न्यायिक जवाबदेही (Judicial Accountability)
एक मेडिकल कॉलेज से जुड़े रिश्वत के मामले में उच्चतम न्यायालय तथा भारत के मुख्य न्यायाधीश की प्रतिष्ठा एवं विश्वसनीयता पर प्रश्न उठाए गए।
न्यायिक जवाबदेही से संबंधित मुद्दे
- न्यायिक भ्रष्टाचार से निपटने के लिए विधायी तंत्र में अपर्याप्तता: न्यायाधीशों को अपराधी घोषित करने तथा उन पर अभियोजन
चलाने के समक्ष, भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 77 और न्यायाधीश (संरक्षण) अधिनियम, 1985 जैसी विधायी समस्याएं
विद्यमान हैं। - न्यायिक जवाबदेही बनाम न्यायपालिका की स्वतंत्रता: न्यायाधीशों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI)
द्वारा की जाने वाली जांच का दुरुपयोग न्यायाधीशों के विरुद्ध किया जा सकता है, जो न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर कर
सकती है। - महाभियोग की प्रक्रिया से संबंधित समस्याएं: यह एक दीर्घकालिक एवं जटिल प्रक्रिया है जिसके राजनीतिक निहितार्थ भी हो सकते
- न्यायाधीशों द्वारा न्यायाधीश की नियुक्ति: भारत में कॉलेजियम प्रणाली न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक विशिष्ट प्रणाली को स्थापित करती है। जिसमें लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित कार्यपालिका तथा संसद को न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में कोई अधिकार प्राप्त नहीं है।
- न्यायपालिका को सूचना के अधिकार (RTI) के दायरे से बाहर रखे जाने के कारण न्यायाधीशों तथा न्यायपालिका द्वारा अपनी संपत्तियों घोषणा न करना।
प्रभावी न्यायिक जवाबदेही हेतु सुझाव और सुधार
- उच्चतर न्यायपालिका की प्रतिष्ठा की सुरक्षा हेतु कानूनी रूप से बाध्यकारी मानकों की एक श्रृंखला को स्थापित करने और न्यायाधीशों के विरुद्ध की गई लोक शिकायतों पर कार्रवाई करने हेतु नई संरचना को स्थापित करने की आवश्यकता है। इस संरचना की स्थापना हेतु न्यायिक मानक तथा जवाबदेही विधेयक, 2010 के अनुरूप एक नया न्यायिक मानक तथा जवाबदेही विधेयक प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
- एक द्वि-स्तरीय न्यायिक अनुशासन प्रणाली को स्थापित किया जाना चाहिए:
- प्रथम स्तर को अनुशासनात्मक तंत्र का रूप दिया जाना चाहिए जिसके अंतर्गत न्यायाधीशों को कदाचार के लिए चेतावनी,
अर्थदंड अथवा निलंबन जैसे उपायों का प्रयोग किया जाना चाहिए। साथ ही उन्हें प्रतिरक्षा हेतु कुछ सीमित उपाय भी प्रदान किए जा सकते हैं; और - द्वितीय स्तर के अंतर्गत न्यायाधीशों को भ्रष्टाचार समेत उनके गंभीर दुर्व्यवहार के लिए पद से हटाया जा सकता है।
- यह भी आवश्यक है कि न्यायिक जवाबदेही के प्रयोजन को न्यायिक नैतिकता तथा न्यायिक कदाचार से संबंधित मुद्दों से भी अधिक व्यापक बनाया जाना चाहिए। इसके साथ ही एक नए न्यायिक मानक एवं जवाबदेही विधेयक को अंगीकृत कर “दक्षता और पारदर्शिता” संबंधित मुद्दों को भी इसके दायरे में लाया जाना चाहिए।
- सार्वजानिक महत्व के मामलों से संबंधी कार्यवाहियों का सीधा प्रसारण (लाइव स्ट्रीमिंग): 2004 से ही संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) की कार्यवाहियों के सीधे प्रसारण की अनुमति दी गयी है। कनाडा और ऑस्ट्रेलिया के उच्चतम न्यायालयों के साथ-साथ कुछ अंतरराष्ट्रीय न्यायालयों विशेषतः इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में भी कार्यवाहियों की वीडियो रिकॉर्डिंग की जाती है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि सीधे प्रसारण की यह प्रक्रिया न तो नवीन है और न ही इतनी जटिल। अतः न्यायालयों की कार्यवाहियों का भी सीधा प्रसारण किया जाना चाहिए।
- न्यायाधीशों के विरुद्ध शिकायतों को स्वीकार करने तथा कार्यवाही प्रारम्भ करने की शक्ति के साथ एक स्वतंत्र न्यायिक लोकपाल गठित किया जाना चाहिए ताकि न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित की जा सके। यह न्यायपालिका तथा सरकार दोनों से
स्वतंत्र होना चाहिए।
न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक, 2010
- इसके तहत राष्ट्रीय न्यायिक पर्यवेक्षण समिति, शिकायत संवीक्षा (कम्प्लेंट्स स्क्रूटनी) पैनल तथा एक जांच समिति की स्थापना का प्रावधान किया गया है। कोई भी व्यक्ति न्यायाधीश के विरुद्ध ‘कदाचार’ के आधार पर पर्यवेक्षण समिति के पास अपनी शिकायत दर्ज कर सकता है।
- कदाचार के आधार पर न्यायाधीश को पद से हटाने के लिए प्रस्ताव को भी संसद में लाया जा सकता है। इस प्रकार के प्रस्ताव को आगे की जांच के लिए पर्यवेक्षण समिति को सौंपा जा सकता है।
- पर्यवेक्षण समिति न्यायाधीशों को परामर्श या चेतावनी जारी करने के साथ-साथ उन्हें पद से हटाने के लिए राष्ट्रपति को अनुशंसा कर सकती है।
न्यायिक जवाबदेहिता और सूचना का अधिकार अधिनियम (Judicial Accountability & RTI Act)
उच्च न्यायालय द्वारा केंद्रीय सूचना आयुक्त के उस आदेश को निरस्त कर दिया गया जिसमें कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय के नियम RTI अधिनियम के सन्दर्भ में असंगत है।
न्यायपालिका और RTI अधिनियम
- RTI के अंतर्गत न्यायपालिका से सूचना प्राप्त करने हेतु दायर की गयी अनेक याचिकाओं के संबंध में भी SC के नियमों को लागू
करने के लिए कहा गया है। इसके अतिरिक्त, विभिन्न न्यायालयों द्वारा इस संबंध में स्वयं की नियमावली स्थापित की गयी है जिसके तहत अनेक प्रतिबंधों का प्रावधान किया गया है। - हालांकि, न्यायपालिका को RTI की धारा 2 (h) के तहत सार्वजनिक प्राधिकरणों (Public Authorities) की परिभाषा में शामिल किया गया था किन्तु अधिनियम के लागू होने के काफी समय बाद भी अधिकांश उच्च न्यायालयों द्वारा जनसूचना अधिकारियों (PIOs) की नियुक्ति नहीं की गई है। जोकि लोगों के सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।
हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय के नियमों ने चार प्रमुख आधारों पर RTI को सीमित किया है। RTI अधिनियम के विपरीत, ये नियम निम्नलिखित का प्रावधान नहीं करते:
- सूचना प्राप्त करने के लिए नियत समय सीमा
- एक याचिका तंत्र ।
- विलम्ब से या गलत सूचना देने के लिए दंड का प्रावधान
- गुड कॉज शो (Good cause show) के अंतर्गत प्रासंगिक विषयों की सूचना
संक्षेप में, न्यायपालिका द्वारा अपने विवेक से दी जाने वाली सूचनाओं के कारण निश्चित रूप से RTI के नियमों का उल्लंघन होता हैं।
- RTI एक्ट की धारा 23 के अनुसार किसी भी न्यायालय को यह अधिकार नहीं है की वह किसी वाद याचिका की सुनवाई करे परन्तु विरोधाभास यह है कि संविधान उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय को ये शक्ति प्रदान करता है की वह किसी भी प्रकार की याचिका पर सुनवाई कर सकते हैं।
- वहीं सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णय दिया है कि न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल का निर्णय अंतिम होगा। यह निर्णय केंद्रीय सूचना आयोग को की गई किसी भी स्वतंत्र अपील के अधीन नहीं होगा। इन मुद्दों ने न्यायाधीशों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए
न्यायपालिका को RTI अधिनियम के दायरे में लाने के पक्ष में तर्क:
- इससे न्यायपालिका में भाई-भतीजावाद और स्वेच्छाचारिता की गतिविधियों पर अंकुश लगाकर न्यायाधीशों की नियुक्ति के संबंध में पारदर्शिता में वृद्धि होगी।
- न्यायालय में लंबित मामलों की सदैव आलोचना होती रही है। लंबित मामलों के समयबद्ध निपटान के लिए RTI सहायक सिद्ध हो सकता है।
- इसके माध्यम से न्यायपालिका की जवाबदेही में वृद्धि होगी क्योंकि न्यायाधीश अपने निर्णयों के लिए उत्तरदायी होंगे।
- न्यायपालिका की कार्यपद्धति के विषय में सूचना प्राप्त करने से न्यायपालिका पर जन-सामान्य के विश्वास में वृद्धि होगी।
- प्रसिद्ध राज नारायण बनाम इंदिरा गाँधी मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह निर्देश देते हुए सूचना के अधिकार की नींव रखी गयी कि, ‘जन सामान्य को सभी प्रकार के सार्वजनिक विषयों पर सूचना प्राप्त करने का अधिकार है, जो उसे अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की अवधारणा से प्राप्त होता है। हालांकि, न्यायपालिका द्वारा स्वयं सूचना के अधिकार को सीमित किया गया है। अतः
यह आवश्यक है कि सर्वोच्च न्यायालय इस वाद में दिए गये अपने निर्देश के अनुरूप कार्य करे।
विपक्ष में तर्क:
- कुछ विषयों में यह गोपनीयता और सुरक्षा के लिए चुनौती उत्पन्न कर सकता है, जो देश के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
- यह संविधान द्वारा निर्दिष्ट न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सीमित कर सकता है और न्यायपालिका के राजनीतिकरण को बढ़ावा दे
सकता है। - इससे न्यायालयों के कार्य में अतिरिक्त वृद्धि हो सकती है और न्यायिक नियुक्तियों एवं स्थानांतरण में विलम्ब हो सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि संघर्ष से बचने के लिए न्यायपालिका द्वारा अधिक सतर्कतापूर्ण दृष्टिकोण अपनाया जा सकता है।
आगे की राह
उच्च न्यायपालिका को निम्नलिखित सीमाओं के साथ RTI एक्ट के अंतर्गत लाया जा सकता है:
- विचाराधीन मामले, जिनके संबंध में दी गई सूचना न्यायाधीश के निर्णय को प्रभावित कर सकती है।
- राष्ट्र की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए आवश्यक गोपनीय सूचनाएँ।
- ऐसी सूचना जो सार्वजनिक महत्व की न हो और जो किसी भी प्रकार से व्यक्ति को प्रभावित न करती हो।