों और अन्य समूहों पर निर्भर करता है कि वे लोगों को निकट लाएं और एक ऐसे न्यायपूर्ण समाज का निर्माण करें जिसमें प्रत्येक व्यक्ति दूसरों के प्रति शांति, प्रेम, करुणा के सार्वभौमिक मानवीय मूल्यों को समझता हो और उन्हें स्वीकार करता हो। इसके साथ ही समाज को भी बदलना होगा क्योंकि “यदि समाज और संस्कृति में परिवर्तन होता है तभी राजनीति में भी परिवर्तन होगा”।
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