स्थानीय शासन: पंचायती राज संस्थाएं (LOCAL GOVERNMENT: PRIs)

73वें तथा 74वें संविधान संशोधन द्वारा देश की लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया में एक नए अध्याय को स्थापित किया गया। स्थानीय विकास के प्रबंध हेतु इन स्वशासी ग्राम पंचायतों एवं ग्राम सभाओं की स्थापना को 25 वर्ष हो गए हैं। इन संशोधनों द्वारा संविधान में दो भाग क्रमशः भाग 9 (पंचायत) तथा भाग 9A (नगरपालिकायें) अंत:स्थापित किए गए

इनकी महत्वपूर्ण विशेषताएं निम्नलिखित हैं:

  • ग्रामीण एवं नगरीय स्थानीय निकायों (ULBs) के गठन की अनिवार्यता: अनुच्छेद 243B के तहत सभी राज्यों/संघ शासित प्रदेशों में पंचायत की त्रि-स्तरीय प्रणाली का गठन किया जाएगा तथा जिन राज्यों की जनसंख्या 20 लाख या उससे कम है उन राज्यों में पंचायतों के दो स्तर होंगे। इसी प्रकार अनुच्छेद 243Q नगरीय क्षेत्रों में नगरपालिकाओं के सृजन का प्रावधान करता है।
  • अनुच्छेद 243G तथा अनुच्छेद 243W के तहत राज्य विधानमंडल द्वारा क्रमशः पंचायतों एवं नगरपालिकाओं को शक्तियों एवं कर्तव्यों के प्रत्यायोजन संबंधी प्रावधान शामिल किए गए। संविधान की अनुसूची 11 और 12 में क्रमशः पंचायती राज संस्थाओं (PRIs) तथा नगरपालिकाओं को सौंपे गए कार्यों की विस्तृत सूची प्रदान की गई है।
  • ऐतिहासिक रूप से वंचित समुदायों एवं महिलाओं को (33%) आरक्षण: कुछ राज्यों जैसे केरल, बिहार आदि ने स्थानीय संस्थाओं में महिला आरक्षण को 50% तक बढ़ा दिया है।
  • राज्य निर्वाचन आयोग (SECs): अनुच्छेद 243K के द्वारा पंचायतों हेतु निर्वाचक नामावली तैयार करने तथा निर्वाचनों के संचालन करने का नियंत्रण एक राज्य निर्वाचन आयोग में निहित गया है। यह प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक पांच वर्ष के पश्चात् नियमित चुनाव आयोजित किए जाएंगे।
  • जिला योजना समिति (DPC): अनुच्छेद 243ZD के तहत प्रत्येक राज्य में जिला स्तर पर, जिले में पंचायतों और नगरपालिकाओं द्वारा तैयार की गई योजनाओं का समेकन करने और सम्पूर्ण जिले के लिए एक विकास योजना का प्रारूप निर्मित करने हेतु एक जिला योजना समिति का गठन किया जाएगा।
  • राज्य वित्त आयोग: अनुच्छेद 243 और 243Y के अंतर्गत राज्य और स्थानीय निकायों के मध्य निधियों के वितरण के संदर्भ में अनुशंसाएं करने हेतु राज्यपाल द्वारा एक राज्य वित्त आयोग के गठन का प्रावधान है। यह आयोग ऐसे करों, शुल्कों, पथकरों और फीसों को निर्धारित करता है जो स्थानीय निकायों को समनुदिष्ट की जा सकती हैं या उनके द्वारा विनियोजित की जा सकती हैं। साथ ही यह राज्य की संचित निधि से सहायता अनुदान एवं स्थानीय निकायों की वित्तीय स्थिति को सुधारने के लिए आवश्यक अध्युपायों के बारे में राज्यपाल को सिफारिश करता है।

अरुणाचल प्रदेश की दो स्तरीय पंचायती राज प्रणाली

  • अरुणाचल प्रदेश की विधान सभा ने राज्य में पंचायतों के मध्यवर्ती स्तर अंचल समिति को समाप्त करने तथा दो स्तरीय
    पंचायती राज प्रणाली की स्थापना करने हेतु एक विधेयक पारित किया है। यह ग्राम पंचायतों तथा जिला परिषदों के मध्य प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित करके योजनाओं के नियोजन एवं कार्यान्वयन की तीव्रता को सुनिश्चित करेगा तथा अंचल समिति स्तर पर होने वाले योजनाओं के विलम्ब को समाप्त करेगा।
  • गोवा, मणिपुर, सिक्किम, दादरा एवं नागर हवेली, दमन एवं दीव तथा लक्षद्वीप में भी पंचायतों के मध्यवर्ती स्तर को गठित नहीं किया गया है।

पंचायती राज संस्थाएं (Panchayti Raj Institutions: PRIs)

PRIS से सम्बंधित मामले

कार्यकर्ताओं से सम्बंधित मुद्दे
(Issues related to functionaries)

ग्राम पंचायत स्तर पर मानव संसाधन से सम्बंधित चिंता के विषय

  • उत्तरदायित्व का अभाव- ग्राम पंचायत के स्तर पर कार्मिक अधिकांश मामलों में ग्राम पंचायत तथा ग्राम सभा (GS) के प्रति
    उत्तरदायी नहीं होते हैं, जबकि वे उस स्तर पर शिक्षा, स्वास्थ्य तथा आजीविका सृजन करने जैसी महत्त्वपूर्ण सेवाएं प्रदान करते हैं।
  • क्षमताओं का अभाव- इनमें बहु-कार्य (multi-task) करने या अन्य दायित्वों के निर्वहन संबंधी क्षमताओं का विकास एक निश्चित समयावधि में नहीं किया जा सकता है।
  • ग्राम पंचायत स्तर पर कार्यवाहियों के क्षैतिज और ऊध्र्वाधर समन्वय का अभाव विद्यमान है। विभिन्न विभागों और योजनाओं के विशिष्ट अधिदेशों के अंतर्गत नियुक्त होने के कारण उनका ऊध्र्वाधर एकीकरण सुनिश्चित नहीं किया जा सका है।
  • निगरानी का अभाव- मौजूदा नियमों के उल्लंघन की जांच हेतु सुव्यवस्थित निगरानी तंत्र का अभाव है। विशेष रूप से ग्राम पंचायतों के निर्वाचित प्रतिनिधियों में प्रशासनिक अनुभव के अभाव की स्थिति में सरकारी कर्मचारियों पर निर्भरता में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। इस कारण कर्मचारियों द्वारा इस स्थिति का अनुचित दोहन (exploitation) किया जा सकता है अथवा निर्वाचित
    प्रतिनिधियों एवं अधिकारियों के मध्य संघर्ष उत्पन्न हो सकता है।
  • राज्यों के मध्य भिन्नता- नियुक्ति के सन्दर्भ में विभिन्न राज्यों के मध्य व्यापक विविधता पाई जाती है, जैसे- योग्यता एवं भर्ती के
    तरीके, अवधि, पारिश्रमिक, यात्रा-भत्ते तथा एकसमान कैडरों के लिए अन्य भिन्न परिस्थतियाँ। इसके अतिरिक्त, अधिकांश राज्यों में मानव संसाधन नीति का अभाव है।
  • पारिश्रमिक में भिन्नता- अन्य विभागों द्वारा अतिरिक्त कार्य के लिए अतिरिक्त पारिश्रमिक का भुगतान नहीं किया जाता, परिणामस्वरूप कर्मचारियों का एक राज्य से दूसरे राज्य में तथा कभी-कभी एक योजना से दूसरी योजना में स्थानान्तरण हो जाता
  • अधिकांशतः राज्यों में कोई HR नीति नहीं: वर्तमान में हरियाणा और राजस्थान जैसी कुछ सरकारों ने पंचायती राज संस्थाओं (PRI) के चुनावों में भाग लेने हेतु शैक्षणिक योग्यता के प्रावधान किये हैं; किन्तु किसी भी राज्य में पंचायतों में गैर -निर्वाचित
    कर्मियों की नियुक्ति के संबंध में स्पष्ट नियम नहीं हैं।

निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के समक्ष चुनौतियाँ

स्थानीय राजनीतिक संस्थाओं में महिलाओं की भागीदारी में सुधार हुआ है और यह वर्तमान में 44% (अखिल भारतीय औसत) है। हालांकि, उन्हें अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है।

  • निरक्षरता और नेतृत्व कौशल की कमी जो उन्हें अपने विचारों को मजबूती के साथ प्रकट करने या खुले रूप से व्यक्त करने में बाधा
    उत्पन्न करती है। साथ ही सामाजिक मिथकों और पूर्वाग्रहों के साथ-साथ न बोलने की परंपरा के कारण, पंचायत कार्यवाही के
    दौरान महिलाएं अधिकांशतः चुप ही रहती हैं।
  • महिलाओं के पंचायतों में निर्वाचन के पश्चात् भी विभिन्न कारणों जैसे प्राधिकार की कमी और पुरुष वर्चस्व के कारण, पंचायत में
    उनका अधिकांश कार्य उनके पतियों द्वारा किया जाता है।
  • पारिवारिक सदस्यों के हतोत्साहित करने वाले रवैये के कारण पंचायत की बैठकों में महिला प्रतिनिधि सामान्य रूप से अनुपस्थिति
    ही रहती हैं।
  • महिलाओं में सामान्यतः PRIs के ढाँचे और कार्यों के बारे में जानकारी का अभाव तथा राजनीतिक प्रक्रियाओं में भागीदारी के मामले में पूर्व अनुभव का अभाव भी होता है। यह महिलाओं की नेतृत्वकर्ता के रूप में संवृद्धि और विकास को बाधित करता है।

वित्त से संबंधित मुद्दे (Issues Related To Finances)

  • अपर्याप्त स्थानीय राजस्व सृजन: स्थानीय निकायों द्वारा उस सीमा तक करों से राजस्व का संग्रह नहीं किया गया है जिस सीमा तक
    उन्हें करना चाहिए था। इसे आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18 द्वारा “निम्न संतुलन जाल (Low Equilibrium Trap)” के रूप में रेखांकित किया गया है। इसके निम्नलिखित कारण हैं:
  • कई राज्य सरकारों द्वारा पंचायतों को पर्याप्त करारोपण की शक्ति प्रदान नहीं की गयी है।
  • यहाँ तक कि यदि राज्यों द्वारा इस शक्ति को हस्तांतरित भी किया गया है तब भी स्थानीय लोगों से कर प्राप्त करने की उनकी अनिच्छा के कारण राजस्व संग्रहण बहुत कम रहा है। इस प्रकार स्थानीय निकाय निधि हस्तांतरण पर निर्भर रहते हैं।
  • इनके द्वारा आवधिक रूप से कर की दरों को संशोधित भी नहीं किया जाता है।
  • वित्तीय संस्थाओं से ऋण प्राप्त करने की अनिच्छा: सार्वजनिक अवसंरचना तथा सेवा वितरण हेतु ऋण प्राप्त करने में सशक्त होने के बावजूद अनेक ग्राम पंचायतों ने ऋण प्राप्त नहीं किया है। परिणामस्वरूप पंचायतें प्रभावी तरीके से दीर्घकालिक योजना नहीं बना पाती हैं।
  • राज्य वित्त आयोग की अनुशंसाओं को कार्यान्वित न करना: राज्य सरकार पर गैर-बाध्यकारी होने के कारण इन अनुशंसाओं को
    अक्षरश: लागू नहीं किया जाता है।

मुख्य तथ्य

  • 25 वर्षों के बाद भी, स्थानीय शासन का व्यय केंद्र, राज्य एवं स्थानीय शासन के कुल सार्वजनिक क्षेत्र व्यय का केवल 7% रहा
    है। उल्लेखनीय है कि यह व्यय यूरोप में 24%, उत्तरी अमेरिका में 27% तथा डेनमार्क में 55% है।
  • कुल सार्वजनिक क्षेत्र के स्वयं के स्रोत से प्राप्त राजस्व में स्थानीय शासन के स्वयं के स्रोत से प्राप्त राजस्व की भागीदारी केवल
    2% से कुछ अधिक रही है और इसमें भी पंचायतों का हिस्सा केवल 0.3% है।

प्रकार्यों से संबंधित मुद्दे (Issues Related To Functions)

  • विभिन्न स्तरों के मध्य प्रकार्यों का अवैज्ञानिक वितरण: पंचायती राज संस्थाओं को राज्यों द्वारा प्रकार्यों एवं प्राधिकारों का वास्तविक हस्तांतरण बहुत कम किया गया है। कई राज्यों में स्थानीय शासन की भूमिका के महत्त्व को मूल्यांकित किये जाने के बावजूद इनकी भूमिका और उत्तरदायित्वों को सही ढंग से परिभाषित नहीं किया गया है।
  • समानांतर निकायों का सृजन (प्राय: मंत्रियों और वरिष्ठ नौकरशाहों का वर्चस्व): PRIs के समानांतर निकायों का विधायी अनुमोदन विकेंद्रीकृत लोकतंत्र की कमजोर होती प्रक्रिया को वैधता प्रदान करता है। उदाहरणार्थ हरियाणा की ग्रामीण विकास एजेंसी (RDA) ने पंचायतों के कार्यात्मक अधिकार क्षेत्र में प्रवेश किया है परिणामतः भ्रांति, कार्यों का दोहराव तथा उत्तरदायित्वों के निर्वहन से बचना आदि स्थितियां उत्पन्न होती हैं।
  • पंचायती राज संस्थाओं का राजनीतिकरण तथा उनका सरकारी एजेंसियों के रूप में प्रतीत होना: केंद्र और राज्य सरकार की विभिन्न विकासात्मक योजनाओं के क्रियान्वयन का उत्तरदायित्व तथा इनसे संबंधित अनुदानों पर उनकी निर्भरता उनकी स्वायत्तता को कम करती है तथा उन्हें एक प्रकार से सरकारी एजेंसियों के रूप परिवर्तित कर देती है। राज्य स्तर पर शासन कर रहे राजनीतिक दल पंचायती राज संस्थाओं को स्वायत्तता प्रदान करने से बचते हैं। इसके अतिरिक्त वे इन्हें अपनी संगठनात्मक शाखा के रूप में मानते हैं, जिसके परिणामस्वरूप इनके प्रतिदिन के कार्यों में निरंतर हस्तक्षेप किया जाता है तथा नियुक्तियों का राजनीतिकरण हो
    जाता है।
  • कमजोर और अकुशल जिला योजना समितियां (DPCs): कई राज्यों में ये समितियां अत्यंत कमजोर स्थिति में हैं। इसके अतिरिक्त
    कई राज्यों में इनका गठन भी नहीं किया गया है। उदाहरण के लिए गुजरात जैसे राज्यों में जिला योजना समिति की स्थापना तक नहीं की गई है।

पंचायती राज संस्थाओं हेतु सरकार द्वारा उठाए गए कदम (Steps Taken By Government For PRIS)

  • महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता में सुधारः महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा पंचायती राज संस्थाओं की निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों (EWRs) के लिए क्षमता निर्माण कार्यक्रम” पर एक परियोजना का कार्यान्वयन किया जा रहा है।
  • यह कार्यक्रम महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के तत्वावधान में कार्यरत एक स्वायत्त निकाय ‘राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल
    विकास संस्थान द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है।
  • इसके तहत सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों के बेहतर कार्यान्वयन के लिए EWRs के नेतृत्वकारी गुणों एवं प्रबंधन कौशल में
    सुधार करते हुए उनका परिवर्तनकारी एजेंटों के रूप में विकास करने पर ध्यान केन्द्रित किया जा रहा है।

महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण की आवश्यकता

  • भारत में एक स्वस्थ लोकतंत्र की स्थापना: इसके लिए लगभग आधी जनसंख्या अर्थात् महिलाओं के मानव अधिकारों और निर्णय निर्माण प्रक्रिया में उन्हें सुने जाने के अधिकार सहित अन्य अधिकारों का सम्मान किये जाने की आवश्यकता है। दूसरे शब्दों में, महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण की आवश्यकता है।
  • निर्धनता से निपटना: महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण के परिणामस्वरूप भारत में निर्धनता चक्र को समाप्त किया जा सकता है क्योंकि इससे महिलाएं बच्चों के स्वास्थ्य, शिक्षा तथा प्रशिक्षण पर अधिक निवेश का चयन करेंगी। ज्ञातव्य है कि बच्चों और जनसंख्या के कमजोर वर्गों की सुरक्षा और उनके संरक्षण को सुनिश्चित करने में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी सहभागिता भलीभांति स्वीकार की गई है।
  • समाज में अपराधों से निपटना: इसके परिणामस्वरूप नागरिक चर्चाओं में महिलाओं की सहभागिता में वृद्धि होगी और इससे
    महिलाओं और अल्पसंख्यकों द्वारा उनके विरुद्ध अपराध की घटनाएँ को रिपोर्ट करने की संभावना अधिक हो जाती है।

पंचायतों में कर्मचारियों के भर्ती संबंधी नियम:

केंद्र सरकार शीघ्र ही पंचायतों में गैर-निर्वाचित कर्मचारियों की भर्ती के संबंध में दिशानिर्देश जारी करने की योजना बना रही है। पंचायती राज मंत्रालय तथा ग्रामीण विकास मंत्रालय ने 5000 की जनसंख्या वाली ग्राम पंचायतों या ग्राम पंचायतों के समूहों हेतु कम से कम एक पंचायत विकास अधिकारी (PDO) / सचिव, एक तकनीकी सहायक (TA) तथा एक अकाउंटेंट की अनुशंसा हेतु परिपत्र भी जारी किया है। समर्पित कर्मियों के परिणामस्वरूप नियमित ऑडिट रिपोर्टो, खातों के विवरणों आदि के माध्यम से निधियों व सेवाओं की आपूर्तियों बेहतर उपयोग होगा तथा अधिक उत्तरदायित्व सुनिश्चित किया जा सकेगा।

  •  बढ़ते कार्यभार से निपटने हेतु उन्हें साधन सम्पन्न बनाना: हाल ही में सुमित बोस समिति ने अपनी रिपोर्ट “ग्रामीण विकास
    कार्यक्रमों में बेहतर परिणामों के लिए निष्पादन आधारित भुगतान” इस हेतु अनुशंसा की थी।
  • पंचायती राज संस्थाओं को राजीव गाँधी पंचायत सशक्तिकरण अभियान के माध्यम से सुदृढ़ करना: यह एक केंद्र प्रायोजित योजना है जिसका उद्देश्य ग्रामीण स्थानीय निकायों को आत्मनिर्भर,वित्तीय रूप से स्थिर तथा अधिक सक्षम बनाना है।
  • पंचायती राज संस्थाओं की क्षमताओं में वृद्धि करना: सरकार ने ग्राम पंचायतों की क्षमताओं में वृद्धि करने तथा परिणामों में सुधार लाने हेतु मिशन अन्त्योदय का शुभारंभ किया। यह कार्य प्रभावी सामाजिक पूँजी, PRIs के क्षमता निर्माण, भागीदारी नियोजन को प्रोत्साहन, योजनाओं के कार्यान्वयन आदि के माध्यम से किया जाएगा।

सुमित बोस समिति की अनुशंसाएं

  • मानव संसाधन हेतु: प्रत्येक पंचायत में सामान्य प्रशासन तथा विकास कार्यों, दोनों के निष्पादन हेतु एक पूर्णकालिक सचिव की नियुक्ति की जानी चाहिए। मौजूदा ग्राम रोजगार सेवकों को आवश्यक अभियांत्रिक कार्यों, जैसे कि जल आपूर्ति और । स्वच्छता से संबंधित अभियांत्रिक कार्यों को करने हेतु औपचारिक रूप से प्रशिक्षित करना चाहिए।
  • सामाजिक उत्तरदायित्व हेतु: ग्राम सभाओं की बैठकों का आयोजन नियमित होना चाहिए तथा यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि इन बैठकों की सूचना बैठक के सात दिन पहले ही लोगों तक पहुँच जाए। इसके अतिरिक्त पंचायतों का सहभागितापूर्ण नियोजन और बजटिंग, अग्र-सक्रिय प्रकटीकरण, सामाजिक लेखा परीक्षण इत्यादि किया जाना चाहिए।
  • सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी का अत्यधिक उपयोग: पंचायतों को स्थानीय नियोजन और प्रगति की निगरानी, ई-खरीद सहित वित्तीय प्रबंधन, कार्य के प्रबंधन एवं मूल्यांकन, कैशबुक के इलेक्ट्रॉनिक रखरखाव आदि से संबंधित डाटाबेस के रखरखाव हेतु केवल ट्रांजैक्शन बेस्ड सॉफ्टवेयर (transaction-based software) का प्रयोग करना चाहिए।
  • निगरानी प्रदर्शन: ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के माध्यम से सृजित सभी संपत्तियों के लिए मानक विकसित किए जाने चाहिए। इसके साथ-साथ क्षेत्र, जनसंख्या, कर्मचारियों तथा पंचायत कार्यालय के लिए आवश्यक अवसंरचना की उपलब्धता एवं अन्य को शामिल करते हुए अनिवार्य आकंड़ों को संकलित किया जाना चाहिए।

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